पुलकेशिन द्वितीय Pulakeshin II

पुलकेशिन द्वितीय के बारे में हमें ऐहॉल अभिलेख में उसके समकालीन कवि रविकीर्ति द्वारा लिखी गयी प्रशस्ति से जानकारी मिलती है। यह संस्कृत भाषा में है। पुलकेशिन द्वितीय इस राजवंश का पराक्रमी व प्रसिद्ध शासक था जिसका शासन-काल 609-642 ई. है। पुलकेशिन ने गृहयुद्ध में चाचा मंगलेश पर विजय प्राप्त कर राज्याधिकार प्राप्त किया। उसने श्री पृथ्वीवल्लभ सत्याश्रय की उपाधि से अपने को विभूषित किया। वह जीवन भर युद्धों में रत रहा और संपूर्ण दक्षिण भारत पर अपना प्रभुत्व कायम किया। उसने अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए विद्रोही सामंतों का दमन किया। बाद में उसने पड़ोसी राजाओं के विरुद्ध अभियान किए। पुलकेशिन ने राष्ट्रकूट राजा गोविन्द को भीमा नदी के तट पर एक युद्ध में परास्त किया। विपरीत परिस्थितियों में बड़े धैर्य के साथ पुलकेशिन द्वितीय ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों एवं विद्रोहियों को परास्त किया। बाद में कदम्बों की राजधानी बनवासी पर अपना अधिकार जमा लिया। मैसूर के गंगों व केरल के अलूपों से भी उसका मुकाबला हुआ। पुलकेशिन ने कोंकण की राजधानी पुरी पर भी अधिकार किया। लाट, मालवा व भृगुकच्छ के गुर्जरों को भी उसने पराजित किया। पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन को पराजित कर उसकी राजधानी कांची तक उसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसकी विजयों से भयभीत होकर चेर, चोल व पाण्ड्यों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। समकालीन स्रोतों से विदित होता है कि उसने नर्मदा से कावेरी के तट के सभी प्रदेशों पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया था और इस प्रकार दक्षिण के एक बड़े भू-भाग पर राजनैतिक दृष्टि से एकता कायम की। दक्षि में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद उसने उत्तर की ओर प्रयाण किया। पुलकेशिन द्वितीय का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सैनिक संघर्ष उत्तर भारत के सर्वशक्तिमान शासक हर्षवर्धन के विरुद्ध हुआ।

इस सन्दर्भ में ऐहोल अभिलेख से जानकारी मिलती है। युद्ध सर्वथा निर्णायक सिद्ध हुआ एवं हर्षवर्धन को दक्षिण विजय की महत्त्वाकांक्षा सदैव के लिए त्यागनी पड़ी। इस युद्ध से पुलकेशिन द्वितीय के गौरव में वृद्धि हुई, उसने परमेश्वर दक्षिणापथेश्वर उपाधियाँ धारण कीं। पुलकेशिन ने पूर्व अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने दक्षिण कोशल, कलिग के शासकों को जीता, वेंगी को विजित कर पल्लवों को जीता। चोल, पाण्ड्य व केरल के राजाओं ने भी उससे संधि की। पुलकेशिन की इन विजयों का उल्लेख एहोल अभिलेख में हुआ है। उसकी गणना भारत के महान् शासकों में की जा सकती है जिसने छोटे से चालुक्य रही को विन्ध्यक्षेत्र से दक्षिण में कावेरी नदी के तट तक विस्तृत करके दक्षिणापथेश्वर की उपाधि धारण की। उसने हर्ष के अहियनों को अवरुद्ध क्र उसकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को अवरुद्ध किया।

