भारतीय राजनीति में गांधीजी का अभ्युदय Emergence of Gandhiji In Indian Politics

प्रारंभिक जीवन तथा दक्षिण अफ्रीका में सत्य का प्रयोग

मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के काठियावाड़ में पोरबंदर नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता काठियावाड़ के दीवान थे। इंग्लैंड से बैरिस्टरी पास करने के उपरांत वे गुजरात के एक व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका गये। वहां उन्होंने देखा कि जो एशियाई मजदूरी करने दक्षिण अफ्रीका गये थे वे किस प्रकार प्रजातीय उत्पीड़न तथा भेदभाव के शिकार थे। वहां उन्होंने गोरो द्वारा काले लोगों से रंगभेद की नीति के विरुद्ध विरोध प्रकट किया। इसके पश्चात् गांधीजी ने निश्चय किया कि वे वहां रूककर भारतीय मजदूरों को उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देंगें तथा उन्हें संगठित करेंगें। गांधीजी 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में रुके, तत्पश्चात् वे भारत वापस आये।

दक्षिण अफ्रीका में कार्यरत भारतीय तीन वर्गों में संगठित थे-

प्रथम-वर्ग में मुख्यतया दक्षिण भारत से आये हुए मजदूर थे, जो 1890 के पश्चात् गन्ने के खेतों में काम करने दक्षिण अफ्रीका आये थे।

दूसरे-वर्ग में भारत से आये मैमन मुसलमान थे, जो मजदूरों के साथ दक्षिण अफ्रीका आये थे तथा,

तीसरे-वर्ग में भारत से आये वे मजदूर थे, जो कार्य का अनुबंध समाप्त होने के पश्चात् अपने परिवार के साथ वहीं रहने लगे थे। ये भारतीय मुख्यतः अशिक्षित थे तथा उन्हें अंग्रेजी का अत्यल्प या बिलकुल ज्ञान नहीं था। ये सभी दक्षिण अफ्रीका में प्रजातीय भेदभाव के शिकार थे। दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार इन भारतीयों पर अनेक जुल्म ढाती थी। इन्हें मत देने के अधिकार से वंचित रखा गया था। इन्हें कुछ विशेष स्थानों में ही रहने की अनुमति थी, जो अत्यन्त संकीर्ण तथा गंदे थे एवं यहां की मानवीय दशायें अत्यन्त निम्न थीं। गोरी सरकार ने 9 बजे रात्रि के पश्चात् भारतीय तथा काले अफ्रीकियों के घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा उन्हें सार्वजनिक फुटपाथों के प्रयोग की अनुमति नहीं थी।

संघर्ष का उदारवादी चरण 1894-1906 ई.


इस चरण में गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीकी सरकार को याचिकायें एवं प्रार्थना-पत्र सौंपने की नीति अपनायी। उन्होंने ब्रिटेन को भी इस संबंध में अनेक प्रार्थना-पत्र भेजे। उन्होंने ब्रिटेन से मांग की कि वह इस विषय पर हस्तक्षेप कर भारतीयों की दशा सुधारने का प्रयत्न करे क्योंकि भारत, ब्रिटेन का उपनिवेश है। अतः ब्रिटेन का उत्तरदायित्व है कि वह भारतीयों पर हो रहे प्रजातीय भेदभाव एवं उत्पीड़न को रोकने का प्रयास करे। गांधीजी ने सभी भारतीयों को संगठित कर नटाल भारतीय कांग्रेस की स्थापना की तथा इण्डियन ओपीनियन नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया।

अहिंसात्मक प्रतिरोध या सत्याग्रह का काल 1906-1914

दक्षिण अफ्रीका में गोरी सरकार के विरुद्ध गांधीजी के संघर्ष का दूसरा चरण 1906 में प्रारंभ हुआ। इस चरण में गांधीजी ने अहिंसात्मक प्रतिरोध या सविनय अवज्ञा की नीति अपनायी, जिसे उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया।

