मौर्य शासक Mauryan Emperor

मौयों की उत्पति- इनकी उत्पति के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। बौद्ध ग्रन्थों में मौर्य को क्षत्रिय माना गया है। महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार वे पिप्लीवन के क्षत्रिय थे। जैन ग्रन्थ में मौयों को न उच्च कुल और न निम्न कुल का माना गया है बल्कि कहा गया है कि मौर्य एक गाँव के मुखिया के वंशज थे जो मोर पालते थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में मौर्यों को शूद्र माना गया है। मुद्राराक्षस में मौर्यों को शूद्र माना गया है।

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इसमें चन्द्रगुप्त को नन्द वंशीय (नन्दान्वय) कहा गया है। विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त को मौर्य-पुत्र भी कहा हैं, उसने चन्द्रगुप्त के लिए वृषल शब्द का प्रयोग किया है, जो शूद्रों के लिए प्रयुक्त होता था। मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त को कुतहीन कहा गया है। मुद्राराक्षस के टीकाकार ढुण्दिराज ने भी मौयों को शूद्र बतलाया है। किन्तु मुद्राराक्षस के आधार पर हम चन्द्रगुप्त को शूद्र नहीं मान सकते। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुद्राराक्षस मूलतया एक साहित्यिक रचना है, एक साहित्यकार की अपनी मान्यताएँ और अपने पूर्वाग्रह होते हैं। इसी प्रकार कथा सरित्सागर तथा वृहत्कथा मंजरी के आधार पर भी मौयों को शूद्र कहा गया है। ये दोनों ही रचनाएँ ग्यारहवीं शताब्दी की हैं और मुख्यतया मुद्राराक्षस पर आधारित हैं। प्रो. सी.डी. चटर्जी के अनुसार वृहत्कथा में कहीं पर भी मौयों को शूद्र नहीं कहा गया है। तत्कालीन यूनानी और रोमन लेखकों की रचनाओं में भी चन्द्रगुप्त को शूद्रवंशीय नहीं माना गया है।

अनेक भारतीय साक्ष्य भी मौयों को शूद्र नहीं मानते। बौद्ध ग्रन्थ महावंश में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि चन्द्रगुप्त का जन्म मोरिय क्षत्रिय वंश में हुआ था। मोरिय का ही संस्कृत रूप मौर्य है। महापरिनिब्बान सुत्त के अनुसार मौर्य वंश पिप्पलिवंन के गणराज्य में शासन करता था। महापरिनिब्बानसुत्त के अनुसार मौयों ने गौतम बुद्ध के निधन पर भल्लो के पास (जिनके नगर में बुद्ध का देहावसान हुआ था) यह सन्देश भेजा कि- बुद्ध जी क्षत्रिय थे, हम भी क्षत्रिय हैं। अतएव हमें भी उनकी अस्थि-अवशेष का एक अंश मिलना चाहिए। क अन्य बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में मौयों को क्षत्रिय कहा गया है। इस ग्रन्थ में एक स्थल पर अशोक अपनी पत्नी तिष्यरक्षिता से कहता है, हो देवि मैं क्षत्रिय हूँ। मैं प्याज कैसे खा सकता हूँ देवि अह क्षत्रिय : कथन लाण्डुम महयामि। महाबोधिवश में चन्द्रगुप्त को नरिन्दकुल सम्भव (राजवंश में जन्मा) कहा गया है। इस राजवंश का सम्बंध मोरिय नगर से बताया जाता है जिसे शाम्य वंशजों ने बसाया था। महावंश की टीका तथा कुछ अन्य उत्तरकालीन बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार मौर्य लोग शाक्यों की शाखा थे। –

