मुहम्मद बिन तुगलक: 1325-1351 ई. Muhammad bin Tughlaq 1325-1351 AD.

फरवरी-मार्च 1325 ई. में अपने पिता की मृत्यु के तीन दिन के पश्चात् शहजदा जौना ने अपने को मुहम्मद बिन तुगलक की उपाधि से दिल्ली का सुल्तान घोषित किया। चालीस दिनों के बाद वह दिल्ली की ओर बढ़ा तथा सुल्तानों के प्राचीन राजमहल में बिना किसी विरोध के काफी तड़क-भड़क के बीच राजसिंहासन पर बैठा। अलाउद्दीन की तरह उसने लोगों में सोने-चाँदी सिक्कों का तथा सरदारों में उपाधियों का खूब वितरण किया।

मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के इतिहास का अध्ययन करने के लिए हम लोगों के पास एक समकालीन पदाधिकारी जियाउद्दीन बरनी, जिसने सुल्तान के उत्तराधिकारी फिरोज शाह के समय में अपना ग्रन्थ लिखा था, के प्रशंसनीय इतिहास के अतिरिक्त, उसके निकट समकालीनों के अनेक अन्य फारसी ग्रन्थ हैं, जैसे शम्से सिराज का तवारीख-ए-फीरोजशाही, ऐनुल्मुल्क मुल्तानी का मुनशाते माहरू, अमीर खुसरो का तुगलकनामा तथा यहिया बिन अहमद सरहिन्दी का तवारीखे-ए-मतुबारक शाही, जो तुलनात्मक दृष्टि से बाद का ग्रन्थ है और जिसमें काफी परिपूरक वृत्तान्त हैं। इस काल के इतिहास के लिए अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता का ग्रन्थ भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह सितम्बर, 1333 ई. में भारत आया। दिल्ली के सुल्तान ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया और उसे दिल्ली का प्रमुख काजी नियुक्त किया। इस पद पर वह जुलाई, 1342 ई. में सुल्तान का राजदूत बनाकर चीन भेजे जाने तक रहा। उसके वृत्तान्त पर सामान्यत निष्पक्षता की छाप है तथा इसमें विस्तृत विवरण दिये गये हैं। मुहम्मद बिन तुगलक के सिक्कों से भी उपयोगी सूचना मिलती है।

वास्तव में मुहम्मद बिन तुगलक का व्यक्तित्व असाधारण है तथा इतिहास में उसका स्थान-निर्धारण करना कठिन कार्य है। वह अपूर्व प्रतिभाशाली था अथवा पागल था: आदर्शवादी था या स्वप्नदशीं था। रक्त का प्यासा प्रजापीड़क था अथवा परोपकारी राजा था। पाखंडी और धर्म में अविश्वासी था अथवा धर्मात्मा मुसलमान था? इसमें सन्देह नहीं कि वह अपने समय के प्रकांड पंडितों एवं निपुण विद्वानों में से एक था। जिसके लिए बरनी तथा अन्य लोगों ने उसकी उचित प्रशंसा की है। वह तीक्ष्णबुद्धि, आश्चर्य-जनक स्मरणशक्ति एवं ज्ञानार्जन की असाधारण योग्यता से सम्पन्न था। वह तर्क-शास्त्र, दर्शन, गणित, ज्योतिष-विद्या एवं पदार्थ विज्ञान आदि विद्या की विभिन्न शाखाओं में निष्णात था। रचना एवं शैली पर उसका पूर्ण अधिकार था। सुन्दर लिखावट लिखने में उसका कोई सानी न था। उसे फारसी काव्य का विशाल ज्ञान था तथा वह अपने पत्रों में फारसी पद्यों का उद्धरण किया करता था। औषध शास्त्र से वह अनभिज्ञ न था। तर्क विद्या में भी वह पूर्ण प्रवीण था। जिस विषय में वह पूर्ण दक्ष था, उसमें उससे कोई विवाद आरम्भ करने के पहले विद्वान् दो बार अवश्य सोच लिया करते थे। वह एक अनुभवी सेनापति था। उसने अनेक बार विजय हासिल की थीं तथा बहुत कम आक्रमणों में वह हारा था।

