जीव विज्ञान: परिचय एवं जीवधारियों का वर्गीकरण Biology: Introduction and Classification of Organisms

जीव विज्ञान सजीवों का विज्ञान है (ग्रीक भाषा में बायोस का अर्थ जीवन तथा लोगोस का अध्ययन)। विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत जीवधारियों का अध्ययन होता है, जीव विज्ञान कहलाती है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लैमार्क (फ्रांस) तथा ट्रेविरेनस (जर्मन) ने 1802 में किया था। इसको पुन: दो भागों, वनस्पति (Botany) तथा जन्तु विज्ञान (Zoology) में बांटा गया है थियोफ्रेस्टस ने 500 प्रकार के पौधों का वर्णन अपनी पुस्तक Historia Plantarum में किया है। इन्हें वनस्पति शास्त्र का जनक कहा जाता है।

हिप्पोक्रेट्स ने मानव रोगों पर प्रथम लेख लिखा। इन्हें चिकित्सा शास्त्र का जनक माना जाता है। अरस्तु ने अपनी पुस्तक जंतु इतिहास (Historia Animalium) (460-377 BC) में 500 जन्तुओं का वर्णन किया है। इन्हें जंतु विज्ञान तथा जीवविज्ञान, दोनों का जनक कहा जाता है।

जीवविज्ञान का उदय, मनुष्य की सजीवों के प्रति जिज्ञासा तथा उत्तरजीविता की आवश्यकता के कारण हुआ होगा। जीवविज्ञान का ज्ञानक्रम लम्बे समय तक वैज्ञानिक तथा वैज्ञानिकों के समूहों द्वारा आविष्कार करने का फल है।

जीव वैज्ञानिक अध्ययन

जीव वैज्ञानिक कैसे कार्य करते हैं और वे क्या अध्ययन करते हैं? वे अपने चारों ओर पाई जाने वाली वस्तुओं का नामकरण, उनका विवरण और वर्गीकरण करते हैं। यहाँ तक कि आदि मानव भी इन्हीं क्रियाकलापों को जाने-अनजाने में करता रहा होगा। उसका अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता था कि वह अपनी उपयोगी तथा अनुपयोगी वस्तुओं को पहचान सके। जीव वैज्ञानिक लगातार नए-नए जीवों की खोज करते रहे हैं तथा उन्हें वैज्ञानिक नाम देकर वर्गीकृत करते रहे हैं। आप आश्चर्य करेंगे कि क्रियाकलाप महत्वपूर्ण क्यों है? क्या आप जानते है: जन्तुओं की लगभग 1200,000 स्पीशीज हैं, जो पौधों की लगभग 500,000 स्पीशीज पर निर्भर करती हैं? इस संख्या में प्रतिवर्ष 15,000 नई प्रकार की स्पीशीज की वृद्धि हो जाती है। जिन जन्तुओं तथा पौधों की स्पीशीज का अभी पता लगाना है वे अमेरिका, एशिया तथा अफ्रीका के उष्णकटिबंधीय जंगलों में छिपी हुई हैं। प्रत्येक स्पीशीज अपने ढंग में निराली है, चाहे वह हमारे लिए आर्थिक महत्व की है या नहीं जीवविज्ञान की वह शाखा जो किसी स्पीशीज की पहचान, नाम तथा वर्गीकरण से सम्बन्ध रखती है, वर्गिकी कहलाती है। वर्गिकी चिरस्थापित विज्ञान है और जीवों के नामकरण करने के लिए अन्तर्देशीय नियम बने हुए हैं।

किसी जीव का सही वर्णन करने के लिए प्रशिक्षण तथा ऐसी शब्दावली की आवश्कता होती है, जो जीवविज्ञान के लिए अद्भुत है। आकार तथा बाह्य रचना के अध्ययन को आकारिकी कहते हैं। भीतरी रचना का बाह्य रचना से संबंध होता है। संरचनाएँ जो बाहर से समान प्रतीत होती हैं, भीतरी रचना में बिल्कुल भिन्न हो सकती हैं। ऐसे भी बहुत से उदाहरण हैं (जैसे लंगूर तथा मनुष्य) जिनमें भीतरी रचना समान होती है, लेकिन बाहरी रचना भिन्न होती है। पौधों तथा जन्तुओं की भीतरी रचना के अध्ययन को शारीरिकी कहते हैं। मानव शारीरिकी बहुत ही विशिष्ट है। आज हमारे पास मानव शारीरिकी के विषय में बहुत ही अधिक सूचनाएँ हैं। हम ऊतक की विस्तृत संरचना, विभिन्न प्रकार के प्रकाश सूक्ष्मदर्शी से देख सकते हैं। इसके लिए एक विस्तृत प्रक्रम जैसे स्पेशीमैन का स्थिरीकरण, निर्जलीकरण, अत: स्थित करना, काटना तथा अभिरति करना और फिर आरोपित करना है। ये सब अध्ययन ऊतक विज्ञान के अन्तर्गत आते हैं।

सभी जीव कोशिकाओं से बने होते हैं। कोशिका की संरचना, कार्य, जनन तथा जीवन चक्र, जीव के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कोशिका के इस अध्ययन को कोशिका विज्ञान कहते हैं। कोशिका की सूक्ष्म संरचनाओं को समझने में इलैक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का बहुत ही अधिक योगदान रहा है। कोशिकीय स्तर पर जीवों में बहुत ही समानता होती है।


जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के जनक
शाखा जनक शाखा जनक
जीव विज्ञान अरस्तू वनस्पति विज्ञान थियोफ्रेस्टस
जीवाश्मिकी जार्ज क्यूवियर सुजननिकी एफ. गाल्टन
आधुनिक वनस्पति विज्ञान लिनियस प्रतिरक्षा विज्ञान एडवर्ड जैनर
आनुवंशिकी ग्रेगर जॉन मण्डल आधुनिक आनुवंशिकी ग्रेगरी बेटसन
कोशिका विज्ञान रॉबर्ट हुक वनस्पति चित्रण क्रेटियस
पादप शारीरिकी एन. गिऊ जन्तु विज्ञान अरस्तू
वर्गिकी लीनियस चिकित्साशास्त्र हीप्पोक्रेटस
औतिकी मार्सेलो मैल्पीगी उत्परिवर्तन सिद्धांत के जनक ह्यूगो डी. ब्राइज
तुलनात्मक शारीरिकी जी. क्यूवियर कवक विज्ञान माइकोली
पादप कार्ययिकी स्टीफन हेल्स जीवाणु विज्ञान ल्यूवेनहॉक
सूक्ष्म जीव विज्ञान लुई पाश्चर भारतीय कवक विज्ञान ई. जे. बुट्लर
भारतीय ब्रायोलॉजी आर. एस. कश्यप भारतीय पारिस्थितिकी आर.डी. मिश्रा
भारतीय शैवाल विज्ञान एम. ओ. ए. आयंगर आधुनिक भ्रूण विज्ञान वॉन बेयर
एण्डोक्राइनोलॉपी थॉमस ऐडिसन

