मौर्योत्तर साहित्य, व्यापार और वाणिज्य Literature Trade and Commerce in Post-Mauryan Period

साहित्य

सातवाहन नरेश कवियों के आश्रयदाता तथा प्राकृत भाषा के परिपोषक थे। उनके शासन-काल में प्राकृत भाषा और साहित्य की बड़ी प्रगति हुई। सातवाहन शासक हाल द्वारा छद्म नाम से लिखी गयी गाथा सप्तशती कृति है। यह प्राकृत भाषा में लिखी गयी एक सुन्दर रचना है। दूसरी सदी ई.पू. में पतंजलि ने महाभाष्य लिखी। पाणिनी के अष्टाध्यायी पर एक टीका है। चरक संहिता, भरत का नाट्यशास्त्र एवं वात्स्यायन का कामसूत्र इसी काल में लिखा गया। अश्वघोष की दो महत्त्वपूर्ण कृतियाँ बुद्धचरित एवं सौन्दरानद हैं। संभवत: सबसे पहले संपूर्ण नाटक रचना का श्रेय भाष्य (स्वप्नवासवदत्ता) को दिया जाता है।

अब अभिलेखों में प्राकृत भाषा के बदले संस्कृत भाषा पर विशेष बल दिया गया। संस्कृत का पहला अभिलेख रुद्रदामन का जूनागढ़ और कुषाणों का सुई बिहार अभिलेख है। पार्श्व वसुमित्र और अश्वघोष कनिष्क के समकालीन थे और चरक जैसे चिकित्सक उसके दरबार में रहते थे।

व्यापार और वाणिज्य

मौर्य काल के बाद भारतीय व्यापार में विकास के साथ मुद्रा प्रणाली में विशिष्ट प्रगति हुई। ई.पू. और ईसवी सदी के प्रारम्भ में रोम से आने वाले सोने का बड़ी मात्रा में व्यापारिक लेन-देन में प्रयोग किया जाने लगा। पश्चिमी जगत में स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन हुआ तो भारतीय राजाओं ने परस्पर व्यापार में सुविधा एवं अन्य राष्ट्रों की तुलना में राष्ट्रीय मान को बनाये रखने के लिए सोने के सिक्के जारी किये। व्यापारिक विकास के साथ मौद्रिक व्यवस्था में परिवर्तन एवं बड़ी तादाद में प्रचलन इस युग का विशिष्ट लक्षण रहा है। इस काल से सम्बद्ध बड़ी संख्या में मुद्राओं की प्राप्ति न केवल समृद्धि का प्रतीक है बल्कि व्यापारिक गतिविधियों के विस्तार को इंगित करती है। विदेशों में भारतीय माल की माँग बढ़ती जा रही थी। इन दिनों पश्चिम में रोमन साम्राज्य एवं चीन में उत्तर हान साम्राज्य का विकास हो रहा था। रोमन सम्राज्य के अन्तर्गत पूर्व के उत्पादों जैसे गर्म मसाले, सुगन्धित लकड़ी, रेशमी एवं अन्य वस्त्रों की माँग थी। इसी प्रकार उत्तर हान साम्राज्य ने व्यापारियों को काफी प्रोत्साहन दिया जिसके कारण भारत, मध्य एशिया तथा चीन के सम्पर्क बढ़ते गये। बढ़ते विदेशी व्यापार ने स्थानीय आभूषण निर्माताओं, वस्त्र उत्पादकों एवं कृषकों को विविध व्यापार योग्य सामग्री के उत्पादन को प्रेरित किया।

इस काल में व्यापार एवं वाणिज्य को प्रोत्साहन देने वाले कारक- 1. नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में नये वर्गों का उदय हुआ, 2. रोम एवं चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्धों का विकास, 3. रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्धों के फलस्वरूप दक्षिण-पूर्व एशिया के मसालों के साथ जुड़ाव। मौर्योत्तर काल में शिल्पियों का विशेषीकरण हुआ। मौर्य पूर्व काल की एक कृति, दीर्घनिकाय, में 24 प्रकार के शिल्पों की चर्चा है जबकि महावस्तु में 36 प्रकार के शिल्पों की चर्चा है। मौर्योत्तरकाल के एक ग्रन्थ मिलिन्दपञ्ही में 75 प्रकार के व्यवसायों की चर्चा है, जिनमें 60 विभिन्न प्रकार के शिल्प आते हैं।