परन्तु सुल्तान में व्यवहारिक निर्णय शक्ति एवं सामान्य बुद्धि का अभाव था। अपने सैद्धान्तिक ज्ञान के आवेश में आकर वह ऊंचे सिद्धान्तों एवं काल्पनिक योजनाओं में डूबा रहता था। यद्यपि उसकी योजनाएँ सिद्धान्त रूप से ठोस रहती थीं तथा कभी-कभी उनमें राजनैतिक सूझ की चमक भी होती थी, पर वास्तविक कार्य में वे अव्यवहारिक सिद्ध हुई तथा अन्त में उसके राज्य पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ा। यह उसके चरित्र में कुछ गम्भीर दोषों के कारण हुआ।

अपने शासन-काल के आरम्भ से ही मुहम्मद बिन तुगलक, स्पेन के फिलिप द्वितीय के समान, शासन के ब्योरेवार विवरणों को देखने में तत्परता से संलग्न हो गया। सर्वप्रथम उसने उस समय रखे जाने वाले रजिस्टर (बही) के नमूने पर भूमिकर के लिए एक रजिस्टर संकलित करने की आज्ञा दी और तब से राजस्व-विभाग में निर्विघ्न रूप से कार्य होने लगा। पर शीघ्र ही उसने गंगा एवं यमुना के बीच की समृद्ध एवं उर्वर भूमि दोआब में एक अविचारपूर्ण आर्थिक प्रयोग किया। इस कार्य को देखने के लिए उसने दीवान-ए-कोही की स्थापना की। उसने कर की दर को बढ़ा दिया तथा कुछ अतिरिक्त करों (अबवाबों) को पुनर्जीवित किया और चलाया। समकालीन एवं उत्तरकालीन मुस्लिम लेखकों के वर्णनों में भेद एवं संदिग्धता रहने के कारण इस अतिरिक्त कर-निर्धारण के वास्तविक मूल्य को ठीक-ठीक निश्चित करना सम्भव नहीं है। कुछ आधुनिक लेखक यह सुझाव पेश करते हैं कि यह कर-वृद्धि मूलरूप में अत्याधिक नहीं थी तथा अधिकतम 50 प्रतिशत से आगे नहीं गयी थी, जो सीमा अलाउद्दीन के समय में पहुँच चुकी थी। उनकी यह भी धारणा है कि दोआब के लोगों पर विशेष कर लगाने में सुल्तान का ध्येय (दोआब के विद्रोही निवासियों के विरुद्ध) दंड-प्रद कार्य तथा कोष को पुन: भरने का साधन नहीं था, जैसा कि बदायूनी तथा आधुनिक काल में सर वुल्सेले हेग ने अनुमान किया है, परन्तु वह ध्येय था सैनिक साधनों को बढ़ाना तथा शासन को एक कार्यक्षम आधार पर संगठित करना। जो कुछ भी हुआ हो इसमें संदेह नहीं कि इस कार्य से दोआब के लोगों को बहुत कष्ट हुआ, जो खल्जियों के समय से ही अत्यधिक कर के बोझ का अनुभव कर रहे थे, विशेषरूप में  इसलिए की यह बिलकुल असमय में लगाया गया, जबकि देश में एक भयानक दुर्भिक्ष था। दुर्भिक्ष का भी ख्याल कर राज्य ने अपनी माँगों को कम नहीं किया, पर इसके विपरीत उसके अधिकारी कठोरता से कर वसूल करते रहे। परिश्रम करने वाले किसान वर्ग की कठिनाइयों को कम करने का भी राज्य ने कोई उपाय नहीं किया। खेतिहरों को ऋण देना, कुएँ खुदवाना तथा सीधे राज्य प्रबन्ध और आर्थिक समर्थन द्वारा बिना जोती हुई भूमि पर खेती करवाना जैसे सुल्तान की सहायता के कार्य भी देर से हुए। खेती भयानक रूप से बर्बाद हुई तथा दोआब के दरिद्र किसान अपने खेत छोड़कर अन्य स्थानों में जा बसे। अत्याधिक क्रुद्ध होकर सुल्तान ने अनिच्छुक रैयतों को अपने कार्य पर वापस लाने के लिए कठोर प्रतिशोध का सहारा लिया जिसका परिणाम तुगलक-वंश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण हुआ।

