संयुक्त राष्ट्र महासभा का 68वां वार्षिक सम्मेलन UN General Assembly’s 68th Annual Conference

संयुक्त राष्ट्र महासभा का 68वां वार्षिक सम्मेलन सितंबर 2013 में न्यूयार्क में संपन्न हुआ, जिसका एजेंडा भावी मार्ग की पहचान करना था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महासभा में अपने संबोधन में पाकिस्तान के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाते हुए उसे अपने सीमा क्षेत्र से आतंकी मशीनरी बंद करने को कहा। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर को देश का अविभाज्य हिस्सा बताते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत कभी भी अपनी सीमाई अखण्डता के साथ समझौता नहीं करेगा। भारतीय प्रधानमंत्री के इस संबोधन से एक दिन पूर्व ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने महासभा में अपने संबोधन में कश्मीर का मुद्दा उठाते हुए इस समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावों के तहत करने की मांग उठाई थी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की इस मांग को खारिज करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत सभी मुद्दों का समाधान शिमला समझौते के आधार पर करने का पक्षधर है। उन्होंने कहा की शिमला समझौते के तहत द्विपक्षीय बातचीत के जरिए सभी मुद्दों को सुलझाने के लिए भारत पूरी तरह प्रतिबद्ध है तथा इसमें जम्मू-कश्मीर का मुद्दा भी शामिल है।

भारतीय प्रधानमंत्री ने कहा कि वर्तमान राजनीतिक वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए उसके अनुरूप संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) में सुधार किया जाना चाहिए। विकासशील राष्ट्रों के विचारों को समर्थन प्रदान करने के लिए बहु-वित्तीय संस्थानों पर भी प्रधानमंत्री द्वारा जोर डाला गया। प्रधानमंत्री ने हिंसा एवं अशांति से ग्रस्त क्षेत्रों में शांति स्थापना के लिए बहु-स्तरीय प्रयास पर बल दिया और उन क्षेत्रों के विकास के लिए यूएनओ की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया, साथ ही उन्होंने वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए नए अंतरराष्ट्रीय जनमत के निर्माण पर भी बल दिया। भारतीय शिष्टमंडल ने इस बात पर बल दिया कि 2015 के पश्चात् विकास संबंधी एजेंडा में गरीबी उन्मूलन एवं समावेशी विकास बना रहना चाहिए। भारत का यह अभिमत है कि समता तथा साझी किंतु विभेदीकृत जिम्मेदारियों (सी.बी.डी.आर.) के सिद्धांत को 2015 पश्चात् एजेंडा के आकाशदीप के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। वर्ष 2004, 2005, 2008 और 2011 में महासभा को संबोधित करने के बाद प्रधानमंत्री ने पांचवीं बार संयुक्त राष्ट्र महासभा के सत्र को संबोधित किया।

भारतीय शिष्टमंडल ने जी-4 (जर्मनी, भारत, जापान और ब्राजील) की बैठक में भी हिस्सा लिया। जी-4 संयुक्त राष्ट्र में सुधार की मांग करता रहा है, विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की सदस्यता में वृद्धि करने की मांग करता रहा है, ताकि यह विश्व की वर्तमान सच्चाई को प्रतिबिंबित कर सके, न कि उस अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन को जो 1945 में मौजूद था।

भारत एवं जी-4 के अन्य सदस्यों ने पिछले एक साल में संयुक्त राष्ट्र सुधार के मुद्दे को जिंदा रखा है तथा एल-69 एवं सी-10 समूहों के साथ नियमित रूप से इस पर भागीदारी की है। एल-69 अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, एशिया प्रशांत एवं कैरेबियन के 40 देशों का समूह है जो चाहता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का विस्तार हो ताकि 6 और स्थायी सदस्यों को शामिल किया जा सके, जिसमें चार जी-4 से एवं दो अफ्रीका से हों। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के विस्तार के संबंध में सी-10 या अफ्रीकी संघ का प्रस्ताव भी इसी तर्ज पर है। तीनों समूहों में इस प्रश्न को लेकर एक दूसरे के साथ मतभेद है की किसे वीटो पॉवर सौंपी जानी चाहिए और किसे नहीं।

