नगर नियोजन Town Planning

भारत में नगरों का विकास सामान्यतः अव्यवस्थित एवं गैर-नियोजित तरीके से हुआ है। विभिन्न श्रेणियों के भूमि उपयोग का कोई उचित स्थानिक विसंयोजन दिखाई नहीं देता। इसी अव्यवस्थित विकास के कारण नगरों में पर्याप्त नागरिक सुविधाओं का अभाव है।

नगर नियोजन के महत्व को स्वतंत्र्योत्तर काल में अनुभव किया गया। शहरी भूमि पर औद्योगिक, वाणिज्यिक, आवासीय एवं मनोरंजनात्मक गतिविधियों की भारी मांग को ध्यान में रखकर विभिन्न कार्यों हेतु भूमि के वितरण को प्रशासित करने वाले वैज्ञानिक सिद्धांतों की जरूरत रेखांकित की गयी। भविष्यकालीन यातायात सघनता को दृष्टिगत रखते हुए चौड़ी सड़कों का निर्माण किया जाने लगा। इमारतों की ऊंचाई को सड़कों की चौड़ाई के अनुसार निर्धारित किया गया ताकि मानवीय परिवेश को एक कलात्मक पहलू उपलब्ध हो सके। इसके अतिरिक्त निर्माणशील एवं खुले स्थानों के मध्य एक उचित संतुलन पर भी बल दिया गया।

एक नगर नियोजन प्राधिकरण द्वारा नगरों के भूमि उपयोग की योजना तैयार की जाती है तथा विशिष्ट भूमि उपयोग हेतु विभिन्न क्षेत्रों का सीमांकन किया जाता है। इन योजनाओं में पर्याप्त सड़क चौड़ाई, खुले स्थान तया मूलभूत सुविधाओं (जल, विद्युत, स्कूल, अस्पताल इत्यादि) से जुड़े प्रावधान शामिल होते हैं।

नगर नियोजन में मुख्य बाधाएं इस प्रकार हैं-

  • योजना निर्माण एव उसके कार्यान्वयन के बीच व्यापक समयान्तर: इस व्यापक समयान्तर के दौरान अल्पविकसित आधार संरचना के कारण अधिकांश शहरी विस्तार मूलभूत सुविधाओं के बिना होता है। विभिन्न कारणों से खाली छोड़े गये भूखंडों पर मलिन बस्तियां बसने लगती हैं।
  • शहरी योजना नगर निगम की सीमाओं द्वारा सीमित होती है: इस सीमित योजना के कारण पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले उपनगरों में बिना आधार संरचनात्मक समर्थन के उद्योगों का विकास आरंभ हो जाता है। इससे शहरी स्थान का अव्यवस्थित विकास होता है।
  • अभिकरणों की बहुगुणकता: यदि जलापूर्ति, विद्युत, गंदगी विस्तारण, टेलिफोन जैसी सेवाओं के मध्य समन्वय नहीं होता है, तो नये उद्योगों का विकास अत्यंत धीमी गति से होगा और शहरी विकास में बाधाएं बनी रहेंगी।

निराकरण के उपाय: प्रमुख महानगरों की राजस्व उगाही क्षमता एवं आर्थिक महत्वको ध्यान में रखते हुए इन शहरों में विशेषीकृत आधार संरचना के विकास को वरीयता दी जानी चाहिए। इसी उद्देश्य से 1993-94 में एक मेगासिटी योजना आरंभ की गयी थी, जो राष्ट्रीय शहरीकरण आयोग द्वारा अनुशंसित थी। इस योजना को मुंबई, कोलकाता,चेन्नई, बंगलुरू एवं हैदराबाद में लागू किया गया। योजना का मुख्य जोर आधारभूत संरचना के विकास पर था।

बड़े शहरों की भीड़भाड़ को कम करने की दृष्टि से मध्यम व छोटे नगरों को उपनगरों के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। 1979-80 में मध्यम एवं लघु श्रेणी के नगरों के संतुलित विकास हेतु लघु एवं मध्यम नगर एकीकृत विकास योजना (आईडीएसएमटी) शुरू की गयी।

नगर एवं देश योजना संगठन देश में नगर नियोजन से जुड़ी शीर्ष संस्था है। यह सरकार की शहरी एवं क्षेत्रीय विकास योजनाओं के लिए तकनीकी मार्गदर्शन उपलब्ध कराती है। यह सार्वजनिक एवं स्थानीय निकायों को परामर्श भी प्रदान करती है।


नाइ दिल्ली, चंडीगढ़, गांधीनगर, एवं भुवनेश्वर भारत के नियोज्ती नगर मने जाते हैं।

मलिन बस्तियां एवं शहरी आवास

झुग्गियां और आबादकार बस्तियां

झुग्गी-बस्तियां शहरी बस्तियों का एक आम तत्व है। झुग्गी, व्यापक संदर्भ में शहरी विनिर्मित स्थान में एक सूक्ष्म-आवासीय इकाई होती है। यह जीवन के दुर्दांत स्तर (अस्वास्थ्यकर भौतिक, सामाजिक और आर्थिक पर्यावरण) को चिन्हित करता है। मलिन बस्ती में, घटिया दर्जे के आवास और दयनीय नागरिक सुविधाएं (पेयजल, शौचालय और स्वच्छता) एवं अन्य सेवाएं होती हैं जो मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा उत्पन्न करते हैं।

विश्व के अधिकतर शहरी क्षेत्रों में मलिन बस्तियां हैं जो कई गुणकों में बढ़ती जा रही हैं।

