प्राकृतिक वनस्पति Natural vegetation

प्राकृतिक वनस्पति

प्राकृतिक वनस्पति से तात्पर्य उन पौधों से है जो मानव की सहायता के बिना स्वयंमेव वन्य अथवा प्राकृतिक अवस्था में उगते हैं। इसे अधिक स्पष्ट करें तो कहा जा सकता है कि विभिन्न पर्यावरणीय तथा पारितंत्रीय परिवेश में जो कुछ भी प्राकृतिक रूप में उगता है, उसे प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं।

प्राकृतिक वनस्पति के विकास में विभिन्न कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इन कारकों का विवरण निम्नानुसार है-

1. तापमान: एक पौधे को अपने विकास के लिए कम से कम 6 डिग्री सेल्सियस मासिक औसत तापमान की आवश्यकता होती है। इससे कम तापमान पर पौधे नहीं पनप सकते। इसी तरह उच्च तापमान से भी पौधे मुरझा सकते हैं। तापमान की भिन्नता वनस्पतियों के आकार-प्रकार में भी परिवर्तन का कारण बनती है। इसका स्पष्ट उदाहरण अरुणाचल प्रदेश व असोम की वनस्पतियों में स्वरूपगत भिन्नता है। अरुणाचल प्रदेश व असोम दोनों राज्यों में वर्षा की मात्रा उच्च रहती है किंतु अरुणाचल प्रदेश में निम्न तापमान रहने के कारण वहां की वनस्पति के आकार-प्रकार में अंतर है।

2. वर्षा: यह वनस्पतियों के विकास में एक महत्वपूर्ण कारक है। विभिन्न पौधों हेतु वर्षा की मात्रा की भिन्न-भिन्न आवश्यकता होती है।

3. मिट्टी: मिट्टी के प्रकार व उसकी अपनी पृथक् विशेषता का भी वनस्पति पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। भारत में बांगर मिट्टी के क्षेत्रों की वनस्पति, खादर मिट्टी के क्षेत्रों की वनस्पति से भिन्न होती है। इसी प्रकार रेतीली मिट्टी में अलग प्रकार की वनस्पति उत्पादित होती है।

4. धरातलीय स्वरूप: धरातलीय स्वरूप भी वनस्पतियों को प्रभावित करता है। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में वर्षा की मात्रा का वनस्पति पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। यहां ऊंचाई तथा तापमान ने वनस्पति प्रदेश निर्धारित किए हैं। जलवायु और धरातलीय स्वरूप में अंतर होने के कारण ही भारत में उष्ण और शीतोष्णकटिबंधीय दोनों ही प्रकार की वनस्पति मिलती है।


5. सूर्य का प्रकाश: सूर्य का प्रकाश पौधों की वृद्धि में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया हेतु यह आवश्यक है।

भारत में प्राकृतिक वनस्पति

प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय भौतिक दशाओं अथवा परिस्थितियों में स्वतः उगने वाली वनस्पति से है, जिसमें पेड़-पौधे, झाड़ियां, घास, आदि शामिल होते हैं। भारत की वनस्पति का आकलन करने से पहले वनस्पति जात (फ्लोरा), वनस्पति तथा वन में विभेद स्पष्ट करना आवश्यक होगा। वनस्पति जात (फ्लोरा) का आशय किसी प्रदेश तथा काल विशेष में पाये जाने वाले, सभी जातियों सहित पेड़-पौधों, झाड़ियों के समूह से है। इस दृष्टि से भारत को पूर्ण रूप से उष्णकटिबंधीय वर्ग में रखा गया है। वनस्पति एक पर्यावरणीय या पारिस्थितिक तंत्र में आपसी सहयोग के साथ रह रही पौधों की विभिन्न प्रजातियों के एकत्रण को व्यक्त करती है। अंत में, वन शब्द प्रायः प्रशासकों एवं सामान्य जनता द्वारा प्रयुक्त किया जाता है तथा पेड़ों एवं झाड़ियों से घिरे एक विस्तृत क्षेत्र का सूचक है।

