गुप्तकाल Gupta period

मौर्यकाल के बाद की शताब्दियों में अनेक राज्यों के उत्थान-पतन के बावजूद साम्राज्यवादी महत्त्वकांक्षा का अंत नहीं हुआ। कुषाण साम्राज्य के पतन के उपरान्त भारतवर्ष में पुन: केन्द्रीय सत्ता का अभाव हो जाता है। शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता के अभाव में भारत छोटे-बड़े अनेक राज्यों में विभक्त हो जाता है। आन्तरिक अव्यवस्था और राजनैतिक विश्रृंखलन के इस परिदृश्य में उत्तरी भारत के राजनैतिक क्षितिज पर एक नए राजवंश का उदय होता है। यह राजवंश इतिहास में गुप्त राजवंश के नाम से प्रसिद्ध है।

गुप्तकाल के इतिहास को जानने के लिए कई साक्ष्य मौजूद हैं। गुप्तकालीन अभिलेख, सिक्के व साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। साहित्यिक स्रोतों में हरिषेण व वत्सभटिट् के लेख, कालीदास की रचनाएँ (ऋतुसंहार, कुमारसम्भव, मेघदूत, रघुवंश, अभिज्ञानशाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशियम्) पुराण, देवीचन्द्रगुप्तम्, मुद्राराक्षस, मृच्छकटिकम्, कामसूत्र, मंजूश्रीमूलकल्प तथा फाह्यान व ह्वेनसांग के विवरण उल्लेखनीय हैं। इनसे गुप्तकाल के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश पड़ता है। गुप्तकालीन अभिलेखों से वंशावली, ऐतिहासिक घटनाओं एवं नरेशों की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है। अभिलेखों की भाषा संस्कृत है। इन्हें तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- स्तम्भलेख, शिलाफलक लेख व् ताम्रलेख। समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उसके जीवन चरित एवं दिग्विजय का वर्णन है। चन्द्रगुप्त द्वितीय से सम्बंधित जानकारी महरौली के स्तम्भ लेख व् उदयगिरी के शैव गुहालेख से मिलती है। जूनागढ़ व मंदसौर अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। गुप्तकालीन मुद्राएँ जो सोने, चाँदी व ताँबे की बनी हैं, गुप्तकाल की महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देती हैं। गुप्तकालीन सिक्के काफी मात्रा में प्राप्त हुए हैं। समुद्रगुप्त की मुद्राओं से उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने की जानकारी मिलती है। समुद्रगुप्त की एक मुद्रा के ऊपर अश्वमेध के घोड़े का चित्र अंकित है। जो अश्वमेध यज्ञ का संकेत देता है।

मौर्यकाल के बाद की अराजकता के बावजूद कोई भी उस तरह के साम्राज्य के निर्माण में सफल नहीं हुआ। मौर्यों के समकक्ष पहुँचने के अनेक प्रयत्न किये गये परन्तु किसी को उतनी सफलता नहीं मिली। मौयों के हास के साथ देश  अनेक राजतान्त्रिक एवं जनतान्त्रिक गण एवं नगर राज्यों के रूप में विघटित हो गया। जैसा पूर्व में उल्लेख किया गया है कुछ काल के लिए मध्य देश में शुंग, दक्षिण में सातवाहन, पंजाब में विदेशी प्रजातियों यथा यवन, पह्लव, शक और उनके बाद कुषाणों ने साम्राज्य स्थापना में सफलता प्राप्त की। किन्तु कुषाण साम्राज्य एक सदी से अधिक स्थायित्व नहीं रह पाया।

