कोशिका- जीवन की मौलिक इकाई Cell-Fundamental Unit of Life

कोशिका सिद्धांत के अनुसार, सभी सजीव एक या एक से अधिक कोशिकाओं से बने होते हैं। कोशिका, सजीव की मूल इकाई है। सभी कोशिकाएँ पूर्ववर्ती कोशिकाओं से बनी हैं।

सभी सजीवों की कोशिकाओं की रचना, आण्विक संगठन तथा जैव क्रियाएँ समान होती हैं। इससे जीव में एकता का पता लगता है। प्रत्येक कोशिका स्वयं पूर्ण होती है, वह स्वायत्त है। यह स्वतंत्र रूप से पोषण, श्वसन, वृद्धि, जनन तथा स्वनियमित जैसी क्रियाएँ स्वतः कर सकती है। बहुकोशिकीय जीवों में, कोशिकाओं को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं होती। उनके कुछ क्रियाकलाप सम्पादित नहीं होते। लेकिन बहुकोशिकीय जीवों के वियुक्त या एकल सजीव कोशिका का संवर्धन, पोषक माध्यम में, कई संतति तक कर सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि कोशिका ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं खोया है, चाहे वह बहुकोशिकीय जीव में किसी विशेष ऊतक का अंग ही क्यों न हो।

एक कोशिकीय जीवों में अकली कोशिका को समस्त जैव प्रक्रियाएं करनी पड़ती हैं। कोशिका में स्थित विशेष संरचनाएँ, जिन्हें कोशिकांग कहते हैं, कोशिका के कार्य तथा उन्हें नियमित करने में उसकी सहायता करती हैं। बहुकोशिकीय जीवों में विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ विभिन्न कार्य करती हैं। कोशिकाएँ आपस में मिल-जुलकर सामान्य कार्य करती हैं।

कोशिका की खोज

माइक्रोग्राफिया: लन्दन में 1665 में रॉबर्ट हुक द्वारा किए गए आवर्धक लैन्स से माइन्यूटी का अध्ययन शरीर क्रिया की व्याख्या, अवलोकन तथा उसके बाद जांच-पड़ताल,जीवविज्ञान में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हुक ने कोशिका की खोज आदिम यन्त्रों, मध्यम प्रकाश तथा घिसे या टूटे हुये लैन्सों से की थी।

संगठित रचना तथा कार्य को बनाए रखने के लिए कोशिका को लगातार ऊर्जा-प्रवाह की आवश्यकता रहती है। कोशिका यह ऊर्जा या तो प्रकाश संश्लेषण से या भोजन से रसायन आबद्ध ऊर्जा लेती है। कोशिका लगातार प्राप्त सूचना की सहायता से अपनी जैव प्रक्रियाओं को नियमित करती है। यह डी.एन.ए. द्वारा लाई गई आनुवंशिक सूचना अथवा वातावरण से आई सूचना हो सकती है।

कोशिकीय जीवन के लिए कोष्ठीकरण बहुत आवश्यक है। प्लाज्मा, झिल्लीयुक्त कोशिका कोष्ठक के रूप में होती है। पादप कोशिका में प्लाज्मा झिल्ली के चारों ओर सैल्यूलोज भित्ती होती है। यूकैरिआटिक कोशिका में बहुत से झिल्लीयुक्त अंगक अर्थात् कोष्ठक होते हैं। प्रत्येक अंगक की रचना तथा कार्य विशिष्ट होते हैं। प्रोकैरिआटिक कोशिकाओं में अन्त:कोष्ठक नहीं होते हैं।

कोशिका के छोटे अणु Micro molecule 


कोशिका में छोटे अणु कार्बोहाइड्रेट, जैसे-मोनोसैकेराइड, लिपिड, ऐमीनो एसिड, न्यूक्लिओटाइड, खनिज लवण तथा पानी होते हैं। वृहदाणु हैं – पॉलिसैकेराइड, प्रोटीन तथा न्यूक्लिक एसिड।

कोशिकाओं में ग्लूकोज ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। जन्तुओं के रुधिर शर्करा में भी होती है। इसका लैक्टोस, ग्लाइकोजन, स्टार्च, वसा तथा ऐमीनो एसिड बनाने में उपयोग होता है। राइबोस तथा डिआक्सीराइबोस, न्यूक्लिओटाइड तथा न्यूक्लिक एसिड को निर्माण में आवश्यक हैं। मोनोसैकराइड बहुलकी होकर रचनात्मक पॉलिसैकेराइड जैसे-सैल्यूलोज तथा ओलीगोसैकेराइड बनाते हैं।

कोशिका में विभिन्न प्रकार के लिपिड पाए जाते हैं। वसा, ग्लिसरॉल तथा लम्बी श्रृंखला वाले वसीय एसिड का ऐस्टर है। वसा में बहुत ऊर्जा संचित रहती है। असंतृप्त वसा का ग्लनांक, संतृप्त वसा से कम होता है। फास्फोलिपिड तथा ग्लाइकोलिपिड में क्रमशः फास्फेट तथा कार्बोहाइड्रेट होता है। ध्रुवीय तथा अधुवीय वर्ग जलीय माध्यम में लिपिड की दोहरी परत को फास्फोलिपिड की संज्ञा देते हैं। फास्फोलिपिड, ग्लाइकोलिपिड तथा स्टेरॉल रचनात्मक लिपिड हैं और झिल्ली के घटक हैं। स्टेरॉल से स्टेरायड हारमोन तथा विटामिन डी बनते हैं।

ऐमीनो एसिड में ऐमीन वर्ग तथा काबॉक्सिलिक एसिड होता है। वे जुड़कर पेप्टाइड बनाते हैं। ऐमीनो एसिड की बहुलता से

पादप कोशिकाएं पूर्णशक्त हैं

सन् 1902 में जर्मनी के वनस्पति शास्त्री हैबरलैन्ड ने कहा था कि प्रत्येक जीवित पादप कोशिका में पूरा पौधा पुर्नयोजित करने की क्षमता होनी चाहिए। इस संकल्पना को पूर्णशक्त कहते हैं। यह इस धारणा पर आधारित है कि जीव की प्रत्येक कोशिका निषेचित अंडे से बनती है और इसमें पुन: पूरा पौधा विकसित करने के जन्मजात गुण विद्यमान होने चाहिए। लेकिन हैबरलैन्ड का प्रयोग, उसने हरी पत्तियों से कोशिका को अलग करके उगाया था, असफल हो गया था।

सन् 1950 के अंत में एफ.सी.स्टीवर्ड तथा उसके सहयोगी ने कोरेनेल विश्वविद्यालय अमेरिका में, गाजर के साथ बहुत ही रोचक अध्ययन किया था। इन वैज्ञानिकों ने गाजर की जड़ के फ्लोएम ऊतकों, जिनमें परिपक्व अविभाज्य कोशिकाएं थी, से 2 मि.ग्रा. टुकड़े लिए उन्होंने उसे तरल पोषक माध्यम, जिसमें नारियल का पानी था, में उगाया। कोशिकाएं विभजित हुई और अलग होकर एक निलंबन बना लिया। इस नई बनी कोशिका के झुण्ड से जड़ें निकल गई। तब इन्हें संवर्ध नली, जिसमें वही अवयवों वाला अर्द्धठोसीय माध्यम था, में स्थानान्तरित किया गया तो, उनसे प्ररोह बना और अन्ततः पौधा बन गया। परखनली में उगाए गए पौधों को जब गमलों में लगाया गया, तब उनसे नारंगी रंग की जड़ें निकलीं। इस प्रयोग से यह पता चलता है कि परिपक्व कोशिका में भी विभाजन करवाया जा सकता है और उससे पूरा पौधा प्राप्त किया जा सकता है। इसके बाद स्टीवर्ड तथा हैल्पेरिन तथा वैथरेल ने गाजर की कोशिका से हजारों कायिक भ्रूणों को विकसित किया।

