सातवाहन वंश Satavahana dynasty

सातवाहन वश का उद्भव दक्षिण भारत है। आन्ध्र से सम्बन्धित होने के नाते इन्हें आन्ध्र या आन्ध्र सातवाहन भी कहा जाता है। सातवाहन शब्द कुल या वंश का बोधक है, आन्ध्र एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले समान भाषा और परम्पराओं से जुड़े लोगों का। सातवाहन राजवंश की स्थापना पहली शताब्दी ई. में हुई थी। सातवाहन ने दक्षिण भारत के पश्चिम और दक्षिण में अपने राज्य की स्थापना की थी।

सातवाहन कौन थे? उनका मूल स्थान कहाँ था? उनकी शासन तिथि क्या थी? जैसे प्रश्नों पर इतिहासकारों में मत-भेद है। पुराणों में सातवाहन वंश के राजाओं के लिए ध्र शब्द का प्रयोग किया गया है। गोदावरी और कृष्णा नदी के मध्य भाग में रहने वाले क्षेत्र को आन्ध्र कहा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि सातवाहन लोग द्रविड़ थे। कुछ विद्वानों के अनुसार सातवाहन लोग मूलतया द्रविड़ नहीं थे किन्तु अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन द्रविड़ थे। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन लोगों का आदि स्थान महाराष्ट्र था क्योंकि उनके बहुसंख्यक लेख महाराष्ट्र में मिले हैं। इससे ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वह पहले महाराष्ट्र में शासन करते थे और बाद में शकों द्वारा पराजित होने पर वे आंध्र आ गए। इसीलिए उन्हें आन्ध्र-सातवाहन कहा गया है। उनके मूल निवास-स्थान की भाँति उनकी जाति के विषय में भी इतिहासकारों में मत-भेद है। डॉ. के. गोपालाचार्य ने उन्हें क्षत्रिय कहा है। किन्तु डॉ. हेमचन्द्र रायचौधरी ने उन्हें ब्राह्मण कहा है। जिनके रल्ड में कुछ नागा-जाति के रल्ड का समावेश था। इस तथ्य की पुष्टि द्वात्तिशल्युत्तलिका से होती है। डॉ. भण्डारकर ने सातवाहनवंश को ब्राह्मणोतर माना है। किन्तु नासिक अभिलेख में गौतमी पुत्र शातकर्णि को क्षत्रियों के गर्व और मान को मर्दन करने वाला ब्राह्मण कहा गया है। अतएव उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि सातवाहन राजवंश ब्राह्मण था।

मत्स्य पुराण में कहा गया है कि आध्रों ने 450 वर्षों तक राज्य किया। वायु पुराण में सातवाहनों का शासन-काल 300 वर्ष बतलाया गया और उनके 19 राजाओं का उल्लेख है। किन्तु आजकल यह मत सर्वमान्य है कि कण्ववंश के शासन का अंत 27 ई.पू. और उसके बाद सातवाहन शासन का प्रारम्भ हुआ। डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार सातवाहनों ने 30 ई. से 250 ई. तक शासन किया। सातवाहन वंश का संस्थापक सिमुक को माना जाता है। शातकर्णी के नानाघाट गुहा (चित्रफलक) लेख में सिमुक का चित्त प्रथम तथा राजभहिषी पर दर्शाया गया है। पुराणों में कहा गया है कि शातकर्णी के नानाघाट गुहा (चित्रफलक) लेख में सिमुक का चित्र प्रथम तथा राजमहिषि नायायिका और उसके पति शातकणीं दोनों को अष्टम फलक में द्वितीय स्थान पर दर्शाया गया है। पुराणों में वर्णन आया है कि आन्ध्र वंश का सिमुक काण्यवायन सुशर्मा को नष्ट कर भूमि प्राप्त करेगा। सिमुक का समय 60-37 ई.पू. है। उसने शुंगों और कण्वों की शक्ति का विनाश कर सातवाहन वश की स्थापना की। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान या पैठन थी जो गोदावरी तट पर स्थित थी।