बौद्ध ग्रन्थों की भाँति जैन ग्रन्थ भी मौयों को क्षत्रिय मानते हैं। हेमचन्द्र द्वारा प्रणीत परिशिष्टपरवन् नामक जैन ग्रन्थ में मौर्यों का मोर पक्षियों के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया है। इसके अनुसार चन्द्रगुप्त राजा नन्द के एक गाँव के मयूरपोषकों के प्रधान की कन्या का पुत्र था। इसी से चन्द्रगुप्त तथा उसके वंशज मौर्य वंश से सम्बन्धित बताए गए हैं। अन्य जैन कृतियों में नन्दों को शूद्रवंशीय और मौयों को अभिजात क्षत्रिय वंशीय कहा गया है। एरियन ने भी इस प्रसंग में कहा है कि पाटलिपुत्र में मोर पक्षी रखे जाते थे। कर्टियस, डियोडोरस तथा प्लुटार्क आदि यूनानी लेखकों ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं। केवल जस्टिन ने यह बतलाया है कि चन्द्रगुप्त साधारण कुल में उत्पन्न हुआ था। ब्राह्य ग्रन्थों में भी मोरिय नामक एक गण का उल्लेख है। राजपूतान गजेरियट में मौयों को राजपूत कहा गया है। कर्नल टाड ने भी इस कथन का समर्थन किया है। अभिलेखीय साक्ष्य भी मौयों को क्षत्रिय मानते हैं। अंत में डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी के शब्दों में कह सकते हैं, मध्यकालीन अभिलेखों में अनुश्रुति, मौर्यवंश को जिसमें वह जन्मा था को सूर्यवंशीय क्षत्रिय कहा गया है। इस प्रकार साहित्यिक, वेदेशिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मौर्य वंश के शासक क्षत्रिय थे।

चन्द्रगुप्त मौर्य

चन्द्रगुप्त जीवन-वृत्त- चन्द्रगुप्त के बारे में ऐतिहासिक स्रोतों से बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती। बौद्ध साहित्य एवं पौराणिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चाणक्य ने नन्दवश का विनाश किया तथा चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट् बनाया। वायुपुराण में विवरण मिलता है कि- ब्राह्मण कौटिल्य नन्दों का नाश करेगा। इसी प्रकार के विवेचन भागवत, मत्स्य, ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में मिलते हैं। अर्थशास्त्र, मुद्राराक्षस, कथासरित्सागर, वृहत्कथामजरी, कामन्दकनीतिसार आदि से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। परिशिष्टपर्व में उल्लेख आया है कि चाणक्य अपने प्रथम आक्रमण में असफल रहा। अत: पहले सीमा प्रान्त को अधिकार में करना उचित समझा और फिर मगध पर आक्रमण किया एवं नवें घनानन्द का नाश कर क्षत्रिय मौर्य (खतिय-मोरिय) चन्द्रगुप्त को सकल जम्बुद्वीप का राजा बनाया। नन्दवंश के उन्मूलन की प्रक्रिया में चाणक्य ने चार बातों के महत्त्व को भली भांति समझा था- जनमत, धन, सेना एवं राजकीय मैत्री। मुकर्जी ने उल्लेख किया है कि नन्दों के विरुद्ध कार्यवाही से जनमत को अपने पक्ष में कर लेना कोई आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। महावंश टीका में वर्णन मिलता है कि विन्ध्य पर्वत के वनों में जाकर चाणक्य ने धन एकत्र करना प्रारम्भ किया और प्रत्येक कार्षापण के आठ कार्षापण बनाकर उसने 80 करोड़ कार्षापण एकत्र किये। परिशिष्टपर्व से भी जानकारी मिलती है कि चाणक्य ने गुप्त धन की सहायता से सेना एकत्र की।


जैसा कि जस्टिन का मानना है कि सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् भारत ने पराधीनता के जुए को अपने कंधे से उतार फेंका और उसके द्वारा नियुक्त शासक की हत्या कर दी। इस स्वतंत्रता का संस्थापक सेंड्रोकोट्स था। चंद्रगुप्त ने पहले पंजाब तथा सिंध को ही विदेशियों की दासता से मुक्त किया। इस कार्य के लिए उसने विशाल सेना का संगठन किया। सैनिक अर्थशास्त्र के अनुसार इस सेना में सैनिक निम्न वर्गों से लिए गए थे यथा, मलेच्छ, चोरगण, आटविक, शस्त्रोपजीवी अंग। 324 ई.पू. के लगभग यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या कर दी गई। जस्टिन यह मानता है कि चंद्रगुप्त ने छः लाख सेना की सहायता से जंबूद्वीप को रौद डाला। जस्टिन मानता है कि चन्द्रगुप्त को पंजाब के अराजक गणतंत्रों का सहयोग भी प्राप्त हुआ। इस क्षेत्र के लोग बहुत बड़ी संख्या में उसकी सेना में भतीं होने लगे। भारतीय ग्रन्थों में इन अराजक गणतंत्रों को अराष्ट्रक कहा गया है। चन्द्रगुप्त ने एक मिली-जुली सेना तैयार की। मुद्राराक्षस नाटक के अनुसार इसमें शक, यवन, किरात, कम्बोज, पार्सिक और बाहुलिक आदि जातियों के सैनिक शामिल थे। मुद्राराक्षस तथा परिशिष्टपर्व से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त को पर्वतक नामक एक हिमालय क्षेत्र के शासक से सहायता मिली थी।

