लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 The Lokpal and Lokayuktas Act, 2013

46 वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद देश में लोकपाल की स्थापना की दिशा में मार्ग दिसंबर 2013 में उस समय प्रशस्त हो गया, जब इसके लिए लाए गए विधेयक (लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक) को संसद के दोनों सदनों में पारित कर दिया गया, जिसके पश्चात् भारत के राष्ट्रपति ने लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक को 1 जनवरी, 2014 को स्वीकृति प्रदान की।

लोकसभा द्वारा लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011  को 18 दिसंबर 2013 को पारित कर दिया गया था। इसके पहले राज्यसभा ने कुछ संसोधनों के साथ लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011 को 17 दिसंबर 2013 को ध्वनिमत से पारित किया था। यह एक भ्रष्टाचार निरोधक कानून की भारत में स्थापना की मांग करता है जिससे सभी लोक कर्मियों पर लगे भ्रष्टाचार आरोपों की जांच हेतु एक सशक्त लोकपाल स्थापित किया जा सके।

इस विधेयक को लोकसभा में 22 दिसंबर, 2011 को प्रस्तुत किया गया और 27 दिसंबर, 2011 को लोक सभा ने इसे पारित कर दिया। तत्पश्चात् विधेयक को 28 दिसंबर, 2011 को राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया। एक लंबी बहस के बाद समय के अभाव में इस पर वोट नहीं हो सका। 21 मई, 2012 को विधेयक को विचार-विमर्श हेतु राज्यसभा की चयन समिति को भेज दिया गया। 17 दिसंबर, 2013 को पूर्व के विधेयक में कुछ संशोधनों के साथ विधेयक को राज्यसभा द्वारा पारित कर दिया गया जिसे लोकसभा ने पुनः 18 दिसंबर, 2013 को पारित कर दिया।

इस विधेयक को संसद में समाज सुधारक एवं गांधीवादी नेता अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में लोगों के व्यापक विरोध के दबाव के चलते प्रस्तुत किया गया।

यह अधिनियम भारत के संविधान के अनुरूप सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए; भारत द्वारा स्वीकृत भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय के क्रियान्वयन के लिए एक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना हेतु पारित किया गया। यह अधिनियम समस्त भारत पर और भारत में तथा भारत के बाहर इसके लोक सेवकों पर लागू होगा।

लोकपाल की स्थापना: लोकपाल की संस्था में एक अध्यक्ष होगा, जो या तो भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश या फिर सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश या फिर कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हो सकते हैं। लोकपाल में अधिकतम आठ सदस्य हो सकते हैं, जिनमें से आधे न्यायिक पृष्ठभूमि से होने चाहिए। यह भी व्यवस्था दी गई है कि लोकपाल संस्था के कम से कम आधे सदस्य जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति, अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होने चाहिए। योग्य महत्वपूर्ण व्यक्ति ईमानदार एवं विशेष ज्ञान के साथ अद्वितीय योग्यता वाला हो। तथा भ्रष्टाचार निरोधी नीति, लोक प्रशासन, सतर्कता, बीमा, बैंकिंग, कानून और प्रबंधन के मामलों में कम-से-कम 25 वर्ष का विशेष ज्ञान एवं विशेषज्ञता रखता हो। व्यक्ति को न्यायिक सदस्य के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है यदि वह उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश हो या रहा हो या किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश हो या रहा हो।

वह व्यक्ति लोकपाल का अध्यक्ष या सदस्य बनाए जाने के अयोग्य है यदि वह संसद सदस्य या किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा का सदस्य है; ऐसा व्यक्ति जिसे किसी किस्म के नैतिक भ्रष्टाचार का दोषी पाया गया हो; ऐसा व्यक्ति जिसकी उम्र अध्यक्ष या सदस्य का पद ग्रहण करने तक 45 साल न हुई हो; किसी पंचायत या निगम का सदस्य हो; ऐसा व्यक्ति जिसे राज्य या केंद्र सरकार की नौकरी से बर्खास्त या हटाया गया हो; किसी लाभ या विश्वास के पद पर हो।


