विद्युत एवं विद्युत् चुम्बकीय विकिरण Electricity and Electromagnetic Radiation

विद्युत

प्रत्येक पदार्थ परमाणुओं से बना है। परमाणु के भीतर धनावेशित मूल कण प्रोटॉन, ऋणावेशित मूल कण इलेक्ट्रॉन तथा आवेशरहित मूल कण न्यूट्रॉन होते हैं, किसी भी वस्तु में प्रोटॉनों तथा इलेक्ट्रॉनों की संख्या बराबर होती है। यदि किसी वस्तु से कुछ इलेक्ट्रॉन बाहर निकाल दिये जाते हैं तो वस्तु में प्रोटॉनों की संख्या इलेक्ट्रॉनों की संख्या से अधिक हो जायेगी, इससे वस्तु धनावेशित हो जायेगी। वस्तु में यदि कुछ इलेक्ट्रॉन बाहर से दे दिए जाएं तो वस्तु में इलेक्ट्रॉनों की संख्या प्रोटॉनों की संख्या से अधिक हो जाएगी। इससे वस्तु ऋणावेशित हो जाएँगी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि विद्युत-आवेश के मूल स्रोत, प्रोटॉन तथा इलेक्ट्रॉन हैं। ये वस्तु में ही विद्यमान रहते हैं। वस्तु में इलेक्ट्रॉनों के घटने या बढ़ने पर ही वस्तु धनावेशित या ऋणावेशित होती है।

विद्युत-चालक तथा विद्युतरोधी पदार्थ

जिन पदार्थों से होकर विद्युत-आवेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक जा सकता है, उनमें विद्युत् चालक संभव होता है, जैसे- धातुएं, अम्ल, क्षार, लवणों के जलीय विलयन आदि। ये सभी विद्युत चालक पदार्थों के उदाहरण हैं जिन पदार्थों से होकर विद्युत आवेश एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं जा सकता है, उन्हें विद्युत रोधी-कहते हैं, जैसे-लकड़ी, रबर, अभ्रक, कागज, शुद्ध आसुत जल आदि हैं। परन्तु इसमें थोड़ा सा अम्ल क्षार या लवण मिलाने पर यह विद्युत-चालक की भांति कार्य करता है। ताप के बढ़ाने पर चालक पदार्थों का विद्युत प्रतिरोध बढ़ता है तथा उसकी वैद्युत चालकता घटती है।

हम जानते हैं कि पदार्थों की आवेशन क्रिया में केवल इलेक्ट्रॉन ही पदार्थ से बाहर जाते हैं या बाहर से पदार्थ में आते हैं पदार्थ के भीतर ही पदार्थ के कुछ इलेक्ट्रॉनों का स्थानान्तरण विद्युत चालन कहलाता है। जो इलेक्ट्रॉन पदार्थ के भीतर स्थानान्तरित हो सकते हैं, वे पदार्थ के मुक्त इलेक्ट्रॉन कहे जाते हैं।

माइकेल फैराडे (1791-1867)

माइकल फैराडे एक प्रायोगिक भौतिक विज्ञानी थे। उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की। अपने जीवन के आरंभिक काल में उन्होंने जिल्दसाजी की दुकान पर कार्य किया। फैराडे जिल्दसाजी के लिए दुकान पर आने वाली पुस्तकों का अध्ययन किया करते थे। इससे उनकी विज्ञान में रुचि उत्पन्न हो गई। उन्हें रॉयल इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक सर हम्फ्रे डेवी के सार्वजनिक व्याख्यान सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने सावधानीपूर्वक डेवी के व्याख्यानों के नोट्स तैयार किए और उन्हें सर डेवी के पास भेज दिया। शीघ्र ही उन्हें रॉयल इंस्टीट्यूट में डेवी की प्रयोगशाला में सहायक बना दिया गया। फैराडे ने बहुत सी क्रांतिकारी खोजें कीं, जिनमें वैद्युत चुंबकीय प्रेरण तथा वैद्युत अपघटन के नियम सम्मिलित हैं। अनेक विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान करने का प्रयास किया, परंतु उन्होंने इस प्रकार के सम्मानों को ठुकरा दिया। फैराडे को किसी भी सम्मान की तुलना में अपने वैज्ञानिक कार्यो से अधिक प्यार था।

चालक तथा अचालक पदार्थों के अतिरिक्त कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जिनकी विद्युत चालकता, चालक एवं अचालक पदार्थों के बीच होती है।


ऐसे पदार्थों को अर्द्ध-चालक कहते हैं, यदि अर्द्ध चालक का ताप अत्यधिक बढ़ा दिया जाए या उनमें कुछ अशुद्धियाँ मिला दी जाएं तो वे पदार्थ चालक की भांति कार्य करते हैं। अर्द्ध-चालक पदार्थों की चालकता ताप बढ़ाने पर बढ़ती है तथा ताप हटाने पर घटती है। परम शून्य ताप पर अर्द्ध-चालक पदार्थ, आदर्श अचालक की भांति व्यवहार करते हैं। अर्द्ध-चालक पदार्थों के प्रमुख उदाहरण हैं- कार्बन, जर्मेनियम, सिलिकॉन आदि।

यदि किसी धातु का ताप कम कर दिया जाए तो उसमें विद्युत चालन बढ़ जाता है अर्थात् उसका विद्युत प्रतिरोध कम हो जाता है। कुछ धातुओं का प्रतिरोध, परम शून्य ताप के निकट पहुंचने पर लगभग शून्य हो जाता है और तब वे अतिचालक कहलाते हैं।

