रोग कारण व निवारण Diseases Cause and Prevention
मानव शरीर के किसी अंग या तन्त्र में जब सामान्य कार्य या कार्यिकी न हो रहा हो तो उसे रोग कहा जाता है। रोग उत्पन्न करने वाले जीवों को रोगाणु कहते हैं। रोगों के अध्ययन को रोग विज्ञान कहा जाता है।
एंथ्रैक्स
- एंथ्रैक्स सामान्यतः शाकाहारी पशुओं में होने वाली संक्रामक बीमारी है जो बैसीलस एन्थरैसिस नामक जीवाणु से होती हैं। मनुष्य में संक्रमण पशुओं के संपर्क में आने से हो जाता है।
- इसके लक्षण 7 से 10 दिनों में प्रकट होने लगते हैं। रोगी को बुखार, थकान, सूखी खाँसी और बेचैनी होती है। एंथ्रैक्स की पहचान एंटीबॉडी परीक्षण एलीसा परीक्षण, रक्त परीक्षण तथा बैक्टीरियल कल्चर द्वारा किया जाता है।
- संक्रमण से पूर्व टीका भी बचाव का उपाय है। संक्रमण के पश्चात् एंटी बायोटिक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए। एंथ्रैक्स के जीवाणु जैविक हथियार के रुप में भी प्रयुक्त किये जा रहे हैं।
बर्ड फ्लू
- इसे एवियन इंफ्लूएंजा या एवियन फ्लू भी कहते हैं। आर्थेमिक्सोविरिडल कुल के वायरस इंफ्लूएंजा द्वारा होता है। यह वायरस पक्षियों पर रहता है, इनसे यह अन्य जन्तुओं सूअर, घोड़ा, मछली, मनुष्य आदि में फैलता है।
- चूंकि पक्षी इसके वाहक है, अतः इसको किसी निश्चित सीमा में रोक पाना मुश्किल हो जाता है। गत दिनों जिसका प्रकोप फैला था, वह H5N1 प्रकार का फ्लू था। इसके द्वारा फेफड़ों की कोशिकाएं सवंमित होती है। बर्ड फ्लू की कारगर दवा टेमिफ्लू है।
जापानी इन्सेफेलाइटिस
- उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले से प्रारम्भ हुई वायरस जनित यह बीमारी मनुष्यों में मच्छरों के काटने से पहुँचती है। इसके वायरस आर्बोवायरस, क्यूलेक्स मच्छरों में पाये जाते हैं जो धान के खेत में प्रजनन करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।
- रक्त से होते हुए वायरस ग्रंथियों में पहुँचकर बहुगुणन कर संख्या में वृद्धि करते हैं। पुनः रक्त द्वारा दिमाग पर आक्रमण करते हुए ऊतकों को नष्ट करते हैं।
- इससे दिमाग ही नहीं, स्पानल कार्ड भी प्रभावित हो जाता है।
- बाह्य श्वसन तंत्र मूलतः नाक के आन्तरिक भाग सूखकर इतने कठोर हो जाते हैं कि सांस लेने भी कठिनाई होती है। बुखार, भयानक दर्द, चक्कर आना, जी – मिचलना आदि प्राथमिक लक्षण हैं।
- द्वितीय लक्षणों में शारीरिक असमर्थता, लकवा जैसी स्थिति, कंपकपी का दौरा पड़ना, बेहोशी चेहरे पर पपड़ी, दिमागी असन्तुलन आदि हैं अत्यधिक डिहाइड्रेशन की वजह से शारीरिक वजन घटता जाता है और 7 से 14 दिन में मृत्यु हो जाती है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में मच्छरों के प्रजनन स्थानों की अधिकता तथा द्वितीयक पोषक (पालतू सुअर आदि) की उपलब्धता के कारण यह रोग शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक फैलता है अत: कभी कभी इसे ग्रामीण क्षेत्र का रोग भी कहा जाता है। इससे बचाव ही उपचार है, अतः मच्छरों से बचना ही रोग से बचना है। वैसे इसका टीका (जे. ई. वैक्सीन) भी उपलब्ध है।
आर्थराइटिस
- इसे गठिया या वात रोग के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग में शरीर के जोड़ों में दर्द रहता है। यह कई प्रकार का होता है।
- गाउट: इसमें शरीर की अस्थियों के जोडों में यूरिक अम्ल जमा होने से दर्द होता है।
