चिकित्सा सम्बन्धी आधुनिक तकनीक Modern Medical Techniques

चिकित्सा विषयक क्रांतिकारी प्रगति के सामने ज्वरमापी थर्मामीटरतथा शरीर के अन्दर की सामान्य आवाजें सुनाने वाला स्टेथोस्कोप अब आदिम उपकरण प्रतीत होने लगा है, तथापि इसमें कोई शंका नहीं है कि ये आदिम उपकरण अभी भी जनस्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बने हुए हैं। आधुनिक चिकित्सा तकनीकों में कुछ निदानमूलक हैं और कुछ उपचारमूलक। निदानमूलक प्रतीकों को प्राप्त करने के लिए प्रमुख तकनीकों का परिचयन निम्नलिखित है-

एक्स-किरण रेडियोग्राफी X-Ray Radiography

एक्स-किरणें शरीर के हड्डी जैसे सघन हिस्सों की विस्तृत छाया लेने में प्रमुख निदानसूचक उपकरण हैं। कुछ किरणें रोगी के शरीर के हिस्सों से गुजरती हुई फिल्म पर गिरती हैं, जो एक्स-किरण संवेदी इमल्शन को अंतर्विष्ट किये रहती हैं। इससे एक छाया प्राप्त होती है जिसे रेडियोग्राफी कहते हैं, यह शरीर के सघन हिस्सों का प्रतिबिंब है।

एंजियोग्राफी Angiography

एंजिओन का अर्थ है वाहिका और ग्राफी ग्रागेइन का अर्थ है रिकार्ड। इस तरह एंजियोग्राफी से तात्पर्य है वाहिकाओं का रिकार्ड। डिजिटल सब्स्ट्रैक्शन एंजियोग्राफी (डी.एस.ए.) एक छाया प्राप्त करने की तकनीक है जिससे वाहिका में बहते रक्त का साफ चित्र खींचा जा सकता है। प्रवाह में यदि कोई अवरोध है तो उसका चित्र भी प्राप्त होता है।

कम्प्यूटेड टोमोग्राफी (सी.टी.) Computed tomography (CT)

कम्प्यूटेड एक्सीयल टोमोग्राफी (सीएटी) सामान्य रेडियोग्राफी से प्राप्त चित्र दुर्बोध होते हैं क्योंकि उनमें कई आंतरिक संरचनाएं एक-दूसरे पर अध्यारोपित रहती हैं। 1972 में विकसित, संवेदनशील तकनीक सी.टी. या कैट से आंतरिक संरचनाओं के अलग-अलग चित्र लेना सम्भव हो गया। इसके खोज के लिए भौतिकविद् गोडफ्रे हॉन्सफील्ड को 1978 में नोबेल पुरस्कार दिया गया। इस तकनीक को सैद्धान्तिक आधार भारतीय जैव भौतिकवेत्ता, श्री गोपालसंमुडम एन. रामाचन्द्रन ने दिया। एक्स-किरणों के घूमते पुंज, कम्प्यूटरीय विश्लेषण तथा विशेषज्ञ की मदद से आंतरिक अंगों का त्रिविमीय चित्र तैयार कर लिया जाता है।


मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेजिंग (एम.आर.आई.) Magnetic resonance imaging (MRI)

यह उत्कृष्ट चित्र देता है तथा इसमें मरीज को हानिकारी आयनीकृत विकिरण झेलना भी नहीं पड़ता है। यह तकनीक नाभिकीय मैग्नेटिक रिजोनेंस (एन.एम.आर.) की परिघटना पर आधारित है। यह तकनीक जल की कमी वाले भागों, जैसे दांत, हड्डी आदि की उपेक्षा कर उनसे घिरे जलबहुल ऊतकों में बहुदृढ़न वाले छोटे आघातों को परखने, जोड़ों के आघातों, मेरु की जांच, लघुतर कॅसरीय अर्बुदों को देखने आदि क्रियाओं में समर्थ है।

पोजिट्रॉन एमीशन टोभोग्राफी (पी.ई.टी.) Positron emission tomography (PET)

