भारत के प्रमुख औद्योगिक घराने Leading Industrial Houses of India

सार्वजनिक क्षेत्र

भूमिका, तर्कसंगतता एवं त्रुटियां: भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार ने तथाकथित कोर क्षेत्र (शक्ति, इस्पात, एल्यूमीनियम, तांबा, खनन, भारी मशीनरी, कागज, इत्यादि) में भारी निवेश किया। ये ऐसे उद्योग थे जिनमें भारी निवेश की आवश्यकता थी। इन उद्योगों को स्थापित करने के निवेश पर प्रत्याय दीर्घावधि में मिल पाता है, साथ ही परियोजना स्थापित करने में भी दीर्घ समय लग जाता है।

सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों को पर्याप्त स्वायत्तता का आभाव है जिसके कारण उन्हें स्वयं को क्षमतावान बनाने के मार्ग में कई अड़चनों का सामना करना पड़ता है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिए बजट आवंटन में निरंतर कमी आ रही है साथ ही वे स्वयं भी पर्याप्त मात्रा में वित्त जुटाने में असफल रहे हैं, जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र में आधुनिकीकरण एवं तकनीक उन्नयन के कार्य की गति में शिथिलता आई है। ये शिथिलता भविष्य में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रतिस्पद्ध क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।

निष्पादन एवं समस्याएं: आजादी के पहले भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित थी तथा उसका औद्योगिक आधार बहुत कमजोर था। इसके साथ ही निवेश का स्तर भी कम था। आधारभूत सुविधाओं की कमी थी। आजादी के बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढांचे को अपनाया विभिन्न क्षेत्रों में उद्यम स्थापित हुए।

नई औद्योगिक नीति के द्वारा भविष्य के औद्योगिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका में विशेष रूप से कमी आई है। सार्वजनिक क्षेत्र के भविष्यकालीन विकास के लिए निम्नलिखित क्षेत्र प्राथमिक तौर पर निर्धारित किये गये हैं:

  1. आवश्यक आधारिक संरचना वस्तुएं एवं सेवाएं।
  2. कच्चे तेल एवं खनिज संसाधनों का अन्वेषण एवं उपयोग।
  3. निर्णायक क्षेत्रों में तकनीकी विकास व उत्पादन क्षमताओं को विकसित करना।
  4. सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उत्पादों, जैसे-सुरक्षा संबंधी उत्पाद, इत्यादि का उत्पादन करना।

वर्तमान परिस्थितियों की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक है की सार्वजानिक क्षेत्र गत्यात्मक बने और उसकी उत्पादकता बढ़े।

सार्वजानिक क्षेत्रों के आकार एवं निवेश की मात्र विस्मयकारी है। भविष्यकालीन औद्योगिक विकास में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे। साथ ही इनसे यह भी आशा की जाती है कि वे सरकार द्वारा किये वृहत् निवेशों पर उचित प्रत्यय प्रदान करेंगे।


1988 में सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों के साथ समझौता ज्ञापन (MoU) करना आरंभ किया। इसका उद्देश्य सरकारी नियंत्रण को कम करना एवं उद्यमों को अपने निष्पादन के लिए अधिक उत्तरदायी बनाना था। 1987-88 में जहां सिर्फ 4 (चार) सार्वजनिक उद्यमों के साथ समझौता ज्ञापन किये गये थे वहीं 1997-98 में 108 उद्यमों के साथ समझौता ज्ञापन किये गये।

लोक उपक्रमों की प्रवंधकीय, प्रशासनिक एवं उत्पादन क्षमता में सुधार करने के लिए भी समय-समय पर कदम उठाए जाते रहे हैं। निष्पक्ष रूप से देखने पर पता चलता है कि सार्वजनिक उद्यमों की भारतीय विकास में अविस्मरणीय भूमिका रही है। भारतीय विकास एवं अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने का श्रेय इसी क्षेत्र को है। आज भी इन उद्यमों में राष्ट्र की विशाल पूंजी और क्षमता (भौतिक, वित्तीय, संस्थात्मक एवं मानक संसाधन) विद्यमान है। आवश्यकता है, इसमें पायी जाने वाली कमियों और दोषों को सुधारने की। नरसिम्हा राव के नेतृत्व में विकास संबंधी नए कदम का आरम्भ सार्वजनिक खण्ड के उद्यमों पर प्रहार के साथ आरम्भ हुआ। इस दिशा में लोक उपक्रमों में एमओयू व्यवस्था की शुरुआत 1986 में हुई। इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य निजी क्षेत्र की चुनौतियों के समक्ष लोक उपक्रमों की क्षमता को सुनिश्चित करना था। दरअसल एमओयू व्यवस्था लोक उपक्रमों के प्रबंधन तथा भारत सरकार के सम्बद्ध मंत्रालय या प्रशासनिक विभाग के बीच आपसी सहमति पर आधारित एक द्विपक्षीय समझौता है। इस समझौते के अंतर्गत उद्यम के कार्य निष्पादन का मूल्यांकन शुरू के वर्ष में तय किए गए लक्ष्यों के आधार पर किया जाता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1987-88 में मात्र 4 लोक उपक्रमों द्वारा एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए जो वर्ष 2010-11 तक 202 लोक उपक्रमों तक पहुंच गई।

