ऊतक और अंग Tissue and Organ

ऊतकों का अध्ययन जीव विज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत करते हैं उसे औतिकी (Hitology) कहते हैं। इटली के वैज्ञानिक मार्सेलो मैल्पिथी भौतिकी के संस्थापक कहे जाते हैं, Histology नाम, मायर ने दिया तथा ‘ऊतक’ शब्द का प्रयोग ‘विचट’ ने सर्वप्रथम किया।

सामान्य परिचय

सभी जीवित प्राणी या पौधे कोशिकाओं के बने होते हैं। एक कोशिकीय जीवों में, सभी मौलिक कार्य एक ही कोशिका द्वारा किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, अमीबा में एक ही कोशिका द्वारा गति, भोजन लेने की क्रिया, श्वसन क्रिया और उत्सर्जन क्रिया संपन्न की जाती है। लेकिन बहुकोशिकीय जीवों में लाखों कोशिकाएँ होती हैं। इनमें से अधिकतर कोशिकाएँ कुछ ही कार्यों को संपन्न करने में सक्षम होती हैं। प्रत्येक विशेष कार्य कोशिकाओं के विभिन्न समूहों द्वारा किया जाता है। कोशिकाओं के ये समूह एक विशिष्ट कार्य को ही अति दक्षता पूर्व संपन्न करने के लिए सक्षम होते हैं। मनुष्यों में, पेशीय कोशिका फैलती और सिकुड़ती है, जिससे गति होती है, तंत्रिका कोशिकाएँ संदेशों की वाहक होती हैं; रक्त, ऑक्सीजन, भोजन, हॉर्मोन और अपशिष्ट पदार्थों का वहन करता है। पौधों में, वाहक नलियों से संबंधित कोशिकाएँ भोजन और पानी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाती हैं। अत: बहुकोशिका जीवों में श्रम विभाजन होता है। शरीर के अंदर ऐसी कोशिकाएँ जो एक तरह के कार्य को संपन्न करने में दक्ष होती हैं, सदैव एक समूह में होती हैं। इससे ज्ञात होता है कि शरीर के अंदर एक निश्चित कार्य एक निश्चित स्थान पर कोशिकाओं के एक विशिष्ट समूह द्वारा संपन्न किया जाता है। कोशिकाओं का यह समूह ऊतक कहलाता है। ये ऊतक अधिकतम दक्षता के साथ कार्य कर सकने के लिए एक विशिष्ट क्रम में व्यवस्थित होते हैं। रक्त, फ्लोएम तथा पेशी ऊतक के उदाहरण हैं।

वे कोशिकाएँ, जो आकृति में एक समान होती हैं तथा किसी कार्य को एक साथ संपन्न करती हैं, समूह में एक ऊतक का निर्माण करती हैं।

पादप ऊतक

पौधों में वृद्धि कुछ निश्चित क्षेत्रों में ही होती है। ऐसा विभाजित ऊतकों के उन भागों में पाए जाने के कारण होता है। ऐसे ऊतकों को विभज्योतक भी कहा जाता है। ये विभज्योतक किस भाग में स्थित हैं, विभज्योतक की उपस्थिति वाले क्षेत्रों के आधार पर इन्हें शीर्षस्थ, कैबियम (पाश्र्वीय) तथा अंतर्विष्ट भागों में वर्गीकृत किया जाता है। विभज्योतक के द्वारा तैयार नई कोशिकाएँ प्रारंभ में विभज्योतक की तरह होती हैं, लेकिन जैसी ही ये बढ़ती और परिपक्व होती हैं, इनके गुणों में धीरे-धीरे परिवर्तन होता है और ये दूसरे ऊतकों के घटकों के रूप में विभाजित हो जाती है।

प्ररोह के शीर्षस्थ विभज्योतक जड़ों एवं तनों की वृद्धि वाले भाग में विद्यमान रहता है तथा वह इनकी लंबाई में वृद्धि करता है। तने की परिधि या मूल में वृद्धि पाश्र्व विभज्योतक के कारण होती है। अंतर्विष्ट विभज्योतक पत्तियों के आधार में या टहनी के पर्व के दोनों ओर उपस्थित होते हैं।


