भारत में सिंचाई के साधन Irrigation In India

कृषि आधारभूत संरचना

कृषि विकास पर्यावरणीय, राजनीतिक, संस्थात्मक एवं आधार संरचनात्मक कारकों द्वारा प्रभावित होता है। आधार संरचनात्मक कारकों के अंतर्गत सिंचाई, विद्युत आपूर्ति, रासायनिक या जैविक उर्वरक, उन्नत बीज इत्यादि को शामिल किया जाता है। ये कारक समष्टि एवं व्यष्टि, दोनों स्तरों पर एक विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करते हैं।

सिंचाई कृत्रिम साधनों द्वारा खेतों को जल उपलब्ध कराना सिंचाई कहलाता है। कृत्रिम साधन जैसे- नहर, कुएं, तालाब, बोरवेल इत्यादि।

सिंचाई की भूमिका: सिंचाई द्वारा न्यून वर्षा वाले क्षेत्रों में शुद्ध बुआई क्षेत्र की वृद्धि करने तथा बहुविध फसलों को प्रोत्साहन देने के परिणामतः सकल फसल क्षेत्र में वृद्धि होती है।

सामान्य मानसून देश के मात्र एक-तिहाई भाग हेतु पर्याप्त होता है। इस प्रकार सिंचाई शेष भागों के लिए अनिवार्य बन जाती है। यहां तक कि पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में भी मानसून का देरी से आना या जल्दी लौट जाना फसलों के लिए घातक सिद्ध होता है। रबी की फसलों के लिए सिंचाई अनिवार्य होती है। वृद्धिकाल के दौरान अधिकांश फसलों के लिए अतिरिक्त जल की जरूरत होती है। इस प्रकार स्थानिक एवं अस्थायी वर्षा के विभेदों पर विजय पाने के लिए सिंचाई अनिवार्य हो जाती है।

गैर-सिंचित क्षेत्रों की तुलना में सिंचित क्षेत्रों से उपज में 100 प्रतिशत वृद्धि हासिल की जा सकती है।

अनिश्चित वर्षा की स्थिति में सिंचाई से उत्पादन की स्थिरता भी प्राप्त होती है। उर्वरक, बीज, कीटनाशक आदि कीमती आगतों के आशानुकूल परिणामों को पर्याप्त आर्द्रता एवं नमी स्तर की उपस्थिति में ही प्राप्त किया जा सकता है।


सिंचाई कार्यक्रम से लाभान्वित क्षेत्रों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है।

प्रमुख सिंचाई: खेती योग्य नियंत्रित भूमि (सी.सी.ए.) लगभग 10,000 हेक्टेयर से भी ज्यादा हो।

मध्यम सिंचाई: खेती योग्य नियंत्रित भूमि 2,000 हेक्टेयर से अधिक और 10,000 हेक्टेयर से कम हो।

निम्न सिंचाई: खेती योग्य नियंत्रित भूमि 2,000 हेक्टेयर से ज्यादा न हो।

प्रमुख सिंचाई और मध्यम सिंचाई कार्य आमतौर पर धरातलीय जल (नदियों) की सहायता से संभव होता है जबकि निम्न सिंचाई मुख्य रूप से भूमिगत जल से होती है यथा, ट्यूबवेल, बोरिंग आदि।

सिंचाई के स्रोत: प्राकृतिक जल या तो नदियों, झीलों, तालाबों एवं नहरों में गुरुत्वबल से गतिशील सतही जल के रूप में उपलब्ध होता है या भूमिगत जल के रूप में, जिसे पशु शक्ति, डीजल या विद्युत के प्रयोग द्वारा ट्यूबवैलों से या कुएं खोदकर निकाला जाता है। किसी क्षेत्र के भौतिक पर्यावरण की दृष्टि से सिंचाई के विभिन्न स्रोत विशिष्ट हो सकते हैं तथा अपनी पृथक् विशेषताएं रख सकते हैं। भारत में सिंचाई के तीन मुख्य स्रोत हैं- कुएं, नहर एवं तालाब।