रोगी की रक्तधारा में रेडियो सक्रिय ग्लूकोज की एक बूंद डाली जाती है जो शरीर क्रिया द्वारा पूरे शरीर में फैल जाती है। जैसे ही रेडियोसक्रिय अणु समाप्त होता है, यह पोजिट्रॉन नामक अपरमाण्विक कण का विसर्जन करता है। तरंत ही यह निसर्जित कण किसी विलोम कण, इलेक्ट्रॉन से टकराता है और परिणामत: विद्युत चुंबकीय ऊर्जा विकिरण या स्फोट होता है। यह विकिरण साथ-साथ दूसरी दिशा में भी होता है। यह दोहरा निसर्जन ही पी.ई.टी. स्कैन की कुंजी है। मिर्गी, स्किजोफ्रेनिया, पकिसन रोग तथा नशीली दवाईयों से होने वाली बीमारियों के निदान में यह तकनीक उपयोगी है।

सोनोग्राफी Sonography

यह तकनीक पराध्वनि तथा इसके इको की जाँच पर आधारित है। पराध्वनि समांगी ऊतकों से निर्बध गुजरती हैं, लेकिन अन्य ऊतकों या अंगों से उनका आंशिक परावर्तन होता है। परावर्तन का गुणांक दो ऊतकों या अंगों के घनत्वों में अंतर पर निर्भर करता है। सोनोग्राफी एक्स-विकिरण से सुरक्षित, आरामदायक तथा सस्ता है। भ्रौणिक विकास एवं प्रसव विषयक कठिनाइयों के संबंध में यह प्रचलित तकनीक है। डॉप्लर प्रभाव ने यह तकनीक हृदय के धड़कन से रक्त प्रवाह का चित्र भी खींच सकती है।

चिकित्सा जगत में कुछ नवीनतम उपलब्धियां

टेलीचिकित्सा Tele Medicine

टेलीचिकित्सा नेटवर्क भारत के लिए पूर्णत: नई अवधारणा है। वस्तुत: टेलीचिकित्सा, चिकित्सकीय विशेषज्ञों का एक केन्द्र है, जिसे टेलीचिकित्सा केन्द्र कहते हैं। इसे विश्व के किसी भी स्थान पर स्थापित किया जा सकता है। कंप्यूटर नेटवर्क से जुड़े इन टेलीचिकित्सा केन्द्रों की सहायता से किसी भी बीमारी के जांच एवं इलाज के लिए चिकित्सा विशेषज्ञों की परामर्श सुविधा विश्व के किसी भी स्थान पर उपलब्ध कराई जा सकती है। सामान्यत: टेलीचिकित्सा सुविधा का लाभ उठाने के लिए एक हाई रिजोल्यूशन एक मॉनीटर और एक मॉडेम की आवश्यकता होती है। इन्हें उपयोग में लाने के लिए हाई रिजोल्यूशन विडियो कैमरे को माइक्रोस्कोप से जोड़कर निजी कंप्यूटर से जोड़ दिया जाता है। सामान्य आई एस डी टेलीफोन लाइन द्वारा मॉडेम के सहयोग से दूसरे स्थान पर डिजिटलाइज्ड संदेश भेजा जाता है। संदेश भेजे जाने से पूर्व आंकड़ों और तस्वीरों की जांच कप्यूटर स्क्रीन तथा हाई रिजोल्यूशन मॉनीटर पर की जाती है।

वैज्ञानिकों ने टेलीचिकित्सा तकनीक को लैपरोस्कोपिक सर्जरी वाले ऑपरेशन थियेटर तक पहुंचा दिया है। इसके लिए एक कैमरा शल्य चिकित्सा कक्ष तथा एक कैमरा लैपरोस्कोप से जोड़ दिया जाता है। इसके अतिरिक्त शल्य चिकित्सक तथा शल्य चिकित्सा परामर्श देने वाले विशेषज्ञ, दोनों अपने हैंडसेट उपकरण के माध्यम से बातचीत करते हैं। परामर्श विशेषज्ञ अपने कंप्यूटर या एक विशेष बटन का प्रयोग करके वीडियो इमेज में किसी विशेष चीज को हाइलाइट करने के लिए चिन्हित कर सकता है। इन तस्वीरों को शल्य चिकित्सा कक्ष में भेजा जाता है, जहां शल्य चिकित्सक इनको देखकर उपयोग में लाता है।