पंजीकरण प्रमाणपत्र के विरुद्ध सत्याग्रह 1906

दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने एक विधान बनाकर प्रत्येक भारतीय के लिये यह अनिवार्य कर दिया कि वे अपने अंगूठे के निशान वाले पंजीकरण प्रमाणपत्र को हर समय अपने पास रखें। तदुपरांत गांधीजी के नेतृत्व में सभी भारतीयों ने इस भेदभावमूलक कानून का विरोध करने का निर्णय लिया। गांधीजी ने इस हेतु ‘अहिंसात्मक प्रतिरोध सभा’ का गठन किया। गांधीजी सहित कई भारतीयों को पंजीकरण कानून का विरोध करने के कारण जेल में डाल दिया गया। बाद में सरकारी अधिकारियों ने स्वयं इन सभी निडर भारतीयों का छलपूर्वक रजिस्ट्रेशन कर दिया। लेकिन भारतीयों ने अपना विरोध अभियान जारी रखा तथा गांधीजी की अगुवायी में अपने रजिस्ट्रेशन के कागजातों को सामूहिक रूप से जला दिया।

प्रवासी भारतीयों के प्रवेश पर रोक का विरोध

इस बीच सरकार ने एक और कानून बनाया, जिसका उद्देश्य प्रवासी भारतीयों के प्रवेश को रोकना था। इस कानून का विरोध करने हेतु अनेक वरिष्ठ भारतीय नटाल से ट्रांसवाल आये। ट्रांसवाल के तमाम भारतीयों ने भी आंदोलनकारियों का साथ दिया। लोगों ने कई स्थानों पर लाइसेंस का उल्लंघन किया। कानून का विरोध करने के लिये भारतीयों ने एक प्रांत से दूसरे प्रांत की यात्रा की। सरकार ने विरोधियों के प्रति दमन का मार्ग अपनाया। 1908 में गांधीजी की कारागार भेज दिया गया। कई अन्य भारतीयों को भी जेल में डाल दिया गया तथा उन्हें तरह-तरह की यातनायें दी गयीं। इसके शिकार ज्यादातर गरीब हुये। व्यापारियों को आर्थिक हानि पहुंचाने की भी सरकार ने धमकी दी।

टाल्सटाय फार्म की स्थापना

गांधीजी के नेतृत्व में चल रहा आंदोलन धीरे-धीरे संकटग्रस्त होने लगा। आंदोलनकारियों की सक्रियता धीरे-धीरे कम होने लगी तथा सरकार का अड़ियल रूख बरकरार रहा। 1909 में गांधीजी तथा अंग्रेज अधिकारियों के मध्य वार्ता का कोई खास परिणाम नहीं निकला। यद्यपि अभी भी आंदोलन को जारी रखना आवश्यक था लेकिन आंदोलन से सम्बद्ध भारतीयों के मध्य आर्थिक समस्या खड़ी हो गयी। इन्हीं सब परिस्थितियों के कारण गांधीजी ने टालस्टाय फार्म की स्थापना की। इस फार्म में गांधीजी ने अपने एक जर्मन शिल्पकार मित्र कालेनबाख की मदद से सत्याग्रहियों के परिवार की पुर्नवास समस्या को हल किया तथा उनके भरण-पोषण की व्यवस्था की। भारत से भी यहां काफी पैसा भेजा गया।