इस ग्रंथ में विवेचित व्यवसायों में से सोना, चाँदी, ताँबा, टिन, सीसा, पीतल, लौहा आदि धातुओं से सम्बन्धित थे। पतंजलि के महाभाष्य से भी विविध शिल्पों का ज्ञान होता है। स्वर्णकार, बढ़ई (वर्धकी), माली (मालाकार), बांस के टोकरी निर्माता (बेसकार), गांधिक, मछुए (धनक), कुम्हार (कुलाल), लुहार, धनुषनिर्माता (धनुष्कार), रंगरेज (रंजक) आदि व्यवसायों से सम्बन्धित लोगों के गाँवों में निवास करने का उल्लेख मिलता है। कपड़ा बनाना महत्त्वपूर्ण दस्तकारी कला थी तथा सूती कपड़े भारत से निर्यात किये जाते थे। मथुरा, वाराणसी आदि कपड़ा उत्पादन के कई केन्द्र थे। उत्तर में उज्जैन मनके बनाने का मुख्य केन्द्र था। यहाँ मनके अर्द्ध-बहुमूल्य पत्थरों, काँच, हाथीदांत तथा मिट्टी के बनाये जाते थे। उत्तर में अनेक नगरों में इनकी बड़ी मांग थी। अफगानिस्तान के प्राचीन कपिसा में हाथी दांत गठित आकृतियाँ भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं। वास्तुकला का विशेष विकास इस काल की प्रमुख विशेषता रही है। शुंग काल में भरहुत, बोध गया और साँची कला के प्रमुख केन्द्र थे। वास्तु कलाकारों ने न केवल स्तूपों का निर्माण किया बल्कि मन्दिर, प्रासाद एवं भवनों का निर्माण भी बड़ी संख्या में किया। कात्यायन ने शिल्पों के लिए कारि शब्द का प्रयोग किया है। अपने कार्य में कुशल एवं प्रवीण शिल्पी राजशिल्पी के रूप में राजा से सम्मान प्राप्त करते थे। इस समय वास्तु शिल्प इतना अधिक विकसित हो गया था कि एक प्रासाद को बनाने में 18 शिल्पों के जानने वाले कर्मकारों के काम करने की चर्चा मिलती है। संभवत: इन शिल्पकारों में मूर्तिकार, वास्तुशिल्पकार, चित्रकार, जौहरी, लुहार, बढ़ई, स्वर्णकार आदि रहे होंगे। मूर्तिकला का विकास मौर्यकाल में ही हो गया था और इस युग में भी उत्कृष्ट मूर्तियों का निर्माण संभव हुआ। कुषाण काल में मूर्तिकारों को पश्चिमी जगत के कलाकारों ने प्रभावित किया। परिणामस्वरूप गांधार कला का विकास हुआ। दूसरी ओर स्वदेशी भावना से प्रेरित कलाकारों ने ऐसी कला को विकसित किया जो पाश्चात्य कला से पूर्णतः अप्रभावित थी, जिसे मथुरा कला के नाम से जाना जाता है।


