लोक सेवाएं तथा लोक सेवा आयोग Public Services and Public Service Commission

संसदीय शासन व्यवस्था में प्रशासनिक नीतियों का निर्धारण मंत्रियों द्वारा किया जाता है परंतु देश का प्रशासन लोक सेवा अधिकारियों के एक विशाल समूह द्वारा चलाया जाता है। दूसरे शब्दों में, अधिकारी ही स्थायी कार्यपालिका बनाते हैं जबकि मंत्री राजनीतिक कार्यपालिका बनाते हैं। राजनीतिक कार्यपालिकाविधान मंडल में बहुमत दल द्वारा चुनी जाती है और जैसे ही उस दल का सदन में बहुमत समाप्त हो जाता है, वह अपना पद त्याग देती है। दूसरी ओर, लोक सेवा के अधिकारी अनिवार्य रूप से राजनीति के प्रति तटस्थ रहते हैं तथा प्रशासन में निरंतरता बनाए रखते हैं। यही कारण है कि इन अधिकारियों को स्थायी कार्यपालिका का निर्माता कहा जाता है और इसी प्रकार उन्हें कार्य करने में दक्षता प्राप्त होती है। लोक सेवा अधिकारी सरकारी कामकाज के विशेषज्ञ होते हैं तथा विभिन्न प्रशासनिक विभागों के ब्योरे तथा तथ्यों के संबंध में गहन जानकारी रखते हैं। अतः संसदीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की सुचारू रूप से चलाने के लिए कुशल लोक सेवा अधिकारियों के समूह की आवश्यकता होती है जिनकी भूमिका विधि निर्माण से कार्यान्वयन तक अति महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि लोक सेवा आयोगों को लोकतंत्र का संरक्षक भी कहा जाता है।

लोक सेवा का स्वरूप

भारत में लोक सेवा के स्वरूप को निम्नलिखित शीर्षकों में देखा जा सकता है-

अखिल भारतीय सेवाएं

अखिल भारतीय सेवा अधिनियम 1951 ने मुख्य रूप से दो सेवाओं को प्रारम्भ किया-

  1. भारतीय प्रशासनिक सेवा, तथा;
  2. भारतीय पुलिस सेवा

1963 में अधिनियम में संशोधन करके इसमें तीन और सेवाओं को जोड़ा गया-

  1. भारतीय इंजीनियरिंग सेवा
  2. भारतीय वन सेवा, तथा;
  3. भारतीय चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवा

भारतीय संसद को यह अधिकार है कि वह नई अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना कर सकती है लेकिन इसका आरम्भ अर्थात विध्र्यक प्रस्तुतीकरण राज्यसभा द्वारा होता है और फिर लोकसभा अपनी सहमति देकर नई सेवाओं की स्थापना कर सकती है।


केंद्रीय सेवाएं

अखिल भारतीय सेवाओं के अतिरिक्त भी विभिन्न प्रकार की सेवाएं केंद्रीय स्तर पर होती हैं, जिन्हें केंद्रीय सेवाएं कहा जाता है, इसके अंतर्गत हैं- भारतीय कस्टम एवं एक्साइज सेवा, भारतीय ऑडिट एवं अकाउंट सेवा, आयकर अधिकारी सेवा, भारतीय डाक सेवा, भारतीय प्रतिरक्षा लेखा सेवा आदि।

राज्य सेवाएं

राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा राज्य के अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है। इनमें मुख्य रूप से सम्मिलित सेवाएं हैं, राज्य सिविल सेवा- राज्य न्यायिक सेवा, राज्य पुलिस सेवा, राज्य चिकित्सा सेवा तथा राज्य शिक्षा सेवा आदि ।

लोक सेवकों की नियुक्ति

भृत्य संविधान के अनुसार केंद्र तथा राज्यों के लिए अलग-अलग सेवा आयोगों की स्थापना की गई है। संघ लोक सेवा आयोग अखिल राष्ट्रपति संघ लोक सेवा आयोग की सिफारिश पर संघ लोक सेवा अधिकारियों की नियुक्ति करता है। इसी प्रकार राज्यपाल राज्य लोक सेवा आयोग की सिफारिश पर राज्य सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति करता है।