टेलीचिकित्सा नेटवर्क की मदद से सामान्य एक्स-रे एवं इलेक्ट्रोइन्सेफालोग्राम्स से लेकर एडवांस एनज्योग्राम्स, मैग्नेटिक रिजोनेंस इमेज और हिस्टोपैथोलॉजी स्लाइड्स, के आंकड़ों का ट्रांसमिशन संभव है। भारत में दिल्ली एवं चेन्नई में टेलीचिकित्सा सेंटरों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है। भारत में उपलब्ध टेलीचिकित्सा नेटवक की मदद से मात्र 5-6 घंटे के अंदर विश्व क किसी भी चिकित्सा विशेषज्ञ से रोगी का चेकअप कराया जा सकता है और परामर्श लिया जा सकता है। भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों में (जहां चिकित्सा सुविधाओं का अभाव है) टेलीचिकित्सा की मदद से उन्नत चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जा सकती है। चिकित्सा शिक्षा के लिए भी यह एक बहुत उपयोगी सेवा है। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने 25 जनवरी, 2000 को देश की पहली टेलीचिकित्सा परियोजना को मंजूरी दे दी है। इसके तहत सर्वप्रथम केरल के तिरूअनंतपुरम में 60 लाख रूपए की लागत से कैंसरनेट नामक परियोजना शुरू की गई है।

भारत में टेली मेडिसीन सेवा की स्थापना

इसरो की सहायता से दूर-दराज के क्षेत्रों में टेलीमेडिसीन की सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास काफी पहले से किया जा रहा था। प्रायोगिक प्रक्रिया पूरी करने के बाद इसे देश के अनेक भागों में शुरू किया जाना है। इसरो ने संचार के माध्यम से चिकित्सा सुविधाएं, लेह, जम्मू-श्रीनगर, कटुआ और गोवाहाटी मेडिकल कॉलेज में स्थापित की है, जहां अगस्त, 2003 से चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा कसलटेंसी प्रदान की जा रही है।

स्वदेशी पेसमेकर ‘लय’

जैव चिकत्सकीय अभियांत्रिकी सोसायटी (बंगलौर) के वैज्ञानिकों ने शरीर के बाहर लगाया जाने वाला स्वदेशी पेसमेकर निर्मित किया है। वैज्ञानिकों ने इस स्वदेशी पेसमेकर का नाम ‘लय’ रखा है। हृदय रक्तावरोध से पीड़ित रोगियों को अपने हृदय-स्पंदन को नियमित रखने में ‘लय’ से मदद मिल सकेगी।

‘लय’ एक कामचलाऊ अल्पकालिक उपकरण है, जो हृदय रक्तावरोध से पीड़ित रोगियों को 24 घंटे के भीतर राहत पहुंचाने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। इस उपकरण की लंबाई 165 मि.मी. है तथा यह आयातित पेसमेकर की अपेक्षा 60% सस्ता भी होगा। ‘लय’ का चिकित्सकीय परीक्षण बंगलौर के मणिपाल हार्ट फाउंडेशन व जयदेव हार्ट इंस्टीट्यूट तथा हैदराबाद के केयर हास्पिटल में किया जा चुका है। हैदराबाद की एक कंपनी ने इस उपकरण का निर्माण भी शुरू कर दिया है।

हाइपरथर्मिया तकनीक

राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला (NPL) के वैज्ञानिक, वेद राम सिंह द्वारा उच्च आवृति की ध्वनि तरंगों के माध्यम से कैंसर संक्रमित तंतुओं को नष्ट करने की नई तकनीक का विकास किया गया है। इस नई स्वदेशी कप्यूटर नियंत्रित अल्ट्रासाउंड तकनीक का नाम ‘हाइपरथर्मिया तकनीक’ रखा गया है। इस तकनीक में कैंसर ग्रस्त तंतुओं को खोजने और नष्ट करने के लिए संकेन्द्रित अल्ट्रासाउंड तरंगों का प्रयोग किया जाता है। सामान्य कोशिकाओं की तुलना में कैंसरग्रस्त कोशिकाएं अल्ट्रासाउंड ऊर्जा को तीव्रता से सीखती हैं, जिसके कारण हाइपरथर्मिया तकनीक सफल रहती है। इस तकनीक से ब्रेनट्यूमर का तापमान मापने में भी वैज्ञानिकों को सफलता मिली है।

