भारत की प्रमुख जनजातियाँ Principal Tribes Of India

नगा Nagas

नगा जनजाति का मुख्य निवास नगा पहाड़ियों (Naga Hills) का प्रदेश नगालैण्ड है। नगालैण्ड के बाहर पटकोई पहाड़ियों, मणिपुर, मिजोरम, असम और अरुणाचल प्रदेश में भी नगा जाति के लोग रहते हैं। टोलेमी के अनुसार नगा का अर्थ नंगे (Naked) रहने वाले व्यक्तियों से। डॉ. वेरियर इल्विन का विचार है कि नगा शब्द की उत्पत्ति नॉक या लोग (Nok or people ) से हुई है। नगा लोगों की उत्पत्ति के बारे में विवाद है, परन्तु यह सर्वमान्य है कि इनका सम्बन्ध इण्डो-मंगोलॉयड प्रजाति से है। नगा की उपजातियों में रंगपण, कोन्याक, रेंगमा, सेमा, अंगामी, लोहता, फोग, , सन्थम, थिम्स्तसुंगर, कचा, काबुई, तेखुल, काल्पोकेंगु आदि प्रमुख हैं। इनमें आओ सबसे उच्च वर्ग माना जाता है।

निवास क्षेत्र- नगा जाति नगालैण्ड में कोहिमा, मोकोकयुंग और तुएनसाँग जिलों तथा मणिपुर राज्य में पायी जाती है। नगा पर्वतों पर इनका सबसे अधिक जमाव पाया जाता हैं।

वातावरण की दशाएँ- सम्पूर्ण नगा क्षेत्र पहाड़ी है (जिसकी औसत ऊँचाई 2,000 मीटर है) नगा पहाड़ियाँ दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पूर्व में फैली हुई हैं। इनसे अनेक नदियाँ निकल कर ब्रह्मपुत्र में मिलती हैं। यहाँ वर्षा का औसत 200 से 250 सेण्टीमीटर का है। अधिक वर्षा के कारण यहाँ पर सघन वन क्षेत्र पाए जाते हैं, जिनमें साल, टीक, बाँस, बेंत, जैकफूट, आम, बलूत और चीड़ के वृक्ष पाए जाते हैं। निचले भागों में आचर्ड, काई, अनेक प्रकार की लताएँ और रोडोडेनडस के पौधे अधिकता से पाए जाते हैं। इन वनों में अनेक प्रकार के जंगली फल, केले, आम, सुपारी, अंजीर, नारंगी, रैस्पवरी, स्ट्रॉबैरी फल भी बहुतायत से मिलते हैं।

जीव-जन्तु- वनों में जंगली हाथी, जंगली भैसे, सूअर, , तेंदुए, चीते, मिथुन वैल, काला गिबन एवं अनेक प्रकार के वन्दर, हिरण, , भेड़िये और लकड़बग्घे पाए जाते हैं। अनेक प्रकार के चूहे, गिलहरियाँ, हार्नबिल चिड़ियाँ, चीलें, गिद्ध, साँप, आदि भी प्रचुरता से मिलते हैं। यहाँ के निवासी इनमें से अधिकांश का शिकार करते हैं।

शारीरिक गठन- इनकी चमड़ी का रंग हल्के पीले से गहरा भूरा, चेहरा ललाई लिए हुए, बाल काले, धुंघराले, सीधे तथा लहरदार, आँखें गहरी भूरी, गाल की हड्डी उभरी हुई, साधारणतः मोटे और पतले, सिर चौड़े से मध्यम आकार का, नाक चौड़ी से संकरी, नथुने चौड़े, शरीर का गठन सुन्दर तथा कद मध्यम से लम्बा होता है।

बस्तियाँ और घर- नगा लोग अपने गाँव पहाड़ों के ऊपर और ढालों पर बनाते हैं। गाँव की औसत जनसंख्या 650 होती है। प्रत्येक गाँव में 200 के लगभग मकान या झोपड़ियाँ होती हैं, जिनकी स्थिति सुविधानुसार रखी जाती है। प्रत्येक गाँव में एक या अधिक अविवाहितों के शयनागार या मोरंग होते हैं। यह मरंग एक प्रकार के क्लब-घर होते हैं जिनमें गांव के अविवाहित युवक रहते हैं और समय-समय पर बाहरी आक्रमणों के प्रति गाँव के लोगों को ढोल बजाकर सूचित करते रहते हैं।


गाँव में ही एक बड़े वृक्ष के नीचे कुछ गोलमटोल पत्थर रखे जाते हैं। यह शान्ति एवं समृद्धि के प्रतीक देवता माने जाते हैं।

गाँव एवं मकान प्रायः दो बातों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं-

  1. घर और गाँव के निकट खेती योग्य भूमि उपलब्ध हो
  2.  निकट ही जल की स्थायी प्राप्ति का स्रोत हो।

प्रायः कृषि योग्य भूमि से आकर्षित होकर घर बना लिए जाते हैं और जल दूरी से भी लाना पड़ता है। शुष्क ऋतु में ये लोग नदियों की घाटियों में रहते हैं।

अधिकांश मकान दो कमरे वाले मध्यम आकार के अथवा छत वाले होते हैं। जिनमें आगे बड़ा पीछे छोटा द्वार होता है। मकान के लिए लकड़ी, बाँस, टहनियाँ व मिट्टी का प्रयोग एवं छत पर लठ्ठीं, बाँसों एवं घास का उपयोग होता है।

वस्त्राभूषण- विभिन्न वर्गों के नगाओं में विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने जाते हैं। भीतरी भागों में आज भी नगा लोग प्राय: नंगे ही रहते हैं। 6-7 वर्ष तक के लड़के तो नंगे ही रहते हैं। छोटी लड़कियाँ सूती लंगोटी किस्म का कपड़ा लपेट लेती हैं। सामान्यतः नगा लोग कम वस्त्र पहनते हैं। आओ पुरुष लगभग 1.20 मीटर लम्वा और 25 सेण्टीमीटर चौड़ा सफेद या नीले रंग का एक कपड़ा कमर पर लटका लेते हैं। स्त्रियाँ 1 मीटर से 1½  मीटर लम्बा तथा ½ से ¾ मीटर चौड़ा एक घाघरा सा पहनती हैं। शरीर के ऊपरी भाग को एक अन्य वस्त्र द्वारा बगल तक ढका रखा जाता है। पुरुष सिर पर रीछ की खाल की टोपियाँ, बकरियों के बाल के टोपे अथवा हार्नबिल के पंख, हाथी दाँत और पीतल के भुजबन्द पहनते हैं। स्त्रियाँ पीतल के गहने, कौड़ियों की मालाएँ तथा बेंत की करधनी और चूड़ियाँ पहनती हैं तथा शरीर पर गोदना गुदवाती हैं।

भोजन- नगाओं का मुख्य भोजन चावल, मछलियाँ, सब्जी हैं। गाय, भैस, मेढक और कछुए का माँस बड़ा स्वादिष्ट माना जाता है। चावल की बनी शराब का खूब उपयोग किया जाता है।

व्यवसाय- आओ नगाओं का मुख्य व्यवसाय खेती करना है। पहले यहाँ खेती झूम प्रणाली द्वारा की जाती थी। अब प्रायः स्थायी खेती की जाती है। पहाड़ी ढालों पर भी सीढ़ी के आकार के खेतों में कृषि की जाती है। खेत छोटे और नियमित रूप से बोए जाते हैं। धान, कपास, मक्का, मिर्च, अदरक, तिल, कद्दू. ककड़ी, शकरकन्द, आलू, तम्बाकू, पान, लहसुन, सुपारी और नारंगियाँ पैदा की जाती हैं। सूअर, बकरियाँ तथा मुर्गियाँ भी पाली जाती हैं, कृषि व पशुपालन के साथसाथ जंगली पशुओं का शिकार, विविध शिल्पों से कुटीर उद्योग, (लुहारी, सुथारी, जुलाहे का काम) एवं बाँस, मिट्टी व खाल की वस्तुएँ बनाना मुख्य है।

सामाजिक व्यवस्था- परिवार सामाजिक इकाई का सबसे छोटा रूप होता है, जिसमें स्त्री-पुरुष एवं उनके अविवाहित बच्चे सम्मिलित होते हैं। विवाह होते ही प्रत्येक लड़का अलग हो जाता है, अतः परिवार की जाता है।

धर्म आदि- आओ नगाओं का विश्वास है कि संसार में अनेक आत्माएँ होती हैं जो सदा बुरे कर्म ही करती हैं। ये आत्माएँ मागों पर, खेतों में विचरण करती हैं और पेड़ों, नदियों, पहाड़ियों पर भूतप्रेतों के रूप में निवास करती हैं। इन्हीं के कारण वाढ़े, दुर्भिक्ष और तूफान आते हैं, फसलें नष्ट होती हैं, बीमारियाँ आती हैं तथा स्त्रियों में बाँझपन आता है। इन्हीं से पशु मर जाते हैं और शिकार की कमी हो जाती है। अतः ऐसी आत्माओं की तुष्टि के लिए ये मुर्गियाँ, सूअर, कुते, आदि की बलि देते हैं तथा माँस, मदिरा, चावल और सूखी हुई मछलियाँ भेंट चढ़ाते हैं।