305 ई.पू. में सिंधु नदी के किनारे ग्रीक क्षत्रप सेल्यूकस निकेटर और चन्द्रगुप्त के बीच युद्ध हुआ। अधिकतर ग्रीक इतिहासकार इसके बारे में मौन हैं। और चन्द्रगुप्त के बीच संधि हुई और दोनों के बीच वैवाहिक संबंध कायम हुए। सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को एरियाना का क्षेत्र दिया। इसमें एरिया (हेरात), अरकोसिया (कधार), परिप्रेमिसदई (काबुल) तथा जेड्रोसिया (ब्लुचिस्तान) शामिल हैं। बदले में चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी दिए। इसलिए ऐसा अनुमान किया जाता है कि संभवत: इस युद्ध में सेल्यूकस की हार हुई। प्लुटार्क के अनुसार सेल्यूकस पर चन्द्रगुप्त की जीत के उपरान्त उसने छः लाख की सेना की मदद से भारत को जीता। तमिल कथानकों में भी मौर्यों की विजय का उल्लेख है। माना जाता है कि स्थानीय जातियाँ जिन्हें कोशर और वातकर कहा गया है, ने मौयों की सहायता की थी। स्मिथ का मानना है कि बिंदुसार ने दक्षिण पर विजय प्राप्त की। लामा तारानाथ भी कहता है कि दो समुद्रों के बीच की भूमि बिंदुसार ने जीती। किन्तु स्वीकृत मत है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण तक अपने राज्य का विस्तार किया। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलख से यह ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत को जीता क्योंकि वहाँ उसने पुष्यगुप्त नामक गर्वनर को नियुक्त किया था। इसी पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण कराया। माना जाता है कि जब मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो वह अपने पुत्र सिंहसेन के पक्ष में सिंहासन त्यागकर भद्रबाहु के साथ श्रवणबलगोला में तपस्या करने गया। माना जाता है कि 299 ई.पू. के आस-पास उसकी मृत्यु हो गई। चंद्रगुप्त द्वारा श्रवणबलगोला में शरीर परित्याग की जानकारी हमें निम्न स्त्रोतों से मिलती है- बृहत्कथाकोष, रहिननंदी का भद्रबाहु चरित, कन्नड़रचना मुनिवशाभ्युदय तथा राजवली। दक्षिण पर मौर्य आक्रमण का उल्लेख तमिल साहित्य में मिलता है। वृहत् कथाकोश अहनानुरू में तीन स्थल पर और एक स्थल पर पुर्णानुरू में इसका उल्लेख हुआ है। इनमें कहा गया है कि मोहर के राजा का दमन करने के लिए मोरिय ने अपने रथों, घोड़ों और हाथियों की सेना के द्वारा इन क्षेत्रों पर विजय की। मामुलनार नामक संगम कवि नंद राजाओं की संचित कोष की चर्चा करता है।

साम्राज्य का विस्तार- उत्तरी-पश्चिमी भाग में चन्द्रगुप्त के साम्राज्य की सीमायें हिन्दुकुश एवं वर्तमान फारस की सरहद तक पहुँच गई थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में एक सुनियोजित रूप में अपने साम्राज्य का विस्तार किया। सर्वप्रथम कदाचित उसने झेलम तक का पूर्वी पंजाब जीता, उसके उपरान्त शेष पंजाब और सिन्ध प्रदेश। राजतरंगिणी से प्रकट होता है कि कश्मीर पर अशोक का आधिपत्य था। संभवत: कश्मीर चन्द्रगुप्त के समय से ही मौर्य साम्राज्य का अंग था। पश्चिमी भारत पर आधिपत्य हो जाने के बाद उसने मगध पर आधिपत्य स्थापित किया जिससे मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत पूरब में गंगा-डेल्टा से लेकर पश्चिम में व्यास नदी तक का सम्पूर्ण प्रदेश सम्मिलित हो गया। कालान्तर में चन्द्रगुप्त एवं सेल्यूकस के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में चन्द्रगुप्त की विजय हुई और उसके परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त को परिपेमिदई, अरकोसिया, जेड्रोसिया और एरिया के प्रदेश प्राप्त हुए। मुद्राराक्षस के एक श्लोक से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त का साम्राज्य समुद्रपर्यन्त था। जहाँ तक पश्चिमी भारत का प्रश्न है, वह निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त के अधीन था। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलख से इस तथ्य की पुष्टि होती है।