मलिन बस्तियों से संबद्ध समस्याएं

शहरी क्षेत्रों में मलिन बस्तियों का विकास एक जटिल समस्या बन चुका है। ये बस्तियां औद्योगिक क्षेत्रों, रेलवे लाइनों, बंदरगाहों, नदी तटों, थोक बाजारों इत्यादि के आस-पास निरंतर विकसित होती जा रही है। मलिन बस्तियों का सर्वाधिक विस्तार महानगरों में है। मुंबई के निकट धारावी एशिया की सर्वाधिक विस्तृत मलिन बस्ती है।

मलिन बस्तियों के घर सामान्यतः कच्चे होते हैं, जो ईट, मिट्टी, तिरपाल, टिनशेड, बांस इत्यादि से बने होते हैं। रहने का स्थान 10 वर्ग मीटर से अधिक नहीं होता जिसमें घर का अधिकांश सामान भी जमा होता है। नहाना, खाना बनाना तथा सोना ज्यादातर खुले स्थान में होता है। पानी के नल एवंजन-सुविधाएं सार्वजनिक होती हैं। ये बस्तियां बाढ़, आग, जलाक्रांति जैसी आपदाओं का आसान शिकार बन जाती हैं। समुचित अपवाह तंत्र एवं नालियों का अभाव हैजा, पीलिया, पेचिस जैसी जलजनित बीमारियों को जन्म देता है।

मलिन बस्तियों में सामाजिक संरचना: मलिन बस्ती के निवासी अधिकांशतः गांवों से आये प्रवासी होते हैं, जो परिवहन की उच्च लागत का बोझ उठाने में असमर्थ होने के कारण अपने कार्यस्थल के निकट ही बस जाते हैं। सामान्यतः एक ही समुदाय या कार्यस्थल या मूल स्थान से जुड़े लोग साथ-साथ ही रहते हैं। मलिन बस्तियों के निवासियों में स्व-रोजगाररत, छोटे व्यापारी, घरेलू नौकर, रिक्शा चालक, कुली इत्यादि शामिल होते हैं।

सरकार द्वारा मलिन बस्तीवासियों को पुनर्वास सुविधा उपलब्ध कराने की कोशिशें असफल साबित हुई हैं, क्योंकि पुनर्वास कॉलोनियां कार्यस्थल से बहुत दूरी पर स्थित होती हैं। इन कालोनियों का घिरा हुआ बहुमंजिली पर्यावरण भी मलिन बस्तियों के लोगों को रास नहीं आता। एक मलिन बस्ती की समाप्ति का प्रयास दूसरी मलिन बस्ती के विकास को जन्म देता है। अब सरकार द्वारा अपना मुख्य ध्यान इन बस्ती वासियों के जीवन स्तर में सुधार लाने पर दिया जा रहा है और इसके लिए विभिन्न योजनाएं संचालित की जा रही हैं।

भारत में मलिन बस्तियों का वितरण

मलिन बस्तियां तब उत्पन्न होती हैं जब आबादकार (स्क्वेटर) गैर-कानूनी तरीके से रेल की पटरी, सड़क या पोखर, या सार्वजनिक भूमि के साथ या किनारे पर भूमि हथिया लेते हैं। मलिन बस्तियां अनियोजित तरीके से बसती हैं और अक्सर इस बात का पता होता है कि भूमि पर गैर-कानूनी बस्ती बन रहा है जिसका विरोध निजी स्वामियों या सरकार द्वारा गंभीर रूप से नहीं किया जाता। इस प्रकार, देश में कई दशकों से मलिन बस्तियां बढ़ रही हैं। जनसंख्या के बढ़ने और श्रम का प्रवास होने के साथ, मलिन बस्तियां नगर क्षेत्रों का अभिन्न अंग बन गई हैं। इनकी जनसंख्या दशकवार बढ़ती जा रही है जो 1987 में शहरी जनसंख्या का 17 प्रतिशत थी, और 2001 में शहरी जनसंख्या का लगभग 25 प्रतिशत हो गई।

भारत की 2001 की जनगणना के अनुसार, शहर की कुल जनसंख्या में मलिन बस्तियों की जनसंख्या का सर्वोच्च प्रतिशत आंध्र प्रदेश में (32.60 प्रतिशत) तथा न्यूनतम केरल में (1.87 प्रतिशत) था। लाखों की जनसंख्या वाले शहरों में, ग्रेटर मुम्बई की कुल जनसंख्या में स्लम जनसंख्या 48.88 प्रतिशत थी; दिल्ली में यह 18.89 प्रतिशत थी। कोलकाता में स्लम जनसंख्या 32.55 प्रतिशत थी। मुम्बई में धारावी को एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती समझा जाता है।

भारत की जनसंख्या (जनगणना-2011) के परिप्रेक्ष्य में मलिन बस्तियां (स्लम्स)

