प्रकाश का परावर्तन एवं अपवर्तन Reflection and Refraction of Light

प्रकाश का परावर्तन Reflection of Light

प्रकाश के चिकने पृष्ठ से टकराकर वापस लौटने की घटना को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं।

परावर्तन के नियम Laws of Reflection

परावर्तन के दो नियम हैं-

1. आपतन कोण (Angle of Incidence) परावर्तन कोण (Angle of Reflection) के बराबर होता है।

2. आपतित किरण, आपतन बिन्दु पर अभिलम्ब तथा परावर्तित किरण एक ही समतल में होते हैं।

समतल दर्पण Plane Mirror


समतल दर्पण का परावर्तक सतह समतल होता है। इस में शीशे के एक ओर धातु की पतली परत चढ़ी होती है और किरण क्षय को रोकने के लिए लेप किया जाता है। शीशे के पीछे चाँदी की परत या पारे की परत परावर्तक सतह का कार्य करती है।

सतमल दर्पण में प्रतिबिम्ब की स्थिति

समतल दर्पण में किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे उतनी ही दूरी पर बनती है, जितनी दूरी पर वस्तु दर्पण के आगे रखी होती है। यह प्रतिबिम्ब काल्पनिक, वस्तु के बराबर एवं पार्श्व उल्टा (lateral inverse) बनता है।

समतल दर्पण से संबंधित कुछ विशेष तथ्य

(i) यदि कोई व्यक्ति v चाल से दर्पण की ओर चलता है, तो उसे दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब 2v चाल से अपनी ओर आता प्रतीत होता है।

(ii) किसी वस्तु का समतल दर्पण में पूर्ण प्रतिबिम्ब देखने के लिए दर्पण की लम्बाई वस्तु की लम्बाई की कम से कम आधी होनी चाहिए।

(iii) यदि आपतित किरण को नियत रखते हुए दर्पण को θ° कोण से घुमा दिया जाए, तो परावर्तित किरण 2θ° कोण से घूम जाती है।

(iv) यदि दो समतल दर्पण θ° कोण पर झुके हों, तो उनके द्वारा उनके मध्य में रखी वस्तु के बनाए गए कुल प्रतिबिम्बों की संख्या [latex]\frac { 360° }{ \theta ° } -1[/latex] होती है। यदि यह पूर्णांक नहीं है, तो इसे अगला पूर्णांक मान लिया जाता है। इस प्रकार समकोण पर झुके दो दर्पणों के बीच रखे वस्तु के तीन प्रतिबिम्ब बनते हैं और दो समानान्तर दर्पणों के बीच रखे वस्तु के अनन्त प्रतिबिम्ब बनते हैं।

समतल दर्पण के उपयोग

समतल दर्पण का उपयोग बहुरूपदर्शी (Kaleidoscope), परिदर्शी (Periscope), आईना (Looking glass) आदि में किया जाता है।

बहुरूपदर्शी Kaleidoscope

इसमें समान लम्बाई तथा समान चौड़ाई के तीन आयताकार समतल दर्पण इस प्रकार लगे रहते है कि दो दर्पणों के बीच 60° का कोण बनता है। तीनों दर्पणों के परावर्तक तल भीतर की ओर रहते हैं और दर्पणों द्वारा घिरे स्थान में रंगीन काँच के कुछ टुकड़े रहते हैं। ये तीनों दर्पण एक मोटी नली के अन्दर लगे रहते हैं। नली के एक सिरे पर शीशे का गोलाकार टुकड़ा लगा रहता है और दूसरे सिरे पर घिसे शीशे का टुकड़ा। जब पारदर्शक शीशे वाले सिरे से नली में देखते हैं, तो नली को घुमाने से नई-नई रंगीन आकृतियाँ दिखाई देती हैं। ये आकृतियाँ रंगीन काँच की प्रतिबिम्ब हैं, जो समतल दर्पणों से बार-बार परावर्तित होने के कारण बनते हैं। नली को घुमाने से रंगीन काँच के टुकड़ों की स्थितियाँ बदल जाती हैं और इसीलिए आकृतियों के रंग बदल जाते हैं।