- आस्टियोआर्थराइटिस: अस्थियों के जोडों के कार्टिलेज घिस जाते हैं इससे जोड़ों का लचीलापन समाप्त हो जाता है तथा वे कड़े हो जाते हैं।
- रुमेटाइड अर्थराइटिस: साइनोवियल झिल्ली में सूजन आने तथा कार्टिलेज के ऊपर सख्त ऊतक उत्पन्न होने से होता है।
प्रदूषण जनित बीमारियाँ
मिनीमाटा: यह शरीर में पारा (Hg) की अधिकता के कारण होती है। प्रारम्भ में यह जापान की मिनीमाटा की खाड़ी में पारा समन्वित मछलियाँ खाने से हुई थी। उसमें शरीर के अंग होठ, तथा जीभ काम करना बंद कर देते हैं, साथ ही बहरापन, आंखों का धुंधलापन तथा मानसिक असंतुलन भी पैदा हो जाता है।
इटाई-इटाई रोग: यह कैडमियम के प्रदूषण से होती है। जब कैडमियम शरीर के सुरक्षा स्तर से अधिक मात्रा में पहुंचता है तब यह रोग होता है। इसमें अस्थियों एवं जोड़ों के दर्द के अलावा यकृत व फेफड़ों का कैंसर भी हो जाता है।
ब्लू बेबी सिण्ड्रोम: नाइट्रेट की अधिकता से होता है। नाइट्रेट की अधिकता होने पर हीमोग्लोबिन से प्रतिक्रिया करके अक्रिय मिथेमोग्लोबीन बनाता है जो शरीर में आक्सीजन संचरण को अवरुद्ध करता है। फलत: शरीर नीला पड़ जाता है।
ब्लैक फुट: आर्सेनिक के लगातर सम्पर्क से यह बीमारी होती है इससे त्वचा तथा फेफड़े का कैंसर भी हो जाता है। यह पशुओं में अधिक पायी जाती है।
मानसिक रोग
हिस्टीरिया: इच्छा अथवा आशा के विघात होने पर आवेशपूर्ण अथवा असाधारण रुप में नाटकीय व्यवहार को हिस्टीरिया कहते हैं। रोगी के हाथ-पैर में अकड़न, शरीर में कपकपी अथवा रोगी जोर से हँसने या रोने लगता है।
यह रोग युवा लड़कियों और वयस्क स्त्रियों में अधिक होता है। कारणों में अपूर्ण मैथुन, गर्भाशय रोग, कमजोर स्वास्थ्य आदि है।
सीजोपेनिया: इसमें रोगी के अन्दर व्यक्तित्व विद्यटन के लक्षण मिलते हैं। बुद्धि की तमाम शक्तियां युवावस्था में ही दुर्बल हो जाती है। विचारहीनता, भावहीनता, इच्छाहीनता, भ्रांतचित्रता एवं मिथ्या प्रतीति इसके प्रधान लक्षण हैं। यह वंशानुगत रोग है।
पीडोफिलिया: यह एक यौन विकृति है, जिसमें परिपक्व अवस्था का व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, बालक के साथ किशोरावस्था से पूर्ण ही कामजनित व्यवहार प्रदर्शित करता है। यह विपरीत लिंगी अथवा समलिंगीय के साथ हो सकता है।
लिंग सहलग्न रोग
वर्णान्धता: यह लिंग-सहलग्न रोग है। इसमें रोगी को लाल एवं हरा रंग पहचानने की क्षमता नहीं होती है।
इसीलिए इसे लाल-हरा अंधापन भी कहते है। इसमें मुख्य रुप से पुरुष प्रभावित होता है। स्त्रियां मात्र वाहक होती है। स्त्रियों में यह रोग तभी होता है जब उसके दोनों गुणसूत्र (××) प्रभावित हो यदि केवल एक गुणसूत्र (×) पर वर्णान्धता के जीन हैं, तो स्त्रियाँ वाहक का कार्य करेगी। इसके विपरीत पुरुषों के एक जीन (×) पर वर्णान्धता के जीव उपस्थित होने पर ही पुरुष वर्णान्ध होंगे।
हीमोफीलिया: इस रोग से ग्रसित व्यक्ति में रक्त का थक्का नहीं बनता है और कटने या फटने पर रक्त बहता रहता हैं। हिमोफीलिया की वंशागति वर्णान्धता के समान होती है अर्थात् यह भी एक लिंग-सहलग्न रोग है।
इसमें भी स्त्रियां वाहक होती हैं। हेल्डेन का मानना है कि यह रोग ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया से प्रारम्भ हुआ।