चन्द्रगुप्त के साम्राज्य विस्तार का विवेचन करते हुए स्मिथ ने लिखा है कि उसके साम्राज्य में आधुनिक अफगानिस्तान, हिन्दूकुश घाटी, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, काठियावाड़ एवं नर्मदा पार के प्रदेश सम्मिलित थे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यह आम धारणा है कि मौयाँ का मगध साम्राज्य एक केन्द्रीकृत नौकरशाही साम्राज्य था। इस तरह के साम्राज्य सैन्य बल और व्यक्तिगत पराक्रम की सहायता से निर्मित होते हैं। कहा गया है कि ऐसे साम्राज्य निर्माण के पीछे अक्सर लोगों का असन्तोष, विक्षोभ और विरोध होता था। साम्राज्य के संस्थापक लोगों को शान्ति और व्यवस्था का आश्वासन देते थे। इस प्रकार के साम्राज्य के दुश्मनों की संख्या पर्याप्त होती थी, क्योंकि साम्राज्य की स्थापना में कुछ लोगों को बलपूर्वक हटाया जाता था और परम्परा से आ रही कुछ मान्यताएँ टूटती थीं। नये राज्य क्षेत्रों में विस्तार नीति के कारण शत्रुता पैदा होती थी। इसलिए शासक वैवाहिक और कूटनीतिक गतिविधियों की सहायता से अपने मित्र बनाते थे। इसके अतिरिक्त साम्राज्यों के निर्माण में आर्थिक संसाधनों को प्राप्त करके उपयोग में लाना आवश्यक होता था और मानव शक्ति की बहुलता भी साम्राज्य निर्माण में सहायक सिद्ध होती थी।

प्राचीन संस्कृत साहित्य में सम्राट् को चक्रवतीं और उसके राज्य क्षेत्र को चक्रवतीं क्षेत्र कहा गया है। रायचौधरी की मान्यता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत की एकता तो स्थापित कर दी, किन्तु उसने अपने साम्राज्य की सीमाओं से परे लोलुप दृष्टि से

नहीं देखा। एरियन का एक कथन है (जिसका आधार मेगस्थनीज का विवरण प्रतीत होता है।) कि- न्याय की भावना भारतीय राजाओं के परे विजय करने से रोकती है। इस वाक्य में सूत्र रूप में मौयों की वैदेशिक नीति का निरूपण हो जाता है। उसका निर्माण वश के संस्थापक ने किया था और उसके वंशजों ने उसका अक्षरश: पालन भी किया था।

चन्द्रगुप्त की विजयों के कारण भारत के बाहर के देशों से सम्बन्ध घनिष्ट हुए, विशेषकर यूनानी पश्चिम से तो यह सम्बन्ध और भी दृढ़ हुआ। सम्भवतः सेल्यूकस परिवार की एक महिला प्रसिआई राजा के महल में आयी थी और एक यूनानी राजदूत उसके राजदरबार की शोभा बढ़ाता था। अनुकूल उत्तर इधर से भी मिला था। फाइलार्क्स के प्रमाण पर एथेनियस बतलाता है कि भारतीय राजा ने सेल्यूकस को कुछ उपहार भेजे थे, जिनमें एक शक्तिशाली बाजीगर भी था। पाटलिपुत्र के महानगर में बहुत से यूनानी थे। उनकी सुख-सुविधा और रक्षा के लिए नगर से अधिकारियों की एक विशेष परिषद् भी गठित की गई थी। उनकी न्यायिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विशेष व्यवस्था की गई थी।

चाणक्य- मौर्य साम्राज्य के उद्भव एवं विकास में चाणक्य, जिसे कौटिल्य भी कहा जाता है, का महत्त्वपूर्ण योगदान था। महावंश टीका में उल्लेख मिलता है कि चाणक्य (चाणक्) तक्षशिला निवासी एक ब्राह्मण का पुत्र था। बाल्यकाल में ही उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। उसकी माता ने ही उसका पालन किया। चाणक्य ने तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक की लम्बी यात्रा ज्ञान की खोज में तथा साम्राज्य की राजधानी के शास्त्रार्थों में भाग लेने के उद्देश्य से की थी। कुछ विद्वानों ने चाणक्य को पाटलिपुत्र का ही निवासी बताया है। कहा जाता है कि पुष्पपुर में नन्दराज ने एक भुक्तिशाला बनवाई थी जिसमें ब्राह्मणों को दान दिया जाता था। चाणक्य भी वहाँ पहुँचा तथा प्रमुख ब्राह्मण के आसन पर बैठ गया। नन्दराज प्रमुख ब्राह्मण के आसन पर एक कुरूप ब्राह्मण को देखकर क्रुद्ध हुआ एवं उसे आसन से उठा दिया। चाणक्य इस अपमान को सहन नहीं कर सका तथा नन्दवंश के विनाश की प्रतिज्ञा लेकर वहाँ से प्रस्थान कर गया। मुद्राराक्षस में कहा गया है कि राजा नन्द ने भरे दरबार में चाणक्य को उसके उस सम्मानित पद से हटा दिया जो उसे दरबार में दिया गया था। इस पर चाणक्य ने शपथ ली कि- वह उसके परिवार तथा वंश को निर्मूल करके नन्द से बदला लेगा। भ्रमण के दौरान उसकी चन्द्रगुप्त से भेंट हुई। बृहत्कथाकोश के अनुसार उसकी पत्नी का नाम यशोमती था। चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य के उद्देश्य समान थे। अत: उन्होंने नन्दवंश के उन्मूलन की योजना बनाई।