1327 ई. में मुहम्मद बिन तुगूलक का दिल्ली से देवगिरि, जिसका नाम उसने दौलताबाद रखा, राजधानी बदलने का निर्णय एक दूसरा अनुचित कदम था, जिससे अन्त में लोगों को असीम कष्ट हुआ। सुल्तान की यह योजना, के लोगों से प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से, एक पागलपनपूर्ण प्रयोग नहीं , जैसा कुछ आधुनिक लेखकों ने अनुमान किया है, बल्कि यह विचार में ठोस था। नयी राजधानी केन्द्र में स्थित थी और युद्ध कला की दृष्टि इसकी स्थिति अच्छी थी। उस समय राज्य के अंतर्गत उत्तर में दोआब, पंजाब के मैदान लाहौर और सिंधु से लेकर गुजरात के समुद्रतट तक फैले प्रदेश, पूर्व में बंगाल का सम्पूर्ण प्रान्त, मध्य भाग में मालवा, महोबा, उज्जैन एवं धार के राज्य तथा (दक्षिण में) दक्कन, जो हाल ही में इसमें सम्मिलित किया गया था, ऐसे राज्य को सुल्तान के अनवरत ध्यान की आवश्यकता थी। बरनी लिखता है- यह स्थान मध्य में स्थित था। दिल्ली, गुजरात, लखनौती, सातगाँव, सोनारगाँव तेलेम, माबर, द्वारसमुद्र एवं काम्पिल यहाँ से लगभग समान दूरी पर थे और इन दूरियों में बहुत कम अन्तर था। साथ-साथ, नयी राजधानी मंगोल आक्रमणों से सुरक्षित थी जिनका सर्वदा भय बना रहता था। यहाँ सुन्दर भवनों का निर्माण कर सुल्तान ने भै नयी राजधानी को अधिकारियों एवं लोगों के रहने योग्य बनाने का भरसक प्रयत्न किया। इन सुन्दर भवनों के वैभव का वर्णन इब्नबतूता, शाहजहाँ के शासनकाल के दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी तथा सत्रहवीं सदी के यूरोपीय यात्रियों ने किया है। जो बाहर से यहाँ आकर बसना चाहते थे उनके लिए सभी सुविधाओं का प्रबन्ध किया गया। उनकी सुविधा के लिए एक लंबी-चौड़ी सड़क बनवायी गयी, इसके दोनों ओर छायादार वृक्ष लगाये गये तथा दिल्ली और दोलताबाद के बीच नियमित रूप से डाक का प्रबंध किया गया। बरनी तक लिखता है कि सुल्तान (दिल्ली से) बाहर जाने वालों के प्रति, उनकी यात्रा में तथा उनके (दौलताबाद) पहुँचने पर, दानशीलता और अनुग्रह दिखलाने में उदार था। इन सब में सुल्तान ने विवेक से काम लिया।

परंतु जब दिल्ली के लोगों ने भावनावश अपने घर छोड़ने में आगा-पीछा किया, जो (घर) भूतकाल की यादगारों से जुड़े थे, तब सुल्तान की सुबुद्धि पर उसके कठोर स्वभाव ने विजय पायी तथा उसने दिल्ली के सभी लोगों को अपने सामान लेकर एक साथ दौलताबाद जाने की आज्ञा दे डाली। हम लोगों को इब्नबतूता के इस असमर्थनीय कथन में विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है। कि एक अंधे को घसीटकर दिल्ली से दौलताबाद ले जाया गया और यह कि एक शय्यागत लँगड़े को पत्थर फेंकने के एक यंत्र द्वारा वहाँ फेंका गया और न हमें बरनी के ही इस अतिशयोक्तिपूर्ण कथन को अक्षरश: स्वीकार करना चाहिए कि- नगर (दिल्ली) के भवनों, प्रासादों अथवा इसके बाहरी भागों में एक भी बिल्ली या कुत्ता नहीं छोड़ा गया। इस प्रकार के कथन भारत के मध्य कालीन लेखकों में सामान्य रूप से पाये जाते थे। नगर का पूर्ण विनाश अथवा परित्याग तो सोचा भी नहीं जा सकता। पर सात सौ मील की लम्बी यात्रा में दिल्ली के लोगों को निस्सन्देह अत्यन्त कष्ट हुआ। थकावट से चूर होकर उनमें से बहुत तो रास्ते में ही मर गये तथा बहुत, जो दौलताबाद पहुँच भी गये, अपरिचित भूमि में निर्वासितों की तरह, अत्यन्त नैराश्य एवं कष्ट में परलोक सिधारे। ये ही सुल्तान की गलत योजना के भयानक परिणाम हुए। श्री स्टैनले लेनपूल का उचित ही कथन है कि- दौलताबाद गुमराह शक्ति का स्मारक चिह्न था।


