दक्षिण भारत की सल्तनतें: बहमनी राज्य South Indian sultanates: Bahmani State

दिल्ली सल्तनत के खंडहरों पर जितने भी स्वतंत्र मुस्लिम राज्य खड़े हुए, उनमें दक्कन का बहमनी राज्य सबसे अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। यह मुहम्मद बिन तुगलक के राज्यकाल में उसकी प्रभुता के विरुद्ध चुनौती के रूप में स्थापित हुआ। दक्कन के सरदार दिल्ली के सुल्तान की सनकी नीति से विद्रोही बन बैठे। उन्होंने दौलताबाद के किले पर अधिकार कर अपने में से एक इस्माइल मुख अफगान को नसिरुद्दीन शाह के नाम से दक्कन का राजा घोषित कर दिया। इस्माइल मुख बूढ़ा और आरामतलब होने के कारण इस पद के अयोग्य सिद्ध हुआ। शीघ्र ही वह स्वेच्छा से एक अधिक योग्य नेता हसन के, जिसे जफर खाँ की उपाधि प्राप्त थी, पक्ष में गद्दी से हट गया। जफर खाँ को सरदारों ने 3 अगस्त, 1347 ई. को अबुल मुजफ्फर अलाउद्दीन बहमन शाह के नाम से सुल्तान घोषित किया। फरिश्ता हसन की उत्पत्ति के विषय में एक कहानी कहता है कि वह मूल रूप में दिल्ली के गंगू नाम एक ब्राह्मण ज्योतिषी का, जो मुहम्मद बिन तुगलक का प्रिय पात्र था, घरेलू नौकर था तथा आगे चलकर अपने हिन्दू स्वामी की सहायता से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। उत्तरकालीन मुस्लिम इतिहासकारों के विवरणों से अथवा सिक्कों या अभिलेखों के प्रमाण से इस कहानी का पुष्टिकरण नहीं होता। वास्तव में हसन प्रसिद्ध फारसी वीर बहमन, जो इस्फन्दियार का पुत्र था, का वंशज होने का दावा करता था और इस प्रकार उसके द्वारा स्थापित वंश का नाम बहमनी वंश पड़ा। बहमन शाह को खलीफा से भी मान्यता प्राप्त थी। उसके सिक्के पर द्वितीय सिकन्दर खुदा हुआ था।

गद्दी पर बैठने के शीघ्र बाद अलाउद्दीन हसन ने गुलबर्गा को अपनी राजधानी के लिए चुना तथा उसका नाम बदल कर अहसनाबाद कर दिया। पर दक्षिण के हिन्दू शासक, जो अलाउद्दीन हसन के उदय के समय की दक्कन में हुई राजनैतिक अव्यवस्था से लाभ उठाने में नहीं चूके थे, उसकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। अत: उसने विजय की नीति का अनुसरण किया, जो सफल रही। 11 फरवरी, 1358 ई. को उसकी मृत्यु हुई। उस समय उसका राज्य उत्तर में वेन गंगा नदी से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पश्चिम में दौलताबाद से लेकर पूर्व में भोंगीर तक फैला था। अपने राज्य के शासन के लिए उसने इसे चार भागों अथवा प्रान्तों में विभाजित कर दिया- गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर। प्रत्येक प्रान्त एक शासक के अधीन था, जो अपनी सेना रखता था तथा अपने अधीन सभी नागरिक और सैनिक पदों पर नियुक्तियाँ करता था। प्रान्तों में शासन की कार्यक्षमता के कारण विद्रोहों का होना रुक गया। बुरहाने-मआसिर के लेखक ने इस सुल्तान की प्रशंसा इस प्रकार की है- सुल्तान अलाउद्दीन प्रथम हसन शाह एक न्यायी राजा था। वह अपनी प्रजा को दिल में रखने वाला एवं धर्मनिष्ठ था। उसके शासन-काल में उसकी प्रजा एवं सेना अपना समय पूरे चैन और सन्तोष में व्यतीत किया करती थी। सच्चे धर्म का प्रचार करने के लिए उसने बहुत कुछ किया।

