भारत का नियंत्रक-महालेखा परीक्षक Comptroller and Auditor General of India – CAG

पद एवं योग्यता

स्वतंत्र लेखा परीक्षा की व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र का एक आवश्यक उपादान है। कार्यपालिका के वित्तीय आदान-प्रदान का औचित्य अथवा अनौचित्य निश्चित करना एक तकनीकी कार्य है, इसके लिए विशेष अनुभव तथा समझबूझ की आवश्यकता होती है। इसी प्रयोजन के लिए माना गया है।

भारत सरकार के अंतर्गत यह अत्यधिक महत्वपूर्ण पद है, जिसके द्वारा देश की समस्त वित्तीय प्रणाली को नियंत्रित किया जाता है। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक की व्यवस्था की व्याख्या संविधान के भाग-5 में की गई है {संविधान में नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का पद भारत शासन अधिनियम, 1935 के अधीन महालेखा परीक्षक के नमूने के आधार पर बनाया गया है। अनुच्छेद-148 के अनुसार, भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसकी कार्यविधि 6 वर्ष है। इसको पदच्युत करने के लिए दोनों सदनों के समावेदन की आवश्यकता पड़ती है। यह पद उस नियम का अपवाद हे जिसमें संघ के सभी लोक सेवक राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। भारत का नियंत्रक महालेखा परीक्षक पद-त्याग के पश्चात् भारत सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन लाभ के किसी पद को ग्रहण नहीं कर सकता। नियंत्रक-महालेखा परीक्षक अधिनियम, 1971 को संशोधित करके 1976 में इस अधिनियम द्वारा नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के लिए निर्धारित की गई सेवा की शताँ के संबंध में उपबंध इस प्रकार हैं-

  1. 65 वर्ष की आयु तक ही नियंत्रक-महालेखा परीक्षक अपने पद पर कार्य कर सकता है।
  2. वह किसी भी समय राष्ट्रपति को संबोधित करके अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा पद त्याग कर सकता है।
  3. अनुच्छेद [148(1),124(4)] के अनुसार उसे महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है।
  4. उसका वेतन उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के समतुल्य होगा।
  5. अन्य विषयों में उसकी सेवा की शर्ते उन्हीं नियमों से अवधारित होंगी जो भारत सरकार के सचिव की पंक्ति के भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्यों के लिए लागू हैं।
  6. नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के कार्यालयका प्रशासनिक व्यय, कर्मचारियों के वेतन आदि भारत की संचित निधि पर भारित होंगे।
  • भारत का नियंत्रक-महालेखा परीक्षक देश की सम्पूर्ण वित्तीय प्रणाली को नियंत्रित करता है (भाग-V)।
  • 6 वर्ष की अवधि हेतु इसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इससे पूर्व इसे केवल संसद द्वारा महाभियोग लगाकर ही हटाया जा सकता है।

 कार्य एवं शक्तियां

भारत का नियंत्रक-महालेखा परीक्षक संघ और राज्यों के लेखों के संबंध में ऐसे कर्तव्यों का पालन और ऐसी शक्तियों का प्रयोग करेगा जो संसद द्वारा विहित किए जाएं। अनुच्छेद-149 से 151 के अंतर्गत नियंत्रक महालेखा परीक्षक के कर्तव्यों और शक्तियों का उल्लेख किया गया है।

भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के कार्यों और शक्तियों के प्रयोग में स्वतंत्रता के उद्देश्य से 1971 में एक अधिनियम पारित किया गया, जिसे 1976 में संशोधित करके नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के कर्तव्यों के परिप्रेक्ष्य में कुछ उपबंध निश्चित किए गए, जो इस प्रकार हैं-