मोन्टेरी सहमति
मोन्टेरी सहमति, मोन्टेरी, मेक्सिको में मार्च 2002 में आयोजित विकास के वित्तीयन पर संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय कॉफ़ेस का परिणाम था। सहमति को संयुक्त राष्ट्र द्वारा लैंडमार्क फ्रेमवर्क फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट पार्टनरशिप कहा। इसके द्वारा विकसित और विकासशील देश गरीबी उन्मूलन के लिए संयुक्त कार्रवाई करने पर सहमत हुए।सहमति के मुख्य तत्व निम्न हैं-

  • यह व्यापक विकास एजेंडा के लिए एक प्रतिबद्धता है जिसमें गरीबी उन्मूलन और पर्यावरण धारणीयता के साथ-साथ आर्थिक संवृद्धि को भी ध्यान में रखा गया है।
  • इसमें विकासशील देशों के बीच अंतर रखा गया है। वे जो आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) पर निर्भर हैं और वे जिनके पास पहले ही पर्याप्त अवसंरचना एवं मानव पूंजी है। ओडीए को उन देशों के लिए विकास का बेहद जरूरी संघटक माना जाता है जिनकी निवेश आकर्षण की न्यूनतम क्षमता है।
  • व्यापार को संवृद्धि के अपरिहार्य इंजन के तौर पर माना गया है। निर्धन देशों को अपने वर्द्धित व्यापार की क्षमता बढ़ाने के लिए बेहतर बाजार पहुंच एवं वित्तीय निवेश दोनों की आवश्यकता होती है।
  • सहमति ने विश्व के खास क्षेत्रों को प्रकट किया जिन्हें विशेष ध्यान की आवश्यकता है। अफ्रीका के कई न्यून विकसित देशों, छोटे द्वीपीय विकासशील देश और स्थलरुद्ध विकासशील देशों में स्रहशताब्दी विकास लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ओडीए अपरिहार्य है।
  • यह मान्य किया गया कि यदि विकासशील देशों को संयुक्त राष्ट्र स्रहशताब्दी उद्घोषणा को प्राप्त करना है तों मदद में वृद्धि करनी होगी।

वर्ष 2009 से मोन्टेरी सहमति अंतरराष्ट्रीय विकास सहयोग हेतु एक मुख्य संदर्भ बिंदु बन गया है।

सहमति ने विकास के वित्तीयन के लिए निम्न छह क्षेत्रों को अपनाया है-


  1. विकास के लिए घरेलू वित्तीय संसाधनों को गतिशील करना।
  2. विकास हेतु अंतरराष्ट्रीय संसाधनों-विदेशी प्रत्यक्ष निवेश एवं अन्य निजी प्रवाह-को गतिशील करना।
  3. अंतरराष्ट्रीय व्यापार को विकास के इंजन के तौर पर स्वीकार करना।
  4. बाह्य ऋण
  5. विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एवं तकनीकी सहयोग बढ़ाना।
  6. व्यवस्थागत मामलों को संबोधित करना (विकास के समर्थन हेतु अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक, वित्तीय एवं व्यापार तंत्र की सुसंगतता एवं प्रगाढ़ता में वृद्धि करना)।

विकास के वित्तीयन पर दोहा उद्घोषणा: मोन्टेरी सहमति के क्रियान्वयन की समीक्षा करने के लिए नवम्बर-दिसंबर 2008 में दोहा, कतर में अनुगामी विकास हेतु वित्तीयन अंतरराष्ट्रीय कॉफ़ेस आयोजित की गयी। उद्घोषणा ने मोन्टेरी सहमति की पुनर्पुष्टि की और उच्च स्तर पर विश्व वितीय एवं आर्थिक संकट के विकात पर पड़ने वाले प्रभाव के परीक्षण हेतु एक संयुक्त राष्ट्र कॉफ्रेंस का आह्वान किया।

दस्तावेज में शामिल सर्वाधिक महत्वपूर्ण संदेश था कि विकसित देशों को वर्तमान वित्तीय संकट के बावजूद आधिकारिक विकास सहायता लक्ष्यों (ओडीए) के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखना।

