राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग National Human Rights Commission

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना सरकार द्वारा अक्टूबर 1993 में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के अधीन की गई थी। आयोग में कुल आठ सदस्य होते हैं- एक अध्यक्ष, एक वर्तमान अथवा पूर्व सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश, एक वर्तमान अथवा भूतपूर्व उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मानवाधिकार के क्षेत्र में जानकारी रखने वाले कोई दो सदस्य तथा राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचितजाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग एवं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष। इसके अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है।

राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित एक समिति की संस्तुति पर किया गया था। इस समिति के अन्य सदस्य थे- लोक सभा अध्यक्ष, गृह मंत्री, सदन में विपक्ष के नेता तथा राज्य सभा के उप-सभापति। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है।

लोक संहिता प्रक्रिया, 1908 (code of civil procedure, 1908) के अधीन आयोग को सिविल न्यायालय की समस्त शक्तियां प्राप्त हैं। आयोग अपने समक्ष प्रस्तुत किसी पीड़ित अथवा उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दायर किसी याचिका पर स्वयं सुनवाई एवं कार्यवाही कर सकता है। इसके अतिरिक्त आयोग न्यायालय की स्वीकृति से न्यायालय के समक्ष लम्बित मानवाधिकारों के प्रति हिंसा सम्बन्धी किसी मामले में हस्तक्षेप कर सकता है। आयोग की यह शक्ति प्राप्त है कि वह सम्बन्धित अधिकारियों को पूर्वसूचित करके किसी भी कारागार का निरीक्षण कर सके अथवा परिस्थितियों के अनुसार अन्य नौकरशाहों को कारागारों के निरीक्षण सम्बन्धी अपनी शक्ति का प्रत्यायोजन (delegate) कर दे। आयोग द्वारा मानवाधिकारों से सम्बन्धित संधियों इत्यादि का अध्ययन किया जाता है तथा उन्हें और अधिक प्रभावी बनाने सम्बन्धी आवश्यक संस्तुतियां भी की जाती हैं। साधारणतः, आयोग द्वारा स्वीकृत की जाने वाली मानवाधिकारों के उल्लंघन सम्बन्धी याचिकाओं की प्रकृति इस प्रकार की होनी चाहिए-

  1. घटना शिकायत करने से एक वर्ष से अधिक समय पूर्व घटित होनी चाहिए;
  2. शिकायत अर्द्ध-न्यायिक प्रकार की होनी चाहिए;
  3. शिकायत अनिश्चित, अज्ञात अथवा छंद्म नाम से होनी चाहिए;
  4. शिकायत तुच्छ प्रकृति की नहीं होनी चाहिए;
  5. आयोग के विस्तार से बाहर की शिकायतें नहीं होनी चाहिए, तथा;
  6. उपभोक्ता सेवाओं एवं प्रशासनिक नियुक्तियों से सम्बन्धित मामले।

आयोग में शिकायत दर्ज कराना अत्यंत सरल कार्य है। शिकायत निःशुल्क दर्ज की जाती है। आयोग द्वारा फैक्स और तार (telegraphic) द्वारा प्राप्त शिकायतें भी स्वीकार की जाती हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रतिवर्ष देश में मानवाधिकारों की स्थिति से सम्बन्धित एक रिपोर्ट का प्रकाशन किया जाता है। इसके द्वारा इस रिपोर्ट को विधानसभा के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। जबकि राज्य मानवाधिकार आयोग द्वारा ऐसा प्रतिवेदन सम्बद्ध राज्य की विधान सभा के सम्मुख रखा जाता है।

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 30 के अंतर्गत, मानव अधिकारों के उल्लंघन अपराध सम्बन्धी विवादो के त्वरित निपटान हेतु मानव अधिकार न्यायालय का गठन किया जा सकता है। न्यायालय में विवादों को सुलझाने हेतु सरकार अधिसूचना के माध्यम से एक पब्लिक प्रोसिक्यूटर की नियुक्ति करेगी जिसने 7 वर्षों तक अधिवक्ता के रूप में वकालत की हो।

सशस्त्र बालों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन सम्बन्धी शिकायतों के मामलों में आयोग स्वयं अपने संज्ञान पर अथवा किसी प्राप्त याचिका के आधार पर सरकार से मामले के सम्बन्ध में रिपोर्ट मांग सकता है। रिपोर्ट की प्राप्ति के पश्चात् सरकार की सिफारिशौं के अनुरूप आयोग शिकायत पर कार्यवाही को रोक सकता है तथा संघीय सरकार द्वारा उक्त मामले के संदर्भ में की गई कार्यवाही से आयोग को तीन माह अथवा आयोग द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर अवगत कराना अनिवार्य है।

आयोग की समीक्षा


आयोग ने निःसंदेह अपने खाते में कुछ उपलब्धियां दर्ज की हैं। यह केंद्र सरकार को यातना एवं क्रूर., अमानवीय एवं निम्न दण्ड या व्यवहार के अन्य स्वरूपों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय पर हस्ताक्षर कराने हेतु मनाने में सफल हुआ। यह संरक्षा मृत्यु की समस्या को बेहतरीन तरीके से सामने लाया। इसने शैक्षिक एवं प्रशिक्षण संस्थानों में मानवाधिकारों पर विशिष्टिकृत प्रशिक्षण माड्यूल तैयार करने में भी मदद की है।