  • प्रथम बार जनगणना वर्ष 2011 में, समस्त देश में मलिन क्षेत्रों की पहचान की गई, विशेष रूप से ऐसे कस्बों और शहरों में जिनकी जनसंख्या 1991 की जनगणना के अनुसार 50,000 या उससे उपर थी।
  • उत्तरवर्ती रूप से, मलिन क्षेत्रों संबंधी आंकड़ों को निर्धारित किया गया जिसमें कस्बों के लिए 2001 की जनगणना में 20,000 से 49,999 की जनसंख्या एवं सांविधिक कस्बों के लिए 1991 के अनुसार 50,000 से कम और 2001 के अनुसार 50,000 से अधिक जनसंख्या निर्धारित की गई।
  • 2001 में परिभाषित मलिन क्षेत्रों की परिभाषा के आधार पर उनकी जनसंख्या के आकार से इतर सभी संविधिक (स्टेटुअरी) कस्बों को चिन्हित किया गया है।
  • जनगणना-2011 में अधिसूचित, मान्यता प्राप्त एवं चिन्हित, (नोटिफाइड, रिक्गनाइज्ड, आइडेन्टिफाइड) तीन प्रकार के मलिन क्षेत्रों को परिभाषित किया गया है।
  • राज्यों, संघ क्षेत्र प्रशासनया स्थानीय सरकार द्वारा किसी अधिनियम, जिसमें स्लम अधिनियम शामिल है, के अंतर्गत कस्बे या शहर में ‘स्लम के तौर पर अधिसूचित सभी क्षेत्रों को नोटिफाइड स्लम माना जाएगा।
  • राज्य, संघ शासित प्रदेशों या स्थानीय सरकार, आवासीय एवं मलिन बोर्ड द्वारा मलिन क्षेत्रों के तौर पर मान्य सभी क्षेत्र, जिन्हें किसी अधिनियम के तहत् औपचारिक तौर पर अधिसूचित नहीं किया जा सका रिकग्नाइज्ड स्लम माना जाएगा।
  • 300 की जनसंख्या वाला क्षेत्र या कच्चे एवं अस्वस्य तरीके से बने तंबुओं में रहने वाले परिवार, जहां पर अस्वस्थ वायु, स्वच्छता एवं स्वच्छ पीने के पानी का अभाव हो। ऐसे क्षेत्रों को चार्ज अधिकारी द्वारा व्यक्तिगत रूप से पहचाना जाना चाहिए और जनगणना कार्य निदेशालय द्वारा नामित अधिकारी द्वारा भी जांचा परखा गया हो। ऐसी सूचना को आवश्यक रूप से चार्ज रजिस्टर में दर्ज किया जाना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों को आइडेन्टिफाइड स्लम माना जाता है।
  • 2001 की जनगणना में हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, दमन एवं दीव, दादरा एवं नागर हवेली, लक्षद्वीप में कोई मलिन बस्ती नहीं थी जबकि 2011 की जनगणना में मात्र 4 क्षेत्रों- मणिपुर, दमन एवं दीव, दादरा एवं नागर हवेली एवं लक्षद्वीप, में कोई मलिन क्षेत्र नहीं है।
  • 2001 की जनगणना में 1743 ऐसे कस्बे थे जहांस्लम मौजूद थे जबकि 2011 की जनगणना में 2613 ऐसे कस्बे हैं जहां स्लम (मलिन क्षेत्र) पाए गए हैं।

भारत की कुल मलिन जनसंख्या में राज्यों की हिस्सेदारी

1 प्रतिशत से कम हिस्सेदारी वाले राज्य/संघ प्रदेश: जनगणना 2011 के अनुसार, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखंड, झारखण्ड, असम, केरल, त्रिपुरा, पुदुचेरी, हिमाचल प्रदेश, चंडीगढ़, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, गोवा एवं अंडमान-निकोबार द्वीप समूह ऐसे राज्य एवं संघ प्रदेश हैं जिनकी कुल स्लम जनसंख्या में 1 प्रतिशत से भी कम की हिस्सेदारी है।

स्लम बस्ती विहीन राज्य/संघ प्रदेश: मणिपुर, दमन एवं दीव, दादर एवं नागर हवेली एवं लक्षद्वीप ऐसे राज्य एवं संघ प्रदेश हैं जहां मलिन जनसंख्या नहीं है।

विभिन्न राज्यों की मलिन बस्ती जनसख्या में प्रतिशत भागीदारी: 2011 की जनगणना में सर्वाधिक प्रतिशत भागीदारी महाराष्ट्र (18.1 प्रतिशत) की है तत्पश्चात् आंध्र प्रदेश (15.6 प्रतिशत),पश्चिम बंगाल (9.8 प्रतिशत), उत्तरप्रदेश (9.5 प्रतिशत), तमिलनाडु (8.9 प्रतिशत), मध्यप्रदेश (8.7 प्रतिशत), कर्नाटक (5.0 प्रतिशत), राजस्थान (3.2 प्रतिशत), चंडीगढ़ (2.9 प्रतिशत), दिल्ली (2.7 प्रतिशत), गुजरात (2.6 प्रतिशत), हरियाणा (2.5 प्रतिशत), ओडीशा (2.4 प्रतिशत), पंजाब (2.2 प्रतिशत), बिहार 1.9 प्रतिशत, और अन्य राज्य/संघ प्रदेशों की भागीदारी 3.8 प्रतिशत है।

इसके विपरीत 2001 की जनगणना में जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, चंडीगढ़, मेघालय, असम, पुदुचेरी, त्रिपुरा एवं केरल ऐसे राज्य थे जिनकी मलिन जनसंख्या में भागीदारी 1 प्रतिशत से कम थी जबकि हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, दमन एवं दीव, दादर एवं नागर हवेली, लक्षद्वीप एवं अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह ऐसे राज्य एवं संघ प्रदेश थे जहां मलिन जनसंख्या शून्य थी। इसी प्रकार, 2001 की जनगणना के तहत् महाराष्ट्र (22.9 प्रतिशत), आंध्र प्रदेश (12.0 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (11.0 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (8.9 प्रतिशत), तमिलनाडु (8.1 प्रतिशत) सर्वाधिक मलिन जनसंख्या वाले राज्य थे।

शहरी आवास में प्रमुख अवरोध

शहरी क्षेत्रों में आवासीय सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में निम्नलिखित समस्याएं मौजूद हैं-

  1. भूमि की किल्लत: प्रत्येक 10 लाख अतिरिक्त आवास इकाइयों हेतु 6 हजार हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होती है। इसी उद्देश्य से सरकार द्वारा शहरी भूमि (सीलिंग एंड रेगुलेशन) अधिनियम, 1976 पारित किया गया। यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर, केरल, नागालैंड एवं सिक्किम को छोड़कर सभी प्रांतों में लागू होता है। तमिलनाडु द्वारा 1978 में अपना पृथक् अधिनियम लागू किया गया। इस अधिनियम के माध्यम से कुछ लोगों के हाथों में शहरी भूमि के संकेन्द्रण को रोका गया। सट्टेबाजी एवं मुनाफाखोरी को काबू में करके सामान्य उपयोग हेतुशहरी भूमि के समानतापूर्ण वितरण को सुनिश्चित किया गया।