जैव अणु का भौतिक – रासायनिक संगठन, जीवविज्ञान का अत्यधिक उत्तेजक क्षेत्र है। उदाहरण के लिए न्यूक्लीक एसिड की रचना, प्रोटीन के घटक तथा उनके संश्लेषण की प्रक्रिया। अब यह विश्वास किया जाता है कि कोशिका का कार्य अणु के स्वभाव तथा उसकी पारस्परिक क्रियाओं पर निर्भर करता है। इस प्रकार के अध्ययन को अणु जैविकी जीवविज्ञान कहते हैं।

जैव-प्रक्रियाएँ जीव में घटने वाली क्रियाओं का परिणाम है। जीवन से सम्बन्धित प्रक्रियाओं तथा कायों (जैसे श्वास तथा पाचन) के अध्ययन को शरीर क्रिया विज्ञान कहते हैं।

लगभग सभी बहुकोशिकीय जीव अपना जीवन एक एकल कोशिका युग्मनज से आरम्भ करते हैं। इस प्रारम्भिक कोशिक में समन्वयित तथा क्रमबद्ध विभाजन होने से भ्रूण बन जाता है। प्रारम्भिक भ्रूण आकारविहीन होता है और यह व्यस्क से बिल्कुल भिन्न होता है। भ्रूण से व्यस्क बनने में विभिन्नता तथा वृद्धि की बहुत सी क्रमबद्ध एवं समन्वयित प्रक्रियाएँ होती हैं। अंडे के निषेचन से लेकर भ्रूण के परिवर्धन तक की क्रमबद्ध घटनाओं के अध्ययन को भ्रूण विज्ञान कहते हैं। आजकल बहुत सी विधियों द्वारा मानव के भ्रूण का अध्ययन करना सम्भव हो गया है। यहाँ तक कि गर्भावस्था में ही बच्चे के लिंग तथा जन्म के विकारों का पता भी किया जा सकता है।

कोई भी जीव पृथक रहकर जीवित नहीं रह सकता है। वे एक साथ रहते हैं और वे दूसरे जीवों तथा निर्जीव पदार्थों, जैसे-हवा, पानी तथा मिट्टी के साथ पारस्परिक क्रियाएँ भी करते हैं। जीवविज्ञान की ऐसी शाखा को, जो जीव तथा उसके वातावरण के सम्बन्ध का अध्ययन कराए, पारिस्थितिकी कहलाती है।

सभी जीवों में डी.एन.ए. आनुवंशिकी पदार्थ है। आपने जीन के विषय में सुना होगा जो रासायनिक रूप से डी.एन.ए. है। कौन से जीव हैं और वे कैसे कार्य करते हैं? यह जीन तथा उनकी वातावरण से पारस्परिक क्रिया पर निर्भर करता है। किसी स्पीशीज में स्थायीकरण अथवा परिवर्तन जीन के कारण होता है। जिज्ञासावश, कुछ जीवों जैसे तिलचट्टा तथा गिन्गो वृक्ष में लाखों वर्षों में कुछ परिवर्तन आ गए हैं। किसी स्पीशिज में आनुवंशिकी परिवर्तन होने के कारण उनका वर्गिक स्थान भी बदल गया है। जीवविज्ञान की – जो शाखा पित्रागति तथा विभिन्नता का अध्ययन करवाए, उसे आनुवंशिकी कहते हैं। आनुवंशिक का उपयोग उन्नत प्रकार की फसल तथा जानवर प्राप्त करने तथा सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन करने के लिए किया जाता है। आनुवंशिक के नियम तथा जीव की उत्तरजीविता तथा लाभ में भी आनुवंशिकी सहायता करती है।

जीवविज्ञान की एक मूलभूत शाखा है-विकास। यह पौधों तथा जन्तुओं की समष्टि में वातावरण के प्रति लगातार होने वाले आनुवंशिक अनुकूलन का अध्ययन कराता है।

जीवविज्ञानी आदिकाल में पाए जाने वाले जीवों की उत्पत्ति, वृद्धि तथा रचना का अध्ययन करते हैं, जो आदिकाल में जीवाश्म के रूप में सरंक्षित हो गए थे। जीवविज्ञान की इस शाखा को पुरा जीवविज्ञान कहते हैं (ग्रीक भाषा में पैलिओ का अर्थ है पुराना)। पुरा वनस्पति विज्ञान पौधों के जीवाश्म का, तथा पुरा जन्तु विज्ञान जीवाश्म प्राणियों का अध्ययन है। मनुष्य अब अंतरिक्ष में स्थित जीवन के प्रकारों के अध्ययन में जानकारी प्राप्त करना चाहता है। वैज्ञानिक पूछताछ की इस शाखा को एक्सोबायोलोजी अथवा एस्ट्रोबायोलॉजी कहते हैं।

जीवविज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। हम अभी सीखने की ही अवस्था में है, जबकि वैज्ञानिक खोजें बहुत शीघ्रता से हो रही हैं। गत बीसवीं शताब्दी की अपेक्षा हमने अपना ज्ञान गत बीस वर्षों में अधिक बढ़ाया है।