इस ऊतक की कोशिकाएँ अत्यधिक क्रियाशील होती हैं, उनको पास बहुत अधिक कोशिकाद्रव्य, पतली कोशिका भित्ति और स्पष्ट केंद्रक होते हैं। उनके पास रसधानी नहीं होती है।

स्थायी ऊतक

विभज्योतक द्वारा बनी कोशिकाओं का क्या होता है? ये एक विशिष्ट कार्य करती हैं और विभाजित होने की शक्ति को खो देती हैं, जिसके फलस्वरूप वे स्थायी ऊतक का निर्माण करती हैं। इस प्रकार एक विशिष्ट कार्य करने के लिए स्थायी रूप और आकार लेने की क्रिया को विभेदीकरण कहते हैं। विभज्योतक की कोशिकाएँ विभाजित होकर विभिन्न प्रकार के स्थायी ऊतकों का निर्माण करती हैं।

सरल स्थायी ऊतक

कोशिकाओं की कुछ परतें ऊतक के आधारीय पैकिंग का निर्माण करती हैं। इन्हीं पैरेन्काइमा ऊतक कहते हैं, जो स्थायी ऊतक का एक प्रकार है। यह पतली कोशिका भित्ति वाली सरल कोशिकाओं का बना होता है। ये कोशिकाएँ जीवित हैं। ये प्राय: बंधन मुक्त होती हैं तथा इस प्रकार के ऊतक की कोशिकाओं के मध्य काफी रिक्त स्थान पाया जाता है। यह ऊतक पौधे को सहायता प्रदान करता है। कुछ पैरेन्काइमा ऊतकों में क्लोरोफिल पाया जाता है, जिसके कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया संपन्न होती है। कुछ स्थितियों में इन ऊतकों को क्लोरेन्काइमा (हरित ऊतक) कहा जाता है। जलीय पौधों में पैरेन्काइमा की कोशिकाओं के मध्य हवा की बड़ी गुहिकाएँ होती हैं, जो पौधों को तैरने के लिए उत्प्लावन बल प्रदान करती हैं। इस प्रकार के पैरेन्काइमा को ऐरेन्काइमा कहते हैं। तनें और जड़ों के पैरेन्काइमा पोषण करने वाले पदार्थ और जल का भी संग्रह करते हैं। प्रौधों में लचीलेपन का गुण एक अन्य स्थायी ऊतक, कॉलेन्काइमा के कारण होता है। यह पौधों के विभिन्न भागों (पत्ती, तना) में बिना टूटे हुए लचीलापन लाता है। यह पौधों को यांत्रिक सहायता भी प्रदान करता हैं हम इस ऊतक को एपिडर्मिस के नीचे पर्णवृत में पा सकते हैं। इस ऊतक की कोशिकाएँ जीवित, लंबी और अनियमित ढंग से कोनों पर मोटी होती हैं तथा कोशिकाओं के बीच बहुत कम स्थान होता है।

एक अन्य प्रकार का ऊतक स्क्लेरेन्काइमा होता है। यह ऊतक पौधे को कठोर एवं मजबूत बनाता है। हमने नारियल के रेशेयुक्त छिलके को देखा है। यह स्क्लेरेन्काइमा ऊतक से बना होता है। इस ऊतक की कोशिकाएँ मृत होती हैं। ये लंबी और पतली होती हैं क्योंकि इस ऊतक की भित्ति लिग्निन के कारण मोटी होती है। (लिग्निन कोशिकाओं को दृढ़ बनाने के लिए सीमेंट का कार्य करने वाला एक रासायनिक पदार्थ है)। ये भित्तियाँ प्राय: इतनी मोटी होती हैं कि कोशिका के भीतर कोई आंतरिक स्थान नहीं होता है। यह ऊतक तने में, संवहन बंडल के समीप, पत्तों की शिराओं में तथा बीजों और फलों के कठोर छिलक में उपस्थित होता है। यह पौधों के भागों को मजबूती प्रदान करता है।

जटिल स्थायी ऊतक

अब तक हम एक ही प्रकार की कोशिकाओं से बने हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के ऊतकों पर विचार कर चुके हैं, जो कि एक ही तरह के दिखाई देते हैं। ऐसे ऊतकों को साधारण स्थायी ऊतक कहते हैं। अन्य प्रकार के स्थायी ऊतक को जटिल ऊतक कहते हैं। जटिल ऊतक एक से अधिक प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बने होते हैं और ये सभी एक साथ मिलकर एक इकाई की तरह कार्य करते हैं। जाइलम और फ्लोएम, इसी प्रकार के जटिल ऊतकों के उदाहरण हैं।

