धर्म- वैदिक काल Religion- Vedic period

ऋग्वैदिक धर्म

जब मनुष्य ने सभ्य जीवन का प्रारम्भ किया, तो उसने अपने को विशाल एवं अपरिचित प्राकृतिक शक्तियों से आवृत पाया। प्रकृति के विभिन्न रूप एवं महती शक्ति ने उसे प्रभावित किया और उनके दिव्य रूप में उन्हें देवत्व का आभास हुआ। उन्होंने यह भी माना कि प्रकृति की शक्ति को देवता ही नियन्त्रित करते हैं। अत: उन देवताओं को प्राकृतिक दृश्यों के अधिष्ठाता के रूप में माना गया एवं भौतिक जगत की उत्पत्ति के लिए ही उनकी परिकल्पना की गई।

ऋग्वैदिक धर्म की मुख्य विशेषताएँ हैं-

  1. ऋग्वैदिक धर्म की सर्वप्रमुख विशेषता है, इसका व्यावहारिक एवं उपयोगितावादी स्वरूप।
  2. वैदिक धर्म पूर्णतः प्रवृत्तिमार्गी है।
  3. ऋषि विश्व को अमंगलकारी कष्ट का स्थान नहीं मानते और शरीर छोड़ने की बात नहीं करते।
  4. वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है।
  5. यद्यपि अधिकांश देवताओं की अराधना मानव रूप में की जाती है तथापि कुछ देवताओं की अराधना पशु रूप में भी की गई है। अज एक पाद और अहिर्बुधन्य इन दोनों देवताओं की परिकल्पना पशु रूप में की गई है। मरूतों की माता की परिकल्पना चितकबरी गाय के रूप में हुई है। इन्द्र की, गाय खोजने वाले सरमा (कुतिया) स्वान रूप में है। इनके अतिरिक्त इन्द्र की कल्पना वृषभ (बैल) के रूप में एवं सूर्य का बेगवान अश्व के रूप में की गई। ऋग्वेद में पशुओं की पूजा का प्रचलन नहीं था।
  6. प्रकृति का दैवीकरण इस धर्म में मिलता है।
  7. देवताओं का मानवीकरण भी किया गया।
  8. मृत्यु के उपरांत की स्थिति के विषय में, ऋग्वेद की ऋचाओं में कुछ दृढ़ विश्वास नहीं दिखायी पड़ता।
  9. वैदिक देवताओं में किसी प्रकार के ऊंच-नीच का भेद नहीं था और वैदिक ऋषियों ने प्रसंगवश सभी देवताओं की महिमा गायी है।

सबसे प्राचीन देवता द्यौस थे। तत्पश्चात् पृथ्वी थी। दोनों द्यावा-पृथ्वी के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वैदिक काल में महत्त्वपूर्ण देवता इंद्र है जो युद्ध एवं वर्षा के देवता हैं। इन्द्र के दो रूपों का वर्णन है- प्रथमत: आर्यों के नायक या नेता रूप में तथा दूसरे प्राकृतिक शक्ति के प्रतीक के रूप में प्रथम रूप में वह महापराक्रमी नायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इस रूप में वे दासों, दानवों या दस्युओं के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इस रूप में उन्हें पुरन्दर कहा गया है। दूसरा रूप मानवी रूप से भिन्न है। वे विद्युत उत्पन्न करने वाले तथा बादलों से पृथ्वी को अभिसिंचित करने वाले हैं। इन्द्र पुलुवि के रूप में उन्होंने वृत्त (राक्षस) की हत्या की और जल (आप) को मुक्त किया। इन्द्र के लिए ऋग्वेद में 250 सूक्त अर्पित हैं। उन्होंने वृत्त का वध करके आप को मुक्त किया एवं आकाश, सूर्य एवं उषा को भी जन्म दिया। अनेक विद्वानों का मत है कि वृत्र को अनावृष्टि का असुर कहा गया है। इन्द्र उसकी हत्या करके जल को मुक्त करते हैं, इसलिए उन्हें पुरभिद भी कहा गया है। इन्द्र के लिए एक और विशेषण अत्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है। द्यौस उसके पिता हैं। अग्नि भाई है। मारूत उसका सहयोगी है। साथ ही विष्णु ने वृत्र के वध में इंद्र की सहायता की थी।

