जैन धर्म Jainism

जैन धर्म की मान्यता के अनुसार यह काफी पुराना और शाश्वत धर्म है। यह अनादि काल से प्रारंभ हुआ है। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकरों की मान्यता है। ऋग्वेद में ऋषभ और अरिष्टनेमी – दो तीर्थंकरों की चर्चा हुई है। वायु पुराण एंव भागवत पुराण ने ऋषभदेव को नारायण का अवतार घोषित किया। प्रथम तीर्थकर ऋषभ का प्रतीक सांड है। माना जाता है कि उन्होंने कैलाश पर्वत पर अपने शरीर का त्याग किया था। ये आदिनाथ के नाम से भी जाने जाते हैं। दूसरे तीर्थकर अजित का प्रतीक हाथी है। 22वें तीर्थंकर नेमीनाथ का प्रतीक शंख है। 23वें तीर्थकर पाश्र्वनाथ का प्रतीक सांप है। 24वें तीर्थंकर महावीर का प्रतीक सिंह है। प्रारंभिक भागवत पुराण में ऋषभदेव को विष्णु का अवतार माना गया है। 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमी को भी वसुदेव कृष्ण का भाई बताया जाता है। पाश्र्वनाथ की माता का नाम रानी वामा था। पार्श्वनाथ वैदिक कर्मकाण्ड और देववाद के कटु आलोचक थे। इन्होंने चार व्रत -अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह और सत्यवादिता के पालन पर जोर दिया।

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार वर्धमान पहले ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण की पत्नी देवनंदा के गर्भ में आए। परंतु, अभी तक सारे जैन तीर्थकर क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुए थे, इसलिए इन्द्र ने वर्धमान को देवनंदा के गर्भ से हटाकर त्रिशला के गर्भ में स्थापित कर दिया। 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ बनारस के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। 100 वर्ष की अवस्था में बगाल के सम्मेद शिखर पर उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया। महावीर का जन्म 540 ई.पू. में वैशाली के निकट कुंड ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो ज्ञात्रिक गण के प्रधान थे। उनकी माता त्रिशला थी जो चेतक की बहन थी। उनकी पत्नी का नाम यशोदा था। फिर उनकी प्रियदर्शना नामक एक पुत्री पैदा हुई। प्रियदर्शना का विवाह जमाली से हुआ। जमाली ने स्वयं महावीर से दीक्षा ली। आगे जाकर उसे महावीर से मतभेद हो गया। उसके बाद उसने एक अलग संप्रदाय बहुरतवाद चलाया।

कल्पसूत्र और आचारंगसूत्र में, महावीर की कठिन तपस्या की चर्चा की गई है। 30 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृह त्याग किया। 42 वर्ष की अवस्था में जम्बक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य (ज्ञान) की प्राप्ति हुई। अत: वे केवलिन कहलाने लगे। इन्द्रियों को जीतने के कारण उन्हें जिन कहा गया। पराक्रम दिखने के कारण उन्हें महावीर कहा गया।

24 तीर्थकरों की परंपरा को स्वीकार करने से कालदोष उत्पन्न हो जाता है। इसके मानने से जैन धर्म की स्थापना का काल लगभग 900 ई.पू. हो जाता है। परन्तु जैसा कि ज्ञात होता है कि मध्य गंगा घाटी 600 ई.पू. के लगभग आबाद हुई, जबकि प्रारंभिक 15 तीर्थकर इसी क्षेत्र से आये थे। अत: जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक महावीर को ही माना जाना चाहिए। महावीर से पूर्व जैन धर्म को निग्रंथ कहा जाता था। इन्होंने पार्श्वनाथ के चार व्रत की सूची में पाँचवें व्रत के रूप में ब्रह्मचर्य को शामिल किया। आजीवक संप्रदाय की स्थापना के पूर्व मस्करी पुत्र गोशाल छह वर्ष तक, महावीर की कठोर तपस्या का सहभागी रहा। और उसके पश्चात् दोनों में मतभेद उत्पन्न हो गया। तीर्थंकरों की परंपरा केवल जैन धर्म की ऐतिहासिकता प्रदर्शित करने के लिए अपनायी गई है। कैवल्य ज्ञान प्राप्त करने के बाद महावीर ने 30 वर्ष तक समाज में उसका प्रकाश फैलाया। चंपा, वैशाली, राजगृह, नालन्दा, श्रावस्ती और कौशांबी उनके प्रमुख केंद्र थे। दिगम्बर मान्यता के अनुसार, महावीर का प्रथम उपदेश राजगृह के वितुलाचल पर्वत पर हुआ। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् महावीर ने राजगृह में मेघकुमार को दीक्षा दी। कुंडग्राम में उन्होंने देवनंदा ब्राह्मणी और ब्राह्मण ऋषभदत को दीक्षा दी। उसी समय उसने अपनी पुत्री प्रियदर्शना और जमाली (जमाता) को भी दीक्षा दी। कौशांबी में उन्होंने राजा शतानिक के पुत्र उदयन को दीक्षा दी।

राजवंश का संरक्षण ही जैन धर्म के प्रचार-प्रसार का सबसे बड़ा कारण बना। महावीर स्वामी के तात्कालिक वज्जि, लिच्छवि तथा मगध के राजवंशों से पारिवारिक संबंध थे। जैनों और बौद्धों दोनों की ही मान्यता है कि मगध के शासक अजातशत्रु और बिंबिसार उनके संरक्षक थे। उदयन भी एक जैन था। चंद्रगुप्त मौर्य जैन था। उसने श्रवण बेलगोला में प्राण त्यागे थे। चंद्रगुप्त का पौत्र सम्प्रति, एक समर्पित जैन था और जिस तरह अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिऐ कार्य किया उसी प्रकार सम्प्रति ने जैन धर्म के विकास के लिए कार्य किए। माना जाता है कि 468 ई.पू. में 72 वर्ष की अवस्था में राजा हस्तिपाल के यहाँ पावापुरी नामक स्थान पर उनकी मृत्यु हो गई। इस प्रसंग में यह स्मरण रखना चाहिए कि महावीर के जन्म और मृत्यु की तिथियाँ विवादास्पद हैं। कुछ विद्वानों ने उनकी जन्म तिथि 599 ई.पू. तथा मृत्यु 527 ई.पू. माना है।

जैन साहित्य अधिकांशतः प्राकृत में है कितु परवर्ती साहित्य का सृजन संस्कृत में ही किया गया। तृतीय शताब्दी ई.पू. में संग्रहित ग्रंथों को देवर्षि ने छठी शताब्दी ई. में व्यवस्थित किया था। प्रारम्भिक जैन ग्रंथों में 14 पर्व एवं 12 अंग उल्लेखनीय हैं परन्तु पर्व अब विलुप्त हो गये हैं। अंगो में आचारांग, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञानधर्मकथा, उपासक-दशा, अन्तकृतदशा, अनुत शैपपातिक दशा, एव विपाक आदि मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त चार मूल – उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक एव पिण्डनियुक्ति भी उपलब्ध हैं। परवर्ती ग्रंथों में उमास्वाति कृत तत्वार्थाधिगमसूत्र महत्त्वपूर्ण है, जिसके आधार पर द्रव्य सग्रे (नेमिचन्द्र कृत), स्यादवाद मजरी (मल्लिसेन द्वारा रचित), न्यायावतार (सिद्धसेन दिवाकर कृत) की रचना हुई।

