कृषि विज्ञान और पशुपालन Agricultural Science and Animal Husbandry

भारत में कृषि तंत्र एवं नीति

भारत में कृषि तंत्र का निर्माण अत्यंत ही बहुआयामी है तथा इसमें ग्रामीण कारीगर, छोटी-छोटी इकाइयां, लघु उद्योग, राज्य कृषि-औद्योगिक संगठित ट्रैक्टर, इंजन एवं प्रसंस्करण उपस्कर उद्योग शामिल हैं।

भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) यह सुनिश्चित करता है कि केंद्रों एवं प्रयोगशालाओं के इसके नेटवकों के जरिए कृषि एवं औद्योगिक उत्पादों विपणन अच्छी गुणवत्ता वाले हों। भारतीय मानक ब्यूरो, कृषि मशीनरी एवं अन्य उपकरणों के लिए विनिर्देश भी तैयार करता है तथा परीक्षा करता है। भारतीय मानक ब्यूरो के अतिरिक्त, सरकार ने भी गुणवत्ता वाली फार्म मशीनरी के संवर्द्धन के लिए अन्य फार्म तंत्र एवं परीक्षण निर्धारित किए है। कृषि तंत्र के मामले में, सरकारी योजनाओं के अंतर्गत वित्तीय सहायता प्राप्त कृषि मशीनरी की बिक्री तक गुणवत्ता प्रमाणन की अपेक्षा की जाती है। सुरक्षा एवं स्वास्थ्य खतरों से जुड़े कुछ मदों पर डिजाइन अथवा कार्य के दौरान मशीनरी की स्थापना में न्यूनतम सुरक्षा मानक आवश्यक हैं।

प्रयोग में लाई जा रही कृषि मशीनरी पर प्रचालक की सुरक्षा अपेक्षाओं का ध्यान रखने के लिए खतरनाक मशीन (विनियमन) अधिनियमः, 1983 किया। अधिनियम का प्रवर्तन राज्य सरकारो में निहित है ।

यहां देश में उपलब्ध विभिन्न प्रकार के फार्म उपस्कारों एवं मशीनरी की व्यापक सूची है। विभिन्न राज्यों में कृषि मशीनरी के विनिर्माणकर्ताओं के लिए सूची I और सूची II का अध्ययन किया जा सकता है।

कृषि तंत्रीकरण पर राष्ट्रीय नीति

कृषि तंत्रीकरण पर अलग से कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है। यह नियमित कृषि नीति के अंतर्गत आता है। सरकार नीचे लिखे लक्ष्यों को ध्यान में रखकर कृषि तंत्रीकरण को बढ़ावा देती है ।


  • कृषि तंत्रीकरण के फलस्वरूप उत्पाद एवं फसल उत्कष्ता में स्थायी तौर पर वृद्धि होनी चाहिए जिसका लक्ष्य कृषि उत्पादन में वृद्धि को प्राप्त करना तथा इसे बनाए रखना है।
  • कृषि कार्य करने वालों की आय संतोषजनक दर पर बढ़नी चाहिए ताकि शहर एवं ग्रामीण आय के मध्य विषमता को नियंत्रित किया जा सके और प्रत्येक को एक मर्यादित जीवन यापन का उचित अवसर मिलना चाहिए।
  • कृषि तंत्रीकरण का लाभ सभी प्रकार के कृषकों को मिलना चाहिए जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों, विशेषकर वर्षा वाले क्षेत्रों में लघु क्षेत्र शामिल है।
  • कृषि तंत्रीकरण के माध्यम से कठोर श्रम, उत्पादन कार्यों के दौरान स्वास्थ्य खतरे को कम करके एवं सुरक्षा में सुधार करके विशेष कार्यकताओं के लिए कार्यकर्ता अनुकूलन वातावरण तैयार किया जाना चाहिए।
  • कृषि तंत्रीकरण के फलस्वरूप कृषि जिसों के उत्पादन की लागत में कमी आनी चाहिए। इससे किसानों की आय में वृद्धि होनी चाहिए। बाजारों में निर्यात संविदाओं के लिए प्रतिस्पर्धा करते समय कीमत लाभ दिया जाना चाहिए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बादे में कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने काफी प्रयास किया। इन्हीं वैज्ञानिक प्रयासों का सुफल है कि लगातार सूखाग्रस्त, बाढ़ आदि आपदाओं को झेलने के बावजूद हम कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बने हुए हैं और खाद्यानों का कोई अभाव देश में नहीं है।

