जनसंख्या वृद्धि, समस्याएं एवं नीतियां Population Growth, Problems and Policies
जैसाकि संसाधन सीमित होते हैं, जनसंख्या में तीव्र वृद्धि भारत के लिए एक बड़ी समस्या है। इन सीमित संसाधनों पर जनसंख्या के बढ़ते दबाव ने भारी पर्यावरणीय प्रभाव को बढ़ाने के अतिरिक्त, कई सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को उत्पन्न किया है।
हाल के वर्षों में, जनसंख्या वृद्धि और जनसंख्या का व्यावसायिक वितरण, शहरीकरण की भात्रा और निर्धनता के सूचकों जैसे कारकों के बीच संबंधों पर ध्यान बढ़ता जा रहा है। हमारी जनसंख्या के व्यवसाय संरचना में कृषि की प्रधानता उच्च जन्म-दर का एक महत्वपूर्ण कारण है।
भारत में, शहरीकरण की प्रक्रिया, जो प्रमुख से जनांकिकीय संक्रमण के सिद्धांत को रेखांकित करती है, बेहद धीमी है। भारत में होने वाला शहरीकरण इस प्रकार के सामाजिक बदलाव का सहपाठी नहीं रहा जो निम्न जन्म-दर का पक्षधर है। इसके अतिरिक्त, हालांकि प्रजनता दर शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में कुछ हद तक कम रही है, जबकि शहरों में पुरुष-महिला अनुपात में उच्च अंतराल रहा है।
देश में व्यापक रूप से व्याप्त गरीबी एक अन्य कारक है जो जनसंख्या वृद्धि से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है।
यह बहस का मुद्दा है कि प्रजननता आर्थिक पिछड़ेपन का एक कारण की अपेक्षा एक परिणाम है। निर्धन परिवार बच्चों को एक निवेश के तौर पर लेते हैं। उच्च शिशु मृत्यु-दरों और बच्चों को मारने वाली बीमारियों की दशाओं में, माता-पिता अधिक संख्या में बच्चों को जन्म देते हैं, इस आशा में कि इनमें से कुछ जीवित रह सकेंगे। इस प्रकार, परिवार नियोजन के उपाय कोई प्रभाव छोड़ने में असफल हो जाते हैं।
कई सामाजिक कारक भी उच्च जन्म-दरों के लिए जिम्मेदार हैं। इसमें एक कारक विवाह न सार्वभौमिक स्वीकार्यता भी है। विवाह की औसत आयु, विशेष रूप से महिलाओं की, पारस्परिक रूप से कम होती है। धार्मिक और सामाजिक अंधविश्वास भी उच्च प्रजनन दर में योगदान करते हैं। अंधविश्वास भी लोगों को परिवार नियोजन उपायों के प्रति शंकालु बनाते हैं।
अनपढ़ता और शिक्षा का अभाव का उच्च प्रजननता के साथ सापेक्ष संबंध है।
असतत् जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। बढ़ती जनसंख्या संसाधनों पर अनुत्पादित उद्देश्यों के लिए मांग बढ़ाती है और इस प्रकार पूंजी संग्रह बाधित होता है।
जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा सकारात्मक बचत नहीं करता। भौतिक पूंजी निर्माण पर व्यय करने से पृथक्, बड़े परिवार द्वारा मानव पूंजी निर्माण पर व्यय भी बाधित होता है। विकास के लाभों का असंतुलित वितरण, व्यवहारिक रूप से बेहद निर्धन लोगों को पीछे छोड़ देता है।
हालांकि हाल के कुछ समय में व्यापक पैमाने पर अकाल नहीं आए, लाखों लोगों को भरपेट भोजन मुहैया कराना एक समस्या बनी हुई है।
मात्र खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं करेगी। भारत के पास व्यापक खाद्यान्न भंडार हैं, लेकिन गरीबी और क्रय शक्ति के अभाव के कारण भारत की एक-तिहाई जनसंख्या भरपेट भोजन प्राप्त नहीं कर पाती।
इस समय भारत में बेरोजगारी बेहद अधिक है। आर्थिक उदारीकरण और विस्तार से यह विश्वास किया गया था कि यह अत्यधिक रोजगार अवसरों का सृजन करेगा, लेकिन सृजित हुई नौकरियों को मध्य और उच्च मध्य शिक्षित वर्ग द्वारा हथिया लिया गया। निम्न वर्ग, जो अधिकांशतः अशिक्षित और पेशेवर रूप से अकुशल है, लाभान्वित नहीं हो पाया।
जनसंख्या वृद्धि ने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव पैदा किया और उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई उपायों, मशीनों, विद्युत इत्यादि के बढ़ते प्रयोग को प्रोत्साहित किया। यह मानव बस्तियों के लिए तीव्र विवनीकरण के साथ युग्मित हुआ। बढ़ते, झुग्गी-बस्ती, अस्वच्छता, मृदा अपरदन, वायु और जल प्रदूषण ने हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर बेहद दबाव डाला और इसने असतत् विकास पद्धति को प्रवृत्त किया।
अत्यधिक जनसंख्या ने व्यक्ति-भूमि के अनुपात में गिरावट की। कृषि भूमि पर दबाव के बढ़ने से, प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि में कमी आई। रोजगार की तलाश में शहरी क्षेत्रों की ओर बड़े पैमाने पर प्रवास हुआ। अनियोजित शहरीकरण के परिणामस्वरूप सार्वजनिक सुविधाओं जैसे परिवहन, अस्पताल, शैक्षिक संस्थान, जलापूर्ति, वियुत, स्वच्छता इत्यादि पर बेहद दबाव पड़ा। सामाजिक-आर्थिक असमानताएं बढ़ने और शहरी क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में जनसंख्या के पलायन ने सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया।