प्रशिक्षण

विभिन्न स्तरों की प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा चयनित किये गये उम्मीदवारों को गहन प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रमुख हैं- मसूरी में प्रशासनिक अकादमी तथा पुलिस अकादमी, हैदराबाद। अखिल भारतीय सेवाओं के लिए चयनित उम्मीदवारों को सर्वप्रथम मसूरी भेजा जाता है, जहां उन्हें भारतीय संस्कृति, इतिहास, लोक प्रशासन, संविधान, कानून तथा अर्थशास्त्र इत्यादि की वृहत् जानकारी दी जाती है। उसके बाद उन्हें राज्यों में भेजा जाता है। वहां उन्हें विभिन्न प्रकार की व्यावहारिक जानकारियां इत्यादि मिलती हैं। साथ ही वे वहां मजिस्ट्रेट के रूप में भी कार्य करते हैं। इस सबके बाद पुनः वे मसूरी अथवा हैदराबाद पहुंचते हैं। इस प्रकार प्रशिक्षण के बाद उन्हें विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता है।

  • लोक सेवकों को स्थाई कार्यपालिका कहा जाता है, जबकि मंत्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका।
  • भारत में पांच अखिल भारतीय सेवाएं हैं-
  1. भारतीय प्रशासनिक सेवा
  2. भारतीय पुलिस सेवा
  3. भारतीय इंजीनियरिंग सेवा
  4. भारतीय वन सेवा, तथा;
  5. भारतीय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा

पदावधि एवं सेवा शर्ते

संघ लोक सेवा आयोग एवं राज्य लोक सेवा आयोग के अधिकारियों की नियुक्ति क्रमशः राष्ट्रपति तथा राज्यपाल करते हैं। इन्हीं की इच्छापर्यंत इन अधिकारियों की कार्य अवधि होती है। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति तथा राज्यपाल जब चाहे इन अधिकारियों की सेवा से निकाल दें बल्कि इसके लिए संवैधानिक व्यवस्था की गई है।

लोक सेवकों के लिए संवैधानिक रक्षोपाय

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एवं मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उनके पद से संविधान के क्रमशः अनुच्छेदों- 124, 148, 218 एवं 324 में उल्लिखित प्रक्रिया द्वारा ही हटाया जा सकता है। ये पद इस साधारण नियम के अपवाद हैं कि समस्त सरकारी अधिकारी राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य समस्त लोक सेवक, यथास्थिति, राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं किंतु लोक सेवको की पदावधि की सुनिश्चितता बनाए रखने हेतु संविधान के अंतर्गत निम्नलिखित दो प्रक्रियात्मक रक्षोपाय किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि, ये रक्षोपाय सैन्य कर्मचारियों से भिन्न हैं; ये हैं-

  1. किसी भी लोक सेवक को उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी से निम्न स्तर के अधिकारी द्वारा पद से नहीं हटाया जाएगा [अनुच्छेद-311(1)]। इस प्रावधान का उद्देश्य लोक सेवकों को कनिष्ठ स्तर के अधिकारियों की मनमानी से बचाना है।
  2. किसी भी लोक सेवक की पद से हटाने अथवा उसे पदावनत किए जाने सम्बन्धी कोई आदेश तभी प्रेषित किया जा सकेगा जब कि उसके विरुद्ध आरोपों के सम्बन्ध में उसे सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया गया हो। उल्लेखनीय है कि 1976 से पूर्व यह अधिकार दी चरणों में प्रदान किया जाता था-
  • आरोपों की जांच के दौरान, तथा;
  • जांच समाप्त हो जाने के पश्चात् जब कर्मचारी को आरोप-सिद्ध ठहराया जाए तब उसके पश्चात् प्रस्तावित शास्ति के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के दौरान (अर्थात् पद से हटाने, पदावनत करने अथवा निंदा के विरुद्ध)।

1976 के 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावित शास्ति के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के कर्मचारी के अधिकार का लोप कर दिया गया है; किंतु, यह रक्षोपाय अभी भी विद्यमान है कि जांच के प्रथम चरण में दिए गए साक्ष्यों के आधार पर ही प्रस्तावित शास्ति का अधिरोपण किया जा सकेगा।