बिन्दुसार

ई.पू. 298 में चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार मौर्य साम्राज्य का सम्राट् बना। यूनानी लेखकों ने उसे अमित्रचेत्स नाम से अभिहित किया है।

विद्वानों की मान्यता है कि अमित्रचेत्स का संस्कृत रूप अमित्रघात है जिसका अभिप्राय है शत्रुओं का वध करने वाला। संभवत: वह एक युद्धप्रिय शासक था। बहुत संभव है कि जिस वृहत् साम्राज्य का उत्तराधिकार उसे प्राप्त हुआ था। उसकी रक्षा करने के लिए कई युद्ध करने पड़े हों। आर्यमजुश्रीमूलकल्प एवं तारानाथ के अनुसार चाणक्य बिन्दुसार के काल में भी कुछ वर्षों तक मंत्रीपद पर आसीन रहे। तारानाथ ने लिखा है कि चाणक्य ने 16 राज्यों के राजाओं का एवं सामन्तों का विनाश किया एवं बिन्दुसार को पूर्वी समुद्र से पश्चिम समुद्र पर्यन्त भू-भाग का स्वामी बनाया। संभवत: चन्द्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् कुछ राज्यों में मौर्य सत्ता के विरुद्ध विद्रोह हुए होंगे एवं चाणक्य ने उनका दमन किया होगा। उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला में विद्रोह होने का उल्लेख दिव्यावदान में मिलता है। इस विद्रोह को शान्त करने के लिए बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को भेजा था। कहा गया है कि राज्य के दुष्ट अमात्यों के अत्याचारों एवं अन्यायपूर्ण शासन से पीड़ित होकर तक्षशिला प्रान्त के अधिवासियों ने विद्रोह कर दिया। जब अशोक तक्षशिला पहुँचा तो उन लोगों ने निवेदन किया कि न तो हम राजकुमार के विरुद्ध हैं और न राजा बिन्दुसार के, परन्तु दुष्ट अमात्य हमारा अपमान करते हैं। तक्षशिला में शांति-स्थापना के पश्चात् उसने स्वश राज्य में प्रवेश किया। स्वश संभवत: नेपाल के निकट प्रदेश को कहा जाता होगा। तारानाथ के अनुसार खस्या एवं नेपाल के लोगों ने विद्रोह किया और अशोक ने इन प्रदेशों को विजित किया था। बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली एक मंत्रीपरिषद् थी और इसका प्रधान खल्लटक था।

एशिया की यूनानी शक्तियों के साथ बिन्दुसार ने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखा। स्ट्रेबो के अनुसार सेल्यूकस के उत्तराधिकारी एण्टियोकस प्रथम ने डायमेकस को बिन्दुसार के दरबार में अपना राजदूत बनाकर भेजा। प्लिनी ने उल्लेख किया है कि मिस्र के सम्राट् टॉलमी द्वितीय फिलडल्फ़स ने अपना एक राजदूत डायोनिसस को बिन्दुसार के दरबार में नियुक्त किया। एथनियस के अनुसार बिन्दुसार ने अतियोक (एण्टियोकस) सीरिया शासक के पास एक सन्देश भेजकर मीठी अंगूरी शराब, कुछ अंजीर तथा एक विद्वान् दार्शनिक (सॉफिस्ट) भेजने के लिए लिखा था। प्रत्युत्तर में सीरिया के यवन नरेश ने शराब और अंजीर भेजकर यह अवगत करवाया कि अपने देश के विधान के अनुसार किसी भी मूल्य पर विद्वान् को क्रय कर भेजने पर प्रतिबन्ध है। दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि आजीवक और परिव्राजक, बिन्दुसार की सभा को शोभित करते थे। इस ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि बिन्दुसार के शासन-कार्य में सहयोग हेतु 500 सदस्यों की एक सभा थी। चाणक्य के बाद महामंत्री के पद पर खल्लाटक एवं राधागुप्त नियुक्त हुए।