लोकपाल की नियुक्ति: लोकपाल के अध्यक्ष या सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा चयन समिति की अनुशंसाएं प्राप्त करने के बाद की जाएगी। चयन समिति का गठन एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्यों से मिलकर किया जाएगा जिसमें भारत के प्रधानमंत्री (अध्यक्ष); लोकसभा के अध्यक्ष; लोकसभा में विपक्ष के नेता; मुख्य न्यायाधीश या उनकी अनुशंसा पर नामित सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश; और राष्ट्रपति द्वारा नामित कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति होंगे। गौरतलब है कि अध्यक्ष या किसी सदस्य की नियुक्ति इसलिए अवैध नहीं होगी क्योंकि चयन समिति में कोई पद रिक्त था।

लोकपाल ए अध्यक्ष एवं सदस्योंकी नियुक्ति करने वाली चयन समिति एक खोजबीन समिति का गठन करेगी जिसमें कम से कम ऐसे सात व्यक्ति होंगे जिन्हें भ्रष्टाचार निरोधी नीति, लोक प्रशासन, सतर्कता, बीमा, बैंकिंग, कानून और प्रबंधन के मामलों में विशेष ज्ञान हो या ऐसे मामले का ज्ञान हो जिसे चयन समिति के दृष्टिकोण से चयन में उपयोगी माना गया हो। चयन की प्रक्रिया में खोजबीन समिति चयन समिति की सहायता करेगी। खोजबीन समिति के कम से कम पचास प्रतिशत सदस्य अनुसूचित जाती, अनुसुषित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होंगे। हालांकि, चयन समिति खोजबीन समिति द्वारा अनुशंसित व्यक्तियों से अतिरिक्त व्यक्ति के चयन पर भी विचार कर सकती है।

पदावधि: लोकपाल के अध्यक्ष एवं प्रत्येक सदस्य की नियुक्ति, चयन समिति की अनुशंसाओं पर, राष्ट्रपति द्वारा उसके हस्ताक्षर और मुहर के तहत् जारी वारंट से होगी। उसकी नियुक्ति पांच वर्ष के लिए होगी उस तिथि से जिस पर उसने पद ग्रहण किया है या जब तक वह 70 वर्ष की आयु का न हो गया हो, जो भी पहले हो। हालांकि वह पदावधि से पूर्व भी त्यागपत्र दे सकता है या उसे नियत तिथि से पूर्व हटाया जा सकता है।

वेतन एवं भते: लोकपाल के अध्यक्ष के वेतनमान एवं भत्ते तथा सेवा की अन्य शर्ते भारत के मुख्य न्यायाधीश के समान होगी; और लोकपाल के अन्य सदस्यों के वेतनमान एवं सेवा शर्ते सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान होंगी।

लोकपाल के प्रशासनिक व्ययों, जिसमें सभी वेतन, भत्ते एवं पेंशन शामिल हैं या लोकपाल के अध्यक्ष, सदस्यों या सचिव या अन्य अधिकारी या स्टाफ के संदर्भ में व्यय भारत की संचित निधि पर भारित होंगे और लोकपाल द्वारा वसूली गई कोई शुल्क या अन्य धन इस निधि का हिस्सा होंगे।

पदमुक्ति के पश्चात् प्रतिबंध: लोकपाल कार्यालय में नियुक्ति खत्म होने के पश्चात् अध्यक्ष और सदस्यों पर कुछ काम करने के लिए प्रतिबंध लग जाता है। इनकी अध्यक्ष या सदस्य के रूप में पुनर्नियुक्ति नहीं हो सकती; इन्हें कोई कूटनीतिक जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती और केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक के रूप में नियुक्ति नहीं हो सकती; इसके अलावा ऐसी कोई भी जिम्मेदारी या नियुक्ति नहीं मिल सकती जिसके लिए राष्ट्रपति को अपने हस्ताक्षर और मुहर से वारंट जारी करना पड़े। पद छोड़ने के पांच साल बाद तक ये राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, संसद के किसी सदन, किसी राज्य विधानसभा या निगम या पंचायत के रूप में चुनाव नहीं लड़ सकते।