परिदर्शी Periscope

इसमें दो समतल दर्पण एक-दूसरे से 45° कोण पर स्थित होते हैं। इन दर्पणों की परावर्तक सतहें आमने-सामने रहती हैं । अतः ऊपर वाले सिरे से होकर प्रवेश करने वाली किरणे दर्पण द्वारा परावर्तित होकर नीचे की ओर आती हैं और दूसरे दर्पण द्वारा परावर्तित होकर आँखों में प्रवेश करती हैं। इसी कारण युद्ध के समय बंकर में छिपे सैनिक जमीन पर चल रहे दुश्मनों की गतिविधियों को देखने के लिए इस उपकरण का उपयोग करते हैं। पनडुब्बी जहाज में भी इस उपकरण का प्रयोग किया जाता है।


गोलीय दर्पण Spherical Mirror

किसी गोलाकार तल से बनाए गए दर्पण को गोलीय दर्पण कहते हैं। गोलीय खंड के एक तल पर पारे की कलई एवं रेड ऑक्साइड का लेप किया जाता है तथा दूसरा तल परावर्तक की तरह कार्य करता है।

गोलीय दर्पण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- (i) उत्तल दर्पण (ii) अवतल दर्पण

1. उतल दर्पण Convex Mirror

जिस गोलीय दर्पण का परावर्तक सतह उभरा रहता है, उसे उत्तल दर्पण कहा जाता है। उत्तल दर्पण को उतल दर्पण अपसारी दर्पण (Diverging Mirror) भी कहा जाता है क्योंकि यह अनंत से आने वाली किरणों को फैलाता है।

2. अवतल दर्पण Concave Mirror

जिस गोलीय दर्पण परावर्तक तल धंसा रहता है, उसे अवतल दर्पण कहते हैं। अवतल दर्पण को अभिसारी दर्पण (Converging Mirror) भी कहा जाता है क्योंकि अवतल दर्पण यह अनंत से आने वाली किरणों को सिकोड़ता है।

उत्तल एवं अवतल दोनों ही दर्पण किसी गोले के कटे भाग होते हैं अतः उस गोले का केन्द्र दर्पण का वक्रता केन्द्र (Centre of curvature) कहलाता है। दर्पण का मध्य बिन्दु ध्रुव (Pole) कहलता है। दर्पण के वक्रता केन्द्र एवं धुव को मिलाने वाली रेखा दर्पण की प्रधान अक्ष रेखा (Principle axis) कहलाती है। वक्रता केन्द्र एवं ध्रुव को मिलाने वाली सरल रेखा के मध्य बिन्दु को दर्पण का फोकस (Focus) कहते है।

फोकस दूरी = वक्रता त्रिज्या / 2

गोलीय दर्पणों की फोकस दूरी का सूत्र: उत्तल एवं अवतल दोनों ही दर्पणों की फोकस दूरी निम्नलिखित सूत्र से ज्ञात की जाती है-

[latex]\frac { 1 }{ v } +\frac { 1 }{ u } =\frac { 1 }{ f }[/latex]

जहाँ

u = वस्तु की दर्पण से दूरी,

v = प्रतिबिम्ब की दर्पण से दूरी,

f = दर्पण की फोकस दूरी


आवर्धन Magnification

प्रतिबिंब की लम्बाई और वस्तु की लम्बाई के अनुपात को आवर्धन कहते हैं और इसे m से प्रदर्शित करते हैं।

अर्थात् m = प्रतिबिंब की लम्बाई / वस्तु की लम्बाई = प्रतिबिंब की दूरी (v) / वस्तु की लम्बाई वस्तु की लम्बाई (u)


उत्तल दर्पण से बने प्रतिबिम्ब

उत्तल दर्पण में किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब सदैव दर्पण के पीछे, उसके धुव और फोकस के बीच, वस्तु से छोटा, सीधा एवं आभासी बनता है। यदि किसी वस्तु की उतल दर्पण से दूरी बढ़ायी जाय, तो दर्पण से बने आभासी एवं सीधे प्रतिबिम्ब का आकार छोटा होता जाता है तथा उसकी स्थिति दर्पण के पीछे धुव से फोकस की ओर खिसकती जाती है।

