साम्प्रदायिकता का विकास Development of Communalism

भारतीय साम्प्रदायिकता की विशिष्टतायें

मौलिक रूप में साम्प्रदायिकता एक विचारधारा है। भारत में इस साम्प्रदायिक विचारधारा के मुख्य तीन चरण हैं-

साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद

इस विचारधारा में एक ही समूह या किसी विशेष धार्मिक समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी लोगों के हित समान होते हैं। उदारहणार्थ-यदि उनके हितों का धर्म से कोई लेना देना न हो तब भी वे सभी को समान रूप से प्रभावित करते हैं।

उदारवादी साम्प्रदायिकता

इस विचारधारा के अनुसार, बहुभाषी समाज में एक धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हित अन्य किसी भी धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हितों से भिन्न हैं।

चरम या उग्रवादी साम्प्रदायिकता


इस विचारधारा के अनुसार, विभिन्न धर्मो के अनुयायियों या सामुदायों के हित एक दूसरे के विरोधी होते हैं। इस तरह की व्यवस्था में दो विभिन्न धर्म समुदाय एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकते क्योंकि एक समुदाय के हित दूसरे समुदाय के हित से टकराते हैं।

भारत में साम्प्रदायिकता का विकास भी इसी प्रकार का है। ऐसा नहीं है कि साम्प्रदायिकता का विकास सिर्फ भारत में ही हुआ है। यह भी उन्हीं परिस्थितियों का प्रतिफल था, जिन्होंने दूसरे समाजों में साम्प्रदायिकता जैसी घटनाओं और विचारधाराओं को जन्म दिया था। जैसे नस्लवाद, सामीवाद विरोध फासीवाद, उत्तरी आयरलैंड में कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट संघर्ष या लेबनान में ईसाई-मुस्लिम संघर्ष।

साम्प्रदायिकता को उभारने वाले तत्वों ने आर्थिक हितों को दरकिनार कर इसे ज्यादा महत्वपूर्ण बताया तथा जनमानस में इसके लिये एक व्यापक आधार तैयार किया।

साम्प्रदायिकता एक आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक प्रवृत्ति है, जिसकी सामाजिक जड़ो तथा इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक लक्ष्यों को भारतीय इतिह्रास के आधुनिक काल में खोजा जा सकता है। यह आधुनिक सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों की पूर्ति करती थी। समकालीन आर्थिक ढांचे ने न केवल इसे उत्पन्न किया अपितु उसके कारण ही यह फली-फूली भी।

साम्प्रदायिकता का सामाजिक आधार उस उभरते हुये मध्य वर्ग पर अवलंबित था, जो तत्कालीन परिस्थतियों के वातावरण में अपने धार्मिक हितों के साथ अपने आर्थिक हितों को भी ढूंढ़ रहा था। यह उस काल में बुर्जुआ वर्ग का प्रश्न था।

भारत में साम्प्रदायिक चेतना का जन्म उपनिवेशवादी नीतियों तथा उसके विरुद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ। विभिन्न ख्सेत्रों तथा देश के सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक एकीकरण, भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया, आधुनिक सामाजिक वर्गों एवं उपवर्गों का निर्माण तथा भारतीयों के बढ़ते हुये अंतर्विरोध जैसे कारणों से लोगों में अपने साझा हितों आयामों का विकास तथा नयी पहचानों का निर्माण आवश्यक हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजनीति की जिस नयी अवधारणा का जन्म हुआ उससे भी साम्प्रदायिकता की विचारधारा को बल मिला।

नए विचारों को ग्रहण करने, नाइ पहचानों तथा विचारधाराओं का विकास करने तथा संघर्ष के दायरे को व्यापक बनाने के लिए लोगों ने पुरातन तथा पूर्व-आधुनिक तरीकों के प्रति आसक्ति प्रकट की उसने भी साम्प्रदायिकता की विचारधारा को सशक्त बनाने में मदद की। संकीर्ण सामाजिक प्रतिक्रियावादी तत्वों ने साम्प्रदायिकता को पूर्ण समर्थन दिया।

