उदारीकरण Liberalization

उदारीकरण द्वारा कुछ खास परिवर्तन किए गए जिन्होंने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को साकार किया। इसमें सामान्यतः अंदरूनी और अंतरराष्ट्रीय दोनों हस्तांतरणों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण में कमी, और आर्थिक गतिविधियों के समन्वय के लिए कीमत तंत्र पर निर्भरता की ओर झुकाव शामिल हैं। इसमें विनिमय नियंत्रण और विभिन्न विनिमय दरों से परिवर्तनीय मुद्रा की ओर स्थानांतरण शामिल है। उदारीकरण, हालांकि, अहस्तक्षेप के समान नहीं है।

भारत में, उदारीकरण को औद्योगिक संवृद्धि और सामाजिक विकास की प्रक्रिया को गतिमान करने के उद्देश्य से अपनाया गया था। उदारीकरण के तहत्, भारतीय और विदेशी उद्यमी ऊर्जा, परिवहन, संचार, पेट्रोलियम जैसे कई क्षेत्रों में प्रवेश कर सकते हैं और सरकार अधिक शक्ति के साथ सामाजिक और आर्थिक विकास कार्यक्रम को लागू करने के लिए मुक्त होती है। उदारीकरण की नीति की मुख्य विशेषताएं निम्न हैं-

नवीन औद्योगिक नीति (जुलाई 1991) को नौकरशाही की भूमिका को कम करने के लिए अपनाया गया जिसने तीव्र औद्योगिक विकासको बाधित किया। केवल न्यूनतम प्रशासनिक हस्तक्षेप द्वारा, लाभ प्रेरणा द्वारा बाजार ताकतों को संचालित करने और औद्योगिक क्षेत्र के भविष्य में विकास के लिए मुक्त प्रतिस्पद्ध के उद्देश्य को पूरा करना था।

उदारीकरण ने अधिकतर उद्योगों के लिए औद्योगिक लाइसेंस की आवश्यकता को खत्म किया। उदारीकरण ने 51 प्रतिशत इक्विटी के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोले। इसने सरकारी अनुदान में कमी करने की प्रक्रिया अपनाई। इसने अधिकतर निर्यात एवं आयात मदों और विदेशी निवेशों पर से प्रतिबंध हटा दिए। इसने आयात करों में भी भारी कमी की। सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों (पीएसयू) में सरकार की हिस्सेदारी घटाने के क्रम में विनिवेश किया गया।

उदारीकरण के प्रभाव

उदारीकरण की नीति के परिणामस्वरूप देश में उद्योग एवं अवसंरचना क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में बेहद वृद्धि हुई। इसने औद्योगिक क्षेत्र में मंदी पर लगाम लगाई। सकल घरेलू उत्पाद में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। विभिन्न प्रोजेक्टों की स्थापना में व्यापक निवेश और आधुनिकीकरण ने विशेष रूप से कपडा, ऑटोमोबाइल, कोयला खदान, रसायन एवं पेट्रो-रसायन, धातु, खाद्य प्रसंस्करण, सॉफ्टवेयर उद्योग इत्यादि को ऊंचा उठाया। अवसंरचना के विकास के साथ, रोजगार अवसरों में वृद्धि हुई। हालांकि, उदारीकरण के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी परिलक्षित हुए। यह तथ्य भी सामने आया कि कुछ चुनिंदा राज्यों में ही निवेश हुआ जिससे प्रादेशिक असमानता की खाई चौड़ी हुई। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में अधिक भारतीय और विदेशी निवेश हुआ। उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखण्ड, ओडीशा, केरल एवं कुछ उत्तर-पूर्वी राज्यों की उपेक्षा की गई जिसके परिणामस्वरूप यहां असमान औद्योगिक विकास हुआ। इसने बेरोजगारी और गरीबी की समस्या में वृद्धि की, मुद्रास्फीति दर में वृद्धि और अन्य सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को बढ़ाया।

उदारीकरण ने बड़ी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय निगमों की संवृद्धि को सुनिश्चित किया लेकिन परम्परागत कुटीर और लघु पैमाने के उद्योगों, विशेष रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में, को बुरी तरह प्रभावित किया। लघु उद्योग बड़े उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में अक्षम हैं और इन्हें सफल होने के लिए तकनीकी पहुंच और नेटवर्क एवं अधिक वित्त और अनुदान की आवश्यकता है।


बहुराष्ट्रीय निगम

बहुराष्ट्रीय निगम ऐसे उद्यम निकाय हैं, जो अपने मूल देश के बाहर अनेक देशों में उत्पादन एवं सेवा सुविधाओं का संचालन करते हैं। एक सामान्य स्वीकृत परिभाषा के अनुसार एक बहुराष्ट्रीय निगम वह उद्यम है, जो अपने कुल वैश्विक निर्गत का कम-से-कम 25 प्रतिशत अपने मूल देश से बाहर उत्पादित करता है। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां बहुत ही प्रारंभिक अवस्था से विभिन्न देशों में काम शुरू कर देती हैं। इन कंपनियों को सूक्ष्म-बहुराष्ट्रीय कंपनियां कहा जा रहा है।