अक्टूबर, 1977 में, सरकार ने कुछ अन्य कंपनियों को अधिक स्वायत्तता देने और अधिकार बढ़ाने का निर्णय किया था। ये लाभ कमाने वाली कंपनियां थीं। इन कंपनियों को मिनिरत्न कहा गया। इस कदम का उद्देश्य था, कुशलता बढ़ाना और प्रतियोगिता मजबूत करना। इन्हें वर्ग-1 और वर्ग-2 में विभाजित किया गया। मिनी रत्न देने की शर्ते हैं-

  1. कपनी निरंतर 3 वर्षों से लाभ कमा रही हो और उसका संजाल सकारात्मक हो,
  2. ऋणों, ब्याज आदि की अदायगी में चूक न हो,
  3. वह बजट सहायता अथवा सरकारी गारंटी के लिए सरकार पर निर्भर न करती हो,
  4. गैर-सरकारी निदेशकों की नियुक्ति करके अपने निदेशक-मण्डल का पुनर्गठन कर चुकी हो।

जिन सार्वजनिक उपक्रमों ने तीन वर्षों में कम-से-कम एक साल कर पूर्व र 30 करोड़ का लाभ कमाया हो, उन्हें वर्ग-1 का दर्जा दिया जाता है। अन्य को वर्ग-2 में शामिल किया जाता है। यदि कोई कंपनी इन शतों को पूरा करती हो तो उसका प्रशासकीय मंत्रालय उसे मिनीरत्न का दर्जा दे सकता है। वर्तमान स्थिति के अनुसार कुल 63 कंपनियां प्रथम एवं द्वितीय श्रेणी की मिनीरत्न हैं। मिनीरत्न कंपनियों को जो अधिकार दिए जाते हैं उनमें पूंजी पर खर्च करना, भारत में संयुक्त उद्यम स्थापित करना और सहायक कम्पिनियाँ खोलना, तकनीकी संयुक्त उद्यम खोलना, रणनीतिक गठबंधन बनाना और खरीद के द्वारा तकनीकी ज्ञान प्राप्त करना शामिल है। गौरतलब है कि केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के वे उद्यम जिन्होंने लगातार तीन साल तक लाभ दिया हो, उन्हें भी संवर्द्धित अधिकार प्रदान किए गए हैं।

इसी प्रकार बेहतर निष्पादन करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की चुनिन्दा 9 कम्पिनियों को वर्ष 1997 में नवरत्न का दर्जा देने की पहल कर अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई। बाद में विभिन्न चरणों में 12 अन्य कंपनियों को भी नवरत्न दर्जा प्रदान किया गया।

उल्लेखनीय है कि 21 नवरत्न कपनियों में से पांच कपनियों को महारत्न का दर्जा दिया गया है जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान में नवरत्न प्राप्त केंद्रीय लोक उपक्रमों की संख्या 16 है।

सरकार द्वारा दिसंबर, 2009 में महारत्न योजना की शुरुआत की गई। इसका उद्देश्य था- बड़े आकर के नवरत्न उपक्रमों के बोर्ड को संवर्द्धित शक्ति सौंपना जिससे उपक्रमों के संचालन विकास घरेलू के साथ ही वैश्विक बाजार में भी हो सके। महारत्न योजना के अंतर्गत केंद्रीय सरकारी क्षेत्र के बड़े उपक्रमों को अपने प्रचालन का विस्तार करने तथा वैश्विक कंपनी बनने में सहायता मिल सकेगी।