सुल्तान, अन्त में अपनी नीति को मूर्खतापूर्ण एवं अन्याय स्वीकार कर, कचहरी को पुन: दिल्ली ले गया और लोगों को वापस आने की आज्ञा दी। पर बहुत कम लौटने के लिए जीवित रहे। दिल्ली ने अपनी पुरानी समृद्धि एवं ऐश्वर्य खो दिया, जो बहुत काल तक पुनः प्राप्त नहीं किया जा सका। हाँ, सुल्तान नगर (दिल्ली) में अपने राज्य के कुछ शहरों से विद्वानों, सज्जनों, व्यापारियों तथा भूमिपतियों को लाया तथा उन्हें वहाँ बसाया। इब्नबतूता ने 1334 ई. में दिल्ली को कहीं-कहीं निर्जन एवं विनाश के चिह्न सहित पाया।

मुहम्मद बिन तुगलक ने मुद्रा-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रयोग किये। एडवर्ड टॉमस ने उसका वर्णन धनवानों के युवराज के रूप में किया है तथा वह लिखता है कि- उसके शासनकाल के सबसे प्रारम्भिक कार्यों में एक था सिक्के को फिर से तैयार करना, बहुमूल्य धातुओं के बदले हुए मूल्य के अनुकूल इसके (सिक्के के) दुमू विभागों को पुनः क्रमानुसार रखना तथा छोटे सिक्कों के नये और अधिक शुद्ध प्रतिरूप निकालना। उसने सोने का एक नया सिक्का चलाया, जिसे इब्नबतूता दीनार कहता था तथा जिसका तौल 200 ग्रेन था। पहले के 175 ग्रेन के तौल के सोने और चाँदी के सिक्कों के बदले उसने अदली (एक सिकके का नाम) को फिर से चलाया, जिसका वजन 140 ग्रेन चाँदी के बराबर था। शायद इस परिवर्तन का कारण यह था कि दक्कन के आक्रमणों के फलस्वरूप राजकीय कोष के अधिक मात्रा में सोने से परिपूर्ण हो जाने से सोने-चाँदी के सम्बन्धित मूल्य में कमी हो गयी थी।

परन्तु उसके प्रयोगों में सबसे अधिक साहसपूर्ण था 1329 ई. और 1330 ई. के बीच ताम्बे के सिक्कों के रूप में सांकेतिक (टोकन करेंसी) का प्रचलन करना, जिसके लिए उसके समक्ष चीन एवं फारस के दृष्टान्त थे। तेरहवीं सदी के अन्त में चीन के मंगोल सम्राट कुबलै खाँ ने चीन में कागजू का सिक्का चलाया तथा फारस के शासक गैखातू ने 1294 ई. में इसका प्रयोग किया। मुहम्मद बिन तुगलक ने भी आज्ञा निकाल कर घोषणा की कि लेनदेन के सभी कायों में ताम्बे के सांकेतिक सिक्के, सोने-चाँदी के सिक्कों की तरह, प्रचलित सिक्कों के रूप में चलें। इस कार्य के पीछे सुल्तान के उद्देश्य थे, अपने रिक्त कोष को पुन: भरना तथा विजय एवं शासन की अपनी योजनाओं के लिए अत्याधिक साधन पाना। अत: उस पर लोगों के छलने की युक्ति या अभिप्राय रखने का अपराध नहीं लगाया जा सकता।