  1. भारत और प्रत्येक राज्य तथा विधान सभा या प्रत्येक संघ राज्यक्षेत्र की संचित निधि से सभी प्रकार के व्यय की संपरीक्षा और उन पर यह प्रतिवेदन कि क्या ऐसा व्यय विधि के अनुसार है।
  2. संघ और राज्यों की आकस्मिकता निधि और लोक लेखाओं से हुए सभी व्ययों की संपरीक्षा और उन पर प्रतिवेदन।
  3. संघ या राज्य के विभाग द्वारा किए गए सभी व्यापार तथा विनिर्माण के हानि और लाभ लेखाओं की संपरीक्षा और उन पर प्रतिवेदन।
  4. संघ और प्रत्येक राज्य की आय और व्यय की संपरीक्षा जिससे कि उसका यह समाधान हो जाए की राजस्व के निर्धारण, संग्रहण और उचित आबंटन के लिए पर्याप्त परीक्षण करने के उपरांत नियम और प्रक्रियाएं बनाई गई हैं।
  5. संघ और राज्य के राजस्वों द्वारा पर्याप्त रूप से वित्त पोषित सभी निग्कयों और प्राधिकारियों की, सरकारी कंपनियों की, अन्य निगमों या निकायों की, जब ऐसे निगमों या निकायों से संबंधित विधि द्वारा इस प्रकार अपेक्षित हो, प्राप्ति और व्यय की संपरीक्षा और उस पर प्रतिवेदन। 
  • नियंत्रक-महालेखा परीक्षक द्वारा संघीय लेखाओं से सम्बद्ध प्रतिवेदन राष्ट्रपति को तथा राज्यों से सम्बद्ध लेखाओं संबंधी प्रतिवेदन सम्बन्धित राज्यों के राज्यपालों के समक्ष प्रस्तुत किए जाते हैं, जो इन्हें क्रमशः संसद एवं राज्यों के विधानमण्डलों के पटल पर रखते हैं।
  • वह राष्ट्रीय वित्त का संरक्षक होता है।
  • भारत में नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का भारत की संचित निधि से धन के निर्गम पर कोई नियंत्रण नहीं होता।

नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का सशक्तिकरण
ज्ञातव्य है कि नियंत्रक महालेखा परीक्षक राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है, हालांकि यह एक संवैधानिक पद है एवं जिसका उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 148 में बखूबी किया गया है। इसका कार्य संघ एवं राज्य सरकार के लेखाओं का परीक्षण एवं अंकेक्षण करना है ताकि वित्त संबंधी नियमितता एवं अनियमितता सामने आ सके अर्थात इसे लोक वित्त का संरक्षक कहा जा सकता है। महत्वपूर्ण है कि इतने संवेदनशील कार्य के लिए क्या महालेखा परीक्षक को पर्याप्त शक्तियां प्रदान की गई हैं यदि  नहीं तो इसे किस प्रकार सशक्त किया जाए?प्रत्येक वर्ष नियंत्रक-महालेखा परीक्षक लेखाओं की गहन जांच करता है, परिणामस्वरूप सरकार के कार्य करने के तरीकों की सामने लाता है। हाल ही में इसी प्रकार के कुछ तथ्य कैग द्वारा उद्घाटित किए गए हैं-


  1. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) के अंतर्गत जिस प्रकार ग्राम स्तर पर लेखाओं के व्यवस्थापन की दयनीय स्थिति है उससे इस योजना संबंधी सरकार के आकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता;
  2. परमाणु ऊर्जा विभाग ने पिछले दो दशकों से अधिक,समय में नए यूरेनियम भंडारों को खोजने की दिशा में संतोषजनक कार्य नहीं किया है हालांकि भारत चार दशकों से अपने सभी परमाणु रिएक्टरों की सफलतापूर्वक संचालित कर रहा है।
  3. संचार प्रगति एवं पर्याप्त वित्त के बावजूद, तकनीकी विभाग ने भारत के ग्रामों तक दूरभाष संजाल की पहुंचाने की दिशा में अपेक्षा से काफी कम कार्य किया है। आज भी 100 में से एक व्यक्ति तक ही फोन उपलब्धता संभव हो सकी है।
  4. पर्यटन मंत्रालय ने वर्ष 2002 से 2007 के बीच राज्यों की पर्यटन संबंधी आधारभूत ढांचा विकसित करने हेतु 1,500 करोड़ रुपए आवंटित किए लेकिन आबंटित वित्त के उचित व्यय की निगरानी हेतु कोई प्रयास नहीं किए।
  5. वाणिज्य मंत्रालय के अंतर्गत संचालित कॉफी बोर्ड ने दो दशकों से भी अधिक समय में कॉफी की कोई नई किस्म प्रस्तुत नहीं की, साथ ही किसान 1980 से पहले कीटनाशक जीव एवं रोग प्रभावित किस्मों पर निर्भर हैं जिससे कॉफी का उत्पादन 31 प्रतिशत तक घट गया है।