अगले सुल्तान हसन का ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद शाह प्रथम था। हसन ने अपनी मृत्युशैय्या पर उसे अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। गद्दी पर बैठने के शीघ्र बाद मुहम्मद शाह ने अपनी सरकार की विभिन्न शाखाओं- जैसे मंत्रिमंडल, घरेलू सेना तथा प्रान्तीय शासन का संगठन किया। पर अपने सारे शासनकाल में वह मुख्यतया वारंगल एवं विजयनगर के शासकों के साथ युद्ध करने में लगा रहा। उन शासकों ने भयंकर प्रतिरोध किया, पर दोनो को गुलबर्गा की सेना से पराजित होकर तथा महान् क्षति उठाकर अपमानजनक शताँ पर संधि करनी पड़ी। मुदकल के किले पर हुए इस युद्ध में पहली बार बारूद का प्रयोग हुआ था।

मुहम्मद शाह का रहने का ढंग दोषारोपण से परे नहीं था। बुरहाने-मआसिर का लेखक स्पष्ट रूप से लिखता है कि- सुल्तान रहन-सहन के अधार्मिक ढंग प्रदर्शित करता था, जिससे वह असहाय अवस्था में पड़ जाता था।

1377 ई. में मुहम्मद शाह प्रथम की मृत्यु हुई। उसके बाद उसका पुत्र मुजाहिद शाह गद्दी पर बैठा तथा स्वयं सेना लेकर विजयनगर के विरुद्ध बढ़ा। पर वह उस नगर पर अधिकार नहीं कर सका और उसे शीघ्र उसके राय के साथ संधि कर अपनी राजधानी लौट आना पड़ा। वह दाऊद खाँ नामक अपने एक निकट सम्बन्धी द्वारा संगठित षड्यंत्र का शिकार बन गया। दाऊद खाँ ने गद्दी हड़प ली। मुजाहिद की दूध-बहन (धात्री-पुत्री) रूह परवर आगा के उकसाने से एक हत्यारे ने उस हड़पने वाले को मई, 1378 ई. में हत्या कर उसक बदला चुका दिया। तब सरदारों एवं सैनिक अधिकारियों ने अलाउद्दीन हसन बहमनी के चतुर्थ पुत्र महमूद खौं के लड्के मुहम्मद शाह को गद्दी पर बैठाया।

अपने पूर्वगामियों से भिन्न मुहम्मद शाह द्वितीय शान्तिप्रिय एवं विद्याव्यसनी था। उसके राज्यकाल में बाहरी शक्तियों से लड़ाइयाँ नहीं लड़ी गयीं। उसने मस्जिदों का निर्माण करवाया, अनाथों के लिए नि:शुल्क पाठशालाएँ स्थापित कीं तथा एशिया के सभी भागों से विद्वानों को अपने दरबार में आमंत्रित किया। पर उसके अन्तिम दिन उसके पुत्रों के, जो गद्दी प्राप्त करने की इच्छुक थे, षड्यंत्रों के कारण विषादमय बन गये। अप्रैल, 1397 ई. में उसकी मृत्यु हुई। इसके बाद ग्यासुद्दीन एवं शम्सुद्दीन नामक उसके दोनों पुत्रों के गौरवहीन एवं दु:खदायी राज्यकाल आये, जो कुछ ही महीनों तक रहे। नवम्बर, 1397 ई. में गुलबर्गा के सिंहासन पर अलाउद्दीन हसन बहमनी के पौत्र फीरोज ने अधिकार कर ताजुद्दीन फीरोज शाह की उपाधि धारण की।