अनुसंधान एवं विकास

अनुसंधान एवं विकास भारतीय कृषकों, को फसलों की पैदावार, बढ़ाने के लिए हुई उपज को कायम रखने, नवीन कृषि प्रौद्योगिकी से परिचित कराने, उन्नत बीजों तथा रासायनिक उर्वरकों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का प्रयास सरकार द्वारा किया जा रहा है किसानों के लिए नवीनतम कृषि जानकारियां प्रदान करने के लिए किसान कॉल सेण्टरों की ब्लाक स्तर पर सरकार द्वारा स्थापना की गयी है। इस सेंठरों पर फोन करके नवीनतम कृषि तकनीकी की जानकारी हासिल की जा सकती है।

फसल सुधार, कार्यक्रम, मृदा सुधार कार्यकम, बंजर भूमि सुधार कार्यक्रम, उन्नत बीज परियोजना चलाकर कृषि उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। क्षारीय और अम्लीय मृदा को उदासीन बनाकर उसकी उत्पादकता में वृद्धि किये जाने का प्रयास किया जा रहा है।

वैज्ञानिकों द्वारा अधिक उत्पादकता वाली गेहूँ, चावल, मक्का, मोटे अनाजों की किस्मों का विकास किया गया है। गेहूँ की राजा 3070, W.H.-416, मंगला, H.D.-2501, H.D.R.-77, KR.L.–1, चावल की पूसा बासमती-1, कस्तूरी, नलिनी, अमूल्य, प्रणव, आदित्य, गोविन्द, गोल्डेन राइस मक्का की माधुरी वसक्ष, डीएच.एम.-05, बाजरे की एच.एच.बी-67 पूसा सफेद, बी.एल.-149 गन्ने की सीओ तथाबीओ जैसी अधिक उत्पादकता तथा विपरीत पारिस्थितियों को झेलने वाली किस्मों का विकास किया गया है।

कृषि में उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण संतुलन बनाये रखने के लिए सभी महत्वपूर्ण फसलों के लिए समन्वित कीट प्रबंध नीति को बढ़ावा देने पर विशेष जोर दिया गया है। इसके तहत फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीव जन्तुओं और बीमारियों पर जैविक नियंत्रण, जैव नियंत्रणों के प्रसार एवं बड़े पैमाने पर प्रणाली विकसित करना एवं कीट विकास नियंत्रकों और फैरोमोन्स जैसी परिष्कृत विधियों का प्रयोग किया जा रहा है।

कृषि के लिए आवश्यक आधारभूत संसाधन हैं- मृदा, जल, वायु, तापमान, सूर्य प्रकाश, बीज, श्रम तकनीक आदि। यदि इनमें से किसी भी एक संसाधन की पर्याप्त उपलब्धता नहीं रही तो कृषि कार्य उपयुक्त तरीके से नहीं हो सकता और अपेक्षित उत्पादन नहीं प्राप्त किया जा सकता। सिंचाई के लिए वर्षा पर आश्रितता, छोटी-छोटी जोतें, कृषि की पुरातन पद्धतियों का पालन और नवीनतम पद्धतियों, संसाधनों के समुचित उपयोग द्वारा अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करने और कृषि को पर्यावरण अनुकूल बनने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सहायता ली जा रही है। भारत में भी कृषि की वैज्ञानिक पद्धति अपनाए जाने के लिए विशेष बल दिया जा रहा है।

भारत में साठ दशक के मध्य में हरित क्रांति नाम से एक योजना चलाई गयी। इस योजना का उद्देश्य कृषि विकास को बढ़ावा देना था। हरित क्रांति योजना का व्यापक असर हुआ। देश में खाद्यान्नों का उत्पादन तेजी से बढ़ा। जिसका प्रतिफल यह हुआ कि 60 के दशक तक अनाज की जो प्रति व्यक्ति/प्रतिदिन की उपलब्धता 395 ग्राम थी, वह 2004 आते-आते 495 ग्राम प्रति तक पहुंच गयी। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 19 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन होता है।