लोकपाल के अधिकारी: लोकपाल संस्था में एक सचिव भारत सरकार के सचिव के रैंक का होगा, जिसकी नियुक्ति लोकपाल अध्यक्ष द्वारा केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए नामों के पैनल में से की जाएगी। लोकपाल में एक जांच निदेशक और एक अभियोजन निदेशक होगा जिनकी नियुक्ति अध्यक्ष द्वारा केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए नामों के पैनल में से की जाएगी। लोकपाल के अधिकारियों एवं अन्य स्टाफ की नियुक्ति अध्यक्ष द्वारा की जाएगी या लोकपाल के ऐसे सदस्य या अधिकारी द्वारा की जाएगी जिसे अध्यक्ष इस कार्य हेतु निर्देश दे।

लोकपाल की शाखा: अगर कोई जांच समिति मौजूद नहीं है तो भ्रष्टाचार के आरोपी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ शुरुआती जांच के लिए लोकपाल एक जांच शाखा का गठन कर सकता है, जिसका नेतृत्व एक निदेशक करेगा। लोकपाल द्वारा गठित ऐसी जांच शाखा के लिए केंद्र सरकार अपने मंत्रालय या विभाग से उतने अधिकारी और कर्मचारी उपलब्ध करवाएगी जितनी प्राथमिक जाँच के लिए लोकपाल को जरुरत होगी। इस अधिनियम के तहत् किसी सरकारी कर्मचारी पर लोकपाल की शिकायत की पैरवी के लिए लोकपाल एक अभियोजन शाखा का भी गठन करेगा जिसका नेतृत्व एक निदेशक करेगा। लोकपाल द्वारा गठित ऐसी अभियोजन शाखा के लिए केंद्र सरकार अपने मंत्रालय या विभाग से उतने अधिकारी और कर्मचारी उपलब्ध करवाएगी जितनी प्राथमिक जांच के लिए जरूरत होगी।

लोकपाल का अधिकार क्षेत्र: लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में प्रधानमंत्री, मंत्री, संसद सदस्य और केंद्र सरकार के समूह ए, बी, सी और डी के अधिकारी और कर्मचारी आते हैं। इस प्रकार सभी श्रेणियों के सरकारी कर्मचारी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएंगे। विषय-वस्तु अपवर्जन और प्रधानमंत्री के विरुद्ध शिकायतों पर कार्रवाई करने की विशिष्ट प्रक्रिया के साथ प्रधानमंत्री की लोकपाल के दायरे में लाया गया है। लोकपाल प्रधानमंत्री के विरुद्ध कोई जांच नहीं कर सकता यदि कोई अभिकथन अंतरराष्ट्रीय संबंधों; देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा; लोक व्यवस्था; परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष से संबंधित है। प्रधानमंत्री के विरुद्ध प्रारंभिक जांच या अन्वेषण शुरू करने का लोकपाल का कोई भी निर्णय केवल अध्यक्ष वाली पूर्ण न्यायपीठ द्वारा 2/3 बहुमत से ही लिया जाएगा। यह उपबंध भी किया गया है कि ऐसी कार्यवाही बंद कमरे में की जाएगी। और यदि लोकपाल का यह निर्णय होता है कि ऐसी शिकायत को निरस्त कर दिया जाए, तो ऐसी जांच की रिकॉर्डिंग की प्रकाशित नहीं किया जाएगा और न ही किसी को मुहैया कराया जाएगा। विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए), 2010 के संदर्भ में विदेशी स्रोत से 10 लाख रुपए वार्षिक से अधिक का अनुदान प्राप्त करने वाले सभी संगठन लोकपाल के क्षेत्राधिकार में होंगे।

हालांकि, लोकपाल संसद सदस्य के संसद में या किसी संसदीय समिति में आचरण, कथन, एवं वोट के संदर्भ में जांच नहीं कर सकेगा।