  1. हमारे मस्तिष्क में प्रतिदिन असंख्य ऐसे प्रश्न उठते हैं। ऐसे ही प्रश्न आपने पूर्वजों ने भी पूछे होंगे। जीवविज्ञान इनमें से कुछ प्रश्नों का उत्तर दे सकता है और कुछ के ऐसे उत्तर सुझा सकता है, जिनको अभी समझना हमारे लिए कठिन है।
  2. जीवविज्ञान प्राप्त संसाधनों को उपयोगी बना सकता है, जिससे हमारी अर्थव्यवस्थाओं की पूर्ति होती है। यह परम आवश्यक है कि हमें फसलों तथा पशुओं को उत्पन्न करने का, उन्हें बीमारियों तथा पीड़कों से बचाने का तथा उनसे उपयोगी भोजन प्राप्त करने का वैज्ञानिक ज्ञान हो। हम आश्रय, कपड़े, ऊर्जा, औषधियों आदि के लिए पौधों तथा सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करते हैं। दवाइयां, सर्जरी तथा सूक्ष्म जीवविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि होने के कारण हम रोगों को नियंत्रित तथा उनका निदान कर पाए हैं, जिससे कि रहने का स्तर ऊँचा हो गया है।
  3. जीवविज्ञान का एक मुख्य अंग है- समस्याओं का समाधान करना। मलेरिया उन्मूलन इसका ज्वलंत उदाहरण है। जीवविज्ञानी, चिकित्सक, रसायनशास्त्री, तथा औषधि निर्माता, शिक्षक, इंजीनियर, तथा स्वास्थ्य अधिकारी, सभी ने मलेरिया उन्मूलन के लिए अपने-अपने ज्ञान को एकत्र किया है। इससे पता लगता है कि आविष्कार में अन्य विषयों के ज्ञान का लाभ लेना पड़ता है। इसलिए जीवविज्ञान सबक लिए आवश्यक है।
  4. जीवविज्ञान हमें बताता है कि हम इस जीवित उपग्रह का एक छोटा-सा भाग है और हमारा यह उत्तरदायित्व है। कि हम इसकी रक्षा करें और अन्य सभी जीवों का सम्मान करें।
क्या जानते हैं?

कुछ पौधों में फूलों के खिलने को दिन की लम्बाई तथा रात का तापक्रम नियमित करता है। कुछ बहुवर्षी पौधों में 12 से 120 वर्ष बाद एक बार ही फूल खिलते हैं। ऐसे पौधों में फल-फूल लगना विघटनकारी प्रक्रम है क्योंकि सारी आबादी समाप्त हो जाती है और बीज से नया पौधा बनता है। ऐसे पौधों को मोनोकार्पिक कहते हैं अर्थात् एक ही बार फूल खिलना और उनके फूल खिलने को ग्रिगेरियस फूल खिलना कहते हैं। भारत के उत्तर-पूर्व भाग में मोतक (मेलोकना बैम्बुसोइड्स) तथा रोथिंग (बैम्बुसा टुल्डा) में 48 वर्ष में एक बार फूल आते हैं। फूल खिलने से चूहों के कई स्पीशीज की संख्या बढ़ जाती है। चूहे बाँस के दाने खाते हैं और जब वे समाप्त हो जाते हैं तब वे पास में स्थित धान तथा मक्का की खड़ी फसलों को खाना आरम्भ कर देते हैं, जिससे इन खेतों की पैदावार की बहुत हानि होती है। इनके कारण अकाल पड़ जाता है, जिससे इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का जीवन प्रभावित होता है। हम न तो ग्रिगेरियस फूल खिलने के, न ही चूहों की आबादी बढ़ने के संकेत और न ही बाँस समाप्त होने के मूलभूत आधार को जानते हैं।

  1. जीवविज्ञान से पता लगता है कि हम अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि पारिस्थितिक तंत्र और जीवों में पारस्परिक सम्बन्ध क्या हैं और हमें उनमें विघ्न डालने से पहले सावधान रहना चाहिए।
  2. जीवविज्ञान हमें पर्यावरण विनाश क विषय में भी सावधान करता है। पर्यावरण प्रदूषण हमारे ही क्रियाकलापों, जैसे कीटनाशी तथा उर्वरकों का बेतहाशा उपयोग करना, जंगलों का विनाश करना तथा प्रदूषकों का निष्कासन आदि से होता है।
  3. अपने विषय में ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रकृति का अध्ययन करना बहुत अच्छा अनुभव है। प्रकृति के अधिक निकट होने क कारण, एक जीवविज्ञानी लाखों वर्षों में हुए विकास से प्राप्त विभिन्न सजीवों को अपने चारों ओर देख सकता है। प्रकृति हमें सौन्दर्य का दर्शन कराती है, जैसे-तितलियों, पक्षियों तथा फूलों के विभिन्न रंग, विभिन्न प्रकार की आकृति, पैटर्न तथा शंख तथा कोरल की सममिति तथा उष्णकटिबंधीय नम जंगलों में विशालकाय वृक्ष तथा विसपी लताएँ, मरुस्थल में कटीली नागफनी। कवि तथा कलाकारों ने सदैव प्रकृति के सौन्दर्य की प्रशंसा की है। ज्ञान तथा समझ में वृद्धि होने से हम प्रकृति के सौन्दर्य को और अधिक अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं।
  4. जीवविज्ञान से हमें पता लगता है कि विज्ञान का व्यवहार कैसे करें, कैसे प्रश्न करें और प्रयोगों तथा तकों द्वारा उसका सही उत्तर पता करें।

जीवों के गुण

श्वसन Respiration

श्वसन इनका मुख्य लक्षण है। इसमें जीव वायुमण्डल से आक्सीजन ग्रहण करता है तथा कार्बन डाईआक्साइड बाहर निकालता है। श्वसन क्रिया द्वारा वसा, कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन के विघटन से ऊर्जा प्राप्त होती है। जिससे समस्त जैविक क्रियाएँ संचालित होती है।

पोषण Nutrition

जीवन के विकास तथा ऊर्जा उत्पादन हेतु पोषण आवश्यक है। पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा तथा जन्तु पौधों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं।

प्रजनन Reproduction

प्रजनन द्वारा प्रत्येक जीव अपने जैसा ही जीव पैदा कर अपने वंश परम्परा को बनाये रखता है।

अनुकूलन Adaptation

जीवन संघर्ष में सफल होने के लिए जीव अपनी संरचना एवं कार्यिकी में परिवर्तन कर अपने अस्तित्व को बचाते हैं।

गति Movementor Locomotion

जीवधारियों में जन्तु एक स्थान से दूसरे स्थान को गति करते हैं, जबकि पौधे स्थिर रहकर अपने अंगों को गतिशील रखते हैं।

संवेदनशीलता Sensitivity

वातावरण में होने वाले परिवर्तन को जीवधारी अनुभव करते हैं और आवश्यकतानुरुप अपने अन्दर परिवर्तन भी करते हैं। यह परिवर्तन ही अनुकूलन कहलाता है।

