कंपनी प्रशासन के अधीन संविधान का विकास Development Of Constitution Under The Company Rule

1773 से 1858 तक

बक्सर के युद्ध (1764) के पश्चात, 12 अगस्त 1765 को क्लाइव ने तत्कालीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से एक फरमान द्वारा बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) प्राप्त कर ली। इसके बदले ईस्ट इंडिया कंपनी ने बादशाह को 26 लाख रुपये वार्षिक देना स्वीकार किया। अवध का नवाब शुजाउद्दौला भी कंपनी का पेंशनर बन चुका था। कंपनी ने दो उप-दीवान नियुक्त किये-बंगाल के लिये मुहम्मद रजा खां एवं बिहार के लिये राजा शिताब राय।

1767: ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय प्रशासन में हस्तक्षेप की पहली घटना 1767 में हुयी, जब ब्रिटिश सरकार ने कंपनी की 40 लाख पाउंड की विशाल वार्षिक आय में से 10 प्रतिशत हिस्से की मांग की।

1765-72: प्रशासन की दोहरी प्रणाली अस्तित्व में रही। इसके अनुसार कंपनी दीवानी थी तथा नवाब नाजिम। अब कंपनी पर भूमि का सीमा शुल्क इत्यादि वसूलने की जिम्मेदारी थी। इस व्यवस्था में कंपनी के पास वास्तविक अधिकार थे परंतु उसका कोई दायित्व नहीं था, जबकि इसके भारतीय प्रतिनिधियों (उप-दीवान) को सभी अधिकार थे लेकिन उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी। यह व्यवस्था सात वर्षों तक जारी रही। इस अवधि की निम्न विशेषतायें रहीं-

  • कंपनी के कर्मचारियों के मध्य भ्रष्टाचार चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया तथा उन्होंने निजी व्यापार द्वारा अकूत धन कमाया।
  • अत्यधिक भू-राजस्व की वसूली तथा किसानों का उत्पीड़न।
  • कंपनी दिवालियेपन की कगार पर पहुंच गयी, जबकि उसके कर्मचारी मालामाल हो गये। इस बीच ब्रिटिश सरकार ने कंपनी के मामलों में कुछ कानून बनाने का निश्चय किया। जिसके फलस्वरूप निम्न अधिनियम अस्तित्व में आये-

1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट Regulating Act 1773

  • कंपनी के डायरेक्टरों को कहा गया कि वे अब से राजस्व से संबंधित सभी मामलों तथा दीवानी एवं सैन्य प्रशासन के संबंध में किये गये सभी प्रकार कायों से सरकार को अवगत करायेंगे। (इस प्रकार, पहली बार ब्रिटिश कैबिनेट को भारतीय मामलों में हस्तक्षेप का अधिकार दिया गया)।
  • अब 500 पौंड के अंशधारियों के स्थान पर 1000 पौंड के अंशधारियों को संचालक चुनने का अधिकार दिया गया।
  • संचालक मंडल (Court of Directors) का कार्यकाल चार वर्ष कर दिया गया। प्रति वर्ष उनमें से एक-चौथाई सदस्यों के स्थान पर नये सदस्यों के निर्वाचन की पद्धति अपनायी गयी।
  • बंगाल में एक प्रशासक मंडल गठित किया गया, जिसमें गवर्नर-जनरल तथा चार पार्षद नियुक्त किये गये। ये पार्षद, नागरिक तथा सैन्य प्रशासन से सम्बद्ध थे। इस मंडल (Council) में निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाते थे। इस अधिनियम द्वारा मंडल में वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर-जनरल के रूप में तथा क्लैवरिंग, मॉनसल, बरवैल एवं फिलिप फ्रांसिस को पार्षदों के रूप में नियुक्त किया गया। इन सभी का कार्यकाल पांच वर्ष था तथा कोर्ट आफ डायरेक्टर्स की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही इन्हें हटाया जा सकता था। भावी नियुक्तियां कंपनी द्वारा की जानी थीं।
  • बंगाल के गवर्नर को अब समस्त अंग्रेजी क्षेत्रों का गवर्नर कहा गया। सपरिषद- गवर्नर-जनरल को बंगाल में फोर्ट विलियम की प्रेसिडेंसी के असैनिक तथा सैनिक शासन का अधिकार दिया गया। कुछ विशेष मामलों में उसे बंबई तथा मद्रास की प्रेसीडेसियों का अधीक्षण भी करना था।
  • इस अधिनियम द्वारा बंगाल में 1774 में एक उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) की स्थापना की गयी। कंपनी के सभी कार्यकर्ता इसके न्याय क्षेत्र (Jurisdiction) में कर दिये गये। इस न्यायालय को प्राथमिक तथा अपील के अधिकार की अनुमति थी। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे। सर एलिजाह एम्पी (Elijah Impey) को सुप्रीम कोर्ट का प्रथम मुख्य न्यायधीश नियुक्त किया गया। उच्चतम न्यायालय में अंग्रेज एवं भारतीय सभी न्याय की गुहार कर सकते थे। यहां इंग्लैंड में प्रचलित न्यायिक विधियों के अनुसार न्याय की व्यवस्था थी। न्यायालय को यह भी अधिकार था कि वह कंपनी तथा सम्राट की सेवा लगे व्यक्तियों के विरुद्ध मामले, कार्यवाही अथवा शिकायत की सुनवायी कर सकता था।
  • कानून बनाने का अधिकार गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद को दे दिया गया किंतु इन कानूनों को लागू करने से पूर्व भारत सचिव से अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था।
  • कंपनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार को पूर्णतया प्रतिबंधित कर दिया गया।
  • कर्मचारियों के लिये वेतन वृद्धि कर दी गयी तथा उन्हें नजराना, घूस, भेंट आदि लेने की मनाही कर दी गयी।