उत्तल दर्पण के उपयोग

उत्तल दर्पण द्वारा काफी बड़े क्षेत्र की वस्तुओं का प्रतिबिम्ब एक छोटे से क्षेत्र में बन जाता है। इस प्रकार उतल दर्पण का दृष्टि क्षेत्र (field-view) अधिक होता है। इसीलिए इसे ट्रक-चालकों या मोटरकारों में चालक के बगल में पृष्ठ-दृश्य दर्पण (Rear-view Mirror) लगाया जाता है। सड़क में लगे। परावर्तक लैम्पों में उत्तल दर्पण का प्रयोग किया जाता है, विस्तार-क्षेत्र अधिक होने के कारण ये प्रकाश को अधिक क्षेत्र में फैलाते हैं।

अवतल दर्पण के उपयोग

  1. बड़ी फोकस दूरी वाला अवतल दर्पण दाढ़ी बनाने में काम आता है।
  2. ऑख, कान एवं नाक के डॉक्टर के द्वारा उपयोग में लाया जाने वाला दर्पण।
  3. गाड़ी के हेडलाइट (Head-light) एवं सर्चलाइट (Search-light) में
  4. सोलर कुकर (solar Cooker) में।

उतल दर्पण से बने प्रतिविम्ब

वस्तु की स्थिति प्रतिविम्ब की स्थिति वास्तु की तुलना में प्रतिविम्ब का आकार प्रतिविम्ब की प्रकृति
(a) अनंत पर फोकस पर बहुत छोटा उल्टा व वास्तविक
(b) वक्रता कॆन्द्र एवं अनन्त के बीच फोकस एवं वक्रता-केन्द्र के बीच छोटा उल्टा व वास्तविक
(c) वक्रता केन्द्र पर वक्रता-केन्द्र पर सामान आकर का उल्टा व वास्तविक
(d) फोकस तथा वक्रता-केन्द्र के बीच वक्रता-केन्द्र एवं अनन्त के बीच बड़ा उल्टा व वास्तविक
(e) फोकस पर अनन्त पर बहुत बड़ा उल्टा व वास्तविक
(f) फोकस तथा धुव के बीच दर्पण के पीछे बड़ा सीधा व आभासी

प्रकाश का अपवर्तन Refraction of Light

जब प्रकाश की किरणें एक पारदर्शी माध्यम से दूसरे पारदर्शी माध्यम में प्रवेश करती हैं, तो दोनों माध्यमों को अलग करने वाले तल पर अभिलम्बवत् आपाती होने पर बिना मुड़े सीधे निकल जाती हैं, परन्तु तिरछी आपाती होने पर वे अपनी मूल दिशा से विचलित हो जाती हैं। इस घटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं।

जब प्रकाश की कोई किरण विरल माध्यम (rarer medium) से सघन माध्यम (denser medium) (जैसे हवा से पानी) में प्रवेश करती है, तो वह दोनों माध्यमों के पृष्ठ पर खींचे गए अभिलंब की ओर झुक जाती है तथा जब किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है, तो वह अभिलंब से दूर हट जाती है, लेकिन जो किरण अभिलंब के समांतर प्रवेश करती है, उनके पथ में कोई परिवर्तन नहीं होता व बिना झुके सीधी निकल जाती है।

अपवर्तन के नियम

अपवर्तन के दो नियम है-

(i) आपतित किरण (Incident Ray), अभिलंब (Normal) तथा अपवर्तित किरण (Refracted Ray) तीनों एक ही समतल में स्थित होते हैं।

(ii) किन्हीं दो माध्यमों के लिए आपतन कोण की ज्या (sine) तथा अपवर्तन कोण की ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक होता है।

[latex]\frac { \sin { i }  }{ \sin { r }  } =\mu[/latex] (नियतांक)

इस नियतांक को पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का अवर्तनांक (Refracting Index R.I.) कहते हैं। इस नियम को स्नेल का नियम (Snell’s Law) भी कहते हैं।