आंध्र क्षेत्र में करीमनगर और नालगोंडा जिले में बहुत सी लोहे की सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं। शिल्पी गाँव में भी बसते थे। तेलांगाना के करीमनगर गाँव में विभिन्न प्रकार के शिल्पी अलग-अलग बसते थे। कपड़े की बुनाई, रेशम बुनने और अस्त्रों के निर्माण एवं विलास की वस्तुओं का निर्माण मुख्य व्यवसाय था। पतंजलि के अनुसार मथुरा में शाटक नाम के एक विशेष वस्त्र का उत्पादन होता था। दक्षिण भारत के नये नगर में रंगरेजी एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय था। उरेयूर में एक प्रकार का रंगाई हौज प्राप्त हुआ है। ऐसा ही हौज अरिकमेडु में प्राप्त हुआ है। मगध में लोहा बहुत अधिक मात्रा में होता था और वहाँ से बाहर भेजा जाता था। तांबे की खान राजस्थान में मिली हैं। हिमालय की ढलान में कस्तूरी और केसर का उत्पादन होता था। पंजाब की नमक की पहाड़ी नमक का प्रमुख स्रोत थी। दक्षिण भारत में मसाला, सोना, रत्न तथा चंदन की लकड़ी मिलती थी। कश्मीर, कौशल, विदर्भ और कलिंग हीरे के लिए विख्यात थे। मगध वृक्षों के रेशों से बने वस्त्र के लिए प्रसिद्ध था। बंगाल मलमल के लिए प्रसिद्ध था। मिलिन्दपन्हो के अनुसार बुद्ध की मौसी गौतमी ने वस्त्र निर्माण के पाँच प्रकार बताए हैं। महाभारत, मिलिन्दपन्हो एवं दिव्यावदान के अनुसार गंगा बेसिन, वाराणसी, कोयम्बटूर और अपरान्त (महाराष्ट्र) में विभिन्न प्रकार के सूती वस्त्र निर्मित किए जाते थे। बंग और पुंड्र क्षेत्र के मलमल को गंगई कहा जाता था। मसलिया और अरगुरु (उरैयूर) भी मलमल के लिए प्रसिद्ध थे। प्लिनी के अनुसार भारत में पीतल और सीसे का उत्पादन नहीं होता था। पेरीप्लस के अनुसार भारतीस इस्पात इतना विकसित था जो विश्व में अद्वितीय था और यह भारत में अरियाका (काठियावाड़) से पूर्वी अफ्रीका भेजा जाता था। भारत में सोने का उत्पादन कम था। महाभारत से ज्ञात होता है कि सोना पूरब से आता था अर्थात् दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से। छोटानागपुर एवं असम क्षेत्र में नदी की रेत से भी सोना प्राप्त किया जाता था। पेरिप्लस के अनुसार सुवर्ण (बुलियन) फारस की खाड़ी से पूर्वी अरब क्षेत्र होकर पश्चिम भारत में आता था।

मोती- पेरिप्लस के अनुसार कोलची से प्राप्त होता था (कोरकोई क्षेत्र से)। पेरिप्लस के अनुसार मोती निचले गंगा क्षेत्र से भी निकाले जाते थे। टॉलमी के अनुसार यह सुदूर दक्षिण से प्राप्त होता था। प्लिनी के अनुसार मोती पेरीमोला (आधुनिक चौल) बंदरगाह से प्राप्त होता था। प्लिनी ने भारत को रत्नों की एकमात्र जननी कहा है। साथ ही भारत को सबसे महंगी वस्तुओं की जन्मदात्री कहा है। ऑलमी के अनुसार हीरे, कोसा (बैराट), सबराई (संबलपुर) और एडम नदी के मुहाने से प्राप्त किये जाते थे। पेरिप्लस के अनुसार गोमेद और कालॅनियन दक्कन के पहाड़ों में पाया जाता था। इसके अनुसार दौशाहन दशारन (पूर्वी मालवा) से एक प्रकार के हाथी दांत का उत्पादन होता था। मध्य प्रदेश में उज्जैन मनके बनाने का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। अर्थशास्त्र में मदिरा के उत्पादन पर विशेष विचार किया गया है। इसकी लोकप्रियता की पहचान इस कुलु की मूर्तिकला में विशेषकर संघील एवं मथुरा में चित्रित मद्यपान में की जाती है।

इस काल की एक महत्त्वपूर्ण देन टकसाल कला का विकास होना है। भारत में स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन कुषाणों से प्रारम्भ होता है। कुषाणों से पूर्व ईरानी सम्राट् डेरियस ने सोने के सिक्के डेरिक तथा चाँदी के सिगलाय का प्रचलन किया था। लेकिन इन मुद्राओं का प्रचलन सुदूर पश्चिमोत्तर भारत के उस छोटे से प्रदेश तक सीमित रहा जहाँ ईरानी आधिपत्य स्थापित हो गया था। कालान्तर में इण्डोग्रीक शासक यूक्रेटाइडीज ने सोने के सिक्के प्रचलित किये किन्तु इनकी संख्या सीकित थी। कुषाण शासक विम कदफिसस द्वारा स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसका बहुत कुछ श्रेय तत्कालीन रोम के साथ भारत के व्यापारिक सम्बन्धों को जाता है। रोम के साथ व्यापारिक सम्बन्धों के कारण प्रभूत मात्रा में रोमन स्वर्ण मुद्राओं का भारत में आगमन हुआ। भारत एवं रोमन साम्राज्य के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध आगस्टस (ई.पू. 31 से 14) से नीरो के काल तक अपनी पराकाष्ठा पर थे।