स्वास्थ्य उपचार के नवीन साधन

प्रत्यारोपण (ट्रांसप्लांटेशन)

इसके द्वारा क्षतिग्रस्त या रोग ग्रस्त ऊतकों या अंगों, जैसे कि त्वचा, कोर्निया, हृदय, फेफड़ा, वृक्क, यकृत, रक्तमज्जा, रक्त तथा अग्नाशयों का प्रत्यारोपण किया जाता है। प्रत्यारोपण की सफलता ग्राही तथा दाता के मानव लसिनाभ प्रतिजन (एचएलए) यौगिक लोकी पर निर्भर करती है। व्यक्ति के अपने ही ऊतकों का प्रत्यारोपण सर्वाधिक सफल होता है। समरोपण प्रत्यारोपण में दाता तथा ग्राही, दोनों आनुवंशिकतया समजात होते हैं, जैसे कि अभिन्न यमज के मध्य प्रत्यारोपण। एलोग्राफ्ट अथवा विषमरोपण में दाता तथा ग्राही समान जैवजाति के होते हैं लेकिन, उनके जीन-विकल्पी (एचएलए) विभिन्न होते हैं। प्रत्यारोपण की सफलता बहुत हद तक इम्यूनोसप्रेसिव औषधि जैसे साइक्लोस्पोरीन ए के उपयोग पर भी निर्भर करती है। विभिन्न जातियों के मध्य भी प्रत्यारोपण संभव बनाया जा चुका है।

हीमोअपोहन (हीमोडाइलिसिस)

वृक्क की अक्षमता की स्थिति में रक्त का कृत्रिम परिशोधन अथवा हीमोअपोहन अनिवार्य बन जाता है। अपोहन का अर्थ है वरण करने वाली पारगम्य झिल्ली के माध्यम से बड़े और छोटे कणों को विलग करना। हीमोअपोहन के लिए कृत्रिम वृक्क यंत्र सर्वाधिक उपयुक्त उपकरण है। एक नली द्वारा इस यंत्र को मरीज की रेडियल धमनी से जोड़ दिया जाता है। अशुद्ध रक्त को यंत्र द्वारा शोधित कर पुन: शरीर को भेज दिया जाता है।

प्रोस्थेसिस

इसका तात्पर्य है-शरीर के अंगों के लिए एक कृत्रिम प्रतिस्थापी का प्रत्यारोपण। इंट्रा आकुलर लेंस का अंतरोपण, कान के अंदर सुनने वाली मशीन डालना आदि आतरिक प्रोस्थेसिस के उदाहरण हैं। जयपुर, पैर का रोपण बाहरी प्रोस्थेसिस का लोकप्रिय उदाहरण है। प्रोस्थेटिक्स, प्रोस्थेसिस विषयक शल्य चिकित्सा का विज्ञान है। जयपुर पैर के निर्माता, डा. पी.के. सेठी इस विधा के प्रख्यात विद्वान थे। कृत्रिम हृदय एवं कृत्रिम रक्त का निर्माण भी कर लिया गया है।

हृदय-फेफड़ा यंत्र

शल्य चिकित्सा हेतु हृदय को खोलने की स्थिति में संचरण तथा श्वसन क्रिया की देखभाल हृदय-फेफड़ा यंत्र द्वारा की जा सकती है। हृदय की क्रियाओं का निष्पादन एक बेलन पंप द्वारा होता है जबकि रक्त का ऑक्सीजनेशन एक ऑक्सीजनेटर, अर्थात् कृत्रिम फेफड़े द्वारा किया जाता है। इस यंत्र की मदद से रक्त हृदय से गुजरे बिना ही शरीर में संचारित होता रहता है।

प्रोस्थेटिक हृदय गति-प्रेरक (प्रोस्थेटिक कार्डियक पेस मेकर)