इन दोनों को संवहन ऊतक भी कहते हैं और ये मिलकर संवहन बंडल का निर्माण करते हैं। यह ऊतक बड़े पौधों की एक विशेषता है, जो कि उनको स्थलीय वातावरण में रहने के अनुकूल बनाती है।

जाइलम ट्रैकीड् (वाहिनिका), वाहिका, जाइलम पैरेन्काइमा और जाइलम फाइबर (रेशे) से मिलकर बना होता है। इन कोशिकाओं की कोशिका भित्ति मोटी होती है और इनमें से अधिकतर कोशिकाएँ मृत होती हैं। ट्रैकीड् और वाहिकाओं की संरचना नलिकाकार होती है। इनके द्वारा पानी और खनिज लवण का उर्ध्वाधर संवहन होता है। पैरेन्काइमा भोजन का संग्रह करता है और यह किनारे की ओर पानी के पाश्वीय संवहन में सहायता करता है। फाइबर (रेशे) मुख्यत: सहारा देने का कार्य करते हैं।

फ्लोएम चार प्रकार के अवयवों: चालनी नलिका, साथी कोशिकाएँ, फ्लोएम पैरेन्काइमा तथा फ्लोएम रेशों से मिलकर बना होता है। चालनी नलिका, छिद्रित भित्ति वाली तथा नलिकाकार कोशिका होती है। फ्लोएम, जाइलम के असमान पदार्थों को कोशिकाओं में दोनों दिशाओं में गति करा सकते हैं। फ्लोएम पत्तियों से भोजन को पौधे के विभिन्न भागों तक पहुँचाता है। फ्लोएम रेशों को छोड़कर, फ्लोएम कोशिकाएँ जीवित कोशिकाएँ हैं।

जंतु ऊतक

जब हम साँस लेते हैं तब हम अपनी छाती की गति को महसूस कर सकते हैं। शरीर के ये अंग कैसे गति करते हैं। इसके लिए हमारे पास कुछ विशेष कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें हम पेशीय कोशिकाएँ कहते हैं। इन कोशिकाओं का फैलना और सिकुड़ना अंगों को गति प्रदान करता है।

साँस लेते समय हम ऑक्सीजन लेते हैं। यह ऑक्सीजन कहाँ जाती है? यह फेफड़ों के द्वारा अवशोषित की जाती है तथा रक्त के साथ शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचा जाती है। कोशिकाओं को ऑक्सीजन की आवश्यकता क्यों होती है? माइटोकॉन्ड्रिया का कार्य इन प्रश्न के हल के लिए एक संकेत देता है। रक्त अपने साथ विभिन्न पदार्थों को शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाता है। उदाहरण के लिए यह भोजन और ऑक्सीजन को सभी कोशिकाओं तक पहुँचाता है। यह शरीर के सभी भागों में अपशिष्ट पदार्थों को एकत्र कर यकृत तथा वृक्क तक उत्सर्जन के लिए पहुँचाता है।

रक्त और पेशियाँ दोनों ही हमारे शरीर में पाए जाने वाले ऊतकों के उदाहरण हैं। उनके कार्य के आधार पर हम विभिन्न प्रकार के जंतु ऊतकों के बारे में विचार कर सकते हैं जैसे कि एपिथीलियमी ऊतक, संयोजी ऊतक, पेशीय ऊतक तथा तंत्रिका ऊतक। रक्त, संयोजी ऊतक का एक प्रकार है तथा पेशी, ऊतक का।