यह, हालांकि, महसूस किया जाता रहा है की आयोग अपनी पूर्ण शक्ति हासिल करने में सक्षम नहीं रहा है। वर्ष 1991 में संयुक्त राष्ट्र अधिकार संस्थान को व्यापक जनादेश; बहुलता रखनी चाहिए जिसमें प्रतिनिध्यात्मक संगठन; व्यापक पहुंच, प्रभाविकता; स्वतंत्रता; पर्याप्त संसाधन; और जांच की पर्याप्त शक्ति शामिल है।

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 2(d) मानव अधिकारों को संविधान द्वारा प्रत्याभूत, जीवन समानता एवं वैयक्तिक  गरिमा से सम्बद्ध अधिकार के तौर पर परिभाषित करता है या वे अंतरराष्ट्रीय अभिसमय या संविदा में उल्लिखित होते हैं तथा भारत में न्यायालय द्वारा लागू कराए जाते हैं। इस प्रकार, कानून एनएचआरसी से सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों पर ध्यान लगाने की बजाय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर फोकस करने की अपेक्षा करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा है की मानव अधिकार आयोग सरकार पर नागरिकों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय प्रदान कराने के लिए दबाव डालने की प्रभावी भूमिका निभा पाता।

आयोग की संरचना के संबंध में तीन आपतियां हैं। पहली, कानून ने चयन को संकीर्ण कर दिया है कि व्यक्ति को, केवल न्यायपालिका से सम्बद्ध होना चाहिए, मानवाधिकारों में किसी प्रकार की विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है। यह आयोग की परिप्रेक्ष्यों की बहुलता, विशेष रुझान एवं सभ्य समाज से विभिन्न अनुभवों को प्राप्त करने से रोकता है। दूसरे, अनुशंसा देने वाली समिति में राजनेता होते हैं। तीसरे, चयन की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। आयोग की संरचना आमतौर पर गोपनीय फाइलों में टिप्पणी करने या राजनेताओं और उनके पसंदीदा नौकरशाहों के बीच बंद दरवाजों के पीछे चल रही बैठकों के दौरान निर्णित होती है।

अधिनियम की धारा-11 के अनुसार, केंद्र सरकार आयोग को अनुसंधान, जांच, तकनीकी एवं प्रशासनिक कार्य के लिए अधिकारी एवं अन्य स्टाफ मुहैया कराएगी। कानून के इस प्रावधान से आयोग अपने कार्य की जरूरत के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर है।

आयोग में कार्य करने वाले अधिकतर अधिकारी एवं स्टाफ भारत सरकार के विभिन्न कार्यालयों से आते हैं। सरकारी कार्यालयों में काफी समय तक कार्य करने के बाद वे आयोग में आते हैं, जिससे उनकी एक निश्चित सोच, बदलावों के प्रति बेहद प्रतिरोध, कार्य की नौकरशाही पद्धति और बुरी आदतों का एक भारी-भरकम बैकलॉग होता है। उन्हें मानव अधिकार दर्शन के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है और न ही वे इसके लिए प्रतिबद्ध होते हैं।

आयोग को एक निश्चित मात्रा में शिकायतें प्राप्त होती रहती हैं। हालांकि, अध्ययन प्रकट करता है कि अधिकतर शिकायतें तीन या चार राज्यों से ही प्राप्त होती हैं। अधिकारों के प्रति जागरूकता, मात्र कुछ राज्यों तक सीमित होने से, सूचित नहीं होती। लगभग आधे मामलों को प्रथम दृष्टया खारिज कर दिया जाता है। ये मामले वे होते हैं जो आयोग के चार्टर में नहीं आते या समयबद्ध होते हैं या अर्द्ध-न्यायिक प्रकृति के होते हैं। इस तरह लोगों में आयोग के चार्टर के बारे में बेहद अज्ञानता होती है।

आयोग में प्रत्येक वर्ष लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। आयोग को इसके कार्यों में पूरी तरह स्वतंत्र समझ जाता है, यद्यपि अधिनियम ऐसा उल्लेख नहीं करता। वास्तव में, अधिनियम में ऐसे प्रावधान हैं जो आयोग की सरकार पर निर्भरता को कम करते हैं। लेकिन आयोग अपने मानव संसाधन सम्बन्धी जरूरतों के लिए सरकार पर निर्भर है। तब बेहद महत्वपूर्ण बात वित्त की है। अधिनियम की धारा-32 के तहत् केंद्र सरकार, आयोग की अनुदान के तौर पर इतना पैसा देगी, जितना वह उपयुक्त समझे। इस प्रकार, मानव शक्ति एवं धन संबंधी जरूरतों, जो अत्यधिक महत्व के हैं, के परिप्रेक्ष्य में आयोग स्वतंत्र नहीं है।

सशस्त्र बालों के कर्मियों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों की शिकायत की जांच करने का अधिकार अधिनियम द्वारा आयोग की नहीं दिया गया है। क्योंकि मानव अधिकार उल्लंघन की शिकायतों की बड़ी तादाद सशस्त्र बलों के कर्मियों के खिलाफ होती हैं, स्वाभाविक रूप से इन मामलों में लोगों की शिकायतों के एनएचआरसी द्वारा निपटान में अधिनियम इसे कमजोर बना देता है।

आयोग को अपने निर्णयों को लागू करने की शक्ति नहीं है। अधिनियम की धारा-18 के अनुसार, आयोग द्वारा हुई जांच में मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामले स्पष्ट होने पर, आयोग केवल दोषी व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही करने और पीड़ित को रहत देने की सरकार को सलाह दे सकता है। यदि कोई सरकार सलाह मानने से इंकार कर देती है तो कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो आयोग को इसकी सलाह को लागू करने के लिए सरकार को बाध्य करने को सशक्त करता हो।

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