इस युक्ति के द्वारा शरीर के अंदर एक लघु इलेक्ट्रॉनिक परिपाथिकी डालकर प्राकृतिक वैद्युत स्पंदन को प्रतिस्थापित किया जाता है। यह हृदय में बारम्बार वैद्युत आवेग का संचार कर हृदय की गति को उपयुक्त स्तर पर बनाए रखती है। इसमें लिथियम कपोजिट बैटरी होती है जो 10 वर्ष तक शक्ति प्रदान करती है। अगर हृदय सामान्य रूप से कार्य करने लगे तो यांत्रिक गति-प्रेरक अवरुद्ध हो जाता है।

डीफाइब्रीलेटर

रेशकीयन, हृदय मांसपेशियों की असामान्य तथा तुल्य संकुचन है जिससे हृदय पंपिंग का प्रभाव घटती है या पूर्णत: समाप्त हो जाती है। परिकोष्ठीय रेशकीयन मायोहृदयी इनफार्कशन में तथा तीव्र व दीर्घकालीन रुमेटिक हृदय रोग में हो सकता है। एक तीव्र वैद्युत धारा का एक अल्प समय के लिए वक्ष से होकर गुजरना निलय रेशकीयन को रोक सकता है। इसे निरेशकीयन अथवा डीफाइब्रिलेशन कहते हैं। इस प्रक्रिया में वैद्युत झटका बड़े पैदल युक्त इलेक्ट्रॉड के द्वारा वक्ष की त्वचा को दबाव डालकर निष्पादित होता है।

अंतः महाधमनी बैलून पंप (एंजियोप्लास्टी)

इसका उपयोग हृदय वाहिनियों को साफ करने के लिए घंटों या दिनों तक किया जाता है, जब तक कि मरीज का अपना हृदय निज कार्य करने में सक्षम नहीं हो जाता है। एक पॉलीयूरीथेन बैलून कैथेटर पर स्थित अंतरायिक स्फीत को अवरोही वक्षीय महाधमनी के अंदर प्रवेश कराया जाता है। यह एक नली के माध्यम से एक बाह्यस्थित पंप से जुड़ा रहता है, जो कि बैलून को तालबद्ध तरीके से स्फीत तथा अपस्फीत करता है। निलय अनुशिथिलन के प्रारम्भ में स्फीतिकरण रक्त दबाव तथा हृदय पेरफ्यूजन को संवर्धित करता है। इसके बाद अपस्फीतिकरण, ठीक अगले निलय प्रकुंचन के पहले, से बाएं निलय के लिए यह आसान हो जाता है कि रक्त को बाहर निकाले। एंजियोप्लास्टी उपचार का प्राथमिक लक्ष्य है- माइकोकार्डियल ऑक्सीजन मांग को घटाना।

संवहनीय कलम (वैस्कुलर ग्राफ्ट)/कृत्रिम धमनी

किरीटीय धनास्त्रता (हृदय प्रहार), स्ट्रोक तथा कैंसर, मृत्यु को सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारकों में से हैं किरीटीय धनास्रता के उपचार में क्षतिग्रस्त धमनियों का पुनर्निर्माण किया जाता है। टेफ्लॉन या बुने हुए डैक्रॉन से बनी छिद्रयुक्त नली के द्वारा रोगग्रस्त धमनी को प्रतिस्थापित किया जाता है। स्टेनलेस इस्पात से बनी स्प्रिंगनुमा छल्ला – स्टैंट को प्लास्टिक तलों की मदद से धमनी में स्थापित कर दिया जाता है। इससे हृदय की मांसपेशियों में आवश्यकतानुसार रक्त संचरण होता रहता है।

किरीटीय धमनी बाइपास ग्राफ्टिंग (सीएबीजी) /Coronary Artery Bypass Surgery

यह हृदय में रक्त पूर्ति बढ़ाने का एक तरीका है। इस शल्य पद्धति में, शरीर के दूसरे भाग की एक रक्तवाहिका का उपयोग किरीटीय धमनी के बंद हुए क्षेत्रों को बाइपास करने के लिए किया जाता है। सामान्यतया दो वाहिकाएं उपयोग में लायी जाती हैं: सेफेनस वीन, जो पैर में रहती हैं, और आंतरिक मैमरी (स्तनिक) धमनी जो वक्ष से ली जाती है। स्टैनलेस स्टील से बने स्प्रिंग छल्ले जैसा स्टैंट भी एक कैथेटर के द्वारा स्थायी रूप से धमनी में लगा दिया जाता है। इसके द्वारा धमनी से हृदय मांसपेशियों को समुचित रक्त संचरण जारी रहता है।

