मध्यपाषाण काल Mesolithic Age

ऊपरी पु.पा. काल का अंत लगभग 9000 ई.पू. के आसपास हिमयुग के साथ ही हुआ। अत: इस काल में जलवायु गर्म व शुष्क हो गयी। पेड़, पौधों, जीव-जंतुओं की स्थिति में भी परिवर्तन आ गया। एक दृष्टि से मध्यपाषाण काल, पुरापाषाण काल एवं नवपाषाण काल के मध्य संक्रमण को रेखांकित करता है। इस काल में भी मनुष्य मुख्यतः शिकारी एवं खाद्य संग्राहक ही रहा, परन्तु शिकार करने की तकनीकी में परिवर्तन आ गया। अब वह न केवल बड़े जानवर अपितु छोटे-छोटे जानवरों का भी शिकार करने लगा। अब वह मछलियाँ पकड़ने लगा तथा पक्षियों का शिकार करने लगा। पशुपालन का प्रारम्भिक साक्ष्य भी इसी काल में मिलता है। मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान में बागोर पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इसका समय लगभग 5000 ई. पू. हो सकता है। इस काल का एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन है- प्रक्षेपास्त्र तकनीकी के विकास का प्रयास। यह निश्चय ही महान् तकनीकी क्रांति थी। इसी काल में सर्वप्रथम तीर-कमान का विकास हुआ। मध्य पाषाण काल के उपकरण छोटे से बने हुए हैं। यह सूक्ष्म उपकरण आकार में (काफी) छोटे हैं। इनकी 1 से 8 से.मी. के मध्य है। ये माइक्रोलिथ्स (microliths) के नाम से जाने जाते हैं। इस काल के महत्त्वपूर्ण उपकरण थे- ब्लेड (फलक), नुकीले क्रोड, त्रिकोण, नवचंद्राकार आदि। इनके अलावा इस काल में पुरापाषाण काल के कुछ औजार जैसे तक्षणी व खुरचनी, यहाँ तक कि गडाँसा भी प्रचलन में रहे।

महत्त्वपूर्ण स्थल (बस्तियाँ)

मध्यपाषाण स्थल-राजस्थान, दक्षिणी उ.प्र. मध्य व पूर्वी भारत में तथा दक्षिणी भारत में कृष्णा नदी से दक्षिण तक पाये जाते हैं। 1970-77 के दौरान गंगा के मैदान में मध्यपाषाणकालीन संस्कृति से संबद्ध स्थल प्रकाश में आए हैं। कुछ अन्य प्रमुख स्थल हैं-पं. बंगाल में वीरभानपुर, गुजरात में लगनज, तमिलनाडु में टेरीसमूह, म.प्र. में आदमगढ़ तथा राजस्थान में बागोर, गंगा द्रोणी में सराय नाहरराय एवं महादाहा दो महत्त्वपूर्ण स्थल हैं। ये (सराय नाहरराय एवं महादाहा) भारत के सबसे पुराने मध्यपाषाण कालीन स्थल हैं। ये पहले ऐसे स्थल हैं जहाँ से स्तम्भगर्त का साक्ष्य मिलता है अर्थात इस काल में लोगों ने झोपड़ियाँ निर्मित की थीं और इनमें निवास किया होगा। पुरापाषाण कालीन लोग शैलाश्रयों में निवास करते थे। मानवीय आक्रमण या युद्ध का प्रारम्भिक साक्ष्य सराय नाहरराय से प्राप्त हुआ है।

यद्यपि मध्यपाषाण काल में पशुओं की आर्थिक उपयोगिता को ध्यान में रखकर पशुपालन प्रारंभ नहीं हुआ था और यह प्रवृत्ति आगे चलकर नवपाषाण काल में देखने को मिलती है। तथापि मध्य प्रदेश के आदमगढ़ और राजस्थान के बागौर से पशुपालन का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होता है जो मध्यपाषाणकालिक स्थल हैं। इससे पता चलता है कि पशुपालन की शुरूआत मध्यपाषाण काल के अंत तक हो चुकी थी। सर्वप्रथम आदमगढ़ से कुत्ते का साक्ष्य प्राप्त हुआ है जो 6000 ई.पू. का है।

इसी प्रकार मध्यपाषाण काल में मकान और बस्ती का साक्ष्य नहीं मिलता है। अपवाद स्वरूप आदमगढ़ और बागौर जैसे स्थलों पर मकान बनाने का प्रयास किया गया। बागौर में मकान बनाने का सबसे पुराना साक्ष्य प्राप्त हुआ है। यहाँ 5500 ई.पू. के लगभग फर्श के साथ मिट्टी की दीवार खड़ी करने का प्रयास किया गया है।