व्यापक जनसंख्या वृद्धि क्यों
चूंकि प्रवासन कारक समग्र भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण नहीं रहा, मृत्यु दर में कमी और निरंतर उच्च जन्म दर जनसंख्या वृद्धि के दो शेष कारण रहे हैं।
मृत्यु दर में कमी जीवन प्रत्याशा में वृद्धि के कारण आई है, और जीवन प्रत्याशा में बढ़ोत्तरी बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं और रोग उन्मूलन कार्यक्रमों के कारण हुई है।
जन्मदर के उच्च रहने के कई आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कारक हैं जो उच्च प्रजननता का पक्षपोषण करते हैं।
हाल के वर्षों में, इस बात पर ध्यान बढ़ता जा रहा है कि जनसंख्या वृद्धि और जनसंख्या का व्यावसायिक वितरण, शहरीकरण की सीमा और गरीबी जैसे आर्थिक कारकों के बीच किस प्रकार का संबंध है। हमारी जनसंख्या के व्यावसायिक संगठन में कृषि की प्रधानता का रहना उच्च जन्म दर बने रहने का एक महत्वपूर्ण कारण है।
भारत में, शहरीकरण प्रक्रिया, जिसका जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत में महत्वपूर्ण स्थान है, धीमी है। भारत में जिस प्रकार का शहरीकरण हो रहा है वह इस प्रकार के सामाजिक परिवर्तन नहीं करता जो निम्न जन्म दर का पक्षपोषण करता हो। इसके अतिरिक्त, यद्यपि ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरों में निम्न प्रजनन दर है, लेकिन इसमें विभेद अधिक है जिसका परिणाम उच्च पुरुष-महिला अनुपात के रूप में हुआ है।
निर्धन परिवार बच्चों को निवेश के रूप में लेते हैं। उच्च शिशु मृत्यु दर की स्थितियों में और बच्चों पर घातक बीमारियों की व्यापकता के कारण, अभिभावक इस आशा में अधिक बच्चों को पैदा करते हैं, कि उनमें से कुछ तो बचे रहेंगे। इस प्रकार, जब गरीबी से निजात पाने की बात होती है, परिवार नियोजन उपाय यथोचित प्रभाव एवं राहत देने में विफल हो जाते हैं।
आर्थिक कारक कई सामाजिक कारकों के साथ अंतर्गुथित होते हैं जो उच्च जन्म दर के लिए जिम्मेदार हैं। भारत में विवाह सार्वभौमिक घटना के तौर पर ली जाती है। विवाह की औसत आयु, विशेष रूप से महिलाओं के संदर्भ में, पारस्परिक रूप से कम है। धार्मिक एवं सामाजिक अंधविश्वास भी उच्च प्रजनन दर में योगदान करते हैं। अंधविश्वास लोगों को परिवार नियोजन कार्यक्रमों एवं उपायों के प्रति शंकालू बनाते हैं।
अशिक्षा एवं शिक्षा का अभाव का भी उच्च जन्म दर के साथ प्रत्यक्ष सह-संबंध है।
यह बेहद गौरतलब है कि यद्यपि कुल प्रजनन दर विगत् वर्षों में भारत में कम हुई है, लेकिन समग्र जन्म दर अभी भी ऊंची बनी हुई है। यह आकलन किया गया है कि यदि प्रजनन दर में तुरंत कमी प्रतिस्थापना स्तर तक दी गई (प्रति महिला एक बेटी) तो भी देश की जनसंख्या वर्ष 2050 तक स्थिर नहीं होगी। (इस स्थिति को जनसंख्या त्वरण के तौर पर जाना जाता है।)
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वृहद जनसंख्या एवं युवा बढ़ोतरी के निहितार्थ
बड़ी जनसंख्या को दो तरीकों से वर्णित किया जाता रहा है। एक विचार संप्रदाय जनसंख्या को संसाधन के तौर पर देखता है, और दूसरा इसे विकास में रुकावट मानता है और परिणामस्वरूप समाज पर एक बोझ के तौर पर लेता है। सच, हालांकि, इन दोनों के बीच में कहीं है।
जो जनसंख्या को संसाधन मानते हैं, तर्क देते हैं कि जनसंख्या वृद्धि का अर्थ है एक बड़ा कर्यबल जो अतिरिक्त उत्पादन में योगदान करता है। जनसांख्यिकीय लाभांश, का अर्थ हुआ युवा जनसंख्या जिसमें निर्भरता अनुपात (अधिक युवा एवं कम वृद्ध लोग) में कमी आती है जिसे भारत के लिए लाभ के तौर पर देखा गया। यह इंगित किया गया कि जनसंख्या वृद्धि तकनीकी प्रगति को बढ़ा सकती है- बड़ी जनसंख्या मांग कारक उत्पन्न करती है और बड़ी मात्रा में क्षम नवोन्मेषकों की फौज खड़ी करती है और, इस प्रकार, युक्तियों एवं नवोन्मेषों के बड़े भंडार का आर्थिक उपयोग किया जा सकता है।
उपरोक्त विचार के आलोचक, हालांकि, इंगित करते हैं कि यह तक लाभदायक होगा यदि समस्त जनसंख्या को उच्च क्रम में मानव संसाधन के तौर पर तैयार किया गया हो। एक बड़ी जनसंख्या केवल तभी संपत्ति हो सकती है यदि इसे जरूरी कौशल प्रदान किया गया हो, साथ ही साथ उसमें देश के तकनीकी एवं आर्थिक परिदृश्य में प्रगति करने का दृष्टिकोण विकसित किया गया हो।