वर्ष 2009 में विश्लेषण के अनुसार पिछले पंद्रह वर्षों में कैग करीब 9,000 इस प्रकार के प्रकरणों को सामने लाया, जिसमें से 8,000 प्रकरणों का उसे कोई उत्तर नहीं दिया गया और जिनका जवाब दिया गया वे अधिकतर निराशापूर्ण एवं विलंबित थे। हालांकि विधिनुसार सरकार की चार महीनों के भीतर कैग की कार्रवाई-प्रतिवेदन के साथ जवाब देना आवश्यक है।

अगर अन्य लोकतंत्रों में लेखा महानिरीक्षक की स्थिति को देखा जाए तो न्यूजीलैंड में लेखा महानिरीक्षक अपराध अधिनियम-1961 के अंतर्गत वित्त के व्यय से सम्बंधित तथ्यों को जुटाने के लिए सार्वजानिक महत्त्व के प्रपत्रों को कभी भी देख सकता है साथ ही सरकारी अधिकारियों से पूछताछ एवं उनके बैंक खातों की जांच कर सकता है। आस्ट्रेलिया में लेखा महानिरीक्षक संसद का स्वतंत्र अधिकारी है जिसे गर्वनर जनरल द्वारा नियुक्त किया जाता है। सरकारी कागजातों एवं सूचना प्राप्त करने संबंधी इसे व्यापक अधिकार प्राप्त हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में यह किसी भी संघीय न्यायालय में उसके प्राधिकार की अवमानना करने पर कार्रवाई कर सकता है।

वस्तुतः भारत में कैग जनता की आवाज का प्रतिनिधित्व कर सकता है, सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकता है एवं अक्षमता और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ सकता है, बशर्ते इसे न्यायिक एवं दण्डात्मक शक्तियों के साथ-साथ उदीयमान नए क्षेत्रों में इसकी भूमिका को बढ़ाया जाए जिससे कैग वास्तविक रूप से नागरिकों के लिए कार्य करने वाले औम्बुडसमैन की भूमिका निभा सके। निम्न सुझावों के माध्यम से भारत में कैग की सशक्त किया जा सकता है-

  1. कैग को अधिक शक्ति एवं कोष आबंटित किया जाना चाहिए ताकि वह अपने कर्मचारीवृंद एवं क्षेत्र को बढ़ा सके।
  2. लेखा महानिरीक्षक अधिनियम-1971 में संशोधन कर महालेखा निरीक्षक को सम्मन एवं दण्डात्मक कार्रवाई की न्यायिक शक्तियां ऐसे अधिकारियों के विरुद्ध दी जानी चाहिए जो उसे संबंधित सूचना 15 दिनों के भीतर देने से मना करते हैं या अक्षम होते हैं।
  3. यदि सम्बद्ध अधिकारी के वित्तीय व्यय में जानबूझकर गड़बड़ी पायी जाती है तो कैग की शक्ति होनी चाहिए कि वह अधिकारी के वेतन में से ऐसी राशि ले सके।
  4. प्रत्येक जिले में कैग के क्षेत्रीय कार्यालय हेतु उसे धन आबंटित किया जाना चाहिए।
  5. सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल के अंतर्गत सार्वजनिक प्रोजेक्ट में भागीदार निजी कंपनी के लेखाओं की जांच करने का अधिकार कैग को दिया जाना चाहिए।
  6. सरकारी वित्त द्वारा संचालित गैर-सरकारी संगठनों के विकास संबंधी प्रोजेक्ट की जांच का अधिकार कैग को दिया जाना चाहिए।
  7. लेखाओं में अनियमितता से सम्बद्ध कार्यालयों एवं कागजातों को सील एवं जब्त करने तथा सम्बद्ध अधिकारियों की संपत्ति एवं बैंक खातों संबंधी सूचना प्राप्त करने का अधिकार कैग को दिया जाना चाहिए।