बुरहाने-मआसिर का लेखक हमें बतलाता है कि फीरोज शाह प्रबल एवं पराक्रमी सुल्तान था। उसने अपनी सारी योग्यता एवं स्फूर्ति को अत्याचार और पाखंड के उन्मूलन एवं विनाश में लगाया। उसे शेखों, विद्वानों एवं साधुओं के समाज में बड़ा आनन्द आता था। पर कुछ वर्षों के शासन के बाद वह उस समय के प्रचलित पापों में निरत हो गया, जिसका उल्लेख फरिश्ता तक ने किया है। वह विभिन्न भाषाएँ जानता था तथा अपनी भिन्न-भिन्न जातियों की पत्नियों से उनकी अपनी भाषाओं में ही स्वच्छन्द रूप से बातें कर सकता था। उसने खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए, दौलताबाद में एक वेधशाला (वद्देमतअंजवतल) का निर्माण कराया। विजयनगर के रायों तथा दक्कन के कुछ अन्य हिन्दू शासकों के विरुद्ध युद्ध कर उसने अपने वंश की परम्परागत नीति का अनुसरण किया। विजयनगर के विरुद्ध 1398 ई. एवं 1406 ई. के अपने दोनों आक्रमणों में उसे सफलता मिली। उसने इसके राजा से भारी हर्जाना वसूल किया और यहाँ तक कि अपने अन्त:पुर के लिए उसे विजयनगर की एक राजकुमारी समर्पित करने को भी विवश किया। पर 1420 ई. के अपने तीसरे आक्रमण के फलस्वरूप कृष्णा के उत्तर पांगुल में उसकी हार हो गयी तथा अपने प्रधान सेनापति मीर फज़लुल्लाह इंमजू के मारे जाने पर उसे मैदान से पीछे हटना पड़ा। विजयनगर की सेना ने शीघ्र बहमनी राज्य के दक्षिणी एवं पूर्वी जिलों पर अधिकार कर लिया। इस पराजय का सुल्तान के मन एवं शरीर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। उसने शासन अपने दासों-हुशिवार ऐनुलमुल्क एवं निजाम बीदारुलमुल्क-के हाथों में सुपुर्द कर दिया। अन्त में वह अपने भाई अहमद के पक्ष में गद्दी छोड़ने को विवश किया गया। बुरहाने-मआसिर के लेखक के कथनानुसार, अहमद ने सितम्बर, 1422 ई. में फीरोजशाह से छुट्टी पा ली, यद्यपि फरिश्ता के प्रमाण पर कुछ लेखकों का विश्वास है कि फीरोज शाह की मृत्यु स्वाभाविक रूप में हुई।


अपने भाई के राज्यकाल में हुई बहमनी सेना की क्षति का बदला लेने के अभिप्राय से अहमद ने विजयनगर से भयंकर युद्ध किया। बहमनी सेना ने विजयनगर पर घेरा डालकर इसे बड़ा कष्ट पहुँचाया तथा इसके राजा को भारी हर्जाना देकर संधि करने को विवश किया। यह खबर राय के पुत्र द्वारा हाथियों पर अहमद के खेमे में पहुँचायी गयी। राजा के पुत्र का वहाँ सम्मान सहित स्वागत हुआ। तब आक्रमणकारी अपने देश को लौट गये। 1424 अथवा 1425 ई. में अहमद शाह के सेनापति खाने-आजम ने वारंगल के हिन्दू राज्य पर आक्रमण कर दिया तथा विशाल धनराशि सहित इसके गढ़ पर अधिकार करने और इसके राजा की हत्या करने में सफल हुआ। इस प्रकार वारंगल की स्वतंत्रता नष्ट हो गयी। अहमद शाह ने मालवा के विरुद्ध भी युद्ध किया। मालवा का सुल्तान हुशंग शाह पराजित हुआ तथा उसे धन-जन की अपार क्षति हुई। अहमद गुजरात के सुल्तान अहमदशाह प्रथम के साथ युद्ध में असफल रहा तथा अन्त में उभय पक्षों के धर्म-ज्ञानियों एवं विद्वानों की मध्यस्थता से संधि हो गयी। उसके शासनकाल में कोंकण के हिन्दू नायकों ने भी बहमनी शस्त्रों के बोझ का अनुभव किया। पर फरवरी, 1435 ई. में बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो जाने से यह दबाव जाता रहा। अहमदशाह अपने राज्य की राजधानी गुलबर्गा से बदलकर बीदर ले गया। बीदर रमणीक स्थान पर था तथा उसकी जलवायु स्वास्थकर थी। यद्यपि वह अधिक विद्या-सम्पन्न न था, पर उसने कुछ मुस्लिम विद्वानों पर मेहरबानी की बौछार की। खुरासान में स्थित इस्फरायीन का कवि शेख आजरी उसके दरबार में आया था। उसे, बीदर स्थित उसके राजमहल की प्रशंसा में दो पद्य रचने के लिए, प्रचुर धन मिला। मौलाना शफुद्दीन माजन्दरानी को भी उस राजमहल के द्वार पर दो पद्यों को सुन्दर लिखावट में अंकित करने के लिए 12000 टका इनाम में मिला सका। एक सूफी संत गेसूदराज से सम्पर्क था और इसी सम्पर्क के कारण उसे वली के नाम से भी जाना जाता था।