यह सावधानी से संगठित किया हुआ कार्य मुख्यत: दो कारणों से असफल रहा। पहला कि यह समय से बहुत आगे था तथा लोग इसका वास्तविक महत्त्व नहीं समझ सके। दूसरा यह कि सुल्तान ने ताम्बे के सिक्के चलाने पर राज्य का एकाधिकार स्थापित नहीं किया तथा जालसाजी के विरुद्ध उचित सावधानी बरतने में असफल रहा। जैसा कि टॉमस लिखता है, राजकीय टकसाल के बनाये हुए एवं साधारण कौशल-संपन्न शिल्पकारों के हाथ से बनाये हुए सिक्कों में अन्तर परखने के लिए कोई विशेष प्रबंध नहीं था। चीन में कागज के नोटों के अनुकरण को रोकने के लिए जिस प्रकार सावधानी बरती जाती थी दै ताम्बे के सांकेतिक सिक्कों की प्रामाणिकता के लिए खास तौर पर प्रतिबन्ध न था तथा जनसाधारण द्वारा उत्पादन की शक्ति की कोई सीमा थी। परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में जाली सिक्के चल निकले। बरनी हमें कहता है कि- इस आज्ञा की घोषणा से प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल बन गया तथा विभिन्न प्रान्तों के हिन्दुओं ने तांबे के करोड़ों और लाखों सिक्के ढाले। इन्हीं से वे अपना कर अदा करते थे और इन्हीं से वे घोड़े,  अस्त्रशस्त्र तथा सब तरह की सुन्दर वस्तुएँ खरीदते थे। राय, गाँव के मुखिया तथा भूमिपति ताम्बे के इन सिक्कों के सहारे धनी एवं बलवान बन गये, पर राज्य निर्धन बन गया….उन स्थानों में जहाँ सुल्तान की आज्ञा का भय था, सोने के टके का मूल्य बढ़कर सौ (ताम्बे के) टकों के बराबर हो गया। प्रत्येक सोनार अपनी दुकान में ताम्बे के सिक्के बनाया करता था। कोष तांबे के इन सिक्कों से भर गया। उनका मूल्य इतना घट गया कि ये ककड़ों अथवा ठीकरों से अधिक मूल्यवान्। नहीं गिने जाने लगे। पुराने सिक्के का मूल्य दुर्लभ होने के कारण, चार या पाँच गुना बढ़ गया। फलत: व्यापार एवं व्यवसाय पर बुरा प्रभाव पड़ा, अत्यन्त गड़बड़ी फैल गयी। सुल्तान ने अपनी गलती महसूस की और सिक्का चलाने के करीब चार वर्ष बाद उसने अपनी आज्ञा रद्द की। उसने कोष में लाये गये ताम्बे के प्रत्येक सिक्के के राज्य द्वारा स्वीकृत मूल्य के बराबर के सोने एवं चाँदी के सिक्के दिये। इस प्रकार राज्य के बिना किसी लाभ के सार्वजनिक धन का बलिदान हो गया। ताम्बे के इतने अधिक सिक्के दिल्ली लाये कि तुगलकाबाद में उनके ढेर इकट्ठे हो गये, जो एक शताब्दी बाद मुबारक शाह द्वितीय के राज्यकाल में देखे जा सकते थे।

इस शासन-काल में दिल्ली सल्तनत बाहरी संकट से पूर्णत: मुक्त नहीं थी। 1328-1329 ई. में ट्रांस-औक्सियाना के चगताई सरदार तरमाशीरीन खाँ ने भारत पर आक्रमण किया। उसने पंजाब के मैदानों को लूटा तथा दिल्ली के बाहरी अंचल पर पहुँच गया। दिल्ली से राजधानी के परिवर्तन तथा शायद दिल्ली के शासकों द्वारा उत्तर-पश्चिम सीमा की दुर्बल प्रतिरक्षा ने उसे इस महत्त्वाकांक्षा पूर्ण योजना के लिए अवसर दे दिया। यहिया बिन अहमद तथा बदायूनी के लेखानुसार मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे पराजित कर देश के बाहर खदेड़ दिया, पर फरिश्ता लिखता है कि सुल्तान ने सोने और जवाहरात के बहुत-से उपहार उपस्थित कर, जिनका वर्णन वह राज्य के मूल्य के रूप में करता है, उसे रिश्वत दे अपनी ओर कर लिया। जो भी हो, यह आक्रमण साधारण धावे से अधिक नहीं था तथा तरमाशीरीन जिस प्रकार अकस्मात आया था, उसी प्रकार अदृश्य भी हो गया।