कुछ विद्वानों के अनुसार बिन्दुसार के शासन काल में दो बार विद्रोह हुए जिनका उल्लेख दिव्यावदान में मिलता है। बिन्दुसार की मृत्यु के समय अशोक तक्षशिला में उत्तरापथ का राज्यपाल था। तक्षशिला में विद्रोह को दबाने के लिए अपने बड़े भाई सुसीम की जगह उसे भेजा गया था क्योंकि सुसीम असफल रहा था। अशोक को बिन्दुसार के प्रधानमंत्री राधागुप्त का समर्थन प्राप्त था। जब राजसिंहासन खाली हुआ तो उसने राधागुप्त की सहायता से उस पर अधिकार कर लिया। पुराणों के अनुसार उसने 24 वर्ष शासन किया। किन्तु महावंश में कहा गया है कि बिन्दुसार ने 27 वर्ष राज्य किया। आर.के. मुकर्जी ने बिन्दुसार की मृत्यु तिथि ई.पू. 272 निर्धारित की है।

सम्राट् अशोक

बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् पाटलिपुत्र के सिंहासन पर उस महान् सम्राट् का पदार्पण होता है जो भारत तो क्या विश्व इतिहास में अपना प्रमुख स्थान रखता है। भारतीय इतिहास में ईसा से पहले की पाँच शताब्दियों में जिन प्रमुख व्यक्तियों ने देश की गतिविधि और परिवर्तन की विविध धाराओं को सबसे अधिक प्रभावित किया, उसमें अशोक का एक विशिष्ट स्थान है। किसी को वह ऐसा विजेता दिखाई देता है जिसने विजय के दुष्परिणामों को देखकर उसे त्याग दिया। किसी को यह संत दिखाई देता है। किसी को वह सन्यासी व सम्राट् का मिश्रण दिखाई देता है। कोई उसे महान् राजनीतिज्ञ मानता है जिसमें मनुष्य को परखने की निराली शक्ति थी। इसके अतिरिक्त उसे अन्य अनगिनित रूपों में चित्रित किया गया है।

भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में अशोक के प्रारम्भिक जीवन के विषय में अलग-अलग विवेचन मिलते हैं। दिव्यावदान में चम्पा के ब्राह्मण की लड़की सुभद्रांगी को अशोक की माँ कहा गया है जो चम्पा के एक ब्राह्मण की रूपवती कन्या थी। एक राजकीय षड्यंत्र की वजह से उसे राजा से अलग रखा गया एवं अंत में राजा से मुलाकात होने पर जब उसने एक पुत्र को जन्म दिया तो उसके मुँह से निकला, अब मैं दु:खों से मुक्त हूँ, अर्थात् अशोक। जब उसने दूसरे लड़के को जन्म दिया तो उसे वीताशोक अर्थात्- दु:ख का अन्त नाम दिया गया। अशोक देखने में सुन्दर नहीं था। अत: बिन्दुसार उसे पसन्द नहीं करता था। परन्तु उसके अन्य गुणों से प्रभावित होकर अवन्ति का राज्यपाल (राष्ट्रिक) नियुक्त किया। संभवतः तक्षशिला में उसकी नियुक्ति उज्जैन में पदस्थापन से पूर्व हुई। अशोक के उज्जैन में राज्यपाल होने के बारे में महावंश से जानकारी मिलती है। यह ग्रन्थ हमें उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में अन्य जानकारी भी देता है। विदिशा नगरी में उसका प्रेम एक श्रेष्ठी कन्या के साथ हुआ जिसका नाम देवी था। उसके साथ विवाह से महिन्द्र (महेन्द्र) एवं संघमित्रा (संघमित्र) का जन्म हुआ, जिन्होंने लंका में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ भेजे गये शिष्टमण्डल का नेतृत्व किया। नीलकान्त शास्त्री के अनुसार है- संभव है अशोक ने सांची में स्तूप का निर्माण और संघाराम की स्थापना रूपवती देवी के जन्म स्थान के साथ अपनी मधुर स्मृतियों को सुरक्षित करने के लिए ही की हो।