अग्नि का उपयोग मध्यपाषाण काल को पुरापाषाण काल से अलग करता है। गुजरात स्थित लंघनाज और उत्तर प्रदेश स्थित सराय नाहरराय एंव महादाहा से गर्त चूल्हे का साक्ष्य प्राप्त हुआ है जिसमें पशुओं की हड्डियाँ जली हुई अवस्था में प्राप्त हुई हैं। स्पष्ट है कि 9000-4800 ई. पू. के दौरान भोजन को आग में पकाने की कला की शुरूआत यहीं से हुई। सराय नाहरराय से एक ही क्रम में आठ गर्त चूल्हों की प्राप्ति हुई है जो सामूहिक जीवन पद्धति का संकेत देता है।

शवाधान तरीका मध्यपाषाण काल को विशिष्ट पहचान देता है क्योंकि पुरापाषाण काल में इसका साक्ष्य नहीं प्राप्त होता। यथापि मध्यपाषाण काल में शवाधान की विधि का संस्कृति के रूप में उद्भव नहीं हुआ, तथापि एकल, सामूहिक और एक जगह से युगल शवाधान का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। इस तरह के प्रमाण लंघनाज, सराय नाहरराय, लखेड़िया और महादाहा से प्राप्त हुआ है।


प्रमुख मध्यपाषाण कालिक क्षेत्र- यहाँ यह ध्यातव्य है कि केरल और उत्तर पूर्वी राज्यों में न तो निम्न पुरापाषाणिक स्थल प्राप्त हुए हैं और न ही मध्य पाषाणिक स्थल।

साँभर झील निक्षेप- राजस्थान में स्थित साँभर झील निक्षेप के कई मध्य सै 7000 ई.पू. के लगभग विश्व के सबसे पुराने वृक्षारोपण का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।

लंघनाम- गुजरात के मेहसाना जिले में स्थित इस नगर की खोज एच. डी. सांकालिया द्वारा 1941 में की गई। यह माइक्रोलिथ इंडस्ट्रियल साइट है जहाँ 13,000 से ज्यादा उपकरण प्राप्त हुई हैं। यहाँ से 15 मानव कंकाल भी प्राप्त हुए हैं जिसकी औसत आयु (164-174 सेमी) से इनके भूमध्य सागरीय प्रजाति के होने का संकेत मिलता है। यहाँ से एकल शवाधान का साक्ष्य प्राप्त हुआ है (पूर्व-पश्चिम दिशा में)।

सराय नाहरराय- उत्तर प्रदेश में स्थित इस स्थल से ग्यारह मानव कंकाल प्राप्त हुए हैं जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ काकेशस प्रजाति और प्रोटो-नोर्डिक रेस (Proto-Nordic Race) के लोग रहते थे। यहीं से क्रम में आठ चूल्हे प्राप्त हुए हैं जिन्हें सामुदायिक चूल्हा कहा गया है। सराय नाहरराय की रेडियो कार्बन तिथि ई.पू., 8395 पाई गई है।

महादाहा- यह स्थल उत्तर प्रदेश में स्थित है। मध्यपाषाण कालिक स्थलों में सर्वाधिक 28 कंकालों की प्राप्ति यहीं से हुई है। सराय नाहरराय की तरह प्रोटो-नोर्डिक प्रजाति के लोग यहाँ रहते थे। यहाँ से एकल, युगल और सामूहिक-तीनों प्रकार के शवाधान के साक्ष्य मिलते हैं।

भीमबेटका- पुराने मध्य प्रदेश के रायसेन जिला में स्थित भीमबेटका से मानवीय क्रियाकलापों से संबधित गुफा चित्रकारी के सर्वाधिक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राकृतिक या अनुकरणात्मक और संकेतात्मक दोनों प्रकार के चित्र प्राप्त हुए हैं। यहाँ की गुफाओं पुरापाषाणिक और मध्यपाषाणकालिक दौर के दो कंकाल प्राप्त हुए हैं जिनमें से एक बच्चे के गले में पड़ा ताबीज, जादू-टोने में, इनके विश्वास का प्रतीक है। यहाँ से सामुदायिक जीवन के संकेत मिलते हैं।

वीरभानपुर- पश्चिम बंगाल स्थित इस स्थल से लंघनाज के बाद सर्वाधिक उपकरण प्राप्त हुए हैं।

टेरी टेला या टेरी समूह- यह स्थल तमिलनाडु में स्थित है। टेरी टेला का अर्थ होता है बालू का टीला। यहाँ से मध्यपाषाण काल के ग्यारह बालू के टीले प्राप्त हुए हैं। यहाँ से फ्लिंट और चर्ट निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं।

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