तार के भीतर आवेशों का प्रवाह

कोई धातु विद्युत चालन कैसे करती है? आप सोचते होंगे कि निम्न ऊर्जा के इलेक्ट्रॉनों को किसी ठोस चालन से गुजरने में बहुत कठिनाई होती है। ठोस के भीतर परमाणु एक-दूसरे के साथ संकुलित होते हैं और इनके बीच बहुत कम स्थान होता है। परंतु यह पाया गया है कि इलेक्ट्रॉन किसी आदर्श ठोस क्रिस्टल से बिना रुकावट ठीक वैसे ही आसानी से यात्रा कर लेते हैं, जैसे कि वे निर्वात में हों। तथापि, किसी चालक में इलेक्ट्रॉन की गति, रिक्त स्थान में आवेशों की गति से बहुत भिन्न होती हैं। जब किसी चालन से कोई स्थायी धारा प्रवाहित होती है तब उसके भीतर इलेक्ट्रॉन एक निश्चित औसत अपवाह चाल से गति करते हैं। किसी प्रारूपी तांबे की तार के लिए जिससे कोई लघु विद्युत धारा प्रवाहित हो रही है, इस अपवाह चाल का परिकलन किया जा सकता है और यह वास्तव में अत्यंत अल्प, mms-1  कोटि की पाई गई है। फिर ऐसा क्यों है कि हमारे स्विच ऑन करते ही विद्युत बल्ब प्रकाश देने लगता है? ऐसा नहीं हो सकता कि विद्युत धारा केवल तब आरंभ हो जब कोई इलेक्ट्रॉन विद्युत आपूर्ति के एक टर्मिनल से स्वयं चलकर बल्ब से होते हुए दूसरे टर्मिनल तक पहुँचे, क्योंकि किसी चालक तार में इलेक्ट्रॉनों को भौतिक अपवाह एक अत्यंत धीमी प्रक्रिया है। विद्युत धारा प्रवाहित होने की यथॉर्थ प्रक्रिया, जो प्रकाश की चाल के लगभग समान चाल से होती है, मंत्रमुग्ध करने वाली है।

ट्रॉजिस्टर: रेडियो, टेलीविजन, कम्प्यूटर आदि प्रयुक्त होने वाले ट्रॉजिस्टर अर्द्ध-चालक पदार्थों से बनाए जाते हैं।

समाकलित परिपथ: इसे संक्षेप में IC कहते हैं। साधारणत: IC अर्द्ध-चालक युक्तियों की एक ऐसी व्यवस्था होती है, जो विशेष प्रकार का कार्य कर सकती है या कई कार्य कर सकती है, जैसे-स्विच का कार्य, टाइमर का कार्य आदि।


विद्युत क्षेत्र, विभव तथा धारिता

कूलॉम का नियम

दो स्थिर-विद्युत् आवेशों के बीच लगने वाला आकर्षण अथवा प्रतिकर्षण बल, दोनों आवेशों की मात्राओं के गुणनफल के अनुक्रमानुपाती एवं उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है तथा यह बल, दोनों आवेशों को मिलाने वाली रेखा के अनुदिश कार्य करता है। यदि दो बिन्दु आवेश q1व q2एक-दूसरे से r दूरी पर निर्वात या वायु में स्थित हों तो कूलॉम के नियम के अनुसार, उन आवेशों के बीच लगने वाला बल

[latex]F=\frac { { kq }_{ 1 }{ q }_{ 2 } }{ { r }^{ 2 } }[/latex]

यहां k एक नियतांक है। इसका मान निर्यात या वायु के लिए होता है –

K = 9 ×109 न्यूटन-मीटर2/कूलॉम2

विद्युत क्षेत्र की तीव्रता

विद्युत क्षेत्र कॊ किसी बिन्दु पर स्थित कूलॉम धनात्मक आवेश जितने बल का अनुभव करता है उसे उस बिन्दु पर विद्युत क्षेत्र की तीव्रता अथवा विद्युत क्षेत्र कहते हैं।

[latex]E=\frac { F }{ q }[/latex]

विद्युत क्षेत्र की तीव्रता को न्यूटन/कूलॉम में व्यक्त करते हैं तथा यह एक सदिश राशि है।

विद्युत विभव

किसी धनात्मक परीक्षण आवेश को अन्तत से विद्युत क्षेत्र के किसी बिन्दु तक लाने में किए गए कार्य एवं परीक्षण आवेश को मान की निष्पति को उस बिन्दु का विद्युत् विभव कहा जाता है। विद्युत् विभव का SI मात्रक वोल्ट होता है तथा विभव एक अदिश राशि है।

[latex]V=\frac { W }{ Q }[/latex]

वोल्ट: यदि 1 कूलॉम धनात्मक आवेश को अनंत से विद्युत् क्षेत्र के किसी बिंदु तक लाने में 1 जूल कार्य करना पड़े तो उस बिंदु का विद्युत् विभव 1 वोल्ट कहलाता है।

विभवान्तर

एक कूलॉम धनात्मक आवेश को विद्युत् क्षेत्र में एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक ले जाने में किए गए कार्य को उन बिन्दुओं के मध्य विभवान्तर कहते हैं। विभवान्तर का मात्रक भी वोल्ट होता है तथा यह भी एक अदिश राशि है।

विद्युत धारिता

किसी चालक की धारिता (c) चालक को दिए गए आवेश (q) तथा उसके कारण चालक के विभव में होने वाले परिवर्तन (v) की निष्पत्ति को कहते हैं। अर्थात –

C = q/v का SI का मात्रक फैराडे (F) होता है।


धारा विद्युत्

  1. विद्युत् धारा: किसी चालक में विद्युत् आवेश की प्रवाह दर को विद्युत धारा कहते हैं। धनात्मक आवेश को प्रवाह की दिशा ही विद्युत् धारा की दिशा मानी जाती है।
  2. विद्युत् सेल: विद्युत् सेल में रासायनिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। सेल दो प्रकार के होते हैं- प्राथमिक व द्वितीयक।

सेल का विद्युत वाहक बल: 1 कूलॉम आवेश को पूरे विद्युत् परिपथ में एक पूर्ण चक्र लगाने हेतु सेल द्वारा किए गए कार्य को सेल या वि.वा.व. कहते हैं। वि.वा.व का मात्रक वोल्ट होता हैं।

विभवान्तर: जब सेल से धारा प्रवाहित होती है तब उसके सिरों के मध्य जो विभवान्तर होता है उसे सेल का विभवान्तर कहते हैं। यह वि.वा.व से कम होता है।

सेल का आन्तरिक प्रतिरोध: सेल के विद्युत्-अपघटन द्वारा विद्युत् धारा के मार्ग में उत्पन्न प्रतिरोध को सेल का आन्तरिक प्रतिरोध कहते हैं।

तड़ित चालक: तड़ित चालक दो आवेशित बादलों के बीच या आवेशित बादलों व पृथ्वी के बीच होता है। तड़ित चालक एक मोती ताम्बे की पट्टी होती है, जिसके उपरी सिरे पर कई नुकीले सिरे बने होते हैं। इस नुकीले सिरे को भवनों के सबसे ऊपर लगा दिया जाता है तथा दूसरे सिरे को तांबे की पट्टी के साथ जमीन में गाड़ दिया जाता है। जब आवेशित बादल भवन के ऊपर से गुजरते हैं तो उनका आवेश तड़ित चालक के द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है तथा यह आवेश बगैर किसी नुकसान के जमीन में स्थानान्तरित हो जाता है। इस प्रकार इसका प्रयोग भवनों की सुरक्षा के लिये किया जाता है।