पोल टैक्स तथा भारतीय विवाही को अप्रामाणित करने को विरुद्ध अभियान

इस बार सत्याग्रह का स्वरूप बड़ा था। इकरारनामे की अवधि समाप्त होने पर दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों पर सरकार ने तीन पौंड का कर लगा दिया। इसके खिलाफ तीव्र सत्याग्रह छिड़ गया। भारतीयों में ज्यादातर गरीब मजदूर थे, जिनकी मासिक आमदनी 10 शिलिंग से भी कम थी। ऐसे में तीन पौंड का कर उनके लिये बहुत ज्यादा था। जब इस नियम के विरुद्ध सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ तो, इसमें लगभग सभी भारतीयों ने भाग लिया तथा इसे व्यापक जन-आंदोलन का रूप दे दिया। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय ने आंदोलन को और भड़का दिया। कोर्ट ने उन सभी विवाहों को जो ईसाई पद्धति से नहीं सम्पन्न हुये थे तथा जिनका पंजीकरण नहीं हुआ था, अवैध घोषित कर दिया। इस कानून के अनुसार, हिन्दू, मुस्लिम और पारसी रीति-रिवाजों मे सम्पन्न सभी शादियां अवैध थीं तथा ऐसी शादियों से उत्पन्न सभी संतानें भी अवैध। भारतीयों ने इस फैसले को अपनी महिलाओं का अपमान समझा। गांधीजी सहित अनेक सत्याग्रही कानून की अवहेलना कर नटाल से ट्रांसवाल पहुंच गये। सरकार ने इन लोगों को बंदी बनाकर कारावास में डाल दिया। शीघ्र ही खदान मजदूर तथा बागान मजदूर भी सक्रिय रूप से आंदोलन में सम्मिलित हो गये। इन मजदूरों ने सरकारी दमन के विरोध में हड़ताल कर दी। सरकार की कठोर दमनकारी नीतियों से समूचा भारतीय समुदाय तिलमिला उठा। गोपाल कृष्ण गोखले ने पूरे देश का दौरा कर इस अत्याचार के खिलाफ जनमत तैयार किया। लार्ड हडिंग तक ने इसकी निंदा की तथा अत्याचारों के आरोप की निष्पक्ष जांच कराने की मांग की।

गांधीजी, लार्ड हार्डिंग तथा गोखले तथा सी.एफ.एन्ड्रयूज से कई दौर की लंबी बातचीत के पश्चात् दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने भारतीयों की मुख्य मांगें मान ली। तीन पौंड का कर तथा पंजीकरण प्रमाणपत्र से सम्बद्ध कानून समाप्त कर दिये गये। भारतीय अप्रवासियों की अन्य कठिनाइयों पर दक्षिणी अफ्रीकी सरकार ने सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया।

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के अनुभव

दक्षिण अफ्रीका में गरीब आवश्यकता पड़ने पर किसी उदात्त उद्देश्य के लिये जुझारू संघर्ष और बलिदान की तैयार हो सकती है।

यहां गांधीजी विभिन्न सम्प्रदाय एवं समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों के मध्य एकता स्थापित करने में सफल हुये। उनके नेतृत्व में हिन्दू, मुस्लिम, पारसी, अमीर, गरीब, पुरुष, महिला सभी ने कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन में भाग लिया।

गांधीजी ने यह सबक सीखा कि कई बार नेताओं को ऐसे सख्त निर्णय भी करने पड़ सकते हैं, जो उनके समर्थकों को भी पसंद न आयें।

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी को विरोधी राजनीतिक धाराओं से उन्मुक्त वातावरण में एक विशिष्ट राजनीतिक शैली, नेतृत्व के नये अंदाज और संघर्ष के नये तरीकों को विकसित करने का अवसर मिला। इसके फलस्वरूप वे गांधीवादी रणनीति व संघर्ष के तरीकों की विशेषताओं और कमियों दोनों से भली-भांति परिचित की गये तथा उन्हें विश्वास हो गया कि ये ही सबसे बेहतर हैं।

गांधीजी की सत्याग्रह की तकनीक

गांधीजी ने अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दिनों में इस तकनीक का प्रयोग किया। 1906 के पश्चात् गांधीजी ने यहां अवज्ञा आदोलन प्रारम्भ किया, जिसे ‘सत्याग्रह’ का नाम दिया गया। सत्याग्रह, सत्य एवं अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था। इसकी मुख्य विशेषतायें इस प्रकार थीं-

सत्याग्रही यह कभी विचार नहीं करता कि गलत क्या है। वह सदैव सच्चा, अहिंसक एवं निडर रहता है।

सत्याग्रही में बुराई के विरुद्ध संघर्ष करते समय सभी प्रकार की यातनायें सहने की शक्ति होनी चाहिये। ये यातनायें सत्य के लिये उसकी आसक्ति का एक हिस्सा हैं।

बुराई के विरुद्ध संघर्ष की प्रक्रिया में एक सच्चा सत्याग्रही बुराई करने वाले से अनुराग रखता है, घृणा या द्वेष नहीं।

एक सच्चा सत्याग्रही बुराई के सामने कभी सिर नहीं झुकाता, उसका परिणाम चाहे कुछ भी हो।