इसी बीच पद एवं प्रभाव के लिए सरदारों के षड्यन्त्रों के कारण, जिनमें प्राय: व्यवस्थित युद्ध एवं जन-संहार हुआ करते थे, वहमनी राज्य की एकजातीयता पर बुरा असर होने लगा था। सरदारों के दो दलों के बीच स्थायी कलह चलने लगी। एक ओर दक्कनी (दक्षिणी) सरदार थे, जिनके मित्र थे अफ्रिकन एवं मुवाल्लद (अफ्रिकन पिता एवं भारतीय माता से उत्पन्न सन्तान)। दूसरी और विदेशी सरदार थे, जिनमें तुर्क, अरब, फारसी एवं मुग़ल सम्मिलित थे। दूसरे दल के बहुत-से सरदारों को उनकी वीरतापूर्ण एवं क्रियाशील आदतों के कारण, राज्य में ऊँचे पद मिले तथा इस भूमि से उत्पन्न लोगों की अपेक्षा की गयी। फलत: ये विदेशी सरदारों से विद्वेष रखने लगे। यह विद्वेष धार्मिक विभिन्नता के कारण और भी बढ़ गया, क्योंकि अधिकांश दक्कनी सुन्नी थे, पर प्रतिद्वन्द्वी दल के अधिकतर लोग शिया थे। इस प्रकार उत्तरकालीन बहमनियों का इतिहास षड्यंत्रों एवं कलह की दुखद गाथा है। ये षड्यंत्र और कलह राज्य के अंत में क्षत-विक्षत होने तक उसका खून चूसते रहे।

अहमद के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र अलाउद्दीन द्वितीय के नाम से शान्तिपूर्वक गद्दी पर बैठने के शीघ्र बाद, अलाउद्दीन द्वितीय ने अपने भाई मुहम्मद के नेतृत्व में हुए एक विद्रोह का शमन किया। पर उसे क्षमाकर रायचूर दोआब की सरकार दे दी गयीं, जहाँ वह अपने शेष जीवन भर राजभक्त बनकर रहा। उसके बाद कोंकण के हिन्दू नायक अधीन किये गये तथा संगमेश्वर के राजा ने अपनी रूपवती पुत्री को बहमनी सुल्तान के साथ ब्याह दिया। यह सुल्तान की मुस्लिम पत्नी मलिका-ए-जहाँ को नहीं भाया। उसकी प्रार्थना पर उसके पिता नासिर खाँ ने, जो खानदेश का शासक था, बरार पर आक्रमण किया, पर दौलताबाद के सूबेदार एवं सरदारों के नेता मलिकुल तुज्जार खलफ हसन ने उसे परास्त कर दिया। 1443 ई. में अलाउद्दीन ने विजयनगर के विरुद्ध युद्ध किया। वहाँ के राय को भविष्य में नियमित रूप से कर देने की प्रतिज्ञा कर संधि करनी पड़ी। फरिश्ता लिखता है कि इस अवसर पर विजयनगर के राय ने अपनी सेना में मुस्लिम सैनिकों को नियुक्त किया, अपनी सेवा में कुछ मुस्लिमों को प्रविष्ट किया और यहाँ तक कि राजधानी में उनके पूजा करने के लिये एक मस्जिद भी बनवा दी। उस वंश के अन्य सुल्तानों की तरह अलाउद्दीन इस्लाम का उत्साही समर्थक तथा स्वधर्मावलम्बियों के प्रति उदार था। फरिश्ता एवं बुरहाने-मआसिर के लेखों से हम जानते हैं कि उसने मस्जिदों, सार्वजनिक विद्यालयों एवं दातव्य संस्थाओं की स्थापना की थी। इनमें एक अस्पताल भी था, जिसमें पूर्ण सुंदरता और शैली की शुद्धता थी। इसे उसने अपनी राजधानी बीदर में बनवाया था। उसने वहाँ दो सुन्दर गाँव धार्मिक दान के रूप में दिये थे, ताकि इन गाँवों के राजस्व को पूर्णत: दवाओं एवं पेय पदार्थों की आपूर्ति में लगाया जा सके…… .ईश्वरीय नियम के आदेशों एवं निषेधों को लागू करने में वह इतना प्रयत्नशील रहता था कि उसके अधिकार-क्षेत्र में मदिरा तथा सभी मादक द्रव्यों के नाम तक हटा दिये गये थे…….।