नगाओं द्वारा खोपड़ी का शिकार- आरम्भ से ही नगा युद्धप्रिय जाति रही है, इनका सारा जीवन ही युद्ध पर आधारित है। मार डालना या मारा जाना जीवन की सामान्य घटना मानी जाती है। अनेक भागों में मनुष्य के सिर काटने की प्रथा प्रचलित रही है। अब यह प्रथा समाप्त हो गई है।

नगा लोग स्वभाव से लड़ाकू होते हुए भी सरल और दिल के सच्चे होते हैं। वे सहनशील होते हैं, किन्तु शत्रुता हो जाने पर जान के पीछे भी पड़ जाते हैं और एक बार मित्रता हो जाने पर पिछली शत्रुता भुलाकर सदा के लिए हितैषी और मित्र बन जाते हैं।

थारू Tharus

निवास क्षेत्र- थारू जाति का आवास क्षेत्र उत्तर प्रदेश व उत्तरांचल के तराई प्रदेश के पश्चिमी भाग में नैनीताल जिले के दक्षिण-पूर्व से लेकर पूर्व में गोरखपुर और नेपाल की सीमा के सहारे है। थारू जनजाति का सबसे अधिक जमाव उत्तरांचल राज्य के नैनीताल जिले में है। इनमें से मुख्य बस्तियाँ, किलपुरी, खातीमाता विलहेरी नानकमाता है। इनकी वर्तमान में संख्या 28 हजार के आसपास है। प्रान्तीय सरकार ने इन्हें 1961 जनजाति का दर्जा प्रदान किया था।

थारू शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है। अवध गजेटियर के अनुसार थारू का शाब्दिक अर्थ ठहरे(Tahre) है, नोल्स के अनुसार थारू लोगों में अपहरण विवाह की प्रथा होने से इन्हें थारू कहा जाने लगा। कुछ की मान्यता है कि जब राजपूत और मुसलमानों के बीच युद्ध हुआ तो ये लोग हस्तिनापुर से डरकर या थरथराते हुए यहाँ आकर रुक गये, अतः इन्हें थथराना (Thatharana) कहा गया। जंगल में रहने वाली होने से भी यह जाति थारू कहलाती है। कुछ विद्वान थार मरुस्थल से आने के कारण थारू शब्द की उत्पत्ति मानते हैं।

थारू जनजाति जाय मल फतेहसिंह और तरनसिंह को अपना पूर्वज मानती हैं।थारू स्त्रियाँ अपने को उच्च कुल की मानती हैं और इन्हें अब भी रानी कहा जाता है। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि यारूओं में स्त्रियों का अपने पतियों पर प्रभुत्व रहता है। ये लोग अत्यन्त लम्बे समय से तराई में रहते आये हैं।

शारीरिक लक्षण- नेसफील्ड के मतानुसार थारू अन्य भारतीय लोगों से मिलते-जुलते हैं, भले ही उनमें अन्तर्विवाह के फलस्वरूप मिश्रित लक्षण पाये जाते हों। मजूमदार का मत है कि इनकी शारीरिक रचना मंगोलॉइड प्रजाति से मिलतीजुलती है, जैसे तिरछे नेत्र, गाल की हड्डियाँ उभरी हुई, रंग भूरा या भूरा-पीला, शरीर और चेहरे पर बहुत कम और सीधे बाल, मध्यम और सीधे आकार की नाक, आदि। जबकि अन्य शारीरिक लक्षणों में ये नेपालियों से मिलते-जुलते हैं क्योंकि कई शताब्दियों से इनके वैवाहिक सम्बन्ध नेपाल के दक्षिणी क्षेत्रों से रहे हैं। थारू स्त्रियों का रंग अधिक साफ होता है। इनका चेहरा कुछ लम्वाकार, अथवा गोल, स्तन गोल, छठे हुए एवं नुकीले, पिंडलियाँ अधिक विकसित और होंठ पतले होते हैं, किन्तु सिर कुछ लम्बा होता है और आँखें काले रंग की। वास्तविकता यह है कि थारूओं में मंगोलॉइड और भारतीय जातियाँ दोनों के ही मिश्रित शारीरिक लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। थारुओं (पुरुषों) का औसत कद आज भी छोटा होता है।

वातावरण- थारूओं का तराई क्षेत्र लगभग 600 किमी. लम्बा और 25 किमी. चौड़ा तथा 15,600 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला निम्न दलदली भाग है जिसमें यत्र-तत्र ऊँचे-नीचे भाग मिलते हैं जिनमें होकर मुख्य नदियाँ गंडक, शारदा, घाघरा, गोमती और रामगंगा हैं। इन मागों में असमान वर्षा और सदा परिवर्तित होने वाले ढालों के कारण सम्पूर्ण क्षेत्र बाढ़ग्रस्त और दलदली रहता है, अतः यहाँ की जलवायु अस्वास्थ्यकर रहती है। तापमान का औसत शीतकाल में 12सेण्टीग्रेड से ग्रीष्मकाल में 15सेण्टीग्रेड तक रहता है। वर्ष के 6 महीने तेज गर्मी पड़ती है। वर्षा जून से सितम्बर के बीच 125 से 150 सेण्टीमीटर के बीच हो जाती है। अधिक ऊँचे तापमान और आर्द्रता के कारण इन भागों में मलेरिया का प्रकोप अधिक होता है। अस्वास्थ्यकर  जलवायु के कारण ही थारुओं के निवास क्षेत्र को मृत्यु का देश (Mar or the land of Death) कहा जाता है।।

इस क्षेत्र में मांसाहारी तथा जंगली पशु अधिक मिलते हैं- चीते, , भालू, जंगली हाथी, नीलगाय तथा साँड़, अनेक प्रकार के भेड़िये, सियार, हिरन, एण्टीलोप, चीतल, अजगर तथा बन्दर मिलते हैं। वृक्षों पर अनेक प्रकार की चिड़ियाँ, मोर, बाज तथा नदियों में मछलियाँ पायी जाती हैं।

बस्तियाँ एवं घर-  थारू बस्ती का आकार पुरवे की भाँति होता है जिसमें 20 से 30 घर होते हैं। ये पुरवे बिखरे हुए तथा एक दूसरे से 3 से 4 किलोमीटर के अन्तर पर होते हैं। भूमि का अपेक्षाकृत ऊँचा होना, मीठे जल की प्राप्ति निकटवर्ती क्षेत्रों में हो, जंगली पशुओं और बीमारियों से सुरक्षा मिल सके तथा भूमि उपजाऊ हो। यदि इनमें से किसी भी तथ्य का अभाव होने लगे तो ये लोग अपने गाँवों को त्याग देते हैं और अन्यत्र चले जाते हैं। इन बस्तियों में कोई धार्मिक स्थान नहीं होता। केवल एक ऊँचा चबूतरा बना होता है जिस पर ग्रामीण देवी की प्रतिमास्वरूप कोई चिन्ह रख दिया जाता है। इनके यहाँ मेहमानों के लिए ठहरने का स्थान और अनाज के अलग कोठार गृह होते हैं तथा सामुदायिक गृह नहीं होते।

थारू लोगों के घर मिट्टी, घास और लकड़ी की सहायता से बनाये जाते हैं। घरों की दीवारें बजरी और खड़िया से बनायी जाती हैं और छतें और छप्पर और खार घासों से 30 सेंटीमीटर मोटे बनाये जाते हैं। मकानों की छतें शंक्वाकार बनायी जाती हैं। बाँस, लट्टे, चौड़ी पतियों को मिट्टी से सान कर दीवारों पर लगा दिया जाता है। मकानों का मुंह प्रायः पूर्व की ओर रखा जाता है। दीवारों पर थारू स्त्रियों द्वारा खड़िया से हाथी, घोड़े तथा अन्य, चित्रादि बनाये जाते हैं। फर्श को लीपा जाता है तथा त्योहारों के अवसर पर माण्डने माण्डे जाते हैं। सामान्यतः एक मकान के दो या चार (खण्ड) किये जाते हैं। इनके बीच में कोई पर्दा नहीं होता। केवल मिट्टी की बनी अनाज भरने की कुठिया या कुथरा दीवार का काम करती है। भीतरी भाग बर्तन रखने और खाना बनाने के काम आता है। बाहरी कमरे के पिछले भाग में बेटा-बहू के सोने का स्थान होता है। छत से डोरियाँ लटकाकर मछली पकड़ने के जाल, खाली घड़े, कृषि के औजार एवं सामान रखा जाता है। प्रत्येक घर के सामने एक छोटा मन्दिर होता है जिसमें चबूतरे पर दुर्गा, ठाकुर, आदि देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। घर के एक तरफ पशुओं के लिए बाड़ा या सार और साग-सब्जी पैदा करने के लिए बाड़ी बनायी जाती है। अनेक समृद्ध थारुओं के मकान पक्के होते हैं जिन्हें बंगला कहा जाता है। थारू लोगों के घर बड़े साफसुथरे होते हैं। दिन में दो-तीन बार इनकी सफाई की जाती है।