इस अधिनियम के सभी प्रावधान ‘परीक्षण एवं संतुलन’ के सिद्धांत पर आधारित थे।

संशोधन (1781)


  • कलकत्ता स्थित उच्चतम न्यायालय के न्याय क्षेत्र को परिभाषित कर दिया गया।
  • राजस्व एकत्रित करने की व्यवस्था में कोई रुकावट न डाली जाये। तथा धार्मिक रीति-रिवाजों का सम्मान किया जाये।

पिट् का इंडिया एक्ट, 1784 Pitt’s India Act, 1784 

रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिये इस एक्ट को पारित किया गया। इस एक्ट से संबंधित विधेयक ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री पिट द यंगर ने संसद में प्रस्तुत किया तथा 1784 में ब्रिटिश संसद ने इसे पारित कर दिया। इस एक्ट के प्रमुख उपबंध निम्नानुसार थे-

  • 6 कमिश्नरों के एक नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की गयी, जिसे भारत में अंग्रेजी अधिकृत क्षेत्र पर पूरा अधिकार दिया गया। इसे ‘बोर्ड आफ कन्ट्रोल’ के नाम से जाना जाता था। इसके सदस्यों की नियुक्ति ब्रिटेन के सम्राट द्वारा की जाती थी। इसके 6 सदस्यों में-एक ब्रिटेन का अर्थमंत्री (Chancellor of exchequer), दूसरा विदेश सचिव (Secretary ofState) तथा 4 अन्य सम्राट द्वारा प्रिवी कौंसिल के सदस्यों में से चुने जाते थे।
  • भारत में गवर्नर-जनरल के परिषद की सदस्य संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गयी। इन तीन में से एक स्थान मुख्य सेनापति (Commander-in-Chief) को दे दिया गया।
  • बंबई तथा मद्रास के गवर्नर पूर्णरूपेण गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिये गए।
  • भारत में कंपनी के अधिकृत प्रदेशों को पहली बार नया नाम ‘ब्रिटिश अधिकृत भारतीय प्रदेश’ दिया गया।
  • मद्रास तथा बंबई के गवर्नरों की सहायता के लिये तीन-तीन सदस्यीय परिषदों का गठन किया गया।
  • देशी राजाओं से युद्ध तथा संधि से पहले गवर्नर-जनरल को कंपनी के डायरेक्टरों से स्वीकृति लेना अनिवार्य था।
  • भारत में अंग्रेज अधिकारियों के ऊपर मुकदमा चलाने के लिये इंग्लैण्ड में एक कोर्ट की स्थापना की गयी।
  • कंपनी के डायरेक्टरों की एक गुप्त सभा बनायी गयी, जो अधिकार सभा या संचालक मंडल के सभी आदेशों को भारत भेजती थी।
  • संचालक मंडल द्वारा तैयार किये जाने वाले पत्र व आज्ञायें नियंत्रण बोर्ड के सम्मुख रखे जाते थे। संचालक मंडल को भारत से प्राप्त होने वाले पत्रों को भी नियंत्रण बोर्ड के सम्मुख रखना आवश्यक था। नियंत्रण बोर्ड, पत्रों में तब्दीली कर सकता था।