यदि प्रकाश का अपवर्तन निर्वात् से किसी माध्यम में होता है, तब आपतन कोण के sine और अपवर्तन कोण के sine के अनुपात को उस माध्यम का निरपेक्ष अवर्तनांक (Absolute refractive index) कहते हैं। किसी माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक निर्वात में प्रकाश की चाल तथा उस माध्यम में प्रकाश की चाल के अनुपात के बराबर होता है। वायु के सापेक्ष किसी माध्यम का अपवर्तनांक उस माध्यम के निरपेक्ष अपवर्तनांक के लगभग बराबर होता है।

निरपेक्ष अपवर्तनांक = निर्वात् (vacuum) में प्रकाश की चाल / माध्यम (Medium) में प्रकाश की चाल

किसी माध्यम का अपवर्तनाक भिन्न-भिन्न रंग (तरंगदैर्घ्य) के प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न होता है। तरंगदैर्घ्य बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम होता जाता है। दृश्य प्रकाश में लाल रंग का अपवर्तनांक सबसे कम तथा बैंगनी रंग का सबसे अधिक होता है, क्योंकि लाल रंग का तरंगदैर्घ्य सबसे अधिक व बैंगनी रंग का तरंगदैर्घ्य सबसे कम होता है। ताप बढ़ने पर भी सामान्यतया अपवर्तनांक घटता है, यद्यपि यह परिवर्तन बहुत ही थोड़ा होता है।

प्रकाश के अपवर्तन के कारण घटने वाली घटनाएँ

(i) रात्रि के समय तारों का टिमटिमाना (Twinkling of Stars) – वायुमंडल में वायु की विभिन्न घनत्व वाली विभिन्न परतें पायी जाती हैं। जब तारों से प्रकाश चलता है, तो उसका विभिन्न परतों में लगातार अपवर्तन होता रहता है। चूंकि वायु की परतें स्थिर नहीं होती, इसलिए हमें यह महसूस होता है कि तारे भिन्न-भिन्न समयान्तरालों में भिन्न-भिन्न स्थितियों में हैं। अर्थात् तारे हमें टिमटिमाते हुए प्रतीत होते हैं।

(ii) पानी से भरे किसी बर्तन की तली में पड़ा हुआ सिक्का ऊपर उठा हुआ दिखाई पड़ता है – इसका कारण यह है कि जब हम बर्तन में पानी डालते हैं, तो अपवर्तन के कारण सिक्का कुछ ऊपर उठा हुआ प्रतीत होता है तथा हमें दिखाई देने लगता है।

(iii) जल के अन्दर पड़ी हुई मछली वास्तविक गहराई से कुछ ऊपर उठी हुई दिखाई पड़ती है।

(iv) द्रव में अंशतः डुबी हुई सीधी छड़ टेढ़ी दिखाई पड़ती है।

(v) सूर्योदय के कुछ समय पहले एवं सूर्यास्त के कुछ समय बाद तक सूर्य क्षितिज के नीचे होने पर भी हमें दिखाई देता है।


प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन Total Internal Reflection of Light

जब कोई प्रकाश की किरण किसी सघन माध्यम (Denser Medium) से विरल माध्यम (Rarer Medium) में प्रवेश करती है, तो अपवर्तन के कारण अपवर्तित किरण (Refracted Ray) अभिलंब (Normal) से दूर हटती जाती है। जैसे-जैसे हम आपतन कोण का मान बढ़ाते जाते हैं, विरल माध्यम में अपवर्तित किरण अभिलंब से दूर हटती जाती है, अर्थात् अपवर्तन कोण का मान बढ़ता जाता है। जब एक निश्चित आपतन कोण के लिए अपवर्तन कोण का मान 90° हो जाता है, तो इस आपतन कोण को क्रान्तिक कोण कहते हैं।

अपवर्तनांक [latex]\mu =\frac { 1 }{ \sin { r }  } \quad ,\quad \sin { C } =\frac { 1 }{ \mu  }[/latex]

जहाँ C क्रांतिक कोण है ।

कुछ पदार्थों के क्रांतिक कोण
पदार्थ अपवर्तनांक क्रांतिक कोण
पानी 1.33 48.5°
क्राउन काँच 1.52 41.1°
फ्लिंट काँच 1.65 37.4
हीरा 2.42 24.4°