भारतीय पौधों की उत्पत्ति

हिमालय एवं प्रायद्वीपीय भागों का अधिकांश क्षेत्र घरेलू या आंतरिक पेड़-पौध प्रजातियों से आवृत्त है, जबकि सिंधु-गंगा मैदान एवं थार मरुस्थल में सामान्यतः बाहरी या विदेशी पौध प्रजातियां पायी जाती हैं। भारत में पाये जाने वाली पोध प्रजातियों का 40 प्रतिशत विदेशी हैं। ये विदेशी पौधे विश्व के विभिन्न स्थानों से भारत में पहुंचे हैं। बोरियल कहे जाने वाले पौधे चीनी-तिब्बती क्षेत्र से तथा पुरा उष्णकटिबंधीय पौधे पड़ोसी उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों से आये हैं। थार मरुस्थल एवं गंगा के मैदान के पश्चिमी सीमांत में पाया जाने वाला शुष्क एवं अर्ध शुष्क वनस्पति आवरण उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्रों की पौध प्रजातियों से प्रभावित है। भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित पहाड़ियों पर इंडो-मलेशियाई मूल की वनस्पतियों का आवरण पाया जाता है।

प्राकृतिक वनस्पति का वर्गीकरण

भारतीय वनस्पति उष्णकटिबंधीय और शीतोष्णकटिबंधीय दोनों प्रकार की है। शीतोष्णकटिबंधीय वनस्पति हिमालय की ऊंचाइयों पर मिलती है। उष्णकटिबंधीय वनस्पति हिमालय के निम्नवर्ती क्षेत्र तथा शेष भारत में मिलती है। एच.वी. चैम्पियन, स्वीइन पर्थ, कार्ल ट्राज तथा जी.एस.पुरी के वानस्पतिक अध्ययनों के आधार पर (जलवायु, उच्चता तथा वर्षा के आधार पर) भारतीय वनस्पति को मुख्यतया 6 भागों में वर्गीकृत किया गया है-

1. उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनस्पति

यह वनस्पति मुख्यतया पश्चिमी घाट के अधिक वर्षा वाले पश्चिमी क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में मिलती है। इस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 200 सेंटीमीटर से अधिक होती है और यहां आर्द्रता की मात्रा 77 प्रतिशत के लगभग होती है। इस क्षेत्र का वार्षिक औसत तापमान 22°C सेंटीग्रेड से लेकर 22°C तक रहता है। यह क्षेत्र उत्तर में क्रमशः हिमालय की तराई, पूर्वी हिमालय के उप-प्रदेश और दक्षिण में पश्चिमी घाट के ढाल पर महाराष्ट्र से लेकर नीलगिरी, अन्नामलाई व इलायची की पहाड़ियों, कर्नाटक, केरल और अंडमान निकोबार द्वीप तक फैला हुआ है। पश्चिमी घाट में सदाबहार वनस्पति के क्षेत्र 450 मीटर से 1500 मीटर की ऊंचाई तक तथा शिलांग पठार (असम) में 1000 मीटर की ऊंचाई तक मिलते हैं। ये वनस्पतियां उच्च तापमान, 300 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा तथा अपेक्षाकृत अल्पकालीन शुष्क ऋतु के कारण अत्यंत सघन होती है और इस क्षेत्र के वृक्षों की ऊंचाई 60 मीटर से भी अधिक होती है। वृक्षों के ऊपरी सिरे शाखाओं से इस प्रकार आच्छादित होते हैं कि वे छातों का आकार ग्रहण कर लेते हैं। सदाबहार वनस्पति क्षेत्र में महोगनी, आबनूस, जारूल, बांस, बेंत, सिनकोना और रबड़ के वृक्ष मुख्यतया मिलते हैं।

सदाबहार क्षेत्र मसालों के बागानों के महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि मसालों के उत्पादन के लिए उसकी दोनों आधारभूत आवश्यकताओं- प्रवाहमान जल और पत्तों वाली खाद की पूर्ति प्राकृतिक रूप से ही हो जाती है। बांस मुख्यतया नदियों के किनारे मिलते हैं। रबड़ तथा सिनकोना दक्षिणी सह्याद्री और अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह में मिलते हैं। अण्डमान-निकोबार का 95 प्रतिशत भाग सदाबहार वनस्पति से परिपूरित है। यहां आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण वृक्ष-पादोक, धूप, चूई, श्वेत चुगलम, गुर्जन आदि भी बहुतायत में मिलते हैं। सदाबहार वनों को दो उप-भागों में विभक्त किया जाता है- पूर्ण सदाबहार वन (300 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा वाले) तथा अर्द्ध-सदाबहार वन (250 सेंटीमीटर से कम वर्षा वाले क्षेत्र)।

2. उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वनस्पति

यह वनस्पति मुख्यतया पश्चिमी घाट के पूर्वी ढाल, प्रायद्वीप के उत्तरी-पूर्वी पठारों, उत्तर में शिवालिक श्रेणी के भाबर और तराई क्षेत्र में मिलती है, किन्तु इसका विस्तार भारत के उन समस्त भागों में है, जहां औसतन 100 सेंटीमीटर से लेकर 200 सेंटीमीटर तक वर्षा होती है। इस वनस्पति को मानसूनी वनस्पति की भी संज्ञा दी जाती है। इस क्षेत्र के अंतर्गत सागवान, सखुआ या साल, शीशम, चंदन, आम, त्रिफला, खैर, महुआ आदि आर्थिक महत्व के वृक्षों के साथ-साथ बांस भी पाया जाता है। यहां की वनस्पतियां सदाबहार वनस्पतियों की भांति न तो सघन होती हैं और न ही ज्यादा ऊंचाई वाली। ग्रीष्म ऋतु में इन वृक्षों के पर्ण-त्याग (पत्तों के गिराने) के कारण ही इन्हें पर्णपाती वनस्पति की भी संज्ञा दी जाती है। सागवान, सखुआ और शीशम की लकड़ी कड़ी तथा मजबूत होती है और फर्नीचर के लिए तो सर्वाधिक उपयुक्त होती है। भारत में सागवान के वन 90 लाख हेक्टेयर भूमि में तथा सखुआ या साल के वन 116 लाख हेक्टेयर भूमि पर विस्तृत हैं। महाराष्ट्र और पश्चिमी मध्य प्रदेश सागवान के वृक्षों के लिए तथा पूर्वी मध्य प्रदेश, छोटानागपुर, शिवालिक, भाबर तथा उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम सखुआ के वृक्षों के लिए विख्यात हैं। शीशम के वृक्ष मुख्यतया हिमालय की तराई में मिलते हैं। चन्दन के वृक्ष अधिकांशतया कर्नाटक (प्राचीन मैसूर) में मिलते हैं। त्रिफला, महुआ और बांस जहां-तहां मिल जाते हैं। त्रिफला औषधि निर्माण में काम आता है, जबकि महुआ से तेल के साथ-साथ मादक पेय का भी निर्माण किया जाता है। ध्यातव्य है कि आंवला, हरड़ और बहेड़ा को संयुक्त रूप से त्रिफला की संज्ञा दी जाती है। ये वन देश के लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र पर फैले हुए हैं।

3. उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनस्पति

यह वनस्पति मुख्यतः उत्तर प्रदेश, विहार (पश्चिमी), मध्य प्रदेश (पश्चिमोत्तर), महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश (उत्तरी), कर्नाटक और तमिलनाडु (पूर्वी) में प्राप्त होती है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा औसतन 70 सेंटीमीटर से लेकर 100 सेंटीमीटर तक होती है। इस प्रकार की वनस्पति में न्यूनता आयी है, क्योंकि जिन क्षेत्रों में यह वनस्पति मिलती है, वहां जनसँख्या को बसने तथा कृषि कार्य के लिए वनों की असीमित कटाई हुई है। वर्षा की अपेक्षाकृत कमी और जलवायु की विषमता के कारण इस प्रकार की वनस्पतियां कम ऊंचाई वाली होती हैं। इस क्षेत्र में वृक्ष सघन न होकर विरल हैं। इन क्षेत्रों में पाए जाने वाले अधिकांश वृक्ष निम्न कोटि के होते हैं। शुष्क ऋतु के आगमन पर वृक्षों के पते गिरने लगते हैं और ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वृक्ष सुख रहे हों। शुष्कता की सीमा जब समाप्त होती है, तब पर्णपाती वनस्पति कटीली वनस्पतियों और झाड़ियों में बदल जाती हैं।