संविधान के अनुच्छेद-311 में यह भी प्रावधान है कि यदि सम्बद्ध अभियुक्त को फौजदारी सजा सुनाई जा चुकी हो, किंतु राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल इस बात से संतुष्ट हो कि सम्बद्ध आरोप की जांच कराना राष्ट्रीय हित में नहीं है अथवा जांच अधिकारी इस तथ्य की लिखित रूप में पुष्टि करता है कि जांच क्यों सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में जांच की प्रक्रिया को टाल दिया जाता है।

लोक सेवा अधिकारियों के उत्तरदायित्व

लोक सेवा अधिकारी विशेषाधिकार प्राप्त अधिकारी होते हैं किन्तु उन्हें अनुशासन तथा कानून के प्रति निष्ठावान होना पड़ता है। साथ ही उन्हें अपनी कार्यवाही में निष्पक्ष रहना पड़ता है। भय, मोह, लोभ, शत्रुता एवं मित्रता से लोक सेवा अधिकारियों को दूर रहना पड़ता है अन्यथा उनकी निष्पक्षता एवं निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है।

लोक सेवा के स्वरूप के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए इस सेवाओं का उपयुक्त होना कितना आवश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय प्रशासनिक सेवा में कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया गया बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा तथा भारतीय पुलिस सेवा को पूर्व की स्थिति में बरकरार रखा गया है। यही कारण था कि अखिल भारतीय सेवाओं को संघ-सूची की सातवीं अनुसूची में शामिल करना पड़ा और राज्यसभा को यह अधिकार दिया गया कि यदि वह उचित समझे तो दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर भविष्य में नयी अखिल भारतीय सेवाओं को गठित कर सकती है।

लोक सेवकों हेतु केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण

1985 में संघीय संसद ने एक अधिनियम पारित करके 2 अक्टूबर, 1985 को केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण की स्थापना की। यह अधिकरण संघ के क्रिया-कलाप से सम्बद्ध लोक सेवाओं एवं पदों पर नियुक्त व्यक्तियों की भर्ती एवं सेवा शर्तों आदि से सम्बन्धित विवादों एवं परिवादों का न्याय-निर्णयन करेगा। निम्नलिखित की इस अधिकरण के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा है-

  1. सैन्य बलों के सदस्य
  2. सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के अधिकारी एवं सेवक,
  3. संसद अथवा किसी राज्य अथवा संघ राज्य क्षेत्र के विधानमण्डल के सचिवालय के कर्मचारी।

उल्लिखित प्रवर्गों को छोड़कर संघ का कोई भी लोक सेवक, जो नियुक्ति, हटाए जाने अथवा पंक्ति में पदावनत किए जाने अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य विषय से व्यथित है, अब प्रशासनिक अधिकरण से न्याय प्राप्त कर सकेगा न्यायालय से नहीं। अधिकरण के निर्णयों के विरुद्ध केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती है (अनुच्छेद-32 एवं 136)।

  • लोक सेवक यथास्थिति राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और इन्हीं की इच्छापर्यंत पदासीन रहते हैं।
  • अखिल भारतीय सेवाएं संघ-सूची की सातवीं अनुसूची में सम्मिलित की गई हैं।
  • नई अखिल भारतीय सेवाओं के गठन का अधिकार राज्य सभा को प्रदान किया गया है; किंतु, इसके लिए दो-तिहाई बहुमत (राज्य सभा का) आवश्यक होगा।
  • केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण की स्थापना संसद द्वारा 2 अक्टूबर, 1985 की एक संसदीय अधिनियम के अंतर्गत की गई थी।
  • यह अधिकरण लोक सेवकों की भर्ती एवं सेवा शताँ आदि से सम्बन्धित विवादों का निपटारा करता है।
  • इसके निर्णयों के विरुद्ध केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती है।

 लोक सेवाओं की भर्ती हेतु स्वतंत्र अभिकरण की आवश्यकता

संघ एवं विभिन्न राज्यों के लोक सेवा आयोग लोक सेवाओं में योग्यता को एकमात्र मापदण्ड स्वीकार कर लोकतंत्र के अर्थ एवं व्यवहार को घोषित करते हैं। ये प्रशासन को निष्पक्ष उपकरण प्रदान कर उसे राजनीतिक संस्थाओं के सम्भावित दबावों से बचाते हैं। संक्षेप में, लोक सेवा आयोग की आवश्यकता के प्रमुख कारण हैं-