अलाउद्दीन की तरह मुहम्मद बिन तुगलक भी विश्व-विजय के अपूर्व स्वप्न देखा करता था। कुछ खुरासानी सरदारों से, जो सुल्तान की अत्याधिक उदारता से प्रलोभित होकर उसके दरबार में आये थे तथा अपना उल्लू सीधा करना चाहते थे, प्रोत्साहन पाकर सुल्तान ने, अपने शासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में, खुरासान एवं ईराक जीतने की महत्त्वाकांक्षी योजना बनायी तथा इस उद्देश्य से एक विशाल सेना इकट्ठी की। बरनी लिखता है कि दीवाने अर्ज के दफ्तर में तीन लाख सत्तर हजार व्यक्ति भरती किये गये तथा उन्हें पूरे एक वर्ष तक राज्य की ओर से वेतन दिया गया। यह वास्तव में सच है कि उस समय खुरासान अपने दुराचारी राजा अबुसईद के अधीन अव्यवस्थित दशा में था, जिसका लाभ कोई भी बाहरी शत्रु उठा सकता था। पर दिल्ली के सुल्तान द्वारा इसकी विजय निस्सन्देह एक असम्भव कार्य थी, क्योंकि स्वयं उसी का अधिकार उसके अपने राज्य भर में, विशेषतः दक्कन में, सुरक्षित आधार पर दृढ़ नहीं समझा जा सकता था। भौगोलिक तथा यातायात की कठिनाइयाँ भी साधारण तरह की नहीं थीं। हिन्दूकुश अथवा हिमालय की घाटियों से होकर एक विशाल सेना को ले जाना तथा दूरस्थ देशों में इसके लिए खाद्य पदार्थ का प्रबन्ध करना बहुत बड़े काम थे। यह भी विचारणीय है कि दिल्ली के सैनिकों के लिए, जिन्होंने अब तक दुर्बल एवं विभाजित भारतीय शक्तियों के विरुद्ध विजयें प्राप्त की थीं, मध्य एशिया के वीर जत्थों के साथ सफलतापूर्वक अपनी ताकत अजमाना कहाँ तक सम्भव था। और भी, चगताई सरदार तरमशीरीन खाँ तथा मिस्र का सुल्तान जो दोनों पतनशील फारसी साम्राज्य की पूर्वी एवं पश्चिमी सीमाओं पर आँखें गड़ाये बैठे, दिल्ली के सुल्तान के झूठे मित्र थे तथा उसके आयोजित आक्रमण में उसकी सहायता करने की अपेक्षा अपने उल्लू सीधे करने में ही अधिक दृढ़-संकल्प थे। इस प्रकार प्रत्येक दृष्टिकोण से दिल्ली के सुल्तान की योजना पूर्णतया नीति-विरुद्ध थी। शायद धनाभाव के कारण इसे त्याग देना पड़ा। बरनी लिखता है- जिन देशों के प्रति लोभ किया गया, वे अधिकृत नहीं हुए…तथा उसका धन जो राजनैतिक शक्ति का वास्तविक स्रोत था, खर्च हो गया

मुहम्मद बिन तुगलक ने तिब्बत एवं चीन पर विजय प्राप्त करने का असम्भव विचार कभी नहीं रखा। पर एक समकालीन अधिकारी बरनी एवं इब्नबतूता स्पष्ट रूप से उसकी करजल पर्वत, जो हिन्द (भारत) एवं चीन के राज्यों के मध्य में है, योजना का उल्लेख करते हैं। स्पष्टत: यह आक्रमण कुमायूँ-गढ़वाल क्षेत्र की कतिपय धृष्ट जातियों के विरुद्ध किया गया, जिसका उद्देश्य उनको दिल्ली सुल्तान के नियंत्रण में लाने का था। 1337-1338 ई. में एक योग्य सेनापति के अधीन एक विशाल सेना दिल्ली से भेजी गयी।

परन्तु प्रारम्भ की एक सफलता के बाद भौगोलिक कठिनाइयों, वर्षा ऋतु के आगमन तथा खाद्य पदार्थ की कमी के कारण दिल्ली की सेना को कष्ट हुआ। इस दुर्भाग्य पूर्ण आक्रमण की कहानी कहने को बहुत कम (बरनी के लेखानुसार दस, इब्नबतूता के लेखानुसार तीन) बचे रहे। पर इसके तात्कालिक उद्देश्य की पूर्ति हो गयी, क्योंकि पहाड़ियों ने संधि कर ली तथा दिल्ली के सुलतान को कर देने के लिए राजी हो गये।