एपिथीलियमी ऊतक

जंतु के शरीर को ढकने या बाह्य रक्षा प्रदान करने वाले ऊतक एपिथीलियमी ऊतक हैं। एपिथीलियम शरीर के अंदर स्थित बहुत से अंगों और गुहिकाओं को ढकते हैं। ये भिन्न-भिन्न प्रकार के शारीरिक तंत्रों को एक-दूसरे से अलग करने के लिए अवरोध का निर्माण करते हैं। त्वचा, मुँह, आहारनली, रक्त वाहिनी नली का अस्तर, फेफड़ों की कृपिका, वृक्कीय नली आदि सभी एपिथोलियमी ऊतक से बने होते हैं। एपिथीलियमी ऊतक की कोशिकाएँ एक-दूसरे सटी होती हैं और ये एक अनवरत परत का निर्माण करती हैं। इन परतों के बीच चिपकाने वाले पदार्थ कम होते हैं तथा कोशिकाओं के बीच बहुत कम स्थान होता है। स्पष्टत: जो भी पदार्थ शरीर में प्रवेश करता है या बाहर निकलता है, वह एपिथीलियम की किसी परत से होकर अवश्य गुजरता है। इसके फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की एपिथीलियम कोशिकाओं के बीच की पारगम्यता शरीर तथा बाहरी वातावरण और शरीर के विभिन्न अंगों के बीच पदार्थों के आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सामान्यत: सभी एपिथीलियम को एक बाह्य रेशेदार आधार झिल्ली उसे नीचे रहने वाले ऊतकों से अलग करती है।

विभिन्न एपिथीलियम की संरचनाएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं, जो उनके कार्यों पर निर्भर करती हैं। उदाहरण के लिए, कोशिकाओं में रक्त नलिका अस्तर या कृपिका, जहाँ पदार्थों का संवहन वरणात्मक पारगम्य झिल्ली द्वारा होता है, वहाँ पर चपटी एपिथीलियम ऊतक कोशिकाएँ होती हैं। इनको सरल शल्की एपिथीलियम कहते हैं। ये अत्यधिक पतली और चपटी होती हैं तथा कोमल अस्तर का निर्माण करती हैं। आहारनली तथा मुँह का अस्तर, शल्की एपिथीलियम से ढका होता है। शरीर का रक्षात्मक कवच अर्थात् त्वचा इन्हीं शल्की एपिथीलियम से बनी होती है। त्वचा की एपिथीलियमी कोशिकाएँ इनको कटने तथा फटने से बचाने के लिए कई परतों में व्यवस्थित होती हैं। चूंकि ये कई परतों के पैटर्न में व्यवस्थित होती हैं, इसलिए इन एपिथीलियम को स्तरित शल्की एपिथीलियम कहते हैं।

जहाँ अवशोषण और स्राव होता है, जैसे ऑत के भीतरी अस्तर में, वहाँ लंबी एपिथीलियम कोशिकाएँ मौजूद होती हैं। यह स्तंभाकार एपिथीलियम, एपिथीलियमी अवरोध को पार करने में सहायता प्रदान करता है। श्वास नली में, स्तंभाकार एपिथीलियमी ऊतक में पक्ष्माभ होते हैं, जो कि एपिथोलियम ऊतक की कोशिकाओं की सतह पर बाल जैसी रचनाएँ होती हैं। ये पक्ष्माभ गति कर सकते हैं तथा इनकी गति श्लेष्मा को आगे स्थानांतरित करके साफ करने में सहायता करती हैं। इस प्रकार के एपिथीलियम को पक्ष्माभी स्तंभाकार एपिथीलियम कहते हैं।

घनाकार एपिथीलियम वृक्कीय नली तथा लार ग्रंथी की नली के अस्तर का निर्माण करता है, जहाँ यह उसे यांत्रिक सहारा प्रदान करता है। ये एपिथीलियम कोशिकाएँ प्राय: ग्रंथि कोशिका के रूप में अतिरिक्त विशेषता अर्जित करती हैं, जो एपिथीलियम ऊतक की सतह पर पदार्थों का स्राव कर सकती हैं। कभी-कभी एपिथीलियम ऊतक का कुछ भाग अंदर की ओर मुड़ा होता है तथा एक बहुकोशिक ग्रंथि का निर्माण करता है। यह ग्रंथिल एपिथीलियम कहलाता है।

संयोजी ऊतक

रक्त एक प्रकार का संयोजी ऊतक है। संयोजी ऊतक की कोशिकाएँ आपस में कम जुड़ी होती हैं और अंतरकोशिकीय आधात्री में धैसी होती हैं। यह आधात्री जैली की तरह, तरल, सघन या कठोर हो सकती है। आधात्री की प्रकृति, विशिष्ट संयोजी ऊतक के कार्य के अनुसार बदलती रहती है।