द्रव्य सिद्धान्त- जैन विचारकों के अनुसार संसार का कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता। सभी पदार्थ शाश्वत हैं। नष्ट प्रतीत होने का कारण उनके रूप में परिवर्तन है। जगत में द्रव्य छ: प्रकार के होते हैं- (1) जीव, (2) पुद्गल, (3) आकाश, (4) धर्म, (5) अधर्म तथा (6) काल। प्रत्येक जीव ज्ञान-सम्पन्न होता है किन्तु आवरण के कारण इसका ज्ञान आच्छना रहता है।


जीव- जीव शब्द से तात्पर्य है, वह जो जीवित है या प्राणवान है। जीव अनन्त, नित्य तथा अनेक इन्द्रियवाला कहा गया। जीव की समस्त क्रियाये उसके अपने किये कर्म के फलस्वरूप हैं, उसे कर्ता एवं भोक्ता भी माना गया है। जीव को अनन्त ज्ञान, अनन्त श्रद्धा, अनन्त शान्ति, अनन्त वीर्ययुक्त तथा पूर्ण माना गया। जीव दो तरह के कहे गये हैं – मुक्त (मोक्ष प्राप्त) एवं बद्ध (बन्धनयुक्त)। बद्ध को भी दो भागों में विभक्त किया है- त्रस्त (गतिमान) एवं स्थावर (गतिहीन)। स्थावर जीवों में जल, अग्नि, वायु, वनस्पति का शरीर (काया) सर्वथा अपूर्ण होता है। इनके मात्र स्पर्शेन्द्रिय होती है तथा त्रस्त में दो से पांच इन्द्रिय होती हैं।

अन्य द्रव्यों के समान जीव में अवयव (शरीर) होते हैं। अत: यह अवयवी कहलाता है। जीव के आकार को सांसारिक दशा में घटने बढ़ने वाला माना है। उसके प्रत्येक भाग में चैतन्य या बोध व्याप्त है, चैतन्य को आत्मा की विशेषता मान लेने पर सम्पूर्ण शरीर में उसका अस्तित्व मानना युक्तिसंगत है अर्थात् सम्पूर्ण शरीर में आत्मा का विस्तार हो सकता है। इसकी तुलना दीपक से की जाती है। जो कमरे को पूरी तरह प्रकाशित करता है। यद्यपि पाश्चात्य दर्शनिक दोकार्त्त आदि चैतन्य एवं विस्तार को परस्पर विरोधी मानते हैं। उनकी धारणा है कि विस्तार मात्र जड द्रव्यों एवं चैतन्य केवल आत्माओं में पाया जाता है जो संकुचित होता है।

ज्ञान को जीव का स्वरूप माना है न कि विशेषण। अत: वह बिना किसी साधन के प्रत्येक वस्तु को यथार्थ रूप में जान सकता है, यदि कोई तथ्य बाधक न हो। बाह्य चक्षु आदि से इस प्रकार की बाधायें दूर होती हैं। जीव के आशिक ज्ञान का कारण कर्म का आवरण (अविद्या) है जो जीव की प्रत्यक्ष शक्ति में बाधक है। पूर्ण ज्ञान जीव का स्वरूप माना गया है। अत: आशिक या अस्पष्ट ज्ञान की अवस्था उसके पतन की द्योतक कही गयी है। ज्ञान के बिना जीव या जीव के बिना ज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती। ज्ञान की पूर्णता में जीव संसार में रहते हुए सर्वज्ञ हो जाता है एवं सब वस्तुओं को यथार्थ रूप से जानने लगता है। इसे पूर्ण ज्ञान (केवल्य ज्ञान) कहा गया जो महावीर को प्राप्त हुआ था। उक्त ज्ञान ज्ञानेन्द्रिय आदि वाह्य साधनों की सहायता के बिना स्वतः उत्पन्न होता है।

अजीव या जड़ द्रव्य- दूसरा तत्त्व अजीव, पांच कहे गये हैं- काल, आकाश, धर्म, अधर्म एवं पुद्गल। ये तत्त्व जीवन एवं चेतना विहीन हैं। भिन्न-भिन्न क्षणों में वर्तमान रहना काल कहा गया है। अवस्थाओं में परिवर्तन, गति (किसी वस्तु की भिन्न-भिन्न अवस्थायें), प्राचीनता एवं नवीनता का अस्तित्व काल को सिद्ध करते हैं। यह अनस्तिकाय है, अतः दृष्टिगोचर नहीं होता है। फलस्वरूप अनुमान से सिद्ध माना गया आकाश अनन्त है इसे लोकाकाश (जहाँ गति संभव) एवं अलोकाकाश (गति असंभव) दो भागों में विभक्त किया गया है। पुद्गल स्पर्श, रूप (वर्ण), रस एवं गन्ध से युक्त माना है। जड़ तत्त्व को पुद्गल कहते हैं जो नित्य एवं अणुमय होता है जिससे अनुभव की समस्त वस्तुएं बनी हैं। यह सीमित आकृति रखने वाला द्रव्य है। ज्ञानेन्द्रिय एवं मानस और समस्त प्राणियों के शरीर की रचना इसी से मानी गई। जीवों से युक्त ब्रह्मांड के सब अणुओं में जीवों का निवास रहता है। जैनदर्शन में धर्म, अधर्म का प्रयोग नैतिक या धार्मिक अर्थ (पाप-पुण्य) में नहीं किया गया बल्कि इनका एक विशेष अभिप्राय है। धर्म अधर्म का अस्तित्व अनुमान से सिद्ध होता है जो क्रमशः गति (धर्म) स्थिरता (अधर्म) के मूल कारण है। जीव या अन्य किसी जड़ वस्तु की गति के लिए सहायक द्रव्य की आवश्यकता होती है, जिनके कारण गति संभव होती है, उसे धर्म कहा गया। किन्तु धर्म केवल गतिशील द्रव्यों की गति में सहायक हो सकता। मछली का तैरना जल के कारण (जल का अनुकूल आधार होने से) संभव होता है, जल मछली को तैरने के लिए प्रेरणा नहीं देता। द्रव्यों को रखने में अधर्म को सहायक माना गया। पथिक के विश्राम में पेड़ की सहायक होती है। इस तरह दोनों परस्पर विराधी तत्त्व हैं कितु दोनों में समानतायें भी देखी जाती हैं क्योंकि दोनों नित्य, निराकार, गतिहीन एवं लोकाकाश में व्याप्त हैं। यहाँ ध्यातव्य है की कल्पवृक्ष की परिकल्पना जैन धर्म से सम्बद्ध है।

बन्धन एवं मोक्ष- जीव के बन्धन में पड़ने का कारण उसका शरीर धारण करना है। जीव एवं पुद्गल (शरीर) का संयोग ही बन्धन की अवस्था मानी गई। अतः जीव को कष्टमय जीवन व्यतीत करना होता है। इस सांसारिक अवस्था में जीव का सहज एवं स्वाभाविक रूप उसके बाह्य रूप से आच्छादित हो जाता है। उक्त बाधाओं के दूर होने पर जीव स्वाभाविक स्वरूप तथा अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य तथा आनन्द प्राप्त करता है। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि जीव के शरीर धारण करने या पुनर्जन्म के क्या कारण हैं? जैन दर्शन के अनुसार, कर्म एवं संस्कारों के कारण जीव शरीर धारण करता है।