ऋग्वेद में इंद्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध वज्र है। इसलिए उसे वज्रबाहु कहा जाता है। इन्द्र एक सर्वान्तक था और मुक्तरूप से झंझारोही था। उसके चरित्र की प्रथम विशेषता अत्यादिम अवस्था में मेसापोटामिया से ग्रहण की गई लगती है।

अग्नि- ये दूसरे महत्त्वपूर्ण देवता थे। जो यज्ञ एवं गृह के देवता थे। वे पुरोहितों के भी देवता थे। वे देवता एवं मानव के बीच मध्यस्थ भी थे। उनके लिए ऋग्वेद में 200 सूक्त अर्पित किए गए हैं। वे पृथ्वी पर अग्नि, अंतरिक्ष में तड़ित और आकाश में सूर्य हैं। उनका मूल निवास स्वर्ग है किन्तु मातरिश्वन (देवता) उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं और अंगीरसों ने की। इन्हें इस कार्य के कारण अथर्वन् कहा गया है। अग्नि के बारे में माना जाता कि वह दुर्ग का भेदन भी करती थी। यह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी। इसलिए इसे प्रत्येक घर का अतिथि भी माना गया है।

वरूण- तीसरे महत्त्वपूर्ण देवता वरूण थे। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तों में की गई है। ये जल देवता हैं। इन्हें असुर भी कहा जाता था। इन्हें राजा भी माना गया है। वरूण एक पवित्र देवता थे जो केवल यज्ञ और बलि से ही संतुष्ट नहीं थे। उनकी कृपा पाने के लिए पवित्र होना आवश्यक था। वे ऋतु के संरक्षक थे। इन्हें ऋतस्यगोप भी कहा जाता था। ये देवता ईरान में अहूरमजदा और यूनान में ओरनोज के नाम से प्रतिष्ठित थे। वरूण के साथ मित्र का भी उल्लेख है और दोनों मिलकर मित्रावरूण कहलाते हैं। मित्र के अतिरिक्त वरूण के साथ आप (जल) का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ होता है जल। आप सोम की बहन अथवा माता मानी जाती थी। ऋग्वेद में वरूण को वायु की सांस कहा गया है।


सोम- ऋग्वेद में नवें मंडल में सोम की चर्चा की गई है। इनका निवास स्थान पर्वतीय क्षेत्र माना जाता है किन्तु इनका मूल निवास स्वर्ग में था। इन्हें औषधि एवं वनस्पति का देवता माना गया है। ये चंद्रमा से संबंधित देवता थे। इनकी तुलना ईरान के ओम देवता और यूनान के दिआनासिस से की गई है।

सूर्य- ऋग्वेद में 10 सूक्तों से सूर्य की स्तुति की गई है। सूर्य को मित्र, वरुण, अग्नि का नेत्र माना है। उसे चर-अचर का रक्षक, मनुष्य के सत्-असत् कमों का द्रष्टा एवं ज्योतियों में सर्वोत्तम ज्योति कहा है। एक स्थान पर सूर्य को विराट पुरुष के नेत्रों से आविर्भूत माना है। सूर्य को दीर्घदर्शी विश्व दृष्टा बनाकर मानव जगत के कार्यों का निरीक्षण करने वाला भी स्वीकार किया है। सवितृ, मित्र, विष्णु, विवस्वत, पूषन एवं भग को सूर्य का पर्याय मानते हुए इनके लिए समान विशेषणों का प्रयोग हुआ है। सूर्य रथ को एतश (सात हरित अश्व) का बताया गया। ध्यातव्य है कि सूर्य के सात अश्वों की अवधारणा से आगे जाकर सप्ताह के सात दिवस बने। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में उसे सब लोकों का पालन करने वाला माना है।

मित्र- ये वरूण से संबंधित देवता हैं। वे शपथ एवं प्रतिज्ञा के देवता हैं।

यम- वे मृत्यु के देवता हैं। संभवत: आदम पहला व्यक्ति था जिसने मृत्यु का स्वागत किया।

अश्विन (नासत्य)- अश्विन् का ही नाम नासत्य है। ये दुर्घटनाग्रस्त नाव के यात्रियों की रक्षा करते थे। अपंग व्यक्ति को कृत्रिम पैर प्रदान करते थे। ये चिकित्सा के देवता थे। ये युवतियों के लिए वर की तलाश करते थे।