  1. सेवा सम्बन्धी विषयों के संदर्भ में स्वतंत्र विचार रखने के कारण यह कार्यपालिका की राजनीति एवं प्रशासनिक तंत्र के मध्य आवश्यक संतुलन स्थापित करने में सहायता प्रदान करते हैं।
  2. लोक सेवाओं में नियुक्ति हेतु योग्यतम प्रत्याशियों का चयन करना।
  3. लोक सेवाओं के संदर्भ में सरकार को तकनीकी परामर्श प्रदान करना।
  4. लोक सेवाओं को भाई-भतीजावाद एवं भ्रष्टाचार से दूर रखना।

संघ एवं राज्य लोक सेवा आयोग

आयोग का गठन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-315(1) के अनुसार संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग और प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग होता है। अनुच्छेद-315(2) में यह प्रावधान है कि दो या दो से अधिक राज्य मिलकर एक संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग रख सकते हैं। अनुच्छेद-315(5) का कहना है कि राष्ट्रपति के अनुमोदन से संघ लोक सेवा आयोग भी किसी राज्य के राज्यपाल के अनुरोध पर, राज्य की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है।

आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति

संविधान के अनुच्छेद-316(1) के अनुसार संघ लोक सेवा आयोग तथा  संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। संघ लोक सेवा आयोग में एक अध्यक्ष तथा अन्य सदस्य होते हैं। राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल करता है। अनुच्छेद-316(2) का प्रावधान है कि संघ लोक सेवा आयोग के कम से कम आधे सदस्यों की कम-से-कम 10 वर्षों की सरकारी सेवा का अनुभव होना चाहिए।

पदावधि

संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों का कार्यकाल पद ग्रहण करने की तारीख से 6 वर्ष अथवा 65 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक होता है। राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों का कार्यकाल भी 6 वर्ष के लिए निर्धारित किया गया है, परंतु सेवानिवृत्ति की अधिकतम आयु 62 वर्ष है।

पदमुक्ति

संविधान के अनुच्छेद-317 में आयोग के सदस्यों को पदमुक्त करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। आयोग के सदस्यों को कथित दुराचार के लिए राष्ट्रपति के आदेश द्वारा पदमुक्त किया जा सकता है। संविधान में दुराचार की प्रक्रिया को प्रमाणित करने का प्रावधान उपलब्ध है। दुराचार से संबंधित मामला राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के पास भेजता है। संविधान के अनुच्छेद-145 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय मामले की जांच करके राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट भेजता है और उसी रिपोर्ट के आधार पर सदस्यों को पदमुक्त किया जा सकता है। यदि राष्ट्रपति चाहे तो जांच प्रक्रिया के दौरान सम्बद्ध सदस्य को निलम्बित कर सकता है।

लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अथवा सदस्यों को राष्ट्रपति निम्नलिखित आधारों पर भी पदमुक्त कर सकता है-

  1. यदि वह दिवालिया हो
  2. यदि उसने अपने कार्यकाल के दौरान कोई अन्य संवैधानिक पद ग्रहण कर लिया हो
  3. यदि वह राष्ट्रपति की दृष्टि में मानसिक अथवा शारीरिक दुर्बलता के कारण अपने कर्तव्यों के निर्वाह में असमर्थ रहा हो, तथा
  4. अनुच्छेद-317 के प्रावधानों के अनुसार यदि उस व्यक्ति ने किसी लाभ प्राप्ति हेतु सरकार के निर्देशन में कोई समझौता कर लिया हो।

राज्य लोक सेवा आयोगों के अध्यक्ष या सदस्यों की पदमुक्ति के संदर्भ में भी उपरोक्त प्रावधान ही लागू होते हैं। राज्यपाल, अध्यक्ष या सदस्यों को निलंबित कर सकते हैं। ऐसा तभी सम्भव है जबकि सर्वोच्च न्यायालय की रिपोर्ट राष्ट्रपति के पास भेजी जा चुकी हो।

इसके अतिरिक्त संघ लोक सेवा आयोग या संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अथवा सदस्य राष्ट्रपति को तथा राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अथवा सदस्य राज्यपाल को अपना त्यागपत्र देने पर भी पदमुक्त हो सकते हैं।