महान् विजेता ही नहीं कुशल शासक भी पुलकेशिन था। उसने देश-विदेशों के शासकों से कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये। मुस्लिम लेख तवरी में उल्लेख आया है कि प्रमेश नामक राजा जो पुलकेशिन द्वितीय ही था, ने 615-26 ई. के लगभग तत्कालीन पारसी के सम्राट् भुखरी द्वितीय के राजदरबार में अपनादूत बहुत से उपहारों के साथ भेजा। इस सन्दर्भ में अजंता का एक भित्तिचित्र उल्लेखनीय है जिसमें किसी राजपूत को एक भारतीय राजा द्वारा स्वागत करते हुए दिखाया गया हे। इससे भारतीय शासकों की कूटनीतिक सम्बन्धों की परम्परा का बोध हो जाता है। संभव है इस चित्र का निर्माण पुलकेशिन द्वितीय के काल में हुआ हो। उसने बहुत से शासकों के पास अपने राजदूत भेजे। चीनी यात्री ह्वेनसांग स्वयं पुलकेशिन के दरबार में उपस्थित हुआ। चीनी यात्री भी कहता है कि पुलकेशिन के विदेशी राजाओं से मधुर सम्बन्ध थे। ईरानी शासक खुसरो द्वितीय उसका परम मित्र था। ईरानी राजदूत को पुलकेशिन के दरबार में विशेष सम्मान प्राप्त था। ह्वेनसांग के विवरण से पुलकेशिन की बहुत सी योग्यताओं का बोध होता है। चीनी यात्री ने उसके राज्य का पैदल भ्रमण किया था और बहुत सी सूचनाएँ राजा के बारे में उसने दी है। पुलकेशिन के राज्य के अंतिम वर्ष संकटपूर्ण थे। पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम ने 642 ई. में वातापी पर आक्रमण किया। इसी युद्ध में पुलकेशिन की हार हुई और संभवत: मृत्यु भी। पल्लवों ने उसकी राजधानी को लूटा और उजाड़ दिया।

चालुक्य वंश के अंतिम शासक- पुलकेशिन द्वितीय के बाद उसका पुत्र सत्याश्रय जिसको विक्रमादित्य प्रथम भी कहते हैं का राज्य पर अधिकार हुआ। उसका शासन-काल 655-681 ई. तक अपने पराक्रम और साहस से चालुक्यों की शक्ति और गौरव को पुन:स्थापित किया और उनकी राजधानी को लूटा। कुछ प्रदेशों पर अधिकार भी किया। उसने चोलों, पाण्ड्यों एवं केरलों के विरुद्ध भी युद्ध किया और विजय प्राप्त की। उसका अधिकांश काल पल्लवों से संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ। पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम, महेन्द्रवर्मन द्वितीय, परमेश्वरवर्मन से उसने निरन्तर युद्ध किये। उसका उत्तराधिकारी विनयादित्य था। उसका शासनकाल 681-696 ई. है। अभिलेखों में उसे विजेता कहा गया है, जिसने केरलों, मालवों, चोलों, हैहयों, पाण्डयों आदि पर विजय की। अभिलेखों में उसे फारस, कावेरी की घाटी तथा सिंहल द्वीप के राजाओं से कर वसूल करने वाला बताया गया है। उसने उत्तर के शासक सकलोत्तरापथनाथ को भी पराजित किया। उसने सत्याश्रय व श्री पृथ्वीवल्लभ के विरुद्ध धारण किये।

अभिलेखों का विवरण अतिरंजित हो सकता है। उस समय उत्तर भारत में कोई सम्राट् जिसको सकलोत्तरापथनाथ कह सके, था ही नहीं। उसने उत्तर गुप्तकालीन किसी शासक को पराजित अवश्य किया था।

विजयादित्य (696-735 ई.)- इसने पल्लव नरेश परमेश्वरम् द्वितीय पर विजय प्राप्त की। उसने निर्माण सम्बन्धी कायों को विशेष प्रोत्साहन दिया।

विक्रमादित्य द्वितीय- विक्रमादित्य द्वितीय ने 734 ई. से 744 ई. तक शासन किया। इसके काल में चालुक्यों व पल्लवों के संघर्ष जारी रहे। उसकी दो हैहयवंशीय राजकुमारियों ने दो विशाल शिवमंदिर बनवाये।


कीर्तिवर्मन द्वितीय- कीर्तिवर्मन 745 ई. के लगभग गद्दी पर बैठा। वह एक अयोग्य और विलासी शासक था। उसके काल में साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया था। पल्लवों तथा अन्य राज्य शक्तियों से निरन्तर संघर्ष करते रहने के कारण चालुक्य शक्ति क्षीण हो गयी थी।