विभिन्न सरकारों द्वारा निजी भवन निर्माताओं एवं भूमि दलालों के सहयोग से उपनगरों का विकास किया गया है। इन उपनगरों में आवासों का विस्तार कृषि भूमि की कीमत पर हुआ है।

  1. वित्त की कमी: संसाधनों की कमी के कारण अधिकांश लोग किस्तों पर आवास खरीदते हैं। निजी आवासों हेतु सरकार प्रत्यक्ष वित्तीय मदद उपलब्ध नहीं कराती। जीवन बीमा निगम, आवास एवं शहरी विकास निगम (हुडको), कर्मचारी लाभांश कोष, राज्य आवास बोर्ड, आवास एवं शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों जैसे संस्थात्मक स्रोतों से ही इस क्षेत्र में वित्त उपलब्ध कराया जाता है।
  2. भवन निर्माण सामग्री की उच्च लागत: भवन निर्माण सामग्री कुल निर्माण लागत का 65 से 75 प्रतिशत तक वहन करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में बांस, इमारती लकड़ी, फूस इत्यादि की कमी के कारण भवन निर्माण सामग्री की किल्लत अधिक मुखर हुई है। विभिन्न उद्योगों द्वारा किए जा रहे वाणिज्यिक दोहन ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया है।

राष्ट्रीय शहरी आवास एवं निवास योग्य स्थान हेतु नीति, 2007

मानव जीवन में अन्न और वस्त्र के बाद छत मूलभूत आवश्यकता है। 10वीं पंचवर्षीय योजना के अंत में आवासीय कमी अनुमानतः 24.07 लाख थी। जबकि हमारे देश के शहरी क्षेत्र में भी अत्यंत कष्टदायक बुनियादी सेवाओं में कमी है जैसे पीने का पानी,मैले पानी के निकासी हेतु नाली व्यवस्था उचित नहीं, गटर के तंत्रजाल, शौचालय सुविधा,वियुत, सड़क और ठोस कचड़ा का समुचित विसर्जन।

इन सभी कमियों के साथ शहरों में आवास के लिए तार्किक स्थापित योजना और मूलभूत सेवाएं प्रदान करना है। इस योजना के तहत्देश में निवास योग्य स्थान का विकास निरंतर जारी रहे, समानता की दृष्टि से भूमिका आबंटन, छत और अन्य सेवा वहन योग्य स्थान का विकास निरंतर जारी रहें, समानता की दृष्टि से भूमि का आबंटन, छत और अन्य सेवा वहन योग्य मूल्य में समाज के सभी वर्गों को समरूप से प्रदान की जाये। राज्य एवं केंद्र सरकार दोनों को आवास की कमी और बजट की चिंता है। यह स्पष्ट है कि आवाज की मांग को देखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र का प्रयास पर्याप्त नहीं है। राष्ट्रीय शहरी आवास और निवास योग्य योजना 2007 में स्टेक-होल्डर की ओर प्रकाश डाला है जैसे निजी क्षेत्र, कॉर्पोरेट क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र को मजदूरों का घर और सेवा प्रदान किया है। संस्थान क्षेत्र के कर्मचारी हेतु आवास। इस तरह योजना के तहत् सार्वजनिक निजी क्षेत्रों के भागीदारी की खोज का लक्ष्य पता कर सभी के लिए वहन योग्य आवास निर्माण करना है।

एनयूएचएचपी 2007 के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

  • योजना का मूल लक्ष्य निम्न श्रेणी के लिए वहन योग्य आवास का निर्माण।
  • जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन का मुख्य उद्देश्य गरीवों को आवास और मूलभूत सेवाएं प्रदान करना है।
  • विशेषतः अनुसूचित जाती, जनजाति, पिछाड़ी जाती, अल्पसंख्यक और महिला सशक्तिकरण एवं शहरी गरीबों की श्रेणी के अंतर्गत है।
  • 74वें संविधान के संशोधन के अनुच्छेद में विशेषतः ग्रामीण विकास और शहरी विकास को चिन्हित किया है।
  • उच्चतम लक्ष्य के अंतर्गत वहन योग्य आवास पर बल देकर शहरी योजना, भूमिका विकास, अतिरिक्त माला बनाने का अनुपात बढ़ाना, स्वस्थ्य पर्यावरण, ठोस कचरा का कारगर प्रबंधन और ऊर्जा के स्रोत का उपयोग करना है।
  • शहरीकरण को बढ़ावा और विशेष आर्थिक क्षेत्र 10-15 प्रतिशत भूमि प्रत्येक निजी एवं सार्वजनिक आवास परियोजना एवं 20 से 25 प्रतिशत एफएआर जो भी बड़ा है उसका पुनरुत्थान आर्थिक रूप से पिछड़े लोग या एआईजी आवास को उचित स्थान का मानदेह देगी।
  • निजी क्षेत्र को मास्टर प्लान के अंतर्गत ही भूमि एकत्रीकरण की अनुमति है। शहरी झुग्गी-झोपड़ी और विशेष पैकेट कोपरेटिव आवास, मजदूरों का घर और कर्मचारियों के आवास के लिए कार्य योजना तैयार की जा रही है।
  • राज्य सरकार को आर्थिक रूप से पिछड़े/निम्न आय समूह के लिए 10 वर्ष का अग्रिम योजना के विकास का परामर्श दिया गया है।
  • योजना शहरी गरीबको वर्तमान स्थान या कार्यक्षेत्र के पास घर देने की सुविधा को महत्ता दी गई है। विस्थापन पर विशेष केस में ही विचार किया जायेगा। झुग्गी-झोपड़ी के पुनर्स्थापन में स्वस्थानी हेतु पहल किया जाता है।
  • सूक्ष्म वित्तीय संस्थान राज्य स्तरीय पर वित्तीय प्रवाह में तीव्रता लाने के लिए बढ़ावा दिया गया है।
  • आधुनिक नगरपालिका कानून का निर्माण केंद्र सरकार कर रही है।
  • नगर विस्तार नक्शा जीआईएस हवाई सर्वेक्षण और भूमि सर्वेक्षण के आधार पर किया गया है।
  • प्रोत्साहित करने के लिए सिद्ध लागत प्रभावी तकनीक और ईमारत बनाने की सामग्री का उपयोग होगा।
  • सामूहिक त्वरित विस्थापित सिस्टम के उप-क्षेत्रीय स्तर पर परिकल्पित विकास किया है।
  • शहरों को हरित आच्छादित कर पर्यावरण विकास को संतुलित करना है।
  • आवास बुनियादी सुविधाओं कार्ययोजना को एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले सभी राज्यों के शहरों को विकास हेतु बढ़ावा दिया गया है।