आज कल कृषि क्षेत्र में तकनकी अनुसंधान पूंजी एवं ऊर्जा आदि की भागीदारी बढ़ गयी है। आज कृषि एक जटिल वैज्ञानिक प्रक्रिया का स्वरूप धारण कर चुका है और इसका उद्देश्य अब मात्र खाद्य आपूर्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करना ही न होकर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धात्मक स्तर प्राप्त करना है।

कृषि का सबसे आधारभूत संसाधन है-मिट्टी। भारत में कृषि अनुसंधान परिषद ने मिट्टी को 8 वगों में विभाजित किया है। प्रत्येक प्रकार की मिट्टी के अलग अलग गुण दोष है। विभिन्न प्रकार की मिट्टियां अलग-अलग प्रकार की फसलों के लिए उपयुक्त है। अत: देश के प्रत्येक जिले स्तर पर मृदा परिक्षण की सुविधाएं और ब्लाक स्तर पर कृषि प्रसार केन्द्र खोले गये हैं जहाँ पर मृदा का परीक्षण कर उसकी कमियां बताई जाती हैं और उसके लिए उपयुक्त फसल के बारे में बताया जाता है। ऐसा होने से किसी भू क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। भूमि क्षरण रोकने की भी विधियाँ किसानों को ब्लाक स्तर पर कृषि प्रसार केन्द्रों के माध्यम से बताई जाती है। मृदा की क्षारीयता तथा अम्लीयता दूर करने के लिए सरकार द्वारा प्रभावित क्षेत्रों में अभियान चलाकर भूमि की उर्वरता को बनाये रखने का कार्य किया जा रहा है।

कृषि का दूसरा आधारभूत तत्व है, जल। जल जीवन का आधार है तथा सबसे बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन भी हैं। जल के बिना भी कृषि की कल्पना भी नही की जा सकती। नदियों, झरनों, तालाबों, हिमनदों एवं समुद्री जल के रूप में जल की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद आज भी भारत में कृषि कार्य के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं है। भारतीय कृषि आज भी सिंचाई के लिए मानसूनी वर्षा पर आश्रित है। दक्षिणी पश्चिमी मानसून और उत्तर पूर्वी मानसून के मात्र 60 से 90 दिन के भीतर वर्षा होती है, शेष अवधि में सिंचाई के अन्य साधनों का प्रयोग किया जाता है। लेकिन ये साधन पर्याप्त नहीं है। भारत की 990 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचाई के लिए वर्षा जल पर ही आश्रित है। कृषि की पर्याप्त संभावनाओं को देखते हुए जल के अभाव को दूर करने के लिए सरकार द्वारा छोटे-बड़े, अनेक कदम उठाए गए हैं।

कृषि के लिए आवश्यक तत्वों में सर्वप्रमुख है – जल और यह जल भूमि को सिंचाई से ही प्राप्त होता है। भारत में भूमि की सिंचाई के लिए जल मुख्यतया तीन माध्यमों से प्राप्त होता है- नहरें, कुएँ, तालाब। नहरें दो प्रकार की होती हैं। स्थायी जो शुष्क मौसम में काम आती हैं और अस्थायी, जो वर्षा पर आधारित हैं। कुएँ भी तीन प्रकार के होते हैं। कच्चे कुएँ, पक्के कुएँ तथा नलकूप। तालाब भी दो प्रकार के होते हैं- प्राकृतिक और कृत्रिम।

भारतीय फसल प्रणाली

देश में कृषि योग्य भूमि की सीमितता के कारण अपनी महती आवश्यकताओं की पूति हेतु यह आवश्यक हो जाता है कि हम भूमि के एक टुकड़े पर वर्ष में दो या उससे अधिक फसलें उपजाएं। इस प्रकार बहु फसल विधि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस प्रकार की कई पद्धतियाँ हैं:

  1. रिले फसल व्यवस्था: इसमें पहले से लगी फसल की कटाई से पूर्व ही अन्य फसल उपजाई जाती है जिससे जल की बचत होती है एक बार की सिंचाई से दोनों फसलों को लाभ पहुंचाता है।
  2. मिश्रित कृषि: इसमें मुख्य फसल के साथ व उसके समानान्तर अन्य अनुरूप फसलें उपजाई जाती है। मूंग की फली एवं सरसों को गेहूँ के साथ बोया जा सकता है, कबूतर की खाने की फली, गाय की फली और मूंगफली को मक्का, गन्ना, तथा कपास के साथ अदल-बदल कर उत्पादित किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर मृदा की स्थिति के अनुसार अन्य तकनीकें प्रयोग की जा रही हैं। बहुफसल विधि का प्रचलन किसानों में बढ़ा तो है, परन्तु यह अभी अपेक्षित स्तर से बहुत कम है।

बागवानी फसलें

बागवानी फसलों के अंतर्गत फलों, सब्जियों, फूलों कंदमूल, फसलों औषधियों एवं सुगन्धित पौधों, मशरूम, मसालों, काजू आदि की अनेक प्रजातियां सम्मिलित हैं। बागवानी फसलें भारत की ऊष्ण कटिबन्धीय जलवायु और उपोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में काफी प्रचलित हैं। इनका कुछ फसल क्षेत्र भले ही 8.5 प्रतिशत हो, लेकिन सकल घरेलू उतपाद में इनका 29.5 प्रतिशत से अधिक योगदान है। फलों तथा सब्जियों के उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे मसालों में प्रथम स्थान है।

बागवानी फसलों के उत्पादन में वृद्धि के लिए तकनीकी प्रयास जारी है। संकर आम की अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए खोजी गयी प्रजाति, अम्बिका केले में ट्रेट्राप्लाइट नामक तत्व का पता कर उसके विविध प्रयोग की तकनीकी, आलू की 80 नयी किस्में बेशकीमती चिकित्सकीय खुम्बी लाल रीशी की खोज, मसालों में जर्मप्लाज्म संरक्षण के लिए 234 नई किस्मों की खोज, आदि प्रमुख वैज्ञानिक प्रयास किये गये हैं।

फसल सुरक्षा

फसलों के उत्पादन के मुख्य सहायक तत्वों मृदा, जल बीज तथा उर्वरक को कीटाणुओं तथा खरपतवारों से बचाना भी आवश्यक होता है। अनुमानत: प्रतिवर्ष 7-7.5 हजार करोड़ रूपये की फसलों का नुकसान कीट पतंगों तथा खरपतवार मिलकर कर देते हैं। इनमें से 37 प्रतिशत हानि अपतृण के कारण और 26 प्रतिशत हानि रोगों के कारण होती है। 26 प्रतिशत हानि कीट पतंगों से तथा शेष गोल कृमियों और पक्षियों से होती है।

फसलों की सुरक्षा के लिए कीटनाशक एवं खरपतवार नाशक रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इनमें 70 प्रतिशत रोगनाशकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग 15 प्रतिशत कवक नाशकों का प्रयोग और 4 से 5 प्रतिशत पूर्ण रहितता रोधी रसायनों का प्रयोग किया जाता है।

भारत सरकार द्वारा समेकित कीट प्रबंध अर्थात् पर्यावरण के अनुकूल विधियाँ अपनाते हुए फसल संरक्षण कार्यक्रम चालू किया गया है।

जैव तकनीकी से रोगरोधी, खरपतवार मुक्त बीज विकसित किये गये हैं। भारत सरकार द्वारा आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों के लिए कीटाणुओं तथा रोगों की रोकथाम के लिए निगरानी अभियान चलाया जा रहा है 6 खतरनाक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाते हुए नीम पर आधारित कीटनाशकों के प्रयोग को स्वीकृति प्रदान की गयी है। रेगिस्तानी इलाकों में गहन सर्वेक्षणों के माध्यम से टिड्डियों की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी की जा रही है। केरल एवं कर्नाटक में विदेशों से मंगाए गए प्राकृतिक शत्रुओं की मदद से जल कुम्भी एवं जल फर्न पर सफलतापूर्वक नियंत्रण किया गया है। कर्नाटक में पारथीनियन घास पर नियंत्रण के लिए एक कीट का सहारा लिया जा रहा है।