4. पर्वतीय वनस्पति

यह वनस्पति मुख्यतया प्रायद्वीपीय पठार के उच्चवर्ती क्षेत्रों में- नीलगिरि, अन्नामलाई, पलनी, महाबलेश्वर, सह्याद्रि के उच्च भाग, सतपुड़ा आदि में मिलती है। इन क्षेत्रों में फर्न और काई बहुतायत में मिलते हैं, जबकि हाल के वर्षों में इन क्षेत्रों में यूकेलिप्ट्स के वृक्ष लगाए गए हैं। नीलगिरि में उटकमंड के वन अत्यधिक मात्रा में नष्ट किए जा चुके हैं। वनों के विनाश के कारण इस क्षेत्र में जलापूर्ति का संकट भी उपस्थित हो गया है। ठीक इसके विपरीत, जब हिमालय पर्वतीय क्षेत्र की ओर बढ़ते हैं, तब हमें सघन वनस्पति मिलती है। हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में उच्चता के अनुरूप उष्णकटिबंधीय से लेकर अल्पाइन वनस्पति तक पायी जाती है। निम्नवर्ती क्षेत्रों में (1500 मीटर के नीचे) पूर्णतया पर्णपाती वन मिलते हैं, किन्तु 1500 मीटर की ऊंचाई के बाद दो प्रकार की वनस्पतियां मिलती हैं-कोणधारी सदाबहार वनस्पति और अल्पाइन वनस्पति।

कोणधारी सदाबहार वनस्पति हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में 1500 मीटर से लेकर 3500 मीटर की ऊंचाई पर मिलती हैं। इस प्रकार की वनस्पति लगभग 42 लाख हेक्टेयर भूमि में फैली है। इस क्षेत्र में मुख्यतया देवदार के वन विकसित हैं। इन वनस्पतियों की लकड़ियां अपेक्षाकृत मुलायम और पत्तियां छोटी तथा सूई की आकृति की होती हैं। यहां देवदार के अतिरिक्त सनोवर (स्प्रूस), श्वेत सनोवर (सिल्वर फर) और चीड़ के वृक्ष भी बहुतायत में मिलते हैं। आर्थिक दृष्टि से ये वृक्ष बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हिमालय के पूर्वी भाग में वर्षा अपेक्षाकृत अधिक होती है और इस क्षेत्र में चौड़ी पत्ती वाले वृक्ष मिलते हैं, यथा-बलूत (ओक), मैगनेलिया और लारेल। इस प्रकार की वनस्पति मुख्यतया असोम में देखने को मिलती है।

अल्पाइन वनस्पति हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में 2800 मीटर से लेकर 3700 मीटर की ऊंचाई तक मिलती है। इस क्षेत्र में इस वनस्पति को मर्ग कहा जाता है, क्योंकि अल्पाइन वनस्पति एक विस्तृत चारागाह की भांति प्रतीत होती है। 3600 मीटर की ऊंचाई तक सामान्यतः छोटे वृक्ष और झाड़ियां मिलती हैं, यथा-बर्च और जुनिपर, जबकि 3600 मीटर से लेकर 4800 मीटर की ऊंचाई तक झाड़ियां और काई ही मिलती हैं। 4800 मीटर के ऊपर जाने पर वनस्पतियां समाप्त हो जाती हैं। अल्पाइन प्रकार की वनस्पतियों में चिनार और अखरोट के वृक्ष आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।

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5. कंटीली वनस्पति

यह वनस्पति मुख्यतया गुजरात से लेकर राजस्थान और पंजाब में मिलती है। इन राज्यों के जिन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा औसतन 70 सेंटीमीटर से भी कम होती है, वहां कटीली वनस्पतियां मिलती हैं। इन क्षेत्रों में पायी जाने वाली वनस्पतियों में बबूल और खजूर के वृक्ष प्रमुख हैं। प्रायद्वीपीय पठार के मध्य भाग में भी उन क्षेत्रों में जहां दीर्घावधिक शुष्क  ग्रीष्मऋतु रहती है, कटीली वनस्पति मिलती है। ऐसे क्षेत्र मध्य प्रदेश से लेकर आंध्र प्रदेश तक विस्तृत हैं। इस प्रकार की वनस्पतियों में वृक्षों की अधिकतम ऊंचाई 3 मीटर तक होती है। इस प्रकार की वनस्पतियों की जड़ें लम्बी होती हैं और वृक्षों तथा झाड़ियों में लम्बे-लम्बे कांटे होते हैं । नागफनी और कैक्टस प्रजातियों की अर्द्ध-मरुस्थलीय वनस्पति अत्यल्प वर्षा वाले क्षेत्र में पाई जाती है। पश्चिमी राजस्थान में तो लगभग आधा मीटर की ऊंचाई वाली कटीली झाड़ियों के अतिरिक्त और कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता। ऐसी संभावना प्रकट की जा रही है कि कुछ काल के बाद इस क्षेत्र में वनस्पतियां रहेंगी ही नहीं, क्योंकि इस क्षेत्र में एक ओर तो वर्षा नहीं होती है और दूसरी ओर ऊंट तथा बकरी यहां की झाड़ियों को अपना आहार बनाती जा रही हैं। राजस्थान का यह क्षेत्र प्रत्येक भारतीय को वनस्पतियों की सुरक्षा के लिए सतर्क होने को आगाह करता है, क्योंकि यहां के जिस क्षेत्र में आज वर्षा नहीं हो रही है और वनस्पतियां समाप्तप्राय हैं, वहीं प्राचीनकाल में अत्यधिक वर्षा होती थी और सघन वनस्पतियां विद्यमान थीं। कालान्तर में वनस्पतियों के दोहन और कटाव के कारण यह क्षेत्र मरुभूमि में बदल गया।