शातकर्णी- प्रथम पुराणों से जानकारी मिलती है कि कृष्ण (कान्ह) के बाद शातकर्णी (27-17 ईसा पूर्व) गद्दी पर बैठा। इसका उल्लेख साँची के स्तूप तोरण लेख गुम्फा नानाघाट गुहालेख एवं नानाघाट गुहा चित्र-फलक लेख में आया है। हाथीगुफा अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसकी पूर्वी सीमा कलिंग शासक खारवेल की पश्चिमी सीमा से लगी हुई से थी। यद्यपि अभिलेख के उक्त अनुच्छेद की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गयी है किन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है की उसके खारवेल से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि कृष्णा नदी के दक्षिणी भाग पर जो शातकर्णी के राजत्व में था, खारवेल ने आक्रमण किया था।

शातकर्णी को सिमुक वंश की वृद्धि करने वाला कहा है सिमुक सातवाहनस् वंश वधनस। उसने महाराष्ट्र के महारथी त्रण कियरो की कन्या नायायिका के साथ विवाह किया। शातकर्णी के दो पुत्र थे शक्ति-श्री एवं वेदश्री। उसकी मृत्यु के बाद नायायिका ने इनकी अभिभाविका के रूप में शासन संचालित किया था। इन दो पुत्रों में वेदश्री की मृत्यु हो गई और शक्ति श्री ने कुछ समय तक शासन किया।

शातकर्णी विशाल साम्राज्य का स्वामी था। अपने गौरव के अनुरूप उसने दो अश्वमेध यज्ञ किये। हाल का कथन है कि एक-शासनकाल के प्रारम्भ में तथा दूसरा अपने जीवन के अन्तिम समय में। शातकर्णी के बाद कुछ समय के लिए इस वंश का पराभव हो गया। पुराणों में शातकर्णी एवं गौतमीपुत्र शातकर्णी के मध्य अनेक शासकों का उल्लेख आया है। अपलक, कुन्तल शातकर्णी तथा हाल का नाम अनेक साक्ष्यों में मिलता है। संभवत: ये मुख्य शाखा से सम्बद्ध नहीं थे। इसमें जहाँ तक हाल का प्रश्न है इसने लगभग पाँच वर्ष (20-24 ई.) तक शासन किया। यह उच्च कोटि का कवि और साहित्यकार था। हाल ने स्वयं गाथा सप्तशती की रचना की थी। उसी के शासन-काल में गुणाढ्य ने अपनी प्रसिद्ध रचना तेहत्कथा का प्रणयन किया था।

गौतमीपुत्र शातकर्णी- प्रारम्भिक राजाओं द्वारा महाराष्ट्र में स्थापित राज्य दूसरी सदी के आरम्भ में शक वंश के क्षहरात नरेश नहपान के उद्भव के साथ कुछ समय के लिये समाप्त हो गया था। नहपान का समय 119 ई. से 125 ई. के मध्य माना जाता है। इसके अधिकार क्षेत्र में उत्तरी महाराष्ट्र, मालवा, काठियावाड़, राजपूताना थे। महाराष्ट्र सातवाहनों का मूल प्रदेश था किन्तु उन्हें क्षहरातों के दबाव से दक्षिण में विस्थापित होना पड़ा। लेकिन क्षहरातों द्वारा सातवाहनों का पराभव अस्थायी सिद्ध हुआ। गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक गुहा अभिलेख से जानकारी मिलती है कि महाराष्ट्र गौतमीपुत्र शातकर्णी के अधीन था। अभिलेख में आया है कि उसने क्षहरातों को निकाल बाहर किया। इस तथ्य की पुष्टि अन्य प्रमाणों से भी होती है। जोगलथम्भी (नासिक) से प्राप्त सिक्कों की निधि से नहपान की चाँदी की मुद्रायें और उसके अन्य सिक्के जिन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णी ने दुबारा ढलवाया था, मिले हैं। अत: कहा जा सकता है कि सातवाहनों का महाराष्ट्र क्षेत्र पर पुन: प्रभाव स्थापित हो गया। उसके राज्यारोहण से पूर्व सातवाहन शक्ति को शक क्षत्रपों ने आघात पहुँचाया था, उन्हें अपनी शक्ति के विस्तार से रोका। गौतमीपुत्र शातकणीं ने ही संभवत: क्षहरात शासक नहपान की शक्ति को नष्ट किया।


