संसदीय समितियां Parliamentary Committees

संसदीय निगरानी अधिक प्रभावी एवं सार्थक हो इस दृष्टि से संसद को ऐसी एजेंसी की आवश्यकता होती है जिसमें संपूर्ण सदन का विश्वास हो। अन्य बातों के साथ-साथ, इस उद्देश्य की प्राप्ति संसद अपनी समितियों के माध्यम से करती है जिनमें उसके अपने कुछ सदस्य कार्य करते हैं। समितियां एक ओर जहाँ संसद एवं लोगों के बीच कड़ी का काम करती है वहीं दूसरी ओर सरकार एवं लोगों के बीच। समितियों के कारण आम लोगों के लिए, संस्थाओं के लिए और यहाँ तक कि व्यक्तिगत रूप से नागरिकों के लिए भी संभव है कि लोगों को सीधे प्रभावित करने वाले मामलों पर संसद द्वारा विचार-विमर्श में प्रत्यक्ष एवं प्रभावी रूप से भाग ले सकें। कुल मिलाकर, दोनों सदनों की 45 स्थायी समितियां हैं। इनमें से 24 दोनों सदनों की संयुक्त समितियां हैं। इनके अतिरिक्त 21 एक सदनीय समितियां हैं- 9 राज्य सभा की एवं 12 लोक सभा की। 17 विभागीय समितियों में से 11 को सचिवीय सेवाएं लोकसभा सचिवालय एवं 6 को राज्य सभा सचिवालय से मिलती हैं। उल्लेखनीय है कि महिला सशक्तीकरण समिति सबसे नई संयुक्त समिति है। बारहवीं लोकसभा के कार्यकाल में दो नई तदर्थ समितियां बनाई गईं-

  1. संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना समिति,
  2. अनिवार्य वस्तु (संशोधन) विधेयक पर संयुक्त समिति

संसदीय समितियां दो तरह की होती हैं-

  1. स्थायी समितियां: स्थायी समितियों का चुनाव सदन द्वारा अथवा लोकसभा अध्यक्ष द्वारा प्रतिवर्ष किया जाता है और इन समितियों का कार्य निरंतर चलता रहता है।
  2. अस्थायी समितियां: अस्थायी समितियों का चुनाव जरूरत के अनुसार किया जाता है और जरूरत पूरी हो जाने पर उनकी समाप्ति हो जाती है।

स्थायी समितियां

प्राक्कलन समिति: यह भारतीय संसद की सबसे बड़ी समिति होती है और इसका सम्बंध वार्षिक बजट की वित्तीय समिति से होता है। इसे अनुमान करने वाली वित्तीय समिति भी कहा जा सकता है। इस समिति में 30 सदस्य, सभी के सभी लोकसभा के होते हैं। समिति के सदस्यों का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा एकल संक्रमणीय पद्धति के आधार पर होता है। इस समिति के सदस्य मंत्री नहीं हो सकते हैं। यह समिति वार्षिक अनुमानित बजट का सूक्ष्म अध्ययन तथा जांच करती है और वित्तीय प्रशासन में मितव्ययता, कुशलता, दक्षता, सुधार तथा वैकल्पिक नीतियों के संबंध में सुझाव देती है। समिति के सुझावों पर सदन में बहस नहीं होती है परंतु यह समिति अपना कार्य वर्ष भर करती है तथा अपना दृष्टिकोण सदन के समक्ष रखती है।

लोक लेखा समिति: यह लोकसभा की समिति है। इसमें लोकसभा के 15 सदस्य होते हैं परंतु दोनों सदनों की सहमति से राज्यसभा से भी इस समिति में 7 सदस्य चुने जाते हैं। कुल मिलाकर 22 सदस्य होते हैं। प्रायः समिति का अध्यक्ष सत्ता पक्ष से नहीं होता है। इस समिति में भी मंत्री सदस्य नहीं होते हैं। इस समिति के सदस्यों का चुनाव भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा किया जाता है। इस समिति को नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक का सहयोग प्राप्त होता रहता है। यह समिति आम व्ययों पर निगरानी रखती है। मुख्य रूप से इन व्ययों को संसद की अनुमति प्राप्त होनी चाहिए- यह कार्य भी समिति द्वारा संपादित किया जाता है।