हैंस क्रिश्चियन ऑर्स्टेड (1777-1851)

19वीं शताब्दी के अग्रणी वैज्ञानिकों में से एक, हैंस क्रिश्चियन। ऑर्स्टेड ने वैद्युत चुंबकत्व को समझने में एक निर्णायक भूमिका निभायी। सन् 1820 ई. में उन्होंने अकस्मात यह खोजा कि किसी धातु के तार में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर पास में रखी दिक्सूची में विक्षेप उत्पन्न हुआ। अपने प्रेक्षणों के आधार पर ऑस्टैंड ने यह प्रमाणित किया कि विद्युत तथा चुंबकत्व परस्पर संबंधित परिघटनाएं हैं। उनके अनुसंधान ने आगे जाकर नयी-नयी प्रौद्योगिकियों; जैसे-रेडियो, टेलीविजन, तंतु प्रकाशिकी आदि का सृजन किया। उन्हीं के सम्मान में चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता का मात्रक, ऑर्स्टेड रखा गया है।


सरल परिपथ

ओम का नियम

किसी चालक में प्रवाहित विद्युत् धारा का मान उसके सिरों पर लगे हुए विभवान्तर के अनुक्रमानुपाती होता है। अत:

[latex]V- IR[/latex]

जहां V विभवान्तर, I धारा और R उस चालक के लिए उन परिस्थितियों में एक नियतांक है, जिसे चालक का विद्युत् प्रतिरोध कहते हैं। अत: विभवान्तर को वोल्ट में तथा धारा को ऐम्पियर में व्यक्त करें, तो प्रतिरोध का मान वोल्ट/ऐम्पियर में होगा। वोल्ट/ऐम्पियर को ओम कहते हैं।

ओमीय प्रतिरोध

जो चालक ओम के नियम का पालन करते हैं, उन्हें आोमीय प्रतिरोधक तथा उनके प्रतिरोध को ओमीय प्रतिरोध कहते हैं, जैसे- मैंगनिन का तार।

अनओमीय प्रतिरोध

जो चालक ओम के नियम का पालन नहीं करते, उन्हें अनओमीय प्रतिरोधक तथा उनके प्रतिरोध को अनओमीय प्रतिरोध कहते हैं, जैसे-ट्रायोड वाल्व का प्रतिरोध।

विशिष्ट प्रतिरोध

किसी चालक पदार्थ के लिए एक मीटर भुजा वाले धन के आमने-सामने के फलकों के बीच के विद्युत् प्रतिरोध को उस पदार्थ का विशिष्ट प्रतिरोध कहते हैं। इसका मात्रक ओम मीटर होता है। एक ही पदार्थ के बने हुए मोटे तार पर प्रतिरोध कम तथा पतले तार का प्रतिरोध अधिक होता है, परन्तु दोनों का विशिष्ट प्रतिरोध समान होता है, क्योंकि यह केवल पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है।

प्रतिरोधों का श्रेणीक्रम समायोजन

यदि प्रतिरोधों को एक-दूसरे से इस प्रकार जोड़ा जाए कि उनमें समान धारा प्रवाहित हो तथा भिन्न-भिन्न प्रतिरोधी को बीच भिन्न–भिन्न विभवान्तर हो। तो यह प्रतिरोधों का श्रेणीक्रम में समायोजन कहलाता है।

प्रतिरोधों का समानान्तर क्रम समायोजन

यदि प्रतिरोधों को इस प्रकार जोड़ा जाए कि प्रत्येक प्रतिरोध पर विभवान्तर सामान रहे, परन्तु उसमें धाराएं असमान भी रह सकती है, तो यह प्रतिरोधों का समानान्तर क्रम समायोजन कहलाता है।

प्रतिरोध पर ताप का प्रभाव

शुद्ध धातु के तार का प्रतिरोध ताप के साथ बढ़ता है। अत: R = R0 सम्बन्ध से किसी ताप पर प्रतिरोध की गणना की जा सकती है। जहाँ a उस धातु का ताप प्रतिरोध गुणांक है तथा R0 उस धातु 0°C पर प्रतिरोध है।

विद्युत शक्ति

विद्युत परिपथ में ऊर्जा के क्षय होने की दर को शक्ति कहते हैं। इसका SI मात्रक वाट होता है। शक्ति को सूत्र के रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –

शक्ति = धारा x विभवान्तर

तथा 1 बाट = 1 ऐम्पियर x 1 बोल्ट

किलोवाट-घण्टा मात्रक अथवा यूनिट

1 किलोवाट घण्टा मात्रक अथवा 1 यूनिट, विद्युत ऊर्जा की वह मात्रा है, जो कि किसी परिपथ में 1 घण्टे में व्यय होती है, जबकि परिपथ में 1 किलोमीटर की शक्ति हो, अत:,

कि.वा.घं मात्रक = वोल्ट × ऐम्पियर × घण्टा / 1,000 =  वाट × घण्टा / 1,000


विद्युत धारा के प्रभाव

चुम्बकीय प्रभाव

प्रत्येक धारावाही तार के चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है।

वैज्ञानिक ऑर्स्टेड ने एक महत्वपूर्ण प्रयोग के द्वारा यह पता लगाया कि यदि किसी धारावाही तार के समीप चुम्बकीय सुई रखी जाये तो यह विचलित हो जाती है, चूंकि चुम्बकीय सुई केवल चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा ही विचलित की जा सकती है, अतः स्पष्ट है कि विद्युत धारा चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करती है। इस घटना को विद्युत का चुम्बकीय प्रभाव कहते हैं।

लॉरेन्स बल

जब किसी चुम्बकीय क्षेत्र में कोई आवेशित कण गति करता है तो इस पर एक बल आरोपित होता है, जिसे लॉरेन्स बल कहते हैं। यह बल कण के आवेश, उसकी चाल तथा चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता के अनुक्रमानुपाती होता है।

विद्युत चुम्बक

नर्म लोहे के क्रोड वाली परिनलिका विद्युत चुम्बक कहलाती है। इनका उपयोग फैक्टरियों में, अस्पतालों में, विद्युत घंटी, तार-संचार, ट्रॉसफार्मर, डायनेमो, टेलीफोन आदि के बनाने में होता है।