सुसीम को बिन्दुसार अधिक स्नेह करता था एवं उसे उत्तराधिकारी बनाना चाहता था, अर्थात् अशोक युवराज नहीं था। अत: राज्य प्राप्ति के लिए राजकुमारों में संघर्ष हुआ। दिव्यावदान में जानकारी मिलती है कि बिन्दुसार ने मरते समय अपने बेटे सुसीम को राजा बनाने की इच्छा व्यक्त की परन्तु मंत्रियों ने अशोक को राजा बनाया। अशोक को बिन्दुसार के मंत्री राधागुप्त का समर्थन प्राप्त हुआ। महावंश के अनुसार अशोक ने अपने बड़े भाई का वध करवाया। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र 99 भाइयों के कत्ल का उल्लेख मिलता है। दीपवंश से भी इसकी पुष्टि होती है। तारानाथ छह भाइयों का वध कर अशोक के शासक बनने का उल्लेख करते हैं। ग्रन्थों में उसके भाई के कई नाम मिलते है। जैसे वीताशोक, विगताशोक, सुदत्त व सुगत्र। महावंश ने यह भी विवरण दिया है कि तिस्स ने महाधम्मरक्खित नामक भिक्षु प्रचारक के प्रभाव में आकर धार्मिक जीवन अपना लिया। तारानाथ ने उल्लेख किया है कि अशोक ने अनेक वर्षों तक विलासमय जीवन बिताया। अत: उसे कामाशोक कहा जाने लगा। स्तम्भ प्रज्ञापन सात में अशोक कहता है, मैंने कुछ अफसर नियुक्त किये हैं जो मेरे अन्त:पुर के परिजनों को दान देने के लिए प्रेरित करेंगे और उस दान की उचित व्यवस्था करेंगे। अब यह देखिये कि वह इस प्रसंग में अपने परिवार के किन सदस्यों की चर्चा करता है। सबसे पहले तो वह अपना और अपनी रानियों का उल्लेख करता है। पर रानियों के तुरन्त बाद वह अपने अवरोधन का जिक्र करता है और कहता है कि अवरोधन के सदस्य सिर्फ राजधानी में नहीं रहते हैं बल्कि प्रान्तों में भी रहते हैं। तब उसके अवरोधन में रानियों के अलावा नीचे दर्जे की स्त्रियाँ भी हुई।

आखेट उसे बौद्ध होने से पूर्व अत्यन्त प्रिय था और वह मोर का माँस विशेष पसन्द करता था। मध्यदेश वालों को मोर का माँस पसन्द है। पर और लोग इससे घृणा करते हैं इसलिए यदि अशोक जो मध्यदेश का निवासी था, बहुत दिनों तक मोर का माँस खाना नहीं छोड़ सका तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बौद्ध ग्रन्थों में विवरण मिलता है कि अन्त:पुर की स्त्रियों ने उसे कुरूप बताया। परिणामस्वरूप उसने सभी पाँच सौ स्त्रियों को जिंदा जलवा दिया। इस पर उसका नाम चण्डाशोक (निर्दयी अशोक) पड़ा। उसने कुछ व्यक्तियों को तैनात कर दिया था, जिनका कार्य निश्चित स्थान पर निर्दोष लोगों को पकड़ कर भयंकर यातनाएँ देना था। फाहियान (फाह्यान) ने लिखा है कि- अशोक ने स्वयं इन नारकीय स्थानों का निरीक्षण किया और यातना की विधियों का अध्ययन किया। ह्वेनसांग ने अश्क के नरक का स्तम्भ देखे जाने का उल्लेख किया है।

पुराणों में अशोक को अशोकवर्धन कहा गया है। शासक बनने से पूर्व अशोक उज्जैन का गवर्नर था। मास्की तथा गुर्जरा के अभिलेख में उसका नाम अशोक मिलता है। मास्की और गुर्जरा के अतिरिक्त अशोक के नाम का उल्लेख उद्गोलन और निट्टर के अभिलेखों में भी मिलता है। अपने सिंहसनारोहण के 8वें वर्ष में कलिंग युद्ध किया। अर्थात् 261 ई.पू. में अशोक ने कलिंग पर विजय की। 13वें शिलालेख में सीरिया के राजा एंटियोकस द्वितीय को पडोसी राज्य माना गया है। 13वें शिलालेख में निम्न पड़ोसियों की चर्चा की गई है सीरिया के राजा एन्टियोकस द्वितीय, मिस्र का राजा टॉलेमी द्वितीय, मकदूनिया का राजा एन्टिगोनस गोनाट्स और सीरीन का राजा मगस और एपिरस का अलेक्जेंडर। राजतरंगिणी में अशोक को मौर्य साम्राज्य का प्रथम सम्राट् माना गया है। ह्वेनसांग के अनुसार अशोक ने ही श्रीनगर की स्थापना की। बौद्ध परम्परा के अनुसार अशोक ने नेपाल की यात्रा की और वहाँ ललितपाटन नामक नगर बसाया। अशोक के अभिलेखों में उसके दक्षिण के पड़ोसियों की चर्चा है। दक्षिण में चोल, पांड्य, केरलपुत्र और सतियपुत्र का उल्लेख है। उ. प्र. के कंबोजों और यवनों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त प. भारत एवं दक्कन में पिटनिकों, आध्रों, पुलिंदों आदि का उल्लेख मिलता है। विजय से हासिल राज्य को विजित क्षेत्र कहा जाता था और शासकीय राज्यक्षेत्र को राज विषय कहा जाता था। सीमान्त राज्य क्षेत्र को प्रत्यन्त कहा जाता था।