यद्यपि धार्मिकता, साम्प्रदायिकता को बहुत ज्यादा प्रोत्साहित करने का मूल कारण नहीं था किंतु भारत जैसे देश में जहां शिक्षा का अभाव था तथा लोगों में बाह्य जगत संबंधी चेतना ना के बराबर थी, धार्मिकता ने साम्प्रदायिकता के लिये उत्प्रेरक की भूमिका निभायी तथा तथाकथित तत्वों में इसे साम्प्रदायिकता के वाहन के रूप में प्रयुक्त किया।

साम्प्रदायिकता के विकास के कारण

साम्प्रदायिकता से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृति से है, जो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्व देती है। यह व्यक्ति में अंतरराष्ट्रीय एवं सर्वमान्य सत्य की भावना के विरुद्ध व्यक्तिगत धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर परस्पर घृणा, द्वंद, ईर्ष्या तथा द्वेष को जन्म देती है। यह भावना अपने धर्म के प्रति अन्ध भक्ति तथा परधर्म तथा उसके अनुयायियों के प्रति विद्वेष की भावना उत्पन्न करती है। भारत में साम्प्रदायिकता के विकास में विभिन्न कारणों, परिस्थितियों एवं तत्वों ने सम्मिलित भूमिका निभायी, जो इस प्रकार हैं-

सामाजिक एव आर्थिक कारण

कालांतर में भारत में बुर्जआ वर्ग तथा व्यावसायिक वर्ग का उदय हुआ। उदय की यह प्रक्रिया हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही सम्प्रदायों में समान थी। सरकारी सेवाओं, व्यवसाय एवं उद्योगों में दोनों वर्गों के मध्य प्रतिद्वंदिता अवश्यंभावी थी और धीरे-धीरे यह बढ़ती गयी। मुस्लिम बुर्जुआ वर्ग ने अपने पक्षपोषण हेतु हिन्दू बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध, निम्न मध्यवर्गीय मुसलमानों को प्रोत्साहित किया।

भारत के आर्थिक पिछड़ेपन तथा भयावह बेरोजगारी जैसी समस्याओं ने अंग्रेजों को साम्प्रदायिकता को उभरने तथा अलगाववादी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने का भरपूर अवसर प्रदान किया। अंग्रेजों ने इस हेतु व्यक्तिगत गुणों, पक्षपात उपयोग साम्प्रदायिकता के उत्थान में किया। इसके साथ ही मुसलमानों में आधुनिक राजनीतिक चेतना के विकास की प्रक्रिया अपेक्षाकृत धीमी थी तथा उन पर परम्परागत प्रतिक्रियावादी कारक ज्यादा हावी थे फलतः इस समुदाय में साम्प्रदायिक विचारधारा को अपनी जड़े ज़माने के लिए उचित अवसर मिला।

अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति

प्रारंभ में ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को शंकालु दृष्टि से देखा। 1857 के विद्रोह और बहावी आंदोलन के पश्चात तो सरकार की शंका उनके प्रति और बढ़ गयी। फलतः अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति दमन तथा भेदभाव की नीति अपनायी। शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के प्रसार से अरबी तथा फारसी भाषायें पिछड़ गयीं। मुस्लिम समाज में इसका प्रतिकूल प्रभाव यह हुआ कि उनमें आर्थिक पिछड़ापन बढ़ा तथा वे धीरे-धीरे सरकारी सेवाओं से वंचित होने लगे।