अलाउद्दीन की अप्रैल, 1457 ई. में शान्तिपूर्वक मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ आया। वह इतना निष्ठुर था कि उसे जालिम का विशेषण मिला। बुरहाने-मआसिर के लेखक ने उसके निष्ठुरतापूर्ण कारनामों के उदाहरण दिये हैं। कुछ लेखकों के कथनानुसार, अक्टूबर, 1461 ई. में हुमायूँ की स्वाभाविक मृत्यु हो गयी। पर अधिक विश्वसनीय लेखक लिखते हैं कि जब वह नशे की हालत में था, तो उसके कुछ नौकरों ने उसकी हत्या कर डाली। उसकी मृत्यु ने उसकी प्रजा को उसकी यातना के चंगुल से मुक्त कर दिया।

प्राचीन इतिहास लेखकों के लेखानुसार हुमायूँ का नाबालिक पुत्र निजाम शाह उसके बाद गद्दी पर बैठाया गया। राजमाता मखदूमा जहाँ ने, ख्वाजा जहाँ एवं ख्वाजा महमूद गावान की सहायता से, राज्य-शासन का प्रबन्ध करने का प्रयत्न किया। पर इस कमसिन सुल्तान के शासनकाल में उडीसा एवं तेलगाना के राजा उसके राज्य पर आक्रमण करने को प्रोत्साहित हुए। उन्हें महान् क्षति के साथ वापस भगा दिया गया। पर शीघ्र ही बहमनियों के लिए एक अधिक भयानक खतरा उपस्थित हुआ। मालवा के महमूद खल्जी प्रथम ने उनके प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया और बीदर पर घेरा डाल दिया। बहमनी के सुल्तान ने गुजरात के सुल्तान महमूद बैगरा से सहायता की अपील की। महमूद बैगरा ने इस अपील का अनुकूल उत्तर भेजा। तब जाकर कहीं बीदर की रक्षा हुई। 30 जुलाई, 1463 ई. को बिलकुल अचानक निजाम शाह की मृत्यु हो गयी। तब उसका भाई, जो केवल नौ वर्षों का था, मुहम्मद तृतीय के नाम से गद्दी पर बैठा।

मुहम्मद के सिंहासन पर बैठने के शीघ्र बाद वृद्ध मंत्री ख्वाजा जहाँ को, जिसका लक्ष्य राज्य में शक्ति का एकाधिकार स्थापित करना था, राजमाता के प्रभाव से मौत के घाट उतार डाला गया। रिक्त पद महमूद गावान को दिया गया। उसे ख्वाजा जहाँ (मलिक-ए-तुज्जार की भी) की उपाधि मिली। विशाल शक्तियों से सम्पन्न रहकर भी महमूद गावान ने कभी अपने अधिकार का दुरुपयोग नहीं किया। अपनी स्पष्ट योग्यता के द्वारा उसने अपरिमित राजभक्ति से बहमनियों के राज्य को ऐसे स्तर पर पहुँचा दिया, जहाँ यह पहले के सुल्तानों के समय कभी नहीं पहुँचा था।

1469 ई. में महमूद गावान सेना लेकर कोंकण के हिन्दू राजाओं को वश में करने चला। जब वह बहुत-से किलों पर अधिकार करने में सफल हो गया, तब संगमेश्वर के राजा ने भय से आतुर होकर अपने कारिन्दों को खेलना का गढ़ सौंप दिया। बुरहाने-महासिर का लेखक लिखता है कि- इस अद्वितीय मंत्री ने बहुत-से किलों एवं शहरों को जीता, विशाल धन लूटा तथा घोडे, हाथी, युवतियाँ और दासियाँ जैसी बहुमूल्य वस्तुएँ एवं कीमती जवाहरात और मोती उस मंत्री के हाथ लगे।

उसने गोआ को भी जीत लिया, जो विजयनगर साम्राज्य का एक सर्वश्रेष्ठ बन्दरगाह था। इस बीच बहमनी राज्य के एक सेनापति निजामुलमुल्क बहरी ने राजमहेंद्री एवं कोंडवीर के किले ले लिये। सन् 1474 ई. में लगातार दो वर्षों तक वर्षा नहीं होने के कारण हुए एक भयंकर दुर्भिक्ष ने दक्कन को उजाड़ डाला तथा बहुत-से मनुष्य इसके कष्ट से मर गये। जब अन्त में तीसरे वर्ष वर्षा हुई, तब देहात में खेत जोतने के लिए कोई कृषक नहीं बच रहा था।