थारुओं का घरेलू सामान कम होता है। प्रायः इसमें मिट्टी के बर्तन, अनाज भरने की छोटी-बड़ी कोठियाँ, मिट्टी की तिजोरी, आटा पीसने की चक्की, पत्थर का चूल्हा, धान कूटने का यन्त्र, हुक्का, कुछ खाटें, चटाइयाँ, पंखे और टोकरियाँ तथा शिकार करने और मछलियाँ पकड़ने तथा खेती के औजार होते हैं। थारू लोग नाचगाने के शौकीन होते हैं, अतः इनके पास मृदंग, ढोल, ढोलक, , तबला और हारमोनियम प्रभृति वाद्य यन्त्र होते हैं।

भोजन- तराई क्षेत्र के थारुओं का मुख्य भोजन चावल होता है क्योंकि यही यहाँ अधिक पैदा किया जाता है। चावल को भूनकर या उबालकर खाते हैं। मक्का की रोटी, मूली, गाजर की सब्जी, मछली, दाल, दूध, दही भी खाये जाते हैं। मछली आलू तथा चावल के बने जैंड (Gand) को बड़ी रुचि से खाते हैं। यह स्थानीय जंगली पशुओं का माँस भी खाते हैं। ये दिन में तीन बार भोजन करते हैं जिसे प्रातः कलेवा, दोपहर में मिंगी और सायंकाल बेरी कहते हैं। चावल की शराब इनका मुख्य पेय है।

वस्त्राभूषण- कुछ समय पूर्व तक थारू पुरुष एक लंगोटी से ही काम चला लेते थे। अब थारू पुरुष घुटनों तक धोती पहनते हैं। कभी-कभी घास का बना टोप भी काम में ले लेते हैं। अब अनेक थारू देशी जूते पहनने लगे हैं। पुरुष सिर पर बड़ेबड़े बाल रखते हैं।

थारू स्त्रियाँ प्रायः लहंगा पहनती हैं, जो बहुधा काला या गहरे लाल रंग का कसीदेदार होता है। यह 6 से 14 मीटर चौड़ा होता है, यह कमर से घुटनों तक जाता है। ऊपरी शरीर पर अंगिया या चोली पहनी जाती है और सिर पर काली ओढ़नी या चद्दर डाली जाती है। पुरुष संकरी मोहरी का पाजामा पहनते हैं। पुरुषों की अपेक्षा थारू स्त्रियाँ अधिक साफसुथरी और चटकमटक से रहती हैं तथा बनाव श्रृंगार का भी इन्हें चाव होता है। ये अपने पास एक छोटा काँच और कंघी रखती हैं जिसमें देखदेख कर ऑखों के सुरमे और ललाट की बिन्दी को ठीक करती रहती हैं। स्त्रियाँ बालों का जूड़ा न बनाकर कमर पर चोटी के रूप में लटकाती हैं।

स्त्रियों को आभूषण बड़े प्रिय होते हैं। ये पीतल, चाँदी, अथवा कॉसे के बने होते हैं। स्त्रियाँ हाथों में चाँदी का छल्ला, अंगूठियाँ, मुद्रिया, कलाई में पहुंची. बैसलेट, कड़ा, पछेली, छात्री, भुजाओं पर भुजबन्द या बाजूवन्द, गले में चाँदी के सिक्कों का बना कठला या हार, हंसुली, कानों में झुमका, वालियाँ, नाक में , सिर पर चाँदी के तारों से बनाया गया पूंघट, वालों में चाँदी की चेन, पाँवों में धुंघरू वाले कड़े या पाजेव पहनती हैं। पुरुष अपनी भुजाओं पर अपना नाम और स्त्रियाँ अपने पतियों का नाम अथवा हाथों पर फूलों की डिजायन, पतियाँ, हनुमान या शिव, आदि की आकृतियाँ बनवाती हैं।

मुख्य व्यवसाय- थारू लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि करना है। खरीफ की फसल आषाढ़ में बोयी जाती है और क्वार में काट ली जाती है तथा रवी की फसल कार्तिक में बोकर फाल्गुन में काटते हैं। कृषि के अन्तर्गत चावल, गेहूं, दालें, चना, मक्का, आलू, प्याज, सब्जियाँ, रतालू, , आदि पैदा की जाती हैं। यह नदियों में मछली पकड़ने का कार्य करते हैं। मछलियाँ अधिकतर जालों या बॉस की टीकरियों से पकड़ी जाती हैं। शिकार भी अवकाश के समय ही किया जाता है। सूअर, हिरन, खरगोश और पक्षियों का शिकार किया जाता है। वनों से जड़ी-बूटियाँ, जंगली पतियाँ (रेवा और पपारी) तथा जंगली फल (खागसा, पिंडारे, विरानी, वनमेथी, फालसा, आम) इकट्टी की जाती हैं। इनको खाने के काम में लाते हैं। फुरसत के समय ही टोकरियाँ बनाने, मिट्टी के बरतन बनाने, रस्सी बनाने, जाल, चटाइयाँ, वाद्ययन्त्र, मछली पकड़ने के फन्दे, आदि बनाने का कार्य किया जाता है।

थारू लोगों में श्रम विभाजन प्रचलित है। कृषि के लिए फावड़ा चलाना, हल चलाना, भूमि को बराबर करना, शिकार करना, फसलों की रखवाली करना, घरों का निर्माण तथा उनकी मरम्मत पुरुषों के कार्य होते हैं। घरेलू काम करना, सफाई करना, कुओं से पानी लाना, अनाज कूटना, भोजन बनाना, खेतों पर भोजन पहुंचाना, बरतन साफ करना, टोकरियाँ और मिट्टी के बर्तन बनाना, धान की मड़ाई और निकाई करना स्त्रियों के कार्य हैं। सामाजिक व्यवस्था- थारू जाति दो विशेष वर्गों (Moieties) में बंटी है- उच्च वर्ग और निम्न वर्ग ये लोग अपने ही वर्ग में विवाह कर सकते हैं। इनके गोत्र किसी पूर्वज या किसी सन्त पुरुष के नाम से चलता है। गोत्र में विवाह करना निषेध माना गया है।

ग्राम्य समुदाय का प्रशासन एक मुखिया द्वारा होता है, जिसे पधान (Padhan) कहते हैं। इसका कार्य गाँव का प्रशासन, सामाजिक एवं धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न कराना, ग्रामीणों से लगान वसूल करना तथा दैवी और अन्य आपदाओं की सूचनाएँ देना, आदि है। इसका चुनाव न होकर वंश-दर वंश होता है। पधान के स्थान पर काम करने के लिए सरदारकर (sarwarkar); अन्य छोटे कार्यों को सम्पादित करने के लिए चपरासी या कोतवार (kotwar) तथा सामाजिक और धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए भरारा (Bharara) होता है।

थारू जाति में मातृत्व प्रधान समाज होता है। स्त्रियाँ ही घर की सम्पति की मालिक होती हैं : घर, पशु तथा खेतों की पैदावार, उनके आभूषण स्वयं की अर्जित आय, आदि की। ये अपने पति की आय का भी इच्छानुसार उपयोग कर सकती हैं, किन्तु तभी तक जब तक वे उनके साथ उसी घर में रहते हैं।

थारू समाज में संयुक्त तथा वैयक्तिक दोनों ही प्रकार के परिवार पाये जाते हैं। संयुक्त परिवार में माता-पिता के अतिरिक्त उनके विवाहित लड़के और उनके लड़के-लड़कियाँ रहते हैं जो एक ही स्थान पर खाना खाते हैं। एकाकी परिवार में स्त्रीपुरुष अथवा उनके बच्चे रहते हैं।

विवाह- थारू समाज में विवाह जीवन का एक अंग माना जाता है तथा विवाह प्रथा पर्याप्त रूप से विकसित पायी जाती है। अविवाहित पुरुष की समाज में कोई प्रतिष्ठा, सम्मान नहीं होता। इनमें एक विवाह का नियम है, अनेक विवाह भी किये जा सकते हैं। सामान्यत: ऐसे विवाह कम होते हैं। विधवा अथवा तलाक शुदा स्त्री के परिवार वालों द्वारा पुनर्विवाह के लिए अधिक वधूमूल्य की माँग और थारू ख्रियों की स्वतन्त्र रहने की इच्छा कि वे अपनी सौत को बर्दाश्त नहीं कर सकती, अतः एक विवाह होते हैं।

विवाह करते समय इन बातों पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि-

  1. दोनों परिवारों की आर्थिक अवस्था अच्छी हो।
  2. परिवारों की समाज में प्रतिष्ठा और कोई सदस्य किसी दूसरी जाति की स्त्री के साथ भागा नहीं हो अथवा उससे शादी नहीं की हो।
  3. परिवार के किसी सदस्य को कोढ़ नहीं हो।
  4. परिवार पर किसी बुरी आत्मा का प्रभाव नहीं हो।
  5. लड़का और लड़की शारीरिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ हैं।