प्राथमिक जांच एवं अन्वेषण: लोकपाल शिकायत प्राप्ति के आधार पर किसी लोक सेवक के विरुद्ध अपनी जांच शाखा या अन्य एजेंसी (इसमें दिल्ली पुलिस विशेष पुलिस दल भी शामिल है) से जांच करवाने के आदेश जारी कर सकता है, यह जानने के लिए कि क्या इस मामले में प्राथमिक जांच एक मामला बनता है।

लोकपाल की शक्तियां: इस अधिनियम के तहत् लोकपाल को पर्यवेक्षण एवं अधीक्षण की शक्ति होगी, और उसके द्वारा दिल्ली विशेष पुलिस शाखा को सौंपे गए मामले के संदर्भ में प्राथमिक जांच या अन्वेषण के निर्देश दे सकता है। लोकपाल को सम्बद्ध दस्तावेज की तलाशी एवं जब्तीकरण के आदेश देने का अधिकार है। कुछ मामलों में लोकपाल के पास सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत दीवानी अदालत के अधिकार भी होंगे। लोकपाल के पास, प्राथमिक जांच एवं अन्वेषण के उद्देश्य के लिए केंद्र या राज्य सरकार के अधिकारियों की सेवा का इस्तेमाल करने का अधिकार भी होगा। संपत्ति को अस्थायी तौर पर नत्थी एवं इसकी पुष्टि करने का अधिकार होगा। लोकपाल को विशेष परिस्थितियों में भ्रष्ट तरीके से कमाई गई संपति, आय, प्राप्तियों या फायदों को जब्त करने का अधिकार होगा। भ्रष्टाचार के आरोप वाले सरकारी कर्मचारी के स्थानांतरण या निलंबन की सिफारिश करने का अधिकार। लोकपाल की शुरुआती जांच के दौरान उपलब्ध रिकॉर्ड को नष्ट होने से बचाने के लिए निर्देश देने का अधिकार होगा। उसे अपना प्रतिनिधि नियुक्त करने का अधिकार होगा।

विशेष अदालत: केंद्र सरकारको भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई के लिए उतनी विशेष अदालतों का गठन करना होगा जितनी लोकपाल बताए। विशेष अदालतों को मामला दायर होने के एक साल के भीतर उसकी सुनवाई पूरी करना सुनिश्चित करना होगा। यदि एक साल में यह सुनवाई पूरी नहीं हो पाती तो विशेष अदालत इसके कारण दर्ज करेगी और सुनवाईतीन महीने में पूरी करनी होगी। यह अवधि तीन-तीन महीने के हिसाब से बढ़ाई जा सकती है, लेकिन कुल दो वर्ष से अधिक समय तक नहीं बढ़ाई जा सकती।

अपदस्थ एवं बर्खास्तगी: भारत के राष्ट्रपति, आदेश द्वारा, कोई पद, अध्यक्ष या किसी सदस्य को हटा सकता है, यदि अध्यक्ष या ऐसा सदस्य, (a) दिवालिया घोषित होता है; या (b) अपने कार्यकाल के दौरान किसी अन्य लाभ के पद पर रहता है; या राष्ट्रपति के विचार में शारीरिक या मानसिक रूप से पदासीन रहने के अक्षम हो गया है। हालांकि अध्यक्ष या किसी सदस्य को राष्ट्रपति के आदेश द्वारा कदाचार के आधार पर भी हटाया जा सकेगा लेकिन ऐसा केवल कम से कम 100 सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित याचिका पर राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से अध्यक्षीय संदर्भ लेने के पश्चात् और इस संदर्भ में यथोचित प्रक्रिया एवं जांच के प्रतिवेदन के पश्चात् ही किया जा सकेगा।

हानि का मूल्यांकन एवं वसूली: यदि कोई लोक सेवक विशेष न्यायालय द्वारा भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम, 1988 के तहत् अपराध में दोषी पाया जाता है, यदि उसके द्वारा लिए गए निर्णय या कार्यवाही सद्इच्छा से नहीं की गई थी और उसके लिए वह दोषी पाया जाता है, तो ऐसे नुकसान की भरपाई दोषी लोक सेवक से करने का आदेश दिया जा सकता है।