6. ज्वारीय वनस्पति

यह वनस्पति मुख्यतया भारत के पूर्वी तटीय क्षेत्र में मिलती है। पूर्वी तट के क्षेत्र- गंगा, गोदावरी, कृष्णा आदि के निम्न डेल्टायी भाग में उच्च समुद्री ज्वार का पानी जमा हो जाता है और इस पानी से यहां की भूमि दलदली हो जाती है। बंगाल का सुन्दर वन ज्वारीय वनस्पति का सर्वप्रमुख उदाहरण है। समुद्रतटीय क्षेत्र में मैंग्रोव और सुन्दरी के वृक्ष बहुतायत में मिलते हैं। ज्वारीय वनस्पति मोटे तौर पर चिरहरित वनस्पति का ही एक भेद प्रतीत होती है। ज्वारीय वनस्पति के अंतर्गत आने वाले वृक्षों की जड़ें रेशेदार और घनी होती हैं और वृक्षों के तने जल से ऊपर उठे होते हैं। इन वृक्षों के बीज जब जल में गिरते हैं, तब शीघ्र ही जड़ का रूप ले लेते हैं और वहां एक नया वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। ज्वारीय वनस्पति आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं- इनके द्वारा समुद्री कटाव को रोकने में सहायता मिलती है, इनकी लकड़ियों से काष्ठ कोयले का निर्माण होता है और इस प्रकार की वनस्पतियों से टैनिन और ईधन की लकड़ी भी प्राप्त होती है।

घास क्षेत्र

भारत के घास क्षेत्र की तुलना सवाना या स्टेपी के घास क्षेत्र से नहीं की जा सकती है। भारत के घास क्षेत्र का विस्तार नमी वाली भूमि तथा साल पट्टी में और कुछ-कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में है। भारत के घास क्षेत्र का विभाजन तीन भागों में किया जाता है:

1. निम्न क्षेत्रीय घास: इस प्रकार की घास उन क्षेत्रों में मिलती है, जहां वार्षिक वर्षा 30 सेंटीमीटर से 200 सेंटीमीटर के बीच दर्ज की जाती है और ग्रीष्म ऋतु में तापमान उच्च होता है। इस प्रकार की घास ऊपरी भारत के मैदानी भाग में पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार और उत्तर-पश्चिम असम में प्राप्त होती है। इस प्रकार की घास अनेक प्रकार की मिट्टियों में उत्पन्न होती है और ये क्षेत्र पशुपालन के लिए उपयुक्त हैं।

2. उच्चक्षेत्रीय अथवा पर्वतीय घास: इस प्रकार की घास हिमालय क्षेत्र में 1,000 मीटर की ऊंचाई से ऊपर वाले क्षेत्र में तथा पश्चिमी घाट के वनों से जुड़े कर्नाटक के क्षेत्र में प्राप्त होती है। ये घास दक्षिण भारत के शोला वन में भी मिल जाती है।

3. नदी तटीय घास: इस प्रकार की घास उत्तरी भारत में मिलती है और ये भाबर चारागाह का निर्माण करती हैं, जो भैसों और अन्य पालतू पशुओं के लिए आहार उपलब्ध कराते हैं।

नमभूमि (वेटलैण्ड)

आर्द्र भूमि, पारिस्थितिक तंत्र का जटिल हिस्सा है जिसके अंतर्गत अंतःस्थल, तटीय क्षेत्र एवं समुद्री बांस की एक व्यापक श्रृंखला आती है। इसमें आर्द्र एवं शुष्क दोनों प्रकार के पर्यावरण की विशेषताएं होती हैं एवं अपने उद्गम के आधार पर अत्यधिक विविधता के क्षेत्र होते हैं। रामसर सम्मेलन के अनुसार, नम भूमि क्षेत्र के अंतर्गत दलदली, कच्छ क्षेत्र, जो कृत्रिम या प्राकृतिक, स्थायी या अस्थायी, हो सकते हैं, जिसमें पानी ठहरा हुआ या बहता हुआ हो सकता है। इसमें समुद्री क्षेत्र भी शामिल है जिसकी गहराई 6 मीटर से अधिक नहीं होती। इस तरह इस परिभाषा में मैंग्रेोव, प्रवाल भिति, एश्चुरी, क्रीक, खाड़ी समुद्री घास भूमि एवं झीलें आ जाती हैं।