विवाह में चार रस्में पूरी की जाती हैं-

  1. दिखनौरी , जब पक्ष के लोग मझापटिया के साथ वर के गाँव जाकर वर पक्ष से बातचीत करते हैं तो इसका दिखनौरी कहते हैं।
  2. अपना पराया (Apana-paraya) , जिसमें सगाई के बाद लड़के, पिता एवं अन्य लड़की के घर कुछ मेंट (मछलियाँ, गुड़ की भेली, मिठाई, वस्त्र, आदि लेकर जाते हैं।
  3. बादकही (Badkahi), इस दिन शादी का दिन तय किया जाता है, जो सामान्यतः माघ महीने में रविवार या वृहस्पतिवार को रखा जाता है। तय हो जाने पर लड़के वाले की ओर से सुपारी अपने रिश्तेदारों को निमन्त्रण के रूप में भेजी जाती है।
  4. विवाह शुभ मुहूर्त में पहले वरवधू को घी और हल्दी के जल से नहलाकर नये कपड़े पहनाये जाते हैं। विवाह हिन्दुओं की रीति के अनुसार होता है। सात फेरों के बाद एक रात के लिए लड़की को वर के घर ले जाया जाता है, जहाँ से दूसरे दिन वह पाने घर लौट आती है| धर्म- थारू लोग प्रेतात्माओं की पूजा करते हैं। अब ये हिन्दुओं के देवी देवताओं को भी पूजने लगे हैं। कालिका (दुर्गा, भैरव (महादेव), नारायण (सत्यनारायण), आदि देवताओं के प्रति अधिक श्रद्धा होती है। घरों में इनकी पूजा की जाती है।

इनके धर्म का मूल आधार भूतप्रेत एवं मृतकों की आत्माएँ होती हैं, जिनसे ये डरते हैं। दो प्रकार की आत्माएँ मानी गयी हैं- उपकार करने वाली पछौवन (Pachhauwan) और हानि करने वाली खड्गा भूत (Khadga Bhut)। इनकी परिवार के देवताओं के रूप में पूजा की जाती है। कई प्रकार की अन्य आत्माओं की भी पूजा की जाती है जैसे पर्वतीय जिसके अप्रसन्न होने पर बीमारियों का प्रकोप होता है। इसके लिए हवन किया जाता है। पुन्यगिरि बड़ी दुष्ट आत्मा होती है, वनस्पति आत्मा पेड़ों में रहती है, अरिमाल या भारामाल जो पत्थरों में निवास करती है, गाँव की देवी भूमसेन जो पीपल या नीम के नीचे रहती है। दुर्गा, काली, सीतला, ज्वाला, पार्वती, हल्का और पूर्वा ईसी के रूप हैं। इनकी समय-समय पर पूजा की जाती है। बाड़े में पशुओं की रक्षा के लिए करोदेव (या बाड़े की आत्मा), मृतक वीरों की आत्मा, आदि अन्य आत्माओं के अतिरिक्त भूत, पिशाच, , आदि की भी पूजा कर उन्हें प्रसन्न रखा जाता है। मुख्य देवता को ठाकुर (Thakur or supreme Being) कहा जाता है।

थारू लोग ईमानदार, सहृदय, शान्त प्रकृति वाले होते हैं, किन्तु अब मैदानी निवासियों के सम्पर्क से इनमें कुछ बुराइयाँ गयी हैं, जैसे- बालहत्या, आत्महत्या करना, आदि।

होली, दीवाली. जन्माष्टमी पर्वो को ये बड़े आनन्द से मनाते हैं। नाच-गान और शराब पीना तवियत से किया जाता है।

भोटिया या भूटिया

निवासक्षेत्र- भोटिया लोगों का निवास क्षेत्र उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले का उतरपूर्वी भाग है, जिसमें असकोट और दामा तहसीलें सम्मिलित हैं। यह क्षेत्र ऊबड़खाबड़ है। सन्पूर्ण भोटिया क्षेत्र 3,250 मीटर से 4,100 मीटर ऊँचा है, जिसमें कृष्णा, गंगा, धौली, गौरी, दामा और काली नदियाँ वहती हैं।

शारीरिक गठन- भोटिया शब्द की उत्पति भोट से हुई है। भूट प्रदेश से ही इन लोगों का सम्बन्ध रहा है। शारीरिक रचना की दृष्टि से ये लोग मध्यम अथवा छोटे कद के होते हैं। नाक सामान्यतः चौड़ी और चपटी और जड़ों में अधिक धंसी हुई, चेहरा चौड़ा, आँखें बादाम के आकार की, शरीर पर बाल, हृष्टपुष्ट, माँसल देह, चमड़ी का रंग गोरा, पीला और गाल लाल होते हैं।

इस प्रकार इनमें मंगोलियाई प्रजाति का मिश्रण व प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है।

बस्तियाँ और घर- भोटिया लोगों की बस्तियाँ प्राय: नदियों की घाटियों में ही पायी जाती हैं, क्योंकि यहाँ समतल भूमि के कारण आवागमन की सुविधा मिलती है तथा कृषि कार्य के लिए जल और उपजाऊ भूमि मिल जाती है। जलवायु भी ऊपरी भागों की अपेक्षा गरम रहती है, लेकिन नदियों की घाटियाँ भी सामुद्रिक धरातल से 3 या 4 हजार मीटर ऊँची होती हैं। गाँव छोटे, विखरे हुए, देतरतीब एवं देखने में भद्दे होते हैं। सामान्यतः गाँव स्थायी निवास के क्षेत्र नहीं होते, इनमें 2-3 महीनों के लिए भोटिया लोग रहते हैं और उसके बाद अन्यत्र चले जाते हैं। निचली घाटियों में अस्थायी वस्तियाँ हैं जो नदियों की घाटियों में बनायी जाती हैं। शीतकाल में जब बर्फ गिरने लगती है तो ऊपरी भाग से ये लोग घाटियों में बने अस्थायी घरों में रहने चले आते हैं। अधिकांश घर एक मंजिल के तथा 2-3 कमरों के होते हैं। ये पत्थर, मिट्टी, घासफूस से बनाए जाते हैं।

भोजन- भोटिया लोगों का मुख्य भोजन गेहूँ की भूनकर पीसे गए आटे का सतू, जौ तथा महुआ होता है। भेड़ बकरियों से दूध और माँस प्राप्त कर उसे भी खाया जाता है। एक प्रकार का पेय (जो पर्वतीय पतियों को पानी में उवालकर तथा उसमें नमक और घी मिलाकर बनाया जाता है) पिया जाता है। त्योहार पर माँस व शराब का खूब उपयोग किया जाता है।

वस्त्राभूषण- भोटिया लोगों के वस्त्रों में भेड़, बकरी से प्राप्त बालों के ऊनी वस्त्र होते हैं एवं ऊनी पजामा, ऊनी टोपी, कमीज, आदि हैं। पीठ पर नितम्बों तक लम्बा ऊनी लवादा जैसा वस्त्र, कमर पर बाँधा जाता है जो एड़ी तक चला जाता है। स्त्रियाँ अधिकतर तथा विभिन्न डिजायन वाला घाघरा पहनती हैं।

व्यवसाय- प्रतिकूल वातावरण के कारण जीवन-निर्वाह कठिन होता है। कृषि कार्य में ओले, हिमपात, पाला, भू-स्खलन, आदि दैवी-आपदाओं के कारण अनिश्चितता रहती है, जीवनयापन का अन्य साधन होने से ये बहुमुखी व्यवसायकुछ कृषि, कुछ पशुपालन, कुछ कुटीर उद्योग और कुछ व्यापार करते हैं। इनके व्यवसाय स्थायी न होकर गतिशील होते हैं। ये लोग ऊनी वस्त्र बुनने में बहुत प्रवीण होते हैं और शीतकाल में प्रति वर्ष बुने हुए ऊनी वस्त्र लेकर देश के विभिन्न नगरीय भागों में बेचने निकल पड़ते हैं।

भूट क्षेत्र में भूमि के ऊबड़खाबड़ होने, समतल धरातल के अभाव, पहाड़ एवं अनुपजाऊ मिट्टी, अधिक ऊँचाई के कारण शीतकालीन तापमानों का अत्यन्त नीचा होना तथा जल की कमी, आदि के कारण कृषि  सामान्यतया पहाड़ी ढालों पर और नदियों की घाटियों में छोटे-छोटे खेतों में की जाती है। खेती के अन्तर्गत गेहूं, तिव्वती जौ, महुआ, आलू और सरसों पैदा किया जाता है। यहाँ का मुख्य व्यवसाय पशुपालन है, क्योंकि यहाँ मुलायम घास के क्षेत्र पाए जाते हैं, अतः याक, भेड़, बकरियाँ पाली जाती हैं। मौसम के अनुसार पशुपालन क्रिया का स्थानान्तरण होता है। भोटिया लोग जो व्यापारी हैं वे अपने पशुओं के उत्पादन (ऊन, खालें, याक की पूंछ, आदि) के बदले चावल, गेहूं, नमक, मिर्च, शक्कर, तम्बाकू, रंग-बिरंगी मालाएँ, सिगरेट, आभूषण, सूती कपड़े और एल्यूमिनियम के बर्तन खरीदते हैं।