लोक सेवक द्वारा घोषित संपत्ति: इस अधिनियम में उपबंध किया गया है कि प्रत्येक लोक सेवक को पद की शपथ लेने की तिथि से तीस दिनों के भीतर अपनी संपत्ति एवं देनदारियों की घोषणा करनी होगी। उसे इसके लिए (a) स्वयं के, उसकी पत्नी और उसके निर्भर बच्चों के नाम संपत्ति, संयुक्त या कई लोगों के स्वामित्व या लाभार्थियों वाली संपत्ति का ब्यौरा; और (b) उसकी एवं उसकी पत्नी एवं बच्चों के दायित्वों का ब्यौरा देना आवश्यक है। इन सूचनाओं के संबंध में घोषणा की सम्बद्ध मंत्रालय या विभाग की वेबसाइट पर प्रकाशित करना होगा। यदि लोक सेवक जानबूझकर या असंगत कारणों से अपनी संपत्ति की घोषणा नहीं करता या इस बारे में गलत जानकारी देता है, तो ऐसी संपत्ति को गलत तरीकों से अर्जित किया हुआ माना जाएगा।

झूठी शिकायत हेतु अभियोजन: यदि कोई झूठी या मनगढ़त शिकायत करता है तो इस अधिनियम के अंतर्गत, दोषी पाए जाने पर, उसे कारावास की सजा, जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और जुर्माना, जिसे 1 लाख रुपए तक बढ़ाया जा सकता है, अधिरोपित किया जाएगा। इस मामले में मात्र विशेष न्यायालय ही अपराध का संज्ञान ले सकता है।

किसी व्यक्ति के, इस अधिनियम के तहत झूठी शिकायत पर, दोषी पाए जाने पर [वह कोई व्यक्ति या सोसायटी या व्यक्तियों का संगठन या ट्रस्ट (चाहे पंजीकृत हो या न हो) हो सकता है।] वह सम्बद्ध लोक सेवक की, जिसके विरुद्ध शिकायत की गई हो, क्षतिपूर्ति के भुगतान हेतु जिम्मेदार होगा, और साथ ही लोक सेवक द्वारा मामले की कानूनी लड़ाई में खर्च धनराशि का भुगतान भी करना होगा, जैसाकि विशेष न्यायालय निर्धारित करेगा।

लोकपाल का प्रतिवेदन: यह लोकपाल का दायित्व होगा कि वह उसके कार्यों का एक वार्षिक प्रतिवेदन राष्ट्रपति के सम्मुख प्रस्तुत करे। राष्ट्रपति इसकी एक प्रति संसद के प्रत्येक सदन में स्पष्टीकरण के ज्ञापन के साथ रखवाएगा यदि लोकपाल की किसी सलाह को स्वीकार नहीं किया गया है।

लोकायुक्त की स्थापना: यह अधिनियम प्रावधान करता है कि प्रत्येक राज्य इस अधिनियम के लागू होने के 365 दिनों के भीतर राज्य विधानमंडल द्वारा कानून के अधिनियमन के जरिए लोकायुक्त संस्था की स्थापना करेगा। इस विधेयक की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