राष्ट्रीय संक्रमक रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एनवीबीडीसीपी): एवनीबीडीसीपी निदेशालय केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं की निगरानी और समन्वय के लिए राष्ट्रीय नोडल एजेंसी का काम करता है। इस कार्यक्रम को निम्नलिखित बीमारियों से सुरक्षा एवं नियंत्रित करने के लिए चलाया जा रहा है, जैसे- मलेरिया, फाइलेरिया, कालाज़ार, जापानी इन्सेफ्लाइटिस, डेंगू आदि।
मलेरिया: यह एक परजीवी से फैलने वाली बीमारी है, जो प्लाजमोडियम फैल्सीपेरम या प्लाजमोडियम वाइवेक्स नामक मच्छर से फैलती है।
फाइलेरिया: लिम्फैटिक फाइलेरिएसिस एक ऐसी गंभीर बीमारी है, जो शरीर के अंगों को काफी कमजोर और अयोग्य बना देती है। यह बीमारी क्यूलेक्स क्वीनक्यूफेसीएटस नामक मच्छर से फैलती है। इससे पीड़ित व्यक्ति के शरीर एवं जननांगों में सूजन आ जाती है और वह कोई भी काम करने में असमर्थ हो जाता है।
डेंगू बुखार/डेंगू रक्तस्राव बुखार: डेंगू बुखार एक वायरल ज्वर है, जो मादा एडिस (एडीस एइजिप्टी) मच्छर के काटने से फैलता है। एडिस मच्छर कटेनर, क्लर, बेकार पड़े टायरों, कप, गमलों तथा टूटे-फूटे बर्तनों में जमा पानी में पैदा होते हैं।
चिकनगुनिया: चिकनगुनिया दुर्बल बनाने वाली अघातक वायरल बीमारी है, जिसका प्रकोप भारत में 36 वर्ष बाद 2006 में हुआ। यह डेंगू बुखार से मिलती-जुलती है।
जापानी इन्सेफ्लाइटिस: जापानी इन्सेफ्लाइटिस एक वायरल बीमारी है, जिससे होने वाली मौतों की दर अधिक है। यह बीमारी लंबे समय तक रहती है। यह रोग सूक्ष्म विषाणु के कारण होता है।
कालाजार: कालाजार एक परजीवी बीमारी है। जो लीशमानिया डोनोवनी नामक परजीवी से होता है और फ्लेबोटोमस अर्जेटाइपस नामक मक्खी के काटने से फैलती है।
क्षयरोग: देश में क्षयरोग (टी.बी.) की गंभीर समस्या है। दुनिया के क्षयरोग पीड़ितों का पांचवा हिस्सा यहीं पाया जाता है। यहां हर वर्ष करीब 18 लाख क्षयरोगी बढ़ जाते हैं।
राष्ट्रीय कुष्ठ रोग उन्मूलन कार्यक्रम: सन् 1955 में सरकार ने राष्ट्रीय कुष्ठ रोग नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया था। सन् 1983 में इसे राष्ट्रीय कुष्ठ रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एन.एल.ई.पी.) के रूप में बदल दिया गया। विश्व बैंक की सहायता से राष्ट्रीय कुष्ठ रोग उन्मूलन परियोजना का पहला चरण 1993-94 में शुरू हुआ और मार्च, 2000 में समाप्त हुआ।
राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम: कैंसर भारत में एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। हर साल इसके 7-9 लाख मामले सामने आते हैं। अनुमान है कि इस समय लगभग 25 लाख कैंसर मरीज मौजूद है। देश में हर साल कैंसर से चार लाख मौतें होती है। देश में 40 प्रतिशत कैंसर का कारण तम्बाकू है। इसलिए तम्बाकू जनित कैंसर मनुष्यों में आम है जैसे कि फेफड़ों, मुंह का कैंसर। महिलाओं में गर्भ और स्तन कैंसर साधारण सी बात है।
भारतीय चिकित्सा परिषद्: भारतीय चिकित्सा परिषद् की स्थापना एक विधायी संस्था के रूप में भारतीय चिकित्सा परिषद् अधिनियम, 1933 के अंतर्गत की गई (बाद में इसे निरस्त कर भारतीय चिकित्सा परिषद् अधिनियम, 1956 लाया गया, जिसमें 1958 में मामूली संशोधन किए गए)।