सरकार ने दिसंबर, 2004 में एक सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम पुनर्गठन बोर्ड (बी.आर.पी.एस.ई.) बनाया गया है। यह बोर्ड केन्द्रीय सार्वजानिक उद्यम के औद्योगिक तथा गैर औद्योगिक मामले में भी सलाह देता है। यह बोर्ड बीमार इकाइयों के बारे में सरकार की सलाह देता है। कौन-सी इकाई बीमार इकाई की श्रेणी में आएगी, इसके लिए रुग्ण औद्योगिक कपनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1985 के तहत् विचार किया जाता है। यदि किसी कंपनी का किसी वित्त वर्ष में घाटा 50 प्रतिशत या इससे अधिक है तो वह बीमार इकाई की श्रेणी में आएगी। आर्थिक अव्यवस्थाग्रसत और घाटे में चल रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पुनर्गठन और निष्पादन से सुधार की प्रक्रिया में जोर जनशक्ति को युक्तिसंगत करने पर है।

सार्वजनिक उद्यम विभाग ने हाल ही में केंद्रीय लोक उपक्रमों के लिए कॉर्पोरेट सामाजिक धारकों दायित्व की निर्देशिका जारी की है। कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व के अंतर्गत कंपनी अपने शेयर धारकों से परे होती है। इस प्रकार कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व का संबंध स्थायी विकास से होता है। उल्लेखनीय है कि कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व की योजना तीन प्रकार- लघु अवधि, मध्यम अवधि के लिए बनाई जाती है। यह योजना व्यवसाय की अवधि के अनुसार बनाई जाती है।

सार्वजानिक उपक्रमों की बढती समस्याओं के कारण सरकार ने आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की श्रृंखला के दौर में सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश की नीति अपनाई और सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण का मार्ग प्रशस्त किया। निजीकरण की इस प्रक्रिया में सार्वजनिक उपक्रमों के अंशों का सरकार द्वारा बेचना आरंभ कर दिया गया। इन उपक्रमों के अंश निजी हाथों में बेचने का उद्देश्य जहां एक ओर प्रबंध में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाना था, वहीं साथ ही साथ अर्थव्यवस्था के सफल संचालन हेतु अतिरिक्त संसाधन भी एकत्रित करना था। भारत में सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश की प्रक्रिया 1991 में प्रारंभ हुई।

विनिवेश संबंधी मामलों पर निर्णय लेने वाली शीर्षस्थ प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में विनिवेश संबंधी मंत्रिमण्डल समिति है। मंत्रिमण्डल सचिव की अध्यक्षता में विनिवेश संबंधी सचिवों का एक प्रमुख दल विनिवेश कार्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है। विनिवेश मंत्रालय 27 मई, 2004 से वित्त मंत्रालय के अधीन एक विभाग में परिवर्तित कर दिया गया था और इसे विनिवेश से सम्बंधित वे सभी काम सौंपे गए हैं जो पहले विनिवेश मंत्रालय द्वारा निष्पादित किए जाते थे। जनवरी 2006 में विनिवेश विभाग की राष्ट्रीय निवेश कोष में जमा कराए गए विनिवेश से प्राप्त अर्थागम के उपयोग से संबंधित कार्य भी सौंपा गया है।

सरकारने सार्वजानिक उपक्रमों के विनिवेश से प्राप्त होने वाले राजस्व के सुनिश्चित इस्तेमाल के लिए केंद्रीय सड़क निधि की तर्ज पर राष्ट्रीय निवेश कोष की स्थापना की। सार्वजनिक उपक्रमों में निवेश से प्राप्त होनेवाली राशि इस कोष में जमा की जाएगी तथा यह राशि भारत के संचित कोष से बाहर रहेगी। इस राशि के 75 प्रतिशत भाग का इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्र के विकास के साथ-साथ 25 प्रतिशत राशि का उपयोग सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में निवेश के लिए किया जाएगा। राष्ट्रीय निवेश कोष के गठन की मंजूरी वर्ष 2005 में केंद्रीय मंत्रिमण्डल द्वारा प्रदान की गई थी लेकिन इसकी औपचारिक शुरुआत 6 अक्टूबर, 2007 से उस समय हुई जब पॉवर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड के विनिवेश से प्राप्त ₹ 994.82 करोड़ की राशि इस कोष में जमा की गई। उल्लेखनीय है कि इस राशि का प्रबंधन तीन एसेट मेनेजमेंट कपनियों को सौंपा गया है। इस प्रकार लोक उपक्रम के सार्वजनिक कल्याण के उद्देश्य को बनाए रखते हुए इसके प्रबंधन को व्यावसायिक बनाने के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश प्रतिष्ठान अदक्ष हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में अदक्षता के निम्नलिखित कारण हैं-