सिजविक और केनन द्वारा प्रस्तुत उच्चतम आकार सिद्धांत के अनुसार, उस जनसंख्या का आकार उच्चतम आकार का होता है जो उच्चतम प्रति व्यक्ति आय का सृजन करती है। बेतरतीब जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकासको प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। बढ़ती जनसंख्या का तात्पर्य है कि अनुत्पादक उद्देश्यों हेतु संसाधनों की बढ़ती मांग और इस प्रकार पूंजी संचय बाधित होता है जो उच्चतम प्रति व्यक्ति आय का सृजन करती है। बेतरतीब जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। बढ़ती जनसंख्या का तात्पर्य है कि अनुत्पादक उद्देश्यों हेतु संसाधनों की बढ़ती मांग और इस प्रकार पूंजी संचय बाधित होता है।
जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा सकारात्मक बचत नहीं करता। भौतिक पूंजी निर्माण पर खर्च करने के अलावा, बड़े परिवार आकार मानव पूंजी निर्माण पर खर्च करने की क्षमता एवं योग्यता को भी बाधित करता है।
विकास के लाभों का अस्वास्थ्यकर वितरण दिया जाता है, जिसमें व्यावहारिक रूप से बेहद निर्धन लोग बाहर हो जाते हैं।
यद्यपि हाल ही में बड़े स्तर पर अकाल नहीं आए हैं, लाखों लोगों को भोजन उपलब्ध कराने की समस्या बनी हुई है। मात्र खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं करेगी। भारत के पास बड़ी मात्रा में खाद्यान्न भंडार हैं, लेकिन भारत की एक-तिहाई जनसंख्या गरीबी या क्रय शक्ति के अभाव में आधा-पेट ही खा पाती है।
वर्तमान में, भारत में बेरोजगारी बेहद उच्च है। आर्थिक उदारीकरण एवं विस्तार को समझा गया कि इससे बड़ी मात्रा में रोजगार अवसरों का सृजन हुआ, लेकिन इन नौकरियों को मध्यम एवं उच्च मध्यम शिक्षित वर्ग द्वारा सोख लिया गया। निम्न वर्ग, जो अधिकतर अशिक्षित एवं व्यावसायिक रूप से अकुशल हैं, इससे लाभान्वित नहीं हुए।
जनसंख्या वृद्धि ने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ाया और उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई उपायों, मशीन, ऊर्जा इत्यादि के उपयोग में वृद्धि की। इससे मानव बसावट के लिए बड़ी मात्रा में वन कटान किया गया, मलिन बस्तियों में वृद्धि, दयनीय स्वच्छता स्थितियां, मृदा अपरदन, वायु एवं जल प्रदुषण बढ़ा जिसने प्राकृतिक संसाधनों पर बेहद दबाव उत्पन्न किया और पर्यावरण एवं मानव विरोधी विकास का मार्ग तैयार किया।
अत्यधिक जनसंख्याने मानव-भूमि के अनुपात में भी कमी की। जैसे-जैसे कृषि भूमि पर दबाव में वृद्धि हुई और प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि में कमी हुई, वैसे-वैसे शहरी क्षेत्रों की ओर रोजगार की तलाश में वृहद् पैमाने पर प्रवासन हुआ। अनियोजित शहरीकरण के परिणामस्वरूप परिवहन, अस्पताल, शैक्षिक संस्थानों, जलापूर्ति, विद्युत, स्वच्छता इत्यादि जैसी लोक सुविधाओं पर अत्यधिक दबाव बढ़ा। सामाजिक-आर्थिक असमानता के बढ़ने और बड़ी मात्रा में जनसंख्या के शहरी क्षेत्रों में आने के कारण, सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हुई।
इससे आगे, युवा बढ़ोतरी सदैव एक आर्शीवाद नहीं होती। इसके अतिरिक्त, जनसंख्या में वृद्धि को योगदान, यह बहस का मुद्दा है कि युवा वयस्क पुरुष जनसंख्या में अत्यधिक बढ़ोतरी सामाजिक असंतोष, युद्ध एवं आतंकवाद को बढ़ावा दे सकती है, जब युवा बच्चों को उनकी मौजूदा समाज में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त नहीं होगी।
यूरोपियन उपनिवेशवाद, 20वीं शताब्दी फासीवाद, और शीतयुद्ध के दौरान साम्यवाद के उदय के अदभुत दृश्य के लिए व्याख्या हो सकती है। यह संभव है कि युवा जनसंख्या में अत्यधिक बढ़ोतरी आज के समाज में आतंक, सामाजिक असंतोष और उपद्रवों का कारण हो सकती है।
जनसंख्या समस्या पर काबू पाना
वर्तमान जनसंख्या समस्या पर दो मोर्चा- (a) आर्थिक एवं सामाजिक, और (b) परिवार नियोजन एवं कल्याण कार्यक्रम, पर नीति-निर्माण करके काबू पाया जा सकता है।
अर्थशास्त्रियों एवं सामाजिक वैज्ञानिकों ने पाया कि घटती हुई जनसंख्या वृद्धि दर के लिए अधिकतर लोगों का आर्थिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्य होना आवश्यक है।
अर्थशास्त्रियों द्वारा सुझाए गए मुख्य आर्थिक उपाय हैं- गरीबी निवारण, आय का एकसमान वितरण, रोजगार अवसरों का सृजन और औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार। प्रजननता को कम करने में आर्थिक प्रगति का प्रभाव अत्यधिक तब होगा जब जनसंख्या का अधिकतर हिस्सा, विशेष रूप से निर्धन, इसके लाभों में भागीदार होंगे।