केन्द्रीय स्वास्थ्य शिक्षा ब्यूरो: केन्द्रीय स्वास्थ्य शिक्षा ब्यूरो की स्थापना 6 दिसम्बर, 1956 को केन्द्रीय स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत भारत में स्वास्थ्य शिक्षा और स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए की गई।
राष्ट्रीय आरोग्य निधि: मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय रोग सहायता कोष की स्थापना सन् 1997 में 5 करोड़ रुपये की राशि से की गई। बाद में इसका नाम बदलकर राष्ट्रीय आरोग्य निधि (आर.ए.एन) कर दिया गया। 21 राज्यों, केन्द्र शासित प्रदेशों (जहां विधान सभाएँ हैं) में इस कोष की स्थापना की गई।
राष्ट्रीय चिकित्सा विज्ञान अकादमी: सन् 1961 में नई दिल्ली में राष्ट्रीय चिकित्सा विज्ञान अकादमी की स्थापना चिकित्सा विज्ञान की प्रगति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। यह अकादमी फेलो और सदस्यों का चुनाव कर प्रतिभाओं तथा योग्यताओं को मान्यता देती है।
ग्रामीण स्वास्थ्य और परिवार कल्याण ट्रस्ट का गांधीग्राम संस्थान (जीआईआर एचएफडब्लूटी): फोर्ड फाउंडेशन की वित्तीय सहायता, भारत सरकार और तमिलनाडु सरकार द्वारा 1964 में इसकी स्थापना की गई थी। गांधीग्राम संस्थान में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण प्रशिक्षण केन्द्र, देश के 47 केन्द्रों में से एक है। संस्थान में प्रशिक्षण केन्द्र केन्द्रीय प्रशिक्षण संस्थान के रूप में कार्य करता है।
भारतीय नर्सिंग परिषद: भारतीय नर्सिग परिषद् का गठन, नर्सिग अधिनियम, 1947 के तहत किया गया है। यह परिषद् नर्सों, दाइयों, सहायक नर्स दाइयों तथा स्वास्थ्यचरों के प्रशिक्षण का समान स्तर बनाए रखती है।
पल्स पोलियो प्रतिरक्षण: विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन के 1988 के प्रस्ताव के अनुरूप पल्स पोलियो प्रतिरक्षण कार्यक्रम 1995-96 में 3 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों के लिए शुरू किया गया।
पोलियो उन्मूलन की गति बढ़ाने के लिए 1996-97 में लक्षित आयु वर्ग 5 वर्ष कर दिया गया। 1998-99 में शीतकालीन सत्र के दौरान राष्ट्रीय प्रतिरक्षण दिवस के अवसर पर दो बार निर्धारित केन्द्रों पर दवा पिलाई जाती थी।
- स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशालय का पोषण प्रकोष्ठ नीति निर्धारण, कार्यक्रम क्रियान्वयन, निगरानी और मूल्यांकन, चिकित्सीय और अधचिकित्सीय कर्मियों के प्रशिक्षण की विषय-वस्तु से सबंधित हर मामले में तकनीकी सलाह देता है।
- संतुलित आहार में सही अनुपात में मानव शरीर के विकास तथा रख-रखाव के लिए अपेक्षित आवश्यक पोषण होते हैं। सामान्यतया संतुलित आहार।
- एक सामान्य वयस्क के लिए प्रतिदिन लगभग 3000 कैलोरी मुहैया कराने में सक्षम होना चाहिए।
- सही अनुपात में सभी आवश्यक तत्व शामिल हो। औसत व्यक्ति को 400-500 ग्राम कार्बोहाइड्रेट,70 ग्राम प्रोटीन तथा 75 ग्राम वसा, अर्थात् वसा, प्रोटीन तथा कार्बोहाइड्रेट का अनुपात लगभग 1 : 1: 6 होना चाहिए।
- इसे इस रूप में होना चाहिए कि आसानी से पच सके तथा आसानी से तैयार किया जा सके, जिससे किसी भी हानिकारक बैक्टीरिया को दूर किया जा सके।
- कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा वसा बढ़ते बच्चों, पोषक माताओं तथा कतिपय रोगों से ग्रस्त रोगियों के लिए बेहद जरूरी है। खिलाड़ी को एक सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा ढाई गुना अधिक कार्बोहाइड्रेट की जरूरत है।