प्रान्तीय साहित्य का विकास Development of Provincial Literature

महत्त्वपूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक परिणामों को उत्पन्न करने के अतिरिक्त, सुधारवादी आन्दोलनों ने भारत के विभिन्न भागों में भारतीय साहित्य के विकास को बहुत प्रोत्साहन.दिया। पुराणपंथी विद्वान् संस्कृत में लिखते रहे, पर धार्मिक सुधारक अशिक्षित जन-समूहों में उपदेश देने के ध्येय से, ऐसे माध्यम से लिखते तथा बोलते थे, जिसे वे (जनसमूह) आसानी से समझ सके। इस प्रकार रामानन्द तथा कबीर ने हिन्दी में उपदेश दिया तथा इसके काव्य को भरसक समृद्ध किया। भक्ति-भावना से ओतप्रोत कबीर के दोहे तथा साखियाँ हिन्दी साहित्य के उज्ज्वल नमूने हैं। नामदेव ने मराठी साहित्य के विकास में बड़ी सहायता की। मीराबाई तथा राधाकृष्ण-भक्ति-संप्रदाय के कुछ अन्य उपदेशकों ने ब्रजभाषा में गीत लिखे। नानक तथा उनके शिष्यों ने पंजाबी तथा गुरुमुखी को प्रोत्साहन दिया।

बंगला साहित्य वैष्णव उपदेशकों का अत्याधिक ऋणी है। प्रसिद्ध वैष्णव कवि चंडीदास की, जिनका जन्म शायद चौदहवीं सदी के अन्त में पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के नान्नूर ग्राम में हुआ था, अभी भी बड़ी प्रतिष्ठा होती है तथा उनके रचे गीत बंगाल के जनसाधारण तक को ज्ञात हैं। उनके समकालीन विद्यापति ठाकुर यद्यपि मिथिला के निवासी हैं, पर बंगाल के कवि माने जाते हैं तथा इस प्रान्त के लोग उनका श्रद्धा के साथ स्मरण करते हैं। राजदरबारों के संरक्षण से भी साहित्य के विकास में काफी सहायता मिली। विद्यापति शिव सिंह नामक एक हिन्दू नायक के राजकवि थे। बंगाल के मुस्लिम शासकों ने रामायण एवं महाभारत का संस्कृत से बंगला में, जो वे समझते तथा बोलते थे, अनुवाद करने के लिए विद्वानों को नियुक्त किया। बरबकशाह ने जो स्वयं एक विद्वान् था, अनेक रचनाओं के अत्यन्त ही गुण-सम्पन्न और प्रसिद्ध प्रणेता रायमुकुट बृहस्पति मिश्र, मालाधर बसु, जिसने 1473 ई. में अपनी रचना श्री कृष्ण-विजय को लिखना प्रारम्भ किया तथा जिसे इस सुल्तान ने गुणराज खाँ की उपाधि प्रदान की, और कृत्तिवास, जिसकी रामायण का बंगला अनुवाद कुछ के द्वारा बंगाल की बाइबिल  समझा गया है, सरीखे विद्वानों को आश्रय प्रदान किया। गौड़ के सुल्तान नसरत शाह ने महाभारत का बंगला में अनुवाद करवाया। विद्यापति इस सुल्तान की तथा सुल्तान ग्यासुद्दीन की भी बड़ी प्रशंसा करते हैं। हुसैन शाह के सेनापति परागल खाँ ने परमेश्वर से, जो कवीन्द्र भी कहा जाता था, महाभारत का एक दूसरा अनुवाद करवाया। परागल खाँ के पुत्र चूटी खाँ ने, जो चटगाँव का सूबेदार था, श्रीकर नन्दी को महाभारत के अश्वमेध-पर्व का बंगला में अनुवाद करने के लिए नियुक्त किया।

संस्कृत में साहित्यिक कार्य यह युग संस्कृत में महत्त्वपूर्ण धार्मिक एवं धर्म-निरपेक्ष रचनाओं से पूर्णत: शून्य नहीं था, यद्यपि इस विषय में इसमें पिछली दो या तीन सदियों की तुलना में कुछ विशेष कार्य नहीं हुआ। (1300 ई.) के लगभग पार्थसारथी मिश्र ने कम मीमांसा पर कई ग्रन्थ लिखे, जिनमें शास्त्रदीपिका का सबसे अधिक अध्ययन हुआ। इस युग में ऐसी पुस्तकें लिखी गयीं, जो दर्शन की योग, वैशेषिक तथा न्याय शाखाओं के सिद्धान्तों की व्याख्या करती थीं। उस युग के अधिक नाटक थे- जय सिंह सूरी (1211-1229 ई.) द्वारा लिखित हम्मीर मदमर्द; केरल के राजा रविवर्मन् का प्रद्युम्न-अभ्युदय; विद्यानाथ (1300 ई.) का प्रताप रुद्र कल्याण; वामन भट्ट बाण (1400 ई.) का पावती-परिणय; गंगादास का गांदास प्रताप-विलास, जिसमें गुजरात के मुहम्मद द्वितीय के विरुद्ध चम्पानेर के एक राजा के युद्ध का वर्णन है तथा बंगाल के हुसैन शाह के समकालीन रूप गोस्वामी द्वारा संस्कृत के पचीस ग्रन्थों का लेखक था, ने विदग्ध माधव और व्यक्ति माधव नामक दो महत्त्वपूर्ण रचनाओं का प्रणयन किया। 1532 ई. के आसपास लिखित विदग्ध माधव तथा ललित माधव। इस युग में मिथिला तथा बंगाल में स्मृति एवं व्याकरण-संबंधी साहित्य का उत्कर्ष हुआ। सबसे प्रसिद्ध लेखक थे पद्मनाभ, मिथिला के विद्यापति उपाध्याय एवं वाचस्पति तथा बंगाल के रघुनन्दन। इस युग में धर्म-निरपेक्ष एवं धार्मिक जैन साहित्य भी बहुलता से रचा गया। विजयनगर के शासकों ने सायण, उसके भाई माधव विद्यारण्य इत्यादि के समान विद्वानों का पर्याप्त संरक्षण किया, जिसके फलस्वरूप विस्तृत संस्कृत सभ्यता फैल गयी। संस्कृत के ज्ञान से सम्पन्न कतिपय मुसलमान विद्वानों के उदाहरण भी हम पाते हैं।

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