व्यष्टि आर्थिक सिद्धांत यह भी बताता है कि यद्यपि आय में वृद्धि परिवार को अधिक बच्चे पैदा करने में सक्षम बना सकती है, तथापि इस बात के साक्ष्य प्रकट करते हैं कि उच्च आय अभिभावक बच्चों की मात्रा की अपेक्षा गुणवत्ता पर अधिक ध्यान देते हैं।
सामाजिक मोर्चे पर, मुख्य उपाय किए जाने चाहिए जिसमें महिलाओं के शैक्षिक स्तर में सुधार, उनकी दशा में सुधार तथा विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि शामिल हैं।
परिवार नियोजन एवं कल्याण कार्यक्रम की जनसंख्या नियंत्रण के उपकरण के तौर पर महता आज सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य है। ऐसे कार्यक्रम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जन्म दर को कम करने पर ध्यान देते हैं। शिशु मृत्यु दर एवं मातृ मृत्यु दर को कम करने पर विशेष ध्यान दिया गया है और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से बच्चे एवं मां दोनों को बेहतर देखभाल प्रदान की जा रही है। अनुभव प्रकट करते हैं कि बालमृत्यु में कमी एवं, इसलिए, प्रथम बच्चे के जीवित रहने की संभावनाओं के बढ़ने के परिणामस्वरूप अभिभावक कम बच्चे पैदा करते हैं।
केरल के जनांकिकीय उपलब्धियों के कारणों में उच्च साक्षरता स्तर (विशेष रूप से महिला साक्षरता), बेहतर स्वास्थ्य दशाएं, लड़की की विवाह योग्य आयु में अधिक वृद्धि (शिक्षा के अतिरिक्त अन्य कारणों से भी) और शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में कमी शामिल हैं।
शून्य जनसंख्या वृद्धि दर के साय गोवा भारत का प्रथम राज्य है जिसने स्थिर जनसंख्या स्तर को प्राप्त किया। भारत में इसकी शिशु मृत्यु दर भी सबसे कम है। गोवा की जनांकिकीय उपलब्धि को राज्य की प्रति व्यक्ति उच्च वास्तविक आय द्वारा भी प्रदर्शित किया जा सकता है।
जनसंख्या नीति
योजना एवं परिवार कल्याण: भारत ने प्रथम पंचवर्षीय योजना के एक हिस्से के तौर पर वर्ष 1951 में अपने परिवार नियोजन कार्यक्रम का शुभारंभ किया, और विश्व में प्रथम देश बन गया जहां राज्य-प्रायोजित जनसंख्या कार्यक्रम है।
परिवार नियोजन के प्रति कटिबद्धता की आवश्यकता 1961 की जनगणना के बाद महसूस की गई जब यह पाया गया कि जनसंख्या में वास्तविक वृद्धि की दर आशाओं से कहीं ज्यादा थी। तीसरे योजना में स्पष्ट रूप से कहा गया कि जनसंख्या संवृद्धि में स्थिरता लाना आयोजन का केंद्रीय उद्देश्य होना चाहिए तथा इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए परिवार नियोजन को बड़े पैमाने पर अपनाया जाना चाहिए। 1966 में स्वास्थ्य, परिवार नियोजन तथा शहरी विकास मंत्रालय में पूर्ण विकसित परिवार नियोजन विभाग की स्थापना की गई। प्रशासनिक संरचना में राज्य स्तर पर गठित परिवार नियोजन पूरी तरह स्वैच्छिक था इसलिए परिवार कोई-सी भी गर्भ-निरोधक विधि का प्रयोग कर सकते थे। इस नीति को कैफिटेरिया दृष्टिकोण कहा गया। परिवारों को परिवारनियोजन अपनाने के लिए प्रेरित करने हेतु व्यापक जनजागरण कार्यक्रम भी अपनाया गया।
1966-69 की अवधि में परिवार नियोजन कार्यक्रम के लिए स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित किए गए।
चौथी पंचवर्षीय योजना में परिवार नियोजन कार्यक्रम को उच्च प्राथमिकता दी गई। इस कार्यक्रम में छोटे परिवार के लाभ, परिवार नियोजन विधियों के बारे में व्यक्तिगत जानकारी, तथा परिवार नियोजन की सामग्री व सेवाओं की तुत उपलब्धि पर जोर दिया गया। पांचवीं पंचवर्षीय योजना में परिवार नियोजन कार्यक्रम की उतनी ही प्राथमिकता दी गई जितनी कि चौथी योजना में दी गई थी। इस योजना में परिवार नियोजन कार्यक्रम को स्वास्थ्य, मातृ-कल्याण व शिशु-कल्याण तया पोषण सेवाओं के साथ एक एकीकृत रूप में लागू करने पर जोर दिया गया।
1976 की जनसंख्या नीति की घोषणा तक परिवार नियोजन कार्यक्रम पूरी तरह स्वैच्छिक था सरकार की भूमिका लोगों को परिवार नियोजन अपनाने के लिए प्रेरणा देने और उसके लिए आवश्यक सुविधाएं प्रदान करने तक सीमित थी। सरकार द्वारा 1971 में पुरुषों के लिए विवाह की वैधानिक न्यूनतम आयु बढ़ाकर 21 वर्ष और स्त्रियों के लिए 18 वर्ष कर दी गई।