सार्वजनिक उपक्रम समिति: इस वित्तीय समिति में 10 सदस्य लोकसभा तथा 5 सदस्य राज्यसभा से आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा चुने जाते हैं। इसका भी सदस्य मंत्री नहीं हो सकता है। समिति का सभापति लोकसभा सदस्य होता है। यह समिति सार्वजनिक उपक्रमों की कार्यकुशलता, स्वायत्तता तथा स्वस्थ व्यावसायिक सिद्धांत व व्यवहारों की जांच करती है।

प्रवर समिति: इस समिति का गठन लोकसभा तथा राज्यसभा के लिए अलग-अलग तथा एक साथ भी किया जा सकता है। अलग होने की स्थिति में सदस्य संख्या 30 तथा संयुक्त होने की स्थिति में 45 होती है। संयुक्त प्रवर समिति में 30 लोकसभा तथा 15 राज्यसभा के सदस्य होते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य विधेयकों पर गहन विचार-विमर्श करना होता है।


नियम समिति: इस समिति में 15 सदस्य होते हैं और इन्हें मनोनीत किया जाता है तथा इसके सभापति लोकसभा अध्यक्ष होते हैं। यह समिति संसदीय कार्यवाही तथा विधानों पर विचार करती है तथा नियमों में संशोधन या नये नियमों की सिफारिश करती है।

कानून समिति: इस समिति में 15 सदस्य होते हैं ज़िनकी नियुक्ति पर करता है। इस समिति का कार्य सरकार द्वारा निर्मित नियमों तथा पर विचार करना है।

विशेषाधिकार समिति: इस समिति में 15 सदस्य होते हैं जिनकी नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर की जाती है। इस समिति में प्रधानमंत्री तथा विधि मंत्री शामिल होते हैं। इसका मुख्य कार्यसंसद के किसी सदन में विशेषाधिकार उल्लंघन से संबंधित मामलों की जांच करना है। समिति की रिपोर्ट के आधार पर उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को दण्ड दिया जाता है।

सरकारी आश्वासन समिति: इस समिति में 15 सदस्य होते हैं, जिन्हें लोकसभा अध्यक्ष द्वारा मनोनीत किया जाता है। यह समिति सरकार या मंत्रियों द्वारा सदन के पटल पर दिये गये आश्वासनों के कार्यान्वयन की जांच करती है।

सलाहकार समिति: इस समिति में 15 सदस्य होते हैं तथा उनकी नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा होती है। लोकसभा अध्यक्ष समिति का पदेन सभापति होता है। यह समिति सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने की व्यवस्था करती है तथा विभिन्न विषयों पर चर्चा के लिए समय निर्धारित करती है तथा संसद का सत्र बुलाने के संबंध में भी निर्णय करती है।

याचिका समिति: याचिका समिति में 15 सदस्य होते हैं और सभी की लोकसभा अध्यक्ष मनोनीत करते हैं। सभी याचिकाओं का परीक्षण करना समिति का मुख्य कार्य है। यह समिति याचिकाओं में की गई शिकायतों की सुचना लोकसभा को देती है।

अनुपस्थित समिति: अनुपस्थित रहने वाले सदस्यों से सम्बद्ध समिति में 15 सदस्य होते हैं तथा इसका मुख्य कार्य अनुपस्थिति के आवेदन-पत्र तथा उससे संबंधित विषयों पर विचार करना है।

अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति समिति: इस समिति के 30 सदस्य होते हैं जो लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों से चुने जाते हैं। संवैधानिक प्रावधानों का समुचित रूप से कार्यान्वयन हो रहा है अथवा नहीं, यह देखना इस समिति का मुख्य उद्देश्य है।