कार्य योजना एवं कार्यवाही: राज्य शहरी आवास एवं बुनियादी सुविधाओं वाले आवास योजना और कार्य योजना को केंद्र सरकार द्वारा सरकार को प्रोत्साहित करने हेतु सहयोग प्रदान करती है।

  • राज्य / केंद्र शासित प्रदेश कार्य योजना हेतु लक्ष्य कोष का त्वरित प्रवाह करना है।
  • राज्य / केंद्र शासित प्रदेश योजना के तहत् भागीदारी को बढ़ावा दिया है।
  • राज्य स्तर पर कार्य योजना एवं योजना के कार्यान्वयन पर आवधिक समीक्षा की जाएगी।
  • 15-20 साल की भावी योजना की तैयार की गई। इसका आधार शहरी विकास योजना है जो स्थानीय योजना शहर के स्तर पर किया गया है।
  • आवधिक समीक्षा और योजना का लागू होना, संशोधन, आधुनिकीकरण जो भी आवश्यकतानुसार उच्च स्तरीय निरीक्षण के लिए समिति स्थापित की गई है।

शहरीकरण की समस्याएं और उपाय

विश्व में चीन के बाद भारत की शहरी जनसंख्या का दूसरा स्थान है। शहरी जनसंख्या वृद्धि की दर में उछाल बड़े पैमाने पर प्रवास और जनसंख्या वृद्धि के कारण आया। इसका परिणाम विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याओं के रूप में आया।

  • आवासों एवं जगह की कमी: शहरों में बढ़ती जनसंख्या और रहन-सहन की बढ़ती लागत ने भूमि की कीमतों और मकान के किराये में ऊंची वृद्धि की। बढ़ते नगरों में आवासीय परिसरों में भारी कमी हुई। मलिन बस्तियों में और बेघरबार लोगों की संख्या में, विशेष रूप से प्रवासित लोगों के बीच, वृद्धि एक बड़ा चिंता का विषय है।
  • दयनीय नागरिक सुविधाएं: नगरों में, सभी लोगों को उचित नागरिक सुविधाएं और अवसंरचनात्मक सुविधाएं प्रदान करने में समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। बढ़ती जनसंख्या का अर्थ है उचित और पर्याप्त पेयजल की कमी, पर्याप्त परिवहन व्यवस्था की कमी, उचित सफाई और सीवेज निस्तारण का अभाव, और आवश्यक संख्या में शैक्षिक संस्थानों, अस्पतालों और खेल के मैदानों की कमी।
  • दयनीय परिवहन व्यवस्था: ट्रैफिक सघनता और विलम्ब, और पर्याप्त एवं अच्छी परिवहन सुविधाओं का अभाव शहरों की बड़ी समस्या है। शहरीकरण में वृद्धि के साथ, एकव्यवस्थित परिवहन अवसंरचना की आवश्यकता है जिससे कि वाहनों और यात्रियों के बढ़ते दबाव का सामना किया जा सके। सड़कों के बिना किसी उचित विकास के वाहनों की संख्या में बढ़ोतरी, विशेष रूप से वहां जहां उन्नयन की आवश्यकता है, शहरों के विकास में अवरोध उत्पन्न कर सकती है।
  • बेरोजगारी और अपराध: विभिन्न वर्षों में नगरों में गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है। यह सामाजिक तनावों और अपराधों का अग्रणी कारण है, जिसमें विशेष रूप से आप्रवासी संलग्न रहते हैं। शराब-पीना, ड्रग्स की लत और वेश्यावृति भी ऐसी बुराइयां हैं जो इस तरह के हालत में धकेलती हैं।
  • पर्यावरणीय हास: वायु प्रदूषण के कारण पर्यावरणीय ह्रास एक गंभीर समस्या है जिसे घरों में और सड़कों पर वाहनों से नियंत्रित किया जा सकता है। ध्वनि और जल प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। कूड़ा निस्तारण और कूड़ा दबाने के लिए मैदानों की कमी संबंधी समस्याएं जल स्रोतों के प्रदूषित करने में सहायक होती है और भयानक जल जनित रोगों को जन्म देती हैं। शहरों के लोगों के उपभोक्तावादी संस्कृति और उनकी स्वार्थी, अवसरवादी प्रवृत्ति ने पर्यावरण और पर्यावरणीय विनाश के प्रति असंवेदनशीलता में बेहद योगदान किया है।

राष्ट्रीय शहरीकरण नीति

भारत में संतुलित शहरी विकास को सुनिश्चित करने के लिए एक राष्ट्रीय शहरीकरण नीति की आवश्यकता है, जिसके अंतर्गत निम्नलिखित पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए|-