सरकार ने परिवार नियोजन कार्यक्रम में जिला परिषदों, पंचायत समितियों, सहकारी संगठनों, अध्यापकों, श्रमिक संघों और स्त्रियों एवं युवकों के स्वैच्छिक संगठनों का सहयोग लिया। यह सब युक्ति संगत था। परंतु सरकारी विभागों को जिम्मेदारी देना कि लोगों को परिवार नियोजन के लिए प्रेरित करें और राज्य सरकारों को अनिवार्य बंध्याकरण के विषय में कानून बनाने के लिए अधिकार देना आपत्तिजनक उपाय थे।
भारत में आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रभावी आंकड़ों के बावजूद सरकारी तंत्र द्वारा जोर जबरदस्ती के कारण यह कार्यक्रम बहुत बदनाम हुआ और लोगों ने इसका भारी विरोध किया।
छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान जनसंख्या नियंत्रण को विशिष्ट रूप से योजना का उद्देश्य उल्लिखित किया गया, और बीस-सूत्रीय कार्यक्रम में समन्वित किया गया। वर्ष 1980 में, योजना आयोग ने जनसंख्या नीति पर एक कार्यदल का गठन किया। इसने जनसंख्या एवं विकास मापकों के बीच दो-तरफा संबंधों की पहचान करने की आवश्यकता पर बल दिया।
सातवीं योजना के संपन्न हो जाने के पश्चात्, एक संशोधित रणनीति ने, महिला की विवाह योग्य न्यूनतम आयु बढ़ाने, उन्हें सजग करने, आर्थिक एवं रोजगार अवसरों में वृद्धसे उनके प्रस्थिति बेहतर करने, मां और बच्चे के स्वास्थ्य सुधार, गरीबी निवारण कार्यक्रमों के साथ अत्यधिक समन्वय एवं सम्पर्क तथा परिवार नियोजन कार्यक्रमों में गैर-सरकारी संगठनों की अत्यधिक संलग्नता पर बल दिया।
आठवीं योजनान्तर्गत मानव विकास को एक अंतिम उद्देश्य के तौर पर अपनाया गया और जनसंख्या नियंत्रण को एक अभिमान्यता के तौर पर सूचीबद्ध किया गया। योजना ने एक भिन्न दृष्टिकोण एवं तरीका अपनाया और उसमें अप्रत्यक्ष उपायों पर बल दिया गया, इस नई पद्धति के मुख्य संघटक जिन पर बल दिए गए थे, गरीबी निवारण, रोजगार सृजन, पंचायत संस्थानों में अधिक सहभागिता इत्यादि। इसमें शिशु मृत्यु दर एवं मातृ मृत्यु दर में कमी करने के कदम उठाए गए। इसके अंतर्गत पुनरुत्पादन एवं बल स्वास्थ्य देखभाल योजनाएं, समन्वित बल विकास, सेवाएं, बाल जीवन बचाना एवं सुरक्षित मातृत्व योजना (1992-93 में प्रारंभ) और मध्यान्ह भोजन योजना चालू की गई।
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नौवीं पंचवर्षीय योजना में आवश्यकता मूल्यांकन पर आधारित विकेंद्रीकृत क्षेत्र विशेष नियोजन के माध्यम से महत्वपूर्ण सांख्यिकी पर अंर्त-एवं अंतरराज्यीय अंतरों को न्यूनतम या खत्म करने का प्रयास किया गया।
पुनरुत्पादित एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (आरसीएच) को 1997 में प्रारंभ किया गया। इसमें विकेंद्रीकृत क्षेत्र विशेष समष्टि नियोजन और इसके क्रियान्वयन पर ध्यान दिया गया।
दसवीं योजना ने नौवी योजना में शुरू हुए परिवर्तनों को जारी रखने का प्रयास किया। प्रजननता, मृत्यु दर एवं जनसंख्या वृद्धि दर दसवीं योजनान्तर्गत उद्देश्यों में प्रमुख थे।
ग्यारहवीं योजना दस्तावेज बताता है कि कॉन्ट्रासेप्टिव का इस्तेमाल करने वाली विवाहित महिलाओं की संख्या में इजाफा हुआ है। हालांकि, परिवार नियोजन कार्यक्रम में इस तथ्य से कि कॉन्ट्रासेप्टिव हस्तक्षेप बेहद बड़े पैमाने पर होने के बावजूद, परिवार नियोजन में महिलाओं का बंध्याकरण ही बेहद प्रचलित पद्धति है, लिंग असमानता का संकेत मिलता है। इसके लिए पुरुषों को जिम्मेदार साथी नहीं मन जाता और कंडोम का इस्तेमाल या पुरुष नासंदी बेहद कम की जाती है।
आरसीएच कार्यक्रम की रणनीतियां राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत ग्यारहवीं योजना के दौरान भी जारी रहीं। ऐसी दंपत्ति, जिनकी कॉन्ट्रासेप्टिक संबंध जरूरतें पूरी नहीं हो पाई, की सहायक नर्स मिडवाइफ (एएनडब्ल्यू और एक्रिडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट (आशा) के माध्यम से पहचान की गई।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में 2012 तक कुल प्रजनन दर (टीएफआर) को 2.1 तक करना लक्षित किया गया। (राष्ट्रीय जनसंख्या नीति ने 2010 तक 2.1 टीएफआर प्राप्त करने की आशा की और वर्ष 2045 तक स्थिर जनसंख्या का लक्ष्य रखा)। योजना के लक्ष्य, हालाँकि हासिल नहीं हो सके।