अब यदि आपतन कोण को और बढ़ायें, तो किरणों का अपवर्तन नहीं हो सकेगा, क्योंकि अपवर्तन कोण का मान 90° से अधिक नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में आपतित किरणें परावर्तन के नियमानुसार सघन माधयम में ही परावर्तित हो जाती हैं। यह घटना पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहलाती है। पूर्ण आन्तरिक परावर्तन में प्रकाश का परावर्तन शत-प्रतिशत होता है। अर्थात् इसमें प्रकाश काअपवर्तन बिल्कुल नहीं होता है। इस कारण पृष्ठ के जिस भाग से पूर्ण आन्तरिक परिवर्तन होता है, वह बहुत चमकने लगता है। पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के लिए निम्नलिखित दो शतों का पूरा होना अनिवार्य है-

  1. (i) प्रकाश सघन माध्यम (Denser Medium) से वायरल माध्यम (Rarer Medium) में जा रहा हो।
  2. (ii) आपतन कोण (Incident Angle) क्रांतिक कोण (Critical Angle) से बड़ा हो।

पूर्ण आंतरिक परावर्तन के उदाहरण

पूर्ण आंतरिक परावर्तन के अनेक उदाहरण हमारे दैनिक जीवन में देखने को मिलते हैं। जैसे-

  1. हीरा अत्यधिक चमकता है।
  2. रेगिस्तान में मरीचिका (Mirage) तथा ठण्डे देशों में मरीचिका (Looming) दिखाई देती है।
  3. काँच का चटका हुआ भाग चमकीला दिखाई देता है।
  4. पानी में पड़ी हुई परखनली चमकीली दिखाई पड़ती है।
  5. प्रकाशिक तन्तु (Optical fibres) पूर्ण अतिरिक परावर्तन सिद्धांत पर काम करता है।
  6. पानी में हवा-भरे बुलबुले (Air-bubble) चमकते हैं।
  7. कालिख से पोता हुआ गोला चमकता है।

हीरे की चमक: हीरे से वायु में आने वाली किरण के लिए क्रान्तिक कोण बहुत ही कम (24°) होता है। अतः जब बाहर का प्रकाश किसी कटे हुए हीरे में प्रवेश करता है, तो वह उसके भीतर विभिन्न तलों पर बार-बार पूर्ण परावर्तित होता रहता है। जब किसी तल पर आपतन कोण 24° से कम हो जाता है, तब ही प्रकाश हीरे से बाहर आ पाता है। इस प्रकार हीरे में सभी दिशाओं से प्रवेश करने वाला प्रकाश केवल कुछ ही दिशाओं में हीरे से बाहर निकलता है। अत: इन दिशाओं से देखने पर हीरा अत्यन्त चमकदार दिखाई देता है।

रेगिस्तान में मरीचिका (Mirage): कभी-कभी रेगिस्तान में यात्रियों को दूर से पेड़ के साथसाथ उसका उल्टा प्रतिबिम्ब भी दिखायी देता है। इससे यात्रियों को ऐसा भ्रम हो जाता है कि वहाँ जल का तालाब है, जिसमें पेड़ का उल्टा प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है। परन्तु वास्तव में वहाँ तालाब नहीं होता है। गर्मी के मौसम में रेगिस्तान की रेत गरम होती है, तो उसे छूकर पृथ्वी के पास की वायु अधिक गरम हो जाती है, जिससे वायु का घनत्व कम हो जाता है। ऊपर की वायु परत ठंडी और सघन होती है। अतः जैसे-जैसे हम ऊपर से नीचे आते हैं, वायु की परत विरल होती जाती है। जब पेड़ से प्रकाश की किरणें पृथ्वी की ओर आती हैं, तो उन्हें अधिकाधिक विरल परतों से होकर जाना पड़ता है, इसीलिए प्रत्येक परत पर अपवर्तित किरण अभिलंब से दूर हटती जाती है। अतः प्रत्येक अगली परत पर आपतन कोण बढ़ता जाता है तथा किसी विशेष परत पर क्रांतिक कोण से बड़ा हो जाता है। इस परत पर किरण पूर्ण परावर्तित होकर ऊपर की ओर उठने लगती है। चूंकि ऊपर वाली परतें अधिक सघन हैं, अतः ऊपर उठती हुई किरण अभिलंब की ओर झुकती जाती है। जब यह किरण यात्री की आँख में प्रवेश करती है, तो उसे पृथ्वी के नीचे से आती हुई प्रतीत होती है तथा यात्री को पेड़ का उल्टा प्रतिबिम्ब दिखायी देता है। यात्री को उल्टा प्रतिबिम्ब दिखलायी पड़ने के कारण उसे जल का भ्रम होने लगता है।