कुषाण सिक्के अपनी बनावट एवं योजना में पह्नव सिक्कों की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर हैं। कुषाणकालीन ठप्पा बनाने की कला में पश्चिमी शैली का स्पष्ट अनुकरण दिखाई देता है। उस काल में रोमन मुद्रा ओरेई अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार जगत में स्वीकृत थी। अत: कुषाण शासकों ने इन्हीं सिक्कों के तौल एवं मान का अनुकरण किया। कुषाणकालीन सिक्कों में ग्रीक, पार्थियन, रोमन एवं भारतीय तत्त्वों का अनूठा मिश्रण देखा जा सकता है।

कुषाण शासकों ने स्वर्ण एवं ताम्र मुद्राओं के अतिरिक्त सीमित मात्रा में रजत मुद्राओं का प्रचलन किया। सोने एवं तांबे के सिक्के एक निश्चित तौल परम्परा पर आधारित थे। कुषाणों की सोने की दीनार मुद्रायें प्रायः रोम ओरई सिक्कों के तौल एवं मान के निकट हैं। सिक्कों को ढालने एवं ठप्पा अंकित करने से पूर्व साफ किए जाने की प्रक्रिया का मिलिन्द्पन् आदि में विवरण आया है।

  • सोने के सिक्के- निष्क सुवर्ण और पण कहलाते थे।
  • चाँदी के सिक्के- शतमान्, पूरण और धरण थे।
  • तांबे एवं रांगो के सिक्के को काकणि कहा जाता था।

सातवाहन भी कई प्रकार के सिक्के चलाते थे- अवन्ति से प्राप्त ताँबे के एक सातवाहन सिक्के पर नाव का चिह्न है। सातवाहन के सिक्के कार्षापण सोना, चाँदी, तांबा और सीसा चारों धातु के होते थे। सातवाहनों ने सीसे के सिक्के भी चलाए। कार्षापण सोना, चाँदी, ताँबा और सीसा चारों धातु का होता था। कुषाणों ने 35 देवताओं का अंकन अपने सिक्कों पर किया है। कनिष्क के सिक्के पर निम्नलिखित देवताओं के चित्र मिलते हैं- बौद्ध देवता-अद्वैत बुद्ध, शाक्यमुनि। ब्राह्मण देवता-महासेन, स्कंद, कुमार, विशाख, उमा, वरूण (हेरोन), भवेस। इरानी दवता-मित्श्रा, हेलियोस, शेलेन, हेराक्लीज।

शहरी केन्द्रों का विकास- पुरातात्विक स्थलों के उत्खनन से प्राचीन नगरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। तक्षशिला (आधुनिक इस्लामाबाद से 30 कि.मी. उत्तर पश्चिम में) के उत्खनन में मौर्यकाल के अवशेष प्राप्त हुए हैं। सर जॉन मार्शल ने 1913 ई. में इसकी खुदाई प्रारम्भ करवाई थी, जो दो दशक तक चलती रही। पक्की ईंटों का प्रयोग किया जाता था। गोलाकार इमारतें अर्द्धवृत्ताकार ईंटों से बनाई जाती थीं। यमुना के किनारे पुराना किला, मथुरा एवं कौशाम्बी जैसे नगरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। अहिछत्र (जिला बरेली) उत्तरी पांचालों की राजधानी थी। वाराणसी कपड़ा उत्पादन एवं हाथीदांत का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। वैशाली (उत्तरी बिहार स्थित आधुनिक वैशाली) से भारी संख्या में मुहरें आदि प्राप्त हुई हैं जो व्यापारिक गतिविधियों को इंगित करती हैं। तामलुक तथा चन्द्रकेतुगढ़ बंगाल के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे। मध्य पश्चिमी भारत में उज्जैन मनका उत्पादन के लिए विख्यात था।