हालांकि, सर्वोच्च 20 राज्यों के बीच, 10 में 2.1 से कम टीएफआर है। जनसंख्या का बड़ा दबाव पांच बड़े उत्तरी राज्यों-उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, एवं झारखंड से आता है। ये पांच राज्य राष्ट्रीय जनसंख्या के एक-तिहाई के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन इन राज्यों में भी प्रजनन दर घट रही है, यद्यपि इसकी तीव्रता पर्याप्त नहीं है। वे राज्य जो स्थिर जनसंख्या की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, वहां ऊंची आर्थिक दर एवं अधिक शहरीकरण है। सभी राज्यों के आंकड़े दर्शाते हैं कि शहरी क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में कहीं कम प्रजननता स्तर है। यह केवल जनसांख्यिकीविदों के बीच इस अजीब मान्यता को मजबूत करती है कि शहरीकरण सर्वोत्तम कॉन्ट्रासेप्टिव है।
बारहवीं पंचवर्षीय योजना: इस योजना में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) को 2.5 (2010) से घटाकर 2017 तक 2.1 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया है जो समानता के कुल प्रतिस्थापन स्तर को प्राप्त करने और राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपरिहार्य है।
नई जनसंख्या नीति, 2000
वर्ष 1976 में आपातकाल के दौरान सरकार ने एक ऐसी जनसंख्या नीति बनाई, जो विपरीत सिद्ध हुई क्योंकि उसके अंतर्गत राज्यों जबरन बंध्याकरण/ नसबंदी की अनुमति दे दी गई थी। इस नीति में 1971 के जनगणना आंकड़ों के आधार पर संसद एवं चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन पर भी रोक लगा दी गई।
वर्ष 1977 में यह सरकार सत्ता से बाहर हो गई। उसके बाद जो सरकार बनी उसने परिवार नियोजन का नाम बदल कर उसे परिवार कल्याण कर दिया तया एक अन्य जनसंख्या नीति की घोषणा की जिसमें इस कार्य के लिए दबाव की नीति को त्याग दिया गया। यह सरकार भी ज्यादा समय तक नहीं टिकी और परिणामस्वरूप परिवार नियोजन/कल्याण का राजनैतिक महत्व जाता रहा।
वर्ष 1991 में सरकार ने केरल के मुख्यमंत्री श्री करुणाकरण की अध्यक्षता में जनसंख्या के बारे में एक समिति की नियुक्ति की। वर्ष 1993 में इस समिति ने राष्ट्रीय विकास परिषदको अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें एक राष्ट्रीय जनसंख्या नीति बनाए जाने की सिफारिश की गई। 1993 में ही सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति निर्धारित करने के लिए डॉ. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया। मई 1994 में जनसंख्या नीति का मसौदा प्राप्त हुआ जिसे संसद में पेश किया गया। वर्ष 1994 से 2000 तक केंद्र की अस्थिर नीतियों की वजह से जनसंख्या नीति का यह मसौदा निष्क्रिय पड़ा रहा। वर्ष 1999 में मत्रियों के एक दल ने परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा तैयार किए गए मसौदे की जांच की। फरवरी 2000 में सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 की घोषणा की। यह नीति डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित एक विशेषश दल की रिपोर्ट पर आधारित है। सरकार ने सार्वजनिक बहस के बाद इसे अंतिम रूप दिया। प्रजनन और शिशु स्वास्थ्य की देखभाल के लिए समुचित सेवा प्रणाली की स्थापना तथा गर्भनिरोधकों एवं स्वास्थ्य सुविधाओं के बुनियादी ढांचे की आवश्यकताएं पूरी करना इसके तात्कालिक उद्देश्य हैं। इसकी दरम्यानी अवधि का उद्देश्य वर्ष 2010 तक 2.1 की कुल जनन क्षमता दर प्राप्त करना है। अगर जनन क्षमता की वर्तमान प्रवृति जारी रही तो यह उद्देश्य 2026 तक ही प्राप्त हो सकेगा। दीर्घकालीन उद्देश्य 2045 तक जनसंख्या में स्थायित्व प्राप्त करना है।
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नीति ने इसके उद्देश्यों को हासिल करने के लिए कुछ खास प्रोत्साहन एवं अभिप्रेरणात्मक कदम और प्रेरणाएं निर्धारित की हैं। संवर्द्धनकारी एवं अभिप्रेरणात्मक कदमों में जन्म पूर्व नैदानिकी की पूर्ति के लिए ग्रामीण विकास विभाग की मातृत्व लाभ योजना के अंतर्गत नकद पुरस्कार का वितरण का सम्पर्क सूत्र कायम करना, प्रशिक्षित जन्म सहायक द्वारा संस्थागत प्रसव, जन्म पंजीकरण एवं बीसीजी टीकाकरण, गरीबी रेखा से नीचे के दम्पति हेतु स्वास्थ्य बीमा योजना का प्रावधान, और जिन्हने एक वैधानिक आयु के बाद विवाह किया हो, अपने विवाह का पंजीकरण कराया हो, मां की 21 वर्ष की आयु के बाद प्रथम बच्चे का जन्म, छोटे परिवार मापदंड को अपनाया हो और दूसरे बच्चे के जन्म के बाद नसबंदी प्रक्रिया अपनाई हो, को विशेष पुरस्कार देने जैसे कदम शामिल हैं।
प्रेरणाओं में, सुरक्षित गर्भपात हेतु सुविधाओं का सुदृढ़ीकरण, लघु परिवार मापदंड के सार्वभौमिकरण के निष्पादन में उत्कृष्ट कार्य के लिए पंचायत और जिला परिषद् को पुरस्कार, शिशु मृत्यु दर में कमी करने, ग्रामीण क्षेत्रों में शिशु देखभाल केंद्रों का प्रावधान, साक्षरता को प्रोत्साहित करना, इत्यादि शामिल हैं।