1870 के पश्चात भारतीय राष्ट्रवाद के उभरने तथा नवशिक्षित मध्य-वर्ग के राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं सिद्धांतों से परिचित होने के कारण अंग्रेजों ने मुसलमानों के दमन की अपनी नीति त्याग दी तथा उनमें चेतना का प्रसार कर तथा आरक्षण एवं समर्थन देकर उन्हें उभरने का प्रयत्न किया, जिससे मुसलमानों को राष्ट्रवादी ताकतों के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सके। अंग्रेजों ने सर सैय्यद अहमद खां का दृष्टिकोण बुद्धिमत्तापूर्ण, दूरदर्शी एवं सुधारवादी था किंतु बाद में उन्होंने उपनिवेशी शासन का समर्थन करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस का विरोध करने तथा राजनीतिक गतिविधियों से तटस्थ रहने की सलाह दी। उन्होंने हिन्दू एवं मुसलमानों के पृथक अस्तित्व एवं पृथक हितों की बात भी कही। कालांतर में उन्होंने यह भी प्रचार करना शुरू कर दिया कि चूंकि हिन्दू भारतीय संख्या में बहुमत में है इसलिये ब्रिटिश शासन के निर्बल होने या समाप्त हो जाने की स्थिति में हिन्दुओं का मुसलमानों पर दबदबा कायम हो जायेगा।

भारतीय इतिह्रास लेखन द्वारा साम्प्रदायिकता को बढ़ावा

अनेक अंग्रेजी इतिह्रासकारों ने हिन्दू-मुस्लिम फूट को बढ़ावा देने तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें सुदृढ़ करने के उद्देश्य से भारतीय इतिह्रास की व्याख्या इस तरह की जिससे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिल सके। बाद में विभिन्न भारतीय इतिह्रासकारों ने उनका अनुसरण करते हुए प्राचीन भारत को हिन्दू काल तथा मध्यल्कलिन भारत को मुस्लिम काल की संज्ञा दी। मध्यकालीन भारत में शासकों के आपसी संघर्ष को इन इतिह्रासकारों ने हिन्दू मुस्लिम संघर्ष के रूप में उद्धृत किया।

सामाजिक-धार्मिक सुधार आदोलनों का पार्श्व प्रभाव

19वीं शताब्दी में  हिन्दू तथा मुसलमान अनेक सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आन्दोलन हुए। इन सभी सुधार आन्दोलनों ने स्वयं को अपने-अपने समुदाय के लोगों तक ही सिमित रखा। सुधार आंदोलनों ने स्वयं को अपने-अपने समुदाय के लोगों तक ही सीमित रखा। सुधार आंदोलनों की इस प्रवृति से देश विभिन्न समुदायों में विभक्त हो गया। मुस्लिम सुधार आन्दोलन जैसे ‘बहावी आंदोलन, तथा हिन्दू सुधार आन्दोलन जैसे ‘शुद्धि आंदोलन’ के व्यक्तिगत धार्मिक स्वरूप के कारण धर्म का उग्रवादी चरित्र रेखांकित हुआ तथा इससे साम्प्रदायिकता को बल मिला। इन सुधार आंदोलनों में सांस्कृतिक विरासत के धार्मिक तथा दार्शनिक पहलुओं पर एकांकी बल दिया गया। इन विभिन्न सुधार-आंदोलनों के समानांतर प्रवाह को एक धर्म के द्वारा दूसरे धर्म का अपमान करना समझा गया।

उग्र राष्ट्रवाद का पार्श्व प्रभाव

राष्ट्रवाद के प्रारंभिक चरण में राष्ट्रवादियों ने अल्पसंख्यकों के भय को दूर करने पर विशेष बल दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1886 में आयोजित दूसरे अधिवेशन में दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में घोषित किया कि कांग्रेस के अधिवेशनों या सम्मेलनों में सामाजिक-धार्मिक प्रश्न नहीं उठाये जायेंगे। 1889 में कांग्रेस ने निश्चय किया कि वह ऐसे किसी भी मुद्दे को अपने कार्यक्रमों या उद्देश्यों में सम्मिलित नहीं करेगी, जिसका मुसलमान विरोध करेंगे। किंतु कालांतर में उग्रवादी राष्ट्रवाद के उभरने से इसमें हिन्दू राष्ट्रवादी हावी हो गये। तिलक के गणपति एवं शिवाजी उत्सव तथा गोहत्या के विरुद्ध अभियान ने विभिन्न प्रकार की शंकाओं को जन्म दिया। भारत माता तथा राष्ट्रवाद की धर्म के रूप में अरविंद घोष की अवधारणायें, गंगा स्नान के पश्चात बंग-भंग विरोध आंदोलन प्रारंभ करना तथा क्रांतिकारी आतंकवादियों द्वारा देवी काली या भवानी के सम्मुख शपथ ग्रहण करने जैसी रस्में शायद ही किसी मुसलमान को पसंद आ सकती था। निःसंदेह ये सभी रस्में मुस्लिम समुदाय के सदस्यों की धार्मिक भावनाओं के प्रतिकूल थीं। तदुपरांत क्रांतिकारियों द्वारा शिवाजी एवं महाराणा प्रताप के क्रमशः औरंगजेब तथा अकबर के विरुद्ध संघर्ष को धार्मिक संघर्ष के रूप में महिमा मंडित करना भी उनकी भयंकर भूल थीं। लखनऊ समझौते (1916) तथा खिलाफत आंदोलन (1920-22) का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विशिष्ट साम्प्रदायिक प्रभाव हुआ।