कोशिकाओं की पूर्णशक्तता अब बहुत से पादप ऊतकों, जिनकी उत्पत्ति विभिन्न है, परागकोष, भ्रूणकोष, मूल, प्ररोह शीर्ष, पट्टियां, पुष्पि कलियाँ आदि में भी दिखाई गई है। कोशिकाओं के इस अद्भुत गुण का उपयोग ऊतक संवर्धन द्वारा पौधों को उगाने में किया जाता है।

प्रोटीन बनता है। वे कुछ यौगिक, जैसे-ग्लुकोज, हिस्टानीन, कुछ जन्तु में पाए जाने वाले हारमोन, मेलानीन, हीम, निकोटिनएमाइड बनाते हैं।

न्यूक्लिओटाइड में नाइट्रोज की क्षार, एक पैन्टोज तथा एक या अधिक फास्फेट वर्ग होते हैं। प्यूरिन तथा पिरिमिडीन बहुलकीकरण से डी.एन.ए. तथा आर.एन.ए. बनाते हैं। प्यूरिन तथा पिरिमिडीन के उच्चतर न्यूक्लिओटाइड में उच्च ऊर्जा वाले फास्फेटी आबन्ध होते हैं। जैव प्रक्रिया के लिए ऊर्जा ए.डी.पी. तथा ए.टी.पी से मिलती है। निकोटिनएमाइड तथा राइबोफ्लेविन के न्यूक्लिओटाइड कुछ आक्सीकृत एंजाइमों के सह-एंजाइम के रूप में कार्य करते हैं।

कोशिका के लिए कुछ खनिज लवण भी आवश्यक होते हैं। इनकी आवश्यकता रचनात्मक ढांचा बनाने अथवा जैव सक्रिय अणु के घटक के रूप में होती है। कैल्सियम तथा फास्फोरस के लवण हड्डियों, दांतों तथा बाह्य ककाल में संचित रहते हैं जिसके कारण ये कठोर तथा शक्तिशाली होते हैं।

सोडियम तथा पोटेशियम शरीर में तरल के संतुलन को बनाए रखते हैं तथा तंत्रिका कोशिका में विद्युत संवेदनाओं का संवहन करते हैं।

क्लोरोफिल में मैग्नीशियम होता है। यह बहुत से एंजाइम की क्रिया के लिए आवश्यक है। लौह, श्वसनी वर्णक जैसे हीमोग्लोबिन तथा मायोग्लोबिन का आवश्यक घटक है। आयोडीन, थायरॉयड हारमोन के लिए आवश्यक है। मैंगनीज की आवश्यकता बहुत से एंजाइमों की क्रिया में होती है।

पानी, ध्रुवीय अणु का घोलक है। वृहदाणु जैव संरूपण तथा झिल्ली की दोहरी लिपिड की परत पर फास्फोलिपिड का सजना, पानी पर ही निर्भर करता है। रासायनिक क्रिया के लिए पानी एक अच्छा माध्यम है। H+ तथा OH प्रदान करके यह बहुत सी क्रियाओं में भाग लेता है। पानी शरीर के तरल में खनिज को आयन के रूप में रखता है। पानी का आयनीकरण होकर शरीर के तरल को हाइड्रोजन आयन प्रदान करता है।

कोशिकाएं कब तक जीवित रहती हैं ?

कुछ कोशिकाएं तो थोड़े दिन तक ही जीवित रहती हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी हैं, जो हफ्तों, महीनों या वर्षों तक जीवित रहती हैं। अस्थि कोशिकाएं (Bone cells) 15-20 वर्षों तक जीवित रहती हैं, जबकि श्वेत रक्त कोशिकाओं (White blood cells) की आयु केवल चार महीने ही होती है। त्वचा कोशिकाओं (Skincells) का जीवन-काल लगभग 3 सप्ताह होता है। तंत्रिका कोशिकाओं की आयु सबसे अधिक होती है। ये हमारे जीवन के अंतिम समय तक जीवित रहती हैं।

मिओसिस और माइटोसिस क्रियाओं द्वारा शरीर में कोशिका विभाजन की क्रिया होती रहती है। इसी से शारीरिक वृद्धि और प्रजनन क्रियाएं भी होती हैं।

कोशिका वृहदाणु Macro molecules

पॉलिसैकेराइड, प्रोटीन तथा न्यूक्लिक एसिड कोशिका के वृहदाणु हैं। ये क्रमशः शक्कर, ऐमीनो एसिड तथा न्यूक्लिओटाइड के बहुलक हैं। उनका आण्विक भार अधिक होता है और उनमें आयनी समूह तथा दोनों ध्रुवीय तथा अध्रुवीय समूह होते हैं। इन्हीं कारणों से जलीय माध्यम से वृहदाणु का विशेष नियम तथा संरूपण होता है। इन अणुओं की जैव प्रक्रियाएं, त्रिविमीय आकृति पर निर्भर करती हैं।

पॉलिसैकराइड लम्बे अथवा शाखीय होते हैं। ये एक या एक से अधिक प्रकार के मोनोसैकेराइड के बहुलक हैं खाद्य पॉलिसैकेराइड जैसे स्टार्च तथा ग्लाइकोजन, कोशिकाओं में संचित रहते हैं, जो विघटित होकर ऊर्जा देते हैं। अन्य जैसे सैल्यूलोस, रचनात्मक पॉलिसैकराइड हैं।

प्रोटीन ऐमीनो एसिड से बनती है। सरल प्रोटीन में केवल ऐमीनो एसिड होते हैं। संयुग्मी प्रोटीन में ऐमीनो एसिड के अतिरिक्त अप्रोटीनी प्रास्थैटिक समूह भी होता है।

प्रत्येक प्रोटीन में पेप्टाइड श्रृंखला होती हैं। इनमें ऐमीनो एसिड का विशिष्ट क्रम होता है (प्राथमिक रचना)। हाइड्रोजन आबन्ध द्वारा पेप्टाइड श्रृंखलाएं कुंडलित होती हैं अथवा लहरिए द्वारा शीट होती हैं (द्वितीय रचना)। ध्रुवीय तथा अध्रुवीय ऐमीनो एसिड के क्रम के आधार पर प्रोटीन अणु, विशिष्ट ढंग से कुंडलित होकर जिवम आकृति का बन जाता है (तृतीय रचना)। केवल जब प्रोटीन जिवम आकृति में आ जाता है, तभी वह क्रियाशील होता है।