सूक्ष्म-बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विशालकाय बहुराष्ट्रीय निगमों से जो तथ्य पृथक् करता है, वह है इनका छोटे आकार का व्यवसाय। इनमें से कुछ सूक्ष्म-बहुराष्ट्रीय कपनियों ने, विशेष रूप से सॉफ्टवेयर विकसित करने वाली कंपनियों ने, इंटरनेट युग के प्रारंभ से कई देशों में कर्मचारियों को नियुक्त किया है। लेकिन अधिकाधिक सूक्ष्म-बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने विभिन्न देशों में सक्रिय रूप से अपने उत्पादों एवं सेवाओं का विपणन किया। गूगल, याहू, एमएसएन, ई-बे और अमेजन जैसे इंटरनेट टूल्स ने सूक्ष्म-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दूसरे देशों में सक्षम उपभोक्ताओं तक पहुंचना आसान बना दिया है। इन निगमों की व्यापक सफलता के पीछे निम्न कारण गिनाए जा सकते हैं-

  1. उच्चतर विपणन
  2. बाजार का विस्तार
  3. विशाल वित्तीय संसाधन
  4. तकनीकी श्रेष्ठता
  5. उत्पादों का नवीकरण

भारत में, 1991 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति की घोषणा के बाद से, भारतीय उद्योगों में बहुराष्ट्रीय निगमों की हिस्सेदारी का एक मुख्य रूप विदेशी सहयोग है। इस उद्देश्य के लिए भारतीय उद्योगपतियों के साथ सहयोग के समझौते बनाए जाते हैं जिनमें तकनीक के आयात की व्यवस्था होती है। कई बार विदेशी ब्रांड के नाम का इस्तेमाल करने की भी अनुमति दी जाती है।

भारत में बहुराष्ट्रीय कपनियां अलग-अलग देशों से कंपनी का विविध पोर्टफोलियो प्रस्तुत करती हैं। हालांकि अमेरिका की कपनियां, जो भारत में सर्वाधिक हैं, का टर्नओवर भारत में संचालित 20 सर्वोच्च कंपनियों के टर्नओवर का एक-तिहाई है, बाद में परिदृश्य बेहद बदल गया। यूरोपियन संघ से ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, इटली, जर्मनी, बेल्जियम और फिनलैंड जैसे देश भारत आए या भारत में उन्होंने अपना काम आउटसोर्स किया। फिनिश मोबाइल नोकिया इस देश में व्यापक आधार रखता है। ब्रिटिश पेट्रोलियम और वोडाफोन जैसी बहुराष्ट्रीय निगम भी मौजूद हैं। भारत में मोटर वाहन के लिए बड़ा बाजार है, इसलिए मोटर वाहन की दिग्गज कंपनियों ने इस बाजार से लाभ उठाने के लिए भारत में पदार्पण किया। फ्रांस की भारी इंजीनियरिंग कपनी एल्सटम और औषधि कपनी सनोफी एवेन्टिस ने भी भारत में अपना कार्य शुरू किया। मध्य पूर्व से भी कई तेल कंपनियां और इंफ्रास्ट्रक्चर कपनियों ने भारत में प्रवेश किया। दक्षिण कोरिया की विशालकाय इलेक्ट्रॉनिक कपनियां जैसे सैमसंग और एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स ने भारतीय इलेक्ट्रॉनिक बाजार में भारी प्रभाव छोड़ा।

कपनियां भारत क्यों आ रही हैं, के कारण हैं-

  1. भारत एक बहुत बड़े बाजार के रूप में मिल गया है
  2. विश्व में इसकी अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैं
  3. भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित करने के लिए विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की दिशा में सरकार की नीति ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है।

देश के विकास पर बहुराष्ट्रीय कपनियों का प्रभाव काफी असमान है। कुछ मायनों में भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव सकारात्मक रहा है। समझौतों की शर्ते अक्सर विदेशियों के अनुकूल व हमारे हितों के प्रतिकूल रही हैं। इसके मुख्य कारण भारतीय उद्योगपतियों की कमजोरसौदा-शक्ति तथा विदेशी विनिमय के संकट के कारण सरकार की विदेशी सहयोग प्राप्त करने की तत्परता थी। क्योंकि मशीनरी के विनिर्देश (specification)तथा उपकरणों की आपूर्ति करने का काम विदेशी सहयोगियों पर छोड़ दिया गया था, इसलिए न केवल उन्होंने मनमानी कीमतें लगाई अपितु कई बार आवश्यकता से अधिक सामान का आयात किया। कई बार तो स्थानीय विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद माल का आयात किया गया। कभी-कभी कलपुजें न होने के कारण मशीनरी बेकार पड़ी रही और कभी-कभी उत्पादन प्रक्रिया आवश्यकता से अधिक जटिल व यंत्रीकृत थी। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं कि विदेशी सहयोगियों ने भारत को अपने देश में पुरानी पड़ चुकी तकनीक सौंप दी। भुगतान की दरें भी इस प्रकार तय की गई थीं कि ज्यादा-से-ज्यादा लाभ प्राप्त किया जा सके। आमतौर पर सरकार की यह नीति थी कि ज्यादा-से-ज्यादा वार्षिक बिक्री का 5 प्रतिशत तथा आयात किए गए प्लांट के मूल्य का 5 प्रतिशत तकनीकी फीस के रूप में दिया जाए या फिर तकनीकी फीस के रूप में जारी पूंजी का 10 प्रतिशत एकमुश्त राशि के रूप में दिया जाए। परंतु ये अधिकतम सीमाएं वास्तव में सामान्य दरें बन गई।