संयुक्त राष्ट्र सुधार प्रस्तावों पर मुख्य प्रस्ताव एवं प्रतिक्रियाएं

  • धनी देशों को 2015 तक उनकी जीडीपी का 0.7 प्रतिशत तक विदेशी मदद के तौर पर बढ़ाना चाहिए।

संयुक्त राज्य अमेरिका एवं अधिकतर पश्चिमी देश (स्केंडिनेविया एवं बेनेलक्स के सिवाय) सहमत नहीं हुए।

  • बेहद अल्प विकसित देशों से सभी निर्यात कर मुक्त होने चाहिए।

संयुक्त राज्य अमेरिका असहमत।

  • आतंकवाद की ऐसी कार्रवाई के तौर पर मानना जी नागरिकों को मारती या चोटिल करती है। अधिकतर पश्चिम एशिया के देशों ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें इस बात का भय लगा कि इजरायल द्वारा अतिक्रमण के विरोध का उनका अधिकार समाप्त हो जाएगा।
  • परमाणु संयंत्रों की अंतर्राष्ट्रीय अनविक उर्जा संगठन द्वारा जांच एवं सत्यापन होना चाहिए। भारत, पाकिस्तान और इजरायल इससे सहमत नहीं हैं।
  • यूरेनियम एवं प्लूटोनियम का संवर्द्धन, यहां तक कि शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भी नियंत्रित होना चाहिए।

ईरान, ब्राजील, अल्जीरिया, जर्मनी, भारत, जापान एवं पाकिस्तान ने इसका विरोध किया।

  • संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा चलाए जा रहे पीएसआई का समर्थन किया जाना चाहिए।

चीन, उत्तरी कोरिया, मलेशिया और इंडोनेशिया ने इसका विरोध किया।

  • अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय को समर्थन दिया जाना चाहिए।

चीन, भारत और अमेरिका इससे सहमत नहीं हुए।

  • सभी देशों को नागरिक अधिकारों से सम्बद्ध अंतरराष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर पुष्टि करनी चाहिए।

भारत एवं अमेरिका के विभिन्न संधियों पर अपने मत हैं।

  • देशों की सुरक्षा पर सामूहिक जिम्मेदारी’ के नवोदित मानदंड को समर्थन देना चाहिए और हस्तक्षेप करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

अधिकतर देश साझा संप्रभुता से चिंतित रहते हैं और इसमें दोहरे मानक संलग्न होते हैं।

  • सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव को, इसके अधीन की सुरक्षा बलों का इस्तेमाल किस कार्य हेतु हो रहा, स्वीकार किया जाना चाहिए।

संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन सहमत नहीं हुए।

  • सुरक्षा परिषद् विस्तार पर दो प्रतिरूप प्रस्तावित हैं, दोनों नए सदस्यों के लिए गैर-वीटो (बिना वीटो) शक्ति वाले हैं।
  • प्रतिरूप A छह नए स्थायी सदस्य शामिल किए जाने का प्रस्ताव करता है-एक एशिया और एक अफ्रीका से, एक यूरोप से और एक अमेरिका से-और तीन अस्थायी सदस्य शामिल करने का प्रस्ताव है।

जबकि जी-4 देश (जापान, भारत, ब्राजील, जर्मनी) और दक्षिण अफ्रीका इस प्रतिरूप का पक्ष लेते हैं, इटली, पाकिस्तान, अर्जेटीना, मैक्सिको, दक्षिण कोरिया, और स्पेन के नेतृत्व वाले 40 मध्य आकार के देशों का कॉफी क्लब संगठन इस प्रतिरूप का विरोध करता है। अमेरिका और चीन भी इसके पक्ष में नहीं हैं।

  • प्रतिरूप B चार वर्षों के नवीकरणीय काल के साथ आठ आशिक रूप से स्थायी सदस्यों के और एक नए गैर-स्थायी सदस्य के शामिल किए जाने का प्रस्ताव करता है।

सभी देश जी प्रतिरूप A का समर्थन करते हैं, इसके विरोधी हैं। जी-4 इसका विरोध करता है।

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