न्यूक्लिक एसिड जैसे-डिआक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड तथा राइबोन्यूक्लिक एसिड प्यूरीन तथा पिरीमिडिन के बहुलक हैं। डी.एन.ए. अणु में एडिनीन, गुआनीन, साइटोसीन तथा थायमिन के डिआक्सी राइबोन्यूक्लिओटाइड होते हैं। डी.एन.ए. द्विकुंडलीय होता है (वाटसन-क्रिक मॉडल)। इसके दो स्तम्भ प्रति समान्तर होते हैं। इन दोनों स्तम्भों पर पूरक प्यूरीन तथा पिरीमिडीन क्षारक हाइड्रोजन से जुड़े रहते हैं (क्षार युग्मन सिद्धांत)। डी.एन.ए. आनुवंशिक पदार्थ है, जो एक संतति से दूसरी संतति में जाता है।

आरएनए अणु में एक राइबोन्यूक्लिओटाइड, एडीनीन, गुआनीन, साइटोसिन तथा यूरेसिल होता है। आर.एन.ए. तीन प्रकार का होता है: राइबोसोमी आर.एन.ए. (Y-RNA), दूत आर.एन.ए. (m-RNA), तथा स्थानान्तरण आर.एन.ए. (t—RNA)। ये आर.एन.ए प्रोटीन संश्लेषण में विभिन्न कार्य करते हैं।

कोशिकीय श्वसन

कोशिकीय श्वसन में, कोशिका में ऑक्सीजन का परासरण होता है। इसका उपयोग ग्लुकोस के ऑक्सीकरण में होता है, जिससे कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न होती है और वह कोशिका से परासरण विधि द्वारा बाहर निकल जाती है।

कोशिकीय श्वसन, आक्सी अथवा अनाक्सी हो सकता है। दोनों शवसनों में आरंभिक चरण में ग्लाइकोलिसिस की क्रिया एकसमान होती है। ग्लाइकोलिसिस में ग्लुकोज, पायरूविक अम्ल में बदल जाता है। इस प्रक्रिया में ए.टी.पी. के दो अणु बनते हैं।

अनाक्सी श्वसन में ऑक्सीजन अणु की आवश्यकता नहीं होती है। सबस्ट्रेट से निकले इलेक्ट्रॉन, ऑक्सीजन से जुड़ने की बजाय इलैक्ट्रॉन ग्राही से जुड़ जाते हैं। अनाक्सी श्वसन कोशिकाद्रव्य में होता है। इसके अन्तिम उत्पाद लैक्टिक ऐसिड (जंतुओं में) अथवा इथानॉल (वनस्पतियों में) होते हैं।

आक्सी श्वसन, माइटोकान्ड्रिया में होता है और इसमें ऑक्सीजन अणु की आवश्यकता होती है। यह प्रक्रम दो चरणों में होता है। ये चरण परस्पर निर्भर होते हैं। ये चरण हैं- क्रेब्स चक्र अथवा ट्राई कार्बक्सिलिक एसिड चक्र तथा इलैक्ट्रन संवहन श्रृंखला। माइटोकोन्ड्रिया में पायरूविक एसिड आक्सीकृत होकर ऐसिटिल CoA बनाता है। एसिटिल CoA ऑक्सीजन के लिए टी.सी.ए. चक्र में आ जाता है, जहां पर कार्बन डाइऑक्साइड तथा अपचार्यत एंजाइम बनते हैं। इलैक्ट्रॉन संवहन श्रृंखला में अपचयित एसीटिल CoA एंजाइम पुनः प्राप्त हो जाता है। माइटोकॉन्ड्रिया की भीतरी झिल्ली के इलैक्ट्रॉन संवहन एंजाइम इलैक्ट्रॉनों को सजे हुए क्रम में ऑक्सीजन अणु तक ले जाते हैं, जिससे पानी बनता है। इसके साथ ये एंजाइम प्रोटीन को मैट्रिक्स से भीतरी झिल्ली के बाहर की ओर भी स्थानान्तरित करते हैं, जिससे एक प्रोटीन ग्रेडिएण्ट बन जाता है। बाद में प्रोटीन भीतरी झिल्ली के कणों द्वारा मैट्रिक्स में वापस परासरित हो जाता है। इससे ऊर्जा संश्लेषित होती है, जिसका उपयोग F0F1 सम्मिश्रण की उपस्थिति में ए.टी.पी. सिंथेज द्वारा ए.टी.पी. बनाने में होता है। इस प्रक्रिया को ऑक्सीकारण फॉस्फोरिलेशन कहते हैं। ए. टी.पी. के उच्च ऊर्जा आबन्ध में स्थित ऊर्जा का उपयोग अन्य जैव प्रक्रियाओं में होता है।

ऑक्सी श्वसन में ग्लुकोज के एक अणु से ए.टी.पी. का शुद्ध लाभ 36 अणु होता है।

कोशिका झिल्लियाँ

जैव झिल्लियों में प्लाज्मा झिल्ली तथा अंगकों की झिल्ली शामिल हैं। प्लाज्मा झिल्ली, कोशिका के पदार्थों को बाह्य कोशिकीय तरल से अलग करती है। अंगक झिल्लियां अपने-अपने अंगकों में कुछ विशिष्ट अभिक्रियाओं और प्रक्रियाओं का विसंयोज करती हैं।

सैल्यूलोस

पौधों में सैल्यूलोस मुख्य रचनात्मक पॉलिसैकेराइड है। सैल्यूलोस के एक अणु में 6000 ग्लूकोज होते हैं। कपास के तंतु में सबसे अधिक (90 प्रतिशत) सैल्यूलोस होता है। लकड़ी में 25 से 50 प्रतिशत सैल्यूलोस तथा शेष हेमीसैल्यूलोस अथवा लिग्निन होता है। आदिकाल से मनुष्य आश्रय, ईंधन, औजारों आदि के लिए सैल्यूलोस युक्त पदार्थों पर ही निर्भर रहा है। कपास, लिनेन तथा पटसन के तन्तुओं का उपयोग, कपड़े तथा रस्सियां बनाने में किया जाता है। रेयान के कृत्रिम तन्तु बनाने के लिए सैल्यूलोस को क्षार में घोला जाता है। अन्य रसायनों से क्रिया करके सैल्यूलोस सैल्यूलोसएसिटेट (इसका उपयोग फैब्रिक्स, सैल्यूलोस युक्त प्लास्टिक में करते हैं), सैल्यूलोस नाइट्रेट (इसका उपयोग नोदक विस्फोट में करते हैं) तथा कार्बोक्सी मिथाइल सैल्यूलोस (इसे आइसक्रीम, प्रसाधनों तथा दवाइयों में चिकनापन लाने के लिए मिलाते हैं) बना सकते हैं। सैल्यूलोस पर जल अपघटन की क्रिया करके घुलनशील शक्कर बनाई जा सकती है। इस शक्कर पर सूक्ष्मजीव क्रिया करके इथेनॉल, बुटानोल, एसिटोन, मीथेन तथा अन्य उपयोगी रसायन बनाए जा सकते हैं।