सामाजिक व्यवस्था- भोटिया लोगों में विवाह माता-पिता द्वारा तय किया जाता है। विवाह अधिकतर कार्तिक, माघ और फाल्गुन में या ग्रीष्म ऋतु में किए जाते हैं। शादी बड़े आनन्द-प्रमोद का अवसर होता है, इस अवसर पर स्त्री, पुरुष सुन्दर वस्त्र पहनते हैं, नाचगाना होता है और स्त्री, पुरुष और बच्चे सभी शराव पीते हैं। ये लोग हिन्दुओं के रीति-रिवाज मानते हैं। केवल एक पत्नी प्रथा प्रचलित है। पति की मृत्यु के उपरान्त विधवा को पति की सम्पति पर पूर्ण अधिकार होता है, वह दूसरा विवाह नहीं करती।

इनके स्वभाव एवं कार्यों पर इनके वातावरण का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। ये मितव्ययी, चतुर, साहसी और परिश्रमी होते हैं और एक से अनेक कार्य करने को तैयार रहते हैं। ये सदैव हँसकर रहते हैं और अपनी लम्बी यात्रा की थकान को हँसी और गानों द्वारा दूर करते हैं। ये न केवल अन्धविश्वासी होते हैं तथा भूतप्रेतों के पूजक होते हैं, वरन् इनकी आदतें बड़ी गन्दी होती हैं। पानी से घृणा करते हैं और शायद ही कभी अपने कपड़ों को धोते हों। ये सीधे-सादे, निश्छल एवं धार्मिक प्रवृति के होते हैं। प्रतिकूल वातावरण से इन्हें सदैव संघर्ष करना पड़ता है, अतएव ये न केवल परिश्रमी ही हैं वरन् सहनशील भी हैं।

संथाल Santhals

निवासक्षेत्र- संथाल लोगों का निवास क्षेत्र बड़ा व्यापक है। यह विहार, झारखण्ड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में फैला है। झारखण्ड में ही इनका सबसे अधिक जमाव पाया जाता है, विशेषतः संथाल परगना में छोटा नागपुर पठार का पूर्वी छोर संथाल परगना का सबसे प्रमुख क्षेत्र है। पश्चिम बंगाल में वीरभूम, बाँकुड़ा, माल्दा, मेदिनीपुर और चौबीस परगना जिलों तथा उड़ीसा में मयूरभंज में भी पाए जाते हैं।

वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ- संथाल क्षेत्र 330 मीटर से 660 मीटर ऊँचे हैं, जो पहाड़ियों और सघन वनों से ढके हैं। इनके बीच में अनेक नदियाँ और नाले बहते हैं। शीतकालीन तापमान 24″ सेण्टीग्रेड से ग्रीष्मकालीन तापमान सेण्टीग्रेड तक रहते हैं। वर्षा का औसत 150 सेण्टीमीटर तक होता है। वर्षा अधिकतर जुलाई में होती है। वनों में साल, महुआ, कदम, पीपल, पलास और कुसुम के वृक्ष बहुतायत से मिलते हैं। जंगली जीवों में सुअर, हिरण, बतखें, गीदड़, तेंदुए और चीते पाए जाते हैं।

शारीरिक गठन- शारीरिक दृष्टि से ये छोटे से मध्यम कद के होते हैं। इनका रंग गहरे से भूरा, आँखों की पुतलियाँ सामान्यतः सीघी एवं मध्यम आकार और काले रंग की, ललाट चौड़ा, बाल काले, सीधे और कभीकभी धुंघराले, शरीर पर कम बाल और दाढ़ी मूछों का अभाव, सिर लम्बा तथा नाक कुछ बैठी हुई, चेहरा बड़ा तथा मोटे होते हैं।

वस्त्राभूषण- संथाल पुरुष सामान्यत्ः बहुत कम वस्त्र पहनते हैं। गुप्तांगों को ढकने के लिए लगभग 1.25 मीटर लम्बी लंगोट का उपयोग किया जाता है, जिसे कोपनी (Kopni) कहते हैं। संथाल स्त्रियाँ धोतियाँ और चोलियाँ या ब्लाउज पहनती हैं। इनके बाल लम्बे और पीछे की ओर गाँठ लगाकर बाँधे जाते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों ही अपने शरीर को सजाने में रुचि रखते हैं। फूल-पत्तियों, पक्षियों के पंख, गाय की पूंछ के बाल का उपयोग इस कार्य के लिए अधिक किया जाता है। स्त्रियाँ पीतल या चाँदी की हंसली, कड़े, बाजूबन्द, झुमके, अंगूठियों तथा कमर में करधनी का उपयोग करती हैं स्त्रियाँ और लड़कियाँ गोदने भी गुदवाती हैं। बस्तियाँ और घर-संथाल गाँव सामान्यतः छोटे आकार के होते हैं जिसमें एक ही गोत्र या वंश के 10 से 35 परिवार रहते हैं। बस्तियाँ सड़क के दोनों ओर रेखांकित रूप से होती हैं, जिनके पास लम्बे वृक्षों की कतार होती है। घर प्राय: झोपड़ियों का रूप लिए होते हैं। कमरे का दरवाजा एक ही होता है, खिड़कियाँ बिल्कुल नहीं होतीं। झोपड़ी साल के लट्टों, बाँस की खपच्चियों तथा साल की पतियाँ गोबर से लिपी होती हैं। फर्श कच्चा तथा छत पतियों से छायी होती है। दीवारों के बाहर अनेक प्रकार की रंगीन मिट्टियों और राख के माण्डने मॉडे जाते हैं। प्रत्येक गाँव के मुखिया के घर के सामने गाँव के संस्थापक का स्थान होता है, जिसे माँझी स्थान कहते हैं, इसमें कुछ अनगढ़ पत्थर रखे होते हैं जिसमें संस्थापक की आत्मा का निवास करना माना जाता है। अनेक अवसरों पर गाँव के लोग पुरोहित या प्रधान के नेतृत्व में यहाँ पूजा करने आते हैं।

संथालों के घरों में प्रायः लकड़ी, पीतल तथा मिट्टी के बर्तन, कुछ डलियाँ, झाडू, वैठने को लकड़ी का तख्ता, धान कूटने की मशीन और खाना पकाने के बर्तन, आदि होते हैं। शिकार अथवा आक्रमण के लिए तीरकमान, कुल्हाड़ी, फन्दे या जाल, भाले और ढाल, आदि होते हैं। ढोल, तुरही, बाँसुरी प्रमुख वाद्ययन्त्र होते हैं। खेती के लिए हल, जूड़ा, पट्टा, कुदाल, खुरपी, दाँतली तथा धान कूटने के लिए मूसल और ओखली, धेंकी, आदि व्यवहार में लायी जाती हैं।

व्यवसाय- खेती करना इनका प्रमुख उद्योग है। खेती के लिए तीन प्रकार की भूमि का उपयोग किया जाता है : (1) झोपड़ी के पीछे की भूमि जिसमें मोटे अनाज, मक्का, तिल, फलियाँ, चारा तथा अनेक प्रकार की सब्जियाँ पैदा की जाती हैं। (2) ऊँची, भूमि जो घरों से अधिक दूर नहीं होती और जिसमें मोटे अनाज, कपास, दालें, आदि पैदा की जाती हैं। (3) पहाड़ी ढालों वाली भूमि जिस पर ऊँचाई के अनुसार खेती की जाती है।

खेती के अतिरिक्त संथाल लोग मिलने पर किसी भी पशु का शिकार करते हैं, विशेषतः जंगली सूअर के शिकार सामान्यतः टोलियों में आयोजित किए जाते हैं। शिकार के अतिरिक्त जाल, फन्दे, तीरों की सहायता से नदियों, पोखरों और तालाबों में मछलियाँ भी पकड़ी जाती हैं। इसके अतिरिक्त वनों से अनेक प्रकार की वस्तुएँ छालें, जड़ें, गाँठे, फल, कोपलें, आदि इकट्टे किए जाते हैं जिनका उपयोग कर, घरेलू उपयोग की वस्तुएँ प्राप्त की जाती हैं, महुआ और साल का महत्व अधिक है। संथाल लोग बैल, मुर्गे, सूअर, बकरियाँ, गाय, भेड़ और कबूतर भी खाते हैं। इनका मुख्य भोजन उबला हुआ चावल और चावल की बनी शराब (हाँडी या हंडिया) होता है। ये तम्बाकू खाते हैं और हुक्का भी पीते हैं।