हालांकि बहुराष्ट्रीय निगम एक देश के विदेशी विनिमय स्थिति में सुधार करते हैं, लेकिन दीर्घावधिक समय में चालू और पूंजी खाता दोनों में विदेशी विनिमय अर्जन घट सकता है। चालू खाता की स्थिति मध्यवर्ती वस्तुओं के बड़े पैमाने पर आयात के कारण बिगड़ सकती है, और पूंजी खाता की स्थिति लाभों, ब्याज, रॉयल्टी, प्रबंधन शुल्क इत्यादि के देश प्रत्यावर्तन के कारण खराब हो सकती है। निस्संदेह, भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा कि बहुराष्ट्रीय निगमों के लाभ की औसत दर, जोकि 20 से 25 प्रतिशत है, देश से बाहर भेज दी जाती है।

भारत से दूसरे देशों को लाभांश, ब्याज, रॉयल्टी, तकनीकी सेवाओं के लिए शुल्क तथा तकनीशियनों के वेतन के रूप में प्रतिवर्ष विदेशी मुद्रा के रूप में बहुत बड़ी राशि का भुगतान होता है।

विदेशी पूंजी देश की अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा प्रभाव डाल सकती है। कई बार इसके कारण घरेलू उद्यम योग्यताओं को पनपने  का मौका नहीं मिलता, अल्पाधिकारिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है, अर्थव्यवस्था में पुरानी टैक्नोलॉजी का प्रयोग और अनुपयुक्त वस्तुओं का उत्पादन बढ़ता है तथा उत्पादन संरचना में उच्च आय वर्गों की मांग को पूरा करने के लिए परिवर्तन किए जाते हैं।

वे मूल कपनी से अक्सर अधिक पूंजी का हस्तांतरण नहीं करते, बल्कि भारत में सेही संसाधनों को उत्पन्न करते हैं।

निष्कर्षतः, हम कह सकते हैं कि विदेशी निवेश (यदि यह वास्तव में किया गया है) केवल तभी आर्थिक और सामाजिक विकास का एक महत्वपूर्ण प्रोत्साहक हो सकता है, जब बहुराष्ट्रीय निगमों और मेजबान देश दोनों के हित एक-दूसरे के अनुरूप हों।

यह गौर किया गया कि ये कपनियां बेहद कम निर्यात करती हैं, उच्च लाभांश की घोषणा करने का प्रयास करती हैं, इनका निवेश कुछ खास क्षेत्रों तक सीमित होता है, और ये बेहद कम प्रविधि का हस्तांतरण करती हैं।

विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड)

विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) विशेष रूप से आरक्षित भौगोलिक क्षेत्र होते हैं, जिसे निजी क्षेत्र या सार्वजनिक क्षेत्र के डेवलपर द्वारा या सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल पर विकसित किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में कार्य करने वाली इकाइयां देश में संचालित इकाइयों से भिन्न नियमों एवं विनियमों के अंतर्गत कार्य करती हैं। एसईजेड में कार्यरत इकाइयां विदेशी मुद्रा अर्जक होगी लेकिन वे पूर्व-निर्धारित कीमत वर्धन का विषय नहीं होंगी या न्यूनतम निर्यात निष्पादन आवश्यकता को पूरा करने को कहा जा सकता है। अनुमोदित औद्योगिक इकाइयां, बैंक, बीमा इत्यादि यहां स्थापित हो सकती हैं।

भारत में विदेशी निवेश को उदारीकृत तथा प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अप्रैल 2000 में विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र नीति की घोषणा की गई। इस नीति को प्रभावी बनाने के लिए वर्ष 2005 में नया विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र अधिनियम पारित किया गया। यह अधिनियम 9 फरवरी, 2006 से प्रभावी हुआ।

एक राज्य में किसी भी अन्य राज्य के किसी भी एसईजेड में विनिर्माण इकाई स्थापित करने की स्वतंत्रता के साथ एक से अधिक विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) हो सकते हैं। राज्य सरकार को सशक्त एवं प्रभावी नीतियों और क्षेत्र को वैश्विक दर्जे की बाह्य अवसंरचनात्मक सुविधाएं प्रदान करके उद्योगों को आकर्षित करना होगा।

एसईजेड अधिनियम के अंतर्गत भारत विशेष नियम जो प्रक्रिया को सुगमता प्रदान करता है और सिंगल विंडोक्लीयरेंस की व्यवस्था के तहत् 15 वर्षों तक केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों को कर में छूट प्रदान की गई। साथ ही सेज के विकासकर्ताओं को, निर्माण, मरम्मत तथा विकास आदि के लिए उत्पाद कर से मुक्त कर दिया गया।

यह स्पष्ट किया गया कि इन क्षेत्रों में श्रम कानूनों में कोई छूट नहीं दी जाएगी, हालांकि कुछ राज्यों को इन प्रावधानों से छूट प्राप्त हो सकती है। देश के अन्य कानून भी यहां लागू होंगे, लेकिन सीमा कर के उद्देश्य से इन क्षेत्रों को विदेशी भूमि के तौर पर समझा जाएगा।

एसईजेड के उद्देश्य

बाजार एवं निवेश के लिए गहन प्रतिस्पर्धा के इस युग में, एसईजेड निर्यात-उन्मुख विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करेंगे और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सफलतापूर्वक प्रतिस्पद्ध करने के लिए औद्योगिक कौशल और संसाधनों का विकास करेंगे। ये विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित कर सकते हैं। ये रोजगार सृजन कर सकते हैं। ये पारस्परिक रूप से कम विकसित क्षेत्र का विकास कर सकते हैं, और इस तरह सामाजिक-आर्थिक विकास में असमानता को कम कर सकते हैं तथा इसके अतिरिक्त औद्योगिकीकरण और शहरीकरण में वृद्धि कर सकते हैं।