मनुष्य के भोजन में सैल्यूलोस मोटे चारे के रूप में काम करता है। पाचन तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है। मनुष्य में ऐसे एंजाइम नहीं होते जो सैल्यूलोस पर क्रिया कर सकें। कुछ रुमिनैन्ट, जैसे गाय सैल्यूलोस को पचा सकती है क्योंकि इसमें कुछ ऐसे सूक्ष्मजीव होते हैं, जो सैल्यूलोस को तोड़कर पाचन योग्य बना देते हैं। घोंघे तथा दीमक भी सैल्यूलोस पर निर्भर हैं। उनकी भी आहार नाल में सैल्यूलोस को पचाने के लिए सूक्ष्म जीव होते हैं।

इकाई झिल्ली सिद्धान्त के अनुसार सभी जैव झिल्लियों की मूल रचना समान होती है। इसमें बाहरी दो परतें प्रोटीन की होती हैं तथा इन दोनों परतों के बीच में एक परत लिपिड की होती है।

फ्लूइड मोजैक मॉडल के अनुसार झिल्ली में अर्धतरलीय फास्फोलिपिड की दो परतें होती हैं, जिसमें प्रोटीन धंसी रहती हैं। समाकल प्रोटीन दोहरी परत में धंसी रहती है। परिधीय प्रोटीन दोहरी परत की सतह पर शिथिलबंध रूप में लगी रहती है। झिल्ली में बहुत अधिक तरलता होती है।

झिल्ली, पदार्थों के आदान-प्रदान में भाग लेती है। निष्क्रिय संवहन में विसरण तथा परासरण आते हैं। निष्क्रिय संवहन मुख्यतः झिल्ली के छिद्रों द्वारा होता है। विसरण लगातार कणों में गति होने के फलस्वरूप होता है। विलेय तथा गैस, विद्युत-रासायनिक तथा दाब ग्रेडिएन्ट द्वारा झिल्ली से विसरित होते हैं।

परासरण में विलायक, अर्द्धपारगम्य झिल्ली में से होकर कम सांद्र से अधिक सांद्र की ओर जाता है। जब कोशिका को समपरासारी घोल में रखते हैं तो कोई भी परासारी प्रवाह नहीं होता और कोशिका की आकृति तथा माप में कोई अन्तर नहीं आता। जब

म्यूकोपॉलिसैकेराइड

पौधों से निकले चिकने पदार्थ को म्यूसिलेज कहते हैं। जब आप इसबगोल के बीजों को भिगोते हैं या भिन्डी काटते हैं तब कुछ चिकना सा पदार्थ निकलता है। यह म्यूसिलेज पॉलिसैकेराइड है, जो गैलेक्टोज तथा मैनोज से बनता है। कुछ समुद्री घास से भी म्यूसिलेज जैसे-ऐगार, एल्जीनिक एसिड तथा केरीजीनिन बनते हैं। ये आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

म्यूकोपॉलिसैकेराइड जीवाणु की कोशिका भित्ती जन्तुओं के संयोजी ऊतकों तथा शरीर के तरल पदार्थ को अंतराली स्थानों पर यह स्नायु तथा कंदरा को चिकनाहट देते हैं। आखों में स्थित कांचाभ द्रव तथा साइनोविऐल तरल में भी म्यूकोपॉलिसैकेराइड होता है। हालयूरॉनिक एसिड संयोजी ऊतकों तथा कोशिका भित्ति में होता है। किरेटिन सल्फेट तथा कॉन्ड्रियोटीन एल्फेट कार्टिलेज, कार्निया तथा त्वचा में होता है। ये इनको शक्ति तथा लचीलापन देता है।

किसी जन्तु कोशिका को अल्पपरासारी घोल में रखते हैं तब पानी के अन्त:परासरण के कारण कोशिका फट जाती है और अतिपरासारी घोल में, पानी के बाह्य परासरण के कारण, जन्तु कोशिका में कुछ कुंडदन्तन और पादप कोशिका में जीवद्रव्य कुंचन हो जाता है।

सक्रिय संवहन में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। झिल्ली भी एक प्रोटीन संवाहक का कार्य करती है। यह स्बस्ट्रेट को बाँधती है और झिल्ली के पार एक निर्दिष्ट दिशा में स्थानांतरित करती है। सक्रिय संवह वैद्युत-रासायनिक थेडिएन्ट के विपरीत भी होता है। सोडियम-पोटैशियम आधारित एटीपेज एंजाइम सोडियम को बाहर निकालते हैं तथा पोटैशियम को अन्दर ले जाते हैं।

ऐक्सोसाइटोसिस में, झिल्ली बंधित पुटिक, जिसमें स्रवित पदार्थ होते हैं, प्लैज्मा झिल्ली से मिल जाती है और ये पदार्थ कोशिका से बाहर निकाल दिये जाते हैं। ऐन्डोसाइटोसिस में वृहदणु तथा कणिकीय पदार्थ कोशिका के अन्दर लिये जाते हैं। कोशिकापायन में, घुलित विलेय तथा तरल कोशिका के अन्दर जाते हैं। कोशिकाशन में ठोस पदार्थ कोशिका में जाते हैं।

कुछ झिल्ली प्रोटीन ग्राही के रूप में कार्य करती है, कुछ संवहन के रूप में तथा कुछ अन्य कोशिका को पहचानने का कार्य करती है। प्लाज्मा झिल्ली, पादाभ अथवा तरंगण बनाकर कोशिका गति में भाग लेती है।

कोशिका का रचनात्मक संगठन

छोटी-से-छोटी कोशिका की भी भीतरी रचना बहुत जटिल होती है। इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी से बहुत से कोशिकीय अवयवों का पता लग सका है। अब हमें विभिन्न संरचनाओं की रचना तथा कार्य का ज्ञान हो गया है। सभी यूकैरियोटिक कोशिकाओं के चारों ओर प्लाज्मा झिल्ली होती है। पादप कोशिका के चारों ओर इसके अतिरिक्त एक दृढ़, संरध्रित सेल्यूलोज की कोशिका भित्ति होती है। कोशिका भित्ति, कोशिका को यांत्रिक सहारा देती है और उसे परासरण के कारण अधिक फूलने नहीं देती। कुछ प्राणी कोशिकाओं की सतह पर तन्तुमयी परत होती है, जिसे कोशिका आवरण कहते हैं। यह परत कोशिकाओं को पहचानने तथा जोड़ने का कार्य करती है।

कोशिका द्रव्य एक जैली की तरह का प्रोटोप्लाज्म है। कोशिका द्रव्य में केन्द्रक शामिल नहीं होता। कोशिका द्रव्य में अंगक, घुलित कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ, प्रोटीन तथा कोशिकीय अंतर्विष्ट होते हैं। साइक्लोसिस से पादाभ बनते हैं और अंगकों में गति होती है। कोशिका द्रव्यी एंजाइम ग्लाइकोलिसिस तथा बहुत सी प्रोटीन तथा वसीय एसिड का जैव संश्लेषण करते हैं।

केन्द्रक, कोशिका का प्रमुख अंगक है। यह दोहरी झिल्ली से ढका रहता है, जिसे केन्द्रक आवरण कहते हैं और इसमें बहुत से रंध्र होते हैं। इसमें केन्द्रक द्रव्य होता है। केन्द्रक द्रव्य में एक या अधिक कन्द्रिकाएं तथा क्रोमेटिन संघनित हो जाता है और सुस्पष्ट धागों से बन जाते हैं, जिसे क्रोमोसोम कहते हैं। क्रोमोसोम पर जीन होते हैं। केन्द्रक कोशिका की सभी क्रियाओं को नियंत्रित करता है।