गैर-सरकारी विधेयक समिति: इस समिति में लोकसभा अध्यक्ष द्वारा मनोनीत 15 सदस्य होते हैं। यह समिति गैर-सरकारी विधेयकों की पेश करवाने तथा समय निर्धारण का कार्य करती है। लोकसभा उपाध्यक्ष इस समिति का सदस्य होता है।

वेतन-भत्ते समिति: इस समिति में 15 सदस्य होते हैं। 10 सदस्य लोकसभा अध्यक्ष तथा 5 सदस्य राज्यसभा के सभापति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। इसका मुख्य कार्य संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं अन्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने का है।

विभागीय स्थायी समितियां लोकसभा के नियमों के बारे में विभिन्न विभागों से संबंधित 8 अप्रैल, 1998 को 17 समितियों का गठन किया गया। गौरतलब है कि जुलाई 2004 में नियमों में संशोधन किया गया ताकि ऐसी ही सात और समितियां गठित की जा सकें। इस प्रकार अब इन समितियों की संख्या 24 हो गई है।

सलाहकार समिति: संसदीय कार्य मंत्रालय सलाहकार समिति इसका मुख्य उद्देश्य आपसी भाईचारे तथा सदस्यों के बीच नजदीकी संबंध बनाना होता है, जिससे संसद में विभिन्न राजनीतिक दलों में आपसी तालमेल बना रहे तथा सरकारी प्रशासन सुचारू रूप से चलता रहे। प्रत्येक मंत्रालय में इस तरह की समिति बनाई जाती है।

सलाहकार समिति की न्यूनतम सदस्यता 10 और अधिकतम 30 है। महत्वपूर्ण है कि लोकसभा के भंग हो जाने पर यह समिति भी भंग हो जाती है एवं नई लोकसभा के साथ इसका भी पुनर्गठन किया जाता है।

संयुक्त संसदीय समिति की भूमिका एवं आवश्यकता

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर सरकार संसद की संयुक्त समिति बनाने की तैयार हो गई और कांग्रेस के पी.सी. चाको को इसकी कमान सौंपी गई। इस 30 सदस्यीय समिति में लोकसभा के 20 व राज्यसभा के 10 सदस्य शामिल किए गए हैं। समिति में सभी दलों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। प्रश्न उठता है कि सरकार पहले इसके गठन से क्यों बचना चाहती थी?

संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) संसद द्वारा गठित की जाने वाली एक तदर्थ समिति है जिसका गठन संसद द्वारा किसी विशेष मुद्दों या रिपोर्ट की जांच के लिए किया जाता है। दरअसल संसद के पास काम की अधिकता होती है तथा समय सीमित होता है। अतः यह सभी विधेयकों एवं रिपोटों की जांच करने में असमर्थ है। ऐसे में यह विभिन्न विधेयकों, मुद्दों एवं संसद में पेश की गई रिपोर्टों की जांच तथा परीक्षण के लिए अलग-अलग समिति गठित करती है। संयुक्त संसदीय समिति भी इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए गठित की जाती है। संयुक्त संसदीय समिति किसी विशिष्ट मामले की जाँच करने और प्रतिवेदन देने के लिए सदनों द्वारा इस आशय को स्वीकृत करके या अध्यक्ष/सभापति द्वारा समय-समय पर गठित की जाती है। उदाहरणार्थ, लोकसभा द्वारा प्रस्ताव स्वीकृत किए जाने पर एक सदस्य श्री एच.जी. मुदगल के आचरण की जांच करने के लिए 1951 में एक समिति गठित की गई थी। समय-समय पर नियुक्त रेलवे अभिसमय समिति, लाभ के पदों संबंधी संयुक्त समिति और किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए सदन द्वारा या अध्यक्ष द्वारा या सभापति द्वारा नियुक्त कोई अन्य समिति भी ऐसी समिति का उदाहरण है। उल्लेखनीय है कि सदस्यों के वेतन, भत्ते और पेंशन, बोफोर्स तोप सौदा, बैक प्रतिभूति घोटाला इत्यादि मामलों के संबंध में दोनों सदनों की प्रमुख संयुक्त समितियां गठित की गई। इसके सदस्यों में लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों सदनों के सदस्य शामिल किए जाते हैं। समिति के सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं है, लेकिन फिर भी इसमें इस ढंग से सदस्यों को नियुक्त किया जाता है कि सदन के अधिकांश पार्टियों को इसमें प्रतिनिधित्व करने का मौका मिले। सामान्यतः इसमें लोकसभा के 10 और राज्य सभा के पांच सदस्य शामिल किए जाते हैं। इसके पास किसी भी माध्यम से सबूत जुटाने का हक होता है।