इसके अतिरिक्त नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का एक और महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व यह है कि वह सरकारी लेखाखाताओं में अतिव्यय होने की स्थिति में मितव्ययता की दृष्टि से लोक लेखा समिति को इससे अवगत कराये। अनुच्छेद-151 के अनुसार, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक संघीय खातों से सम्बद्ध प्रतिवेदनों को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करता करता है। राष्ट्रपति और राज्यपाल उनको क्रमशः संसद और राज्यों के विधान मंडल के समक्ष रखते हैं।

नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का उत्तरदायित्व कर-दाता के हितों को सुरक्षित रखना है। भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक को राष्ट्रीय वित्त का संरक्षक कहा जाता है।

भारत में नियंत्रक-महालेखा परीक्षक भारत की संचित निधि से धन के निर्गम पर कोई नियंत्रण नहीं रख सकता। इसके पदनाम से तो स्पष्ट है किंतु अभी तक नियंत्रक-महालेखा परीक्षक केवल लेखा परीक्षक का ही कर्तव्य कर रहा है, जबकि इंग्लैंड का नियंत्रक-महालेखा परीक्षक लोक धन की प्राप्ति और उसके निर्गम का भी नियंत्रण करता है।

नियंत्रक-महालेखा परीक्षक अधिनियम, 1971 द्वारा, नियंत्रक-महालेखा परीक्षक की यह शक्ति प्राप्त है कि वह सरकारी कपनियों और अन्य निकायों, जो संघ या राज्य के राजस्व द्वारा पर्याप्त रूप से वित्त पोषित हैं, प्राप्ति और व्यय की संपरीक्षा करे और प्रतिवेदन प्रस्तुत करे, चाहे इस विषय में कोई विनिर्दिष्ट विधान हो या नहीं।

नियंत्रक महालेखा परीक्षक के कार्यक्षेत्र पर विवाद

वर्तमान समय में नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के कायं विवाद के कारण चर्चा में आए हैं। इस पर निम्न विवाद उत्पन्न होते हैं-