रक्त के तरल आधात्री भाग को प्लाज्मा कहते हैं, प्लाज्मा में लाल रक्त कोशिकाएँ, श्वेत रक्त कोशिकाएँ तथा प्लेटलेट्स निलंबित होते हैं। प्लाज्मा में प्रोटीन, नमक तथा हॉर्मोन भी होते हैं। रक्त गैसों, शरीर के पचे हुए भोजन, हॉर्मोन और उत्सर्जी पदार्थों का शरीर के एक भाग से दूसरे भाग में संवहन करता है।

अस्थि संयोजी ऊतक का एक अन्य उदाहरण है। यह पंजर का निर्माण कर शरीर को आकार प्रदान करती है। यह मांसपेशियों को सहारा देती है और शरीर के मुख्य अंगों को सहारा देती है। यह ऊतक मजबूत और कठोर होता है। (अस्थि कार्यों के लिए इन गुणों के क्या उपयोग हैं)। अस्थि कोशिकाएँ कठोर आधात्री में धैसी होती हैं, जो कैल्सियम तथा फॉस्फोरस से बनी होती हैं।

दो अस्थियाँ आपस में एक-दूसरे से, एक अन्य संयोजी ऊतक जिसे स्नायु (अस्थि बंधान तंतु) कहते हैं, से जुड़ी होती हैं। यह ऊतक बहुत लचीला एवं मजबूत होता है। स्नायु में बहुत कम आधात्री होती है। एक अन्य प्रकार का संयोजी ऊतक कंडरा है, जो मांसपेशियों को अस्थियों से जोड़ता है। कंडरा मजबूत तथा सीमित लचीलेपन वाले रेशेदार ऊतक होते हैं। उपास्थि एक अन्य प्रकार का संयोजी ऊतक होता है, जिसमें कोशिकाओं के बीच पर्याप्त स्थान होता है। इसकी ठोस आधात्री प्रोटीन और शर्करा की बनी होती है। यह अस्थियों के जोड़ों को चिकना बनाती है। उपास्थि नाक, कान, कंठ और श्वास नली में भी उपस्थित होती है। हम कान की उपास्थि को मोड़ सकते हैं, परन्तु हाथ की अस्थि को नहीं। सोचिए, ये दो ऊतक किस प्रकार भिन्न हैं।

एरिओलर संयोजी ऊतक त्वचा और मांसपेशिओं के बीच, रक्त नलिका के चारों ओर तथा नसों और अस्थि मज्जा में पाया जाता है। यह अंगों के भीतर की खाली जगह को भरता है, आंतरिक अंगों को सहारा प्रदान करता है और ऊतकों की मरम्मत में सहायता करता है।

हमारे शरीर में वसा कहाँ संचित होता है? वसा का संग्रह करने वाला वसामय ऊतक त्वचा के नीचे आतरिक अंगों के बीच पाया जाता है। इस ऊतक की कोशिकाएँ वसा की गोलिकाओं से भरी होती हैं। वसा संग्रहित होने के कारण यह ऊष्मीय कुचालक का कार्य भी करता है।

पेशीय ऊतक

लंबी कोशिकाओं का बना होता है, जिसे पेशीय रेशा भी कहा जाता है। यह हमारे शरीर में गति के लिए उत्तरदायी है। पेशियाँ में हमारे शरीर में गति के लिए उत्तरदायी है। पेशियों में एक विशेष प्रकार की प्रोटीन होती है, जिसे सिकुड़ने वाला प्रोटीन कहते हैं, जिसके संकुचन एवं प्रसार के कारण गति होती है।

कुछ पेशियों की हम इच्छानुसार गति करा सकते हैं। हाथ और पैर में विद्यमान पेशियों को हम अपनी इच्छानुसार आवश्यकता पड़ने पर गति करा सकते हैं या उनकी गति को रोक सकते हैं। इस तरह की पेशियों को ऐच्छिक पेशी कहा जाता है। इन पेशियों को कंकाल पेशी भी कहा जाता है क्योंकि ये अधिकतर हड्डियों से जुड़ी होती हैं तथा शारीरिक गति में सहायक होती हैं। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर ये पेशियाँ हलक तथा गहरे रंगों में एक के बाद एक रेखाओं या धारियों की तरह प्रतीत होती हैं। इसी कारण इसे रेखित पेशी भी कहते हैं। इस ऊतक की कोशिकाएँ लंबी, बेलनाकार, शाखारहित और बहुनाभिकीय होती हैं।