काँच का चटका हुआ भाग चमकीला दिखाई देता है: काँच के चटके हुए भाग में हवा भर जाती है, जोकि काँच की अपेक्षा विरल होती है। जब प्रकाश काँच से हवा में प्रवेश करता है, तो उसका सघन माध्यम से विरल माध्यम में अपवर्तन होता है। काँच से हवा में प्रवेश करते समय आपतन कोण का मान क्रांतिक कोण से अधिक हो जाता है, तो पूर्ण आन्तरिक परावर्तन होने लगता है। इसी कारण चटका हुआ काँच चमकीला प्रतीत होता है।

पानी में पड़ी हुई परखनली चमकीली दिखाई पड़ती है: जब पानी से अंशतः भरी हुई परखनली को पानी से भरे बीकर में डुबाते हैं, तो परखनली के जिस भाग में पानी नहीं होता अर्थात् परखनली का खाली भाग चाँदी की तरह चमकने लगता है। इसका कारण भी प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन है।


प्रकाशिक तन्तु Optical Fibres

प्रकाश सरल रेखा में गमन करता है, लेकिन पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के सिद्धान्त का उपयोग कर इसे वक्रीय मार्ग पर चलाया जा सकता है। प्रकाशिक तन्तु पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के सिद्धान्त पर आधारित एक ऐसी युक्ति है, जिसके द्वारा प्रकाश सिग्नल को, इसकी तीव्रता में बिना क्षय हुए, एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानान्तरित किया जा सकता है। प्रकाशित तन्तु क्वार्ट्ज कांच के बहुत लम्बे तथा पतले हजारों रेशों से मिलकर बना होता है। प्रत्येक रेशे की मोटाई लगभग 10-4 सेमी० होती है। तन्तु के चारों ओर अपेक्षाकृत कम अपवर्तनांक (μ≈1.5) के पदार्थ की पतली तह लगा दी जाती है। जब प्रकाश की किरण इस तन्तु के एक सिरे पर अल्प कोण बनाती हुई आपतित होती है, तो यह इसके अन्दर अपवर्तित हो जाती है। तन्तु के अन्दर यह किरण तन्तु तह के सीमा पृष्ठ पर क्रांतिक कोण से अधिक आपतन कोण पर आपतित होती है और पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के बाद इसके विपरीत सीमा पृष्ठ पर टकराती है। इस सीमा पृष्ठ पर किरण का आपतन कोण पुनः क्रांतिक कोण से बड़ा होता है, अतः किरण का पुनः पूर्ण आन्तरिक परावर्तन हो जाता है। इस प्रकार प्रकाश किरण बार-बार पूर्ण आन्तरिक परावर्तित होती हुई तन्तु के दूसरे सिरे पर पहुँच जाती है। तन्तु के दूसरे सिरे पर किरण वायु में अपवर्तित होकर अभिलंब से दूर हटती हुई निर्गत होती है।

प्रकाशिक तन्तु के उपयोग:

  1. विद्युत् संकेत को प्रकाश संकेत में बदलकर प्रेषित करने तथा अभिग्रहण करने में,
  2. शरीर के अन्दर लेसर किरणों को भेजने में,
  3. प्रकाश संकेतों के दूर संचार में,
  4. मनुष्य के शरीर के आन्तरिक भागों के परीक्षण में।