जैविक खेती

इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक अल्बर्ट होवार्ड द्वारा विकसित की गयी इस कृषि पद्धति में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जाता है बल्कि रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के स्थान पर फार्म वेस्ट, कम्पोस्ट, सीवजेज, पौधों के बचे भाग आदि का प्रयोग करक मृदा की उर्वरा शक्ति बनाये रखी जाती है। इस पद्धति से खेती करने से मृदा एवं जल प्रदूषण की समस्या पैदा नहीं होती है। इस पद्धति से खेत से प्राप्त अवशेष को कम्पोस्ट बनाकर वापस काम में लाया जाता है, इसलिए कृषि अवशेष के निष्पादन की समस्या भी समाप्त हो जाती है।

गोल्डन राइस

जीवन परिर्वतन यानी आनुवंशिक परिवर्तन करको विटामिन ए की कमी को दूर करने में वैज्ञानिकों को 10 वर्ष तक अनुसंधान करना पड़ा। गोल्डन राइस को पैदा करने के लिये उसके पौधे पर तीन जीनों का प्रत्यारोपण किया जाता है, जिससे पौधा बीटा-कैरोटीन युक्त पीले रंग का चावल देता है। बीटा-कैरोटीन को विटामिन ए का सबसे प्रमुख स्रोत माना जाता है।

जैव उर्वरक

जैव उर्वरक से तात्पर्य है ऐसे सजीव जीव जीवाणु जो पौधों के उपयोग के लिये पोषण तत्व उपलब्ध करायें। वस्तुत: जैव उर्वरक का सबसे महत्वपूर्ण कार्य नाइट्रोजन उपलब्धता के संदर्भ में है। राइजोबियम, एजोला, एजोस्पिरिलम, लापोफेरम, स्वतंत्र जीवाणु आदि जैव उर्वरक के घटक हैं।

भारत में दो उर्वरकों का इस्तेमाल होता है, ये हैं- राइजोबियम और नील हरित शैवाल (एजोला सहित)। इनका उर्वरकों एवं पर्यावरण के ऊपर भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। जैव की इस विशेषता के कारण रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। जैव उर्वरकों के इस्तेमाल से अकार्बनिक (रासायनिक) उर्वरकों के प्रयोग से लगभग 25 प्रतिशत की कमी आ जाती है। जैव उर्वरक नाइट्रोजन प्राप्त करने का सबसे सस्ता स्रोत है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के तत्वाधान में इन जैव उर्वरकों का मुख्य उपयोग धान के फसल के लिये किया जा रहा है जैव-प्रौद्योगिकी द्वारा- जैव-उर्वरक प्रौद्योगिकी विकास और प्रदर्शन-नील हरित शैवाल (एंजोला सहित) तथा राइजोबियम की मिशन की तर्ज पर 30 अनुसंधान तथा विकास परियोजनाओं को मदद दी जा रही है।

भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र द्वारा गामा किरणों का उपयोग करके विकसित किये गये उच्च कोटि के लेग्यूमिनस पौधे सैरबेनिया सस्ट्रेटा के न केवल जड़ों में बल्कि तनों में भी बड़ी संख्या में जीवाणुओं को पालने वाली गांठ मौजूद हैं। सेस्बेनिया सस्ट्रेटा के पौधे से 50 दिनों में एक हेक्टेयर भूमि में लगभग 120 से 160 कि.ग्रा. नाइट्रोजन की प्रक्रिया भी तीव्र हो जाती है।

जैव कीटनाशक और जैव रोग नियंत्रण

भारत की भौगोलिक स्थिति एवं जलवायु के कारण यहां फसल कीटों तथा बीमारियों का खतरा सदैव बना रहता है। परंपरागत तरीकों में रासायनिक या अकार्बनिक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है जैसे-

  1. पर्यावरण का प्रदूषण।
  2. औद्योगिक एवं कृषि मजदूरों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव।
  3. कीटों तथा रोगवाहकों में कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध।