श्रेणी, संघ और निगम- वर्णव्यवस्था में ढिलाई के फलस्वरूप ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों ने भी व्यापार और वाणिज्य को अपना लिया था। बौद्ध साहित्य में भी हमें इस प्रकार का विवरण मिलता है। अन्य वर्णों की प्रतिस्पर्द्धा से बचने के लिए वैश्यों ने नये संघटनों को जन्म दिया जो श्रेणी, निगम, पुग और सार्थ कहलाते थे। श्रेणी सदस्यों के व्यवहार को एक श्रेणी न्यायाधिकरण के माध्यम से नियंत्रित किया जाता था। श्रेणी धर्म को कानून के सदृश मान्यता प्राप्त थी। श्रेणी अपने सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन में भी हस्तक्षेप करती थी। यह इस नियम से सिद्ध होता है कि यदि कोई विवाहित स्त्री भिक्षुणी बनकर संघ में शामिल होना चाहती थी तो उसे पति के साथ-साथ उसकी श्रेणी की भी अनुमति लेनी होती थी। सूत्रकार गौतम का कहना है कि व्यापारी और शिल्पियों को अपने सदस्यों को नियमित करने के लिए विधि बनाने का अधिकार था। श्रेणी अन्य संघ अध्यक्ष या मुखिया के अधीन होता था। इसे परामर्श देने के लिए एक समिति होती थी जिसमें 2, 3 या 5 सदस्य होते थे। इस समिति को समुकहितवादिन कहा जाता था। वृहस्पति के अनुसार संघ प्रमुख को दोषी सदस्यों को दंडित करने का अधिकार था। सामान्यत: श्रेणी के विधि निर्माण में राजा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था किन्तु अगर अध्यक्ष और उसकी समिति के बीच कोई विवाद होता तो राजा निर्णय दे सकता था। श्रेणी के अलावा कर्मचारियों की अन्य संस्था भी थी जिसे कर्मचारी सहकारी कहते थे।

श्रेष्ठि- वित्त से सम्बन्धित होते थे। वित्तीय व्यवस्था श्रेष्ठी के हाथों में होती थी। वे संयुक्त उद्यम कंपनी के रूप में काम करते थे।

श्रेणी- श्रेणी एक सामान्य शब्द था जिसमें सभी प्रकार के गिल्ड आते थे।

निगम- व्यापारियों के संघ के लिए पृथक शब्द निगम आता था।

पुंग- पुंग किसी विशेष क्षेत्र के विभिन्न व्यापारियों, शिल्पियों और व्यवसायियों के हितों का संरक्षण करता था।

सार्थ- सार्थ नामक व्यापारिक गिल्ड पारगमन व्यापार से जुड़ा था और एक प्रमुख के अधीन होता था। इसे सार्थवाह कहते थे। विक्रेता और क्रेता के मध्य सौदेबाजी पणितव्य कहलाती थी और वस्तुओं की कीमत मांग और उपलब्धि के अनुसार बढ़ती घटती रहती थी। कुछ वस्तुएं बेचीं नहीं जा सकती थीं जैसे गाय का माँस, तिल आदि। मौर्योत्तर काल में अधिकांश शिल्पी शूद्र जाति के थे। श्रेणियों के पास अपना सैनिक बल होता था। आगे के एक मलचुरी अभिलेख से यह ज्ञात होता है। उद्दलपुत्र नामक व्यक्ति, जिसके पास पाँच सौ कार्यशालाएँ थीं, कुम्भकारों की एक श्रेणी से संबद्ध थे।

महाजनी व्यवस्था- प्रारम्भिक धर्म सूत्रों में ब्याज की चर्चा मिलती है। सामान्यतः प्रचलित दर 1.25 प्रतिशत मासिक (15 प्रतिशत वार्षिक) थी। किन्तु अलग-अलग सूत्रकारों ने अलग-अलग दरें भी बताई हैं। गौतम इसकी दर 2 प्रतिशत मासिक मानता है। दूसरी तरफ मनु ने विभिन्न वर्णों के लिए अलग-अलग दरें बताई हैं। ब्राह्मण 2 प्रतिशत, क्षत्रिय 3 प्रतिशत, वैश्य 4 प्रतिशत और शूद्र 5 प्रतिशत मासिक।

असुरक्षित ऋण- असुरक्षित कर्ज के लिए अधिक दर थी। सामान्य रूप से अर्थशास्त्र के अनुसार कर्ज का सामान्य दर 5 प्रतिशत मासिक था। लेकिन जंगल से गुजरने वाले से 10 प्रतिशत और समुद्र यात्रा करने वाले से 20 प्रतिशत मासिक लिया जाता था। जब सूद की दर उधार ली गई रकम से अधिक हो जाती थी हो सूद की अदायगी बंद हो जाती थी। पति पत्नी के ऋण के लिए उत्तरदायी था, किन्तु पत्नी पति के ऋण के लिए नहीं।