एसईजेड का चयन क्यों किया गया

एसईजेड सहायक उत्पादन इकाइयों की सहायता हेतु सुविधाएं मुहैया कराता है जो गुणवत्ता में अंतरराष्ट्रीय स्तर के समकक्ष हो सकती हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्र का निर्यात चौंकाने वाली ऊंचाई तक पहुंच सकता है, जो देश के निर्यात को आश्चर्यजनक रूप से प्रोत्साहित करेगा। ये घरेलू अर्थव्यवस्थाओं के साथ अगले और पिछले संबंधों के द्वारा आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देता है और प्रौद्योगिकीय तथा प्रशिक्षण के विकास में मदद करता है। ये पूरे देश में अवसंरचनात्मक और अन्य सुविधाएं सुनिश्चित करते हैं। वैश्विक स्तर की अवसंरचना अवस्थापना व्यवसाय करने की लागत में कमी करेगा और उद्योग को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्द्धात्मक बनाता है। अवसंरचना में, विद्युत का प्रतिस्पर्धी दरों पर उपलब्ध होना, अंतरराष्ट्रीय रूप से अनुमोदित दरों पर पूंजी की उपलब्धता, जहाजरानी सम्बन्धी विलम्ब को रोकने हेतु अच्छी सड़क परिवहन लिंक और लोकाचार श्रम कानून शामिल हैं। एसईजेड कर मुक्त परिसर होते हैं और व्यापार संचालन, करों और टैरिफ से सम्बद्ध गतिविधियों के तहत् विदेशी क्षेत्र माने जाते हैं। एसईजेड को दी जाने वाली छूटों का मतलब है कि यहां पर अवसंरचना सुविधाएं निम्न लागत या कीमत पर उपलब्ध हैं। एसईजेड को विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने के तौर पर भी देखा जाता है।

एसईजेड संबंधी आपत्तियां

एसईजेड के लाभ होने के बावजूद, एसईजेड की उपयोगिता को लेकर आपत्तियां उठाई जाती रही हैं। अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि एसईजेड प्रतिस्पर्धी दशाएं उत्पन्न करने की अपेक्षा एकतरफा या असंतुलित प्रोत्साहनों द्वारा निवेश आकर्षित करते हैं। एसईजेड बिना जरुरी खास दशाओं के देश का हित नहीं कर सकते। उचित अवस्थिति, प्रोत्साहन, नीतियां, घरेलू क्षेत्र और इनके बीच आपसी गठजोड़ और पर्याप्त प्रशिक्षित मानव पूंजी सभी एसईजेड के उचित संचालन के लिए अपरिहार्य हैं। इसे बाजार की सटीक पहचान, बहु-बाजार रणनीति और अन्य कारकों का भी ध्यान रखना चाहिए। यह भी डर है कि, जैसाकि एसईजेड के अंतर्गत नीति बेहद आकर्षक है, निवेशक यहां की सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए अपने संचालनों को यहां पर पुनर्स्थापित कर सकते हैं। इसलिए कपनियों को प्रोत्साहन, करदाताओं पर राजस्व भार डाल सकता है। क्षेत्र के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विशेषाधिकारों को बनाए रखने की लागत समृद्धि के संकुलों को प्रवृत्त करेगी और वास्तविक रूप में समग्र अर्थव्यवस्था लाभान्वित नहीं होगी।

विशेष टेरिफ क्षेत्र जिन्हें सार्वजनिक वित्त के सिद्धांतों के विरुद्ध तैयार किया गया है, जोकि एकरूपता की वकालत करते हैं। आलोचक इस बात को लेकर भी भयभीत हैं कि एसईजेड राज्यों में विनिर्माण और निर्यात की मजबूत परम्परा के साथ उभरेंगे, और यह केवल प्रादेशिक असमानताओं को बढ़ाएगा।

नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कपनीज ने कहा कि एसईजेड योजना बड़ी कपनियों की मदद करेगी न कि छोटी कंपनियों की।

इस योजना के दुरुपयोग और मौजूद उद्योगों को लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से इनकी एसईजेड में पुनर्स्थापना करने के बारे में चिंता जाहिर की गई। हालांकि, अनुभव दर्शाते हैं कि ये चिताएं निर्मूल हैं और एसईजेड में ताजा निवेश और रोजगार अन्तर्प्रवाहित हो रहा है। एसईजेड में निवेश गुणक प्रभाव से मिलने वाला लाभ और रोजगार सृजन के साथ अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों का मूल्यांकन एसईजेड को दी जाने वाली कर छूट (राजस्व हानि के आधार पर) से कहीं अधिक आंका गया है। इन एसईजेड ने नवीन रूप से औद्योगिक समूहों को विकसित किया है और कहीं और पुनर्स्थापित नहीं किया गया है।

एसईजेड की स्थापना के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण के संबंध में भी चिंता व्यक्त की गई।

भारत में एसईजेड की रूपरेखा

विशेष आर्थिक क्षेत्र की व्यवस्था स्थायी बनाने के लिए और अधिकतम आर्थिक गतिविधियों के संचालन से रोजगार के अवसर पैदा करने के उद्देश्य से विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम बनाया गया है। विशेष आर्थिक अधिनियम 2005 और आर्थिक क्षेत्र नियम फरवरी 2006 से प्रभावी हुए हैं।

कांडला और सूरत (गुजरात), सांताक्रूज (महाराष्ट्र), कोच्चि (केरल) चेन्नई (तमिलनाडु), विशाखापट्टनम् (आंध्र प्रदेश), फाल्टा (पश्चिम बंगाल) और नोएडा (उत्तर प्रदेश) (स्थित सभी आठ निर्यात संवर्धन क्षेत्रों को विशेष आर्थिक क्षेत्र के रूप में स्थापित किया गया है।