बहुसंख्यक समुदाय की सम्प्रदायिक प्रतिक्रिया

बहुसंख्यक समुदाय द्वारा विभिन्न उग्रवादी संगठनों यथा- हिन्दू मह्रासभा (1915) तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (1925) इत्यादि के गठन की अल्पसंख्यकों पर साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया हुयी। इन संगठनों ने हिन्दू राष्ट्रवाद तथा हिन्दू हितों की वकालत की जिसका मुस्लिम समुदाय पर नकारात्मक प्रभाव हुआ तथा निःसंदेह इससे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला।

द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का जन्म

विभिन्न वर्षों में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के जन्म तथा विकास से संबंधित विभिन्न कारक इस प्रकार हैं-

1887: भारत के वायसराय डफरिन एवं संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर कोलविन ने कांग्रेस पर हमला बोल दिया। ब्रिटिश सरकार ने सर सैय्यद खां तथा राजा शिव प्रसाद को कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। सर सैय्यद अहमद खां ने बुद्धिजीवी मुसलमानों से अपील की कि वे कांग्रेस से दूर रहें, फिर भी कुछ मुसलमानों ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। इनमें बदरुद्दीन तैयबजी, मीर मुसरर्फ हुसैन, ए. भीमजी, आर.एस. सयानी तथा हामिद अली खान प्रमुख थे।

1906: सर आगा खां के नेतृत्व में एक मुस्लिम शिष्टमंडल (शिमला शिष्ट मंडल) भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड मिन्टो से मिला। शिष्टमंडल ने ब्रिटिश सुधारों की प्रशंसा की तथा उसके प्रति पूर्ण राज्य भक्ति की भावना प्रकट की। इस शिष्टमंडल ने वायसराय से मांग की कि- (क) मुसलमानों की व्यवस्थापिकाओं में उचित प्रतिनिधित्व देने हेतु पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की जाये। (ख) उच्च पदों पर ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा एवं वफादारी के आधार पर नियुक्तियां की जायें तथा इसके लिये प्रतियोगिता परीक्षा नहीं ली जाये। तथा (ग) सरकारी सेवाओं में मुसलमानों को ज्यादा अवसर दिये जायें।

लार्ड मिन्टो ने मांगों को पूर्णतया उचित बताया तथा उन पर सहानुभूति-पूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया। शिष्टमंडल को उसने आश्वस्त किया कि सरकार मुसलमानों को सम्राट के प्रति उच्च निष्ठा के कारण उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देगी। इस शिष्टमंडल के प्रयासों से देश में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला।

1907: आगा खां, ढाका के नवाब सलीमुल्ला, नवाब मोहसिन-उल-मुल्क तथा नवाब बकार-उल-मुल्क के संयुक्त प्रयत्नों से आल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी। लीग का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा प्रकट करना तथा मुस्लिम बुद्धिजीवियों को कांग्रेस से अलग रखना था।

1909: मार्ले-मिन्टो सुधारों द्वारा पृथक निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत की गयी।

1909: बी.एन. मुखर्जी तथा लाल चंद्र ने पंजाब हिन्दू सभा की स्थापना की।

1915: अखिल भारतीय हिन्दू मह्रासभा का प्रथम अधिवेशन कासिम बाजार के महाराजा की अध्यक्षता में हुआ।