एलैक्जेन्डर फ्लेमिंग

एलैक्जेन्डर फ्लेमिंग (1881-1955) स्टैफाइलो कोक्स नामक जीवाणु, जिसके कारण गले में संक्रमण हो जाता है, का अध्ययन कर रहे थे। वह इस जीवाणु की एगार माध्यम में पैट्रीडिश में वृद्धि कर रहे थे। ये सामान्य अवलोकन है कि इस प्रकार के संवर्धन माध्यमों पर अन्य सूक्ष्म जीव भी उग आते हैं। फ्लेमिंग ने नीले हरे कवक पैन्सिलियम नोटेटम को संवर्धन में देखा। प्राय: संदूषित संवर्धनों को फेंक दिया जाता है, लेकिन फ्लेमिंग ने इस विशेष प्लेट को रख लिया। इस प्लेट में अन्य प्लेटों में उगी हुई संरचनाओं से कुछ भिन्नता थी, क्योंकि इस प्लेट में जीवाणुओं की वृद्धि नहीं थी। इससे यह स्पष्ट होता था कि प्लेट में मोल्ड के आस-पास जो साफ क्षेत्र बन गया था, उसमें जीवाणु की वृद्धि नहीं हुई थी। अन्य जीवाणु विशेषज्ञों ने भी देखा कि मोल्ड जीवाणु की वृद्धि नहीं होने देते। लेकिन फ्लेमिंग ने इस पदार्थ का नाम पैन्सिलिन रखा (1928-1929)। उन्होंने बताया कि- पैन्सिलिन एक एंटीसेप्टिक दावा हो सकती है, जो पैन्सिलिन संवेदी जीवाणुओं को नष्ट करने में सक्षम है। उसके बाद परीक्षणों से पता चला कि पैन्सिलिन मनुष्य के लिये एक उपयोगी एन्टी बॉयोटिक बन गई। द्वितीय विश्व युद्ध के समय पैन्सिलिन ने घायल हुए सैनिकों में संक्रमण रोकने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसके लिए इन्हें 1945 में चिकित्या का नोबेल पुरस्कार मिला।

उपापचय Metabolism

जीवों में उपापचय क्रिया होती है, जिसमें उपचय में रचनात्मक क्रियाएं तथा अपचय में अपघटन की क्रियाएं होती हैं।

जीवन चक्र Life Cycle

जीवधारियों में सभी जैविक क्रियाएं निश्चित समय पर होती हैं और एक निश्चित अन्तराल के पश्चात् वह नष्ट हो जाता है।

जीवद्रव्य Protoplasm

जीवधारियों में उपस्थित वास्तविक जीवित पदार्थ है। यह जीवों की भौतिक आधारशिला है।

वृद्धि Growth

जीवधारियों के आकृति, भार एवं आयतन में वृद्धि होती है।

उत्सर्जन Excretion

जीवधारियों द्वारा शरीर में उपस्थिति हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन होता है।


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सजीव और निर्जीव

अगर किसी जीव प्राणी या पादप का रासायनिक तौर पर विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि वह कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाईट्रोजन और अन्य तत्वों से बना हुआ है। लेकिन इन तत्वों के मिश्रण से कोई जीव नहीं बन जाता है। तो फिर जीवन को कैसे परिभाषित करें। वास्तव में जीव की एक सामान्य, व्यापक परिभाषा प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। परन्तु हम कह सकते हैं कि जीवधारियों में निम्नलिखित लक्षण होने चाहिए-

संगठन

सभी जीवों का एक निर्धारित आकार और भौतिक व रासायनिक संगठन होता है, जो वह अपने जनकों से वंशागत के रूप में पाता है। यह सब बहुत ऊंचे दर्जे के संगठन के कारण संभव हो सका है। इन जीवों के अणु कोशिकाओं में संगठित होकर ऊतकों, अंगों, और अंग-तंत्र द्वारा व्यष्टि रचना करते हैं। इस प्रकार का जटिल संगठन निर्जीव वस्तुओं में नहीं होता।

उपापचय

हरे पादप अपना आहार पर्यावरण से जल, कार्बन डाईऑक्साइड और कुछ खनिजों के रूप में लेकर उन्हें प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिन्थेसिस) को दौरान कार्बोहाइड्रेट संश्लेषित करते हैं। कार्बोहाइड्रेट श्वसन के दौरान टूट कर ऊर्जा निकालते हैं जो कि अन्य कार्बनिक पदार्थ, जैसे- प्रोटीन, लिपिड, न्यूक्लिक अम्ल आदि अपना आहार कार्बनिक पदार्थों से ग्रहण करते हैं और अपनी जरूरत के अनुसार पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। ये अभिक्रियाएं, जिन्हें उपापचय कहते हैं, निर्जीव वस्तुओं में नहीं होती।

वृद्धि और परिवर्धन

जीव ज्यादातर एक कोशिका से बनते हैं। इस कोशिका के विभाजन और पुनविर्भाजन से ढेर सारी कोशिकाएं बनती हैं, जो शरीर के विभिन्न अंगों में विभेदित हो जाती हैं। इस तरह की क्रियाएं निर्जीवों में नहीं पायी जाती हैं।

जनन

निर्जीवों की तुलना में जीवधारी अलैंगिक अथवा लैंगिक जनन द्वारा अपना वंश बढाने की क्षमता द्वारा पहचाने जाते हैं।

अनुक्रियता

सभी जीव उद्दीपन के प्रति अनुक्रियाशील होते हैं जैसे जड़े धरती की तरफ मुड़ती हैं और तना सूर्य की तरफ, रंध्र (स्टोमेटा) दिन में खुलते हैं और रात्रि में बंद होते हैं व कुत्ता अपने मालिक को देख कर पूंछ हिलाता है। इस प्रकार की अनुक्रिया निर्जीवों में नहीं देखी जाती।

अनुकूलन

जीवों में अपने को पर्यावरण की आवश्यकता के अनुसार अनुकूलित करने की क्षमता होती है, जो उसे जीवित रहने में सहायता करती है। उदाहरण के लिए लवणीय मिट्टी में उगने वाले पादपों के शरीर में नमक की उच्च मात्रा होती है और रेगिस्तान में पैदा होने वाले पादपों में पट्टियां कम होती हैं और उनकी सतह पर मोम जैसी परत होती है। इसी तरह शीत जलवायु में रहने वाले प्राणियों के शरीर पर बालों की मोटी परत होती है और गिरगिट वातावरण के अनुसार अपने शरीर का रंग बदल सकते हैं।