  1. प्रबंधन के उच्च स्तर पर प्रबंधकों की निरंतर सेवावधि का न होना।
  2. उद्देश्यों में अस्पष्टता एवं संघर्ष का होना।
  3. राजनैतिक विचारधारा एवं वर्तमान प्रबंधकीय व्यवहार में संघर्ष होना।
  4. नीति-निर्धारण में राजनीतिज्ञों का अधिक प्रभावी होना।
  5. व्यापारिक सिद्धांतों से पृथक कीमत नीति द्वारा उत्पाद मूल्य निधारित होना।
  6. उत्पादन क्षमता का अल्प प्रयोग होना एवं इसके कारण बड़े पैमाने की मितव्ययताओं का लाभ न मिल पाना।
  7. परियोजना निर्माण के समय अनुपयुक्त स्थान का चुनाव किया जाना एवं लागत अनुमान एवं वास्तविक व्यय के मध्य अधिक अंतर का होना। साथ ही परियोजना निर्माण में निधारित समय से अधिक समय लगना
  8. परियोजना के लिए उपयुक्त तकनीक का चुनाव न कर पाना।
  9. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में आवश्यकता से अधिक श्रमिकों को नियोजित किया जाना।

निजी उद्यम

भारत में कुछ औद्योगिक घरानों ने देश के औद्योगीकरण में एक बड़ी भूमिका निभाई। इन्होंने अक्सर देश में सफलतापूर्ण उद्यमिता का उद्धरण प्रस्तुत किया है। हालांकि कुछ का अस्तित्व स्वतंत्रता पूर्व के समय से था, तथा अन्य घराने स्वतंत्रता पश्चात् अस्तित्व में आए। औद्योगिक घरानों के संचालन में सफलतापूर्ण विविधीकरण एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है।

टाटा: यह देश के प्राचीनतम औद्योगिक घरानों में से एक है। भारत में लौह एवं इस्पात तथा ऑटोमोबाइल उद्योग में टाटा घराना अगुआ रहा है। इसने इन सालों में सीमेंट, फर्मास्यूटिकल, उर्जा, प्रकाशन, वित्त, बिमा दूरसंचार, सॉफ्टवेर डेवलपमेंट और निर्यात, गैर-टिकाऊ एवं अन्य उपभोक्ता क्षेत्रों में विविधता उत्पन्न की है। टाटा कसल्टेंसी सर्विसेज भारत में एक बड़ी सॉफ्टवेयर सर्विसेज कपनी है। टाटा ने भारतीय ऑटोमोबाइल क्षेत्र में नैनो नाम की सबसे छोटी और सर्वाधिक कम कीमत वाली कार बाजार में उतारी है।

मोदी औद्योगिक समूह: यह देश का एक पुराना औद्योगिक घराना है। यह कपड़ा, वस्त्र, टायर एवं ट्यूब, फार्मास्यूटिकल्स, आतिथ्य, कॉरपेट तथा अन्य उद्योगों से संबंध रखता है।

बिरला: विरला एक सु-स्थापित औद्योगिक घराना है। ये परम्परागत रूप से पेपर, कपड़ा, सीमेंट, पैराफीन, एल्युमिनियम तथा ऑटोमोबाइल उद्योगों से जुड़े हैं। लेकिन इन्होंने अन्य क्षेत्रों- मशीनी, उपकरण, दूरसंचार, फार्मास्यूटिकल्स और उपभोक्ता टिकाऊ एवं गैर-टिकाऊ क्षेत्रों में भी पदार्पण किया है।

बजाज समूह: यह औद्योगिक समूह स्कूटर और बाइक के उद्योग से जुड़ा रहा है लेकिन इसने अन्य क्षेत्रों जैसे बिजली एवं घरेलू उपकरण, वित्त, बीमा एवं मनोरंजन में भी पदार्पण किया है।

गोदरेज समूह: यह डिटरजेंट, रेफ्रीजरेशन, फर्नीचर, एयर-कंडीशन एवं सुरक्षा उपकरणों के उद्योगों से संबंधित एक अग्रणी औद्योगिक समूह है।

रिलायंस समूह: यह समूह परम्परागत रूप में पैराफीन और सिंथेटिक यार्न (धागा) से सम्बद्ध रहा है। इसने उर्जा, पेट्रोलियम, आथित्य सत्कार, फार्मास्यूटिकल्स, दूरसंचार, बैंकिंग, बीमा और सॉफ्टवेयर क्षेत्रों में भी पदार्पण किया है।