माइटोकॉन्ड्रिया की कोशिका को ऊर्जा घर कहते हैं। उसके चरों और दोहरी झिल्ली होती है और मैट्रिक्स भरा रहता है। भीतरी झिल्ली में बहुत से वलय बनते हैं, जिहें क्रिस्टी कहते हैं। क्रिस्टी, मैट्रिक्स के अन्दर तक चली जाती हैं। भीतरी झिल्ली तथा क्रिस्टी पर बहुत से प्रोटीन के कण होते हैं और ये इलैक्ट्रान संवहन एंजाइम तन्त्र को बनाते हैं। माइटोकॉन्ड्रिया में आक्सीश्वसन और ए.टी.पी. का संश्लेषण होता है। क्लोरोप्लास्ट वर्णक हैं, जिसमें क्लोरोफिल होता है। इसके चारों ओर दोहरी झिल्ली होती है। इसके भीतर स्ट्रोमा होता है, जिसमें बहुत सी झिल्लीयुक्त संरचनाएं होती हैं, जिन्हें थैलेकाइड कहते हैं, एक गट्ठा-सा बनाती हैं। इस गट्ठे को ग्रेना कहते हैं। क्लोरोफिल थैलेकाइड की झिल्ली में स्थित होता है, जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करता है। पौधों में पाए जाने वाले अन्य वर्णक हैं-ल्युकोप्लास्ट, एमाइलोप्लास्ट तथा क्रोमोप्लास्ट।

अन्तर्द्रव्यी जालिका में झिल्लीयुक्त सिस्ट्रनी तथा वाहिकाएं कोशिका द्रव्य में आपस में जुड़ी रहती हैं। स्थूल ER की सतह पर राइबोसोम होते हैं और वे स्रावी तथा झिल्लीयुक्त प्रोटीन का संश्लेषण करते हैं। चिकनी ER पर राइबोसोम नहीं होते और वे लिपिड तथा स्टेरॉल को संश्लेषित करते हैं।

कोशिका का सबसे पहले पता रॉबर्ट हुक ने 1665 में लगाया था। उसने कोशिका को कार्क की पतली काट में अनगढ़ सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा। ल्यूवेनहक (1674) ने सबसे पहले उन्नत सूक्ष्मदर्शी से तालाब के जल में स्वतंत्र रूप से जीवित कोशिकाओं का पता लगाया। रॉबर्ट ब्राउन ने 1831 में कोशिका में कद्रक का पता लगाया। जे.ई. पुरकिंजे ने 1839 में कोशिका में स्थित तरल जैविक पदार्थ को जीवद्रव्य का नाम दिया। दो जीव वैज्ञानिक- एम. श्लाइडेन (1838) तथा टी.स्वान (1839) ने कोशिका सिद्धांत के विषय में बताया। इस सिद्धांत के अनुसार, सभी पौधे तथा जन्तु कोशिकाओं से बने हैं और वे जीवन की मूलभूत इकाई हैं। रूडोल्फ विरको (1855) ने कोशिका सिद्धांत को और आगे बढ़ाया। उन्होंने बताया कि सभी कोशिकाएँ पूर्ववर्ती कोशिकाओं से बनती हैं। 1940 में इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की खोज के बाद कोशिका की जटिल संरचना तथा बहुत से अंगकों को समझना संभव हो सका।

गाल्जीकाय में चपटी, झिल्लीयुक्त सिस्टूनी का गट्ठा होता है। यह स्त्रावी पुटिकाओं में बन्द करने में सहायता करता है।

लाइसोसोम को कोशिका का आत्महत्या का थैला कहते हैं। ये झिल्लीयुक्त पुटिका हैं। इसके तरल में एसिड हाइड्रोलेज का संग्रह रहता है। वे अन्त:पुटिका अथवा क्षतिग्रस्त अंगकों से जुड़ जाते हैं और इन्हें जल अपघटित कर देते हैं।

परऑक्सीसोम तथा ग्लाइऑक्सीसोम सूक्ष्मकाय है। ये झिल्ली पुटिकाएं हैं, जिनमें परऑक्साइड को उत्पन्न करने तथा नष्ट करने वाले एंजाइम होते हैं। वे परऑक्साइड से होने वाली हानि से कोशिका की रक्षा करते हैं।

राइबोसोम दानेदार होते हैं, जो rRNA तथा प्रोटीन के बने होते हैं। वे कोशिकाद्रव्य, माइटोकॉन्ड्रिया तथा क्लोरोप्लास्ट में प्रोटीन संश्लेषण में भाग लेते हैं। राइबोसोम, कोशिका द्रव्य में तथा स्थूल ER की झिल्ली पर अकेले अथवा पॉलिसोम होते हैं।

सूक्ष्मतन्तु तथा सूक्ष्म नलिकाएँ कोशिका की रचना का ढाँचा तथा उसकी प्रणाली को बनाते हैं। वे सूक्ष्मोर्द्धव, सिलिया तथा फ्लैजिला की गति में सहायता करती हैं। सूक्ष्मोर्द्धव, कोशिका की मुक्त सतह पर पतले जीवद्रव्यी उर्द्धव होते हैं। ये तरल माध्यम में कोशिका गति में सहायता करते हैं। सिलिया से कोशिका की सतह पर पदार्थ भी गति करते हैं।

तारक केन्द्र एक जोड़ी बेलनाकार रचना है, जो केन्द्रक के ध्रुव पर स्थित होते है। उनकी भित्ति में सूक्ष्म नलिकात्रिक के 9 सेट होते हैं। ये प्रमुखत: जन्तु कोशिका में पाए जाते हैं। ये कोशिका विभाजन के समय तर्कु बनाते हैं और सीलिया तथा फ्लैजिला के लिए आधारीकाय बनाते हैं। रिक्तिकाएं, कोशिकाद्रव्य में होती हैं और उनमें तरल भरा रहता है। परिपक्व पादप कोशिका में केवल एक बड़ी रिक्तिका होती है, जो कोशिका द्रव्य को एक पतली परीधीय परत में फैला देती है।

स्टार्च कण, ग्लाइकोजन कण तथा वसीय बिंदु जैसे निर्जीव कोशिका द्रव्य में संचित रहते हैं। बहुत से कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ के कण भी कुछ कोशिकाओं में पाए जाते हैं।

कोशिका भित्ति

कोशिका के चारों ओर एक भित्ति होती है, जो जीवद्रव्यों (Protoplasms) का स्रावित पदार्थ (Secretory Product) है। यह कोशिका की प्रतिकूल वातावरण से रक्षा करती है तथा एक कोशिका को दूसरी कोशिका से अलग करती है। यह कोशिका को बांधे रखती है और उसे एक निश्चित आकार प्रदान करती है। पादपों में यह मुख्यत: सेलुलोस से बनती है, जबकि जन्तु कोशिकाओं में सेलुलोस का अभाव पाया जाता है।