जैव कीटनाशकों तथा जैव रोग नियंत्रकों में प्राकृतिक कीटों तथा जैव-प्रौद्योगिकी में विकसित सूक्ष्म जीवों का उपयोग करते प्रभावित कर सकते हैं। भारत में 1991 तक जैव कीटनाशकों के मुख्य तत्व बैसिलस थ्यूरिन्जाइएंसिस के उपयोग पर प्रतिबंध था। जैविक कीटनाशक सामान्यत: शाकाहारी जीवों को प्रभावित करते हैं तथा मांसाहारी कीटों को नियंत्रित करने में सहायता पहुंचाते हैं। साथ ही ये कीटों के अंडे देने की प्रक्रिया को भी प्रभावित करके इनकी प्रजनन क्षमता को कम कर देते हैं। इन जैव कीटनाशकों से पर्यावरण को भी कोई हानि नहीं होती है क्योंकि इनके अवशेष बायोडिग्रेडेबल होते हैं।

जैविक नियंत्रण का उपयोग मुख्यत: कपास, तिलहन, गन्ना, दलहन तथा फलों व सब्जियों के पौधों में होने वाले रोगों एवं उन पर कीटों के आक्रमण से बचाव के लिये किया जा रहा है। इसके लिए पूरे देश में जैव नियंत्रण नेटवर्क कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अनेक अनुसंधान एवं विकास परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। जैव-प्रौद्योगिकी के प्रयोग से ऐसी फसलों का विकास किया जा रहा है, जिनके पास कीटों या रोगों से लड़ने की पूर्ण प्राकृतिक क्षमता है।

आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण फसलों क लिये जैव नियंत्रकों- बेक्यूलोवायरस, पैरासाइट, प्रीडेटर्स, एंटागोनिस्टिक्स, फफूंदी तथा बैक्टीरिया के बड़े स्तर पर उत्पादन के लिये प्रौद्योगिकी एवं उद्योगों को स्थानांतरित किया गया है। बायोडिग्रेडेबल और पारिस्थितिक मित्र वनस्पति कीटनाशियों के विकास के अंतर्गत कई परियोजनाएं चलाई जा रही हैं।

ट्रांसजेनिक कृषि

परीक्षणों में आधुनिकतम है ट्रांसजेनिक कृषि। ट्रांसजेनिक पौधों के माध्यम से कृषि में काफी प्रगति की संभावना है, क्योंकि विश्व में भूमि संसाधन, उर्वरक प्रयोग एवं विकसित कृषि प्रौद्योगिकियों के उपयोग की एक सीमा है। ट्रांसजेनिक पौधों की प्रजातियों के विकास में प्राकृतिक जीन में कृत्रिम उपायों (रिकंबीनेट डी.एन.ए. तकनीक) द्वारा किसी दूसरे पौधे के जीन का भाग जोड़ दिया गया जाता है अथवा इनकी मूल संरचना को परिवर्तित कर दिया जाता है। इस परिवर्तन को मूलत: पौधों में निम्नलिखित लाभों को प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है-

  • गुणवत्ता एवं उत्पादकता में वृद्धि।
  • प्रोटीन, खनिजों आदि की मात्रा में वृद्धि करक अधिक पौष्टिक बनाना।
  • जल आवश्यकता को कम करना।
  • बीमारियों एवं कीटों के प्रति प्राकृतिक प्रतिरोध क्षमता में वृद्धि करना।

सर्वप्रथम बेल्जियम ने रेपसीड की शाकनाशी प्रतिरोधी ट्रांसजेनिक प्रजाति का विकास किया था जबकि अमेरिकी कम्पनी सीबा द्वारा मक्के की कीट प्रतिरोधी प्रजाति विकसित की गयी है। भारतीय वैज्ञानिकों ने ट्रांसजेनिक (पराजीनिक) अरहर और चने का विकास कर लिया है। इन दालों में जबर्दस्त असर वाली कीटनाशक प्रोटीन को तैयार करने वाले बैसीलस थूरिनजिएंसिस (बी.टी.) नामक बैक्टीरिया का जीन डाला गया है। उल्लेखनीय है कि बी.टी. का यह जीन प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से तैयार किया गया है। इस प्रकार भारत में पहली बार कृत्रिम रूप से इतना बड़ा (2000 बेस का) जीन रासायनिक ढंग से तैयार करने में सफलता मिली है। यह सफलता नेशनल बोटैनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, लखनऊ को प्राप्त हुई है। इसके अतिरिक्त कपास और तंबाकू में भी प्रयोगशाला स्तर पर बी.टी. जीन डाला गया है। तंबाकू के पौधों में टमाटर से प्रतिरोध क्षमता का जीन हस्तांतरित किया गया है, जिसके चलते तंबाकू के पौधों में बी.टी. टॉक्सिन पैदा करने की क्षमता उत्पन्न हो गई है। यह टॉक्सिन कीटों को विकर्षित करता है।