क्रॉयो शल्य चिकित्सा (क्रायोसर्जरी)

इस पद्धति में ऊतकों को नष्ट करने के लिए हिमाकारी ताप का प्रयोग किया जाता है। तरल नाइट्रोजन (क्वथनांक – 196° से.) को ऊतकों (यथा मस्सा), पर सीधा फैलाकर अथवा ऊतकों में प्रवेश करा (यथा कैंसरीय ट्यूमर) उन्हें नष्ट किया जाता है।

प्रतिरक्षी उपचार (इम्यूनोथेरेपी)

उपचार की इस पद्धति में प्रतिरक्षण प्रतिवेदन की अवरुद्धता या संवर्धन के द्वारा अपेक्षित चिकित्सकीय प्रभाव प्राप्त किये जाते हैं। विभिन्न कारकों की मदद से प्रतिरक्षी प्रतिवेदन की जोड़-तोड़ की जाती है। साइटोकाइन एक प्राकृतिक असंक्राम्य माड्यूलेटर है, जो कि एक प्रकार की प्रतिरक्षक कोशिकाओं का उत्सर्जन होता है, जो इस प्रकार की प्रतिरक्षण कोशिकाओं के एलीसीट प्रतिवेदन को दर्शाता है। दूसरे प्रकार की इन कोशिकाओं में निम्नलिखित शामिल हैं: इंटरल्यूकिंस, इंटरफेरॉन तथा ट्यूमर ऊतकक्षय कारक। (Tumour Necrosis Factor)

  1. इम्यूनो पोटेशिएशन उपचार: प्रतिरक्षण प्रतिवेदन को संवर्धित करने के लिए।
  2. इम्यूनो सप्रेसीव उपचार: प्रतिरक्षण तंत्र की आत्मघाती सक्रियता जैसे ऑटो इम्यून रोग को दबाने के लिए।

हार्मोन उपचार (हार्मोन थैरेपी)

प्रतिरक्षण तंत्र की आत्मघाती सक्रियता जैसे ऑटो इम्यून रोग को दबाने के लिए प्रयोग किया जाता है। उदाहरण – रजोनिवृत्ति जैसी जटिलताओं के लिए इस्ट्रॉजेन प्रतिस्थापन सर्वाधिक निर्धारित चिकित्सा है।

जीन उपचार (जीन थैरेपी)

इसमें एक सामान्य सक्रिय जीन को ऐसी कोशिकाओं में प्रविष्ट कराया जाता है जिसमें उक्त जीन के दोषपूर्ण एलील होते हैं, ताकि अव्यवस्था को खत्म किया जा सके। पहले वांछनीय जीन को विशिष्टतया निर्मित वाहक विषाणु में प्रविष्ट कराया जाता है, तत्पश्चात इस वाहक को कायिक कोशिकाओं में प्रविष्ट कराया जाता है। वैकल्पिक तौर पर उक्त जीन को प्रोटीन – डीएनए यौगिक अथवा केवल डीएनए के रूप में भी कायिक कोशिकाओं में प्रविष्ट कराया जाता है। सामान्य जीन द्वारा दोषपूर्ण जीन को प्रतिस्थापित कर पाना ही जीन थैरेपी का मर्म है। यह उपचार समग्रतया प्रायोगिक तौर पर है। तथापि, यह स्किड जैसे रोगों को ठीक करने में सफल भी रहा है। कैंसर, हृदयाघात आदि रोगों के उपचार में जीन थेरेपी की संभाव्यताओं को निखारा जा रहा है। इसका इस्तेमाल सिर्फ ऐसे रोगों के उपचार में किया जा सकता है जहां रोगमूलक जीन की सटीक पहचान तथा क्लोनिंग की जा चुकी है।

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