कर्म एक प्रकार से अति सूक्ष्म आणविक द्रव्य के रूप में परिकल्पित किये गये (कर्मवर्गणा) हैं। इन कर्म द्रव्यों का जीव में प्रवेश आस्रव कहा गया। आस्रव के संबंध से जीव अपने स्वरूप को भूलकर कर्म के बन्धन में पड़ जाता है। उसे बन्धन या पुनर्जन्म कहते हैं। जैन विचारधारा में जीव का बार-बार जन्म ग्रहण करना ही बन्धन है। उमास्वाती का कथन है कि जीव कषायों (मानसिक विकार) के संसर्ग से अपने किये कमों के अनुसार विभिन्न शरीर धारण करता है अर्थात् कषायों के कारण कर्मानुसार जीव का पुद्गल से आक्रान्त हो जाना ही बन्धन है। अत: जीव के शरीर धारण करने या पुनर्जन्म का कारण कर्म है। उमास्वाति ने बन्धन के पांच कारणों का उल्लेख किया है – मिथ्यादर्शन, अविरति (असंयम), प्रमाद (असावधानी) योग तथा कषाय (मानसिक विकार)। मनुष्य के समस्त सुख-दुख उसके कर्म के अधीन कहे गये हैं।

यह माना गया कि जीव अपने प्रवृत्तियों के कारण ही विविध शरीर धारण करता है एवं पूर्व-जन्म के विचार, वचन तथा कमों के कारण वासनाओं की उत्पत्ति होती है। मान, माया, मोह, लोभ, क्रोध आदि वासनायें स्वभावत: तृप्त होना चाहती हैं और पुद्गलों को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। यही कारण है कि अनेक जीव विविध शरीर धारण करते हैं। जीव विशेष की ओर कितने एवं किस प्रकार के पुद्गल कण आकृष्ट होंगे, यह अपने कर्मों एवं वासना पर निर्भर करता है और जीव अपने कर्मानुसार शरीर धारण करता है। कर्म एवं जीव का संयोग दूध एवं जल के समान माना गया। अत: कहा जा सकता है कि कर्म संयुक्त जीव बन्धन को प्राप्त है एवं कर्मफल को भोगे बिना मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।

त्रिरत्न

जैन दर्शन का अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष त्रिरत्न की अवधारणा है। त्रिरत्न के अंतर्गत सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान व सम्यक् चरित्र। जैन धर्म में सम्यक् का अर्थ है सही विश्वास या श्रद्धा से। ये त्रिरत्न मोह प्राप्ति के साधन हैं।

समुचित साधना द्वारा कर्मफल से मुक्ति प्राप्त करना ही निर्वाण का मार्ग कहा गया। कर्मबन्धन से मुक्ति का साधन त्रिरत्न को माना है। जैसा विदित है कि जीव एवं कर्म का संयोग ही बन्धन का कारण है अत: इसके वियोग द्वारा ही मोक्ष संभव है। इसके लिए आवश्यक है कि पहले पूर्वजन्म के कर्मफलों का नाश किया जाये एवं इस जन्म में नये कर्मों के प्रवाह को रोका जाये। त्रिरत्न का अभ्यास तथा अनुशीलन इसे प्रतिबन्धित करने में सहायक होता है। त्रिरत्न: सम्यक् दर्शनं, सम्यक् ज्ञान एव सम्यक् चरित्र की जैन साहित्य मे विस्तृत व्याख्या मिलती है।

सम्यक् दर्शन- यथार्थ ज्ञान को अपनाये जाने की प्रवृत्ति को सम्यक् दर्शन कहा गया। सम्यक् दर्शन से तात्पर्य सात तत्त्वों में विश्वास रखना है जैसे जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निझर एव मोक्ष। जीव-अजीव दो स्वतंत्र तत्त्वों के संयोग से सृष्टि का क्रम चलता है और अनादि विश्व में उत्थान-पतन की प्रक्रिया निरन्तर रहती है। मनुष्य के अन्तिम सत्य के अज्ञान तथा राग (सुख भोगने की आकांक्षा) के फलस्वरूप अपने द्वारा किये गये कर्मों से परमाणुओं के जीव में प्रवेश को आस्रव कहा है। जिस प्रकार विभिन्न स्रोतों से जल एक जलाशय में एकत्र होता रहता है, उसी प्रकार कमों का प्रवेश जीव में होता है। आस्रव के जीव में प्रवेश से जीव बन्धन में पड़कर शरीर धारण करता है एवं आवागमन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। बन्ध से मुक्ति हेतु दो बातें आवश्यक हैं- प्रथम जीव के नये कमों के प्रवाह को रोकना जिसे संवर कहा है। यह संयम एवं सदाचार से संभव है। पूर्व कर्म के क्षय की प्रक्रिया को निर्झर (निर्जर) की संज्ञा दी गई है जो आत्म अनुशासन तथा कठोर तपस्या से संभव है।

जीव के कम से पूर्णत: मुक्त हो जाने की स्थिति को मोक्ष कहा है, इस अवस्था में जीव अपने मौलिक एवं विशुद्ध रूप को प्राप्त करने में सफल होता है। यह सप्तस्तरीय प्रक्रिया जीव के बंधन से मुक्ति के उपाय को स्पष्ट करती है।

सम्यकज्ञान- असंदिग्ध एवं दोषरहित ज्ञान को सम्यक् ज्ञान की संज्ञा दी गई। ज्ञान के पाँच प्रकार माने गये हैं। प्रथम् मतिज्ञान जो इन्द्रिय एवं मन द्वारा प्राप्त होता है, यथा नाक से गन्ध का ज्ञान। द्वितीय, श्रुतिज्ञान कान द्वारा सुनने से प्राप्त होता है। तृतीय अवधिज्ञान (या दिव्य ज्ञान) कर्मों के क्षय से जीव में परिष्कार की अवस्था में सूक्ष्म द्रव्यों को जान लेने के सामथ्र्य को कहा गया। चतुर्थ मन-पर्याय से अभिप्राय दूसरों के मन की बात जान लेना है। पंचम केवल ज्ञान से तात्पर्य सब पदार्थों का यथावत् विभिन्न रूपों में सूक्ष्मतम ज्ञान है। इस अवस्था (केवल ज्ञान की) में ज्ञान के बाधक सभी कर्म आत्मा से पूर्णत: अलग हो जाते हैं। यह अनन्त एवं पूर्ण ज्ञान है जो मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है। स्मरणीय है कि केवल ज्ञान की प्राप्ति में भी बाधक तत्त्व कर्म ही होते हैं, जिनके उन्मूलन से ही यह ज्ञान प्राप्त होता है।

सम्यक् चरित्र से अभिप्राय जिसे सत्य रूप में स्वीकार किया जा चुका हो, उसे चेष्टापूर्वक अभ्यास द्वारा कार्यरूप में परिणत किया जाना चाहिये। दूसरे शब्दों में, अनुचित कार्यों का निषेध एवं हितकर कार्यों का आचरण ही सम्यक् चरित्र है। महावीर द्वारा निर्देशित पंच महावत का पालन भी सम्यक चरित्र में सम्मिलित किया गया है।