केवल बहादुर एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति ही सच्चा सत्याग्रही बन सकता है। सत्याग्रह, कायर और दुर्बल लोगों के लिये नहीं है। कायर व्यक्ति हिंसा का सहारा लेता है, जिसका सत्याग्रह में कोई स्थान नहीं है।

गांधीजी की भारत वापसी

गांधीजी, जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। न केवल शिक्षित भारतीय अपितु जनसामान्य भी गांधीजी के बारे में भली-भांति परिचित हो चुका था। गांधीजी ने निर्णय किया कि वे अगले एक वर्ष तक समूचे देश का भ्रमण करेंगे तथा जनसामान्य की यथास्थिति का स्वयं अवलोकन करेंगे। उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि फिलहाल वह किसी राजनीतिक मुद्दे पर कोई सार्वजनिक कदम नहीं उठायेंगे। भारत की तत्कालीन सभी राजनीतिक विचारधाराओं से गांधीजी असहमत थे। नरमपंथी राजनीति से उनकी आस्था पहले ही खत्म हो चुकी थी तथा वे होमरूल आंदोलन की इस रणनीति के भी खिलाफ थे कि अंग्रेजों पर कोई भी मुसीबत उनके लिये एक अवसर है। यद्यपि होमरूल आंदोलन इस समय काफी लोकप्रिय था किन्तु, इसके सिद्धांत गांधीजी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। उनका मानना था कि ऐसे समय में जबकि ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध में उलझा हुआ है, होमरूल आंदोलन को जारी रखना अनुचित है। उन्होंने तर्क दिया कि इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है- अहिंसक सत्याग्रह। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि जब तक कोई राजनीतिक संगठन सत्याग्रह के मार्ग की नहीं अपनायेगा तब तक वे ऐसे किसी भी संगठन से सम्बद्ध नहीं हो सकते।

रौलेट सत्याग्रह प्रारम्भ करने के पहले, 1917 और 1918 के आरम्भ में गांधीजी ने तीन संघर्षों- चम्पारण आंदोलन (बिहार) तथा अहमदाबाद और खेड़ा (दोनों गुजरात) सत्याग्रह में हिस्सा लिया। ये तीनों ही आंदोलन स्थानीय आर्थिक मांगों से सम्बद्ध थे। अहमदाबाद का आंदोलन, औद्योगिक मजदूरों का आंदोलन था तथा चम्पारण और खेड़ा किसान आंदोलन थे।

चम्पारण सत्याग्रह 1917

प्रथम सविनय अवज्ञा: चम्पारण की समस्या काफी पुरानी थी। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गोरे बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध करा लिया, जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3/20वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। यह व्यवस्था तिनकाठिया पद्धति के नाम से जानी जाती थी। 19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगों (डाई) का विकास हो गया, जिसने नील की बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इसके कारण चम्पारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने की विवश हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे। किन्तु परिस्थितियों को देखकर गोरे बागान मालिक किसानों की विवशता का फायदा उठाना चाहते थे। उन्होंने दूसरी फसलों की खेती करने के लिये किसानों को अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान व अन्य करों की दरों में अत्याधिक वृद्धि कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने द्वारा तय की गयी दरों पर किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये बाध्य किया। चम्पारण से जुड़े एक प्रमुख आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चम्पारण बुलाने का फैसला किया।

फलतः गांधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, ब्रीज किशोर, मजहर उल-हक़, महादेव देसाई, नरहरि पारिख तथा जे.बी. कृपलानी के सहयोग से मामले की जांच करने चम्पारण पहुंचे। गांधीजी के चम्पारण पहुंचते ही अधिकारियों ने उन्हें तुरन्त चम्पारण से चले जाने का आदेश दिया। किन्तु गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया तथा किसी भी प्रकार के दंड को भुगतने का फैसला किया। सरकार के इस अनुचित आदेश के विरुद्ध गांधीजी द्वारा अहिंसात्मक प्रतिरोध या सत्याग्रह का यह मार्ग चुनना विरोध का सर्वोत्तम तरीका था। गांधीजी की दृढ़ता के सम्मुख सरकार विवश हो गयी, अतः उसने स्थानीय प्रशासन को अपना आदेश वापस लेने तथा गांधीजी को चम्पारण के गांवों में जाने की छूट देने का निर्देश दिया। इस बीच सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिये एक आयोग का गठन किया तथा गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया। गांधीजी, आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकाठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिये। उन्होंने आयोग को यह भी समझाया कि किसानों से पैसा अवैध रूप से वसूला गया है, उसके लिये किसानों को हरजाना दिया जाये। बाद में एक और समझौते के पश्चात् गोरे बागान मालिक अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को लौटाने पर राजी हो गये। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। इस प्रकार गांधीजी ने भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम युद्ध सफलतापूर्वक जीत लिया।