विष्णु- ये कुछ हद तक यज्ञ से संबद्ध थे। ये तीन कदम के देवता थे।

रूद्र- ये अनैतिक आचरण से संबद्ध माने जाते हैं। वे चिकित्सा (औषधि) के संरक्षक थे। हॉलर ने इन्हें यूनानी देवता अपोलो के समान माना है। रूद्र को कभी-कभी शिव और कल्याणकर कहा जाता था।

पूषण- यह भी सूर्य से संबद्ध देवता थे। ये पशुपालन एवं चारागाह के देवता थे। ऋग्वेद में कुछ अर्द्ध देवता भी थे। यथा-विश्वदेव, आर्यमन (विवाह से संबंधित), ऋभु (बौने)-धातुकार से संबंधित थे, गंधर्व, अप्सरा-ऋग्वेद में उर्वशी की चर्चा है। त्वष्ट्रि को पितृदेवता कहा जाता था तथा इसका साम्य रोमन वासियों के धातु देवता बलकन से की जाती है।

ऋग्वेद में कुछ देवियों की भी चर्चा है यथा, उषा, अदिति, निषा (रात्रि), अरण्ययी (जंगल से संबंधित), सरस्वती और पृथ्वी। देवियों में सर्वाधिक महत्त्व अदिति को प्रदान किया गया, जिसे सम्पूर्ण देव जगत में महान्, आदित्यों एवं सब देवों की माता की संज्ञा प्रदान की है। अदिति को प्रकृति की किसी शक्ति से सम्बद्ध नहीं किया गया। कीथ अदिति के चित्रण में पाश्चात्य प्रभाव मानते हैं। कुछ विद्वान् अदिति की तुलना यूनान की ऐट्स अथवा हादिस, नार्वे की ईडा तथा एडोनिस आदि से करते हैं। सम्भवत: यह आर्यों की प्राचीन देवी न होकर अन्य देवताओं के मानवीकरण के बाद की कल्पना थी। ऋग्वेद में एक स्थान पर चर्चा मिलती है कि अदिति आकाश, पृथ्वी, माता-पिता अर्थात् सब कुछ है। इस प्रकार अदिति को सर्वोपरि माना गया। ऋग्वेद में देवताओं की संख्या 33 बताई गई है।

यास्क ने देवताओं के तीन वर्ग निर्धारित किए हैं-

  1. आकाशलोक- द्योस वरूण, मित्र, सूर्य, अश्विन (नासत्य) उरूक्रम, पूषण, सावित्री, विष्णु और उषा।
  2. वायु लोक- मारूत, वायु, वातं, रूद्र पार्जन्य, इन्द्र और अहिर्बुधन्य।
  3. भू-लोक (पृथ्वी लोक)- सोम, अग्नि, पृथ्वी, सरस्वती। अंतर्जगत के देवता-सरस्वती (विद्या, बुद्धि), वाक् (Speech), श्रद्धा और मनु।

ऋग्वैदिक दर्शन

ऋग्वेद में ब्रह्म नामक रहस्यपूर्ण सत्ता का उल्लेख है जिसके ज्ञाता ब्राह्मण कहलाए। ऋग्वेद में अग्नि के बारे में कुछ चर्चाएँ मिलती हैं। वह यह कि अग्नि का एक नाम है अथवा अनेक है। इन प्रश्नों में हमें एकेश्वरवाद का संकेत मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक दार्शनिक, एकेश्वरवाद की ओर प्रेरित हो रहे थे। इसके अतिरिक्त धीरे-धीरे इनका झुकाव एकात्मवाद की ओर हो रहा था क्योंकि ऋग्वेद में कहा गया है कि सत्य एक है जिसे विभिन्न ऋषि अलग-अलग मानते हैं।

उपासना का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था। उपासना की विधि थी प्रार्थना एवं यज्ञ। किन्तु ऋग्वैदिक काल में यज्ञ की तुलना में प्रार्थना ही अधिक प्रचलित थी। यह प्रार्थना व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों हो सकती थी। यज्ञ में अभी मंत्रोच्चारण को अधिक महत्त्व नहीं प्राप्त हुआ था।

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