परन्तु सुल्तान के सैनिक कार्य बिना कमी के जारी रहे। फरवरी, 1478 ई. में मुहम्मद ने उड़ीसा पर आक्रमण कर उसे उजाड़ डाला। वहाँ के राजा ने उसे कुछ हाथी तथा अन्य बहुमूल्य उपहार देकर लौट जाने को राजी किया।

उसके राज्यकाल का सबसे अधिक सफल सैनिक कार्य, विजयनगर के साथ एक युद्ध के सिलसिले में, कांची अथवा कांजीवरम् (12 मार्च, 1481 ई.) के विरुद्ध हुआ था। यहाँ कुछ पुराने मंदिर थे, जो युग के आश्चर्य थे तथा असंख्य दास कन्याओं के अतिरिक्त अनगिनत छिपे खजानों एवं जवाहरात और बहुमूल्य मुक्ताओं से परिपूर्ण थे। घिरे हुऐ सैनिकों ने वीरतापूर्वक प्रतिरोध किया, पर अन्त में बहमनी की सेना ने उन्हें पराजित कर दिया तथा बहुत माल लूटा।

मुहम्मद शाह तृतीय के राज्यकाल का सैनिक ब्यौरा वस्तुत: विजय का ही है। पर उसकी अपनी विलासिता तथा उसके दरबार के सरदारों के स्वार्थपूर्ण षड्यंत्र अन्य क्षेत्रों में उसकी प्रगति के पथ के बाधक हो गये तथा अन्त में उसका नाश कार डाला। जैसे-जैसे समय बीतता गया, घोर मदिरापान में अत्यन्त निरत रहने के कारण, सुल्तान का मानसिक संतुलन जाता रहा। वह महमूद गावान के शत्रु दक्कनी सरदारों के बहकावे में आ गया। ये दक्कनी सरदार महमूद गावान की शक्ति एवं सफलता से जलते थे। सुल्तान को यह विश्वास दिलाने के लिए कि मंत्री (महमूद गावान) विजयनगर के राय के साथ राजद्रोहात्मक पत्र-व्यवहार कर रहा है, उन्होंने एक जाली पत्र पेश कर डाला। सुल्तान ने मंत्री को 5 अप्रैल, 1481 ई. को मृत्यु-दंड देकर एक आत्मघाती कदम उठाया। इस प्रकार महमूद गावान, जिसने कार्यक्षमता एवं ईमानदारी के साथ लगातार तीन शासनकालों में मंत्री के रूप में बहमनी राज्य की सेवा की थी जिसके लिए वह अपने स्वामी की कृतज्ञता का अधिकारी था, राज्य के सच्चे हितों से आँखें मूद लेने वाले प्रतिद्वन्द्वी सरदारों के दल द्वारा संगठित एक षड्यंत्र का शिकार बन गया। मेडोज टेलर ठीक ही लिखता है कि इस पुराने मंत्री की अन्यायपूर्ण फाँसी के साथ बहमनी राज्य की सारी सम्बद्धता तथा शक्ति विदा हो गई। कई तरह से महमूद गावान का चरित्र उसके समकालीनों के चरित्र से कहीं अधिक श्रेष्ठ था। वह सरल एवं पवित्र जीवन व्यतीत करता था। वह विद्या एवं विद्वानों की संगति का प्रेमी था। इस कारण उसने बीदर में एक शानदार कालेज एवं एक विशाल पुस्तकालय स्थापित किया था। एक सार्वजनिक पदाधिकारी के रूप में अपनी स्वार्थरहित सेवाओं के लिए वह उचित ही हम लोगों की प्रशंसा का अधिकारी है। मुहम्मद तृतीय को अपनी मूर्खता मालूम पड़ गयी, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दु:ख एवं पश्चाताप से ग्रस्त होकर एक वर्ष के अन्दर ही 22 मार्च, 1482 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी।

