उद्योग: औद्योगिक विकास का इतिहास Industry: History of the Industrial Development

भारत में एक संगठित प्रतिरूप पर आधारित आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र की शुरूआत 1854 में देशी पूंजी व उद्यम प्रधान मुंबई वस्त्र उद्योग की स्थापना से हुई। 1855 में हुगली घाटी में रिशरा नामक स्थान पर जूट उद्योग की स्थापना की गयी, जिसमें विदेशी पूंजी व उद्यम का बाहुल्य था। 1853 में रेल परिवहन की आधारशिला रखी गयी। 1870 में बालीगंज (कोलकाता के निकट) में देश के प्रथम कागज कारखाने की स्थापना की गयी। 1875 में आधुनिक पद्धतियों का प्रयोग करते हुए कुल्टी में पहली बार इस्पात का निर्माण किया गया। 1907 में टाटा आयरन एवं स्टील कपनी द्वारा जमशेदपुर में कार्य करना आरंभ किया गया।

दो विश्व युद्धों ने लौह व इस्पात, चीनी, सीमेंट, कांच, रासायनिक तथा अन्य उपभोक्ता वस्तु उद्योगों को विकास का एक अवसर उपलब्ध कराया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद औद्योगिक नीति में सामाजार्थिक उद्देश्यों- रोजगार निर्माण, उच्च उत्पादकता, क्षेत्रीय विकास असंतुलन की समाप्ति, कृषि आधार की मजबूती, निर्यातोन्मुखी उद्योगों को प्रोत्साहन तथा उपभोक्ता संरक्षण इत्यादि की पूर्ति पर बल दिया गया। पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना की उच्च वरीयता दी गयी। 1948 एवं 1956 की औद्योगिक नीतियां भारत में औद्योगिक विकास की दिशा का संकेत देती हैं। औद्योगीकरण की प्रक्रिया प्रथम पंचवर्षीय योजना के साथ आरंभ की गयी, जो अन्य परवर्ती योजनाओं के दौरान निरंतर चलती रही है।

पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान औद्योगिक विकास

पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56)

पहली पंचवर्षीय योजना कृषि संबंधी विकास पर केन्द्रित थी, जहां औद्योगिक क्षेत्र चिंतित था। औद्योगिक विकास मुख्य रूप से उपभोक्ता वस्तु उद्योगों तक सीमित था और इनमें महत्वपूर्ण उद्योग थे-सूती वस्त्र, सीमेंट, चीनी, चमड़े का सामान, कागज, औषधि, रसायन इत्यादि मध्यवर्ती उद्योग।

दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61)


इस काल में विकास दर के साथ-साथ उद्योगों के विविधीकरण पर भी जोर दिया गया। भिलाई, दुर्गापुर व राउरकेला में सार्वजनिक क्षेत्र के तीन नये इस्पात संयंत्रों की स्थापना की गयी। निजी क्षेत्र की क्षमता बढ़ाने के प्रयास भी किये गये। भारी एवं आधारभूत उद्योगों को प्राथमिकता दी गयी। रसायन उद्योगों, जैसे-नाइट्रोजनी उर्वरक, कास्टिक सोडा, सोडा भस्म, तथा सल्फ्यूरिक अम्ल इत्यादि के भविष्यकालीन विस्तार को ध्यान में रखकर विशेष प्रोत्साहन दिया गया। शहरों के निकटवर्ती क्षेत्रों में अनेक नये औद्योगिक कस्बों का उदय हुआ।

फिर भी कई उद्योगों द्वारा अपेक्षित लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका, जिनमें लौह व इस्पात, रसायन तथा भारी मशीन उपकरण उद्योग शामिल थे। इसका मुख्य कारण क्षमता का त्रुटिपूर्ण आकलन करना तथा कई संयंत्रों के निर्माण में अनावश्यक विलंब करना था।

तीसरी एवं चौथी पंचवर्षीय योजनाएं (1961-74)

वर्ष 1962, 1965 एवं 1971 के युद्धों तथा 1965-67 के अकाल संकट के कारण इस अवधि के दौरान औद्योगिक विकास की गति बाधित हुई। अधिकांश उद्योगों को कच्चे माल की कमी का सामना करना पड़ा। किंतु 1971 के बाद स्थिति में सुधार आता गया।