1912-24: इस अवधि में मुस्लिम लीग, कांग्रेस की नीतियों के काफी करीब पहुंच चुकी थी तथा उसमें मोहम्मद अली, मौलाना आजाद तथा मो. अली जिन्ना जैसे युवा राष्ट्रवादी हावी होने लगे थे। लेकिन दुर्भाग्यवश जिन्ना जैसे कुछ नेताओं को छोड़कर उनकी राष्ट्रीयता पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष नहीं थी। उनका प्रखर धार्मिक और इस्लामी एकतावादी झुकाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था। साथ ही राजनीतिक सवालों पर उनका दृष्टिकोण साम्प्रदायिक था।

1916: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की पृथक मतदाता मंडलों तथा सीटों के आरक्षण की मांग मान ली तथा दोनों ने सरकार के समक्ष संयुक्त मांगे पेश कीं। यद्यपि यह समझौता कई दृष्टियों से प्रगतिशील था किंतु कांग्रेस ने इसके द्वारा साम्प्रदायिक राजनीति को स्वीकार कर लिया। समझौते में यह निहित था कि भारत विभिन्न समुदायों का देश है तथा हित भिन्न-भिन्न हैं। कालांतर में इसके हानिकारक नतीजे निकले।

1920-22: रोलेट एक्ट के विरुद्ध आंदोलन तथा खिलाफत एवं असहयोग आंदोलन में मुसलमानों ने हिस्सा लिया किंतु उनका दृष्टिकोण साम्प्रदायिक था।

1920: देश में साम्प्रदायिक दंगों का खतरा मंडराने लगा। इसी समय स्वामी श्रद्धानंद के नेतृत्व में आर्यसमाज ने शुद्धि आंदोलन चलाया, जिसका उद्देश्य इस्लाम धर्म स्वीकार कर चुके हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में वापस लाना था। आर्य समाजियों ने एक अन्य आंदोलन ‘संगठन आंदोलन’ भी प्रारंभ किया। मुसलमानों ने इनके विरोध में तंजीम और तबलीग आंदोलन चलाये।

इस साम्प्रदायिक वातावरण का प्रभाव बहुत से राष्ट्रवादियों पर भी पड़ा तथा उनकी विचारधारा भी साम्प्रदायिक या अर्द्ध-साम्प्रदायिक हो गयी। स्वराज्यवादी दो गुटों में बंट गये। एक गुट ने तथाकथित हिंदू हितों की रक्षा के लिये सरकार को सहयोग देने का निर्णय किया तथा दूसरा गुट धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादियों का था। मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय तथा एन.सी. केलकर हिन्दू मह्रासभा में शामिल हो गये। हिन्दू मह्रासभा के सदस्यों तथा सरकार परस्त स्वराज्यवादियों ने धर्मनिरपेक्ष कांग्रेसियों जैसे- मोतीलाल नेहरू इत्यादि पर इस्लामिक हितों के प्रति प्रेम दिखाने तथा हिन्दू हितों पर कुठाराघात करने का आरोप लगाया। किंतु सबसे नाटकीय परिवर्तन अली बंधुओं- मुहम्मद अली तथा शौकत अली के दृष्टिकोण में आया। प्रारंभ में कांग्रेस के साथ प्रशंसनीय सहयोग करने वाले अली बंधुओं ने कांग्रेस पर हिन्दू हितों की रक्षा करने तथा हिंदू सरकार स्थापित करने की चेष्टा करने का आरोप लगाया। इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी नेतृत्व साम्प्रदायिकता के प्रसार को रोकने के लिये कोई प्रभावी कार्य प्रणाली विकसित नहीं कर सका।