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रामसर सम्मेलन

भारत उन प्रमुख देशों में शामिल है जिन्होंने 1972 में ईरान के रामसर शहर अंतरराष्ट्रीय महत्व के नम भूमि क्षेत्रों के बारे में हुए सम्मेलन में तैयार मसौदे पर हस्ताक्षर किया था। साल 2002 में राजस्थान की चिल्का झील को रामसर पुरस्कार भी दिया गया।

रामसर सम्मेलन के तहत भारत में नमभूमि क्षेत्रों की स्थिति-

नम भूमि का नाम राज्य
अष्टमुडी नमभूमि केरल
भितरकणिका ओडीशा
भोज मध्य प्रदेश
चिल्का झील ओडीशा
डीपोर बील असम
पूर्वी कलकत्ता नमभूमि प. बंगाल
हरिके झील पंजाब
कंजली पंजाब
केवलादेव राष्ट्रीय पार्क राजस्थान
कोलेरू झील आंध्र प्रदेश
लोकटक झील मणिपुर
प्वाइंट केलिमियर सेंक्चुरी तमिलनाडु
पोंग डैम झील हिमाचल प्रदेश
रोपड़ पंजाब
सांभर झील राजस्थान
स्पामकोट्टा झील केरल
सोमोरीरी (Tsomoriri) जम्मू एवं कश्मीर
वेम्बनाद-कोल नमभूमि केरल
वुलर झील जम्मू एवं कश्मीर
चंद्रताल हिमाचल प्रदेश
रेणुका हिमाचल प्रदेश
रुद्रसागर त्रिपुरा
अपर गंगा (ब्रजघाट-नरौरा के मध्य) उत्तर प्रदेश
होकरसर (Hokarsar) जम्मू एवं कश्मीर
सुरनीसर-मानसर जम्मू एवं कश्मीर
नलसरोवर गुजरात

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कच्छ वनस्पति (मैंग्रोव)

कच्छ वनस्पति, क्षार सहिष्णु प्रजाति है जो तटरेखा पर शैल्टर्ड एस्चुअरी, ज्चारीय नदमुख, पश्च जल क्षेत्र, नमकीन दलदली क्षेत्र में पायी जाती है। कच्छ वनस्पतियों की पारिस्थितिक और आर्थिक महत्ता और विभिन्न मानवीय कार्यकलापों के कारण उनके समक्ष आने वाले खतरों को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय ने 1986 में कच्छ प्रजाति के संरक्षण और प्रबंधन की एक स्कीम शुरू की। कच्छ वनस्पति और प्रवाल भित्ति राष्ट्रीय समिति की सिफारिशों पर सरकार द्वारा देश में 39 कच्छ वनस्पति क्षेत्रों की पहचान की गई है।

भारतीय प्रशांत क्षेत्र अपने प्रवद्धिष्णु मैंग्रोव के लिए जाना जाता है। दुनिया के कुछ उन्नत किस्म के मैंग्रोव गंगा, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा नदियों एवं अंडमान निकोबार द्वीप के जलोढ़ डेल्टा में पाए जाते हैं। राज्य वन रिपोर्ट 2009 के अनुसार देश में 4639 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में कच्छ वनस्पतियां हैं जोकि देश के भौगोलिक क्षेत्र का 0.14 प्रतिशत है। कच्छ वनस्पतियों के संरक्षण और उनकी पैदावार बढ़ाने के प्रयासों के बाद से देश में विशेषकर गुजरात, ओडिसा, तमिलनाडु और प. बंगाल में 58 वर्ग किलोमीटर कच्छ वनस्पति क्षेत्र में इजाफा हुआ है। पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में भारत के कुल मैंग्रोव का लगभग आधा हिस्सा पैदा होता है। उसके पश्चात् गुजरात और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह का स्थान आता है। तटीय विनियामक क्षेत्र नोटिफिकेशन 1991, जो कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत है, ने मैंग्रोव को पारिस्थितिकीय रूप से काफी संवेदनशील बताया है और इन्हें CRZ-1 में वर्गीकृत किया है जिससे मैंग्रोव क्षेत्रों का उच्च स्तर पर संरक्षण हो सके। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 ने यह माना से संरक्षण प्रदान करते हैं तथा सतत पर्यटन का संसाधन आधार होते हैं। इस दिशा में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने ओडीशा में राष्ट्रीय मैंग्रोव आनुवंशिक संसाधन केंद्र की स्थापना की। इसका उद्देश्य तटवर्ती राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को नष्ट हो चुके मैंग्रोव क्षेत्रों के पुनर्वास एवं मैंग्रोव आच्छादित क्षेत्रों में वृद्धि करने हेतु सहायता प्रदान करना है।