अहिंसा अर्थात् जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार ही अहिंसा हैं। असंख्य एवं विविध अवस्थाओं में स्थित जीवों (पृथ्वी, जल एवं वायुमण्डल में स्थित) के प्रति मन, वचन एवं कर्म द्वारा किया कोई भी असंयत आचरण हिसा कहा जाएगा। सभी जीव समान हैं अत: जिस प्रकार के आचरण की हम दूसरों से अपने लिए अपेक्षा करते हैं वैसा ही आचरण दूसरों के प्रति करना चाहिए। अहिंसा के इस सिद्धान्त के पालन हेतु अनेक नियमों की अनुपालना बताई गई है। इतना ही नहीं मधुर भाषण द्वारा वाचिक हिंसा से बचने का भी निर्देश मिलता है। सम्य अर्थात् असत्य वचन का परित्याग तथा सत्य एवं मधुर संभाषण करना। क्रोध, लोभ की अवस्था में मौन रहना श्रेयस्कर कहा गया। अस्तेय अर्थात् दूसरों की वस्तु बिना अनुमति के नहीं ग्रहण करना एवं न ही इच्छा रखना। कहा गया है कि प्राण जीव का आन्तरिक जीव है तथा धन सम्पत्ति बाह्य। अत: दोनों की पवित्रता आवश्यक है। अपरिग्रह अर्थात् जिन वस्तुओं से इन्द्रिय सुख की उत्पत्ति तथा आसक्ति का भाव उत्पन्न होता है तथा जीव बन्धन में पड़ता है उन विषयों का त्याग आवश्यक है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध से सम्बद्ध सभी विषय त्याज्य हैं। जैन भिक्षुओं के त्याग की पराकाष्ठा वस्त्र तक के त्याग में देखी जाती है। ब्रह्मचर्य से तात्पर्य मन, वचन एवं कर्म द्वारा वासनाओं का परित्याग करना है। जैन धर्म में परलोक में भी सुख की आकांक्षा अवांछनीय मानी है। इस दृष्टि से चार बातों का निषेध किया है – अन्य स्त्री को देखना, संभाषण करना, संसर्ग का ध्यान तथा एकांकी नारी के गृह में निवास करना।

बौद्धों की भांति जैन धर्म में भी गृहस्थों एवं भिक्षुओं के लिए दो प्रकार की साधना के विधान थे। गृहस्थों के लिए विधान अणुव्रत कहे गये, जबकि सन्यासियों के लिए नियम अधिक कठोर थे अत: महाव्रत की संज्ञा दी गई। अपरिग्रह का अभिप्राय गृहस्थ के लिए इच्छाओं को सीमित रखना है कितु भिक्षुओं के लिए पूर्ण त्याग अर्थात् भिक्षापात्र को भी वह अपना नहीं कह सकते। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य का तात्पर्य गृहस्थों के लिए पति-पत्निचर्या तक सीमित कर दिया। बौद्ध धर्म के विपरीत जैन धर्म में कैवल्य का मार्ग केवल भिक्षुओं के लिए खुला था, सामान्य गृहस्थों के लिए नहीं।

सात चरणों में अभिव्यक्त कर सकते हैं जिसे सप्त भगीनय कहा गया। इस नय धारणा के अनुसार किसी वस्तु विशेष से उसके लक्षण का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। उसे है (अस्ति) कहकर अभिव्यक्ति दी जाती है। एवं जिस धारणा से वस्तु विशेष का अन्य वस्तु के लक्षण से सम्बद्ध किया जाता है उसे नहीं है (नास्ति) शब्द से सम्बोधित किया जाता है। किंतु इस नय पद्धति में स्यात् शब्द जोड़ने से यह इंगित करना चाहते हैं कि कोई नय एकाकी या निरपेक्ष रूप से सत्य नहीं है बल्कि अन्य संभावनायें निहित होती हैं। सप्तभगीनय इस प्रकार बताया गया है- शायद है (स्यात् अस्ति), शायद नहीं है (स्यात् नास्ति), शायद है भी और नहीं भी (स्यात् अस्ति नास्ति), शायद अनिर्वचनीय है (स्यात् अवक्तव्यः), शायद है और अनिर्वचनीय है (स्यात् अस्ति व अवक्तव्यः), शायद नहीं है और अनिर्वाचनीय है (स्यात् नास्ति व अवक्तव्यः), शायद है, नहीं है और अनिर्वचनीय है (स्यात् अस्ति व नास्ति व अवक्तव्य:)।

जैनाचायों के इस सप्तभंगीनय की आलोचना श्री रामानुजाचार्य ने की है। उनके अनुसार भाव एवं अभाव दोनों परस्पर विरोधी गुण हैं जो किसी एक पदार्थ में नहीं हो सकते। शंकराचार्य की भी यही मान्यता थी। वस्तुत: सप्तभगीनय के चार चरण ही सार्थक हैं क्योंकि जैन आगमों में विधि, निषेध, उभय और अनुभव चार पक्षों का प्रतिपादन किया है अत: नय सिद्धान्त के प्रथम चार वक्तव्य महत्त्वपूर्ण हैं।

जैनधर्म एवं राज्याश्रय- तत्कालीन अनेक राजवंशों के शासक महावीर के अनुयायी थे जिनके प्रयासों से उनके मत का विशेष प्रचार हुआ। जैन धर्म के अनुयायी मगध शासक बिम्बिसार एवं अजात शत्रु को अपना आश्रयदाता मानते हैं, यद्यपि बौद्ध भी इन्हें अपना आश्रयदाता स्वीकार करते थे। रानी चेलना के प्रभाव से बिम्बिसार महावीर के उपदेश सुनने के लिए जाया करते थे। महावीर के मामा लिच्छवी राजा चेटक ने अपना नाम जियसतु (जितशत्रु) रख लिया था।

जैसा विदित ही है कि चेटक की एक पुत्री चलना बिम्बिसार की रानी थी, चेटक की दूसरी पुत्री प्रभावती का विवाह सिन्धु सौवीर जनपद के शासक उदयण से हुआ था। तीसरी पुत्री पद्मावती का विवाह चम्पा के राजा दधिवाहन के साथ सम्पन्न होने का उल्लेख मिलता है। पद्मावती की पुत्री चन्दना के प्रथम जैन भिक्षुणी बनने की जानकारी मिलती है। चेटक की चतुर्थ पुत्री मृगावती का सम्बन्ध कौशाम्बी के शतानीक से हुआ था। एक पुत्री शिवा अवन्ति राजा चण्ड प्रद्योत की रानी थी। चेटक की पांचों पुत्रियों ने सौवीर, अंग, वत्स, अवन्ति एवं मगध राज्यों में जैनधर्म के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान किया। इनके प्रयासों से महावीर का प्रभाव विस्तृत भू भाग में फैल गया था। चम्पा नगर को जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र कहा गया है। परिशिष्टपर्वन में वर्णन मिलता है कि अजातशत्रु ने चम्पा को अपनी राजधानी बना लिया था। महावीर की मृत्यु के समय काशी, कौशल के 18 गण राजाओं, 9 मल्लों एवं 9 लिच्छवियों ने सम्मिलित रूप से एक प्रकाशोत्सव किया था, यह तथ्य उनके निजी जीवन एवं राज्यों पर जैन धर्म के प्रभाव का द्योतक है।