नासिक प्रशस्ति में कुछ ऐसे प्रदेशों को इसके राज्य में शामिल किया गया है जो पूर्व में नहपान राज्य के भाग थे- अपरान्त, अनूप, अकरावन्ति, सुराष्ट्र, कुकुर एवं अवन्ति। उसके साम्राज्य विस्तार का विवरण पुलुमावी के नासिक अभिलेख में आया है। अभिलेख में विवेचित असिक (ऋषिक) का तादात्म्य कृष्णा नदी के निकट ऋषिक नगर से किया जा सकता है। असक (अस्मक) हैदराबाद क्षेत्र के पोदन्य (बोधन) का समीपवर्ती प्रदेश था। मूलक का समीकरण आधुनिक औरंगाबाद जिले में गोदावरी के निकट पैठान (या पैथन) ने किया है। सुरठ-कुकुर पूर्वी राजपूताना का एक भाग था। अपरान्त से तात्पर्य पश्चिमीघाट से है। अनूप ऊपरी नर्मदा के किनारे का प्रदेश था। विदर्भ से अभिप्राय बरार प्रदेश से है तथा अकरावन्ती पूर्वी एवं पश्चिमी मालवा को कहा है। कहा जा सकता है कि गुजरात, सौराष्ट्र क्षेत्र, मालवा, बरार, उत्तरी कोंकण, पुणे एवं नासिक के आस-पास के प्रदेश उसके साम्राज्य के अभिन्न अंग थे। नीलकण्ठ शास्त्री की मान्यता है कि इसका कोई सबूत नहीं कि उसका राज्य आन्ध्र प्रदेश में भी था, यद्यपि हो सकता है कि वह कलिंग को स्पर्श करता हो।

नहपान का उन्मूलन संभवतः अपके शासन के 18वें वर्ष में किया अथवा यह कहा जा सकता है कि 124-125 ई. नहपान की अन्तिम तिथि है।

गौतमीपुत्र शातकर्णी के राज्यकाल के 18वें वर्ष के नासिक दानपत्र अभिलेख में कुछ भूमि को दान देने का उल्लेख आया है। उक्त भूमि पूर्व में ऋषभदत्त (उषवदात) के अधिकार में थी। ऋषभदत्त निश्चित रूप से शक गवर्नर था। जिसके अधिकार में नासिक एवं पुणे जिले थे और वह नहपान का दामाद था। यह उल्लेखनीय है कि भू-आवंटन की कार्यवाही सैनिक कैम्प के दौरान की गई जो उस समय सफलता के पथ पर थी। गौतमीपुत्र के लेख में आवंटित क्षेत्र को गोवर्धन (नासिक) जिले में स्थित बेणाकटक नामक विजय स्कन्धावर से सम्बन्धित बताया है। स्पष्ट है कि इस प्रदेश में गौतमीपुत्र शातकर्णी की उपस्थिति जो सेना का मुख्य अधिपति भी था, क्षहरातों के विरुद्ध अभियान का द्योतक है। इस अभियान द्वारा उसने ऊपरी दक्खन, पश्चिमी तथा मध्यभारत को स्वतंत्र करवाया। इसी तरह एक ग्राम करजिका मामल आहार (पुणे जिले में स्थित) जिसे मूलतः ऋषभदत्त ने दान किया था, को पुन: सातवाहन शासक गौतमीपुत्र द्वारा दान किया जाना उत्तरी महाराष्ट्र से सत्ता हस्तान्तरण को इंगित करता है। राज्यारोहण के 24वें वर्ष में उसने कुछ साधुओं को भूमिदान की जिसकी जानकारी एक अभिलेख के उत्कीर्ण करवाये जाने से मिलती है। नह्रपान को परास्त करने से गौतमीपुत्र शातकर्णी की साम्राज्य सीमा बहुत विस्तृत हो गई थी। दक्षिण में कृष्णा नदी से, उत्तर में मालवा एवं काठियावाड़ तथा पूर्व में बरार से पश्चिम में कोंकण के मध्य समस्त प्रदेश, सातवाहन साम्राज्य के अंग थे।