फिर भी मुहम्मद बिन तुगलक की सभी झक्की योजनाओं का मिला-जुला परिणाम उसके लिए घातक सिद्ध हुआ। उनसे उसके राज्य के लोगों को अपार कष्ट हुआ, जो उस समय दुर्भिक्ष के उपद्रव से भी पीड़ित थे तथा अंत में उनका धैर्य समाप्त हो गया। सर्वसाधारण का अस्नातोश सुल्तान की प्रभुता के विरुद्ध खुले विद्रोहों में व्यक्त हुआ। उसका सारा शासन-काल बार-बार होने वाले उपद्रवों से समाप्त हो गया, जिससे उसका क्रोध और भी प्रबल हो उठा, उसकी प्रतिष्ठा एवं प्रभुता नष्ट हो गयी तथा उसके विशाल साम्राज्य के विच्छेद की गति तीव्र हो गयी।

प्रारंभ के दोनों विद्रोह आसानी से कुचल दिए गए तथा विद्रोहियों को दृष्टांत के योग्य दंड दिए गए। बहौदीन गुरशा ने जो, गयासुद्दीन तुगलक का भांजा और मुहम्मद बिन तुगलक का खास फुफेरा भाई था तथा जो दक्कन में शोरापुर से लगभग दस मील उत्तर स्थित सागर का जागीरदार था, सुल्तान की प्रभुता मानने से इनकार कर दिया और 1326 अथवा 1327 ई. में उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। पर वह साम्राज्यवादियों द्वारा बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। जीवित अवस्था में उसकी खाल उतार ली गयी, उसका मृत शरीर नगर में चारों ओर घुमाया गया तथा उसकी फाँसी दूसरों के लिए चेतावनी के रूप में घोषित हुई- इसी प्रकार सभी राजद्रोही नेस्तनाबूद होंगे।

अगले वर्ष जो अधिक भयंकर विद्रोह हुआ, वह था बहराम ऐबा का, जिसका उपनाम था किशलू खाँ तथा जिसके अधीन उच्च सिंध एवं मुलतान की जागीरें थीं। मुहम्मद बिन तुगलक उस समय देवगिरि में था। वह दिल्ली होकर मुलतान की ओर बढ़ा तथा अबुहर के मैदान की लड़ाई में विद्रोही को बुरी तरह परास्त किया। सुल्तान का झुकाव मुलतान वासियों के कत्ले-आम का हुक्म देने का था, पर फकीर रुक्नुद्दीन ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। बहराम को पकड़ लिया गया तथा उसका सिर उतार कर, विद्रोही प्रवृत्ति के लोगों के लिए चेतावनी के रूप में, मुलतान नगर के द्वार पर लटका दिया गया।

इन दोनों विद्रोहों के दमन से सुल्तान की स्थिति जरा भी मजबूत नहीं हुई बल्कि 1325 ई. से उसके भाग्य का ह्रास होने लगा, उसकी प्रभुता को हिन्दू सरदार और प्रान्तों के मुस्लिम शासक (सूबेदार) खुले आम ललकारने लगे और वे स्वतंत्रता व्यक्त करने का भी साहस करने लगे। उत्तर भारत में सुल्तान के उलझे रहने से लाभ उठा कर माबर के शासक जलालुद्दीन अहसन शाह ने 1335 ई. में अपने को स्वतंत्र घोषित किया तथा अपने नाम से सिक्के ढाले। सुल्तान स्वयं उसके विरुद्ध सेना लेकर चला; पर वारंगल पहुँचने पर, अपने खेमे में हैजा फैल जाने से विवश होकर, उसे दौलताबाद लौट जाना पड़ा। इस प्रकार मदुरा का स्वतंत्र मुस्लिम राज्य स्थापित हुआ, जो 1377-1378 ई. तक बना रहा, जब नये विजयनगर राज्य के समक्ष इसका पतन हो गया। परम्परागत कथा के अनुसार, इस विजयनगर राज्य की नींव 1336 ई. में पड़ी।