लौह व इस्पात, खनन एवं शक्ति उत्पादन में नयी क्षमताएं सृजित की गयीं। रेल एवं सड़क परिवहन के क्षेत्र में देश आत्मनिर्भर बन गया। कपड़ा, चीनी तथा सीमेंट जैसे परंपरागत उद्योगों की मशीनरी निर्माण क्षमता में व्यापक सुधार हुआ तथा डिजायन व अभियांत्रिकी क्षमताओं का विस्तार किया गया। चतुर्थ योजना में औद्योगिक संरचना में व्याप्त असंतुलन को कम करने तथा उपलब्ध क्षमता का अधिकतम उद्योग करने पर सर्वाधिक बल दिया गया। उर्वरकों, कीटनाशकों पेट्रोरसायनों तथा अलौह धातुओं, लौह-अयस्कों, पाइराइट एवं रॉक फास्फेट स्रोतों के विकास इत्यादि को उच्च प्राथमिकता दी गयी।

तीसरी योजना के दौरान लौह व इस्पात के उत्पादन में अल्पकालिक गिरावट देखी गयी, जबकि एल्युमिनियम, कपड़ा उद्योग मशीनरी, मशीन उपकरण, चीनी, जूट एवं पेट्रोलियम आदि उद्योगों का निष्पादन प्रशंसनीय रहा। चौथी योजना के दौरान भी लौह-इस्पात एवं उर्वरकों का उत्पादन स्थापित क्षमता से काफी नीचे रहा। चीनी एवं कपड़ा उद्योगों के उत्पादन में अनियमितता देखी गयी जबकि विशेष इस्पात व मिश्र धातु, एल्युमिनियम, पेट्रोलियम शोधन, ट्रैक्टर एवं अन्य भारी विद्युत उपकरण उद्योगों द्वारा वृद्धि दर्शायी गयी। तीसरी एवं चौथी योजना के दौरान औद्योगिक लक्ष्यों को प्राप्त न कर पाने के पीछे निम्नलिखित कारण मौजूद थे-

  1. औद्योगिक इकाइयों (इस्पात व उर्वरक) की प्रचालन समस्याएं
  2. रख-रखाव की कमी (इस्पात एवं उर्वरक)
  3. त्रुटिपूर्ण डिजायन (पूंजीगत सामान)
  4. निवेश में गिरावट (पूंजीगत सामान)
  5. इस्पात एवं अलौह धातुओं की कमी (अभियांत्रिकी उद्योग)
  6. बिजली, कोयला एवं परिवहन की कमी
  7. असंतोषजनक औद्योगिक सम्बंध
  8. निर्माण सामग्री की कमी
  9. प्रबंधकीय, तकनीकी एवं प्रशासनिक क्षमताओं के निर्माण में देरी

पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-75-1977-78)

पांचवीं योजना के दौरान निर्यातोन्मुखी तथा उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन एवं कोर क्षेत्र के उद्योगों के विकास पर सर्वाधिक बल दिया गया। इस समय पेट्रोलियम मूल्यों में वृद्धि के कारण विश्व में आर्थिक संकट छाया हुआ था। इसी कारण भारत में खाद्यान्नों व उर्वरकों के मूल्य में तेजी से बढ़ोतरी हुई। इन सभी कारकों ने योजना द्वारा निर्धारित औधोगिक निवेश लक्ष्यों को बुरी तरह से प्रभावित किया।

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85)

इस काल की औद्योगिक नीति में मौजूदा क्षमताओं के विवेकपूर्ण दोहन, पूंजीगत एवं उपभोक्ता सामानों में मात्रात्मक वृद्धि तथा उत्पादकता में सुधार पर विशेष जोर दिया गया। एल्युमीनियम, सीसा, जिंक, विद्युत उपकरण एवं ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में क्षमता सृजन के लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया गया, जबकि मशीनी उपकरण, यात्री कार, मोटरसाइकिल, स्कूटर, टेलिविजन रिसीवर इत्यादि के निर्माण में उत्पादन लक्ष्यों को भी पूरा कर लिया गया। इस काल में इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग का तेजी से विकास हुआ। देश में सूक्ष्म कप्यूटरों, माइक्रो प्रोसेसरों, संचार उपकरणों, प्रसारण एवं टेलीविजन ट्रांसमिशन उपकरणों का उत्पादन आरम्भ हो गया।