1786 का अधिनियम Act of 1786

  • गवर्नर-जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियां भी मिल गयीं।
  • गवर्नर-जनरल को विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दे दिया गया।

1793 का चार्टर एक्ट Charter Act, 1793

  • कंपनी के व्यापारिक अधिकारों को अगले 20 वर्ष के लिये और आगे बढ़ा दिया गया।
  • नियंत्रण अधिकरण के सदस्यों का वेतन भारतीय कोष से दिया जाने लगा।

1813 का चार्टर एक्ट Charter Act, 1813

1813 में कंपनी के चार्टर की अवधि समाप्त होने वाली थी तो इंग्लैंड में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने की मांग की जाने लगी। कंपनी के भारतीय साम्राज्य में अत्यधिक वृद्धि हो जाने से भी उसके व्यापारिक तथा राजनीतिक दोनों मोचों को संभालना मुश्किल हो रहा था। इसके साथ ही यथेच्छाचारिता (laissez faire) के सिद्धांत तथा नेपोलियन द्वारा लागू की गयी ‘महाद्वीपीय व्यवस्था (Continental System) से अंग्रेजों के लिये यूरोपीय व्यापार के मार्ग लगभग बंद हो गये थे। फलतः सभी चाहते थे कि कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया जाये।

इन परिस्थितियों में 1813 का चार्टर एक्ट पारित हुआ, जिसमें निम्न व्यवस्थायें की गयीं-

  • कंपनी का भारतीय व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया यद्यपि उसका चीन से व्यापार एवं चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा।
  • कंपनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व से 10.5 प्रतिशत लाभांश दिये जाने की व्यवस्था की गयी।
  • कंपनी को और अगले 20 वर्षों के लिये भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया। किंतु स्पष्ट कर दिया कि इससे इन प्रदेशों का क्राउन के प्रभुत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। (उल्लेखनीय है कि भारत में अंग्रजी राज्य की संवैधानिक स्थिति को पहली बार स्पष्ट किया गया था)।
  • सभी अंग्रेज व्यापारियों को भारत से व्यापार करने की छूट दे दी गयी।
  • नियंत्रण बोर्ड (Board of Control) की शक्ति को परिभाषित किया गया तथा उसका विस्तार भी कर दिया गया।
  • ईसाई धर्म प्रचारकों को आज्ञा प्राप्त करके भारत में धर्म-प्रचार के लिये आने की सुविधा प्राप्त हो गयी।
  • ब्रिटिश व्यापारियों तथा इंजीनियरों को भारत आने तथा यहां बसने की अनुमति, प्रदान कर दी गयी लेकिन इसके लिये उन्हें संचालक मंडल या नियंत्रण बोर्ड से लाइसेंस लेना आवश्यक था।
  • कंपनी की आय से भारतीयों की शिक्षा के लिये प्रतिवर्ष 1 लाख रुपये व्यय करने की व्यवस्था की गयी।