वेतन तथा सेवा शर्ते

आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्तों और अन्य सेवा शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है। किसी सदस्य के वेता,, भत्तों एवं सेवा की अन्य शर्तों को सेवा की अवधि के दौरान नहीं बदला जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद-322 के अनुसार संघ लोक सेवा आयोग तथा राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या अन्य सदस्यों के वेतन, भत्ते तथा पेंशन क्रमशः भारत की संचित निधि या राज्य की संचित निधि से दिये जाते हैं। संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की मासिक वेतन मिलता है। राज्य लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों के वेतन विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न हैं। अपनी सेवा अवधि की समाप्ति के बाद भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता है वह केवल संघ लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष या राज्य लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष बन सकता है। संघ लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन कोई नियुक्ति नहीं पा सकता है।

लोक सेवा आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले उपबंध

भारतीय संविधान में लोक सेवा आयोग की कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने के लिए निम्नलिखित प्रावधान किये गए हैं-

  1. आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य को संविधान के अनुसार निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही हटाया जा सकता है।
  2. आयोग के सदस्य की सेवा शर्तों में उसकी नियुक्ति के बाद उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
  3. अनुच्छेद-322 के अनुसार संघ लोक सेवा आयोग भारत की संचित निधि से तथा राज्य लोक सेवा आयोग राज्य की संचित निधि से व्यय करते हैं।
  4. संविधान के अनुच्छेद-397 के अनुसार संघ और राज्यों के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को कुछ अपवादों को छोड़कर पुनः उसी पद या सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है।

सदस्य न रहने पर पदधारण संबंधी प्रतिषेध

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-319 आयोग के सदस्यों द्वारा ऐसे सदस्य न रहने पर पद धारण करने के संबंध में निम्न प्रतिषेध लगाता है:

  1. संघ लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी भी और नियोजन का पात्र नहीं होगा;
  2. किसी राज्य लोक सेवा आयोग का अध्यक्ष संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या अन्य सदस्य के रूप में अथवा किसी अन्य राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किंतु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा;
  3. संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किंतु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा।
  4. किसी राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किंतु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा।

आयोग के कृत्य

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-320 के अनुसार संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों के निम्नलिखित कार्य हैं-

  1. संघ सरकार और राज्य सरकारों में नियुक्ति के लिए परीक्षा की योजना बनाना।
  2. राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल द्वारा दिये गये किसी विषय पर परामर्श देना।
  3. संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा दिये गये अतिरिक्त कार्यो को करना जो कि संघ तथा राज्य लोक सेवाओं से सम्बद्ध हों (अनुच्छेद-321)।
  4. संविधान के अनुच्छेद-323 के अनुसार राष्ट्रपति या राज्यपाल को प्रतिवर्ष क्रमशः संघ या राज्य के लोक सेवा आयोग द्वारा किए गए कायाँ की रिपोर्ट देना।
  5. अनुच्छेद-320(2) के अनुसार यदि दो या अधिक राज्य, संघ लोक सेवा आयोग को संयुक्त भर्ती के लिए आग्रह करें, तो राज्यों को इस प्रकार की योजनाएं बनाने में सहायता करना।

संघ तथा राज्य सरकारों को निम्नलिखित मामलों पर आयोग के साथ परामर्श करना अपेक्षित है-

  1. लोक सेवाओं में भर्ती के तरीकों के बारे में सभी मामलों पर
  2. लोक सेवाओं में नियुक्ति और पदों के लिए अपनाये जाने वाले सिद्धांतों पर और एक सेवा से दूसरे में स्थानांतरण और पदोन्नति के मामलों में
  3. अनुशासनात्मक मामलों में
  4. कानूनी खचों में
  5. शासकीय सेवा में रहते हुए घायल हो जाने के कारण पेंशन देने के मामलों में। 
  • अनुच्छेद-815(1) के अंतर्गत संघ हेतु एक संघ लोक सेवा आयोग तथा प्रत्येक राज्य हेतु एक-एक लोक सेवा आयोग की व्यवस्था की गई है।
  • आयोग के सदस्यों के वेतन, भत्तों एवं अन्य सेवा शर्तों का निर्धारण राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है।

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