गौतमी पुत्र शातकर्णी अपने वंश का सबसे प्रतापी और पराक्रमी राजा था। उसकी माता गौतमी बल श्री के नासिक गुहालेख से, उसकी विजयों, उसके शासन, उसकी सफलताओं तथा उसके प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व के प्रशंसनीय गुग्गों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। गौतमी पुत्र की दिग्विजयों का वर्णन नासिक गुहा-लेख में मिलता है। इसमें कहा गया है कि- उसके वाहनों ने तीन समुद्रों (पूर्व पयोधि, पश्चिम सागर और दक्षिण में हिन्द महासागर) का जल पिया। नासिक अभिलेख में उसके व्यक्तिगत गुणों का भी अच्छा उल्लेख किया गया है। उसका मुखमण्डल दीप्तवान तथा प्रभावशाली था। उसके बाल सुन्दर तथा भुजाएँ बलिष्ठ थीं। उसका स्वभाव अत्यन्त मृदुल तथा कारूणिक था। सभी की रक्षा करने को वह सदैव तत्पर रहता था। अपनी माता का वह एक आज्ञाकारी पुत्र था और अपने दुर्धष शत्रु पर भी प्रहार करने में संकोच करता था। वह एक प्रजावत्सल शासक था और अपनी प्रजा के सुख दु:ख को अपना सुख दु:ख समझता था। वह अपनी प्रजा पर आवश्यकता से अधिक कर नहीं लगाता था। ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का श्रेय उसको है। किन्तु धार्मिक दृष्टि से वह एक सहिष्णु शासक था। वह एक महान् निर्माता भी था। उसने नासिक जिले में वेकटक नामक नगर का निर्माण कराया था।

वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी-गौतमी पुत्र की मृत्यु के पश्चात् वशिष्ठी पुत्र पुलुमावी राजा हुआ। उसने भी लगभग 24 वर्ष (130-54) तक शासन किया। पुराणों में उसे पुकोमा कहा गया है। शासनकाल के 19वें वर्ष के वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के नासिक गुहालेख में बलश्री अपने को वर्तमान नरेश की दादी एवं भूतपूर्व सम्राट् की माता कहती है। इस विवरण को पुलुमावी का अपने पूर्वज गौतमीपुत्र शातकर्णी के साथ सम्बन्ध असन्दिग्ध रूप से निश्चित हो जाता है जिसके पुत्र रूप में उसने लगभग 130 ई. में उत्तराधिकार प्राप्त किया। उसका तादात्म्य टॉलमी द्वारा उल्लिखित सिरोपोलेमेउ से किया जाता है जिसकी राजधानी गोदावरी के किनारे स्थित पैठन (प्रतिष्ठान) थी। उसे (पुलुमावी) नवसार का नरेश भी कहा जाता है। नवनगर (नयानगर या नवनोर) से अभिप्राय भण्डारकर पैठन से ही लेते हैं। पूर्व की भाँति पुलुमावी का दक्षिण पर अधिकार बरकरार रहा। उसके अभिलेख एवं प्राप्त मुद्राओं से स्पष्ट होता है कि कृष्णा नदी क्षेत्र उसके साम्राज्य का अंग था। आन्ध्र को उसी ने सातवाहन साम्राज्य में सम्मिलित किया था। जैसा विदित है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी के साम्राज्य में कृष्णा नदी क्षेत्र शामिल नहीं था। नासिक एवं कार्ले गुहा लेखों से ज्ञात होता है कि महाराष्ट्र भी उसके अधिकार में था। उसे सम्बोधित किया गया कालें गुहा लेख अन्तिम है। इसमें अंकित तिथि उसके राज्य का 24वाँ वर्ष है। उसका राज्यारोहण 130 ई. में स्वीकार किये जाने के आधार पर कहा जा सकता है कि उसने 154 ई. तक शासन किया।

टॉलेमी ने अपने भूगोल में चष्टन को पश्चिमी मालवा तथा उज्जैन का स्वामी कहा है। चष्टन की मुद्रायें गुजरात में काठियावाड़ से मिली हैं किन्तु चष्टन के पुत्र जयदामन की मुद्रायें पुष्कर से भी प्राप्त हुई हैं, यह प्रदेश पूर्व में सातवाहनों के अधिकार में था। अत: अनुमान किया जा सकता है कि पुलुमावी को पराजित करके ही शकों ने इस पर अधिकार जमाया होगा। चष्टन ने अपने कुछ सिक्कों पर सातवाहनों के मुद्रा चिह्न चैत्य को अंकित करवाया था।

पुलुमावी के बाद यज्ञश्री शातकर्णी अन्तिम शक्तिशाली सम्राट् था जिसने 165 ई. से 195 ई. तक शासन किया। कृष्णा जिले के चिन्न नामक स्थान से शासन के 27वें वर्ष का अभिलेख प्राप्त हुआ है तथ कन्हेरी एवं पांडुलेण (नासिक) में उसके लेख उपलब्ध हुए हैं।