अशोक का साम्राज्य- अशोक के साम्राज्य-विस्तार का विवेचन उसके अभिलेखों के प्राप्त स्थलों के आधार पर आसानी से किया जा सकता है। उसके लेखों में कुछ प्रदेशों एवं नगरों के नाम मिलते हैं- मगध, पाटलिपुत्र, खलटिक पर्वत, कौशाम्बी, लुम्बिनी ग्राम, कलिंग, तोसली, समापा, खेपिडगल पर्वत, सुवर्णगिरी, इसल, उज्जैनी तथा तक्षशिला। ये सब नाम ऐसे प्रसंग में आये हैं जिनका सम्बन्ध अशोक के साम्राज्य से था।

मौर्य साम्राज्य उत्तर पश्चिम में तक्षशिला के आगे यवन राज अन्तियोक (एन्टीयोकस थियोस ई.पू. 261-246) के साम्राज्य में लगा हुआ था। दक्षिण अफगानिस्तान में कन्धार (शार-ए-कुना) से द्विभाषी (यूनानी एरेमाईक) लेख प्राप्त हुआ है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम ईस्ट एण्ड वेस्ट नामक पत्रिका के मार्च-जून 1958 के अंक में उमवर्टो सिरैटो ने किया। एक अन्य लेख अफगानिस्तान में पुले दारुन्त (लमगान) से मिला, यह एरेमाईक में है किन्तु गान्धारी से प्राकृत के कुछ शब्द मिलते हैं। इसके अतिरिक्त यवनों, कम्बोजों एवं गान्धारों से आवासित शाहबाजगढ़ी एवं मनसेहरा तक का क्षेत्र मौर्य साम्राज्य के अंग थे। कल्हण की राजतरंगिणी एवं ह्वेनसांग के विवरण से स्पष्ट हो गया है कि कश्मीर अशोक साम्राज्य का एक भाग था। कालसी, रूमिन्देई, निगलिसागर से प्राप्त स्तम्भ लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि देहरादून एवं तराई क्षेत्र अशोक कालीन भारत के पवित्र स्थल थे। नेपाल घाटी एवं चम्पारन जिले भी अशोक के अधीन थे, ललितपाटन एवं रामपुरवा से प्राप्त स्तम्भों के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है। बंगाल क्षेत्र से कोई अभिलेख प्राप्त नहीं हुआ है। दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि अशोक के समय तक बंगाल मगध साम्राज्य का अंग था। ह्वेनसांग को बंगाल में अशोक के स्तूप देखने को मिले थे।

दक्षिण में मैसूर के चितलदुर्ग जिले तक मौर्य साम्राज्य विस्तृत था। दक्षिण से मास्की (हैदराबाद में रायचूर जिला), ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर, जटिङगरमेश्वर (मैसूर), येर्रागुडी, गाविमठ तथा पालकि गुण्ड एवं राजुलमंडगिरि से लघुशिलालेख प्राप्त हुए हैं। दक्षिण का सम्पूर्ण क्षेत्र सुवर्णगिरी और तोसली द्वारा शासित थे। उसके अभिलेखों में आन्ध्र पारिंद (पुलिंद), भोज, रठिक भोज का उल्लेख आया है। इन्हें वन्य प्रदेश तथा कुछ को सीमावर्ती क्षेत्र कहा है। पश्चिम में अशोक का साम्राज्य अरब सागर तक विस्तृत था। सुराष्ट्र प्रान्त का शासक तुषास्फ था एवं गिरिनगर (गिरनार) उसकी राजधानी थी।

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