लाइसोसोम

ये गोल आकार की एक जत वाली झिल्लियों से घिरी थैली होती हैं। इनका मुख्य कार्य बाह्य-कोशिका पदार्थों का पाचन (Digestion of extratellular material), अन्तः कोशिका पाचन (Intracelulardigestion), स्वनष्टीकरण (Autolysis) तथा कोशिका विभाजन में सहायता (Trigger of Cell division) करता है। यह जीर्ण कोशिकाओं को नष्ट भी करता है। इसमें अम्लीय अपघटय एन्जाइम पाये जाते हैं, जो कभी-कभी भोजन की कमी के कारण कोशिकाओं का विघटन करते हैं, जिसके आधार पर इसे आत्महत्या की थैली (Sucide Bags) भी कहते हैं।

केंद्रक

यह एक सघन गोल संरचना होती है, जो कोशिका के कार्यकलापों पर नियंत्रण रखता है। केंद्रक एक अर्धपारगम्य झिल्ली से घिरा होता है। इसमें 85% प्रोटीन, 10% RNA और 5% DNA होते हैं। DNA का सबसे महत्वपूर्ण कार्य आनुवंशिक लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाना है। यह कई प्रकार के राइबोन्यूक्लियक अम्लों का निर्माण करता है, जिसकी मदद से प्रोटीन-संश्लेषण होता है। यह कोशिका की सभी, जैव प्रक्रियाओं का नियंत्रण करता है। RNA एमीनो अम्लों से प्रोटीन संश्लेषण की क्रिया में DNA के आदेशानुसार भाग लेता है। 1831 में रार्बट ब्राउन ने केन्द्रक की खोज की।

DNA तथा RNA में अन्तर
Ꭰ N Ꭺ RNA
मुख्य रूप से केन्द्रक में उपस्थित क्रोमोसोम में पाया जाता है। मुख्य रूप से कोशिका द्रव्य में, इसके अतिरिक्त केन्द्रिका और केन्द्रक द्रव्य में भी पाया जाता है।
इसकी रचना में Double Helix पाया जाता है। इसकी रचना में Single Helix पाया जाता है।
इसमे डी ऑक्सीराइबोज शर्करा पायी जाती है। इसमें राइबोज शर्करा पायी जाती है।
यह आनुवांशिक पदार्थ है,इसका मुख्य कार्य आनुवांशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में ले जाना है। यह आनुवांशिक सूचना का वाहक है। मुख्य कार्य प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करना।
DNA में बेस एडिनीन, ग्वानिन, थाइमीन और साइटोसिन होते हैं। इसमें थाइमीन आधार की जगह के रूप में यूरेसिल होता है।
यह केवल एक प्रकार का होता है। यह तीन प्रकार का होता है।

सेल्टूल डोग्मा संकल्पना Central Dogma Concept

इस संकल्पना की अवधारणा 1957 में फ्रांसिस क्रिक ने दी थी जिसमें DNA से RNA व RNA से Protein बनने की क्रमागतता को बताया था।

DNA → RNA → Protein

ट्रांसक्रिप्सन Transcription

ये DNA से RNA बनने की विधि है, इसमें DNA की एक श्रृंखला पर RNA की न्यूक्लियोटाइड आकर जुड़ती है तथा नाइट्रोजनबेस थायमीन के स्थान पर यूरोसिल आ जाता है। इसकी खोज ट्यूमर वायरस से हुई थी।

रिवर्स ट्रांसक्रिप्सन

RNA से DNA बनने की विधि को रिवर्स ट्रांसक्रिप्सन कहते हैं।

ट्रांसलेशन

mRNA से प्रोटीन बनने की विधि को ट्रांसलेशन कहते हैं।

डुप्लीकेशन

DNA से RNA बनने की विधि को डुप्लीकेशन कहते हैं।

हिस्टोन प्रोटीन

ये 5 प्रकार के होते हैं- जिनमें से 4 को कोर हिस्टोन प्रोटीन कहते हैं (H2A, H2B, H3, H4) तथा H1 को क्रिप हिस्टोन प्रोटीन कहते हैं, DNA, RNA व हिस्टोन प्रोटीन मिलकर ही क्रोमोसोम बनाते हैं।

एण्डोप्लामिक जालिका

कोशिका द्रव्य में फैला यह असंख्य शाखाओं वाली झिल्लियों का एक जाल है। जाल की झिल्लियां दोहरी परत की बनी होती हैं और असंख्य नलिकाएं बनाती हैं। इनके मुख्य कार्य हैं: कोशिका के अंदर कोशिका द्रव्य और केंद्रक द्रव्य में विभिन्न पदार्थों का अन्तः कोशिकीय परिवहन (Intracellular transport), वसा संश्लेषण की क्रिया में मदद तथा कोशिका विभाजन के समय-नई केंद्रक झिल्ली (Nuclear membrane) का निर्माण करना। इसकी खोज पोर्टर ने 1945 में की थी।

माइटोकॉण्ड्रिया

कोशिका द्रव्य में अनेक सूक्ष्म, छड़ी के आकार के (Rod shaped), गोलाकार (Spherical) तथा सूत्री (Filamentous) कोशिकांग होते हैं, जिन्हें माइटोकॉण्ड्रिया कहते हैं। इन्हें कोशिका का पावर हाउस भी कहते हैं क्योंकि इन्हीं में कोशिका क्रिया के लिए ऊर्जा पैदा होती है। इनमें ऑक्सी श्वसन क्रिया का मुख्य भाग घटित होता है। इस ऑक्सीकरण की क्रिया में एडीनोसीन डाइफॉस्फेट (ADP) से एडीनोसीन ट्राइफॉस्फेट (ATP) नामक अधिक ऊर्जा वाले यौगिक का निर्माण होता है। यही ऊर्जा कोशिका के विभिन्न कार्यकलापों में काम आती है।

गॉल्गी तंत्र या डिक्टियोसोम

इसकी खोज कैमिलोगॉल्जी ने 1898 में की थी। इस तंत्र में विभिन्न आकार की चपटी तथा मुड़ी हुई थैलियों (Cisternae) का एक समूह होता है। इस तंत्र के मुख्य कार्य हैं: कोशिकीय पदार्थों का स्रवण (Secretion) तथा विभिन्न हारमोनों का उत्पादन।

कोशिका विज्ञान की महत्वपूर्ण खोज
वर्ष वैज्ञानिक खोज
1833 राबर्ट ब्राउन केन्द्रक
1838 कार्टी व डुजार्डिन जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म)
1861 शूल्ज जीवद्रव्य सिद्धान्त
1867 कोमेलियो गॉल्गी गॉल्गी बॉडी उपकरण
1869 फेडरिक मिशर केन्द्रकीय अम्ल
1888 वाल्डेयर क्रोमोसोम
1955 पैलाडे राइबोसोम
1957 डी डुवे लाइसोसोम
1850 बेन्डा माइटोकॉन्ड्रिया
1909 जोहेन्सन जीन शब्द का प्रतिपादन

लवक Plastids

ये केवल पादप कोशिकाओं में पाए जाते हैं, अधिकतर लवक में वर्णक होते हैं। लवक तीन प्रकार के होते हैं-