इस समय से बहमनी राज्य में अत्यन्त गड़बड़ी फैल गयी, जिस कारण उसका पतन अनिवार्य हो गया। मुहम्मद तृतीय के छोटे पुत्र एवं उत्तराधिकारी महमूदशाह में न तो व्यक्तिगत चरित्र का बल ही था और न किसी योग्य मंत्री का मार्ग-प्रदर्शन ही था। जिससे वह अपने राज्य की समग्रता को सँभाल सकता। दक्कनियों एवं विदेशियों के बीच का झगड़ा पहले की प्रचंडता और तीक्ष्णता के साथ जारी रहा। प्रान्तीय शासकों ने इस फैली हुई गड़बड़ी से लाभ उठाकर स्वतंत्रता घोषित कर दी। महमूद की नाममात्र की प्रभुता राजधानी के आसपास एक छोटे क्षेत्र में संकुचित होकर रह गयी। वह तथा उसके चारों उत्तराधिकारी तुर्की जाति के एक चतुर सरदार कासिम बरीदुल ममालिक के तथा 1504 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र अमीर अली बरीद (जिसे दक्कन की लोमड़ी कहा जाता है) के हाथों में कठपुतले-मात्र बने रहे। अन्तिम सुल्तान कलीमुल्लाह शाह ने अपने वंश के खोये हुए भाग्य को पुनः प्राप्त करने के लिए गुप्त रूप से बाबर की सहायता प्राप्त करने की कोशिश की, पर उसे दु:खपूर्ण निराशा हुई। 1527 ई. में उसकी मृत्यु के साथ बहमनी वंश का, लगभग एक सौ अस्सी वर्षों के शासन के बाद, अन्त हो गया।

सामान्यत: दक्कन के बहमनी वंश का इतिहास पढ़ने में आनंद नहीं आता। इसके अधिकतर सुल्तान मुख्यत: भयंकर युद्धों में लगे रहे तथा इसकी आन्तरिक राजनीति दरबार के षड्यंत्र एवं गृह-युद्ध के कारण बुरी तरह विभ्रांत रही। इस वंश के अठारह सुल्तानों में पाँच की हत्या कर दी गयी, दो मद्यपान से मरे तथा तीन को गद्दी से उतार दिया गया, जिनमें दो नेत्रहीन बना दिए गए। पर बहमनी सुल्तानों को अपने दृष्टिकोण के अनुसार, विद्या एवं शिक्षा के संरक्षण, दुर्गों एवं भवनों के निर्माण तथा पूर्वी प्रान्तों में नहरों की खुदाई का श्रेय प्राप्त है। नहरों के खोदे जाने से किसानों को लाभ हुआ तथा राज्य को अधिक राजस्व प्राप्त हुआ।

बहमनी राज्य में जनसाधारण की दशा की एक झाँकी हमें रूसी यात्री अल्थनेसियस निकितिन के लेख में मिलती है। उसने मुहम्मद शाह तृतीय के शासनकाल में 1470 से 1474 के बीच इस राज्य में भ्रमण किया था। वह लिखता है कि सुल्तान, बीस वर्षों का छोटा मनुष्य सरदारों के वश में है…. सुल्तान अपनी सेना के तीन लाख मनुष्यों के साथ बाहर जाता है। देश लोगों से भरा हुआ है। पर गाँवों के लोग बहुत दयनीय हैं, जबकि सरदार अत्यन्त धनी है तथा विषयसुख में उल्लासित होते हैं। चाँदी के बिछवनों पर सोये जाने के अभ्यस्त हैं, जिनके आगे सोने में सजाये गये लगभग बीस जंगी घोडे तथा पीछे तीन सौ घुड़सवार, पाँच सौ पैदल, बाजे वाले, दस मशालची और दस गवैये चलते हैं। सुल्तान अपनी माँ तथा अपनी बीवी के साथ शिकार खेलने जाता है। उस समय उसके साथ दस हजार अश्वारोही और पचास हजार पैदलों का क्रमबद्ध समूह होता है। चमकदार शस्त्रों से सुसज्जित दो सौ हाथी भी होते हैं। आगे सौ अश्वारोही, सौ नर्त्तक, स्वर्ण वस्त्रों में तीन सौ साधारण घोडे, सौ बन्दर और सौ विदेशी रखेलियाँ रहती हैं।

इस प्रकार एक विदेशी यात्री का परमन हमें बताता है की सरदारों के रहने के विलासपूर्ण स्तर की तुलना में साधारण मनुष्यों का जीवन कठिन था। पर कोई भी दूसरा स्पष्ट परमन नहीं है, जिससे हम सम्पूर्ण बहमनी-काल में जनसाधारण की दशा का ठीक-थक चित्र पा सकें। मुस्लिम इतिहासकारों के विवरण सैनिक आक्रमणों तथा अधर्मियों (काफिरों, के विरुद्ध लड़ाइयों के सम्बन्ध) के वर्णनों से पूर्ण हैं, पर उनमें लोगों के इतिहास के विषय में कोई संकेत नहीं है।

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