सामाजिक व्यवस्था- संथाल लोगों में संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित है। इनके परिवार पितृसत्तात्मक होते हैं। अधिकांशतः एक ही घर में माता-पिता, अवयस्क सन्तानें तथा विवाहित पुत्रों की पलियाँ और बच्चे रहते हैं। परिवार का सबसे बड़ा व्यक्ति ही परिवार का मुखिया होता है। परिवार के सभी सदस्य रूप से उत्पादन कार्य करते हैं। सारी आय एक ही कोष में एकत्रित की जाती है और परिवार के मुखिया के निर्देशानुसार उसे खर्च किया जाता है। बड़ा पुत्र ही घर का मुखिया होता है।

संथाल एक-विवाह करते हैं, किन्तु जब पत्नी से सन्तान न हो तो बहुपत्नी भी रख लेते हैं। ये पूर्णतः बहिर्विवाही होते हैं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने गोत्र के अन्तर्गत विवाह नहीं कर सकता। संथाली गाँवों में एक ही उपगोत्र के लोग रहते हैं, अतः एक गाँव के सदस्यों में विवाह अनुचित माने जाते हैं। संथालों में विवाह के पूर्व लैंगिक सम्बन्धों पर विशेष प्रतिबन्ध नहीं होता, लेकिन यदि कोई लड़की गर्भवती हो जाती है। तो उस व्यक्ति को उस लड़की से विवाह करना पड़ता है। बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात् छोटा भाई उसकी विधवा से विवाह कर सकता है।

धार्मिक विश्वास- संथाल लोग हिन्दुओं के देवी देवताओं (शिव, दुर्गा, आदि) को मानने लगे हैं। संथाली धर्म में अनेक देवी-देवताओं और आत्माओं का पूजन किया जाता है। सबसे बड़ा देवता जिसने सृष्टि की रचना की है, ठाकुर माना जाता है। यही देवता जीवन, वर्षा, फसलों और अन्य आवश्यक बातों पर नियन्त्रण रखता है।

संथाल देवताओं के प्रकोप से बहुत डरते हैं, अतः उन्हें प्रसन्न रखने के लिए जंगलों में या मन्दिरों में बलिदान कर देवता की पूजा करते हैं।

इनके अतिरिक्त भूत-प्रेतों चुडैल और आत्माओं में भी संथालों का बड़ा विश्वास होता है। जादू-टोने में भी यह विश्वास करते हैं। इसके लिए ओझा का उपयोग किया जाता है। संथाल स्त्रियाँ जो जादूगरनी होती हैं, उन्हें ओझा द्वारा बड़ा कष्ट दिया जाता है। झाड़-फूंक द्वारा या शारीरिक यातनाओं द्वारा उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाता है। ओझा लोग मन्त्रों द्वारा रोगों का भी इलाज करते हैं। जड़ी-बूटियों का प्रयोग करने में जो ओझा प्रवीण होते हैं उन्हें अधिक सम्मान मिलता है।

टोडा Todas

दक्षिणी भारत के पश्चिमी घाट, इलाइची की पहाड़ियों और नीलगिरि की पहाड़ियों से घिरे क्षेत्र में अनेक जनजातियाँ पायी जाती हैं : बड़गा, कोटा, कुरुम्बा, इरुला और टोडा। इनमें ऐतिहासिक दृष्टि से टोडा, जनजाति का विशेष महत्व है, क्योंकि यह भैंस पालने वाले आदर्श चरवाहे और प्रथा मानने वाली जनजाति है। इस जनजाति का परम्परागत निवास क्षेत्र नीलगिरि की पहाड़ियाँ माना जाता है।

वातावरण- यह सारा क्षेत्र धरातल की दृष्टि से ऊबड़खाबड़ है जिसका क्षेत्रफल लगभग 1,500 वर्ग किलोमीटर है और जो समुद्र तल से 1,000 से 1,600 मीटर तक ऊँचा है। इस क्षेत्र में तापमान सर्दियों 16° व गर्मियों में 28° सेण्टीग्रेड के बीच रहता है तथा वार्षिक वर्षा 160 सेण्टीमीटर तक हो जाती है, अतः यह क्षेत्र वनाच्छादित है, किन्तु पूर्वी ढाल वृष्टि छाया में पड़ते हैं, अतः यहाँ केवल मुलायम घास पैदा होती है। वनों में श्वेत सीडर, सेटीनवुड, आयरनवुड, इबोनी, सिल्वर ओक, यूकेलिप्टस के वृक्ष अधिकता से मिलते हैं। इन वनों में अनेक प्रकार के हिरण, साँभर, तेंदुए, हाथी, चीते, एण्टीलोप, सूअर, नील गाय, इवैक्स और जंगली कुते मिलते हैं। ढालों पर उत्तम घास वर्ष भर उगती है, अतः पशुपालन के लिए आदर्श परिस्थितियाँ मिलती हैं, प्राकृतिक वातावरण का टोडा लोगों के आर्थिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

शारीरिक गठन- इनकी चमड़ी का रंग हल्का अथवा भूरा, कद लम्बा, सिर लम्बा, नाक संकरी, पतली और लम्वी, बड़ी भूरी आँखें, भरे हुए होंठ, सुगठित शरीर, काले लहरदार बाल, शरीर पर और दाढ़ी पर बाल तथा चेहरा सुन्दर और आकर्षक होता है।

बस्तियाँ और घर- टोडा लोगों के अधिवास मण्ड कहलाते हैं। सामान्यतः अधिवास उन स्थानों पर बनाए जाते हैं, जहाँ का दृश्य आह्लादकारी हो अथवा जहाँ से अन्य सुन्दर दृश्य दिखायी पड़ते हों, जो कुछ ऊँचाई पर हों तथा वन और नदी-नाले के किनारे हों तथा जहाँ स्थानीय घास अधिकता से पायी जाती हो। टोडा गाँव छोटे होते हैं। साधारणतः एक गाँव में 8 और 10 झोपड़ियाँ होती हैं। इनके निर्माण में बाँस, खजूर के वृक्षों और घास का उपयोग किया जाता है। मकान अर्द्धगुम्बदाकार होते हैं। घरों की दीवारें वॉस और खजूर की पत्तियों से बनायी जाती हैं तथा छप्पर बाँस और घास से छाए जाते हैं।

परिवार के रहने के लिए बनी झोपड़ी से कुछ दूर अलग एक झोपड़ी होती है जिसे पवित्र दुग्ध मन्दिर कहा जाता है। इसके दो भाग होते हैं, एक में दूध, मक्खन अथवा घी रखा जाता है तथा दूसरे में दुग्ध मन्दिर की देखभाल करने वाला व्यक्ति रहता है जिसे पलोल कहते हैं। यही व्यक्ति दूध रखने उठाने, मक्खन, घी निकालने, आदि का काम करता है।

भोजन- टोडा लोग विशुद्ध शाकाहारी होते हैं। इनके भोजन में दुग्ध की वस्तुओं (घी, मक्खन, छाछ) की अधिकता होती हैTकेवल उत्सवों को छोड़कर (जो वर्ष में केवल 3 या 4 ही होते हैं) जब भैसों की बलि दी जाती है, तभी माँस, मछली, आदि खाते हैं। बड़गा प्रजाति से प्राप्त किया गया चावल दूध में उबाल कर अथवा चावल गुड़ के जल में उबालकर, कढ़ी अथवा के बनाए गए झोल के साथ खाते हैं। अव दालों का भी प्रयोग किया जाने लगा है। वनों से प्राप्त काराली, थिनई, शहद, फल  और जंगली साग-सब्जियों का भी उपयोग किया जाता है। ये चाय और कहवा भी पीते हैं।

वस्त्राभूषण- टोडा जाति के स्त्री और पुरुष एक लम्वा ढीला-ढाला सूती चोगा कंधे पर डाले रहते हैं जो गर्दन से लेकर पैर तक शरीर को लेता है। इसके अन्दर धोती पहनते हैं। चोगा लाल, काली या नीली धारियों वाला होता है। सिर प्रायः नंगा ही रहता है। आजकल युवा वर्ग के लोग कमीज, कुर्ता तथा धोती पहनने लगे हैं और स्त्रियाँ साड़ियाँ और ब्लाउज। अन्धविश्वास के कारण ये ऊनी वस्त्रों का प्रयोग नहीं करते, किन्तु कम्बल ओढ़ लेते हैं।

स्त्रियाँ गोदने गुदवाने की बड़ी शौकीन होती हैं। ये गोदने ठोड़ी, ऊपरी बाँहीं, वदन के दोनों ओर, छातियों के ऊपर और गर्दन के नीचे गुदाए जाते हैं। गोदने वृत्त या बिन्दुओं के रूप में होते हैं। स्त्रियाँ चाँदी या कौड़ियों के साधारण आभूषण (भुजबन्द, हार, करधनी, बाली, आदि) नाक और गले में पहनती हैं।