इण्डोस्कोप Endoscope

मनुष्य के शरीर के आंतरिक भागों के निरीक्षण के लिए प्रयुक्त यंत्र को अंत:दर्शी (Endoscope) कहा जाता है। इसमें प्रकाश तन्तु (optical fibre) की बनी हुई प्रकाश नलिका का उपयोग किया जाता है। इसमें पूर्ण अतिरिक परावर्तन द्वारा आंतरिक अंगों का चित्र प्राप्त किया जाता है। इण्डोस्कोप के उदाहरण हैं-

  1. ऑरिस्कोप/ओटोस्कोप (Auriscope/ Otoscope): कान के आंतरिक भाग के निरीक्षण के लिए,
  2. गैस्ट्रोस्कोप (Gastroscope): पेट के निरीक्षण के लिए,
  3. ब्रोन्कोस्कोप (Bronchoscope): गले और फेफड़ों के निरीक्षण के लिए आदि।

लेंस द्धारा प्रकाश का अपवर्तन

लेंस Lens

सामान्यतः दो गोलीय पृष्ठों से घिरे हुए किसी अपवर्तक माध्यम को लेंस कहा जाता है, परन्तु कुछ लेंसों में एक पृष्ठ समतल भी होता है। लेंसों का नामकरण उनके बाहरी सतह के स्वरूप के अनुसार होता है। लेंस छः प्रकार के होते हैं-

(i) उभयोत्तल (Convexo-convex): वैसे लेंस जिनके दोनों पृष्ठ उतल होते हैं। इन पृष्ठों की वक्रता त्रिज्याएँ समान भी हो सकती हैं तथा भिन्न-भिन्न भी।

(ii) समतल उत्तल (Plano-convex): वैसे लेंस जिनके एक पृष्ठ समतल तथा दूसरा पृष्ठ उत्तल होता है।

(iii) अवतलोत्तल (Concavo-convex): वैसे लेंस जिनका एक पृष्ठ अवतल तथा दूसरा पृष्ठ उत्तल होता है। इन पृष्ठों की वक्रता त्रिज्याएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं।

(iv) उभयावातल (Concavo-concave): वैसे लेंस जिनके दोनों पृष्ठ अवतल होते हैं। इन पृष्ठों की वक्रता त्रिज्याएँ समान अथवा असमान हो सकती हैं।

(v) समतल-अवतल (Plano-concave): वैसे लेंस एक पृष्ठ समतल तथा दूसरा पृष्ठ अवतल होता है,।

(vi) उत्तलावतल (Convexo-concave): वैसे लेंस जिनका एक पृष्ठ उत्तल तथा दूसरा पृष्ठ अवतल होता है। इन पृष्ठों की वक्रता त्रिज्याएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।


लेंस सम्बन्धी शब्द (optical centre): यह लेंस के अन्दर स्थित वह बिन्दु है, जिससे गुजरने पर प्रकाश किरणों का विचलन नहीं होता है।

मुख्य अक्ष (Principal axis): लेंस के दोनों पृष्ठों के वक्रता केन्द्र को मिलाने वाली रेखा को लेंस का मुख्य अक्ष कहते हैं।

फोकस (Focus): मुख्य अक्ष के समानान्तर आने वाली किरणे लेंस के अपवर्तन के पश्चात् जिस बिन्दु पर मिल जाती हैं अथवा मिलती हुई प्रतीत होती हैं, उसे लेंस का फोकस कहते हैं।

फ़ोकस दूरी (Focal length): प्रकाशीय केन्द्र से फोकस तक की दूरी को फोकस दूरी कहते हैं।

उत्तल लेस द्वारा बने प्रतिबिम्ब: प्रतिबिम्ब की प्रकृति, आकार, स्थिति आदि बिम्ब की फोकस से दूरी पर निर्भर करता है।

अवतल लेंस से बने प्रतिबिम्ब: अवतल लेंस से प्रतिबिम्ब हमेशा वस्तु की ओर ही लेंस तथा फोकस के बीच बनता है। यह आभासी, सीधा तथा वस्तु से छोटा होता है।

लेंस की फोकस दूरी का सूत्र :