व्यापारिक मार्ग- अधिकांश व्यापारिक मागों का विकास मौर्यकाल में ही हो चुका था। नंद एवं मौर्य वंश के शासन में एक साम्राज्य का निर्माण हुआ था। सिकंदर के आक्रमण के पश्चात् नए मागों की खोज हुई। आंतरिक व्यापार में मुख्यत: दो मार्ग प्रचलित थे। पहला मार्ग उत्तर से दक्षिण जाता था और तक्षशिला को निम्न सिंधु घाटी से जोड़ता था और वहाँ से भड़ौंच चला जाता था।

उतरापथ (दूसरा पथ) अधिक चालू था। वह तक्षशिला से होकर आधुनिक पंजाब होते हुए यमुना के तट पर पहुँचता था और यमुना का अनुसरण करते हुए मथुरा पहुँचता था। फिर मथुरा से मालवा से उज्जैन में आकर एक और मार्ग से मिलता था। फिर वह उज्जैन से भड़ौच चला जाता था।

दक्षिणा पथ- दक्षिणापथ की भी चर्चा होती है। यह कई भागों में विभाजित है-

  1. प्रथम- अवन्ति से विंध्य क्षेत्र पार करता हुआ अमरावती तक पहुँचता था।
  2. दूसरा- प्रतिष्ठान से नासिक पहुँचता था।
  3. तीसरा- भृगुकच्छ से सोपारा और कल्याणी पहुँचता था।
  4. चौथा- मुसिरी से पुहार पहुँचता था।

व्यापारियों के लिए यात्रा संकटपूर्ण थी। व्यापारिक कंरवा शक्ति एवं गति प्राप्त करने के लिए इंद्र देवता को चढ़ावा चढ़ाते थे।

बाह्य मार्ग- एक स्थल मार्ग द्वारा तक्षशिला काबुल से जुड़ गया था और यहाँ से विभिन्न दिशाओं को मार्ग जाते थे। उत्तरवर्ती मार्ग वैक्ट्रिया से होकर कैस्पियन सागर होता हुआ कृष्ण सागर को जाता था।

एक मार्ग कंधार से हेरात होकर ईरान जाता था और यहाँ से व्यापारी स्थल मार्ग से पूर्वी भूमध्यसागर को जाते थे। ईसा की पहली सदी में हिप्पोलस नामक ग्रीक नाविक ने अरब सागर में चलने वाली मानसून हवा की खोज की। अरबवासी इसके विषय में जानते थे परन्तु इसे गुप्त रखते थे। मानसून की खोज के परिणामस्वरूप भूमि मार्ग की तुलना में सागर मार्ग से अधिक व्यापार होने लगा।

मुख्य व्यापारिक स्थल एवं बंदरगाह- पेरिप्लस के अनुसर सिंधु नदी के पास एक व्यापारिक प्रतिष्ठान था जिसका नाम वारविकम था।

सोपारा अथवा सुरपराका कल्याण का एक बंदरगाह था। पेरिप्लस एक बंदरगाह बेरीगाजा (भडौंच) की भी चर्चा करता है। भडौंच उस काल का सबसे महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। मालाबार तट पर मुजिरस नामक बंदरगाह था। तमिल तट पर पुहार अथवा कावेरी पट्टनम बंदरगाह था। टॉलेमी के अनुसार तमिल तट पर एक और बंदरगाह नेगपट्टनम या नेगपत्तनम था। पेरिप्लस के अनुसार आध्र क्षेत्र में मसिलिया या मसुलीपट्टम नामक बंदरगाह था। पेरीप्लस और आॉलमी के ज्योग्राफी में कुछ अन्य बन्दरगाहों का भी उल्लेख है, जो निम्नलिखित हैं-

समिल्ला (चौल), नौरा (कन्नौर या मंगलौर), टिंडीस, कारालुगी, मुजरिस सभी केरल तट पर।

कोल्ची (कोरकोई) कमारा, कावेरीपट्टम—तमिल तट के बंदरगाह था। कौन्डोक साइला (घंटाशाला) और निट्रिग आधुनिक आंध्रप्रदेश के तट पर स्थित था। पोलूरा कलिंग अथवा आधुनिक उड़ीसा में स्थित था। टेमाटाइलस निचली गंगा पर स्थित था। बैक्ट्रिया, सीरिया और अलेक्जेन्ड्रीया मुख्य व्यापारिक डिपो थे। परिपतन (देवल) सिंध का बंदरगाह था। उड़ीसा भाषी प्रदेश में फ्लूरो नामक एक नगर था, जिसकी पहचान दंतपुर से की गई है। दंतपुर हाथी दांत के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ से हाथी दांत का निर्यात होता था।