नीति ने आगे बाल विवाह निषेध अधिनियम और जन्म पूर्व नैदानिकी तकनीकी अधिनियम को सख्ती से लागू किया। इसके लिए परिवार कल्याण विभाग के अंतर्गत तकनीकी मिशन गठित किया गया। इसने उन राज्यों में, जहां वर्तमान में निम्न औसत सामाजिक-जनांकिकीय संकेतक हैं, निष्पादन तीव्र करने पर ध्यान केंद्रित किया।
नीतिगत उद्देश्य हासिल करने के लिए निम्नांकित कदम उठाए जाएंगे-
- 14 वर्ष की आयु तक स्कूली शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य बनाना।
- स्कूलों में बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने वाले लड़के-लड़कियों की संख्या 20 प्रतिशत से नीचे लाना।
- शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार जीवित बच्चों में 30 से कम करना।
- मातृ मृत्यु अनुपात प्रति एक लाख संतानों में एक सौ से कम करना।
- टीकों से रोके जाने वाले रोगों से सभी बच्चों को प्रतिरक्षित करना।
- लड़कियों के देर से विवाह को बढ़ावा देना। विवाह 18 वर्ष से पहले न हो, बेहतर होगा अगर यह 20 वर्ष की आयु के बाद हो।
- सभी को सूचना, परामर्शतथा जनन क्षमता नियमन की सेवाएं और गर्भनिरोध के विभिन्न विकल्प उपलब्ध कराना।
- जन्म-मरण, विवाह और गर्भ का शत-प्रतिशत पंजीयन करना।
- एड्स का प्रसार रोकना तथा प्रजनन अंग रोगों के प्रबंध तथा राष्ट्रीय एइस नियंत्रण संगठन के बीच अधिक समन्वय स्थापित करना।
- संक्रामक रोगों को रोकना और उन पर काबू पाना।
- प्रजनन और शिशु स्वास्थ्य सुविधाओं को घर-घर तक पहुंचाने के लिए भारतीय चिकित्सा प्रणालियों को समेकित करना।
ऊंची जन्म-दर: कारण एवं निवारण
नई राष्ट्रीय जनसंख्या नीति में उच्चजन्म दरसे संबंधित समस्याओं का प्रभावी समाधान दिया गया है। इसके लिए निम्नलिखित 12 महत्वपूर्ण विषयों की पहचान की गई है-
- विकेंद्रित आयोजना और कार्यक्रम क्रियान्वयन।
- सेवाओं का रुख गांवों की ओर करना।
- बेहतर स्वास्थ्य और पोषण के लिए महिलाओं का अधिकार संपन्न होना।
- शिशु स्वास्थ्य और उत्तरजीविता।
- परिवार कल्याण सेवाओं की आवश्यकताएं पूरी करना।
- जनसंख्या के उपेक्षित वर्गों,जैसे- शहरों के झुग्गी-झोपड़ी निवासियों,जनजातियों,पर्वतीय लोगों, विस्थापितों और प्रवासियों तथा किशोरों तक पहुंचना।
- विभिन्न स्वास्थ्य सेवकों से काम लेना।
- गैर-सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्र से सहयोग।
- भारतीय चिकित्सा पद्धतियों और होम्योपैथी को मुख्यधारा में लाना।
- गर्भनिरोध टेक्नोलॉजी, प्रजनन तथा शिशु स्वास्थ्य के बारे में अनुसंधान को बढ़ावा देना।
- 60 वर्ष से ऊपर के वरिष्ठ नागरिकों के लिए प्रावधान करना।
- सूचना, शिक्षा और संप्रेषण।
एनपीपी का क्रियान्वयन: जैसाकि राष्ट्रीय जनसंख्या नीति (एनपीपी) ने अनुशंसा की, एक राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का गठन किया गया। समन्वय प्रकोष्ठ के स्थान पर, योजना आयोग में एक नीति रूपांतरण प्रकोष्ठ का सृजन किया गया। जनांकिकीय रूप से कमजोर आठ राज्यों-विहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, ओडीशा एवं राजस्थान पर ध्यान देने के लिए तकनीकी मिशन के स्थान पर, एक एम्पॉवर्ड कार्य समूह (ईएजी) का शुभारंभ किया गया। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) वर्ष 2005 में प्रारंभ किया गया। विभिन्न राज्यों एवं संघ प्रदेशों ने विशिष्ट रणनीतियों लक्ष्यों एवं कार्यक्रमों के साथ स्वयं की जनसंख्या नीतियां तैयार कीं। सभी राज्यों को परामर्श दिया गया कि वे जनसंख्या नीतियों का निर्माण राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 के संदर्भ में करें।
जनगणना 2011 के अनुरूप कार्य सहभागिता
जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में कुल कामगार संख्या (जिन्होंने संदर्भ वर्ष के दौरान कम-से-कम 1 दिन काम किया), 481.7 मिलियन थी। इनमें से 331.9 मिलियन कामगार पुरुष और 149.9 मिलियन महिलाएं थीं। 2001-2011 के दशक के दौरान 74.5 मिलियन कामगारों की वृद्धि में 56.8 मिलियन पुरुष और 22.7 मिलियन महिलाओं की सहभागिता थी।
कामकारों ने 19.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, जो दशक के दौरान समग्र जनसंख्या वृद्धि 17.7 प्रतिशत से ऊंची रही। पुरुष कामगारों की वृद्धि 20.7 प्रतिशत तक और महिला कामगारों की वृद्धि 17.8 प्रतिशत तक रही।