दक्षिण भारत में कर्नाटक में इस धर्म का पुरातात्विक साक्ष्य तीसरी सदी ई.पू. से प्राप्त होता है। माना जाता है 5वीं सदी से कर्नाटक में जैन मठ स्थापित होने लगे जिसे वसदि कहा जाता था। चौथी सदी ई.पू. में इसका प्रसार उड़ीसा कलिंग क्षेत्र में हुआ। पहली सदी ई.पू. में कलिंग के शासक खारवेल ने संरक्षण दिया। दूसरी सदी या पहली सदी ई.पू. में इसका प्रसार तमिलनाडु हुआ। मथुरा में भी जैन धर्म का प्रसार हुआ। यह बात एक जैन मन्दिर अवशेषों से ज्ञात होती है। इसकी पुष्टि कल्पसूत्र एवं अस्थविरावली से भी होती है। जैन मुनि कालकाचार्य की कथा से ज्ञात होता है कि उज्जैन क्षेत्र में जैन धर्म का प्रसार पहली शताब्दी में हुआ। पश्चिम भारत में ढांक की गुफाओं में ऋषभदेव, पार्श्व, महावीर आदि जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्राप्त होती है। दिगंबर संप्रदाय दक्षिण भारत विशेषतः कर्नाटक उतर भारत एवं मध्य भारत में प्रचलित था। श्वेताम्बर संप्रदाय का गुजरात, राजस्थान, मध्य भारत, पंजाब और हरियाणा में प्रसार था। ह्वेनसांग के कथनानुसार, श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदाय के साधु तक्षशिला से पूरब में विपला तक पाये जाते हैं। पूर्व में पुण्ड्वर्धन और समतट (दक्षिण पूर्वी बंगाल) में निग्रंथ काफी संख्या में मिलते हैं। अधिकांश जैन, व्यापार एवं उद्योग में लगे हुए थे किन्तु महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में कुछ जैन खेती भी करते थे। 5वीं सदी से 12वीं सदी तक दक्षिण भारत के गग, कदम्ब, चालुक्य और राष्ट्रकूट शासकों ने जैन धर्म को संरक्षण दिया। राष्ट्रकूट के काल में जिनसेन एंव गुणभद्र नामक जैन कवि हुए। राष्ट्रकूट शासक अमोद्यवर्ष स्वयं एक जैन था और उसने रत्नमालिका ग्रंथ की रचना की। 11वीं और 12वीं शताब्दी में गुजरात में दो महत्वपूर्ण जैन शासक सिद्धराज एवं कुमार पाल हुए।

कुमार पाल के अंतर्गत होमचंद्र नामक जैन विद्वान् रहते थे। उसी के लेखन के आधार पर जैन धर्म से संबंधित तिथियां स्पष्ट की जाती हैं। हेमचंद्र ने ही अपभ्रंश भाषा की व्याकरणबद्ध किया। यद्यपि हेमचंद्र शवेतांबर संप्रदाय से सम्बद्ध थे, तथापि वे दोनों संप्रदायों के लिए मान्य थे।

प्रमुख शिष्य- महावीर के प्रमुख 11 शिष्यों के नाम मिलते हैं जो जैन धर्म के प्रमुख आचार्य थे। जैन संघ में शिष्यों को गणधर कहा जाता था। आचार्य के शिष्य-प्रशिष्यों के संगठन को गण कहा गया है। जैन आचायों में गर्दभालि का प्रमुख स्थान माना जाता है जिसने काम्पिल्य के राजा संजय को भिक्षु बनाया था। अन्य महत्त्वपूर्ण जैन आचार्यों में आनन्द (वाणियग्राम के व्यापारी), कामदेव, चुलनीपिया, सुरदेव, चुल्लसयग, कुण्डकोलिय, सद्दालपुत्र, महासयग, नन्दिणीपिया, सालिहीपिया का उल्लेख किया जा सकता है। आर्य सुधर्मा को प्रथम श्रेर माना जाता है जो महावीर की मृत्यु के बीस साल बाद मरे। शभुतविजय तथा भद्रबाहु षष्ठ नदराजा के समकालीन थेर थे।

जैन संघ- महावीर ने अपने समस्त अनुयायियों को 11 गणों में विभाजित किया और प्रत्येक गण का एक प्रधान नियुक्त करके धर्म प्रचार का उत्तरदायित्व उन्हें सौंपा। जैन संघ के सदस्य 4 भागों में विभाजित थे- (1) भिक्षु, (2) भिक्षुणी, (3) श्रावक और (4) श्राविका। इनमें से भिक्षु और भिक्षुणी सन्यासी जीवन व्यतीत करते थे जबकि श्रावक और श्राविका गृहस्थ थे।

जैन संघ में विभाजन- महावीर के पश्चात् गौतम, इंद्रभूति सुधर्मन और जम्बूस्वामी की परंपरा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायों को मान्य थी। महावीर की मृत्यु के पश्चात् आर्य सुधर्म्रन ने जैन संघ का नेतृत्व किया। उसके बाद जम्बूस्वामी ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया। जम्बूस्वामी अन्तिम केवलिन थे। उसके पश्चात् कैवल्य के मार्ग बंद हो गए। माना जाता है कि 200 ई.पू. में मगध में एक भयंकर अकाल पड़ा था। अत: जैनों का एक समुदाय भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण चला गया। बचे हुए साधु स्थूलभद्र के नेतृत्व में वहीं बने रहे। फिर जब दक्षिण भारत के साधु लौटकर उत्तर आये तो वहाँ के साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण किए हुए पाया। यही वह मुख्य मुद्दा था जिस पर दोनों के बीच विभाजन हुआ। ईसाब्दोपरांत प्रथम शताब्दी तक इस मतभेद को अंतिम रूप प्राप्त नहीं हुआ था और दोनों के बीच कोई मूलभूत सैद्धांतिक अंतर नहीं था। इससे पूर्व भी वस्त्रधारण के मुद्दे पर पार्श्वनाथ के अनुयायी श्रवण कुमार केशी तथा महावीर के अनुयायी गौतम इंद्रभूति के बीच वाद-विवाद हुआ था।

दिगम्बर और श्वेताम्बर के बीच मतभेद के निम्नलिखित मुद्दे थे-

  1. श्वेताम्बर मोक्ष के लिए वस्त्र-त्याग को आवश्यक नहीं समझते थे जबकि दिगम्बर इसे आवश्यक समझते थे।
  2. श्वेताम्बर इसी जीवन में स्त्रियों को निर्वाण का अधिकार मानते थे जबकि दिगम्बर इसका निषेध करते थे।
  3. श्वेताम्बर का विचार है कि कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी लोगों को भोजन की आवश्यकता रहती है, किन्तु दिगम्बर के अनुसार उसके पश्चात् लोग निराहार रह सकते हैं।
  4. श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार महावीर ने यशोदा से विवाह किया और प्रियदर्शना नामक पुत्री हुई किन्तु दिगम्बर परंपरा के अनुसार वे अविवाहित थे।
  5. श्वेताम्बर 19वें तीर्थंकर मल्लीनाथ को स्त्री मानते हैं जबकि दिगम्बर इसे पुरुष मानते हैं।
  6. श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार जैनों के 46 आगमों को मान्यता मिली है। दिगम्बर उन्हें स्वीकार नहीं करते और कहते हैं कि प्राचीन आगम में केवल एक खण्डखण्डागम शेष बचा है।

श्वेताम्बर के उपसंप्रदाय- ये तीन हैं- पूजेरा या भूर्त्तिपूजक या मन्दिर मार्गी (डेरावासी)- ये मूर्तियों को वस्त्रों एवं आभूषणों से सजाते थे।