एक बार जेपीसी का गठन हो जाने के पश्चात् यह संसद द्वारा सौंपे गए बिंदुओं पर अपनी जांच आरंभ करता है। जेपीसी की जांच में विभिन्न सहयोगियों, विशेषज्ञों, सार्वजानिक निकायों और इच्छुक समूहों को आमंत्रित किया जाता है। तकनीकी विषयों पर सलाह के लिए जेपीसी तकनीकी विशेषज्ञों को भी नियुक्त करती है। इसके अलावा विषयों के संदर्भगत बिंदुओं पर आम जन से भी सलाह एवं विचार आमंत्रित करते हैं। समिति की पूरी कार्यप्रणाली गोपनीय होती है, लेकिन इसके अध्यक्ष समय-समय पर समिति की बैठकों में विचार किए गए मुद्दों पर मीडिया को संबोधित करते हैं। एक बार सौंपे गए विषयों पर अपनी जांच रिपोर्ट संसद की पेश कर देने के बाद जेपीसी का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

जेपीसी की गठन से इंकार के पीछे एक ठोस कारण है। दरअसल संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) घोटालों की जांच में एक महत्वपूर्ण हथियार है। इस समिति के पास घोटाले से संबंधित किसी भी एजेंसी या व्यक्ति को अपने सम्मुख बुलाकर उससे पूछताछ करने का अधिकार है। यहां तक कि यह किसी मंत्री या प्रधानमंत्री को बुलाकर प्रश्न पूछ सकती है। ज्ञातव्य है कि बोफोर्स टॉप सौदे एवं प्रतिभूति घोटाले के सम्बन्ध में संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट कुछ प्रश्नों एवं विवादों से घिरी रही तथापि सरकार संसदीय समितियों की सिफारिशों की महत्वपूर्ण मानती है और अधिकतर सिफारिशों को स्वीकार करती है। गौरतलब है कि समितियों द्वारा बारीकी से छानबीन की संभावना ही प्रशासन पर पर्याप्त प्रभाव डालती है, परिणामस्वरूप लापरवाही, पक्षपात् एवं अपव्यय के बहुत से कार्य केवल इसी भय से नहीं किए जाते कि किसी संसदीय समिति द्वारा उनकी जांच की जा सकती है और लोगों के सामने उनका पर्दाफाश किया जा सकता है। निरंतर सतर्क रहकर और सरकारी विभागों के कार्यकरण के न्यायोचित एवं रचनात्मक मूल्यांकन से समितियों ने संसद के प्रभावी कार्यकरण में विशिष्ट योगदान किया है तथापि भारतीय संसद की सीमित व्यवस्था में और सुधार करने तथा उसे सक्षम एवं सशक्त व्यापकता और जटिलता के कारण यह और भी जरूरी हो गया। वर्ष 2001 में केतन पारेख शेयर घोटाले पर गठित जेपीसी ने तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा एवं दो पूर्व वित्त मंत्री चिदबंरम और मनमोहन सिंह से भी पूछताछ की थी। क्योंकि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय ने सीधे-सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका पर सवाल खड़े किए हैं। जाहिर है यह स्थिति सत्तारूढ़ गठबंधन की सरकार के लिए असहज होगी।