  1. क्या नियंत्रक-महालेखा परीक्षक की लेखा परीक्षा का कार्य करने में यह अधिकारिता है कि वह किसी व्यय के लिए विधिक प्राधिकार देखने के अतिरिक्त फिजूलखर्ची की आलोचना करते हुए मितव्ययिता का सुझाव दे?  पारंपरिक दृष्टिकोण तो यह है कि जब कोई कानून किसी प्राधिकारी को किसी व्यय की मंजूरी देने की शक्ति या विवेकाधिकार देता है तो संपरीक्षा का कार्य विशिष्ट मामलों में ऐसी शक्ति के प्रयोग के औचित्य की संपरीक्षा करना है। ऐसा करते समय अर्थव्यवस्था के हित को ध्यान में रखा जाएगा और संपरीक्षा में वैधता की तो देखा हो जाएगा। लेकिन सरकारी विभाग इसका इस आधार पर विरोध करते हैं कि यह हस्तक्षेप उनके प्रशासन के लिए उत्तरदायित्व से मेल नहीं खाता।
  2. दूसरा प्रश्न यह है कि क्या नियंत्रक-महालेखा परीक्षक की संपरीक्षा का विस्तार सरकार के उन वाणिज्यिक या औद्योगिक उपक्रमों पर भी होना चाहिए जो प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के या कानूनी लोक निगमों या उपक्रमों के माध्यम से चलाए जाते हैं? ये कंपनी या निगम अपने संगम अनुच्छेद या शासी अधिनियम द्वारा शासित होते हैं। एक पूर्व नियंत्रक-महालेखा परीक्षक में यह तर्क दिया था, जो सही प्रतीत होता है कि, इन कंपनियों या निगमों की सरकार के नाम से विनिधान के लिए धन भारत की संचित निधि से दिया जाता है तथापि ऐसी कंपनियों की संपरीक्षा करना नियंत्रक-महालेखा परीक्षक व प्रतिवेदन में इन निगमों के लेखाओं की संवीक्षा के परिणाम सम्मिलित नहीं होते ओर लोक लेखा समिति या संसद के पास सार्वजनिक धन खर्च करने वाले इन महत्वपूर्ण निकायों के नियंत्रण के लिए सामग्री नहीं होती। सरकार के प्रतिरोध का आधार यह है कि नियंत्रक-महालेखा परीक्षक को उद्यमों के लेखाओं के लिए आवश्यक कारोबारी या औद्योगिक अनुभव नहीं है। इसके अतिरिक्त सरकार का यह भी मानना है कि नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के पारंपरिक तंत्र से ये उद्यम, जो राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक हैं, जड़ हो जाएंगे।
  3. क्या कैग को बहु-सदस्यीय निकाय बनाया जाना चाहिए? कथित घोटालों पर कैग की विभिन्न रिपोटाँ से आहत या दयनीय स्थिति होने के बाद, यूपीए-II सरकार ने सक्रिय रूप से एक प्रस्ताव पर विचार किया कि कैग को बहुसदस्यीय निकाय बनाया जाए। आरोप लगाए गए हैं कि कैग की रिपोर्ट अक्सर नीतिगत विचारों में नैतिक एवं व्यावहारिक कानूनों को भंग करती है।

भूतपूर्व कैग वी.के. शृंगलू की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति ने कैगकार्यालय की जवाबदेयता एवं पारदर्शिता को बनाए रखने के लिए एक प्रभावी निगरानी तंत्र बनाने के कई उपाय सुझाए। मनमानी एवं तानाशाही को रोकने के लिए, जिससे इसके कार्यकरण में अक्षमता उत्पन्न होती है, समिति ने कैग को तीन सदस्यीय निकाय बनाने का सुझाव देकर इसमें संरचनात्मक परिवर्तनों की बात रखी।

इनमें से दो सदस्यों को विधि और लेखांकन पृष्ठभूमि का होना चाहिए और एक सामान्यज्ञ होना चाहिए।

समिति ने सुझाव दिया की कैग के लेखों का लेखांकन लोक लेखा समिति द्वारा नियुक्त पेशेवर लेखापरीक्षक द्वारा होनी चाहिए और लेखापरीक्षक की रिपोर्ट विभागीय स्थायी समितियों को सौंपी जानी चाहिए ताकि सर्वप्रथम विभाग के हित के लिए इस पर पर्याप्त विचार-विमर्श का अवसर मिल सके।

पैनल ने केंद्रीय सतर्कता आयोग की मुख्य तकनीकी परीक्षा इकाई की अधिक स्वायत्तता की अनुशंसा भी की। मुख्य तकनीकी परीक्षण इकाई (सीटीई) की स्वायत्तता की मात्रा अपर्याप्त है, और इसे बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। सीटीई को डिज़ाइन, परीक्षण इत्यादि विशिष्ट कार्यो को विशेषज्ञ परामर्शकों से कराना चाहिए और सलाहकारों का एक पैनल रखना चाहिए। सीटीई की जांच महज त्रुटि ढूंढने वाला शव परीक्षण तक सीमित होने की अपेक्षा त्रुटियों की वृद्धि के लिए अवसर प्रदान करने की होनी चाहिए।

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