यज्ञ श्री शातकणीं- यज्ञ श्री शातकर्णी सातवाहन वंश का अन्तिम पराक्रमी सम्राट् था। उसने 27 वर्षों (165-192 ई.) तक शासन किया। उसका शासन महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश दोनों पर था। उसने रूद्रदायन के उत्तराधिकारियों से उत्तरी कोंकण को अपने आधिपत्य में कर लिया था। थाना और नासिक के जनपदों में जो अभिलेख मिले हैं उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि यज्ञ श्री शातकर्णी का राज्य काफी दूर तक फैला था। उसके समय में व्यापार की बड़ी उन्नति हुई। उसने अपने पूर्वजों को पुनःस्थापित करने का प्रयास किया।

कलिंगराज खारवेल

प्राचीन भारत में कलिंग एक समृद्ध राज्य था। प्राचीन कलिंग के राज्य-क्षेत्र के अन्तर्गत पुरी और गंजाम के जिले, करक का कुछ भाग, उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम को कुछ प्रदेश तथा दक्षिण भारत के आधुनिक तेलगू भाषा-भाषी प्रान्त का कुछ क्षेत्र सम्मिलित था। कलिंग देश के निवासी स्वतंत्रता प्रेमी थे, यही कारण है कि अशोक उन पर आसानी से प्रभुत्व नहीं जमा सका। अशेाक की मृत्यु के उपरान्त जब साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और उसके प्रान्त साम्राज्य से विलग हो अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे तब कलिंग ने भी अपनी स्वतंत्रता का जयघोष कर दिया।

भुवनेश्वर (पुरी जनपद) से कुछ दूरी पर उदयगिरि की पहाड़ियों की जैन गुफाओं में हाश्री गुम्फा नाम से विश्रुत एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। हाथी गुम्फा अभिलेख प्राकृत भाषा में है। इस अभिलेख में कलिगराज खारवल नरेश का विशद विवरण प्राप्त हुआ है। इस विवरण से महाराज खारवल के विषय में अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। खारवेल कलिंग पर आधिपत्य स्थापित करने वाले महामघ वाहन परिवार का था। सम्भवत: नन्दों के तीन सौ वर्षों के उपरान्त चदिवश का कलिंग राज्य पर प्रभुत्व स्थापित हुआ था। हाथी गुम्फा अभिलेख में प्रथम तथा दूसरे चेदि सम्राट् के स्पष्ट नाम नहीं मिलते। खारवेल चेदि वंश का तीसरा सम्राट् था।

खारवेल के तिथि-क्रम के विषय में विचार- खारवेल के शासन-काल की तिथि क्या है, इस विषय में विद्वानों में मत-भेद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार खारवेल का समय द्वितीय शताब्दी ई.पू. प्रथमार्द्ध है। परन्तु यह धारणा भ्रान्ति मूलक है। खारवेल की तिथि-निर्धारण में सर्वाधिक सहायता हमें हाथी गुम्फा अभिलेख से मिलती है। हाथी गुम्फा अभिलेख की लिपि बेसनगर अभिलेख की लिपि से बाद की है। बेसनगर अभिलेख की लिपि ई.पू. द्वितीय शताब्दी की है। जबकि हाथी गुम्फा अभिलेख की लिपि को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि यह ई.पू. प्रथम शताब्दी में उत्कीर्ण कराया गया होगा। उसके अतिरिक्त हाथी गुम्फा अभिलेख की प्रशस्ति में परवर्ती युग की काव्य-शैली का पूर्व-रूप दिखलाई पड़ता है, परन्तु बेसनगर अभिलेख की शैली का पूर्व रूप दिखलाई पड़ता है, किन्तु बसनगर अभिलेख की शैली नितान्त सादी है। इस बात से यह सिद्ध होता है कि बसनगर अभिलख हाथी गुम्फा के अभिलख की अपेक्षा अधिक प्राचीन है और यह प्राचीनता सम्भवत: पहली शताब्दी ई. की होनी चाहिए। सातवाहन-नरेश शातर्णि की तिथि ई.पू. प्रथम शताब्दी निर्धारित की गई है और क्योंकि खारवेल, शातकर्णी का समकालीन था, अतएव खारवेल का समय ई.पू. प्रथम शताब्दी मानना संगत और समीचीन होगा। अधिकांश विद्वानों ने इसी तिथि को समर्थन किया है।