आज यदि एजेंसियां ताकतवर पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ जांच करने में विफल हैं, तो इसके लिए भी केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। मुख्य सतर्कता आयोग की नियुक्ति का मामला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। केंद्रीय सतर्कता आयोग सीबीआई के जांच कार्यों पर निगरानी रखता है। यानी सीबीआई जांच सीवीसी (मुख्य सतर्कता आयुक्त) की निगरानी में होती है। भ्रष्टाचार की जांच में केंद्रीय भूमिका होने के कारण सीवीसी की नियुक्ति प्रक्रिया में लोकसभा में विपक्ष के नेता को भी संवैधानिक रूप से शामिल किया गया है। संविधान की मंशा है कि ऐसे महत्वपूर्ण पद पर बैठा आदमी सरकार की ही नहीं, बल्कि विपक्ष की पसंद का भी हो। लेकिन केंद्र सरकार ने वर्तमान सीवीसी की नियुक्ति में संविधान की इस मंशा के खिलाफ काम किया। विपक्ष की नेता ने कहा था कि श्री थॉमस के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप हैं और जो खुद भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहा हो, वह सीवीसी के पद पर बैठने के योग्य हो ही नहीं सकता।

लेकिन तमाम आपत्तियों के बावजूद केंद्र ने श्री थॉमस को सीवीसी बना डाला। जब 2जी घोटाला हुआ, तब श्री थॉमस संचार सचिव थे। जब उनकी सीवीसी के रूप में नियुक्ति की जा रही थी, उसके पहले से ही 2जी घोटाले की चर्चा हो रही थी और विपक्ष इसकी जांच की मांग कर रहा था। इसके बावजूद केंद्र ने सीवीसी के रूप में श्री थॉमस की नियुक्ति की। इससे ज्यादा अटपटी बात क्या हो सकती है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के दायरे में जो व्यक्ति (संचार सचिव) खुद भी संदिग्ध दिख रहा हो, वही उस घोटाले की जांच कर रही सीबीआई का मास्टर (सीवीसी) बना हुआ हो। क्या किसी देश में ऐसा हुआ है कि जिसके खिलाफ जांच होनी हो, उसी को मुख्य जांचकर्ता बना दिया जाए? सुप्रीम कोर्ट को भी सरकार से पूछना पड़ा कि श्री थॉमस के सीवीसी होते हुए सतर्कता आयोग के तहत सीबीआई निष्पक्ष जांच कैसे कर सकती है?

भ्रष्टाचार की जांच के अलावा हम चाहते हैं कि जेपीसी केंद्रीय जांच एजेंसियों को निष्पक्ष और निर्भीक बनाने के उपाय भी सुझाए और उन उपायों से इन्हें इतना मजबूत और निर्भीक बना दिया जाए कि फिर उनकी जांच पर कोई उंगली नहीं उठा सके। भारत की संसदीय समिति प्रणाली में आगे और सुधार लाते समय याद रखने की सबसे बड़ी बात यह है कि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में समितियां स्थापित करने का यह उद्देश्य नहीं होता और न ही कभी होना चाहिए कि वे विधानमंडल एवं कार्यपालिका के मुकाबले में शक्ति के सुदृढ़ अथवा स्वतंत्र केंद्र बनें। समितियों की भूमिका पूरक और सहायक होती है और एक मित्रतापूर्ण समालोचक या आंतरिक प्रबंध लेखापरीक्षा की होती है। समिति व्यवस्था में सुधार इस उद्देश्य से किए जाने चाहिए कि वे उनको सौंपे जाने वाले कार्य को प्रभावी ढंग से कर सकें।

सरकार के समस्त कार्यकलाप 17 विभागीय समितियों के अंतर्गत आ जाते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि समितियों की मौजूदगी से सरकार के कार्यकलाप की छानबीन सुनिश्चित करने के विद्यमान साधनों में उल्लेखनीय सुधार से हमारी संसदीय प्रणाली में प्रभावी परिवर्तन की संभावना परिलक्षित होती है। आशा की जाती है कि आने वाले समय में, ये समितियां अपनी विशिष्ट भूमिका को पूरा करेंगी एवं संसदीय चौकसी को एक सजीव वास्तविकता बना देंगी।

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