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90)

इस योजना अवधि के दौरान अपनायी गयी औद्योगिक नीति का उद्देश्य सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास प्राप्त करना, उत्पादकता में सुधार लाना, उचित मूल्यों पर गुणवत्तापूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति को सुनिश्चित करना तथा उद्योगों का तकनीकी उन्नयन करना था। इस काल में कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा अन्य नवोदित उद्योगों को व्यापक महत्व दिया गया ताकि घरेलू मांग की पूर्ति के साथ-साथ इनका निर्यात भी किया जा सके। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की प्राप्ति की भी उच्च प्राथमिकता दी गयी।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97)

इस योजनाकाल की शुरूआत उदारीकरण एवं भूमंडलीय के युग में हुई। उन्नीस सौ इक्यानवे की नयी आर्थिक नीति तथा तद्नुरूप औद्योगिक नीति द्वारा नियोजित उपागम से एक तीव्र विस्थापन को चिन्हित किया गया। कुछ संवेदनशील क्षेत्रों को छोड़कर उद्योग क्षेत्र में लाइसेंसिंग प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। निवेश पर लगे प्रतिबंध हटा दिये गये तथा विदेशी निवेश को प्रोत्साहित (विशेषतः आधार संरचना, उच्च तकनीक तथा निर्यातोन्मुख क्षेत्रों में) किया गया।

नई नीति के अनुरूप बाजार पर बढ़ती व्यापक निर्भरता के परिणामस्वरूप निजी क्षेत्र को विद्युत, संचार, खनन, उर्वरक तेल व कोयला, पेट्रोरसायन, भारी पूंजीगत सामान तथा वाणिज्यिक सेवाओं के क्षेत्र में निवेश करने की व्यापक जिम्मेदारी सौंपी गयी। नयी नीति के परिणामतः निजी उद्योगों के नियोजन के सम्बंध में लक्ष्यों का मात्र संकेत दिया गया, जबकि पहले लक्ष्यों को पूर्व में ही तय कर दिया जाता था । इस प्रकार आठवीं योजना में औद्योगिक पुनर्संरचना पर बल दिया गया ताकि एक अधिक खुले एवं प्रतिस्पर्द्धी वातावरण में निजी उद्यम व पहल, उत्तम संगठनात्मक क्षमता, उन्नत तकनीक एवं विदेशी निवेश के माध्यम से औद्योगिक क्षेत्र के संसाधनों का विस्तार और बेहतर उपयोग किया जा सके।

नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002)

नौवीं पंचवर्षीय योजना में उद्योग एवं खनन क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया गया। इस योजनाकाल में पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों के विकास के लिए विशिष्ट कदम उठाए गए। बीमार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को पुनः जीवित करना और ऐसा न हो पाने की स्थिति में उन्हें बंद करना शामिल था। नौवीं योजना में प्रौद्योगिकी में सुधार द्वारा औद्योगिक इकाइयों के उत्पादन में वृद्धि पर भी जोर दिया गया था तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए विशिष्ट पैकेज को भी इस घोषणा में जगह दी गई थी।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007)

10वीं योजना में उद्योगों एवंसेवाओं में 10 प्रतिशत का लक्ष्य था, जो पूर्णतः प्राप्त नहीं हो पाया, फिर भी उद्योगों की वार्षिक वृद्धि दर योजनाकाल में अच्छी रही, जिसमें मिश्रित वार्षिक वृद्धि दर, जो 9वीं योजना में 4.5 प्रतिशत थी, 10वीं पंचवर्षीय योजना में बढ़कर 8 प्रतिशत हो गई।

विनिर्माण क्षेत्र में 9वीं पंचवर्षीय योजना में 3.8 प्रतिशत का जो लक्ष्य था, वह 10वीं पंचवर्षीय योजना में बढ़कर 8.7 प्रतिशत हो गया। विनिर्माण क्षेत्र में वार्षिक वृद्धि योजनाकाल में अधिकतम रही, जो 2006-07 में 12.3 प्रतिशत रही। पहली बार सेवा क्षेत्र और औद्योगिक वृद्धि दर समान रही, जो कि लगभग 11 प्रतिशत थी। इसका प्रमुख कारण विनिर्माण क्षेत्र में हुई वृद्धि है।