एसईजेड योजना विवादों की दलदल में फंस गई थी जिसने कुछ समय के लिए उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

5 अप्रैल, 2007 को, सरकार ने नए एसईजेड की अनुमति देकर इस पर से प्रतिबंध या रोक हटा ली लेकिन संबंधित नीति को अधिकाधिक स्वीकार्य बनाने के लिए इसके कई मापदंडों में बदलाव किया। मंत्रियों के शक्ति प्राप्त समूह (ईजीओएम) ने नीति के विवादस्पद पहलुओं पर प्रगतिकारक, राजनीतिक चिंतन किया।

ईजीओएम ने एसईजेड के आकार पर 5,000 हेक्टेयर की सीमा लगाई, मुख्य गतिविधियों के लिए भूमि के उपयोग हेतु कड़े मानदंड आरोपित किए, और राज्यों को भूमि अधिग्रहण करने से रोका। बेहद खास बात है कि ईजीओएम ने कहा कि इस प्रक्रिया में प्रभावित हुए परिवारों के कम से कम एक सदस्य को एसईजेड में नौकरी दी जाएगी।

हालांकि, एसईजेड की संख्या पर कोई सीमा निश्चित नहीं की गई और वित्त मंत्रालय द्वारा उठाए गए आरोपों को, विशेष रूप से डिवेलपरों को दिए गए टैक्स छूट के कारण होने वाली राजस्व की हानि से संबंद्ध, ईजीओएम द्वारा सुलाझाया गया।

ईजीओएम ने भूमि अधिग्रहण पर भी एक व्यापक नीति जारी की। मौजूदा प्रोजेक्ट प्रभावित न हो, इसको सुनिश्चित करने के लिए मंत्रिस्तरीय पैनल ने 10 फरवरी, 2006 को कटौती तिथि के तौर पर निर्धारित किया।

ईजीओएमके एसईजेड के लिए नए मापदंडों ने इस विवादस्पद मुद्दे का आंशिक हल ही प्रदान किया। प्रथमतः, इस नीति का मुख्य उद्देश्य रियल एस्टेट की अपेक्षा वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन को बढ़ावा देना है और व्यावसायिक विकास करना है। वित्तीय, एसईजेड के आकार को 5,000 हेक्टेयर तक रखना जिससे अपनी जगह से उजड़े लोगों को खेतों और सस्ते मकानों से प्रशासनिक और सामाजिक कीमत चुकाई जा सके। तृतीय, एसईजेड के लिए स्थिगित आवेदन की स्थिति में राज्य की आवश्यक रूप से भूमि अधिग्रहण करने की प्रमुख शक्ति पर रोक लगाना एक महत्वपूर्ण बदलाव है। भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894, के इस्तेमाल में किसानों से निम्न दामों पर अनिवार्य रूप से अधिग्रहण की गई भूमि में स्वाभाविक असमानता शामिल होती है, और उद्योगों तथा रियल एस्टेट डेवलपर्स को सौंप दी जाती है। एसईजेड डेवलपर्स अब बेचने के इच्छुक विक्रेता से संभवतः उच्च कीमतों पर जमीन खरीदेंगे, किसानों को उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं हटाया जाएगा।

फिर भी, नीति के दो मुख्य भागों पर विचार-विमर्श नहीं हुआ। पहला, एसईजेड डेवलपर्स और इकाइयों को आय कर पर दी गई छूट और आयात शुल्क, सेवा कर, केंद्रीय बिक्री कर, और राज्य करों से उन्मुक्ति। इसके परिणामस्वरूप राजस्व में भारी हानि होती है और प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रकार कर प्रोत्साहन द्वारा प्रवृत्त औद्योगिकीकरण सतत् है। दूसरे, तीव्र विकास और औद्योगिकीकरण द्वारा कृषि भूमि और ऊसर भूमि को औद्योगिक, व्यावसायिक, और आवासीय इस्तेमाल में बदलने का मुद्दा सामने आया है। भूमि प्रयोग नियोजन कानून एवं विनियमन सुधार इन्हें अधिक पारदर्शी और नियम आधारित बनाता है और दक्ष भूमि बाजार का विकास विलम्ब को दूर करता है। नीति का एक मुख्य तत्व कि कृषि श्रमिकों और कृषकों का पुनर्वास होना चाहिए, जिन्हें अपने परम्परागत काम से अवस्थापित किया जाएगा।

सेज (SEZ) में 2007 में निर्धारित नये मानदंड: पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में किसानों की भूमिका अधिग्रहण करने पर जो व्यापक विरोध किया गया, उसके परिणामस्वरूप भारत सरकार ने 22 जनवरी, 2007 को विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों पर रोग लगा दी। इस रोक को केंद्रीय सरकार के मंत्रियों के समूह ने 5 अप्रैल, 2007 की बैठक में समाप्त कर दिया। इस बैठक में निम्न निर्णय लिए गए-

  • 83 एसईजेड को मंजूरी दी गई।
  • विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना SEZ अधिनियम के अंतर्गत होगी।
  • सभी परियोजनाएं, बंजर या खाली क्षेत्रों पर स्थापित की जाएंगी, इसके लिए भूमि की उच्चतम सीमा 5000 हेक्टेयर निर्धारित कर दी गई है।
  • कुल क्षेत्र का कम से कम 50 प्रतिशत भूमि प्राप्त की जानी चाहिए, जो पहले 25 प्रतिशत थी। सेज अधिनियम, 2005 (SEZ Act) में इसे बढ़ाकर 35 प्रतिशत कर दिया गया था, जिसे 2007 में बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया।
  • भूमि अधिग्रहण अधिनियम में परिवर्तन किए जाने चाहिए।
  • विस्थापित भूमि, जहां हम SEZ के अंतर्गत भूमि ले रहे हैं, उसके परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जानी चाहिए।

विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र संबंधी महत्वपूर्ण तथ्य:

  1. वर्ष 1965 में भारत निर्यात प्रोसेसिंग क्षेत्र की स्थापना करने वाला प्रथम एशियाई देश बना।
  2. अप्रैल 2,000 में सेज नीति घोषित की गई। फरवरी 2006 तकसेज के लिए नीति-निर्घारण विदेश व्यापार नीति के तहत् की जाती थी।
  3. वर्ष 2005 में विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र अधिनियम पारित किया गया जो फरवरी 2006 से लागू हो गया। इसके अधीन कार्यविधि में व्यापक सरलीकरण की घोषणा की गई तथा सभी मुद्दों पर एक ही जगह निर्णय व अनुमोदन की व्यवस्था की गई।
  4. वर्ष 2011 एवं 2012 में 579 सेज को अनुमोदन जिसमें से 384 को अधिसूचित किया गया। वर्तमान में 160 सेज निर्यात कर रहे हैं, इनमें 3,308 उत्पादन इकाइयां कार्यरत्।
  5. सेज में 9,45,990 लोगों को रोजगार प्राप्त है जिसमें महाराष्ट्र सबसे आगे है। तत्पश्चात् तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात तया कर्नाटक का स्थान आता है।
  6. 2011-12 में सेज से कुल निर्यात 3,64,478 करोड़ रुपए का हुआ जिसमें सर्वाधिक निर्यात गुजरात से और तत्पश्चात् कर्नाटक और तमिलनाडु से रहा।

विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों के लाभ:

  • एक ही स्थान पर अनुमोदन संबंधी सारी कार्यवाही (सिंगल विंडो मैकनिज्म)।
  • प्रथम पांच वर्षों में आय कर से 100 प्रतिशत मुक्ति, अगले 5 वर्षों में 50 प्रतिशत मुक्ति; तथा उसके बाद 5 वर्षों में पुनः निवेशित निर्यात लाभों के 50 प्रतिशत के बराबर छूट।
  • न्यूनतम वैकल्पिक कर, केंद्रीय बिक्री कर, सेवा कर तथा राज्य करों से छूट।
  • विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना से नियतिों, रोजगार तथा निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा।
  • भारत सरकार सेज को आर्थिक समृद्धि के वाहक के रूप में प्रचारित कर रही है, जिससे-
  1. तेज गति से आर्थिक विकास होगा
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में समृद्धि होगी
  3. विनिर्माण व अन्य सेवा क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में रोजगार सृजन होगा
  4. विनिर्माण व प्रौद्योगिकी कौशल आकर्षित होंगें
  5. सार्वजनिक व निजी निवेश आकर्षित होंगे
  6. आधारिक संरचना का विकास होगा
  7. भारतीय फर्मो की प्रतिस्पर्द्धात्मक शक्ति बढ़ेगी।

सेज के सम्मुख बाधाएं:

  • बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध किसानों व अन्य लोगों का विरोध, राजनैतिक खींचातानी, पुनर्वास नीति की अनुपस्थिति, अधिग्रहण में लंबी देरी इत्यादि।
  • वैश्विक मंदी के परिणामस्वरूप गिरती हुई वैश्विक मांग जिससे निर्यातों व निवेशों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
  • कर रियायतों व छूटों के डर से कई विकासकर्ता सेज की स्थापना की जिम्मेदारी से मुक्ति पाने के प्रयास में जुटे।
  • नीति में स्पष्ट संकेतक न होने के कारण तथा नियामक परिवर्तनों के प्रतिरोध के कारण, नई परियोजनाओं के विकास में रुकावटें।
  • निर्यातों के स्थान पर घरेलू बाजारों के लिए उत्पादन करने की स्वतंत्रता न होने के कारण, सेज की व्यवहार्यता या जीवन क्षमता संदिग्ध।

विशेष आर्थिक क्षेत्र नियमों मे परिवर्तन-2013

केंद्र सरकार ने, विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम, 2005 की धारा 55 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए विशेष आर्थिक क्षेत्र नियम, 2006 का और संशोधन करने के लिए कुछ परिवर्तन किए जिन्हें विशेष आर्थिक क्षेत्र (संशोधन) नियम- 2013 कहा गया। इसके मुख्य उपबंध इस प्रकार हैं-