 इस तकनीक से फलों, सब्जियों के आत्म जीवन में वृद्धि का प्रयास किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त अनेक किस्मों के जेनेटिकली मॉडीफॉयल आर्गेनिज्म (जी.एम.ओ.) बीजों का उपयोग करके उत्पादकता की तीव्रता में वृद्धि का प्रयास किया गया है।

बी.टी. कॉटन

देश की पहली आनुवंशिकीय परिवर्तित जीन वाली बीटी (बैसीलसभूरिनजीएनसिस बी.टी.) कपास की तीन प्रजातियों के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति भारत सरकार ने 26 मार्च, 2002 को प्रदान कर दी। केन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी द्वारा मंजूर की गई बीटी कपास की तीन किस्मों में मैक-12, मैक-162 और मैक-184 शामिल हैं। इन किस्मों को बहुराष्ट्रीय कम्पनी मनसांटो की भारतीय अनुषंगी कम्पनी महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कम्पनी (म्हाइको) ने विकसित किया है तथा उसे ही इनके बीजों के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति तीन वर्ष (अप्रैल, 2002 से अप्रैल, 2005 तक) को लिये कुछेक शर्तों के साथ प्रदान की गयी है। इन शतों में निम्नलिखित शामिल हैं-

  • बीज अधिनियम की शर्तों को पूरा करना।
  • बीज पर लेबल लगाकर यह सूचित करना कि यह आनुवांशिकीय परिवर्तित बीज है।
  • बीजों के वितरकों एवं बिक्री के आँकड़ों को जीएएसी को उपलब्ध कराना।
  • बोये गये क्षेत्रफल की जानकारी उपलब्ध कराना।
  • विपणन कपनी म्हाइको द्वारा पर्यावरण और किसानों की हित रक्षा के अभिप्राय से वार्षिक आधार पर जांच करना तथा लगातार तीन वर्ष तक यह रिपोर्ट देना कि इन किस्मों में किसी प्रकार की बीमारी के जीवाणु तो पैदा नहीं हो रहे हैं।
  • बीटी कपास वाले प्रत्येक खेत की बाह्य परिधि पर रिफ्यूज यानी आश्रय या शरण नामक एक ऐसी भू-पट्टी बनाई जाए, जिसमें उसी प्रजाति की गैर-बीटी कपास यानी परंपरागत कपास उगाई जाए। यह भू-पट्टी कुल बुआई क्षेत्र का कम से कम 20 प्रतिशत हो या इसमें गैर-बीटी कपास की कम से कम पांच कतारें बनाई जा सक। यह शर्त हवा के माध्यम से दूसरी फसलों या कपास की फसल में ही परागन की निगरानी से संबंधित है।

उपरोक्त शर्तों के पालन से कई लाभ होंगे जैसे- कपास का उत्पादन व्यवस्थित और कई गुना हो सकेगा, उसे अमेरिकी बोलवॉर्म (सुंडी को रोगी वाला कीड़ा) से बचाया जा सकेगा, उत्तम और अधिक कपास से किसानों की आय बढ़ेगी तथा आस-पास के प्राकृतिक पेड़-पौधों को हानि नहीं पहुंचेगी। ज्ञातव्य है कि बीटी कपास में भूमिगत बैक्टीरिया बैसिलस थूरिनजिएनसिस का क्राई नामक जीन डाल दिया जाता है, जिससे पौधा स्वयं ही कीटनाशक प्रभाव पैदा करने लगता है और कीटनाशक दवा छिड़कने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बीटों के कुछ विभेद पादप और पशुओं पर निर्भर करने वाले कृमियों, घोघों, प्रोटोजोआ और तिलचट्टों को भी नष्ट कर देता है। इसी विशिष्ट लक्षण के कारण यह बीटी नामक बैक्टीरिया कृषि के क्षेत्र में उपयोगी हैं। उल्लेखनीय है कि म्हाइको ने बीटी कपास की चार किस्मों के लिये आवेदन किया था लेकिन किस्म मैक-915 के संबंध में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् से परीक्षण परिणाम उपलब्ध न होने के कारण जीईएसी ने इसके व्यावसायिक उपयोग की अनुमति प्रदान नहीं की है।