1928: कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में संवैधानिक सुधारों के मुद्दे पर कांग्रेस की नेहरू रिपोर्ट का मुस्लिम सम्प्रदायवादियों तथा सिख लीग ने तीव्र धीरे-धीरे विरोध किया। नेहरू रिपोर्ट को हिन्दू हितों का दस्तावेज बताते हुये जिन्ना सेवाओं में आरक्षण देने की मांग की। इस अवसर पर मुस्लिम लीग से समझौता करने की कोशिश करते हुये कांग्रेस ने अनेक गल्तियां कीं जैसे-

कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की राजनीति को वैधता प्रदान कर दी। उसने यह भी स्वीकार कर लिया कि सभी साम्प्रदायिक नेता अपने-अपने हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा साम्प्रदायिक एवं धर्म पर आधारित हितों का वास्तविक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।

इसने धर्मनिरपेक्ष एवं साम्राज्यवाद विरोधी मुस्लिम नेताओं की स्थिति दुर्बल कर दी।

इससे कांग्रेस की साम्प्रदायिकता के खिलाफ दृढ़ राजनीतिक-विचारधारात्मक अभियान चलाने की इच्छाशक्ति और अधिकार कम हो गये।

साम्प्रदायिकता पर संगठित एवं एकमुश्त प्रहार करने की कांग्रेस की रणनीति भी परिवर्तित हो गयी।

1930-34: यद्यपि जमायते-उल-उलेमा-ए-हिंद, कश्मीर राज्य तथा खुदाई खिदमतगार ने कांग्रेस के साथ मिलकर सविनय अवज्ञा आदोलन में हिस्सा लिया किन्तु कुल मिलाकर मुसलमानों की संख्या उतनी नहीं थी जितनी खिलाफत- असहयोग आंदोलन में थी। भावी संवैधानिक सुधारों के संबंध में लंदन में आयोजित तीन गोलमेज सम्मेलनों में से कांग्रेस ने दो सम्मेलनों का बहिष्कार किया तथा केवल एक सम्मेलन में हिस्सा लिया, वहीं सम्प्रदायवादियों ने तीनों सम्मेलनों में शिरकत की।

1932: साम्प्रदायिक निर्णय (communal Award) में जिन्ना द्वारा प्रस्तुत चौदह सूत्रीय मांगों में से अधिकांश को मान लिया गया। 1937 के पश्चातः 1937 के प्रांतीय चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन के पश्चात मुस्लिम लीग ने साम्प्रदायिकता के मुद्दे को और तीव्र करने का निश्चय किया। उसने अब मुसलमानों की एक अल्पसंख्यक समुदाय की जगह एक पृथक राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करना प्रारंभ कर दिया। (1930 के दशक में सर्वप्रथम एक युवा मुस्लिम बुद्धिजीवी रहमत अली ने ‘पृथक मुस्लिम राष्ट्र’ की अवधारणा प्रतिपादित की तथा बाद में कवि इकबाल ने इसका और प्रचार किया)। इसके पश्चात सम्प्रदायवाद एक संगठित जन-आंदोलन के रूप में प्रारंभ हो गया, जिसका मुख्य आधार समाज का मध्य एवं उच्च वर्ग था। जेड.ए. सुलेरी, एफ.एम. दुर्रानी एवं फैज-उल-हक इत्यादि ने कांग्रेस के विरुद्ध व्यापक आदोलन प्रारंभ कर दिया। अब साम्प्रदायिकता का स्वरूप उग्र हो गया तथा उसके चरित्र में भय, घृणा, जुल्म, दमन एवं हिंसा जैसे शब्दों का समावेश हो गया।

1937 तक साम्प्रदायिकता का नरमपंथी दौर जारी रहा, जो मुख्यतः बचाव तथा आरक्षण जैसे मुद्दों के आसपास केंद्रित रहा। किंतु इसके बाद वह तेजी से उग्रवादी या फासीवादी तौर-तरीके अपनाने लगी। उसका सामाजिक आधार अब तेजी से व्यापक होने लगा तथा जनसामान्य को गिरफ्त में लेने के प्रयास होने लगे। इसके लिये मुख्यतः शहरी निम्न-मध्य वर्ग को आधार बनाया गया। इस वर्ग को उभारकर सुसंगठित एवं आक्रामक साम्प्रदायिक राजनीति प्रारंभ करने की कोशिश की जाने लगी। अभी तक सम्प्रदायवादी राजनीति का मुख्य आधार उच्च वर्ग था। अतः निम्न-मध्य वर्ग को अपनी चपेट में लेने तथा साम्प्रदायिकता को जनआंदोलन का स्वरूप देने के लिये भय तथा घृणा जैसी अतार्किक भावनाओं का सहारा लिया गया।