  1. विभिन्न प्रवर्ग, जिनमें एक दूसरे के समान या अनुरूप उनके संबंधित उत्पाद और सेवाएं, जिनके अंतर्गत सम्बंधित आनुषांगिक सेवाएं और सेक्टर की अनुसन्धान और विकास सेवाएँ तथा बोर्ड द्वारा यथा अनुमोदित समान या अनुरूप प्रकृति के उत्पाद और सेवाओं का अतिरिक्त समुच्चय समाविष्ट है, एकल सेक्टर बनाएंगे। किन्तु यह की सम्बंधित अनुषंगी सेवाओं सहित एक-दूसरे के समान अथवा अपने-अपने उत्पादों तथा अनुमोदन बोर्ड द्वारा यथा अनुमोदित समान या संगत प्रकृति की सेवाएं एकल सेक्टर बनाएंगी।
  2. बहुविध उत्पादों हेतु विशेष आर्थिक जोन के लिए न्यूनतम भूमि की आवश्यकता 1000 हेक्टेयर के स्थान पर 500 हेक्टेयर की गई है और इसी प्रकार विशेष क्षेत्र हेतु सेज की स्थापना के लिए भूमि की आवश्यकता सीमा 200 हेक्टेयर के स्थान पर 100 हेक्टेयर की गई है।
  3. किसी विनिर्दिष्ट सेक्टर या एक या अधिक सेवाओं के लिए अथवा किसी पत्तन अथवा विमानपत्तन में विशेष आर्थिक जोन का पचास हेक्टेयर या उससे अधिक का एक समीपस्थ क्षेत्र होगा, परन्तु प्रत्येक समीपस्थ पचास हेक्टेयर भूमि के लिए-(क) विशेष आर्थिक जोन में, या; (ख) जिसे विशेष आर्थिक क्षेत्र में जोड़ा जाता है, एक अतिरिक्त सेक्टर अनुज्ञात किया जा सकेगा।

परंतु किसी विनिर्दिष्ट क्षेत्र के लिए या एक या अधिक सेवाओं के लिए किसी विशेष आर्थिक जोन में किसी अतिरिक्त सेक्टर के लिए अपेक्षित अतिरिक्त भूमि पच्चीस हेक्टेयर होगी जब विशेष आर्थिक जोन असम, मेघालय,नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर, गोवा या किसी संघ राज्य क्षेत्र में स्थापित किए जाने का प्रस्ताव हो।

  1. सूचना प्रौद्योगिकी या सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवा के लिए विशेष आर्थिक जोन की स्थापना के लिए कोई न्यूनतम क्षेत्र अपेक्षित नहीं होगा, किंतु शहरों की प्रवर्ग के आधार पर न्यूनतम निर्मित प्रसंस्करण क्षेत्र की अपेक्षा लागू होगी। परंतु ऐसे किसी विशेष आर्थिक जोन के लिए जिसे अनन्य रूप से इलैक्ट्रॉनिक हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के लिए जिनके अंतर्गत, सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवा भी है स्थापित करने का प्रस्ताव किया जाता है, दस हेक्टेयर या उससे अधिक और निर्दिष्ट शहरों के प्रवर्ग के आधार पर सूचना प्रौद्योगिकी या सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवाओं हेतु किसी विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए यथा न्यूनतम निर्मित प्रसंस्करण क्षेत्र की अपेक्षा होगी।
  2. यदि विशेष आर्थिक जोन अनन्य रूप से हस्तशिल्प क्षेत्र के लिए स्थापित किए जाने का प्रस्ताव है तो क्षेत्र दस हेक्टेयर या उससे अधिक होगा।
  3. यदि विशेष आर्थिक जोन का अन्यन्य रूप से जैव-प्रौद्योगिकी, गैर-परम्परागत ऊर्जा जिसके अंतर्गत, सौर ऊर्जा उपस्कर या सैल भी है अथवा रत्न एवं आभूषण क्षेत्र, कृषि आधारित खाद्य प्रसंस्करण के लिए स्थापित किए जाने का प्रस्ताव है तो क्षेत्र दस हेक्टेयर या उससे अधिक होगा।
  4. जैव प्रौद्योगिकी और गैर-परम्परागत ऊर्जा क्षेत्र जिसके अंतर्गत ऊर्जा उपस्कर या सेल भी है, और कृषि आधारित खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के लिए विशेष आर्थिक जोन स्थापित किए जाने का प्रस्ताव हो तो चालीस हजार वर्ग मीटर होगा किंतु इसमें गैर-परम्परागत ऊर्जा उत्पादन तथा विनिर्माण के लिए विशेष आर्थिक जोन सम्मिलित नहीं होगा।
  5. रत्न एवं आभूषण क्षेत्र के लिए अनन्य रूप से स्थापित किए जाने के लिए प्रस्तावित किसी विशेष आर्थिक जोन के मामले में पचास हजार वर्ग मी. है। परंतु यह भी कि यदि किसी विनिर्दिष्ट क्षेत्र के लिए कोई विशेष आर्थिक जोन असम, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, जम्मू कश्मीर, गोवा या किसी संघ राज्यक्षेत्र में स्थापित किए जाने का प्रस्ताव हो तो विशेष आर्थिक जोनों के लिए क्षेत्र पच्चीस हेक्टेयर या उससे अधिक होगा।
  6. विद्यमान विशेष आर्थिक जोन में यदि किसी ऐसी भूमि का समावेशन या संवर्धन हो, जहाँ ऐसी भूमि में कोई ऐसा पत्तन, विनिर्माण इकाई अथवा संरचना अंतर्विष्ट हो, जिसमे कोई वाणिज्यिक, औद्योगिक अथवा आर्थिक गतिविधि न चल रही हो तो ऐसे विशेष आर्थिक जोन में पहले से विद्यमान संरचना के संबंध में किसी प्रकार के शुल्क के फायदे के पात्र नहीं होंगे लेकिन ऐसे विशेष आर्थिक जोनों में समावेशन या संवर्धन के पश्चात् विद्यमान पत्तनों, विनिर्माण इकाइयों अथवा संरचनाओं में किया गया कोई संवर्धन अथवा उन्नयन के ऐसे वित्तीय प्रोत्साहन की पात्र होंगी जो किसी विशेष आर्थिक जोन में किसी नई अवसंरचना पर लागू होती हैं और ऐसी अवसंरचना में किए जा रहे प्राधिकृत प्रचालन भी विशेष आर्थिक जोन अधिनियम तया नियमों के अधीन यथा उपबंधित फायदों के लिए पात्र होंगे।
  7. विशेष आर्थिक जोन इकाइयों द्वारा उनके अस्तित्व में आने पर आस्तियों का अंतरण कोई इकाई,विशेष आर्थिक जोन की इकाइयों की बिक्री सहित अपनी-अपनी आस्तियों तथा दायित्वों का किसी अन्य व्यक्ति की आबंटन करके निम्नलिखित शतों के अध्यधीन विशेष आर्थिक जोर से अलग होने का विकल्प अपना सकती है:
  • इकाई के पास अंतरण की तारीख को कम से कम पांच वर्ष की अवधि के लिए एक वैध अनुमोदन पत्र तया भूमि का पट्टा हो,
  • इकाई अंतरण की तारीख को उत्पादन शुरू होने के पश्चात् न्यूनतम दो वर्षों की अवधि के लिए क्रियाशील रही हो;
  • इस प्रकार का विक्रय अथवा अंतरण की कार्यवाही अनुमोदन समिति के अनुमोदन के अध्यधीन होगी
  • अंतरिती, इकाई को लागू पात्रता संबंधी सभी मानदण्डों को पूर्ण करता हो
  • नियम 74 के अधीन यथापरिकलित लागू शुल्क एवं दायित्व, यदि कोई हो, तथा अंतरणकर्ता इकाई, के निर्यात बाद्यताएं यदि कोई हों, अंतरिती इकाई को अंतरित माने जाएंगे, जो अंतरणकर्ता इकाई के समान ही वैसी ही शर्तो एवं निबंधनों के अनुरूप समान दायित्वों के निर्वहन हेतु बाध्य होगा।