342.6 मिलियन कामगार ग्रामीण क्षेत्रों में और 133.1 मिलियन कामगार शहरी क्षेत्रों में हैं। ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में महिला कामगारों की संख्या क्रमशः 121.8 और 28.0 मिलियन रही।
देश के लिए श्रम सहभागिता दर (डब्ल्यूपीआर) 39.8 प्रतिशत रही। यह जनगणना 2001 के 39.1 प्रतिशत से ऊंची रही। पुरुषों के लिए डब्ल्यूपीआर 2001 के 51.7 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर जनगणना 2011 में 53.3 प्रतिशत हो गई। महिला डब्ल्यूपीआर में थोड़ी कमी आई जो 2001 के 25.6 प्रतिशत से घटकर जनगणना 2011 में 25.5 प्रतिशत रह गई।
हिमाचल प्रदेश कुल कामगार हेतु डब्ल्यूपीआर में प्रथम रैंक (51.9 प्रतिशत) लाया है और साथ ही महिला कामगार (44.8 प्रतिशत) में भी इसका प्रथम स्थान है। निम्नतम डब्ल्यूपीआर लक्षद्वीप में (29.1 प्रतिशत) दर्ज किया गया है। निम्नतम महिला डब्ल्यूपीआर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (10.6 प्रतिशत) से दर्ज किया गया है। उच्चतम पुरुष (डब्ल्यूपीआर (71.5 प्रतिशत) दमन एवं दीव में और निम्नतम (46.2 प्रतिशत) लक्षद्वीप में दर्ज किया गया है।
जनगणना 2011 में, 481.7 मिलियन कुल कामगारों में से 362.4 मिलियन मुख्य कामगार थे और शेष 119.3 मिलियन सीमांत कामगार थे। कुल कामगारों में मुख्य कामगारों का प्रतिशत, जनगणना 2011 में, 75.2 प्रतिशत था जबकि जनगणना 2001 में यह प्रतिशत 77.8 प्रतिशत था।
पुरुष कामगारों में मुख्य कामगारों का प्रतिशत 82.2 प्रतिशत है और महिला कामगार 59.6 प्रतिशत हैं। पुरुष मुख्य कामगारों का प्रतिशत 87.3 प्रतिशत के मुकाबले जनगणना 2011 में घटकर 82.3 प्रतिशत रह गया। दूसरी ओर, मुख्य महिला कामगारों का प्रतिशत जनगणना 2011 में 57.3 प्रतिशत से बढ़कर 59.6 प्रतिशत हो गया है। दमन एवं दीव में मुख्य कामगारों का सर्वोच्च प्रतिशत (96.0 प्रतिशत) पाया गया है और न्यूनतम झारखंड में 52.1 प्रतिशत दर्ज किया गया है।
पहली बार जनगणना 2011 में, सीमांत कामगारों, जो संदर्भ वर्ष में 6 माह से कम काम करते हैं, की दो श्रेणियों में उपविभाजित किया गया है, नामतः वे कामगार जो 3 महीने से कम काम करते हैं और वे कामगार जो 3 महीने से अधिक लेकिन 6 महीने से कम काम करते हैं। 119.3 सीमांत कामगारों में, लगभग 97 मिलियन 3 से 6 महीने काम करते हैं जबकि मात्र 22.3 मिलियन कामगार 3 महीने से कम काम करते हैं, जो क्रमशः 81.3 प्रतिशत और 18.7 प्रतिशत है।
3 से 6 माह काम करने वाले कामगारों का हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों (80.7 प्रतिशत) के मुकाबले शहरी क्षेत्रों (85.2 प्रतिशत) में अधिक है, जबकि 3 माह से कम काम करने वाले कामगारों का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में (19.3 प्रतिशत) अपने समकालीन शहरी क्षेत्रों के (14.8 प्रतिशत) मुकाबले ऊंचा है।
3 से 6 माह कामगार श्रेणी में सीमांत कामगारों का प्रतिशत (89.3 प्रतिशत) सबसे अधिक गुजरात में पाया गया है और सबसे कम (60.9 प्रतिशत) नागालैंड में दर्ज किया गया है। 3 महीने से कम काम करने वाले कामगारों के मामले में, यह स्वाभाविक है कि इन राज्यों में विपरीत स्थिति है।
कामगारों की आर्थिक गतिविधियां श्रेणियां: आर्थिक गतिविधियों की व्यापक श्रेणियां, कामगारों की चार गुना वर्गीकरण के तौर पर भी जाना जाता है/हैं, कृषक (सीएल), कृषि (एएल) परिवार के व्यय साय में कार्यरत (एचएचआई) एवं अन्य कामगार (ओडब्ल्यू)। कृषक एवं कृषि श्रमिक प्रकट करते हैं कि अधिकतर कामगार कृषि क्षेत्र में संलग्न हैं सिवाय उनके जो बागवानी गतिविधियों में लगे हैं जिन्हें जनगणनाओं द्वारा एक अन्य कामगार के तौर पर रखा गया है।
जनगणना 2011 में, 481.7 मिलियन कुल कामगारों में, 118.8 मिलियन कृषक थे और अन्य 144.3 मिलियन कृषि श्रमिक थे। इस प्रकार, तकरीबन 55 प्रतिशत कामगार कृषि गतिविधियों में संलग्न थे, जबकि 2001 में यह प्रतिशत 58.2 प्रतिशत था। शेष 18.3 मिलियन पारिवारिक उद्योगों में संलग्न थे और 200.4 मिलियन अन्य कामगार थे।
2001-2011 के दशक के दौरान, जनगणना परिणामों ने कृषकों में लगभग 9 मिलियन की गिरावट और कृषि श्रमिकों में 38 मिलियन की वृद्धि दर्शाई। पारिवारिक उद्योगों ने 1.4 मिलियन की वृद्धि और अन्य कामगारों ने लगभग 49 मिलियन की वृद्धि प्रदर्शित की।
सभी राज्यों एवं संघ प्रदेशों के बीच उत्तर प्रदेश में सभी श्रेणियों के कामगारों की उच्चतम संख्या दशाई गई है।