अहमदाबाद मिल हड़ताल 1918– प्रथम भूख हड़ताल

चम्पारण के पश्चात् गांधीजी ने अहमदाबाद मिल हड़ताल के मुद्दे पर हस्तक्षेप किया। यहां मिल मालिकों और मजदूरों में प्लेग बोनस को लेकर विवाद छिड़ा था। गांधीजी ने मजदूरों को हड़ताल पर जाने तथा 35 प्रतिशत बोनस की मांग करने को कहा। जबकि मिल मालिक, मजदूरों को केवल 20 प्रतिशत बोनस देने के लिये राजी थे। गांधीजी ने मजदूरों को सलाह दी कि वे शांतिपूर्ण एवं अहिंसक ढंग से अपनी हड़ताल जारी रखें। गांधीजी ने मजदूरों के समर्थन में भूख हड़ताल प्रारम्भ करने का फैसला किया । अंबालाल साराभाई की बहन अनुसुइया बेन ने इस संघर्ष में गांधीजी को सक्रिय योगदान प्रदान किया। इस अवसर पर उन्होंने एक दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया। गांधीजी के अनशन पर बैठने के फैसले से मजदूरों के उत्साह में वृद्धि हुई तथा उनका संघर्ष तेज हो गया। मजबूर होकर मिल मालिक समझौता करने को तैयार हो गये तथा सारे मामले को एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। जिस मुद्दे को लेकर हड़ताल प्रारम्भ हुई थी, ट्रिब्यूनल के फैसले से वह समाप्त हो गया। ट्रिब्यूनल ने मजदूरों के पक्ष में निर्णय देते हुये मिल मालिकों को 35 प्रतिशत बोनस मजदूरों को भुगतान करने का फैसला सुनाया। गांधीजी की यह दूसरी प्रमुख विजय थी।

खेड़ा सत्याग्रह 1918- प्रथम असहयोग

वर्ष 1918 के भीषण दुर्भिक्ष के कारण गुजरात के खेड़ा जिले में पूरी फसल बरबाद हो गयी, फिर भी सरकार ने किसानों से मालगुजारी वसूल करने की प्रक्रिया जारी रखी। ‘राजस्व संहिता’ के अनुसार, यदि फसल का उत्पादन, कुल उत्पाद के एक-चौथाई से भी कम हो तो किसानों का राजस्व पूरी तरह माफ कर दिया जाना चाहिए, किन्तु सरकार ने किसानों का राजस्व माफ करने से इन्कार कर दिया। फलस्वरूप गांधीजी ने किसानों की प्रेरणा दी। खेड़ा जिले के युवा अधिवक्ता वल्लभभाई पटेल, इंदुलाल याज्ञिक तथा कई अन्य युवाओं ने गांधीजी के साथ खेड़ा के गांवों का दौरा प्रारम्भ किया। इन्होंने किसानों को लगान न अदा करने की शपथ दिलायी। गांधीजी ने घोषणा की कि यदि सरकार गरीब किसानों का लगान माफ कर दे तो लगान देने में सक्षम किसान स्वेच्छा से अपना लगान अदा कर देंगे। दूसरी ओर सरकार ने लगान वसूलने  के लिये दमन का सहारा लिया। कई स्थानों पर किसानों की संपत्ति कुर्क कर ली गयी तथा उनके मवेशियों को जब्त कर लिया गया। इसी बीच सरकार ने अधिकारियों को गुप्त निर्देश दिया कि लगान उन्हीं से वसूला जाये जो लगान दे सकते हैं। इस आदेश से गांधीजी का उद्देश्य पूरा हो गया तथा आंदोलन समाप्त हो गया।

चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा में गांधीजी की उपलब्धियां

  1. चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा आन्दोलन ने गांधीजी को संघर्ष के गांधीवादी तरीके ‘सत्याग्रह’ की आजमाने का अवसर दिया।
  2. गांधीजी की देश की जनता के करीब आने तथा उसकी समस्यायें समझाने का अवसर मिला।
  3. गांधीजी जनता की ताकत तथा कमजोरियों से परिचित हुये तथा उन्हें अपनी रणीनति का मूल्यांकन करने का अवसर मिला।
  4. इन आन्दोलनों में गांधीजी को समाज के विभिन्न वर्गों विशेषतया युवा पीढ़ी का भरपूर समर्थन मिला तथा भारतीयों के मध्य उनकी विशिष्ट पहचान कायम हो गयी।

रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह-प्रथम जन आन्दोलन

विश्व युद्ध की समाप्ति पर, जब भारतीय जनता संवैधानिक सुधारों का इंतजार कर रही थी, ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी रौलेट एक्ट को जनता के सम्मुख पेश कर दिया, इसे भारतीयों ने अपना घोर अपमान समझा। अपने पूर्ववर्ती अभियानों से अदम्य व साहसी हो चुके गांधीजी ने फरवरी 1919 में प्रस्तावित रौलेट एक्ट के विरोध में देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया। किन्तु संवैधानिक प्रतिरोध का जब सरकार पर कोई असर नहीं हुआ तो गांधीजी ने सत्याग्रह प्रारम्भ करने का निर्णय किया। एक ‘सत्याग्रह सभा’ गठित की गयी तथा होमरूल लीग के युवा सदस्यों से सम्पर्क कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने का निर्णय हुआ। प्रचार कार्य प्रारम्भ हो गया। राष्ट्रव्यापी हड़ताल, उपवास तथा प्रार्थना सभाओं के आयोजन का फैसला किया गया। इसके साथ ही कुछ प्रमुख कानूनों की अवज्ञा तथा गिरफ्तारी देने की योजना भी बनाई गयी।

आन्दोलन के इस मोड़ के लिये कई कारण थे जो निम्नानुसार हैं

  1.  जन सामान्य को आन्दोलन के लिये एक स्पष्ट दिशा-निर्देश प्राप्त हुआ। अब वे अपनी समस्याओं की केवल मौखिक अभिव्यक्ति के स्थान पर प्रत्यक्ष कार्यवाई कर सकते थे।
  2. इसके कारण किसान, शिल्पकार और शहरी निर्धन वर्ग सक्रियता से आंदोलन से जुड़ गया। उनकी यह सक्रियता आगे के आंदोलनों में भी बनी रही।
  3. राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष स्थायी रूप से जनसामान्य से सम्बद्ध हो गया। गांधीजी ने स्पष्ट किया कि अनशन की प्रासंगिकता तभी है जब सभी भारतीय जागृत होकर सक्रियता से राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागी बनें।

सत्याग्रह प्रारम्भ करने के लिये 6 अप्रैल की तारीख तय की गयी। किन्तु तारीख की गलतफहमी के कारण सत्याग्रह प्रारम्भ होने से पहले ही आंदोलन ने हिंसक स्वरूप धारण कर लिया। कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद इत्यादि स्थानों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई तथा अंग्रेज-विरोधी प्रदर्शन आयोजित किये गये।

प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान सरकारी दमन, बलपूर्वक नियुक्तियों तथा कई कारणों से त्रस्त जनता ने पंजाब में हिंसात्मक प्रतिरोध प्रारम्भ कर दिया तथा परिस्थिति अत्यन्त विस्फोटक हो गयीं। अमृतसर और लाहौर में तो स्थिति पर नियंत्रण पाना मुश्किल हो गया। मजबूर होकर सरकार को सेना का सहारा लेना पड़ा। गांधीजी ने पंजाब जाकर यथास्थिति को संभालने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्हें बम्बई भेज दिया। तत्पश्चात् 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड के रूप में अंग्रेजी सरकार का वह बर्बर और घिनौना रूप सामने आया जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिह्रास में एक रक्तरंजित धब्बा लगा दिया।

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