एसईजेड बनाम नए शहर

एसईजेड और नए समन्वित कस्बे शहरी विकास में गुंजायमान हो गए हैं। समन्वित कस्बों को वैश्विक दर्जे के आवासीय माहौल मुहैया कराने के नियोजित तरीके के रूप में देखा जाता है जो विदेशी निवेश आकर्षित करने में सक्षम हैं। एसईजेड को उत्पादन का विशेषाधिकार प्राप्त क्षेत्र माना जाता है जिसे कर छूट, लालफीताशाही और कई अन्य कानूनी बाधाओं से उन्मुक्ति प्राप्त है जो भारत में विकास से परम्परागत रूप से सम्बद्ध है। सरकार एसईजेड को निर्यात बढ़ाने, रोजगार सृजन, और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आकर्षित करने के यंत्र के तौर पर देखती है। हालांकि निजी क्षेत्र ने, सरकार ने नहीं, आज भारत में इन दोनों प्रकार के विकास को संचालित किया है।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न जो पूछा जाता है कि क्या एसईजेड या नई टाउनशिप शहरी विकास के मॉडल के तौर पर बेहतर हैं। अन्य देशों के अनुभव दिखाते हैं कि परिवर्तन के पैटर्न जहां बड़े एसईजेड लंबे समय तक उत्पादन के क्षेत्र नहीं रहे, लेकिन आत्मनिर्भर शहरी विकास के क्षेत्र बने। दूसरी ओर,मिश्रित-प्रयोग विकास की प्रवृति, विशेष रूप से नवीन शहरीकरण, और स्मार्ट संवृद्धि के तहत् विकास ने आवास क्षेत्र में कार्य करने के लिए अवसरों को जन्म दिया। एसईजेड और नई टाउनशिप दोनों ने, स्थानीय बाजार की बाधाओं से बाहर निकलते हुए वैश्वीकरण के अवशोषण द्वारा पश्चिमी मापदंडों के अनुसार आर्थिक समृद्धि और अच्छे जीवन का दृष्टिकोण बेचा।

इन विकासों ने भारतीय भूमि पर अंतरराष्ट्रीय रूप से मानकबद्ध बनावट को प्रत्यारोपित किया और बेहतर अवसंरचना प्रदान की। चीन में एसईजेड का अनुभव दर्शाता है कि परिसरों ने स्वयं को बेहतर गति और जीवन प्रदान किया, लेकिन इस विकास के लाभ को अपने-आस-पास के क्षेत्र के साथ नहीं बांटा।

कई वर्ग हैं जो बेहद मजबूती के साथ एसईजेड के विचार का विरोध करते हैं। समस्त विरोध पूर्व आधारित विचार कि, एसईजेड एक बुराई है, पर आधारित है। लेकिन वर्तमान सच्चाइयां एक नई दृष्टि की मांग करते हैं। यह इस विचार से बाहर निकलने का सही समय है और रेखांकित करने का है कि कृषि और उद्योग किस प्रकार एक साथ रह सकते हैं।

वर्तमान परिदृश्य में, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कृषि अभी भी अधिकतर भारतीय परिवारों के लिए आजीविका का स्रोत है। भारत में कृषि योग्य भूमि प्रत्येक वर्ष घटती जा रही है, जो एक बड़े विरोधाभास के तौर पर देखा जा सकता है। जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करने की है कि उर्वर भूमि को औद्योगीकरण के लिए अधिसूचित न किया जाए। राज्य सरकारों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे प्रोजेक्ट बंजर और बेकार भूमि तक ही सीमित रखे जाएं।

समझे जाने की आवश्यकता है कि नई औद्योगिक टाउनशिप का निर्माण, यह देश के ढहते शहरी अवसंरचना का पूरक है, को और अधिक स्थगित नहीं किया जा सकता। एसईजेड इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि वे बेहद जरूरी विकास और शहरी शासन के विकेन्द्रीकरण में सहायता करेंगे।

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