टोडा लोगों का जीवन, बचपन से बुढ़ापे तक पशुपालन और पशु चराने में ही समाप्त होता है। ये आदर्श भैसपालक कहे जाते हैं। भैसों की देखभाल करना, दूध दुहना, बिलोना, मक्खन निकालना और उसे सुरक्षित रखने का काम पुरुषों द्वारा ही किया जाता है। दूध दुहने और बिलोने का कार्य एक प्रातःकाल और दूसरा दोपहर में किया जाता है। दूध को बाँस के बने बर्तनों में रखा जाता है। प्रत्येक घर में 8 से 12 भैसें रखी जाती हैं जिनकी नस्ल अच्छी होती है। गायों के वैयक्तिक नाम रखते हैं तथा उनकी नस्ल याद रखी जाती है। टोडा लोग दो प्रकार की भैसें रखते हैं, एक वे जिन्हें वे पवित्र मानते हैं और जो केवल पलोल द्वारा दुग्ध मन्दिर में दुही जाती हैं और दूसरी साधारण भैस जो परिवार के सदस्य द्वारा घर पर दुही जाती हैं।

सामाजिक व्यवस्था- टोडा परिवार बहुपति विवाही परिवार होता है। परिवार में सभी भाई, उनकी स्त्रियाँ, उनकी पुत्रियाँ (निजी एवं सामूहिक), अविवाहित लड़के और लड़कियाँ होते हैं। परिवार में स्त्री का स्थान पुरुष से नीचा होता है। अतः राजनीतिक, धार्मिक उत्सवों, आदि में और दुग्ध व्यवसाय से सम्बन्धित सभी क्रियाओं में भाग लेना उनके लिए वर्जित है। वे घरेलू कार्य ही कर सकती हैं।

परिवार की सत्ता या अधिकार बड़े भाई के हाथ में रहता है। सम्पति पर भी सम्मिलित रूप से ही स्वामित्व होता है। केवल पहनने के कपड़े, गहने तथा बर्तनों पर निजी अधिकार हो सकता है. अन्यथा सारी सम्पति सम्मिलित परिवार की होती है। सम्पति का बंटवारा पितृसत्तात्मक होता है।

टोडा लोगों में परम्परागत विवाह का ढंग बहुपति प्रथा है, यद्यपि एक पत्नी तथा बहुपत्नी प्रथा भी असामान्य नहीं है। बहुपति प्रथा में सभी भाइयों की एक ही पत्नी होती है।

धार्मिक विश्वास- टोडा लोग आदिवासी धर्म को मानते हैं, जिसमें अनेक आत्माओं, देवीदेवताओं में विश्वास किया जाता है। इनकी संख्या 10 से 18 तक होती है। दो मुख्य देवी-देवता क्रमशः तैकिर जी और ओन हैं। तैकिर जी सबसे बड़ी देवी है, जो पृथ्वी पर निवास करने वाली है, जीवित प्राणियों पर राज्य करती है, जबकि जो उसका भाई है वह मृतकों के संसार पर राज्य करता है। इन दो के अतिरिक्त अनेक देवताओं का सम्बन्ध नदियों से, पहाड़ों से होता है। दुग्ध घरों को ये पवित्र मानते हैं, अतः एक देवता दुग्ध घर का भी होता है। दुग्ध घर की देखभाल करने वाले को डेयरी पुजारी कहा जाता है।

किसी दुर्भाग्य का कारण ये जादू या पाप को मानते हैं। अतः दुर्भाग्य, बीमारी, मृत्यु, दुग्ध घर में आग लग जाने, भैसों में दूध सूख जाने, आदि के लिए देवता की पूजा-अर्चना की जाती है।

भील Bhils

आर्थिक दृष्टि से ये लोग स्थायी कृषक, सामाजिक दृष्टि से पितृसत्तात्मक, जनजाति एवं परम्परागत रूप से एक अच्छे तीरंदाज होते हैं। वर्तमान में यह जनजाति विकास के विभिन्न चरणों में मानी जा सकती है। मध्य प्रदेश एवं दक्षिणी राजस्थान के भील अब तेजी से श्रमिक व स्थायी कृषक बनते जा रहे हैं। गुजराती भील कृषक, पशुपालक, व् व्यापारी हैं। राजस्थान व महाराष्ट्र में पहले यह घुमंतू कृषक व आखेटक थे, अब  यह स्थायी कृषक व पशुपालक हैं। यह भारत की तीसरी बड़ी जनजाति है।

निवास क्षेत्र– भीलों का निवास क्षेत्र मुख्यतः प्रायद्वीपीय पहाड़ी भागों तक सीमित है। अरावली, विंध्याचल एवं सतपुड़ा पर्वत तथा कोटा के पठार इनके सबसे बड़े निवास स्थान हैं। राज्यों की दृष्टि से अधिकांश भील मध्य प्रदेश में (धार, झाबुआ, रतलाम और निमाड़ जिलों में) राजस्थान में (डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, उदयपुर, चितौड़गढ़ जिलों में) गुजरात में (पंचमहल, साबरकांठा, बनासकांठा, वड़ोदरा जिलों में) केन्द्रित हैं। बिखरे हुए रूप में महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी कुछ भील पाए जाते हैं।

शाब्दिक दृष्टि से भील का अर्थ तीर चलाने वाले व्यक्ति से लिया गया है। यह द्रविड़ भाषा का शब्द है, जिसकी उत्पति बिल अर्थात् तीर से हुई है। ये लोग सदैव अपने पास तीर-कमान रखते हैं।

वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ- भीलों का प्रदेश सामान्यतः ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी होता है। यह क्षेत्र समुद्रतट से 600 से 1,000 मीटर ऊँचा होता है। इसमें घने मानसूनी वन मिलते हैं। पहाड़ी भागों में बीच-बीच में छोटी, संकरी, उपजाऊ नदी-घाटियाँ भी मिलती हैं। माही, सावरमती, कागदर, तापी, नर्मदा प्रमुख नदियाँ हैं। नदियों में वर्षाकाल में बाढ़े आती हैं, किन्तु ग्रीष्मकाल में प्रायः सूख जाती हैं। इनके मार्ग में भूमि कटाव बहुत होने से गहरे खड़े पाए जाते हैं। भील आदिवासी क्षेत्र का तापमान 10° से 43° तक पाया जाता है और वर्षा 50 से 125 सेमी के मध्य होती है। अधिकांशतः मिट्टी लाल, पथरीली और कॉपयुक्त होती है। वनों में सामान्यतः महुआ, आम, बाँस, सागवान, नीम, टीमरू, ढाक, खेजड़ा, साल, पलास के वृक्ष अधिक पाए जाते हैं। इनमें लोमड़ी, सियार, खरगोश अनेक प्रकार के सर्प, चिड़ियाँ तथा कहीं-कहीं हिरण एवं तेंदुए भी मिलते हैं, उनका ये शिकार करते हैं।

शारीरिक गठन- भील सामान्यतः छोटे कद के होते हैं, औसत मध्यम कद 163 सेमी होता है। सिर की लम्बाई 181.1 मिमी तथा चौड़ाई 137.4 मिमी पायी जाती है। नाक मध्यम से चौड़ी होती है। चेहरा गोलाई लिए चौड़ा और शरीर पूर्णतः विकसित होता है। इनका रंग हल्के भूरे से गहरा काला, बाल चिकने तथा काले एवं लहरदार होते हैं। आँख का रंग कत्थई, गहरा भूरा होता है। आँख की पुतली बड़ी, होंठ पतले से मोटे, दाढ़ीमूंछ कम, शरीर पर बाल कम और शरीर सुगठित होता है।

वस्त्राभूषण- गरीबी के कारण भील लोग प्रायः मोटे और सस्ते तथा बहुत कम कपड़े पहनते हैं। पुरुष अधिकतर एक लंगोटी अथवा अंगोछा लपेटे रहते हैं जो केवल घुटने तक नीचा होता है। इसे फाल कहते हैं। इसके ऊपर बड़ी या कमीज और सिर पर पगड़ी या साफा बाँधते हैं। जब घर पर रहते हैं तो केवल लंगोटी तथा पगड़ी ही पहनते हैं। स्त्रियाँ प्रायः लाल या गहरे रंग का फालू पहनती हैं, यह सम्पूर्ण छातियों को ढकता है। इस वस्त्र को कछाबू कहते हैं। अब भील स्त्रियाँ लुगड़ी, साड़ी, चोली लहंगा, आदि भी पहनने लगी हैं।

भील स्त्री-पुरुषों को गोदने गुदाने का बड़ा चाव होता है। अधिकतर गोदने मुंह और हाथ पर गुदाए जाते हैं। स्त्रियाँ गले में चाँदी की हसली या कानों में चाँदी की बालियाँ, गले में जंजीर, नाक में और हाथों में व पैरों में पीतल के छल्ले तथा सिर पर बोर और पैरों में पीतल की पैजनियाँ पहनती हैं। शादी होने पर हाथ में कड़ा, कान में वालियाँ तथा गले में हसली भी पहन लेते हैं।