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लोकपाल कानून के लिए प्रयास: भारत में सन् 1963 में सर्वप्रथम राजस्थान प्रशासनिक सुधार समिति ने यह सुझाव दिया था कि लोकपाल जैसी संस्था भारत में भी होनी चाहिए। संसद सदस्य डॉ. एल.एम. सिंघवी ने यह मांग संसद में उठायी तथा प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी अपने जन अभियोग निराकरण की समस्याएं नामक प्रतिवेदन में वर्ष 1966 में यह इंगित किया था कि केंद्रीय स्तर पर लोकपाल तथा राज्य स्तर पर लोकायुक्त संस्थाओं की स्थापना ओम्बुड्समैन प्रणाली के अनुसार की जानी चाहिए। आयोग की सिफारिश के आधार परसबसे पहले 9 मई, 1968 को लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक संसद में प्रस्तुत किया गया जो लोकसभा में पारित हो चुका था लेकिन राज्यसभा में पारित नहीं हो पाया क्योंकि लोकसभा भंग हो गई थी। फिर सन् 1971 में पुनः यह विधेयक प्रस्तुत हुआ किंतु लोकसभा भंग होने के कारण अधर में लटक गया। तीसरी बार यह विधेयक वर्ष 1977 में जनता पार्टी सरकार द्वारा संसद में लाया गया जिसमें प्रधानमंत्री को इसके क्षेत्राधिकार में रखते हुए पूर्ण स्वतंत्रता की बात कही गई थी। चौथी बार लोकपाल विधेयक राजीव गांधी के शासन काल में 26 अगस्त 1985 को लोकसभा में पुनः पेश किया गया था। प्रधानमंत्री को इसके क्षेत्राधिकार से बाहर रखते हुए स्वयं राजीव गांधी की सरकार ने इसे वापस ले लिया था। पांचवीं बार लोकपाल विधेयक वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने संसद के सम्मुख सन् 1990 में प्रस्तुत किया था। इस विधेयक में लोकपाल को सर्वप्रथम एक व्यक्ति की अपेक्षा एक संस्था के रूप में देखते हुए एक अध्यक्ष तथा दो सदस्यों का प्रावधान किया गया था तथा प्रधानमंत्री की इसके कार्यक्षेत्र में सम्मिलित किया गया था किंतु यह सरकार भी समय से पूर्व ही सत्ता से दूर हो गई तथा लोकपाल विधेयक पूर्व की भांति पारित न हो पाया। सन् 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा और सन् 1998 में वाजपेयी सरकार द्वारा भी लोकपाल विधेयक लोकसभा में पेश किया गया था किंतु लोकसभा भंग होने के कारण विधेयक पारित न हो सका। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाते हुए एक नया विधेयक 14 अगस्त, 2001 को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। इस विधेयक पर भी विचार नहीं किया जा सका तथा 6 फरवरी, 2004 को 13वीं लोकसभा समय से पूर्व भंग हो गई। संसद में आठ बार पेश हो चुका लोकपाल विधेयक सदैव ही विवाद एवं बदकिस्मती का शिकार रहा।

विश्लेषण: इसके लिए संसद में लंबित दो विधेयकों को भी जल्दी पारित करना होगा। साथ ही जिन राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति नहीं हुई है, उन्हें भी करनी होगी। लोकपाल में इसके लिए एक साल की समय सीमा रखी गई है। जो दो बिल संसद में लंबित हैं, उनमें से एक है सिटिजन चार्टर ने 21 फरवरी, 2014 को पारित कर दिया जिससे यह अधिनियम बन गया है और यह लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम को सशक्त करेगा। सिटिजन चार्टर बिल में सरकारी सेवाओं को प्रदान करने के लिए एक निश्चित समय सीमा तय होगी। दूसरे, सेवाओं से जुड़ी शिकायतों का निपटान भी एक निश्चित समय के भीतर करना होगा। यह बिल आरटीआई की तर्ज पर है। अन्ना हजारे की मांग इसे लोकपाल के साथ ही जोड़े जाने की थी। व्हिसिल ब्लोअर बिल में शिकायत का भंडाफोड़ करने वालों की संरक्षण देने का प्रावधान है। हालांकि अभी यह प्रावधान सिर्फ सरकारी कार्मिकों के लिए है।

लोकपाल कानून के दायरे में प्रधानमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं। सांसदों को भी इसमें जनसेवक माना गया है। अभी तक संसद और अदालतें यह तय नहीं कर पाई थीं कि सांसद जनसेवक हैं या नहीं। घोटालों में कई मर्तबा यह देखा गया है कि कई शीर्ष अधिकारी सिर्फ इसलिए फंस जाते हैं, क्योंकि वे अपने मंत्री के कहे अनुसार निर्णय करते हैं। इसी प्रकार बड़े अधिकारियों के नीचे कार्य करने वाले छोटे अधिकारी इसलिए फंस जाते हैं, क्योंकि उनके बड़े अधिकारी उन्हें फाइलों में गलत टिप्पणी लिखने को कहते हैं, लेकिन अब जब एक ऐसी संस्था बनेगी, जो मंत्री क्या पीएम के खिलाफ भी कार्रवाई करने में सक्षम हो तो ऐसे में अधिकारियों को अपनी चिंता रहेगी। उन्हें लगेगा कि मंत्री खुद को नहीं बचा सकते तो उन्हें क्या बचाएंगे। सचिव अपने मंत्रियों को और छोटे अफसर बड़े अफसरों को गलत कार्य के लिए ना कहना सीखेंगे। उन्हें याद रखना होगा कि जिस फाइल पर वे आज हस्ताक्षर कर रहे हैं, कल वह लोकपाल की टेबल तक पहुंच सकती है।