  1. अवर्णी लवक (Leucoplast)
  • रंगहीन एवं अनियमित आकार, इसमें पऋलिका नहीं रहते हैं।
  • ये उन भागों में मिलते हैं जहाँ प्रकाश नहीं पहुँचता, जैसे- भूमिगत जड़ व तना।
  • यदि अवणीं लवक में स्टार्च संग्रहित हो तो इसे एमाइलोप्लास्ट, यदि वसा एवं तेल संग्रहित हो तो इलाइयोप्लास्ट एवं प्रोटीन संग्रहित हो तो प्रोटीनोप्लास्ट कहते हैं।
  1. वर्णी लवक (Chromoplast)
  • रंगीन वर्णक द्रव्य: ये लवक फलों के छिलकों, फूलों के पेटल्स (पेटल्स) में पाए जाते हैं।
  • लाल नारंगी रंग के वर्णक में कैरोटिन, पीले रंग के वर्णक में जैन्थोफिल, टमाटर मे लाइकोपेन, चुकन्दर में बीटरनिन वर्णक जाए जाते हैं।
  1. हरित लवक (Chloroplast)
  • हरे पौधे इनकी सहायता से प्रकाश संश्लेषण करते हैं।
  • हरित लवक में पर्णहरित (Chlorophyll) पाया जाता है, जिसके कारण पौधे हरे दिखते हैं।
  • इसमें कैरोटिन एवं जैन्थोफिल नामक वर्णक भी पाया जाता है, जिनसे पत्तियों का रंग पीला होता है।

गॉल्गीकाय (Golgibody) : ये जब पौधों में छोटी इकाइयों में होते हैं तो जालीकाय (डिक्टियोसोम) कहलाते हैं। यह कोशिका स्रावी अंगक (Secretary Organ) है। यह मुख्यत: कोशिकाभित्ति और Cellplate का निर्माण करता है, इसमें वसा एवं प्रोटीन अधिक होते हैं, किन्तु राइबोसोम कण नहीं होते। सबसे पहली बार इसे बिल्ली की कोशिका में देखा गया। ये कोशिका भित्ति एवं लाइसोसोम का निर्माण करते हैं।

अंतःप्रद्रव्य जालिका (Endoplasmic Recticulum): ये नालिकनुमा खोखली रचनाएं होती हैं, जिसके अन्दर गाढ़ा द्रव्य भरा होता है। ये विषाणु, जीवाणु, नील हरित शैवाल तथा स्तनधारियों के लाल रक्त कण (RBC) को छोड़कर सभी अन्य कोशिकाओं में पाए जाते हैं।

इसके दो प्रकार है-

(i) खुरदरा ER- इनकी सतह पर राइबोसोम पाए जाते हैं, प्रोटीन संश्लेषण को लिए।

(ii) चिकना ER- इनकी सतह पर राइबोसोम नहीं पाए जाते हैं, लिपिड संश्लेषण के लिए। राइबोसोम कोशिका द्रव्य में अलग से भी पाए जाते हैं।

ER के मुख्य कार्य

  1. प्रोटीन संचय करना,
  2. ग्लाइकोजन उपापचय में सहायता करना,
  3. विभिन्न आनुवंशिक पदार्थों को कोशिका के अंगों तक पहुँचाना।
कैमिलो गॉल्जी

कैमिलो गॉल्जी का जन्म 7 जुलाई, 1843 को ब्रेसिका के समीप कोरटनो में हुआ था। उन्होंने पाविआ विश्वविद्यालय से मेडिसिन का अध्ययन किया। 1865 में स्नातक क बाद उन्होंने पाविआ के सेंट मेटिओ के अस्पताल में अध्ययन जारी रखा। उस समय उनकी सारी खोज तंत्रिका तंत्र से संबंधित थी। 1872 में उन्होंने एबियोटेग्रेसो के एक दीर्घकालिक रोग के अस्पताल में मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी का पदभार ग्रहण किया। उन्होंने सबसे पहले अपनी खोज इस अस्पताल के किचन में तंत्रिका तंत्र पर की। उन्होंने अकेली तंत्रिका तथा कोशिका संरचनाओं को अभिरंजित करने की क्रांतिकारी विधि प्रदान की। इस विधि को ब्लैक रिएक्शन के नाम से जाना गया। इस विधि में उन्होंने सिल्वर नाइट्रेट के तनु घोल का उपयोग किया था और विशेषत: यह कोशिकाओं की कोमल शाखाओं की प्रक्रियाओं का मार्ग पता लगाने में महत्वपूर्ण था। सारा जीवन वे इसी दिशा में कार्य करते रहे और इस विधि में सुधार करते रहे। गॉल्जी ने अपने शोध के लिए उच्चतम उपाधि तथा पुरस्कार प्राप्त किए। सन् 1906 में इन्हें सैंटियागो रैमोनी कजाल के साथ संयुक्त रूप से तंत्रिका तंत्र की संरचना कार्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

सूक्ष्मकाय Microbodies

  • इसमें एकल कोशिका झिल्ली की परत पायी जाती है। ये थैलीनुमा रचनाएँ, पादप एवं जन्तु कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में बिखरी हुई पाई जाती हैं।
  • इनमें एन्जाइम भरा होता है। इनका निर्माण ER और गॉल्गीकाय से होता है।

माइक्रोबॉडीज दो तरह के होते हैं-

  • परऑक्सीसोम: जो प्रकाश-श्वसन (Photo-respiration) में सहायक होता है।
  • ग्लाइऑक्सीसोमः जो ग्लाइऑक्सालेट चक्र में भाग लेता है। यह मुख्यत: वसा युक्त पादप कोशिकाओं में पाया जाता है।
  1. पराक्सिसोम (Pero×isomes): अनेक कोशिकाओं (पौधों तथा जन्तु) में पाये जाते हैं। पौधों में ये प्रकाश श्वसन तथा जन्तुओं की यकृत कोशिकाओं में विषालु (Toxic) हाइड्रोजन पराक्साइड (H2O2) को कैटेलेज एन्जाइम द्वारा तोड़ने का और एकत्रित होने से रोकने का काम करते हैं। इसके अतिरिक्त जन्तु कोशिकाओं में ये वसा उपापचय में भी भाग लेते हैं।
  2. स्फेरोसोम (Sphaerosomes): सूक्ष्म गोलाकार पुटिकाएँ होती हैं। इन पुटिकाओं में वसा तथा तेल का संश्लेषण करने वाले एन्जाइम होते हैं।
  3. ग्लाइआाक्सिसोम (Glyoxysomes): न्यूरोस्पोरा यीस्ट जैसे कवकों की कोशिकाओं में पाये जाते हैं तथा वसा युक्त पौधों के बीजों में पाये जाते हैं। ये वसा अम्ल के उपापचय तथा ग्लूकोज का वसा से पुनर्उत्पादन करते हैं।
  4. सेण्ट्रोसोम अथवा तारक काय (Centrosome): ये प्रोकैरियोट, डायटम यीस्ट, शंकुवृक्ष तथा आवृत्तबीजी पौधों की कोशिकाओं
प्राणी कोशिका तथा पादप कोशिका में अन्तर  
प्राणी कोशिका पादप कोशिका
कोशिका भित्ति अनुपस्थित। कोशिका भित्ति उपस्थित।
केवल प्लाज्मा झिल्ली से घिरी रहती है। प्लाज्मा झिल्ली के अतिरिक्त, एक मोटी भित्ति से घिरी होती है।
क्लोरोप्लास्ट नहीं होते हैं। क्लोरोप्लास्ट बहुत सामान्य।
प्रमुख व बहुत जटिल गॉल्गीकॉय केन्द्रक है। गॉल्गी उपकरण कई छोटी इकाइयों से निर्मित होती है। इसे डिक्टयोसोम भी कहते हैं।
सेन्ट्रोसोम एवं तारक केन्द्र (Centrioles) होते हैं। इनके स्थान पर दो छोटे साफ क्षेत्र होते हैं, जिन्हे ध्रुवीय टोपी कहते हैं।
यह आकार में छोटी व अनियमित होती है। यह आकार में बड़ी व निश्चित होती है।