ढुंढिया या स्थानकवासी- स्थानकवासी लोका संप्रदाय से निकला है। अहमदाबाद के एक व्यापारी लोकाशाह ने मूर्तिपूजा का निषेध किया और लोका नामक नया संप्रदाय चलाया। उन्हीं के एक शिष्य विरजी ने स्थानकवासी संप्रदाय चलाया। उनके अनुयायी साधु न मूर्ति पूजा करते थे और न मन्दिर में ठहरते थे। वे स्थानकों में ठहरते थे।

थेरापंथी- 1760 ई. में एक स्थानकवासी साधु स्वामी भिक्खन महाराज ने थेरापंथी या तेरापंथी संप्रदाय चलाया। यह 13 विशिष्ट बातों को मानता था।

दिगम्बर के तीन उपसंप्रदाय थे जो निम्न हैं-

बीसपंथी- ये अपने मन्दिरों में तीर्थंकरों की मूर्ति के अलावा क्षेत्रपाल, भैरव आदि की मूर्तियां भी रखते थे।

थेरापंथी (तेरापंथी)- इस संप्रदाय के लोग मन्दिर में केवल तीर्थकरों की मूर्तियां रखते थे।

तारणपंथी- थेरापंथ का एक उपसंप्रदाय तारनपंथ कहलाता था। इसे 15वीं शताब्दी में तरणतारण स्वामी ने चलाया। इसके मानने वाले मूर्तियों की पूजा नहीं वरन् धर्म ग्रंथ को पूजते थे। ये जाति-पाँति में विश्वास नहीं करते। अत: छोटी जाति एवं मुसलमानों को भी इस संप्रदाय में लिया गया। दिगम्बर के अन्य छोटे-छोटे संप्रदाय गुमान पथी और तोतापथी थे। उपर्युक्त संप्रदायों के अतिरिक्त श्वेताम्बर और दिगम्बर अनेक संघों, गणों और शाखाओं में विभाजित थे। दिगम्बरों के मूल संघ द्राविड़ संघ, काष्ठ संघ और माथुर संघ महत्त्वपूर्ण हैं। उसी तरह शवेताम्बर 84 शाखाओं में विभाजित थे। छठी सदी में दिगंबर संप्रदाय के अपसंप्रदाय के रूप में सामुज्य और श्वेतांबर संप्रदाय के उपसंप्रदाय के रूप में तेरापंथी उपसंप्रदाय का विकास हुआ जिसनें मूर्तिपूजा को स्वीकार किया। कल्याणगढ़ में कलस नामक साधु ने यापानीय संप्रदाय का प्रर्वतन किया जिसकी मान्यता थी कि स्त्रियाँ भी मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं और कैवल्यों को भी थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करना चाहिए।

जैन साहित्य और सभा- प्राचीनतम जैन ग्रंथपूर्व कहे जाते थे। माना जाता है कि इन ग्रंथों की जानकारी केवल भद्रबाहु की थी। जब भद्रबाहु दक्षिण की ओर चला गया, तो स्थूलबाहु के नेतृत्व में एक सभा आयोजित की गई। इस सभा में 14 पूर्वो का स्थान 12 अंगों ने ले लिया। 14 पूर्वो में महावीर द्वारा प्रचारित सिद्धांत संग्रहीत हैं। स्वयं महावीर ने इसे अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा में अपने शिष्यों तक पहुँचाया। श्वेताम्बर के आगमों में 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छंदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 2 मिश्रित ग्रंथ आते हैं, ये सभी ग्रंथ सूत्र शैली में लिखे गए हैं। ये गद्य-पद्य मिश्रित हैं। जैन आगमों को सुव्यवस्थित करने के लिए जैन श्रवर्णों ने तीन सम्मेलन बुलाये। आचारांग सूत्र में संघ से संबंधित नियमों का उल्लेख किया गया है तथा यह अहिसा के सिद्धांत की व्याख्या करता है। भगवती सूत्र जैन सिद्धाँतों की व्याख्या करता है।

प्रथम सम्मेलन- 367 ई.पू. में पाटलिपुत्र में आयोजित किया गया। इसके अध्यक्ष स्थूलभद्र हुए। इसमें 11 अंगों का संकलन हुआ क्योंकि 12वाँ अग किसी को याद नहीं था। इसे पाटलिपुत्र वाचना कहा जाता है।

दूसरा सम्मेलन- 300-313 ई. के लगभग मथुरा में दूसरी जैन संगति हुई। इसकी अध्यक्षता आर्य स्कंदिल ने की। इसे माथुरी वाचना के नाम से जाना जाता है।

तीसरा सम्मेलन- 453 ई.पू. के आस-पास वल्लभी में हुआ। इसकी अध्यक्षता देवाधीं क्षमाश्रवण ने की। इस सम्मेलन में पूरे आगम साहित्य को लिपिबद्ध किया गया। कुल 11 अंगों को लिपिबद्ध किया गया और 12वां अंग दृष्टिवाद को नष्ट मान लिया गया।

जैन दर्शन- जैन धर्म का मानना है कि सृष्टि अनादिकाल से चलती रही है और अनन्त काल तक चलेगी। इस तरह हम देखते हैं जैन धर्म, हिन्दू धर्म या बौद्ध धर्म की तरह सृष्टि के विनाश में विश्वास नहीं करता। वैसे ईश्वर के अस्तित्व को नहीं नकारा गया किन्तु ईश्वर को जिन के नीचे रखा गया। उनके विचार में ईश्वर सृष्टि का निर्माण, उसकी रक्षा और विध्वंस के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। अतः सृष्टि कुछ शाश्वत कानूनों के द्वारा परिचालित होती है। इस शाश्वत विश्व में अनेक चक्र होते हैं। उत्थान काल को उत्सर्पिणी और पतन के काल को अवसर्पिणी कहते हैं। उत्सर्पिणी के चक्र में 63 शलाका पुरुष पैदा होते हैं। इनमें 24 तीर्थकर एंव 12 चक्रवर्ती शासक शामिल होते हैं।

बौद्धों की तुलना में यह धर्म आस्तिक है, वैसे नास्तिक है। यह धर्म सांख्य दर्शन के सबसे करीब पड़ता है। इनके विचार में जीव और अजीव के संयोग से सृष्टि का निर्माण होता है। उसका मानना है कि आत्मा केवल पशुओं पेड़-पौधों में नहीं होती वरन् पहाड़, झरने और अन्य प्राकृतिक वस्तुओं में होती है। आत्मा में एक प्रकार का प्राकृतिक तेज विद्यमान रहता है। यह सर्वज्ञाता एवं शक्तिमान होती है। आत्मा कर्म के आवरण से ढक जाती है और इसी कर्म (पुद्गल) के कारण आत्मा में बदलाव आ जाता है। विभिन्न क्रियाओं के कारण कर्म आत्मा से जुड़ जाता है। क्रूर कार्यों से बुरे प्रकार का कर्म पैदा होता है। इसलिए आत्मा भी बुरी हो जाती है। कर्म के कारण ही पुनर्जन्म की प्रक्रिया चलती रहती है। जब कर्म-पदार्थ आत्मा में उतर जाता है तब वह कर्म की आठ प्रकृतियों में रूपांतरित हो जाता है। जैन धर्म में आठ प्रकार के कर्मों की कल्पना है। जब आत्मा में यह कर्म घुल-मिल जाता है तो आत्मा में एक प्रकार का रंग उत्पन्न करता है जो साधारण आंख से नहीं दिखाई देता है। इस रंग को लेस्य कहा जाता है और यह (लेस्य) छः प्रकार का होता है- (1) काला, (2) नीला, (3) धूसर, (4) पीला, (5) लाल और (6) सफेद। किसी भी व्यक्ति का लेस्य उसके चरित्र का सूचक होता है। उनमें से पहले तीन लेस्यों का संबंध बुरे चरित्र से है और शेष तीन का संबंध अच्छे चरित्र से है। जैन सिद्धांत का उद्देश्य जीव में अजीव का प्रवेश (आश्रव) रोकना है और जो प्रवेश हो चुका है उसे निकालना है। पहली क्रिया को संबर और दूसरी क्रिया को निर्जरा कहा जाता है। उपनिषद् के विपरीत, जैन धर्म की मान्यता है कि आत्मा की शुद्धि, लम्बे समय तक उपवास, अहिंसा और इन्द्रियनिग्रह द्वारा संभव है।