आहारनली में भोजन का प्रवाह या रक्त नलिका का प्रसार एवं संकुचन जैसी गतियाँ ऐच्छिक नहीं हैं। इन गतिविधियों को हम इच्छानुसार प्रारंभ या बंद नहीं कर सकते हैं। चिकनी पेशियाँ अथवा अनैच्छिक पेशियाँ इनकी गति को नियंत्रित करती हैं। ये आँख की पलक, मूत्रवाहिनी और फेफड़ों की श्वसनी में भी पाया जाता है। कोशिकाएँ लंबी और इनका आखिरी सिरा नुकीला होता है। ये एक-केंद्रकीय होती हैं। इनको अरेखित पेशी भी कहा जाता है।

हृदय की पेशियाँ जीवनभर लयबद्ध होकर प्रसार एंव संकुचन करती रहती हैं। इन अनैच्छिक पेशियों को कार्डियक (हृदयक) पेशी कहा जाता है। हृदय की पेशी कोशिकाएँ बेलनाकार, शाखाओं वाली और एक-केंद्रकीय होती हैं।

तंत्रिका ऊतक

सभी कोशिकाओं में उत्तेजना के अनुकूल प्रतिक्रिया करने की क्षमता होती है। तथापि, तंत्रिका ऊतक की कोशिकाएँ बहुत शीघ्र उत्तेजित होती हैं और इस उत्तेजना को बहुत ही शीघ्र पूरे शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाती हैं। मस्तिष्क, मेरुरज्जु तथा तंत्रिकाएँ, सभी तंत्रिका ऊतकों की बनी होती हैं। तंत्रिका ऊतक की कोशिकाओं को तंत्रिका कोशिका या न्यूरॉन कहा जाता है। न्यूरॉन में कोशिकाएँ कद्रक तथा कोशिकाद्रव्य (साइटोप्लाज्म) होते हैं। इससे लंबे, पतले बालों जैसी शाखाएँ निकली होती हैं। प्राय: प्रत्येक न्यूरॉन में इस तरह का एक लंबा प्रवर्ध होता है, जिसको एक्सॉन कहते हैं तथा बहुत सारे छोटी शाखा वाले प्रवर्ध (डेंडाइट्स) होते हैं। एक तंत्रिका कोशिका 1 मीटर तक लंबी हो सकती है। बहुत सारे तंत्रिका रेशे, संयोजी ऊतक के द्वारा एक साथ मिलकर एक तंत्रिका का निर्माण करते हैं।

तंत्रिका का स्पंदन हमें इच्छानुसार अपनी पेशियों की गति करने में सहायता करता है। तंत्रिका तथा पेशीय ऊतकों का कार्यात्मक संयोजन प्राय: सभी जीवों में मौलिक है। साथ ही, यह संयोजन उत्तेजना के अनुसार जंतुओं को तेज गति प्रदान करता है।

न्यूरॉन के प्रमुख भाग हैं

  1. कोशिका काय (Cell Body or Cyton) जिसमें एक केन्द्रक तथा कोशिका द्रव्य होता है; इसमें निसिल्स कण (Nissils Granules) रहते हैं।
  2. कोशिका-काय से न्यूरॉन के एक से अधिक निकले हुए पतले तंतु प्रवर्ध (Process) डेंड्राइटस कहलाते हैं। डेंड्राइट तंत्रिका कोशिका के दोनों ओर से निकलते हैं, इनमें निसिल्स कण पाये जाते हैं।
  3. कोशिका-काय या साइटन से प्रारंभ होकर एक बहुत पतली एवं लम्बी तंत्रिका प्रक्रिया (Nerve Processess) मिलती है। यह एक न्यूरॉन से दूसरे न्यूरॉन तक संदेशवाहक का कार्य करता है जिसे एक्सॉन (AXON) कहते हैं।
  4. एक कोशिका का डेन्ड्राइट, दूसरी तंत्रिका कोशिका के एक्सॉन से विशिष्ट बंधों द्वारा जुड़ी होती हैं ये बंध युग्मानुबंध (Synopse) कहलाते हैं।