जीवधारियों का वर्गीकरण Classification of Organisms

वस्तुओं को वर्गीकृत करने की इच्छा मनुष्य की मूल विशेषता है। इसलिए जब मनुष्य को काफी संख्या में पादप और प्राणियों की जानकारी हासिल हुई, तो उनकी वर्गीकृत करने की आवश्यकता पड़ी। और तो और, विभिन्न जगहों पर पादप और अलग-अलग नाम से जाने जाते थे जिससे उनको बारे में संदेश प्रसारण में कठिनाई होती थी। इस कारण एक ऐसे सिद्धांत की जरूरत थी, जिससे उनको एक ही नाम से पूरी दुनिया में पहचाना जा सके। हालांकि पहले काफी कोशिशें की जा चुकी थीं, पर प्रख्यात स्वीडिश प्राकृतिक वैज्ञानिक कैरोलस लिनियस के कार्य से एक वर्गीकरण व्यवस्था तैयार की गयी, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी किताब सिस्टेमा नैचुरे में किया और साथ ही में उन्होंने 1758 ई. में द्विपद नामपद्धति की संकल्पना सामने रखी।

द्विपद नामपद्धति Binomial Nomenclature

इस प्रणाली के अनुसार, हर जीवधारी के नाम में दो शब्द होते हैं। पहला पद है वंश (जैनरिक) नाम जो उसके संबंधित रूपों से साझा होता है और दूसरा पद है-एक विशिष्ट शब्द (जाति पद)। दोनों पदों के मिलने से जाति का नाम बनता है। शुरू में नाम लैटिन में दिए गए। जीवविज्ञान की वह शाखा, जो ज्ञात जीवों की पहचान, नामकरण, और वर्गीकरण से संबंधित है, उसे वर्गिकी कहते हैं। लेकिन लिनियस द्वारा दी गयी वर्गीकरण प्रणाली कृत्रिम थी, क्योंकि यह कुछ ही लक्षणों पर आधारित थी। इसलिए कोशिशें की गयी और अभी तक चल रही हैं कि प्रणाली ज्यादा प्राकृतिक और जातिवृत्तीय (फाइलोजनेटिक) हो। वर्गीकरण की प्रतिष्ठित प्रणाली जीवों को दो भागों में वर्गीकृत करती है- पादप और प्राणी। प्रणाली में, जीवाणु एक्टीनेमाइसेटीज और कवक पादप जगत में रखे गये हैं क्योंकि उनमें कोशिका भित्ति होती है, हालांकि वे काफी अलग हैं। वर्गीकरण विशेषज्ञों को कुछ वर्षों से लगा कि यह वर्गीकरण कृत्रिम और असंतोषजनक है। इसलिए उन्होंने इस अवधि में कोशिश की कि एक ऐसी प्रणाली बनाई जाए जो जातिवृत्तीय संबंधों के आधार पर हो। उन्होंने जीवों को पांच जगतों (किंगडम्स) में विभाजित किया:

मोनरा Monera

प्रोकरियोटिक कोशिका एवं अविकासित केन्द्रक पाया जाता है। इसमें – जीवाणु एवं नीलहरित शैवाल आते हैं।

प्रॉटिस्टा Protista

एक कोशिकीय जीव, विकसित जैसे – अमीबा।

प्लान्टी Plantae

बहुकोशीय पौधे-इनमें प्रकाश संश्लेषण होता है, कोशिकाओं में रिक्तिकाएं भी पायी जाती है।

कवक Fungi

यूकैरियोटिक, पर्णहरिम से रहित होते हैं, प्रकाश संश्लेषण नही होता है।

एनिमेलिया Animalia

बहुकोशिकीय एव यूकैरियोटिक जन्तु होते हैं।

जन्तुओं का वर्गीकरण Classification of Animals

जन्तुओं का मुख्य विभेद कशेरुक दण्ड के आधार पर अकशेरुकी (Inverterates) तथा कशेरुकी (Vertebrates) में किया गया है। इन्हें क्रमश: नॉन काडेंटा तथा कार्डेटा भी कहते हैं। वर्तमान में जन्तु जगत् का सर्वाधिक प्रचलित वर्गीकरण स्टोरर तथा यूसिंजर ने किया है जिनमें मुख्य का विवरण निम्न है:

  1. संघ प्रोटोजोआ (Phylum Protozoa): इसका अर्थ है, प्रथम जन्तु। ये एक कोशीय सूक्ष्म दर्शीय जन्तु हैं। ये जल, गीली मिट्टी, सड़ी – गली कार्बनिक वस्तुओं आदि में स्वतंत्र जीवी या अन्य जन्तुओं एवं पौधों के शरीर में परजीवी, सहजीवी का सहभोजी होते हैं। शरीर में जटिल यौगिकों के अणुओं से बनी विशिष्ट रचनाओं को अंग न कहकर अंगक (Organelles) कहते हैं। इसके उदाहरण – यूग्लीना, अमीबा, पैरामीशियम, प्लाज्मोडियम आदि हैं।
  2. संघ पोरीफेरा (Porifera): इसका अर्थ है छिद्र धारक। इनके सम्पूर्ण शरीर में छोटे-छोटे छिद्र होते हैं, जो इनकी क्रियात्मक सक्रियता की प्राथतिक संरचनाएं है। ये बहुकोशिकीय जन्तु हैं, इनमें ऊतकों का अभाव होता है। इस संघ के अधिकांश समुद्री जन्तु पौधों के समान पत्थरों या जलीय वस्तुओं से चिपके रहते हैं। इन जन्तुओं की प्रत्येक कोशिका अलग-अलग स्वतंत्र रुप से कार्य करती हैं। इनमें परस्पर समन्वय नहीं पाया जाता है। शरीर पर पौधों की भाँति शाखाएं पाई जाती है। देह भित्ति में नाल प्रणाली होती है। उदाहरण – ल्यूकोसोलीनिया, यूस्पंजिया, यूपलक्टेला (वीनस के फूलों की डलिया) आदि है।
  3. सीलेन्ट्रेटा या निडेरिया (Coelenterata or Cnidaria): ये बहुकोशिकीय तथा अरीय सममित जन्तु हैं। कुछ जातियां स्वच्छ जल में तथा अधिकांश खारे समुद्री जल में पायी जाती है। शरीर के सम्पूर्ण कार्य ऊतकों द्वारा सम्पन्न होते है। शरीर द्विस्तरीय होता है। दोनों के बीच मीसोग्लीया नामक अकोशिकीय जेली होती है। इसमें देह गुहा का अभाव होता है एवं सीलेन्ट्रान होती है। उदरगुहा तथा देह गुहा दोनों का कार्य करती है। इनका आकार बेलनाकार पाइप या छाते के समान पाया जाता है। इसके उदाहरण – हाइड्रा, ओबिलिया, फाइलेशिया, जेलीफिश आदि हैं।
  4. संघ प्लेटिहेल्मिन्थीज (Platyhelminthes): अधिकांश जंतु परजीवी होते हैं। जन्तु प्राय: फीते के आकार के चपटे या पत्ती की आकृति के होते हैं। ये त्रिस्तरीय त्वचा वाले – इक्टोडर्म, मीमसोडर्म एवं इण्डोडर्म होते हैं। इन जन्तुओं में अंग या तंत्रों का विकास होता है। पोषक से चिपकने हेतु चूषक या कण्टक होते हैं। श्वसन एवं रुधिर परिसंचरण तंत्र पूर्ण रुप से अनुपस्थित होता है। उदाहरण – फैसिओला हिपैटिका तथा टीनिया सोलियम (टेपवर्म) आदि हैं।
  5. निमैटोडा या निमैटहेल्मिनथी (Nematoda): इन्हें गोलकृमि या सूत्रकृमि भी कहते हैं। शरीर पतला, नालाकार, अविभाजित तथा दोनों सिरों पर नुकीला होता है। श्वसन तथा परिसंचरण तंत्र का अभाव पाया जाता है। वास्तविक देहगुहा के स्थान पर आभासी देहगुहा होती है। ये जन्तु परजीवी होते हैं। ये जल गीली मिट्टी या अन्य जीवों या पादपों के शरीर में पाये जाते हैं। इनमें नर तथा मादा अलग-अलग होते हैं। उदाहरण- ऐस्कैरिस लम्ब्रीक्वाएडिस।

ऐस्कैरिस द्वारा ऐस्कैरिएसिस रोग होता है। इसमें ऐंठन, भूख न लगना, चिर निद्रा, बेहोशी, अनिद्रा, उलटी अतिसार, दर्द एवं ज्वर होता है।

  1. संघ ऐनीलिडा (Annelida): इनका शरीर बेलनाकार, कोमल तथा कृमिगत् होता है। इनका शरीर समान खण्डों में आगे से पीछे तक बँटा होता है तथा विखण्डन शरीर के बाहर तथा भीतर स्पष्ट होता है। शरीर में वास्तविक देहगुहा पायी जाती है। विशिष्ट श्वसनांग प्राय: नहीं होते लेकिन रुधिर परिसंचरण तंत्र विकसित होता है। उत्सर्जन विशेष प्रकार के नेफ्रीडिया द्वारा होता है। ये उभयलिंगी या एकलिंगी होते हैं, जो स्वच्छ जल, पृथ्वी के अन्दर एवं समुद्र में भी पाये जाते है। नेरिस, भीतर स्पष्ट होता है। शरीर में वास्तविक देहगुहा पायी जाती कॅचुआ, जोंक आदि इस संघ के जन्तु हैं।
  • केंचुओं को किसानों का मित्र कहते हैं। ये मिट्टी को खाकर भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। केंचुए के शरीर से गठिया, बवासीर, अतिसार, पीलिया तथा नपुंसकता की दवा बनाई जाती है।
  1. आर्थोपोडा (Arthropoda): इसका अर्थ है संयुक्त उपांग, यह संसार का सबसे बड़ा संघ है। कुल ज्ञात संसार के जन्तु जगत् की 80 प्रतिशत से अधिक संख्या इन्हीं की है। इनका बाह्य ककाल काइटिन का बना होता है, काइटिन समय-समय पर त्याग दिया जाता है। इसे मोल्टिंग (Moulting) कहते हैं। इनमें परिसंचारी तंत्र खुले प्रकार का होता है। श्वसन क्लोम या फुफ्फुस से होता है। शरीर सिर, वक्ष तथा उदर गुहा में बंटा होता है। ये जन्तु जलीय, स्थलीय, वायवीय या भूमि के अन्दर गुफा बनाकर रहते हैं। कीट (Insecta) इस संघ का सबसे बड़ा वर्ग है। उपयोगी कीट जैसे- बाम्बिक्स मोराई (रेशम कीट), एपिस इंडिका (मधुमक्खी), लासीफर (लाख कीट), कोकीनियन बग (लाही) आदि।
  • हानिकारक कीट: टिड्डी, आलू का कटवी, कपास का झांगा (Red Cotton), गन्ने का पाइरिला, चावल का गंधी, गोभी का चेंपा, बाह्य परजीवियों में जूं, खटमल, पिस्सू आदि होते हैं।
रोग फैलाने वाले कीट
·         घरेलू मक्खी- हैजा, अतिसार, सुजाक, कोढ़, टाइफाइड, तपेदिक।