अनेकान्तवाद- यह सप्तभगी न्याय के नाम से भी जाना जाता है। इसका मानना है कि सत्य एक है और एक से अधिक है, स्थिर है, परिवर्तनशील है।

स्यादवाद- यह अनेकान्तवाद से जुड़ा हुआ दर्शन है। इसका मानना है कि कोई बात सोच समझकर कहनी चाहिए, क्योंकि तथ्य इससे विपरीत भी हो सकता है।

सम्यक् ज्ञान के पाँच प्रकार- जैन चिन्तन में सम्यक् ज्ञान के पाँच प्रकार बताए गए हैं। ये इस प्रकार हैं-

  1. भति (इन्द्रियों द्वारा अनुभूत)।
  2. अवधि (कहीं रखी गई वस्तु का अतिमानवी और दिव्य ज्ञान)।
  3. श्रुति (सुनकर प्राप्त ज्ञान)।
  4. मनः पर्याय (दूसरे के हृदय और मस्तिष्क की बातों का बोध होने का ज्ञान)।
  5. केवल (पूर्ण ज्ञान जो परिब्राजकों और निग्रन्थों को प्राप्त है)।

पंच महाव्रत तथा अणुव्रत

जैन धर्म में नैतिकता तथा आचरण पर विशेष बल दिया गया है। इन दोनों आदशों पर आचरण करने हेतु मन में विकार उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों को रोकना है। विकार उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए जैन धर्म में पाँच ‘महाव्रत’ आवश्यक बताए हैं। ये पाँच महाव्रत इस प्रकार हैं-

  1. अहिंसा का पालन- इसके अनुसार गतिशील एवं स्थावर जीवों की हिसा न की जाय। सब प्राणियों को उपकार और दया की भावना से देखा जाए।
  2. सत्य भाषण प्रत्येक व्यक्ति को सत्य और सुमधुर वाणी बोलनी चाहिए। भय होने पर भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।
  3. अस्तेय (चोरी न करना)- बिना अनुमति के किसी अन्य की कोई वस्तु नहीं लेनी चाहिए।
  4. अपरिग्रह- किसी वस्तु का आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना चाहिए।
  5. ब्रह्मचर्य- इसके अनुसार मनुष्य को विषय वासना से दूर रहना चाहिए। पंच अणुव्रत ये पंच महाव्रत  के समान ग्रहस्थों के लिए  पंच अणुव्रत  का प्रावधान है। ऐसा इसलिए कि संसार में रहते हुए इन महाव्रतों का पूर्ण रूप से पालन करना सम्भव नहीं है, इसलिए इन्हें आशिक रूप से पालन के लिए कहा गया है, ये अणुव्रत इस प्रकार हैं-(क) अहिंसा अणुव्रत (ख) सत्याणु व्रत (ग) अस्तेयाणु व्रत (घ) ब्रह्मचर्याणु व्रत तथा (ङ) अपरिहग्रहाणुव्रत।

अंहिसा अणुव्रत के अन्तर्गत, हिंसा न करना, किसी को बाँधना, पीड़ा पहुँचाना, भोजन पानी रोकना आदि आता है।

सत्य के अंतर्गत झूठ न बोलना, अप्रिय कठोर एवं पाप संबंधी बात न करना और किसी की निन्दा न करना आदि आता है।

आस्तेय या अचौर्य के अन्तर्गत चोरी न करना. चोरी का माल न लेना, माल में मिलूवट न करना, कम न तोलना तथा राजा की आज्ञा का उल्लंघन न करना आता है।

ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत कामवासना को नियंत्रित करना या रोकना।

तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने पहले चार व्रत रखे थे। इसमें महावीर ने पाँचवाँ व्रत जोड़ दिया था।

अपरिग्रह के अंतर्गत दूसरों के धन से तनिक ममता न करना तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तु को सीमित रखना आदि आता हैं।

गुणव्रत उपरोक्त पाँच अणुव्रतों के अतिरिक्त तीन गुणव्रत भी बताए हैं-

  1. दिग्व्रत अर्थात् दिशाओं में भ्रमण की मर्यादा बाँधना।
  2. अनर्थदण्डवत्- प्रयोजनहीन, पाप उत्पादक वस्तुओं का परित्याग करना।
  3. भोगोपभोग परिमाण अर्थात् भोग्य पदार्थो का परिमाण-निर्धारण।

सात शील (शील) व्रत-जैन धर्म में सात शील व्रतों का उल्लेख है। ये शील व्रत इस प्रकार हैं-

  1. दिग्व्रत- अपनी क्रियाओं को विशेष परिस्थिति में नियंत्रित रखना।
  2. देशव्रत- अपने कार्य कुछ विशिष्ट प्रदेशों तक सीमित रखना।
  3. अनर्थ दण्ड व्रत- बिना कारण अपराध न करना।
  4. सामयिक- चिन्तन के लिए कुछ समय निश्चित करना।
  5. प्रोषधोपवास- मानसिक एवं कायिक शुद्धि के लिए उपवास करना।
  6. उपभोग-प्रतिभोग परिणाम- जीवन में प्रतिदिन काम में आने वाली वस्तुओं व पदार्थों को नियंत्रित करना।
  7. अतिथि संविभाग- अतिथि को भोजन कराने के उपरान्त भोजन करना।

धर्म के दस लक्षण

जैन धर्म में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं। ये इस प्रकार हैं-

  1. उत्तम क्रमा अर्थात् क्रोधहीनता।
  2. उत्तम मार्दव अर्थात् अहंकार का अभाव।
  3. उत्तम मार्जव अर्थात् सरलता एवं कुटिलता का अभाव।
  4. उत्तम सोच अर्थात् सांसारिक बंधनों से आत्मा को परे रखने की सोच।
  5. उत्तम सत्य अर्थात् सत्य से गम्भीर अनुरक्ति।
  6. उत्तम संयम अर्थात् सदा संयमित जीवन यापन।
  7. उत्तम तप अर्थात् जीव को अजीव से मुक्त करने के लिए कठोर तयश्चर्या।
  8. उत्तम अकिचन अर्थात् आत्मा के स्वाभाविक गुणों में आस्था।
  9. उत्तम ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य व्रत का कड़ाई से अनुपालन।
  10. उत्तम त्याग अर्थात् त्याग की भावना को सर्वोपरि रखना।