धारामापी

किसी विद्युत परिपथ में विद्युत धारा की उपस्थिति बताने वाला एक सुग्राही यंत्र है। इसमें एक आयताकार कुंडली दो चूलों की सहायता से चुम्बकीय ध्रुव-खण्डों के मध्य स्थित रहती है। कुंडली के दोनों सिरे स्प्रिंग द्वारा संयोजक पत्तों से जुड़े रहते हैं। कुण्डली से एक संकेतक भी जुड़ा रहता है, जो एक अर्द्धवृत्ताकार स्केल पर घूमकर धारा की उपस्थिति बताता है। अत: इस यन्त्र की सहायता से 10-6 एम्पियर तक की विद्युत धारा को मापा जा सकता है।

अमीटर

किसी शंटयुक्त धारामापी को अमीटर कहते हैं। इसमें एक पैमाना होता है, जिसके ऊपर एक सुई घूमती रहती है। इसकी सहायता से धारा का मान एम्पियर में ज्ञात किया जाता है। एक आदर्श अमीटर का प्रतिरोध बहुत कम होता है। अमीटर को विद्युत परिपथ में श्रेणीक्रम में लगाया जाता है।

शंट का उपयोग

शंट, उच्च धाराओं से धारामापी की रक्षा करता है, क्योंकि यह मुख्य धारा का अधिकांश भाग अपने अन्दर होकर प्रवाहित कर देता है। शंट का प्रतिरोध कम होने से शटयुक्त धारामापी का कुल प्रतिरोध भी बहुत कम हो जाता है।

वोल्टमीटर

धारामापी के श्रेणीक्रम में एक उच्च प्रतिरोध लगाकर वोल्टमीटर बनाया जाता है। इसके स्केल पर परिपथ के किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच विभवान्तर पढ़ने के लिए वोल्ट में अंशाकन कर दिया जाता है।

वोल्टमीटर का प्रतिरोध बहुत अधिक होता है। इसको उन दो बिन्दुओं के बीच समान्तर क्रम में जोड़ते हैं, जिनके बीच विभवान्तर ज्ञात करना होता है।


विद्युत-चुम्बकीय प्रेरण

यदि किसी बन्द परिपथ में होकर गुजरने वाले चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन कर दिया जाए तो परिपथ में एक विद्युत धारा उत्पन्न हो जाती है, जिसे प्रेरित विद्युत धारा कहते हैं। चुम्बकीय फ्लक्स के परिवर्तन से विद्युत धारा उत्पन्न होती है। अत: विद्युत धारा उत्पन्न करने की इस घटना को विद्युत चुम्बकीय प्रेरण कहते हैं।

चुम्बकीय फ्लक्स परिवर्तन में उत्पन्न वि.वा.ब. को प्रेरित विद्युत वाहक बल कहा जाता है। परिपथ से प्रेरित विद्युत धारा का अस्तित्व तभी तक रहता हैं जब तक फ्लक्स परिवर्तन होता है।

विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के फैराडे के नियम

प्रथम नियम: जब किसी कुण्डली से सम्बद्ध चुम्बकीय फ्लक्स में परिवर्तन होता है तो उस कुण्डली में एक प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न हो जाता है।

द्वितीय नियम: प्रेरित विद्युत वाहक बल चुम्बकीय फ्लक्स के परिवर्तन की दर के अनुक्रमानुपाती होता है।

प्रेरित वि. वा.ब. [latex]\E =N\frac { \Delta \phi  }{ \Delta t }[/latex]

 जहाँ N= कुंडली की फेरों के संख्या और [latex]\frac { \Delta \phi  }{ \Delta t }[/latex] = फ्लक्स परिवर्तन की दर है।

प्रेरित विद्युत धारा का मान –

प्रेरित विद्युत धारा [latex]\left( i \right) =\frac { e }{ R } =\frac { N }{ R } \left[ \frac { \Delta \phi  }{ \Delta t }  \right][/latex]

 जहां R = परिपथ का प्रतिरोध।

प्रेरित विद्युत आवेश का मान –

प्रेरित विद्युत आवेश (q) = i Δr


लेंज का नियम

प्रेरित विद्युत वाहक बल की दिशा सदैव ऐसी होती है कि यह उस कारण का विरोध करती है, जिससे इसकी उत्पत्ति हुई है।

फ्लेमिंग के दायें हाथ का नियम

यदि दाएं हाथ के अंगूठे, तर्जनी और मध्यमा उगलियों को इस प्रकार परस्पर लम्बवत् प्रसारित किया जाए कि अंगूठा चालक को तथा गति की दिशा को और तर्जनी चुम्बकीय क्षेत्र की दिशा को प्रदर्शित करे, तो मध्यमा उंगली प्रेरित वि.वा. बल की दिशा को प्रदर्शित करेगी।

प्रेरित वि.वा.ब.

चुम्बकीय क्षेत्र में गतिशील चालक के सिरों पर वि.वा.ब. उत्पन्न हो जाता है। चुम्बकीय क्षेत्र B के लम्बवत् दिशा में v वेग में गतिशील चालक के सिरों पर उत्पन्न वि. वा.ब. निम्नलिखित सूत्र से प्राप्त होता है –

V = vBL जहाँ L चालक की लम्बाई है, यदि v मीटर/सेकण्ड में, B वेबर/मी2 में तथा L मीटर में हो तो चालक का वि.वा.ब. वोल्ट में प्राप्त होगा।

यदि चालक चुम्बकीय क्षेत्र से साथ बीटा कोण पर गति करे तो प्रेरित विभवान्तर V = vBL Sin बीटा होगा।

स्व प्रेरण

यह वह घटना है, जिसमें स्वयं की धारा से उत्पन्न फ्लक्स में परिवर्तन होने से किसी परिपथ में प्रेरित वि.वा.ब. पैदा हो जाता है। किसी छड़ कुण्डली से सम्बन्धित फ्लक्स इसमें प्रवाहित धारा के अनुक्रमानुपाती होता है। जहां L नियतांक है, जिसे कुण्डली का स्व-प्रेरण गुणांक या स्व-प्रेरकत्व कहते हैं। इसका मात्रक हेनरी होता है।

अन्योन्य प्रेरण

एक कुण्डली में धारा परिवर्तन करके दूसरी कुण्डली में प्रेरित विद्युत वाहक बल उत्पन्न करने की घटना को अन्योन्य प्रेरण कहते हैं।

अन्योन्य प्रेरण गुणांक: दो कुण्डलियों के मध्य अन्योन्य प्रेरकत्व संख्यात्मक दृष्टि से एक कुण्डली में उत्पन्न उस प्रेरित वि.वा.ब. के बराबर होता है, जो दूसरी कुण्डली में एकांक धारा परिवर्तन की दर के कारण उत्पन्न होता है। अन्योन्य-प्रेरण गुणक अथवा अन्योन्य प्रेरकत्व का मात्रक भी हेनरी होता है।