भारत सरकार द्वारा एक राष्ट्रीय समन्वय निकाय की स्थापना की गई है जिसने भविष्य में मैंग्रोव की गतिविधि के लिए चार राज्यों- गुजरात, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश एवं ओडीशा का चयन किया है। फरवरी, 2008 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने भारत में मैंग्रीवः जैव-विविधता, संरक्षण एवं पर्यावरणीय सेवाएं विषय पर राष्ट्रीय कार्यशाला इस उद्देश्य से आयोजित की कि अनुसंधान सूचना का वितरण संभव हो तथा शोधकर्ताओं एवं पणधारियों के मध्य संप्रेषण हो सके।

  • मैंग्रोव वैसे पेड़-पौधों एवं झाड़ियों का समूह है जो तटीय खारे पानी में उगते हैं। यह 25° उत्तर अक्षांशों से 25° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय सागरीय तट पर विकसित होते हैं। यह एश्च्यूरीज, डेल्टा तथा समुद्री तटरेखा के आसपास ज्वारीय क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाते हैं। विश्व में वर्तमान में मैंग्रोव की 110 प्रजातियां ज्ञात हैं।
  • इंडोनेशिया में विश्व के कुल मैंग्रोव वनों का 21 प्रतिशत पाया जाता है जो विश्व में सर्वाधिक है। ब्राजील, आस्ट्रेलिया, मैक्सिको तथा नाइजीरिया में यह विश्व के कुल क्षेत्रफल का क्रमशः9 प्रतिशत, 7 प्रतिशत, 5 प्रतिशत तथा 4.5 प्रतिशत पाया जाता है।
  • मैंग्रोव वनस्पति विश्व के लगभग 117 क्षेत्रों में लगभग 1,90,000 से 2,40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली है।
  • विश्व में सर्वाधिक सघन मैंग्रोव वन मलेशिया के तटवर्ती क्षेत्रों में पाए जाते हैं। भारत के मैंग्रोव वनों में लगभग 1600 वनस्पतियों एवं 3700 जीवों की पहचान की गई है। पश्चिम बंगाल का सुंदर वन क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है।
  • विश्व के कुल मैंग्रोव वनों का पांच प्रतिशत भारत में उपलब्ध है।
  • भारत में 42 वर्गों और 28 समूहों में मैंग्रोव की 69 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से 26 अंडमान और निकोबार क्षेत्र में एवं 18 प्रजातियां पूर्वी तट में पाई जाती हैं।
  • भारत में मैंग्रोव की दो देशज प्रजातियां हैं, पहली राइजोफोरा एन्नामलायाना जो किपिचवरम तमिलनाडु में और दूसरी ओडीशा के भीतरकनिका क्षेत्र में पाई जाती है।

 आर्द्रभूमि पक्षियों एवं पशुओं की दुर्लभ जातियों को संरक्षण प्रदान करती हैं। अधिकतर आर्द्रभूमियां प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से नदियों के अपवाह तंत्र से जुड़े होते हैं जैसे- गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदी तंत्र। भारत में आर्द्रभूमियां विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में वितरित हैं। ये एक तरफ लद्दाख के शीत शुष्क क्षेत्र में हैं तो दूसरी ओर राजस्थान के गर्म जलवायु क्षेत्र में भी होते हैं।

आर्द्र भूमि के संरक्षण एवं प्रबंधन संबंधी कार्यक्रम सर्वप्रथम 1987 में, मुख्य आर्द्रभूमि के विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र में अवस्थिति का व्यापक अध्ययन के उद्देश्य से, प्रारंभ किया गया। आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न गतिविधियां थीं-