1833 का चार्टर एक्ट Charter Act, 1833

  • चाय के व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार करने संबंधी कंपनी के अधिकार को समाप्त कर दिया गया।
  • भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर कंपनी के अधिकारों को 20 वर्षों के लिये और बढ़ा दिया गया। किंतु यह निश्चित किया गया कि भारतीय प्रदेशों का प्रशासन अब ब्रिटिश सम्राट के नाम से किया जायेगा।
  • अंग्रेजों को बिना अनुमति-पत्र के ही भारत आने तथा रहने की आज्ञा दे दी गयी। वे भारत में भूमि भी खरीद सकते थे।
  • भारत में सरकार का वित्तीय, विधायी तथा प्रशासनिक रूप से केंद्रीयकरण करने का प्रयास किया गया।
  1. बंगाल का गवर्नर-जनरल, भारत का गवर्नर-जनरल हो गया।
  2. गवर्नर-जनरल को कम्पनी के नागरिक तथा फौजी कार्यों पर नियंत्रण, व्यवस्था तथा निर्देशन का अधिकार दिया गया।
  3. बंगाल के साथ मद्रास, बंबई तथा अन्य अधिकृत प्रदेशों को भी गवर्नर-जनरल के नियंत्रण में रख दिया गया।
  4. सभी कर गवर्नर-जनरल की आज्ञा से ही लगाये जाने थे और उसे ही इसके व्यय का अधिकार दिया गया।
  5. सपरिषद गवर्नर-जनरल को ही भारत के लिये कानून बनाने का अधिकार दिया गया और मद्रास और बंबई की कानून बनाने की शक्ति समाप्त कर दी गयी।
  • गवर्नर-जनरल की परिषद में एक चौथा सदस्य विधि विशेषज्ञ के रूप में बढ़ा दिया गया। मैकाले पहला विधि विशेषज्ञ था।
  • भारतीय कानून को संचलित, संहिताबद्ध तथा सुधारने की भावना से एक विधि आयोग की नियुक्ति की गयी।
  • इस एक्ट द्वारा स्पष्ट कर दिया गया कि कंपनी के प्रदेशों में रहने वाले किसी भारतीय को केवल धर्म, वंश, रंग या जन्म स्थान इत्यादि के आधार पर कंपनी के किसी पद से जिसके वह योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा। (लेकिन यह प्रावधान वास्तव में कागजों में सिमटकर ही रह गया)।
  • भारत में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया तथा गवर्नर-जनरल को निर्देश दिया कि भारत से दास प्रथा को समाप्त करने के लिये आवश्यक कदम उठाये। (1843 में दास प्रथा का उन्मूलन किया गया)।

1853 का चार्टर एक्ट Charter Act, of 1853

  • कंपनी को भारतीय प्रदेशों को ‘जब तक संसद न चाहे’ तब तक के लिये अपने अधीन रखने की अनुमति दे दी गयी।
  • डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी और उनमें से 6 सम्राट द्वारा मनोनीत किये जाने थे।
  • नियुक्तियों के मामले में डायरेक्टरों का संरक्षण समाप्त कर दिया गया।
  • विधि सदस्य को गवर्नर-जनरल की परिषद का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
  • गर्वनर-जनरल की परिषद में कानून निर्माण में सहायता देने के लिये 6 नये सदस्यों की नियुक्ति की गयी। परंतु, कार्यकारी परिषद को विधान परिषद के विधेयक को वीटो करने का अधिकार था।
  • बंगाल के लिये पृथक लेफ्टिनेंट-गवर्नर की नियुक्ति की गयी।

1858 का अधिनियम  Government of India Act, 1858

1857 के विद्रोह ने कंपनी की, जटिल परिस्थितियों में प्रशासन की सीमाओं को स्पष्ट कर दिया था। इसके पश्चात कंपनी से प्रशासन का दायित्व वापस लेने तथा ताज (crown) द्वारा भारत का प्रशासन प्रत्यक्ष रूप से संभालने की मांग और तेज हो गयी। इसीलिये यह अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम द्वारा-

  • भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया।
  • अब भारत का शासन, ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत राज्य सचिव (secretary of state for India) को चलाना था जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद (India council) का गठन किया गया। अब भारत के शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कदमों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गयी जबकि भारत परिषद केवल सलाहकारी प्रकृति की थी। (इस प्रकार पिट्स इंडिया एक्ट द्वारा प्रारंभ की गयी द्वैध शासन की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी)।
  • डायरेक्टरों की सभा (Court of Directors) और नियंत्रण बोर्ड या अधिकार सभा (Board of Control) समाप्त कर दिये गये तथा उनके समस्त अधिकार भारत सचिव को दे दिये गये।
  • भारत परिषद के 15 सदस्यों में से 7 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार सम्राट तथा शेष सदस्यों के चयन का अधिकार कंपनी के डायरेक्टरों को दे दिया गया।
  • अखिल भारतीय सेवाओं तथा अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध मसलों पर भारत सचिव, भारत परिषद की राय मानने को बाध्य था।
  • भारत के गवर्नर-जनरल को भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिये बाध्य कर दिया गया।
  • अब गवर्नर-जनरल, भारत में ताज के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने लगा। तथा उसे ‘वायसराय’ की उपाधि दी गयी।
  • संरक्षण-ताज, सपरिषद राज्य सचिव तथा भारतीय अधिकारियों में बंट गया।
  • अनुबद्ध सिविल सेवा (covenanted civil service) में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगीं।
  • भारत राज्य सचिव एक निगम निकाय (Corporate Body) घोषित किया गया, जिस पर इंग्लैंड एवं भारत में दावा किया जा सकता था अथवा जो दावा दायर कर सकता था।

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