व्यापार की वस्तुएँ- भारत और राम के बीच बहुत अधिक मात्रा में व्यापार होता था। लेकिन इस व्यापार में रोजमर्रे की वस्तुएँ शामिल नहीं थीं। रोमवासी  मुख्यतः मसाले का आयात करते थे। कालीमिर्च को यवनप्रिय कहा जाता था। इसके अतिरिक्त लोहे की वस्तुएं खासकर बर्तन, मलमल, मोटी किम्तिम पत्थर, हाथी दांत और पाकशाला की वस्तुएं रोम भेजी जाती थीं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी वस्तुएं भी थीं जो चीन और मध्य एशिया से मंगाकर रोम भेजी जाती थीं। भारत चीन से कच्चे रेशम, रेशमी वस्त्र और रेशम के धागे मंगाता था और भडौंच के बंदरगाह पर इन वस्तुओं का निर्यात पश्चिम के देशों को करता था। पेरिप्लस और ऑलमी से ज्ञात होता है कि भारत से रोम को तोते, शेर और चीतों का निर्यात होता था। बदले में रोमन लोग भारत को शराब और शराब के दो हत्थे कलश और मिट्टी के बर्तनों का निर्यात करते थे। सबसे अधिक रोम से भारत को सोने का बुलियन प्राप्त होता था। रोमन वस्तुएं पश्चिम बंगाल के तामलुक, पांडिचेरी के निकट अरिकमेडू और दक्षिण भारत के कई स्थानों से खुदाई में मिली हैं। पेरिप्लस के अनुसार इथियोपिया से भारत को हांथी दांत (अफ़्रीकी) और सोना भेजा जाता था। दूसरी तरफ यहाँ से मलमल भेजा जाता था। काबुल से 72 किमी उत्तर में बेग्राम में इटली, मिस्र और सीरिया में निर्मित सामग्रियां प्राप्त हुई है। शिलाजीत भारत से मिस्र भेजा जाता था।

तक्षशिला से यूनानी रोम कांस्य मूर्तियों के नमूने भी मिले हैं। यहाँ से रोमन सम्राट् टिविरियस के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। परन्तु एरेटोइन मृदभांड जो सामान्यत: दक्षिण भारत में पाए जाते हैं। वे पश्चिम एशिया और अफगानिस्तान में नहीं पाए गए हैं।

इस व्यापार में सबसे अधिक लाभ सातवाहनों को मिला। भड़ौंच के बंदरगाह से रनिवास के लिए सुदर लड़कियाँ (कुमारियाँ) लाई जाती थीं। अरब और से घोडे लाए जाते थे। कौटिल्य ने चीन के रेशम का उल्लेख किया था। दूसरी सदी से पहले चीन से व्यापारिक सम्बन्ध नहीं जुड़ा था। अलेक्जेंड्रियाँ विधि में भारतीय इस्पात पर कर लगाने का उल्लेख है। आज के जोर्डन क्षेत्र में पेट्रा नामक स्थल था जो लालसागर को पश्चिम एशिया से जोड़ता था। डायोसकोराइटस सोकोत्रा का द्वीप था जो एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। अरिकामेडू को पेरिप्लस में पेडूक कहा गया है। 1945 में यहाँ खुदाई हुई और यहाँ एक विशाल रोमन बस्ती प्राप्त हुई। महाभारत के अनुसार श्रीलंका मोतियों एवं कीमती पत्थरों के लिए प्रसिद्ध था। तमिल कवि नाविकयार ने लिखा है कि स्थानीय शासक के लिए पश्चिमी देशों से सुरा एवं सुन्दरियों का आयात किया जाता था। व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था और राम से मुख्यत: स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त होती थीं। इन मुद्राओं का प्रयोग बुलियन के रूप में होता था। ये मुद्राएँ मुख्यतः रोमन शासक आॉगस्टस और टाइवेरियस की हैं। प्लिनी के अनुसार रोम से भारत की 10 करोड़ या 55 करोड़ सेस्टर्स की प्राप्ति होती थी।