भारत एक विशाल देश है, लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से को आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क,बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं मयस्सर नहीं हैं। कारण साफ है कि भारी-भरकम रक्षा बजट के बाद जो राशि सरकार के खजाने में बचती है, वह विकास कार्य पर खर्च की जाती है, लेकिन आज भी सामाजिक योजनाओं पर खर्च होने वाली राशि का 60-70 प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री रहते हुए एक बार कहा था कि रुपये में से 15 पैसे ही विकास पर खर्च होते हैं। आज स्थितियां सुधरने के बावजूद 30-40 पैसे ही लोगों तक पहुंच रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि एक तो बजट कम है और जो है, वह भी विकास पर खर्च नहीं होता। यदि भ्रष्टाचार खत्म हो तो विकास के लिए आवंटित राशि का पूर्ण इस्तेमाल होगा और बुनियादी सुविधाएं बढ़ाने में मदद मिलेगी।

आज भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतों की जाँच के लिए मजबूत तंत्र की कमी है। पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधी शाखाएं ज्यादातर संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं और छोटे-मोटे मामलों में ही वे कार्रवाई कर पाती हैं। उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते रहते हैं। दूसरे सीबीआई राजनितिक मुकदमों में उलझी रहती है तथा उसकी विश्वसनीयता दांव पर है। स्थिति यह है कि सीबीआई द्वारा लोगों को एसएमएस भेज कर भ्रष्टाचार की शिकायत देने के लिए अपील करनी पड़ती है, फिर भी उसे शिकायतकर्ता नहीं मिलते। सरकारी कार्मिकों के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ही एक विकल्प है। लेकिन सीवीसी भी बड़े पैमाने पर शिकायतों के निपटारे में विफल रहा है। उसकी दूसरी असफलता यह रही है कि वह बड़ी मछलियां पर हाथ नहीं डाल पाया। इसलिए लोकपाल के रूप में आम लोगों की शिकायत के लिए एक प्रभावी एवं निष्पक्ष मंच मिलेगा।

राज्यसभा में जब विधेयक पारित हो रहा था तो समाजवादी पार्टी ने यह मुद्दा उठाया था कि लोकपाल के डर से अधिकारियों में निर्णय लेने को लेकर डर पैदा होगा। इसका नतीजा यह होगा कि रक्षा सौदे लटकते रहेंगे। परियोजनाओं के टेंडर लटकते रहेंगे। इससे उनकी लागत में बढ़ोत्तरी होती रहेगी और राजस्व की भारी क्षति होगी। यह तो आज भी हो रहा है। रक्षा सौदों या अन्य बड़ी परियोजनाओं की कीमतें देरी के कारण कई गुना बढ़ जाती हैं। इसकी कई वजहें हैं। सौदों एवं बड़ी परियोजनाओं को भ्रष्ट तरीकों से हथियाने के लिए कई लॉबियां सक्रिय रहती हैं। जो लॉबी विफल रहती है, वह शिकायत कर जांच बिठा देती है। जांच चलती रहती है और सौदे में विलंब होता है। यदि शुरू से ही स्पष्ट हो जाए कि पूरी प्रक्रिया निष्पक्ष रहनी है तो न ऐसी लॉबियां काम कर पाएंगी और न ही अधिकारी निर्णय लेने में हिचकेंगे। सही निर्णय लेने में किसी अधिकारी को किस बात का डर होगा ! डर तो गलत फेसले लेने में होना चाहिए।

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