विद्युत धारा का रासायनिक प्रभाव

किसी लवण के जलीय विलयन को, जिसमें से विद्युत धारा गुजर सकती है, विद्युत-अपघटय कहते हैं।

जब किसी लवण के जलीय विलयन में विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तो इसका विद्युत-अपघटन होता है। अर्थात् इस विलयन का धनात्मक व ऋणात्मक आयनों में अपघटन हो जाता है। इस घटना को विद्युत-धारा का रासायनिक प्रभाव कहते हैं। जिस उपकरण में लवणों के जलीय विलयनों का विद्युत-अपघटन होता है उसे वोल्टमीटर कहते हैं। जब किसी विद्युत-अपघटन लवण का जलीय विलयन बनाते हैं, तो लवण दो प्रकार के आयनों में डूब जाता हैं। उन आयनों पर विपरीत प्रकार के आवेश होते हैं। जिन आयनों पर धन आवेश होता है, उन्हें धनायन कहते हैं तथा ऋणावेश वाले आयनों को ऋणायन कहते हैं। वोल्टामीटर के धन इलेक्ट्रॉन को ऐनोड व ऋण इलेक्ट्रोड को कैथोड कहते हैं। विद्युत-अपघटन के दैनिक जीवन में कई अनुप्रयोग हैं, जिनमें कुछ महत्वपूर्ण निम्न हैं-

विद्युत-लेपन

एक धातु पर दूसरी धातु की सतह चढ़ायी जाने की क्रिया को विद्युत-लेपन कहते हैं। बाजारों में बिकने वाली सस्ती धातुओं के आभूषणों पर चांदी या सोने की पर्त चढ़कर उन्हें मूल्यवान बनाया जाता है। उदाहरणार्थ, जैसे तांबे पर चांदी की तह चढ़ाने के लिए सिल्वर नाइट्रेड का जलीय विलयन वोल्टमीटर में लेकर इसमें तांबे की प्लेट का कैथोड व चांदी की प्लेट का ऐनोड लिया जाता है। जलीय विलयन में सिल्वर नाइट्रेड, सिल्वर व नाइट्रेट आयनों में टूट जाता है। जब विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है तो सिल्वर आयन तांबे की प्लेट पर आकर जमा होने लगते हैं, जिससे इस पर चांदी की पतली पर्त चढ़ जाती है। साधारणतया जिस धातु पर लेपन करना होता है, उसे कैथोड तथा जिस धातु का लेपन करना होता है, उसे ऐनोड बनाया जाता है।

विद्युत-मुद्रण

विद्युत-मुद्रण में विद्युत् अपघटन के द्वारा मुद्रण के लिए ब्लॉक बनाए जाते हैं।

धातुओं का विद्युत परिष्करण

अशुद्ध या मिश्रित धातुओं का परिष्करण विद्युत-अपघटन के द्वारा किया जाता है। इस विधि में मिश्रित धातु को ऐनोड व उसी का कैथोड लिया जाता है। इन दोनों को धातु के किसी लवण के जलीय विलयन में डालकर वोल्टामीटर बनाया जाता है और विद्युत्-अपघटन कराया जाता है। ऐनोड से मिश्रित धातु विलयन में घुलती है तथा शुद्ध धातु कैथोड पर एकत्रित होती जाती है।

ऊष्मीय प्रभाव

जब किसी चालक में विद्युत् धारा प्रवाहित की जाती है तो गतिशील इलेक्ट्रॉन निरन्तर चालक के परमाणुओं से टकराते हैं तथा इस प्रक्रिया में अपनी ऊर्जा चालक के परमाणुओं को स्थानान्तरित करते हैं। इससे चालक का ताप बढ़ जाता है। चालक के ताप के बढ़ने की इस घटना को विद्युत धारा का ऊष्मीय प्रभाव कहते हैं। इस प्रकार विद्युत ऊर्जा, ऊष्मीय ऊर्जा में बदल जाती है। यदि तार का प्रतिरोध R ओम है तथा उसमें 1 ऐम्पियर धारा प्रवाहित हो रही हो तो प्रति सेकेण्ड तार में 12R जूल ऊष्मा उत्पन्न होगी, जिसे हम 0.24 12R कैलोरी भी कह सकते हैं।

विद्युत धारा के ऊष्मीय प्रभाव का उपयोग, घरेलू उपकरणों जैसे-विद्युत हीटर, विद्युत प्रेस, बल्ब, टयूब-लाइट आदि में किया जाता है।

विद्युत हीटर

विद्युत हीटर का प्रयोग कई रूपों में किया जाता है। इसमें किसी विद्युतरोधी पदार्थ जैसे-प्लास्टर ऑफ पेरिस की एक खांचेदार प्लेट होती है, जिसमें मिश्रधातु नाइक्रोम का सर्पिलाकार तार लगा होता है। जब तार के दोनों सिरों को विद्युत आपूर्ति मेन्स से जोड़ते हैं तो वह अत्यधिक प्रतिरोध होने के कारण लाल होकर चमकने लगता है और अत्यधिक ऊष्मा देता है।

विद्युत प्रेस

विद्युत प्रेस में भी नाइस्क्रोम का तार अभ्रक की प्लेट पर लिपटा रहता है। इस प्लेट को किसी लोहा या इस्पात के आवरण के अन्दर रखा जाता है। आवरण के ऊपर किसी कुचालक पदार्थ का हत्था पकड़ने के लिये लगा होता है। जब तार में धारा प्रवाहित होती है तो यह गर्म होकर ऊष्मा देने लगता है। इसका प्रयोग घरों में कपड़े प्रेस करने में किया जाता है।

विद्युत बल्ब

विद्युत बल्ब का आविष्कार सर्वप्रथम एडीसन ने किया था। इसमें ऑक्सीजन धातु का एक पतला कुण्डलीनुमा तन्तु लगा होता है। इस धातु की ऑक्सीजन को रोकने के लिए बल्ब के अन्दर निर्वात कर दिया जाता है। इसका आवरण पतले कांच का बना होता है। कभी-कभी बल्ब के अन्दर पूर्णत: निर्वात् करने की बजाय, उसमें नाइट्रोजन, आर्गन गैस भर देते हैं।

टंगस्टन धातु का उपयोग इसलिये किया जाता है, क्योंकि इसका गलनांक अत्यधिक होता है। बल्ब में अक्रिय गैस इसलिये भरते हैं, क्योंकि निर्वात् में उच्च ताप पर टंगस्टन धातु का वाष्पीकरण हो जाता है तथा यह वाष्पीकृत होकर बल्ब की दीवारों पर चिपक जाता है, इसे ब्लैकनिंग कहते हैं। इस प्रक्रिया के बाद तन्तु कमजोर होकर टूट जाता है। सामान्यत: घरेलू उपयोग में लाये जाने वाले बल्ब 220 वोल्ट पर जलाये जाते हैं।