  1. नमभूमियों की प्रबंध कार्य योजनाएं तैयार करना और उनका कार्यान्वयन।
  2. उपयुक्त पारिस्थितिकी आधार पर पर्यावरण मुद्दों और नमभूमि के प्रबंधन से सम्बद्ध अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देना।
  3. भारत में नमभूमि स्रोतों का मूल्यांकन
  4. अंतरराष्ट्रीय सहयोग।

कार्यक्रम की निरंतरता बनाए रखने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं जिनमें इंजीनियरिंग विकल्पों को अपनाने के स्थान पर संरक्षण की जैविक पद्धति पर मुख्य ध्यान दिया गया है। केचमेंट क्षेत्र उपचार के लिए वाटरशेड प्रबंध पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। विभिन्न उद्देश्यों एवं लक्ष्यों- सर्वेक्षण एवं चिन्हीकरण, संरक्षण, वनीकरण, प्राकृतिक पुनर्उत्पादन, प्रदूषण नियंत्रण, खरपतवार नियंत्रण, वन्यजीव संरक्षण, सतत मत्स्य विकास, पर्यावरणीय शिक्षा एवं विशेष पर्यावरण विकास गतिविधियों को जनसहभागिता द्वारा पूरा करना।

दिसम्बर 2008 तक के आंकड़ों के अनुसार 158 अनुबंधित देशों के कुल 1828 नमभूमि क्षेत्रों को रामसर सूची में शामिल किया जा चुका था जिनका कुल क्षेत्रफल लगभग 16,89,85,680 हैक्टेयर (1,68,985 वर्ग किमी.) है। रामसर स्थलों को मान्यता प्रदान करने का सिलसिला 1974 के बाद ही प्रारंभ हुआ।

भारत में अभी तक मात्र 25 नमभूमि स्थलों की रामसर का दर्जा प्राप्त है जिनका कुल क्षेत्रफल लगभग 7 लाख हैक्टेयर है जो क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से विश्व में 39वां है। रामसर श्रेणी में आने वाला अभी देश का सबसे बड़ा नमभूमि क्षेत्र चिल्का झील (1,16,500 हैक्टेयर) व सबसे छोटा रामसर क्षेत्र चंद्रताल (49 हैक्टेयर) है

गौरतलब है कि अभी तक भारत के 24 राज्यों में 94 आर्द्रभूमियां राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम के तहत चिन्हित की गई हैं।

रामसर (आर्द्रभूमि) संधि

रामसर संधि का उद्देश्य है आर्द्र भूमि का संरक्षण। भारत इसमें 1982 में शामिल हुआ। इसके तहत् भारत के 6 आर्द्र भूमि को महत्वपूर्ण वेटलैंड के रूप में चुना गया है- चिल्का झील, केवला देव राष्ट्रीय उद्यान, बूलर झील, हरिके बैराज झील, लोकटक झील तथा सांभर झील।

आर्द्र भूमि संरक्षण हेतु नवीन दिशा-निर्देश

आर्द्र भूमि के संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए सरकार ने 2 दिसंबर, 2010 को नए दिशा-निर्देश जारी किए। इसके अंतर्गत पर्यावरणीय दृष्टि से अति-संवेदनशील इस उच्च जैव-विविधता वाले स्थल को क्षति से बचाने के लिए निर्माण, बिना उपचारित कचरे की डम्पिंग तथा औद्योगीकरण भूमि अवक्रमण तथा अन्य मानवीय गतिविधियों से बुरी तरह प्रभावित है।

सरकार द्वारा अधिसूचित आर्द्र भूमि संरक्षण नियम, 2010 में केंद्रीय, राज्य तथा जिला स्तर पर आर्द्र भूमि विनियामक प्राधिकरण के गठन का प्रावधान किया गया है। इस प्राधिकरण में एक अध्यक्ष और 11 सदस्य होंगे। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का सचिव इसका अध्यक्ष होगा। प्राधिकरण पर केंद्र सरकार के अधिनियम में उल्लिखित कानून लागू करना, आर्द्र भूमियों के संरक्षण एवं परिरक्षण हेतु राज्य सरकार की जरूरी सलाह देना, नम भूमि में विनियमित गतिविधियों की प्रक्रिया का निर्धारण करना, स्थानीय प्राधिकारियों के साथ विचार-विमर्श कर आर्द्र भूमि के सीधे प्रभाव क्षेत्र का निश्चय करने, नवीन आर्द्र भूमि की पहचान के प्रस्ताव का आकलन करने, संबंधी जिम्मेदारियां होंगी।

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