संयुग्मी प्रोटीन का वर्गीकरण
संयुग्मी प्रोटीन का वर्गीकरण उनके प्रास्थेटिक समूह के अनुसार किया जाता है। इनके कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं:

न्यूक्लिओप्रोटीन: राइबोसोम तथा क्रोमोसाम का न्यूक्लिक एसिड प्रोटीन सम्मिश्रण।

मेटलोप्रोटीन: मेटल-प्रोटीन सम्मिश्रण (लौहा प्रोटीन सम्मिश्रण जैसे फेरीटीन)।

क्रोमोप्रोटीन: वर्णक प्रोटीन सम्मिश्रण (हीमोग्लोबिन तथा साइटोक्रोम)।

फास्फोप्रोटीन: फास्फेट प्रोटीन सम्मिश्रण (दूध का केसीन)।

लिपोप्रोटीन: लिपिड प्रोटीन सम्मिश्रण जो झिल्ली में होता है।

ग्लाइकोप्रोटीन तथा म्यूकोप्रोटीन: कार्बोहाइड्रेड-प्रोटीन सम्मिश्रण जैसे म्यूसीन तथा प्लामा झिल्ली की कुछ प्रोटीन।

के अतिरिक्त सभी पौधों तथा प्रोटोजोआ में पाये जाते हैं तथा कोशिका विभाजन के समय तकुं तन्तु (Spindle fibre) का निर्माण करते हैं। इसे डिप्लोसीम भी कहते हैं, इसे टी.बोवरी ने 1888 में खोजा।

कोशिका जनन

कोशिका विभाजन से कोशिका की प्रतिकृतियां बनती हैं। कायिक कोशिकाएं माइटोसिस द्वारा विभाजित होती हैं। एक द्विगुणित जीव में मिओसिस द्वारा युग्मक बनते हैं। प्रत्येक अन्तरावस्था केन्द्रक में माइटोसिस से पहले ‘एस’ चरण में डी.एन.ए. की प्रतिकृतियां बनती हैं। एस चरण से पहले का तथा बाद में जी2 चरण आते हैं। इन दोनों चरणों में आर.एन.ए. तथा प्रोटीन का संश्लेषण होता हैं। जी2 के बाद माइटोटिक अवस्था आती हैं। माइटोसिस के दौरान केन्द्रकीय आवरण लुप्त हो जाता है और माइटोटिक तर्कुक बनता है। प्रत्येक क्रोमोसोम के दोनों क्रोमैटिड सैंट्रोमियर से जुड़े रहते हैं। क्रोमोसोम तर्कु की भूमध्य रेखा पर सज जाते हैं। उसके बाद दोनों क्रौमैटिड एक दूसरे से अलग हो जाते हैं और तर्कु के विपरीत ध्रुवों पर चले जाते हैं और पुत्री क्रोमोसोम बन जाते हैं। प्रत्येक ध्रुव पर पुन: केन्द्रक बन जाता है। जन्तु कोशिका प्लेट के बढ़ने से होता है। माइटोसिस का महत्व यह है कि इसके द्वारा एक कोशिकीय जीव अपनी संख्या बढ़ाते हैं तथा बहुकोशिकीय जीव समान आनुवंशिका वाली कोशिकाओं की संख्या बढ़ाते हैं जो उसकी कायिक रचना करते हैं। यह टूटी-फूटी (विकृत) कोशिकाओं को भी बदलने में सहायता करती है।

जनन कोशिकाएं मिओसिस द्वारा युग्मक बनाती हैं। अतरावस्था में डी.एन.ए. की मात्रा दोगुनी हो जाती है। मिआसिस-1 अथवा न्यूनीकरण विभाजन के दौरान समाज क्रोमोसोम युग्ल बन्दी करते हैं जिसे युग्ली कहते हैं। समजात क्रोमोसोमों के साथी क्रोमैटिडों में आपस में काइएज्मा बनने तथा विनियम द्वारा आनुवंशिक पदार्थो का आदान-प्रदान होता है। इसके बाद दोनों क्रोमोसोम अलग हो जाते हैं और तर्कु के विपरीत ध्रुवों पर चले जाते हैं। इन प्रकार एक द्विगुणित कोशिका से दो अगुणित कोशिकाएं बन जाती हैं। इसके बाद एक अल्पकालीन अन्तरालावस्था आती है जिममें डी.एन.ए. की प्रतिकृति नहीं बनती। मिओसिस, माइटोसिस के समान होता है और इसे समसूत्री विभाजन कहते हैं। निषेचन के समय अगुणित युग्मों के संगलन से पुन: द्विगुणित अवस्था आ जाती है। मिओसिस की सार्थकता यह है कि इसमें आनुवंशिक विभिन्नता आ जाती है। यह पीढ़ी क्रोमोसोम की संख्या निश्चित करती है।

कैंसर – एक पहेली

कोशिका विभाजन को नियमित करने वाले कारकों का ठीक ढंग से पता नहीं है। ऐसा समझा जाता है कि शरीर किसी प्रकार कोशिका गुणन को नियमित करता है। कुछ ऊतकों तथा अंगों (अस्थि मज्जा, फेफड़ों, छाती आदि) में अनियंत्रित कोशिका विभाजन होने से कैंसर हो जाता है। कुछ प्रकार के विकिरण, धूम्रपान से बने रसायन, वाहनों द्वारा उत्पादित विषैले पदार्थ एवं रासायनिक उद्योग कैंसर के कारक समझे जाते हैं। मनुष्य के आहार भी कारक समझे जाते हैं। मनुष्य के आहार के अवयव, कुछ विषाणु तथा पूर्व संचित आनुवांशिक पदार्थ भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं। अब ऐसे स्पष्ट प्रमाण हैं कि विशेष जीन आनकोजीन कैंसर के लिए उत्तरदायी होता है। कैंसर को प्रारम्भिक अवस्था में ही रोकने के लिए रेडियोथिरैपी, कीमोथिरैपी तथा शल्य चिकित्सा का सहारा लिया जाता है। हालांकि कैंसर का कोई भी उपचार अभी तक विकसित नहीं हुआ है। सम्भवत: जीव वैज्ञानिकों तथा वैज्ञानिकों का ध्यान किसी भी मानव रोगों पर इतना नहीं गया जितना कि कॅसर पर कैंसर को समझना तथा उसका विचार करना, विज्ञान के इतिहास में एक सबसे कठिन क्षेत्र होने का उदाहरण है। आधुनिक वैज्ञानिक विधियों तथा यन्त्रों के उपयोग के बावजूद भी कैंसर एक चुनौती है।

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