उत्तर में बंगाल प्रान्त के शासक फकरूद्दीन मुबारक शाह ने, जिसकी दिल्ली सल्तनत के प्रति स्वामिभक्ति सर्वदा सन्देहजनक रहती आयी थी, शीघ्र ही 1338 ई. में अपनी राजभक्ति का जुआ उखाड़ फेंका तथा अपने नाम से सिक्के ढाले। दिल्ली का सुल्तान, जो उस समय दूसरी मुसीबतों में पहले से ही उलझा हुआ था, उसे वशीभूत करने के लिए कुछ भी नहीं कर सका और इस प्रकार बंगाल एक स्वतंत्र प्रान्त बन गया। साम्राज्य के अन्य भागों में भी एक के बाद दूसरे बलवे शीघ्रता से होते रहे, जिनमें सबसे अधिक भयानक था 1340-1341 ई. का अवध एवं जाफराबाद के शासक ऐनुलमुल्क का विद्रोह। ये सब विद्रोह वस्तुत: 1342 ई. के अन्त तक दबा दिये गये, पर इन्होंने राज्य के साधनों पर बुरा प्रभाव डाला। इन विद्रोहों ने सुल्तान की शक्ति को समाप्त कर दिया तथा उसके जोश को ठंडा कर दिया।

अत्यन्त व्यग्र करने वाली इस परिस्थिति में सुल्तान ने, मिस्र के अब्बासी खलीफा से विशिष्ट अधिकार-पत्र प्राप्त कर, अपनी पतनशील प्रभुता को दृढ़ करने के लिए धार्मिक स्वीकृति की चेष्टा की। इच्छित विशिष्ट अधिकार-पत्र आया तथा मुहम्मद बिन तुगलक के खुतबा एवं सिक्कों पर अपने नाम के बदले खलीफा का नाम चढ़वा दिया। पर उसका लक्ष्य पूरा नहीं हुआ। उसकी प्रजा की राजभक्ति तथा आस्था पर इतना कठोर आघात हुआ था कि वह खलीफा के विशिष्ट अधिकार-पत्र के बल पर भी पुनः प्राप्त नहीं हो सकती थी। सच पूछिए तो राजसिंहासन पर सुल्तान के अधिकार के विषय में तो किसी ने आपत्ति की नहीं थी; यह तो उसकी नीति तथा उसके कार्य थे, जो उसकी प्रजा को पसन्द नहीं आये।

राज्य के प्राय: सभी भागों में सुल्तान को भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। तेलंगाना में प्रलय नायक और उसके बाद उसके भतीजे कृष्ण ने होयसल के राजा वीर वल्लाल तृतीय की सहायता से, मुस्लिम शासन के विरुद्ध एक हिन्दू राष्ट्रीय आन्दोलन का संगठन किया। कृष्णा नदी के निकट के प्रदेश में भी इसी तरह का आन्दोलन शुरू हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि विजय नगर में हिन्दू राज्य तथा दक्कन में कुछ अन्य हिन्दू राज्यों की स्थापना हुई।

सुल्तान द्वारा अमीरान-ए-सदा (सौ अमीरों की एक संस्था) को तंग करने से उसकी विपत्तियाँ और भी बढ़ गयीं तथा विद्रोह पर विद्रोह होने लगे। देवगिरि में विदेशी अमीर विद्रोह कर बैठे तथा अगस्त, 1347 ई. के प्रारम्भ में अबुल मुजफ्फर अलाउद्दीन बहमन शाह द्वारा बहमनी राज्य की नींव पड़ गयी। जब सुल्तान एक भाग में किसी उपद्रव को रोकने के लिए आगे बढ़ता, तब किसी भिन्न दिशा में दूसरा उपद्रव आरम्भ हो जाता। इस प्रकार जब वह सिंध में विद्रोहियों का पीछा करने में व्यस्त था कि उसे थट्टा के निकट ज्वर हो। आया तथा 20 मार्च, 1351 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। बदायूंनी लिखता है- और इस तरह राजा अपनी प्रजा से मुक्त हुआ तथा प्रजा अपने राजा से मुक्त हुई

वास्तव में मुहम्मद बिन तुगलक के सम्पूर्ण राज्यकाल का, विफल उद्देश्यों के कारण, दु:खपूर्ण अन्त हुआ और तेईस प्रान्तों का उसका विशाल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इसमें सन्देह नहीं हो सकता कि इस दु:खांत नाटक के लिए सुल्तान स्वयं अधिकांशतः उत्तरदायी था। वह असाधारण बुद्धि एवं परिश्रम से सम्पन्न था, पर एक रचनात्मक राजनीतिज्ञ के आवश्यक गुणों का उसमें अभाव था तथा उसके अनुचित कायाँ एवं कठोर नीति ने, जो जन साधारण की इच्छा के विरुद्ध व्यवहार में लायी जाती थी, उसके साम्राज्य का नाश निश्चित कर दिया।

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