हिन्दू धर्म तथा बौद्ध धर्म के विपरीत जैन धर्म में सिर्फ संघ के सदस्यों के लिए कैवल्य का विधान है, सामान्य गृहस्थों के लिए नहीं। जैन साधुओं के लिए कठिन एवं कठोर नियम आचरांग सूत्र में निहित है। दिगम्बर साधु, झूल्लक, ऐल्लक और निर्ग्रन्थ कहताते थे और श्वेताम्बर यति साधु और आचार्य कहलाते थे।

सामाजिक दृष्टि से जैन धर्म जाति व्यवस्था पर बहुत कठोर आक्रमण नहीं करता है वरन् बाद में वह समझौता कर लेता है। यहाँ तक कि उसने अस्पृश्यता को भी स्वीकार कर लिया। उसने दास-व्यवस्था पर आक्रमण नहीं किया वरन् उसने दासों के प्रति नरम व्यवहार करने का आग्रह किया। परन्तु जैन धर्म ऐसा स्वीकार करता है कि कैवल्य की प्राप्ति सभी जाति के व्यक्ति कर सकते हैं। प्रारंभ में जैनियों ने स्तूपों का निर्माण किया किन्तु बाद में उन्होंने मन्दिर भी बनाये और मूर्ति पूजा प्रारंभ की। मनुष्य की साधारण दिनचर्या को भी जैन धर्म ने परिवर्तित नहीं किया। जैनियों ने भी हिंदुओं के संस्कार को अपनाया। इसलिए जैन धर्म हिंदू धर्म से पृथक नहीं हो सका। यही वजह है कि वह आज भी जीवित है।

जैन धर्म के पतन के कारण

जैन धर्म भारत-भूमि में जन्मा एक महत्त्वपूर्ण धर्म था। महावीर स्वामी के जीवन-काल में इस धर्म का अच्छा प्रचार-प्रसार हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी कुछ समय तक इसका प्रचार प्रसार होता रहा किन्तु कालान्तर में उसके अनुयायियों की संख्या सीमित होती गई। उसके इस पतन के कई कारण थे। इन कारणों में मुख्य संक्षेप में इस प्रकार हैं-

  1. जैन धर्म की अवनति का एक प्रमुख कारण उसके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का अव्यवहारिक स्वरूप था। जिस रूप में अहिंसा के प्रतिपालन का विचार प्रस्तुत किया गया था। उसका पालन जनसाधारण के लिए नितान्त दुष्कर था। फलत: कृषि प्रधान भारतीय जनता जैन धर्म के प्रति उदासीन होने लगी। केवल नगर में रहने वाले व्यापारी वर्ग के लोग ही उसके प्रति आकर्षित रहे।
  2. अहिंसा के अतिरिक्त जैन धर्म में कठोर तपस्या पर जोर दिया गया है। जैन धर्म में व्रत, काया-क्लेश, त्याग, अनशन, केशकुचंन तथा वस्त्र त्याग, अपरिग्रहण इत्यादि के अनुसरण पर जोर दिया गया है। किन्तु सामान्य गृहस्थ व्यक्ति को इस प्रकार का तपस्वी जीवन जीना सम्भव नहीं है। फलत: धीरे-धीरे लोगों की इस धर्म में रुचि घटती गई।
  3. जैन धर्म के उत्कर्ष में तत्कालीन नरेशों का महत्त्वपूर्ण योगदान था किन्तु बाद में जैन धर्म को राजकीय आश्रय प्राप्त न हो सका। फलत: राजाश्रय से जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या धीरे-धीरे घटने लगी।
  4. किसी धर्म के प्रचार में उसके धर्म प्रचारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। जैन धर्म में बाद में अच्छे धर्म प्रचारकों का अभाव हो गया। फलत: जैन धर्म के प्रसार का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
  5. जैन धर्म की अवनति में जैन संघ के संगठनों की अपनी भूमिका थी। जैन संघों की संगठनात्मक व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। उसमें धर्माचार्यों और गणधरों का प्रमुख प्रभाव था। फलत: उसमें सामान्य सदस्यों की इच्छा की अवहेलना होती थी। इस कारण शनै: शनै: जनसाधारण की उसमें अभिरुचि कम होती गई।
  6. तीर्थंकर महावीर ने जैन धर्म के द्वार समस्त जातियों और धमों के लिए खोल रखे थे किन्तु बाद में जैन धर्म में भेदभाव की भावना विकसित हो गई। फलत: जैन धर्म के प्रसार पर इसका भी विपरीत प्रभाव पड़ा।
  7. ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में वैदिक-पौराणिक ब्राह्मण धर्म ने अपनी कतिपय विकृतियों को दूर कर अपने में सुधार किया। शैव एवं वैष्णव धर्म के उन्नायकों ने बौद्ध एवं जैन धर्म के विरुद्ध जो अभियान चलाया, उसका भी इन धमों के प्रसार पर विपरीत प्रभाव पड़ा। दक्षिण भारत में पश्चिमी चालुक्य तथा चोल राजा शैव धर्म के प्रबल पक्षपोषक थे। फलत: उनकी नीतियाँ जैन धर्म के दक्षिण में प्रसार में बाधक बनीं।

जैन धर्म की भाषा एवं कला

प्रारम्भिक जैन आचार्यों ने भी संस्कृत भाषा को छोड़कर अर्द्धमागधी भाषा को अपनाया। आगे चलकर इसने उत्तर भारत में अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी और पुरानी हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसी तरह दक्षिण भारत में तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मराठी भाषा के विकास में जैन आचार्यों ने अपनी भूमिका निभाई।

प्रारंभ में जैनों ने स्तूपों का निर्माण किया। बाद में मूर्तिकला एवं मंदिरों का विकास हुआ। पटना के लोहानीपुर से प्राप्त जैन मूर्ति आरंभिक मूर्तियों में से एक है। कुषाण काल में मथुरा जैन कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। गुप्तकाल में जैन कला की मथुरा शैली उन्नत अवस्था में थी। मध्य भारत, उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान आदि से अनेक जैन मन्दिर, मूर्तियाँ, गुहास्थापत्य आदि के उत्कृष्ट नमूने मिले हैं। उड़ीसा की उदयगिरि पहाड़ी में अनेक जैन गुफाएँ मिलती हैं। खजुराहो, सौराष्ट्र तथा राजस्थान में अनेक जैन मन्दिरों का अस्तित्व रहा है। राजस्थान में आबू पहाड़ पर वस्तुपाल एवं तेजपाल ने संगमरमर का दिलवाड़ा का जैन मन्दिर बनवाया। सौराष्ट्र में शत्रुजय की पहाड़ी पर अनेक जैन मन्दिर बनाये गए। इनमें आदिनाथ का मंदिर विख्यात है। झांसी के देवगढ़ और राजस्थान के ओसिया के अभिलेखों में शांतिनाथ और महावीर के जैन मंदिरों का उल्लेख है। जोधपुर के निकट रौनकपुर में भी एक जैन मन्दिर का अवशेष मिलता है। चित्तौड़ के किले में एक जैन स्तंभ (टावर) मिलता है। जैनों ने चित्रकला के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पहली बार इन्होंने चित्रकला में तालपत्र का प्रयोग किया।

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