रोमन शासक क्लेडियस के काल में भारत एवं रोम साम्राज्य के मध्य होने वाले सामुद्रिक व्यापार को सर्वाधिक प्रोत्साहन मिला। सीरिया के शासक एन्टियोकस चतुर्थ ने 166 ई.पू. डाफने पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में भारतीय हाथी-दाँत की वस्तुओं एवं मसालों की एक विशाल प्रदर्शनी लगायी। औरेंगलियन ने रेशम का मूल्य सोने के बराबर घोषित कर दिया था।

वाट, माप और विनिमय- प्राचीन काल के वाटों में प्रस्थ, आढ़क, द्रोण और खारी होते थे, जो क्रमशः बढ़ते हुए क्रम से थे। खारी और द्रोण अनाज का माप था।

अर्थशास्त्र में अन्य प्रकार के वाटों का भी उल्लेख है – उदाहरण के लिए पल, माष, कर्षापण, सर्प, कुडव। कुडव अनाज का वाट था जो लकड़ी या लोहे का बना होता था। दिव्यावदान में अंजलि, मनिका, विलभागम और प्रबोध का उल्लेख है। उत्तरकालीन अभिलेखों में कुछ स्थानीय माप मणि, पलिका, तली और तुला का उल्लेख है। काल और स्थान से सम्बन्धित मापों में अक्ष, पद, अरत्नी, प्रदेश, वित्सती और दिष्टि महत्त्वपूर्ण है। मिलिन्दपञ्हों में जाली वाटों का भी उल्लेख है जिसका प्रयोग निषिद्ध था। मनु ने सिक्कों की एक तालिका दी है जो वजन पर आधारित हैः 5 रति बराबर 1 माष, 16 माष -1 सुवर्णं, 4 सुवर्ण –1 निष्क, 10 निष्क -1 धरण।

इंडी-ग्रीक शासकों ने दैक्रम नामक सिक्का चलाया। इसका ⅙ भाग ओवोल कहलाता है। भारत में कुछ यूनानी शासकों एवं शकों ने चाँदी के सिक्के चलाये थे किन्तु कुषाणों के चाँदी के कोई सिक्के नहीं मिले हैं। पेरीप्लस ने लिखा है कि दक्षिणापथ में इंडोग्रीक एवं शकों के सिक्के प्रचलित थे। कुषाणों के सिक्कों का वजन औसतन 123.2 ग्राम होता था जबकि इंडोग्रीक के सोने के सिक्के का वजन 134.4 ग्राम होता था। कुषाणों के अधिकतर सिक्के 1 दीनार, 2 दीनार और चौथाई दीनार के मिले हैं।

कृषि- मनु ने स्पष्ट लिखा है, खेत का स्वामी वह व्यक्ति होता है जिसने जंगल साफ करके भूमि को आबाद किया है। इसी प्रकार का विचार मिलिन्दपञ्हो का है। ऐसा संभवत: कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए कहा गया था। मनु ने लिखा है कि ब्राह्मणों के लिए बिना जुती जमीन का लेना उतना पाप नहीं जितना जुती जमीन का लेना। मनुस्मृति में लिखा गया है कि राजा 1, 10, 20 और 1000 ग्रामों को राजस्व कर्मचारियों को कुछ भूमि खंड दे सकता था। इसका अर्थ यह है कि मनु के काल में गैर धार्मिक कार्यों के लिए भी भूमि देना वैध समझा जाता था। सिंचाई के विकास के लिए भी उस युग में कार्य किया गया। खारवेल ने कलिंग में एक नहर का विकास (विस्तार) किया और शक राजा रुद्रदामन ने सुदर्शन झील का निर्माण किया। गाथासप्तशती से ज्ञात होता है कि सिंचाई के लिए सबसे पहले रहट का प्रयोग इसी काल में हुआ था।

राजस्व- राजस्व के लिए कौटिल्य ने राष्ट्र शब्द का प्रयोग किया है। इसके अंतर्गत उसने सीता, भाग, बलि, कर, पिंडकर, सेनाभक्त और उत्संग का उल्लेख किया है। वह सेनाभक्त नामक कर की भी चर्चा करता है। कुछ अन्य कर निम्नलिखित हैं- आचायनिक (उपहार), अधिक लाभ पर अतिरिक्त कर पार्श्व था, पानी और भूमि पर कर कौष्ठेयक कहलाता था, पशुओं द्वारा की गयी क्षति की क्षतिपूर्ति करने वाला मराहनक कहलाता था।

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