ट्यूबलाइट

कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं कि जब उन पर ऊंची आवृत्ति का प्रकाश जैसे-पराबैंगनी प्रकाश डाला जाता है तो वे उसे अवशोषित कर लेते हैं तथा नीची आवृत्ति के प्रकाश का उत्सर्जन करते हैं। ऐसे पदार्थ फास्फर कहलाते हैं तथा इस घटना को प्रतिदीप्ति कहते हैं। ट्यूबलाइट में कांच की एक लम्बी ट्यूब होती है, जिसके अंदर की दीवारों पर फास्फर का लेप चढ़ा रहता है। ट्यूब के अंदर अक्रिय गैस जैसे-आर्गन को पारे के साथ भर देते हैं। ट्यूब के दोनों किनारों पर बेरियम ऑक्साइड की तरह चढ़े हुये दो तन्तु लगे होते हैं। जब तंतुओं में विद्युत-धारा प्रवाहित की जाती है तो इनमें इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होते हैं, जो ट्यूब में भरी गैस का आयनीकरण करते हैं। आयनीकरण से उत्पन्न आयनों के प्रवाह के फलस्वरूप ट्यूब में धारा बहने लगती है। ट्यूब में स्थित धारा गर्मी पाकर वाष्पित होता है तथा इससे विद्युत विसर्जन के कारण पराबैंगनी किरणे उत्पन्न होती हैं। जब ये किरणें ट्यूब की दीवारों पर पुते फास्फर पर पड़ती हैं तो वह उन्हें अवशोषित करके निचली आवृत्ति के प्रकाश का उत्सर्जन करती है। ट्यूब के फास्फर को इस प्रकार का लगाया जाता है कि उससे उत्पन्न प्रकाश, सूर्य के प्रकाश जैसा दिखाई देता है।


प्रत्यावर्ती धारा

एक ऐसी धारा, जिसका परिमाण व दिशा समय के साथ बदले तथा एक निश्चित समय के पश्चात् उसी दिशा में उसी परिमाण के साथ उसकी पृनरावृत्ति हो, प्रत्यावर्ती धारा कहलाती है।

I = I0 sin Wt

इसमें I0, धारा का शिखर मान है, इसको प्रत्यावर्ती धारा का आयाम कहते हैं।

आवर्तकाल

प्रत्यावर्ती धारा, चुम्बकीय क्षेत्र में घूमती हुई कुण्डली से उत्पन्न होती है। कुण्डली के एक चक्कर में धारा पहले एक दिशा में शून्य से अधिकतम, अधिकतम से शून्य, तथा फिर विपरीत दिशा में शून्य से अधिकतम व अधिकतम से शून्य हो जाती है। इसे प्रत्यावर्ती धारा को एक चक्र कहते हैं। चक्र पूरी करने में लगने वाले समय का प्रत्यावर्ती धारा का आवर्तकाल कहते हैं।

आवृत्ति

प्रत्यावर्ती धारा 1 सेकंड में जितने चक्र पूरे करती है, उसे प्रत्यावर्ती धारा की आवृत्ति कहते हैं।

आवृत्ति का मात्रक साईकिल/सेकण्ड अथवा हर्ट्ज होता है। घरों में प्रयुक्त प्रत्यावर्ती धारा की आवृत्ति 50 चक्र/सेकण्ड अथवा 50 हर्ट्ज होती है।

अर्थात् यह धारा 1 सेकण्ड में 100 बार अपनी दिशा बदलती है। व्यवहार में प्रत्यावर्ती धारा का वर्ग मध्य मूल मान ही व्यक्त किया जाता है जो 220v होता है।

दिष्ट धारा की अपेक्षा समान वोल्टेज की प्रत्यावर्ती धारा अधिक खतरनाक होती है। कारण यह है कि 220v की A.C का वास्तविक मान -311v से + 311v तक होता है, जबकि 220v की D.C का वास्तविक मान 220v ही होता है।

वाटहीन धारा

जब प्रत्यावर्ती धारा परिपथ में बिना शक्ति का व्यय किये प्रवाहित हो तो ऐसी धारा को वाटहीन धारा कहते हैं। ऐसी धारा तभी प्रवाहित होगी, जब परिपथ में ओमीय प्रतिरोध का मान शून्य हो।

चोक कुण्डली

चोक कुण्डली ऐसी कुण्डली होती है, जो बहुत अपने अन्दर से D.C को तो निकल जाने देती है, परन्तु A.C के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करती है। नर्म लोहे के एक क्रोड के ऊपर पृथक्कृत तांबे का तार लपेट कर चोक कुण्डली को बनाया जाता है। लोहे के कारण प्रेरकत्व का मान बढ़ जाता है। चोक कुण्डली से यह लाभ होता है कि इसके कारण परिपथ में, व्यय विद्युत ऊर्जा का मान न्यूनतम होता है। चोक कुण्डली का उपयोग घरों की फ्लोरेसेंट ट्यूब व रेडियो में होता है।

ट्रांसफार्मर

विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करने वाला यह एक ऐसा यंत्र है, जो उच्च ए.सी. वोल्टेज को निम्न ए.सी. वोल्टेज में एवं निम्न ए.सी. वोल्टेज को उच्च ए.सी. वोल्टेज में बदल देता है। एक पटलित नर्म लोहे की आयताकार क्रोड पर आमने-सामने दो कुण्डलियां लपेट कर ट्रांसफार्मर बनाया जाता है। ए.सी. स्रोत से जुड़ने वाली कुण्डली को प्राथमिक कुण्डली एवं बाह्य परिपथ से जुड़ने वाली कुण्डली को द्वितीय कुण्डली कहा जाता है।

डायनमो या ए.सी. जेनरेटर

यह वह यन्त्र है, जो यान्त्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है। डायनमो, विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करता है। इसमें तारों की एक कुण्डली को जल टरबाइन या भाप टारबाइन द्वारा चुम्बकीय क्षेत्र में घुमाया जाता है। अत: डायनमों सपीवलय तथा ब्रुशों की सहायता से कुण्डली में उत्पन्न विद्युत धारा को बाह्य परिपथ में भेजते हैं।