साराभाई समूह: यह दवा एवं फार्मास्यूटिकल्स उद्योग में एक अग्रणी समूह है।

विप्रो: यह सफल सनराइज (नवोदित) उद्योग का एक उत्तम उदाहरण है, तथा सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट और निर्यात के क्षेत्र में प्रसिद्ध समूह है। यह बिजनेस प्रॉसेस आउटसोर्सिग (बीपीओ) में एक अग्रणी समूह है।

किर्लोस्कर समूह: यह समूह भारी एवं हल्के मशीनी उपकरण तथा लोकोमोशन उद्योग में विशेषज्ञता रखता है। यह कृषि यंत्र एवं उपकरण भी बनाता है। इसका उदय देश में विश्वसीनय कृषि ट्रैक्टर और डीजल पंप सेट निर्माता के तौर पर हुआ था। इसने ऑटोमोबाइल उद्योग में भी पदार्पण किया है।

सिंघानिया समूह; यह देश के शुरुआती औद्योगिक घरानों में से एक है, यह कपड़ा, टायर एवं ट्यूब, फार्मास्यूटिकल्स और टिकाऊ एवं गैर-टिकाऊ उपभोक्ता क्षेत्र में क्रियाशील है।

गोयनका समूह: इस समूह का सम्बन्ध बिजली उत्पादन एवं वितरण, कपडा, फार्मास्यूटिकल्स, मशीन उपकरण एवं मनोरंजन क्षेत्रों से है।

श्रीराम समूह: यह एक व्यापक इकाइयों वाला समूह है, और यह कई उद्योगों का संचालन करता है जिसमें कपड़ा, वस्त्र, विद्युत उपकरण, जनरेटर सेट, आथित्य (हॉस्पिटेलिटी), फार्मास्यूटिकल्स तथा उर्वरक उद्योग शामिल हैं।

भारती समूह: भारती मोबाइल टेलीफोनी (एयरटेल ब्रांड) में उल्लेखनीय सफलता के लिए जाना जाता है। इसने कृषि, हॉस्पिटेलिटी, बीमा, और ट्रेडिंग में भी पदार्पण किया है।

रेनबैक्सी: यह भारत में ड्रग्स एवं फार्मास्यूटिकल्स की एक अग्रणी कंपनियों में से है।

हमदर्द: इस औद्योगिक घराने ने औषधि की यूनानी परम्परा या पद्धति को सुरक्षित किया है। यह बीवरेज (रूहअफ्जा), तथा बच्चों के टॉनिक (शिंकारा) उत्पादन क्षेत्र में प्रसिद्ध है। इस औद्योगिक घराने की फल आधारित पेय पदार्थ, हेयर आयल, शैम्पू एवं टॉयलेट साबुन इत्यादि क्षेत्रों में विविधता है।

डाबर: यह आयुर्वेदिक परम्परा को जीवित एवं संरक्षित रखने के प्रयास के लिए जाना जाता है। इस औद्योगिक घराने की फल आधारित पेय पदार्थ, हेयर ऑयल, शैम्पू एवं टॉयलेट साबुन इत्यादि क्षेत्रों में विविधता है।

ओबेरॉय घराना: यह भारत में हॉस्पिटेलिटी उद्योग में एक प्रमुख नाम है। इसके पास भारत एवं विदेशों में बेहतरीन होटलों की व्यापक श्रृंखला है।

एस्कोर्टस: एस्कोर्टस समूह बाइक्स (राजदूत) और ट्रेक्टर (आयशर) के निर्माण में शामिल रहा है और हृदय रोगों के निदान के अस्पताल चलाता है।

यूबी ग्रुप: यह एक पुराना और अग्रणी औद्योगिक समूह है, यह परम्परागत रूप से अल्कोहल पेय से सम्बद्ध रहा है। इसने हॉस्पिटेलिटी, नागरिक उड्डयन, आधारभूत ढांचा और रियल एस्टेट क्षेत्रों में भी पदार्पण किया है।

जेपी ग्रुप: जेपी युपरियल एस्टेट और विनिर्माण (सड़क एवं पुल प्रोजेक्ट) की एक प्रमुख कपनी है।

अंसल समूह: या देश में प्राचीन रियल एस्टेट डेवलपर्स में से एक है। इस समूह ने भारत में कई शहरी बस्तियों का संचालन किया है।

एसोसिएटिड सीमेंट कम्पनी: यह भारत की बड़ी सीमेंट कपनियों में से एक है। एसीसी मूलतः सीमेंट निर्माताओं का एक संगठन है।

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