उत्तर भारत के एक बड़े भू-भाग में नागों का राज्य फैला हुआ था। चौथी एवं पाँचवीं शताब्दी में नागवंश के एक शासक ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे। उस शासक का नाम भारशिव था। इसी के नाम पर आगे बनारस में दशमेधाघाट बना। कुषाण साम्राज्य के विघटन के बाद मध्य भारत में मुरूडों का शासन स्थापित हुआ। तत्पश्चात् गुप्तों ने अपने शासन की स्थापना की। गुप्तों की उत्पति के विषय में मतभेद हैं। के.पी. जायसवाल का मानना है कि गुप्त मुख्यत: जाट थे और पंजाब के निवासी थे। दशरथ ओझा का मानना है कि गुप्त क्षत्रिय थे। ए.आर. चौधरी के अनुसार वे ब्राह्मण थे। डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल ने उन्हें शूद्रवंशीय कहा है। उनका कहना है कि यदि गुप्त उच्च कुल के होते तो मौरवरी नरेशों के हरहा अभिलेख की भाँति वे भी अपने अभिलेखों में उसी प्रकार से स्पष्ट उल्लेख करते। किन्तु गुप्त सम्राटों ने किसी भी अभिलेख में अपने कुल का उल्लेख नहीं किया है। पूना ताम्रलेख और नेपाल का इतिहास भी गुप्तों को निम्नवंशीय बताता है। किन्तु आधुनिक शोधों के आधार पर डॉ. जायसवाल का मत असंगत ठहरता है। एल उल्तकेर एवं कृष्ण स्वामी आयंगर ने गुप्तों को वैश्य बतलाया है। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, सुधाकर चट्टोपाध्याय एवं डॉ. वासुदेव उपाध्याय ने गुप्त सम्राटों को क्षत्रिय बतलाया है। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने चंन्द्रगुप्त द्वितीय का सम्बन्ध शुंगवंशीय नरेश अग्निमित्र की पत्नी धारिणी से बतलाकर उसे ब्राहमणवंशीय कहा है। किन्तु डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त ने इसे असंगत बताया है। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति, कुमारगुप्त के विलसंड अभिलख, स्कदगुप्त के भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि गुप्तों का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष श्रीगुप्त था। उसका उत्तराधिकारी घटोत्कच गुप्त हुआ। 319-20 ई. में चन्द्रगुप्त प्रथम शासक हुआ। इसी वर्ष से गुप्त संवत की शुरूआत मानी जाती है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया। इसने महाराजाधिराज की उपाधि ली और सोने के सिक्के चलाये। अपने सिक्के पर उसने कुमारदेवी का नाम भी खुदवाया। लिच्छवि से गुप्तों के सम्बन्धों को इतना महत्त्व दिया गया कि समुद्रगुप्त को लिच्छवि-दौहित्र कहा जाता था। इस प्रकार गुप्त किस जाती के थे, इस सम्बन्ध में अभी तक कोई सर्वमान्य विचार सामने नहीं आया है।

गुप्तों की जाति की भाँति उनके आदि स्थान के विषय में भी अभी तक सर्वसम्मत विचार सामने नहीं आया है। डॉ. दिनेशचन्द्र गांगुली ने गुप्तों का आदि स्थान पश्चिम बंगाल में आधुनिक मुर्शिदाबाद बताया है। उनका यह निष्कर्ष चीनी इत्सिंग के यात्रा-विवरण पर आधारित है। सुधाकर चट्टोपाध्याय ने गुप्तों का आदि स्थान आधुनिक मालदा जिला बताया है। समुद्र तट प्रो. जगन्नाथ का कथन है कि गुप्तवंश का संस्थापक श्री गुप्त उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले में शासन करता था। गुप्तों के अधिकांश अभिलेख उत्तर प्रदेश में मिले हैं। पुराणों में गुप्तों का आदि स्थान साकेत, प्रयाग एवं मगध बताया गया है। एलन, आयंगर, मुकर्जी आदि विद्वानों ने मगध को गुप्तों का आदि स्थान स्वीकार किया है।

इस युग में भारशिव, वाकाटक और गुप्त तीनों ही देशों की उभरती हुई शक्तियाँ थीं, किन्तु आश्चर्य की बात है कि उनमें परस्पर प्रभुत्व की स्पर्धा के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते। इस प्रकार आन्तरिक शान्तिमय वातावरण के बीच गुप्तों ने अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की और दो शताब्दियों से अधिक काल तक भारत पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा।


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