हिन्दुओं के उग्रवादी संगठनों राष्ट्रवादी संगठनों यथा- हिन्दू मह्रासभा तथा आर.एस.एस. एवं गोलवकर के विचारों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को उग्रवादी स्वरूप धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उग्रवादी साम्प्रदायिकता के उदय के अनेक कारण थे, जो इस प्रकार हैं-

  1. सिद्धांतवादी- मालिकतावादी अवधारणा का विकास, प्रतिक्रियावादी तत्वों ने साम्प्रदायिकता का सहारा लेकर अपना सामाजिक आधार पुख्ता किया।
  2. उपनिवेशवादी शासन ने राष्ट्रवादियों को विभाजित करने हेतु अन्य सभी माध्यमों का सहारा लिया।
  3. सम्प्रदायवादी मानसिकता को चुनौती देने की प्रारंभिक असफलताओं ने उग्रवादी साम्प्रदायिकता को रेखांकित एवं सुदृढ़ किया।

1937-39:  मु. अली जिन्ना ने समझौते की उन सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया, जब उन्होंने यह असंभव मांग प्रस्तुत की कि कांग्रेस स्वयं को हिन्दू संगठन घोषित करे तथा मुस्लिम लीग को मुसलमानों की मुख्य प्रतिनिधि संस्था के रूप में मान्यता दे।

24 मार्च 1940: मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें कहा गया “अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अधिवेशन में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत में ऐसी कोई भी संवैधानिक योजना सफल और मुसलमानों की स्वीकृत नहीं होगी, जो कि अग्रलिखित सिद्धांतों पर आधारित न होः “भौगोलिक स्थिति से एक-दूसरे से लगे हुये प्रदेश, यथानुसार आवश्यक परिवर्तनों सहित इस प्रकार गठित किये जायें ताकि वहां मुलसमान बहुमत में हों जैसा कि भारत के उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी प्रदेश और इनको मिलाकर एक ‘स्वतंत्र’ राज्य बना दिया जाये और उसमें सम्मिलित प्रदेश स्वशासी और प्रभुसत्तासपन्न हो तथा जिन अन्य स्थानों में मुसलमान अल्पमत में हो वहां उन्हें पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाये” ।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरानः ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों का सक्रिय सहयोग पाने के उद्देश्य से युद्धोपरांत संविधान सभा बनाने का आश्वासन दिया लेकिन साथ ही उसने अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति भी अपनायी। उसने सभी अल्पसंख्यक समुदायों को भरोसा दिलाया कि वह किसी भी ऐसी सरकार को मान्यता नहीं देगी जिसमें देश के सभी महत्वपूर्ण सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व न हो। एक प्रकार से उसने मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्र सिद्धांत को अपनी मौन स्वीकृति दे दी। मुस्लिम लीग ने इस विशेषाधिकार का भरपूर-प्रयोग किया तथा यथासंभव हर अवसर पर पृथक पाकिस्तान की मांग उठायी। लीग ने अगस्त प्रस्ताव, क्रिप्स प्रस्ताव, शिमला सम्मेलन तथा मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल (कैबिनेट मिशन) के प्रस्तावों में पृथक पाकिस्तान की मांग को पूर्णरूपेण स्वीकार किये जाने की संभावनायें तलाशीं। अंततः मुस्लिम लीग की पृथक पाकिस्तान की मांग पूर्ण हो गयी, जब 1947 में मुस्लिम बहुल प्रांतों- पंजाब, सिन्ध, ब्लूचिस्तान, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत तथा बंगाल को मिलाकर एक नये राष्ट्र, स्वतंत्र पाकिस्तान का गठन हुआ।

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