  • नगरों की अवस्थिति: एक विस्तारित अवस्थिति को प्रोत्साहित करने के लिए एक व्यावहारिक उपागम को अपनाया जाना चाहिए।
  • नगरों का आकार: एक क्षेत्र विशेष के संसाधनों का अनुमान लगाते हुए जनसंख्या के एक सुनिश्चित स्तर को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  • शहरी केंद्रों का विकास: शहरीकरण की भविष्यकालीन प्रवृत्तियों का अनुमान लगाते हुए मूलभूत सुविधाओं एवं भौतिक आधार संरचना का नियोजन किया जाना चाहिए।
  • ग्रामीण-शहरी प्रवासन पर नीति: इसके अंतर्गत निम्न शहरीकरण वाले राज्यों में तीव्र औद्योगिक विकास के माध्यम से शहरीकरण को गति देने के उपाय सुनिश्चित किये जाने चाहिए।
  • महानगरों के अंधाधुंध विकास से निबटना: लघु एवं मध्यम नगरों के विकास को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए तथा यातायात सुविधाओं, शहरी पुनर्निर्माण एवं मलिन बस्ती सुधार पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
  • परिधीय विस्तार हेतु नीति: इसके अंतर्गत उपनगरों, शहरी क्षेत्रों एवं ग्रामीण-शहरी सीमांत क्षेत्रों के विकास पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
  • संवृद्धि केंद्रों का विकास: संवृद्धि केंद्र, उन्हें प्रदान की गई उच्च गुणवत्तापरक अवसंरचनात्मक सुविधाओं द्वारा तीव्र आर्थिक विकास, विशेष तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए उत्प्रेरक केंद्र के तौर पर कार्य करेगा।
  • आवास नीति: इस नीति के तहत् जन-आवास के उपायों पर ध्यान देना होगा तथा संपूर्ण देश में भवनों की तक संगतता एवं किराया नियंत्रण पर जोर देना होगा।
  • शहरी भूमि नीति: इसके अंतर्गत शहरीकरण योग्य भूमि के समाजीकरण, फ्रीहोल्ड भूमि के लीज होल्ड भूमि में रूपांतरण, भूखंडों के आकारों के सीमांकन एवं भूमि अधिग्रहण प्रक्रियाओं के सामान्यीकरण को शामिल किया जाना चाहिए।
  • प्रशासनिक नीति: इसमें स्थानीय निकायों को शक्ति, कार्य एवं वित्तीय संसाधन सौंपने के मामले तया नागरिक सेवाओं का प्रशासन एवं समन्वयन शामिल होगा।
  • वायु एवं जल प्रदूषण से निबटने के उपाय: इसके अंतर्गत शहरी क्षेत्रों में अति प्रदूषण एवं उद्योगीकरण से होने वाले वायु व जल प्रदूषण से निबटने के नीतिगत उपाय किये जाने चाहिए।

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यह अपरिहार्य है कि लोगों को उचित अवसंरचनात्मक सुविधाएं प्रदान की जाएं और बढ़ते मलिन और आबादकारी बस्तियों की समस्याओं को संबोधित किया जाए। नगरों को बेहतर जीवन प्रदान करने के लिए, स्थानीय निकायों के प्रारूप को बदलने की आवश्यकता है। सामुदायिक समूहों को स्वच्छता और स्वास्थ्य, जल संरक्षण एवं अन्य मूल्यवान संसाधनों, पर्यावरण प्रदूषण को रोकने, उचित ढंग से अपशिष्ट निस्तारण और अधिकाधिक पौधा रोपण की आवश्यकता के बारे में जागरूकता फैलाने में शामिल किया जाना चाहिए। नए क्षेत्रों को मास्टर प्लान और क्षेत्र विनियमन की व्यवस्था द्वारा सावधानीपूर्वक नियोजित किए जाने की आवश्यकता है।

कानूनों के सख्त पालन के साथ बेहतर कस्बा नियोजन जरूरी है जो अनियोजित विकास को प्रतिबंधित करेगा।

उद्योगों को छोटे केन्द्रों की ओर छितराने को प्रोत्साहन देना चाहिए जो शहरीकरण और यहां तक कि प्रवासित लोगों के वितरण को भी प्रवृत करेगा और इस प्रकार आर्थिक विकास को संतुलित करेगा।

कुछ देशों में, नए कस्बों का निर्माण मुख्य नगर केंद्रों से एक दूरी पर किया जा रहा है। इन कस्बों में, उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में, आवासीय और औद्योगिक परिसर हैं और लोगों को बेहतर आवास और रोजगार अवसर प्रदान करते हैं।

राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति 2006

भारत तेजी से आर्थिक संवृद्धि के पथ पर अग्रसर है। ऐसी भारी भविष्योन्मुखी संवृद्धि द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रों से आएगी, जोकि, औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों की प्राथमिक रूप से शुरुआत शहरी क्षेत्रों में हुई। हमारे शहरों एवं कस्बों की दशा भारत के विकास में बेहद अहम् है।

वर्तमान में भारत की शहरी जनसंख्या कुल जनसंख्या का 31.2 प्रतिशत है। पूरे संसार में अनुभव दर्शता है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकास करती जाती है, स्थिर अवस्था प्राप्त करने से पूर्व तीव्र शहरीकरण का अनुपात 60 प्रतिशत से अधिक हो चुका होता है। जैसाकि, अनुमान लगाया गया है कि, भारत की शहरी जनसंख्या वर्ष 2021 में 50 करोड़ से अधिक हो जाएगी और वर्ष 2051 तक 100 करोड़ से अधिक हो जाएगी, जबकि यह 2001 में मात्र 23 करोड़ थी। शहरों को न केवल वर्तमान जनसंख्या की गतिमान आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। अपितु शहरों में आने वाली जनसंख्या की आवश्यकताओं की भी पूर्ति करनी पड़ती है। इस संदर्भ में, भारत सरकार ने राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (एनयूआरएम) प्रारंभ किया।