·         मच्छर – मलेरिया, फाइलेरिया, डेगू ज्वर (दण्डक ज्वर) पीत ज्वर।

·         सैण्डफ्लाई – कालाजार, फोड़े का रोग।

·         खटमल – टाइफस, रिलैप्सिंग ज्वर, कोढ़।

·         जूं- टाइफस, ट्रेन्च ज्वर, रिलैप्सिंग ज्वर आदि।

  1. मोलस्का (Mollusca): अकशेरुकियों का दूसरा सबसे बड़ा वर्ग है। इनका शरीर कोमल, श्लेष्म से तर खण्डरहित होता है। अधिकांश का शरीर कैल्शियम कार्बोनेट के ककाल से ढंका हुआ होता है। सिर पर नेत्र तथा स्पर्शक होते हैं। मुख में भोजन कुचलने के लिए रेडुला होते हैं। पाद (Foot) प्रचलन के साथ साथ मिट्टी खोदने तथा शिकार पकड़ने के लिए रुपान्तरित होते हैं। परिसंचरण तंत्र खुला तथा बन्द दोनों प्रकार का होता है। नर व मादा अलग-अलग होते हैं। अधिकांश मोलस्क खारे जल में पाये जाते हैं। इसके उदाहरण – पाइला (घोंघा) सीपिया, कटलफिश, काईटन, नौटिलस, अण्टपद टेरिडो (जहाज कृमि) माइटिलस, लोलीगो आदि हैं।
  • बहुमूल्य मोती: पिवटाडा वेल्गैरिया तथा ऑस्ट्री वेर्जीन्यूलैना नामक सीप से प्राप्त होती है। इन सीपों में जब कोई बाहरी जीव या रेत के कण सीपी के मेंटल तथा कवच के बीच प्रवेश कर जाता है तो मेंटल से चारों ओर चूने का स्राव जमा होकर मोती का निर्माण करता है।
  1. इकाइनोडर्मेडा (Echinodermata): इसका अर्थ है- कंटकीय त्वचा। इनकी लगभग 5000 जीवित जातियां हैं। ये सीलोमयुक्त समुद्री जन्तु हैं। इनकी त्वचा के नीचे चूनेदार प्लेट होती है। कभी-कभी त्वचा के ऊपर काँटे पाये जाते हैं जो अंत: ककाल का निर्माण करते हैं। इनमें नल पाद नामक छोटी-छोटी खोखली रचनाएं होती हैं। ये जलवाहक तंत्र से जुड़ी रहती हैं। इनका काम प्रचलन, भोजन ग्रहण तथा श्वसन में भाग लेना होता है। आहारनाल प्राय: कुण्डलित होती है। उत्सर्जन तंत्र अनुपस्थित होता है। इनमें तंत्रिका तंत्र तथा ज्ञानेन्द्रिय अल्पविकसित होते हैं। नर एवं मादा, अलग-अलग होते हैं। इस संघ के प्रमुख जन्तु तारा मछली (Star Fish) ब्रिटल स्टार, समुद्री अरचिन, समुद्री खीरा (Sea Cucumber) कुकुमेरिया, थायोन (Sea Lilly), समुद्री लिली आदि हैं।
  2. संघ हेमीकाडेंटा (Hemichordata): ये जीव समुद्र के किनारे सुरंगें बनाकर रहते हैं। शरीर तीन भागों – शुंड, कॉलर तथा धड़ में बंटा होता है। इनमें पृष्ठरज्जु (Notochord) केवल अगले भाग में होती है। आहार नाल U आकार की होती है। इनमें रक्त वाहिनियाँ भी उपस्थिति होती हैं। उत्सर्जन, शुण्ड में स्थित एक कोशिका गुच्छ द्वारा सम्पन्न होता है। ये एक लिंगी होते हैं। इनके उदाहरण – जीभ कृमि (Tongue-Worm) बैलेनोग्लॉसस तथा सेफैलोडिस्कस आदि हैं।
  3. संघ काडेंटा: इसके दो अधिवर्ग (Super Class) मुख्य हैं – मत्स्य (Pisces) तथा टेट्रापोडा (Tetrapoda)|

मत्स्य वर्ग (Pisces)

ये शीत रुधिर जलीय जन्तु है, जल में तैरने हेतु पंख पाये जाते हैं। गिल्स के द्वारा श्वसन क्रिया होती है। अंत: कंकाल अस्थियों तथा कुछ में उपास्थियों का बना होता है। ये समुद्री तथा मीठे जल, दोनों में पायी जाती हैं। इनमें विद्युत मछली (Tarpedo) शार्क, कुत्तामीन (Scoliodon), हाथीमीन (Chimaera) रोहू, कैटफिश, हिप्पोकैम्पस (Sea Horse) उड़न मछली (Flying Fish)।

विद्युत् मछली (Torpedo) शत्रुओं से रक्षा हेतु 20–25 बोल्ट तक विद्युत पैदा करती है।

अधिवर्ग टेट्रापोडा (Super Class Tetrapoda)

इन्हें चतुष्पादी प्राणी भी कहते हैं। ये नियततापी तथा अनियतापी, दोनों प्रकार के होते है। कंकाल अस्थियों का बना होता है। हृदय अलिन्द एवं निलय में विभक्त होता है। इस को चार अधिवगों में बांटा गया है:

  1. वर्ग एम्फीबिया (ClassAmphibia): जल एवं थल, दोनों पर पाये जाने के कारण इन्हें उभयचर कहा जाता है। टेडपोल अवस्था में पूँछ पायी जाती है और गिल द्वारा श्वसन करते हैं। विकसित होकर स्थलीय जीवन व्यतीत करने लगते हैं और श्वसन, फेफड़े एवं त्वचा से होने लगता है। प्रचलन पैरों के माध्यम से होता है। ये शीत रुधिर वाले होते हैं। त्वचीय श्वसन के कारण त्वचा सदैव नम रहती है। हृदय में दो आलिन्द एवं एक निलय होता है। लाल रुधिरकण में केन्द्रक उपस्थित होता है। ये अण्डे देते हैं। यूरिया मुख्य उत्सर्जी पदार्थ अर्थात् यूरियोटेलिक होते हैं। इस वर्ग के प्रमुख जन्तु टोड, हाइला, मेढक, सैलामेण्डर एवं इक्थियोफिस आदि हैं।
  2. सरीसृप वर्ग (Reptiles): ये रेंगकर चलने वाले जन्तु हैं। शीत रुधिर वाले इन जन्तुओं की त्वचा सूखी होती है। श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है। हृदय दो आलिन्द तथा एक निलय में बंटा होता है। मात्र मगरमच्छ में दो अलिन्द व दो निलय पाये जाते हैं। लाल रुधिर कणिकायें केन्द्रक युक्त होती हैं। मादा अण्डे देती हैं। सभी जन्तु माँसाहारी होते हैं। ये प्राय: जीवित जन्तुओं का शिकार करते हैं। इनके उदाहरण: छिपकली, साँप, कच्छप, कछुआ, डाइनासोर (विलुप्त) आदि हैं। साँप में वाह्य एवं मध्य कर्ण नहीं होते हैं परंतु अंत: कर्ण पाये जाते हैं। इनके अण्डे कैल्शियम युक्त कवच से घिरे होते हैं।
  3. पक्षीवर्ग (Aves): पक्षियों का शरीर वायवीय जीवन के अनुकूल होता है। ये ठण्डे एवं गर्म, सभी वातावरण में पाये जाते हैं। इनकी त्वचा पर पंखों का बाह्य ककाल पाया जाता है। पंख, अग्रपाद के रुपान्तरित रुप हैं। ये समतापी (गर्म रुधिर) वाले होते हैं। इनके जबड़ों में दाँत नहीं होते, कठोर चोंच भोजन के पकड़ने में सहायक होती है। पक्षियों में कंकाल, सरन्ध्र तथा हल्का होता है। ये अण्डज हैं, अण्डों में सफेद एल्बूमेन तथा पीला योक पाया जाता है। आर्कियोप्टेरिस (विलुप्त पक्षी) तथा इक्थायोर्निस के जबडों में दाँत पाये जाते थे। परन्तु सभी पक्षियों में विशबोन या v-शेप बोन पायी जाती है। आर्किऑप्टेरिक्स में भी यही बोन उपस्थित श्री जिसको आधार पर आर्किआप्टेरिक्स को AVES श्रेणी में रखते हैं। कीवी, शुतुरमुर्ग तथा ईमू उड़ते नहीं अपितु दौड़ते हैं। सबसे छोटा पक्षी हमिंग बर्ड है, सबसे बड़ा पक्षी एल्बाट्रासेस है।
  4. स्तनधारी वर्ग (Mammalia): यह शब्द स्तन ग्रंथियाँ रखने वाले जन्तु, जिनसे उत्पन्न दुग्ध द्वारा इनको शिशु का पोषण है, से बना है। ये मुख्यत: स्थलीय होते हैं। लेकिन कुछ जलीय या वायवीय भी होते हैं। ये गर्म खून वाले होते हैं। ह्वेल एवं समुद्री गाय को छोड़कर सभी चौपाये होते हैं। इनक शरीर पर बाल होते हैं। बाह्य ककाल सींग, पंजे या खुर के रुप में होता है। त्वचा मोटी जलरोधी होती है, जिन पर स्वेद ग्रंथियां होती हैं। इनमें बाह्य कर्ण होता है। दाँत, जबड़ों की अस्थियों के गड्डों में होते हैं, जो चार प्रकार (I,C,M,PM) के होते हैं। हृदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं। लाल रक्त कण गोलाकार एवं केन्द्रहीन होते हैं। इनका मस्तिष्क अपेक्षाकृत बड़ा होता है। सेरिब्रम तथा सेरीबेलम अधिक विकसित होता है। प्राचीन स्तनधारियों में वृषण (Tests) उदर में स्थित होते हैं। वर्तमान में अधिकांश स्तनधारियों में वृषण शरीर गुहा के बाहर पाये जाते हैं। अधिकांशत: जन्तु, बच्चे पैदा करने वाले होते हैं। कुछ (एकीडना, डकबिल) अण्डे देने वाले भी होते हैं। निषेचन के पश्चात् भ्रूण का विकास गर्भाशय (Uterus) में होता है। स्तनधारी वर्ग को तीन उपवगों में बांटा गया है-
  5. प्रोटोथीरिया: इनमें सरीसृपों जैसे लक्षण होते हैं। ये अण्डे देते हैं। इनमें स्तनाग्रों तथा कर्ण पल्लवों का अभाव होता है। उदाहरण – एकिडना, आर्निथोरिकस, प्लेटीपस (डक बिल) आदि हैं।
  6. मैटाथीरिया: ये अल्पविकसित बच्चा पैदा करते हैं। उदरगुह में स्थित शिशुधानी में (मॉर्सुपियम) बच्चे का पूर्ण विकास होता है। इसका उदाहरण कंगारु (मैक्रोपस) तथा ओपोसम (डायडाल्पस) हैं।
  7. यूथीरिया या प्लैसेन्टिलिया: ये उच्च स्तनी हैं। इनमें बाह्य कर्ण पाया जाता है तथा भ्रूण का विकास गर्भाशय में होता है। इनमें प्लैसेंटा पूर्ण विकसित होता है। स्तन ग्रंथियों के बाहर चूचक (Teats) पाये जाते हैं। इन्हें कई गणों में बांटा गया है-
  • गण इन्सेक्टीबोरा: रात्रिचर, नुकीले दाँत वाले, जमीन में बिल बनाकर रहते हैं – छछूंदर, स्रयूज (Shrews), झाऊ चूहा (Hedgehog) आदि।
  • गण काइरोप्टेरा: प्रमुख जन्तु चमगादड़ है। ये रात्रिचर होते हैं, अगला पैर डैनों में रुपान्तरित होने के कारण ये उड़ सकता है।
  • गण लैगोमार्फा: प्रमुख जन्तु खरहा (Hare) शशक (Rabit) है, ऊपरी जबड़े में दाँत तेज व नुकीले होते हैं। कैनाइन का अभाव होता है।
  • गण रोडेंशिया: प्रमुख जन्तु गिलहरी, घरेलू चूहा (रैट्स), चुहिया (माऊस) आदि है।
  • गण सिटिसिया: डाल्फिन, नीली हवेल है, पिछला पैर, बाह्यकर्ण अनुपस्थित।
  • गण कार्नीवोरा: प्रमुख मांसाहारी होते हैं। कैनाइन दाँत लम्बे व नुकीले होते हैं, जिनसे मांस को छीलने व फाड़ने का कार्य करते हैं। इनमें प्रमुख – कुत्ता, नेवला आदि हैं।
  • गण प्राइमेट्स: सर्वाधिक विकसित स्तनी मुख्यत: वृक्षश्रयी तथा स्थलवासी होते हैं। हाथ पैर लम्बे, अंगुलियां 5–5, नाखून युक्त, सीधे खड़े होकर चलने की क्षमता, बोलने व औजार बनाने की भी क्षमता होती है। इसके प्रमुख सदस्य मानव, बन्दर, गोरिल्ला, लीमर आदि जन्तु हैं।

महत्वपूर्ण तथ्य

  • विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत जीवधारियों का अध्ययन होता है, जीव विज्ञान कहलाता है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लैमार्क (फ्रांस) तथा ट्रेविरेनस (जर्मन) ने किया था।
  • थियोफ्रेस्टस ने 500 प्रकार के पौधों का वर्णन अपनी पुस्तक Historia Plantarum में किया है। इन्हें वनस्पति शास्त्र का जनक कहा जाता है।
  • हिप्पोक्रेट्स ने मानव रोगों पर प्रथम लेख लिखा। इन्हें चिकित्सा शास्त्र का जनक माना जाता है। अरस्तु ने अपनी पुस्तक जन्तु इतिहास में 500 जन्तुओं का वर्णन किया है। इन्हें जंतु विज्ञान का जनक कहा जाता है।

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