तंत्रिका आवेग का संवहन

  • तंत्रिका-तंतु में से तंत्रिका-आवेग का संचरण विद्युत-रसायन (electro-chemical) विधि से होता है। यह संचरण उस प्रकार का नहीं होता जैसा किसी तार के भीतर से विद्युत-धारा के प्रवाहित होने में इलेक्ट्रानों का प्रवाह होता है, अपितु यह विध्रुवीकरण (depolarisation) की तरंग के रूप में चलता जाता है।
  • सामान्य (विश्रामी) अवस्था में तंत्रिका तंतु के बाहर की ओर धन चार्ज (+) बना होता है। उस अवस्था को ध्रुवीकृत (polarised) कहते हैं। यह ध्रुवीकरण बाहर की ओर Na+ आयनों की अधिक संख्या होने के कारण होता है। यह अवस्था इसलिए बनी रहती है क्योंकि आयनों को लगातार अंदर से बाहर की ओर को धकला जाता रहता अर्थात पंप किया जाता रहता है (सक्रिय अभिगमन, active transport)।
  • उत्तेजित होने पर (यांत्रिक, विद्युतीय, रासायनिक अथवा ऊष्मा आदि के उद्दीपन क द्वारा) उस स्थल पर ऐक्सॉन-झिल्ली Na आयनों के लिए अधिक पारगम्य हो जाती है और ये आयन भीतर को आने लगते हैं, जिससे वहां ध्रुवीकरण समाप्त हो जाता है (विध्रुवीकरण, depolarisation) इसके फलस्वरूप स्थानिक तौर पर झिल्ली के भीतर की दिशा धनात्मक (पॉज़िटिव) हो जाती है तथा बाहर की दिशा ऋणात्मक (नेगेटिव)।
  • अब विध्रुवीकरण का यह बिंदु झिल्ली के सहवर्ती क्षेत्र के लिए स्वयं एक उद्दीपन बन जाता है और अब यह अगला क्षेत्र ध्रुवीकृत हो जाता है।
  • इसी बीच पहला क्षेत्र पुनध्रुवीकृत (repolarised) हो जाता है क्योंकि एक सोडियम पोटैशियम पंप Na+ आयनों को सक्रिय अभिगमन के द्वारा पुन: झिल्ली के बाहर की ओर पहुँचा देता है।
  • वह छोटी अवधि (0.001-0.883 सेकंड) जो पुनध्रुवीकरण के लिए चाहिए, अनुतेजन अवधि (refractory period) कहलाती है, इस अवधि के दौरान तंतु के भीतर कोई अन्य आवेग संचारित नहीं हो सकता।

सिनैप्स के ऊपर से

  • सिनैप्स उस संपर्क बिंदु को कहते हैं, जो एक न्यूरॉन के एक्सॉन की अंत्य शाखाओं एवं दुसरे न्यूरॉन के डेंड्राइटों के बीच बनता है।
  • तंत्रिका तंतु में से गुजरता हुआ आवेग या तो अपने लक्ष्य (पेशी) में पहुंचता है जहाँ ऐक्सॉन की अंत्य शाखाएँ पेशी को उत्तेजित करती हैं, जिससे पेशी संकुचित होती है या वह एक अन्य न्यूरॉन के डेंड्राइटों के साथ बनने वाला मिलन बिंदु है, जो सिनैप्स (synapse) कहलाता है।
  • सिनैप्स के ऊपर से आवेग का संचरण एक रासायनिक प्रक्रिया होती है। जब कोई आवेग ऐक्सॉन के अंतिम सिरों पर पहुंचता है तब वहां से एक रसायन ऐसीटिल, कोलीन (acetyl choline) (अथवा ऐड्रीनलीन, adrenalinel) निकलता है जो आगे अगले न्यूरॉन के डेंड्राइटों में उत्तेजना पैदा करके वहाँ से एक नए आवेग की शुरूआत कर देता है। एक एंज़ाइम कोलीनेस्टरेज़ (cholinesterase) शीघ्र ही इस रसायन को विघटित कर देता है, जिससे सिनैप्स अगले संचरण के लिए पुनः तैयार हो जाता है।

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