सकल पूंजी निर्माण की दर 1995-96 में 13.53 प्रतिशत थी, जबकि 9वीं योजना में सकल घरेलू उत्पाद की दर बाजार मूल्य पर घटती हुई पायी गयी तथा 10वीं योजना (2005-06) में यह बढ़कर 13.6 प्रतिशत हो गई। विनिर्माण क्षेत्र में सकल पूंजी निर्माण (2001-02) में वृद्धि दर 3.8 प्रतिशत से बढ़कर 2005-06 में 10.9 प्रतिशत हो गई।

पाइपलाइन परियोजना में 10वी योजना के पिछले 3 वर्षों में वृद्धि दर्ज की गई।

9वीं पंचवर्षीय योजना में 6.3 प्रतिशत समग्र वार्षिक वृद्धि पाई गई, जबकि 10वीं योजना में विनिर्माण उत्पादों के निर्यात में 19.9 प्रतिशत दर्ज की गई। इंजीनियरिंग के सामानों में, उच्चतम मिश्रित वृद्धि दर 33 प्रतिशत पाई गई, जो मुख्यतः ऑटो पुर्जे, तथा ऑटो में वृद्धि के फलस्वरूप थी। दसवीं योजनाकाल में औषधि एवं भेषज रसायन में उच्चतम मिश्रित वृद्धि दर 23. 1 प्रतिशत रही।

आधारभूत उद्योगों- बिजली, कोयला, इस्पात, कच्चा पेट्रोलियम, पेट्रोलियम रिफाइनरी उत्पाद तथा सीमेंट में वर्ष 2005-06 में वृद्धि अधिकतम रही।

वर्ष 2005 में भारत को विश्व निर्यात में 1 प्रतिशत योगदान, कपड़ा एवं वस्त्र उद्योग, आयरन और इस्पात, तथा रासायनिक उत्पादों में था।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012):

इस योजना में औद्योगिक क्षेत्र के लिए 40 प्रतिशत प्रतिवर्ष तथा विनिर्माण क्षेत्र के लिए 12 प्रतिशत प्रतिवर्ष का लक्ष्य रखा गया। 11वीं योजना के दस्तावेज के अनुसार, लघु उद्योग क्षेत्रों के लिए आरक्षित मदों में कटौती करने तथा उसे प्रतिस्पर्द्धात्मक बनाने का लक्ष्य और श्रम कानूनों को लचीला बनाने तथा संगठित विनिर्माण उद्योग में रोजगार के अवसरों में वृद्धि का लक्ष्य रखा गया। उर्वरक तथा चीनी जैसे उद्योगों को विनियंत्रित करना तथा खनन नीति पर पुनर्विचार करना शामिल किया गया। 11वीं योजना में सकल घरेलू उत्पाद में प्रतिवर्ष9 प्रतिशत औसत वृद्धि दर का लक्ष्य रखा गया। इस योजनाकाल में उद्योग तथा विनिर्माण क्षेत्र में औसत वृद्धि दर 9.8 प्रतिशत प्रतिवर्ष का लक्ष्य रखा गया।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17)

इस योजना में विनिर्माण क्षेत्र की संवृद्धि लक्ष्य 12-14 प्रतिशत रखी गई है जिससे यह अर्थव्यवस्था के विकास का इंजन बने; 2025 तक 100 मिलियन अतिरिक्त रोजगार सृजन द्वारा विनिर्माण क्षेत्र की रोजगार सृजन में भूमिका बढ़ाना; ग्रामीण प्रवासियों और शहरी गरीबों के उचित कौशल विकास पर जोर देकर संवृद्धि को समावेशी बनाना; विनिर्माण के क्षेत्र का विस्तार करना; उचित नीति समर्थन द्वारा भारतीय मैन्युफैक्चरिंग की वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाना; और विशेष रूप से पर्यावरण के संदर्भ में, संवृद्धि की धारणीयता सुनिश्चित करना।

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