विद्युत मोटर

यह एक ऐसा यंत्र है, जो विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में बदल देता है। चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित आमेचर कुण्डली पर एक बल कार्य करने लगता है, तो वह चुम्बकीय क्षेत्र से घूमने लगती है। इस प्रकार आर्मेचर में विद्युत ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। (विद्युत मोटर विद्युत-चुम्बकीय-प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य नहीं करता)

माइक्रोफोन

इस युक्ति के द्वारा ध्वनि ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। इससे ध्वनि को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा जाता है। माइक्रोफोन द्वारा प्रेषित विद्युत ऊर्जा को दूसरे स्थान पर लाइउस्पीकर या टेलीफोन अभिग्राही की सहायता से पुनः ध्वनि ऊर्जा में परिवर्तित कर लिया जाता है।

लाउडस्पीकर

लाउडस्पीकर की सहायता से माइक्रोफोन द्वारा प्रेषित विद्युत तरंगों को पुन: ध्वनि तरंगों में परिवर्तित किया जाता है।

घरेलू विद्युत् आपूर्ति

घरों में आपूर्ति की जाने वाली विद्युत् 220v की A.C होती हैं, जिसकी ध्रुवता प्रति सेकण्ड 100 बाद बदलती है, अर्थात् उसकी आवृत्ति 50 हर्ट्ज होती है। एक चक्र में धारा की ध्रुवता दो बार बदलती है। इसे मुख्य लाइन कहते हैं तथा जिन तारों में से यह धारा प्रवाहित होती है उन्हें मेन्स कहते हैं। मेन्स द्वारा प्राय: दो विभिन्न ऐम्पियर पर सप्लाई दी जाती है, जो 5A तथा 15A होती है। पहले को घरेलू तथा दूसरे को पावर लाइन कहते हैं। दो प्रकार की सप्लाई की आवश्यकता का कारण यह है कि घरों में विभिन्न प्रकार के उपकरण जैसे-बल्ब, टयूब, हीटर, रेडियो, टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर, इत्यादि प्रयुक्त किए जाते हैं। इनमें से कुछ को 5A की तथा कुछ को 15A की धारा की आवश्यकता होती है।

घरों में विभिन्न प्रतिरोध के उपकरण उपयोग में लाए जाते हैं। हीटर का प्रतिरोध लगभग 20-40 ओम होता है, जबकि बल्ब का प्रतिरोध उससे लगभग 20 गुना अधिक होता है। यदि ये दोनों उपकरण श्रेणीक्रम में जुड़े हों तो प्रवाहित होने वाली धारा कम हो जाएगी तथा प्रत्येक उपकरण को कार्य करने के लिए उपयुक्त शक्ति नहीं प्राप्त होगी। समान्तर क्रम संयोजन में तुल्य प्रतिरोध कम हो जाता है, जिसके कारण प्रवाहित धारा बढ़ जाती है। इस स्थिति में प्रत्येक उपकरण को आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है।

2 किलोवाट तथा 24.2 ओम के प्रतिरोध का हीटर 220 वोल्ट पर 9.1 ऐम्पियर धारा खींचता है, परन्तु 100 वाट का कोई बल्ब जिसका प्रतिरोध लगभग 480 ओम होता है केवल 0.45 ऐम्पियर धारा लेता है। चूंकि दोनों उपकरणों की शक्ति भिन्न होती है, अतः उनकी आवश्यकताएं भी भिन्न होती हैं। अत: यह सुविधाजनक रहता है कि दो मेन्स उपलब्ध कराए जाएं- एक, अधिक ऐम्पियर का, जिसे हीटर, कूलर, इस्तरी, रेफ्रिजरेटर जैसे अधिक शक्ति के उपकरणों में प्रयुक्त किया जाए तथा दूसरा 5 ऐम्पियर का जिसे प्रकाश के बल्ब तथा अन्य कम शक्ति के उपकरणों के लिए प्रयुक्त किया जा सके।

घरेलू वायरिंग

घरों में विद्युत् की मुख्य आपूर्ति 2 कोर वाली तारों द्वारा की जाती है, जिन्हें विद्युन्मय, उदासीन तथा भू-तार कहते हैं। विद्युन्मय तार सामान्यतया लाल रंग का होता है तथा मेन्स से धारा इसके द्वारा प्रवाहित होती है। उदासीन तार सामान्यतया काले रंग का होता है तथा यह धारा को वापस ले जाता है। भू-तार सामान्यतया हरे रंग का होता है। ये तारें घर के अन्दर विभिन्न परिपथों को विद्युत् सप्लाई करती हैं।

विद्युत् फ्यूज तार

विद्युत् परिपथ में इस प्रकार के तार लगाए जाते हैं कि उनमें से किसी निश्चित परिमाण तक की धारा बिना किसी हानि के प्रवाहित की जा सके। यदि परिपथ में उससे अधिक परिमाण की धारा प्रवाहित होगी तो तार अत्यधिक गरम हो जाएगा और उसमें आग भी लग सकती है। परिपथ में प्रवाहित होने वाली धारा का परिमाण स्वीकृत सीमा से अधिक निम्नलिखित कारणों से हो सकता है –

  1. अतिभारण और
  2. लघु पथन

परिपथ में धारा का परिमाण उसमें लगाए जाने वाले उपकरणों की शक्ति पर निर्भर करता है। विशेष गुणवत्ता वाले तारों का चुनाव उनमें से सर्वाधिक प्रवाहित होने वाली धारा के परिमाण पर निर्भर करता है। यदि उपकरणों की कुल शक्ति इस स्वीकृत सीमा से अधिक हो जाती है तो उपकरण आवश्यकता से अधिक धारा खींचने लगते हैं, इसे अतिभारण कहते हैं।

कभी-कभी विद्युन्मय तथा उदासीन तार, खराब तारों के कारण आपस में सम्पर्क में आ जाते हैं। ऐसा होने पर परिपथ का प्रतिरोध लगभग शून्य हो जाता है और उसमें से अत्यधिक धारा प्रवाहित होने लगती है। इसे लघुपथन कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप तार अत्यधिक गरम हो जाते हैं और उपकरण खराब भी हो सकते हैं। जिस स्थान पर लघुपथन हुआ है, वहां चिन्गारी भी उत्पन्न हो सकती है जिससे आग भी लग सकती है।

विद्युत् परिपथों की सुरक्षा के लिए सबसे आवश्यक युक्ति फ्यूज है। फ्यूज ऐसे तार का टुकड़ा होता है, जिसके पदार्थ का गलनांक बहुत कम होता है। जब परिपथ में अतिभारण या लघुपथन के कारण बहुत अधिक धारा प्रवाहित हो जाती है, तब फ्यूज का तार गरम होकर पिघल जाता है। इसके फलस्वरूप परिपथ टूट जाता है और उसमें धारा प्रवाहित होनी बन्द हो जाती है। फ्यूज सदैव विद्युन्मय तार में लगाया जाता है।