बीटी कपास के लाभ

छिड़काव वाले अन्य परंपरागत संश्लेषित कीटनाशकों का उपयोग कर उगाये गये कपास की तुलना में बीटी कपास के लाभ निम्नलिखित हैं-

  • किसानों, खेतों में काम करने वाले मजदूरों और अन्य पेड़-पौधों पर कीटनाशकों का कोई बुरा असर नहीं पड़ता है।
  • कीटनाशकों के उपयोग में कमी से अधिक सुरक्षित पर्यावरण।
  • बारिश में बह जाने या कीटनाशक के खराब हो जाने से फिर से छिड़काव की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  • कीटनाशकों के उपयोग से होने वाली दुर्घटनाओं और कानूनी विवाद कम हो जाते हैं।
  • पौधों के सभी हिस्सों में क्रिस्टल प्रोटीन बनाता है तथा यह क्रिस्टल प्रोटीन पूरे मौसम अपना असर दिखाता है।
  • लक्षित महामारी से फसल को खराब होने का खतरा कम हो जाता है।
  • बीटी कपास का उपयोग कीट नियंत्रण की अन्य विधियों को साथ किया जा सकता है।

बीटी काटन से खतरे

  • कीड़े-मकोड़े में प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न होने वाली बीटी कपास की उपयोगिता कम हो सकती है।
  • रासायनिक छिड़काव के जरिये अन्य कीड़े-मकोड़ों और महामारियों के नियंत्रण की आवश्यकता के कारण इन कीड़ों को प्राकृतिक रूप से नुकसान पहुंचाना हानिकारक हो सकता है।
  • बीटी कपास के उत्पादन और उपयोग की लागत बहुत अधिक हो सकती है।
  • कीटनाशकों के छिड़काव वाले कपास के खेती के आसपास बीटी कपास उगाने से कीड़े-मकोड़े बीटी कपास के खेती में आ सकते हैं जिससे उत्पादन पर असर पड़ सकता है।
  • प्रतिरोध क्षमता वाली फसल के लिये कोई नये किस्म का हानिकारक कीट विकसित हो सकता है।
  • बीटी कपास का जीन कपास के निकट संबंध वाली किसी फसल या अन्य फसल प्रजाति में पहुंच सकता है।

आर्गेनिक फार्मिंग

जैविक खेती या जीवांश खेती (Organic Farming) का अर्थ विज्ञान द्वारा खोजे गये प्रकृति के रहस्यों व वरदानों का कृषि में उपयोग कर उत्पादन को उचित स्तर पर टिकाऊ रूप से प्राप्त करना है ताकि टिकाऊ खेती का स्वरूप दिया जा सके। इसमें रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का कोई उपयोग नहीं किया जाता है। सम्पूर्ण प्राकृतिक मित्र तकनीकों से किया जाता है।

यदि वर्तमान उन्नत कृषि का सही स्वरूप रहा हो तो आने वाली पीढ़ी के लिए हम भूमि तथा पर्यावरण में ऐसा जहर तंत्र छोड़ जाएंगे, जिस पर फसल उगाना दुरूह हो जाएगा। इस भयानक विभीषिका को जीवन-तंत्रों में बदलने के लिए जैविक खेती ही एक उपाय है।

वास्तव में जैविक खेती वही है जो हमारी मिट्टी और जलवायु के अनुसार हो और हमारे पास उपलब्ध संसाधनों द्वारा हो तथा जिसमें सभी आदानों का संतुलित प्रयोग कर सदुप्रयोग हो, ताकि वे लम्बे समय तक उपलब्ध हो सकें।

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