बस्तियाँ और घर- भीलों के गाँव सामान्यतः छोटे (20 से 50 तक की झोपड़ियों के) होते हैं, जो पहाड़ी ढालों, जंगलों तथा नदियों के किनारे दूरदूर तक फैली बस्तियों के रूप में होते हैं। ये गाँव न अधिक घने बसे होते हैं और न ही कतार में अथवा समूह में बसाए जाते हैं। गाँव की सीमा दिखाने के लिए किसी वृक्ष पर घास का बण्डल लटका दिया जाता है। गाँव के बाहर ही इनके देवरे (मन्दिर सदृश्य पूजा स्थल) होते हैं, जहाँ भैरू, देवी और क्षेत्रपाल, आदि देवताओं की आकृतियों के पत्थर रखे जाते हैं। अब भीलों के घर अन्य बस्तियों कस्बों की बाहरी सीमा पर भी समूहों में (भीली बस्ती) पाए जाते हैं।

भीलों के घरों को कू कहा जाता है। ये आयताकार होते हैं और सामान्यतः धरातल से 60 सेण्टीमीटर से 1.25 मीटर ऊँचे होते हैं। इनकी दीवारें बाँस या पत्थर की बनी होती हैं तथा फर्श मिट्टी या पत्थर का, छत घासफूस या खपरैल डाल कर बनायी जाती है। मकान की दीवारें बीच में 3 से 3½ मीटर ऊँची होती हैं, इनके ऊपर ताड़ या अन्य वृक्ष का तना रखकर उसे छप्पर से दिया जाता है। खपरैल पर कद्दू, लौकी या तुरई, आदि की वेलें चढ़ा दी जाती हैं। यदि घरों के निकट खाली जगह हो तो उसमें बैंगन, रतालू, मिर्ची या टमाटर यो देते हैं। बैठने के लिए 1-2 लकड़ी की चारपाई होती हैं। घास रखने के लिए कोने में व्यवस्था की जाती है। घर के बर्तन मुख्यतः मिट्टी या लकड़ी के बने होते हैं : थाली, रकाबी, प्याले, घड़े, आदि। अनाज भरने के लिए मिट्टी या बाँस की बनी कोठियाँ होती हैं। चटाइयाँ, डलियाँ, आदि का भी उपयोग किया जाता है।

भोजन- इनका भोजन मुख्यतः अनाज (गेहूं, चावल, मक्का, कोदों), दाल सब्जियों का होता है। उत्सव के अवसर पर अथवा शिकार करने पर बकरे या भैस का माँस, मुर्गी के अण्डे, मछलियाँ भी खाते हैं। यदा-कदा दूध अथवा का भी प्रयोग करते हैं। प्रात:काल के भोजन में चावल, कोदों तथा सब्जी या दाल खाते हैं और शाम को मक्का की रोटी तथा प्याज या कोई सब्जी। महुआ की बनी शराब तथा ताड़ी का रस पीया जाता है। तम्बाकू और गाँजे का भी सेवन किया जाता है। महुआ के फल, सीताफल, आम, बेर, आदि मिल जाने पर उनका भी उपयोग किया जाता है।

व्यवसाय- भील लोग परम्परा से घुमक्कड़ स्वभाव के होते हैं, किन्तु अब अनेक भागों में ये कृषि करने लगे हैं। पहाड़ी ढालों से प्राप्त की गयी भूमि में, वर्षाकाल में अनाज, दालें, सब्जियाँ बो दी जाती हैं। इस प्रकार की खेती को चिमाता कहते हैं। मैदानी भागों में भी वनों को काटकर प्राप्त भूमि पर चावल, मक्का, मिर्ची, मोटे अनाज, गेहूं, पपीता, बैंगन, कद्दू, रतालू, आदि बोए जाते हैं। इस प्रकार की खेती को दजिआ कहा जाता है।

भील स्त्री और पुरुष निकटवर्ती तालाबों तथा नदियों में जालों से मछलियाँ भी पकड़ते हैं। जंगलों में तीर-कमान, फन्दे, गोफन की सहायता से पक्षियों, जंगली, सूअर, चीते, आदि का भी शिकार करते हैं। लड़के और स्त्रियाँ वनों से खाद्य जड़ें, वृक्षों की पत्तियाँ एवं कोपलें, फल, गांठें, शहद, आदि भी एकत्रित करती हैं। भील लोग भैस, गाय, बैल, भेड़, बकरियाँ और मुर्गियाँ भी पालते हैं। इनसे दूध, माँस और अण्डे प्राप्त किए जाते हैं। बकरी, भैसे तथा मुर्गी का धार्मिक उत्सवों पर बलिदान के रूप में भी उपयोग किया जाता है। कुछ भील खानों में खनिज निकालने अथवा ठेकेदारों के अन्तर्गत सड़कें और अन्य निर्माण कार्य में मजदूरी करने, लकड़ियाँ काटने और उन्हें ढोने का काम करते हैं।
सामाजिक व्यवस्था- भीलों की सामाजिक व्यवस्था बड़ी संगठित होती है। इनकी पूजा, विवाह विधियाँ, जीवन क्रम की विशेष पद्धति होती है। वृद्धों का आदर किया जाता है, सभी निर्णय उनके निर्देशानुसार किए जाते हैं। घर का मुखिया सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है। भीलों के गाँव प्रायः एक ही वंश की शाखा के होते हैं। इनके मुखिया को तदवी और वसाओ कहा जाता है। प्रत्येक गाँव का अपना पंडित, पुजारी, कोतवाल, चरवाहा, ढोल बजाने वाला होता है। भील जाति अनेक छोटे-छोटे समूहों में विभक्त होती है, जिन्हें अटक, औदाख, गोत्र या कुल कहते हैं। एक अटक के सदस्य अपने को एक ही पुरखे का वंशज मानते हैं। अतः इनमें अन्तर्विवाह नहीं होते। ये लोग बहिर्विवाही होते हैं। प्रत्येक अटक किसी वृक्ष, पक्षी, स्थान या पूर्वज के नाम से जाना जाता है। एक अटकगोत्र के व्यक्ति दूसरे गोत्र में ही विवाह कर सकते हैं। भील लोग एक विवाह में विश्वास करते हैं। इनमें गंधर्व विवाह, अपहरण विवाह, विधवा विवाह प्रचलित हैं। विवाह निकटवर्ती सम्बन्धियों में वर्जित है।

धार्मिक विश्वास- भीलों का धर्म अधिकतर हिन्दू धर्म से ही प्रभावित हैI अतः ये हिन्दुओं के देवी-देवताओं को मानते हैं। महादेव, राम, कालिका, दुर्गा, हनुमान, गणेश, शीतलामाता, आदि की पूजा करते हैं। ये जादूटोना में भी काफी विश्वास करते हैं और इनकी बीमारियों तथा कष्टों के निवारण के लिए मोये (पुजारियों) द्वारा झाड़-फूक की जाती है। भूत-प्रेत, तन्त्र-मन्त्र में भी विश्वास किया जाता है और इनकी सन्तुष्टि के लिए पूजा और बलिदान किए जाते हैं। ये अपने मुर्दो को जलाते हैं और हिन्दुओं की भाँति ही कर्मकाण्ड करते हैं।

भील लोग होली, दीवाली, दशहरा के त्योहारों को बड़े आनन्द से मनाते हैं। शराब पीकर, नाचगाकर प्रसन्नता प्रकट की जाती है। यह आनन्द कई दिनों तक चलता रहता है।

जातीय समस्याएँ व सुधार के सुझाव

भारत का जनजाति समाज अनेक समस्याओं से ग्रस्त है। इनमें से कुछ उल्लेखनीय हैं-

  1. स्वतन्त्रता के 59 वर्ष पश्चात् भी इनका अर्थतन्त्र एवं व्यवसाय का रूप अल्प विकसित है। उल्टा अब इन्हें वन-पालकों एवं राजनेताओं का अनेक बार कोपभाजन हो पड़ता है।
  2. इनमें 5 प्रतिशत व्यक्ति ही सेकण्ड्री तक पढ़े हैं जो उच्च पदों या राजनीतिक दृष्टि से सक्षम हैं, उन्होंने कभी सामान्य जनजाति समाज को ऊपर उठाने एवं सक्षम बनाने का प्रयास नहीं किया गया।
  3. जनजाति क्षेत्र में अधिकांश परिवारों को शिक्षित व प्रशिक्षित करने के केन्द्र तो खोले हैं, किन्तु वहाँ शिक्षक, प्रशिक्षक एवं उपकरण व यन्त्रों का अभाव रहता है अथवा खराब होने पर उन्हें ठीक नहीं कराया जाता।
  4. जनजाति के जो परिवार शिक्षित होकर उच्च पदों पर आसीन हैं वे अपने परिवारजनों के ही हित-चिन्तक हैं, अत: अधिकांश समाज की विपन्न अवस्था है।
  5. केन्द्र राज्य सरकारें इनके विकास के लिए करोड़ों रुपया आबंटित करती हैं, किन्तु आज तक यह पैसा जनजाति कल्याण हेतु उन तक नहीं या न्यूनतम पहुंचता है।

अतः देश के जनजाति विकास हेतु शिक्षा का विकास व यातायात का विकास व्यावहारिक रूप में लागू होना अनिवार्य है।

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