शहरी क्षेत्रों के लिए ऐच्छिक या आवश्यक आर्थिक गतिविधि के योग्य बनाने के लिए वहां वस्तुओं एवं लोगों का सुगम एवं सतत् प्रवाह होना चाहिए। शहरों में परिवहन की लागत तेजी से बढ़ी है, विशेष तौर पर गरीबों के लिए। इसका एक बड़ा कारण गैर-ईंधन परिवहन जैसे साइकिल एवं पैदल चलना, समाप्त होना है। शहरों में परिवहन व्यवस्था बेहद जोखिमपूर्ण हो गई है। सड़क दुर्घटनाओं की संख्या 1981 में 1.6 लाख से बढ़कर 2001 में 3.9 लाख हो गई। इसी प्रकार, 1981-2001 के समयावधि में सड़क दुर्घटना में मरने वालों की संख्या 28,400 से 80,000 तक हो गई। इसकी चपेट में साइकिल चलाने वाले, पैदल यात्री या फुटपाथ पर रहने वाले गरीब लोग अधिक आए हैं। व्यक्तिगत वाहनों की संख्या में बढ़ोतरी ने वायुप्रदूषण में भी इजाफा किया है। जब तक उपर्युक्त समस्याओं का समाधान नहीं किया जाता, निम्न गत्यात्मकता आर्थिक विकास के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन सकती है और जीवन गुणवत्ता में ह्रास हो सकता है। इसलिए, इस बढ़ती समस्या से निजात पाने के लिए एक नीति की आवश्यकता है ताकि एक स्पष्ट दिशा एवं भविष्य कार्रवाई की रूपरेखा प्राप्त हो सके।

नीति का दृष्टिकोण

  • इस बात की पहचान करना कि लोग हमारे शहरों के केंद्र में हैं और सभी प्रकार की योजनाएं उनके साझा लाभों एवं कल्याण के लिए होंगी।
  • शहरों को विश्व में बेहद रहने योग्य बनाना और उन्हें आर्थिक विकास के इंजन के तौर पर सक्षम बनाना जो 21वीं सदी में भारत के विकास को बल प्रदान करेंगे।
  • शहरों को सर्वोत्तम शहरी रूप देना जिससे वे अपनी भौगोलिक अवस्थिति के अनुकूल हों और शहर में होने वाली मुख्य आर्थिक एवं सामाजिक गतिविधियों को बल प्रदान करने वाले बेहतर स्थान हो।

नीति के उद्देश्य

इस नीति का उद्देश्य बढ़ते शहरी निवासियों को शहरों के भीतर नौकरी, शिक्षा एवं अन्य आवश्यकताओं की सुरक्षित, वहनीय, तीव्र, सुगम, विश्वसनीय एवं धारणीय पहुंच सुनिश्चित कराना है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति निम्न बिंदुओं द्वारा की जानी है-

  • शहरी परिवहन को शहरी नियोजन चरण का एक महत्वपूर्ण मापदण्ड मानना।
  • सभी शहरों में समन्वित भूमि उपयोग एवं परिवहन नियोजन को रोत्साहित करना ताकि यात्रा दूरियों को न्यूनतम किया जा जाए और आजीविका, शिक्षा, और अन्य सामाजिक आवश्यकताओं तक पहुंच स्थापित की जा सके, विशेष रूप से शहरी जनसंख्या के सीमान्त वर्ग की दशा में सुधार हो सके।
  • व्यवसाय की बाजारों और उत्पादन के विभिन्न कारकों तक पहुंच में सुधार करना।
  • सड़क मार्गों एवं स्थानों का वाहनों की तुलना में लोगों के साथ अधिक समान रूप से आवंटन करना, मुख्य ध्यान होगा।
  • सार्वजनिक परिवहन के प्रयोग को अधिक प्रोत्साहित करना और मोटर रहित वाहनों के से समन्वित हो जिससे अबाध परिवहन प्रदान हो सके।
  • एक प्रभावी विनियामक एवं प्रवर्तन तंत्र स्थापित करना जो सभी परिवहन ऑपरेटरों को परिवहन सेवा प्रदान करने के एक समान अवसर सौंपे और परिवहन तंत्र के उपयोगकर्ताओं की सुरक्षा में वृद्धि करे।
  • परिवहन तंत्र के प्रबंधन एवं नियोजन में समन्वय बढ़ाने के लिए संस्थागत तंत्र स्थापित करना।
  • ट्रैफिक प्रबंधन के लिए एक कुशल एवं सुनियोजित परिवहन तंत्र प्रस्तुत करना।
  • सड़क सुरक्षा एवं दुर्घटना मामलों के प्रति चिंता को शामिल करना।
  • यात्रा व्यवहारों में बदलाव, बेहतर प्रवर्तन, बड़े नियम, प्रविधिक सुधार इत्यादि के माध्यम से प्रदूषण स्तर में कमी लाना।
  • सतत् शहरी परिवहन हेतु योजना की क्षमता बढ़ाना और ज्ञान प्रबंधन तंत्र स्थापित करना जिससे सभी सहरी पेशवरों, जैसे\ प्लानर्स, शोधार्थियों, शिक्षकों, छात्रों इत्यादि की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकेगी।
  • स्वच्छ प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को बढ़ावा देना।

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  • शहरी परिवहन अवसंरचना में निवेश के लिए वित्तीयन, नवोन्मेषी तंत्र के माध्यम से जो भूमि को एक संसाधन के तौर पर ले, में वृद्धि करना।
  • उन गतिविधियों में निजी क्षेत्र के साथ जुड़ना, जहां उनकी ताकत को लाभप्रद तरीके से प्रयोग किया जा सके।
  • पायलट प्रोजेक्टों को शुरू करना जो धारणीय शहरी परिवहन में संभव सर्वोत्तम तरीकों की क्षमता प्रदर्शित करें।

राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति 2008

स्वच्छता को मानव उत्सर्जन एवं मल त्याग के सुरक्षित प्रबंधन के तौर पर परिभाषित किया जाता है, जिसमें इसका सुरक्षित उपचार, निस्तारण और सम्बद्ध स्वच्छता संव्यवहार शामिल हैं। जबकि यह नीति मानव उत्सर्जन एवं सम्बद्ध सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय प्रभावों के प्रबंधन से संबंध रखती है। यह माना गया है कि समन्वित समाधान के लिए पर्यावरणीय स्वच्छता के अन्य तत्वों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है, जो हैं- ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, औद्योगिक एवं अन्य विशिष्टीकृत/ हानिकारक अपशिष्ट उत्सर्जन, निकासी, और पेयजल आपूर्ति का प्रबंधन।

सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) सदस्य देशों पर यह जिम्मेदारी डालता है कि वे 2015 तक आधी शहरी जनसंख्या, और 2025 तक 100 प्रतिशत तक बेहतर स्वच्छता स्थिति तक पहुंच बनाएं। इसमें उन परिवारों तक पहुंच बनाना भी शामिल है जहां बेहतर स्वच्छता नहीं है, और शहर और खुले में शीच से मुक्त करने के लिए सार्वजनिक स्थानों में उचित स्वच्छता सुविधाएं प्रदान करना भी निहित है।

नीति का दृष्टिकोण

अखिल भारतीय शहरों एवं कस्बों को पूरी तरह से स्वच्छ, स्वास्थ्यवर्धक और रहने योग्य बनाने के लिए और सभी नागरिकों के लिए बेहतर स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय स्थितियां सुनिश्चित करना एवं बनाना तथा विशेष रूप से शहरी निर्धनों एवं महिलाओं के स्वास्थ्य एवं वहनीय स्वच्छता सुविधाओं पर ध्यान देना।

स्वच्छता नीति के महत्वपूर्ण मुद्दे

उपरिलिखित दृष्टिकोण की प्राप्ति के क्रम में, निम्नलिखित महत्वपूर्ण नीतिगत विषयों को देखा जाना आवश्यक है।

  • स्वच्छता को निम्न प्राथमिकता का माना जाता है औरलोक स्वास्थ्य के साथ इसके स्वाभाविक संबंध के बारे में जागरूकता का अभाव है।
  • पर्याप्त कानूनी रूपरेखा होने के बावजूद, हाथ से मैला सफाई के उन्मूलन की दिशा में सीमित सफलता ही हाथ लगी है। सफाईकर्मी द्वारा प्रतिदिन सामना किए जा रहे उनके काम संबंधी खतरों की तरफ कोई खास ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
  • राष्ट्रीय, राज्य एवं नगरों के स्तर पर संस्थागत भूमिका एवं जिम्मेदारियों में काफी अंतर एवं अंतराल मौजूद है।
  • स्वच्छता पर निवेश वर्तमान समय में टुकड़ों में नियोजित किया जाता है और सुरक्षित प्रसूति, उपचार एवं सुरक्षित निपटान के संपूर्ण चक्र पर ध्यान नहीं दिया जाता।
  • लोक अभिकरणों द्वारा पूर्ति-उन्मुख तरीके से स्वच्छता सेवाएं प्रदान की जाती हैं, न कि उपभोक्ता के तौर पर परिवारों की स्वच्छता जरूरतों, मांग एवं अधिमान्यताओं को ध्यान में रखते हुए।

नीति के उद्देश्य

शहरी भारत को समुदाय-चालित, संपूर्ण स्वच्छता, स्वस्थ्य एवं रहने योग्य शहरों एवं कस्बों में रूपांतरित करना इस नीति का समग्र उद्देश्य है।

महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट उद्देश्य हैं-

  • जागरूकता बढ़ाना एवं व्यावहारिक परिवर्तन
  • खुले में शौच मुक्त शहर
  • समन्वित पूरे शहर में स्वच्छता
  • संस्थागत पुनर्उन्मुखता एवं मुख्यधारा में स्वच्छता
  • स्वच्छतापरक एवं सुरक्षित निपटान
  • सभी स्वच्छता अवस्थापनाओं का उचित प्रचालन एवं प्रबंधन

समर्थन रणनीति का क्रियान्वयन

भारत सरकार मानती है कि स्वच्छता एक राज्य सूची का विषय है और वास्तविक क्रियान्वयन एवं लोकस्वास्थ्य और पर्यावरणीय परिणामों को सुदृढ़ शहर स्तरीय संस्थानों एवं स्टेक होल्डर्स की जरूरत है। यद्यपि पूरे भारत के शहरी क्षेत्रों में कुछ सामान्य तत्व पाए जाते हैं, स्वच्छता, जलवायु, भौगोलिक कारक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक मापदण्ड, और संस्थागत चर, इत्यादि के संदर्भ में कई ऐसे कारक, बाधाएं और अवसर हैं जो राज्यों एवं शहरों की विशिष्ट दशाओं से अपरिचित हैं। इसलिए, प्रत्येक राज्य एवं नगर को स्वयं की स्वच्छता रणनीति की आवश्यकता है।

भारत सरकार निम्न तत्वों को समर्थन करेगी-

  • जागरूकता प्रसार
  • संस्थागत भूमिकाएं
  • निर्धन परिवारों एवं वंचितों तक पहुंच
  • ज्ञान विकास
  • क्षमता निर्माण
  • वितीयन
  • राष्ट्रीय निगरानी एवं मूल्यांकन
  • राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय

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