खारवेल-एक योग्य शासक- खारवेल ने युवावस्था के प्रारम्भिक 15 वर्षों में विविध विद्याओं के अध्ययन में बिताये। लेख, गणित, अर्थशास्त्र एवं शासन-व्यवहार की शिक्षा युवराज के लिए आवश्यक थी। 24वें वर्ष में, राज्याभिषेक होने के बाद अपने शासन के दूसरे वर्ष में शातकर्णी की शक्ति की अवहेलना कर पश्चिम की ओर विशाल सेना (हाथी, घोडे, रथ एवं पैदल) भेजी, जिसने कृष्णा नदी (कन्हवेणानदी) पहुँच कर ऋषिक नगर (असिक नगर) को त्रस्त किया। किन्तु इस आक्रमण का रूप स्पष्ट नहीं है। सातकनि से प्रथम से लिया जाता है। सरकार की मान्यता है कि खारवेल सेना का शातकर्णी से संघर्ष का कोई प्रमाण नहीं मिलता और न ही ऋषिक नगर (असिक) पर कलिंग के अधिकार का कोई उल्लेख आया है। संभवत: दोनों में मैत्री सम्बन्ध थे एवं खारवेल सेना ऋषिक नगर से बिना किसी परेशानी के गुजर गई। कुछ विद्वानों के अनुसार खारवेल शातकर्णी के विरुद्ध नहीं बल्कि रक्षा हेतु गया था और उसने वापस लौटकर उत्सव आदि का आयोजन करवाया।

खारवेल मात्र विजेता ही नहीं था बल्कि एक सुशासक तथा कला पोषक भी था। अपने शासनकाल के प्रथम वर्ष में कलिंग में सार्वजनिक हित के कार्य किए। आधी से गिरे गोपुर, परकोटा आदि का जीर्णोद्धार करवाया एवं शीतल जल से सीढ़ियों से अलंकृत तड़ागो की रचना की, जिसमें एक लाख मुद्रायें व्यय हुई। प्रजा कल्याण हेतु 35 लाख मुद्रायें व्यय किये जाने का उल्लेख भी आया है। अपने शासन के तृतीय वर्ष में नागरिकों के आमोद-प्रमोद के लिए कलापूर्ण नृत्य संगीत, नाटक एवं भोज आदि सामाजिक उत्सवों का प्रबंध किया। उसने शासन के 5वें वर्ष में एक बड़ा कार्य पूर्ण किया। उसने शासन के पाँचवें वर्ष में तनसुलि से अपनी राजधानी में एक नहर का विस्तार करवाया जिसका निर्माण 300 वर्ष पहले मगध-नरेश नन्दराज ने किया था। अष्टम वर्ष में उसने उत्तर भारत पर आक्रमण किया। सकी सेना बारबरा पहाड़ियों (गया जिला) को पार करती हुई आगे बढ़ी। मार्ग में पड़ने वाले अनेक दुर्गों को नष्ट कर दिया। राजगृह को घेर लिया गया। उसके आक्रमण से यवन राजा दमित (डेमेट्रियस) की सेना में आतंक छा गया। शासन के नवें वर्ष में 38 लाख मुद्रायें व्यय कर एक महाविजय प्रसाद का निर्माण करवाया। 11वें वर्ष पलायित शत्रुओं के लूट के माल को (अनेक रत्न आदि), कब्जे में लेकर पिथुण्ड नामक प्राचीन नगर जिसकी स्थापना एक पूर्ववर्ती नरेश ने की थी, ध्वंस कर (ध्वंसित नगर) एक बड़े कृषि फार्म में परिवर्तित कर दिया। 13वें वर्ष में कुमारी पर्वत (उदयगिरि-खण्डगिरि पहाड़ी) पर जैन भिक्षुओं के वर्षाकाल के वास हेतु आश्रय गृह बनवाये। पाभार नामक स्थान पर तपस्वियों आदि के लिये स्तम्भों का निर्माण करवाया। जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी सब धमों के प्रति आदर भाव रखता था, अत: वह सभी देवायतनों के जीर्णोद्धार हेतु सहयोग करता था। उसे सभी सम्प्रदायों का पूजक (सब पासंड पूजकों) कहा गया है। हाथी गुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि खारवेल ने कलिंगाधिपति की उपाधि धारण की थी। उसके लिए अप्रतिहित वाहिनी, बलचक्रधर, प्रवृत्तचक्र, एवं महाविजय आदि विशेषण प्रयुक्त हुए हैं जो उसकी सफलताओं के सर्वथा अनुरूप हैं।

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