[latex]\frac { 1 }{ f } =\frac { 1 }{ v } -\frac { 1 }{ u }[/latex]

जहाँ, f= फोकस दूरी, v = प्रतिबिम्ब की दूरी, u = वस्तु की दूरी।

संयुक्त लेंस की फोकस दूरी का सूत्र: दो लेंसों को परस्पर सटाकर रखने से बने लेंस को संयुक्त लेंस कहते हैं। संयुक्त लेंस की फोकस दूरी निम्नलिखित सूत्र से प्राप्त होती है।

[latex]\frac { 1 }{ F } =\frac { 1 }{ { f }_{ 1 } } -\frac { 1 }{ { f }_{ 2 } }[/latex]

जहाँ f1 एवं f2 दोनों लेंसों की पृथक-पृथक फोकस दूरियाँ हैं।


लेंस की क्षमता Power of a Lens

किसी लेंस की फोकस दूरी का व्युत्क्रम उसकी क्षमता कहलाती है। यदि किसी लेंस की फोकस दूरी f मीटर हो, तो उसकी क्षमता [latex]P=\frac { 1 }{ f }[/latex] डायोप्टर (Dopre) होती है। (लेंस की क्षमता का मात्रक डायोप्टर होती है) 1 मीटर फोकर्स दूरी वाले लेंस की क्षमता 1 डायोप्टर होती है। उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक व अवतल लेंस की क्षमता ऋणात्मक होती है।

संयुक्त लेंस की क्षमता: यदि दो लेंसों को परस्पर सटा के रख दे तो उनकी क्षमताएं जुड़ जाती हैं तथा संयुक्त लेंस की क्षमता दोनों लेंसों की क्षमताओं के योग के बराबर होती है अर्थात् Р = Р1 + Р2 ।

लेंस की क्षमता में परिवर्तन: लेंस को किसी द्रव में डुबाने पर उसकी फोकस-दूरी व क्षमता दोनों बदल जाती है। यह लेंस एवं द्रव के अपवर्तनांक पर निर्भर करता है। मान लिया कि μ अपवर्तनांक वाले लेंस को μ’ अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबाया जाता है, तो निम्नांकित तीन स्थितियाँ उत्पन्न होंगी-

(i) μ > μ’ अर्थात् जब लेंस को ऐसे द्रव में डुबाया जाता है जिसका अपवर्तनांक लेंस के अपवर्तनांक से कम है। ऐसी स्थिति में लेंस की क्षमता घट जाती है, अर्थात् उसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है। लेंस की प्रकृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उदाहरण के लिए कांच (μ = 1.5) के लेंस को पानी (μ = 1.33) में डुबाने पर।

(ii) μ = μ’ अर्थात् जब लेंस को समान अपवर्तनांक वाले द्रव में डुबाते है। ऐसी स्थिति में लेंस की फोकस दूरी अनंत हो जाती है, जिससे उसकी क्षमता समाप्त हो जाती है। वह एक समतल प्लेट की भांति व्यवहार करता है। ऐसे द्रव में लेंस को डुबाने पर लेंस दिखाई नहीं देता है।

(iii) μ < μ’ अर्थात् जब लेंस को ऐसे द्रव में डुबाया जाता है, जिसका अपवर्तनांक लेंस के अपवर्तनांक से अधिक है। ऐसी स्थिति में फोकस दूरी बढ़ जाती है, जिससे उसकी क्षमता घट जाती है। इसके साथ-साथ लेंस की प्रकृति भी बदल जाती है, अर्थात् उत्तल लेंस, अवतल लेंस की भांति और अवतल लेंस, उत्तल लेंस की भांति व्यवहार करने लगता है। उदाहरण के लिए पानी (μ’=1.33) के अन्दर हवा का बुलबुला (μ=1.00) दिखाई तो उत्तल लेंस की भांति देता है, परन्तु व्यवहार अवतल लेंस के समान करता है। कांच (μ = 1.5) के लेंस को कार्बन डाइसल्फाइड (μ’= 1.68) में डुबाने पर उत्तल लेंस, अवतल लेंस के समान तथा अवतल लेंस, उत्तल लेंस के समान व्यवहार करता है।

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