चालुक्यों की सांस्कृतिक देन- चालुक्यों की साहित्य और कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण देन रही है। चालुक्य जन शिक्षा के प्रति जागरुक थे। प्राचीन भारतीय विधि से संबंधित याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका मिताक्षरा भी विज्ञानेश्वर ने इसी काल में लिखी। प्रभाचन्द्र का न्यायकौमुदी चन्द्रोदय भी इसी दौरान रचित हुआ। गणित से संबंधित गणितसार-समुच्चय की रचना वीराचार्य ने की। जिनसेन ने अमोघवृति लिखी। कन्नड़ भाषा के उल्लेखनीय ग्रन्थ कविराजमार्ग, शांतिपुराण, चामुंडरायपुराण, अजितपुराण, गदायुद्ध आदि लिखे गये। प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रमुख नीति वाक्यामृत की रचना सोमदेव सूरी ने की। उन्होंने  यशस्तिकचम्पू में जैनधर्म व दर्शन की व्याख्या की। इस काल के प्रमुख विद्वानों में उदयदेव का योगदान विशेष उल्लेखनीय है जो एक महान् व्याकरणाचार्य थे। उन्होंने जैन धर्म व दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्राचीन भारतीयों के इतिहास के प्रति दृष्टिकोण व इतिहास लेखन के तरीकों को दर्शाने वाले प्रमुख ग्रन्थ विक्रमांकदेवचरित भी विल्हण द्वारा रचा गया।

कला का सर्वांगीण विकास चालुक्यों के शासनकाल में हुआ। बहुत से हिन्दू व बौद्ध गुहा मंदिरों का निर्माण करवाया गया। चालुक्य मंदिर वास्तुकला के प्रमुख केन्द्र ऐहोल, तेर, पट्टनकला, बादामि आदि थे। ऐहोल व तेर में उत्तरेश्वर व कालेश्वर मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें ईटों का प्रयोग किया गया है। बादामि का मालेगिती शैव मंदिर वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसका निर्माण 625 ई. में हुआ। पट्टदल के शैव मंदिर भी उल्लेखनीय हैं। मंदिरों का आकार विशाल है, इनका प्रदक्षिणा पथ व मण्डप कांची के कैलाश मंदिर से बहुत साम्यता रखता है। स्तंभों पर प्रतिमाओं का अंकन किया गया है। मंदिर की भित्तियों पर विभिन्न देवी देवताओं, रामायण के दृश्य, नाग आदि का अंकन है। मंदिरों के निर्माण पर पल्लव-द्रविड्-वास्तुशैली का प्रभाव देखा जा सकता है।

बादामि, ऐलोरा, ऐलीफेंटा, औरंगाबाद, अजंता आदि में पर्वतों को काटकर मंदिर बनाये गये। ये गुहा मंदिर हिन्दू-बौद्ध व जैन धर्म से संबंधित हैं। ऐलोरा के मंदिर तीनों संप्रदायों से संबंधित है। प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर दशावतार, रामेश्वर आदि का निर्माण बादामी के चालुक्यों के काल में ही हुआ। औरंगाबाद में बौद्ध मंदिरों की संख्या अधिक है। इस मंदिर की कुछ मूर्तियाँ घुटने टेके हुए हैं, जो सूमान्य स्त्री-पुरुषों की लगती है। संभवतः ये मानव मूर्तियाँ गुहा निर्माताओं की हैं।

चालुक्यों द्वारा अजंता की बहुत-सी प्रमुख गुफायें बनाई गयीं। गुफा संख्या 1 व 2 विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, इनमें बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का चित्रण है। अजंता की गुहाओं पर जातक कथाओं के चित्र भी अंकित हैं। ये भित्ति चित्र अत्यंत सजीव व चित्ताकर्षक हैं। गुहा मंदिर निर्माण की परम्परा जो गुप्तकाल में आरम्भ हुई, चालुक्य काल में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। ऐलोरा के मंदिर दो-दो अथवा तीन-तीन तलों में काटकर बनाये गये हैं, जबकि अजंता के गुफा मंदिर एक तलीय हैं। इस काल में वास्तुकला व शिल्पकला के विकास के साथ-साथ अन्य कलाओं ने भी निश्चित रूप से उन्नति की होगी। चालुक्य शासक स्वयं कलाविद् और संगीत, चित्र, मूर्ति कलाओं आदि के क्षेत्र में गहरी अभिरुचि रखते थे। इस राजवंश के बहुत से व्यक्ति संगीत में अभिरुचि रखते थे। इस संदर्भ में सेनापति रविदेव का नाम उल्लेखनीय है। यह भी माना गया है कि आचार्य भरत की परम्परा पर आधारित नृत्य का निर्माण हुआ।

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