विद्युत् शॉक

विद्युत् के कारण जब शरीर में शॉक लगता है तो संवेदी अंग उस संकेत को विद्युत स्पन्दन के रूप में न्यूरॉन की सहायता से मस्तिष्क में भेजता है। इसकी चाल लगभग 120 मीटर/सेकण्ड होती है।

औषध में चुंबकत्व

विद्युत धारा सदैव चुबंकीय क्षेत्र उत्पन्न करती है। यहाँ तक कि हमारे शरीर की तंत्रिका कोशिकाओं के अनुदिश गमन करने वाली दुर्बल आयन धाराएँ भी चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करती हैं। जब हम किसी वस्तु को स्पर्श करते हैं तो हमारी तंत्रिकाएं एक विद्युत् आवेग का उस पेशी तक वहन करती हैं, जिसका हमें उपयोग करना है। यह आवेग एक अस्थायी चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करता है। ये क्षेत्र अति दुर्बल होते हैं और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का उत्पन्न होना महत्वपूर्ण है। वे हृदय तथा मस्तिष्क हैं। शरीर के भीतर चुंबकीय क्षेत्र, शरीर के विभिन्न भागों के प्रतिबिंब प्राप्त करने का आधार बनता है। ऐसा एक विशेष तकनीक, जिसे चुम्बकीय अनुनाद प्रतिविम्बन कहते हैं, के उपयोग द्वारा किया जाता है। चिकित्सा निदान में इन प्रतिबिंबों का विश्लेषण सहायक होता है। इस प्रकार चिकित्सा विज्ञान में चुंबकत्व के महत्वपूर्ण उपयोग हैं।

विद्युत्-चुम्बकीय विकिरण

विद्युत्-चुम्बकीय तरंगें विद्युत्-चुम्बकीय तरंगें युग्मित आवर्ती विद्युत् व चुम्बकीय विक्षोभ हैं, जो दोलायमान विद्युत् आवेश के कारण उत्पन्न होते हैं।

विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों का एक बहुत लम्बा आवृत्ति परास है, जो 105 हर्ट्ज की रेडियो तरंगों से कम आवृत्ति से लेकर 1020 हर्ट्ज की गामा-किरणों से भी अधिक आवृत्ति तक होता है। दृश्य गत प्रकाश, विद्युत्-चुम्बकीय विकिरण है, जिसकी आवृत्तियों का परास

4.3 × 1014 से 7 x 1014 हर्ट्ज है। इससे स्पष्ट है कि इसके विविध प्रखण्डों की कोई स्पष्ट सीमा न होकर वास्तव में ये परस्पर व्याप्त होते हैं। स्पेक्ट्रम के विविध प्रखण्डों के वर्णनात्मक नाम केवल ऐतिहासिक वर्गीकरण मात्र ही हैं, अन्यथा रेडियो से लेकर गामा तक की प्रकृति एक ही है। इनमें अंतर केवल आवृत्ति और तरंगदैर्ध्य की प्रकृति एक ही है। इन तरंगों की गति निर्वात् में एक समान होती है। सभी विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के लिए, संबद्ध समीकरण सूत्र

चाल = आवृत्ति × तरंगदैर्ध्य

यदि किसी रेडियो स्टेशन से संप्रेषित तरंग की आवृत्ति ज्ञात हो तो उसका तरंगदैर्ध्य, दी गई आवृत्ति से भाग देकर ज्ञात किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, किसी रेडियो केन्द्र से 819 आवृत्ति पर भेजी गई रेडियों तरंग की तरंगदैर्ध्य 366mm है।

रेडियो एवं टेलीविजन का प्रेषण

रेडियो स्टेशन से जब रेडियो-तरंगों को प्रेषित करते हैं तो ये वायुमण्डल में आयनमण्डल (पृथ्वी के चारों ओर वायुमण्डल में फैला 60 से 500m की दूरी का विस्तार क्षेत्र) से परावर्तित होकर पृथ्वी के किसी भी क्षेत्र पर प्राप्त होती हैं। आयनमण्डल द्वारा इन तरंगों के कुछ अवशोषण से सुदूर क्षेत्रों पर प्राप्त रेडियो संकेत कुछ धीमे हो जाते हैं। रात्रि में रेडियो का रिसेप्शन कुछ अच्छा हो जाता है क्योंकि आयनमण्डल की परतें सूर्य किरणों से प्रभावित नहीं होती हैं।

टेलीविजन के संकेत उच्च-आवृत्ति की तरंगों द्वारा प्रेषित किए जाते हैं तथा ये तरंगे आयन मण्डल का भेदन कर निकल जाती हैं, अत: रेडियों संकेतों की तरह प्राप्त नहीं की जातीं। टेलीविजन प्रेषण की निष्पत्ति दृश्य-रेखा को आधार पर की जाती है। अत: टेलीविजन कार्यक्रम एक सीमित दूरी तक ही प्राप्त हो पाते हैं। पृथ्वी की वक्रता के कारण ही टेलीविजन का रिसेप्शन सीमित दूरी तक ही हो पाता है। किन्तु अब विकसित प्रौद्योगिकी की सहायता से भू-स्थिर उपग्रहों द्वारा टेलीविजन का पृथ्वी के किसी भी क्षेत्र पर संपर्क संभव हो गया है।

गैल्वनोमीटर

गैल्वनोमीटर एक ऐसा उपकरण है, जो किसी परिपथ में विद्युत धारा की उपस्थिति संसूचित करता है। यदि इससे प्रवाहित विद्युत धारा शून्य है तो इसका संकेतक शून्य पर रहता है। यह अपने शून्य चिन्ह के या तो बाईं ओर अथवा दाईं ओर विक्षेपित हो सकता है, यह विक्षेप विद्युत धारा की दिशा पर निर्भर करता है।

रडार

अति उच्च आवृत्ति की रेडियो-तरंगें हैं, जिनका उपयोग जलयानों एवं वायुयानों की टोह लेने के लिए किया जाता है। एक घूमता हुआ एरियल उच्च आवृत्ति की रेडियो तरंगें भेजता है, जो इन वस्तुओं से परावर्तित होने के पश्चात् लौट आती हैं। पल्सों के प्रेषण और ग्रहण के बीच के समय अंतराल से वस्तु की दूरी निर्धारित की जा सकती है।

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