कुएं

सिंचाई का स्रोत (2001 के अनुसार) कुआं नहर के बाद दूसरे स्थान पर पहुंच गया है। कुओं से भूमिगत जल की पशु शक्ति, रहटों, विद्युत पम्पों या तेल इंजनों के द्वारा ऊपर खींचा जाता है। कुओं द्वारा सिंचाई के लिए ऐसे क्षेत्र उपयुक्त माने जाते हैं, जहां पारगम्य शैल संरचना पायी जाती है, जो अंतःस्रवण के माध्यम से भूमिगत जल की अभिवृद्धि में सहायक होती है। एक जलोढ़ मिट्टी वाली समान्तर स्थलाकृति कुआं खोदने के लिए उपयुक्त होती है तथा ऐसी भूमि की उत्पादकता भी अधिक होती है। हिमालय क्षेत्र या असम में कुएं नहीं पाये जाते हैं। शुष्क क्षेत्रों के कुओं का जल क्षारीय या नमकीन हो जाता है, जो न पेयजल के रूप में काम आता है और न सिंचाई के। नहरों, तालाबों या निम्न भूमियों (जहां वर्षा जल इकट्ठा हो जाता है) के निकट पाये जाने वाले कुओं में लवणीयता की समस्या गंभीर होती है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र व गुजरात राज्यों के कुल सिंचित क्षेत्र का 50 या उससे भी अधिक प्रतिशत भाग कुओं द्वारा सिंचित होता है। मध्य प्रदेश एवं तमिलनाडु के भी एक वड़े भाग में कुओं द्वारा सिंचाई की जाती है।

विगत कुछ दशकों में खुदे कुओं की जगह ट्यूबवैलों तथा पशु शक्ति की जगह विद्युत या डीजल जैसी वाणिज्यिक शक्ति का प्रयोग बढ़ा है। तमिलनाडु में सर्वाधिक विद्युत चालित पम्प सेट हैं। वर्तमान में सौर ऊर्जा चालित वॉटर पम्पों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

तालाब

भारत के प्रायद्वीपीय पठार वाले भाग में सिंचाई का सबसे महत्वपूर्ण साधन तालाब ही है। अपारगम्य शैल संरचना तथा अल्प तरंगित स्थलाकृति वाले क्षेत्रों में, जहां वर्षापात अत्यधिक मौसमी होता है, तालाबों द्वारा सिंचाई महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसी स्थितियां प्रायद्वीपीय क्षेत्र में पायी जाती हैं। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल तथा मध्य प्रदेश, ओडीशा व पश्चिम बंगाल के कुछ भागों में वर्षा जल को प्राकृतिक गतों या खुदे हुए तालाबों में बंधों द्वारा एकत्रित कर लिया जाता है। इस भंडारित जल को शुष्क काल के दौरान नालियों के माध्यम से खेतों तक पहुंचाया जाता है। तालाब द्वारा सिंचाई में कई त्रुटियां हैं- इससे तालाब के आस-पास की एक विस्तृत उर्वरक भूमि व्यर्थ पड़ी रहती है। विशाल एवं छिछला जलपिंड अत्यधिक वाष्पोत्सर्जन को जन्म देता है, जिससे जल की हानि होती है। इसके आलावा तलाबोब को नहरों की तुलना में सिंचाई का विश्वस्त स्रोत नहीं माना जा सकता, क्योंकि ये वर्षा जल के संग्रहण पर निर्भर करते हैं। वर्तमान में तालाबों द्वारा सिंचाई का महत्व कम होता जा रहा है।


सिंचाई की नवीनतम प्रौद्योगिकियां

फर्टिगेशन: एक आधुनिक तकनीक है, जिसके अंतर्गत उर्वरक के साथ-साथ सिंचाई की तकनीकी का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें दबाव से बहती जलधारा में उर्वरक घोल प्रविष्ट किया जाता है। फर्टीगेशन में विशिष्ट सिंचाई तकनीक का प्रयोग किया जाता है, इसमें प्रमुख हैं- ड्रिप सिंचाई एवं छिड़काव या स्प्रींकलर सिंचाई पद्धतियां।

ड्रिप सिंचाई: इसे टपक सिंचाई भी कहा जाता है। इस प्रणाली में खेत में पाइप लाइन बिछाकर स्थान-स्थान पर नोजल लगाकर सीधे पौधे की जड़ में बूंद-बूंद करके जल पहुंचाया जाता है। सिंचाई की यह विधि रेतीली मृदा, उबड़-खाबड़ खेत तथा बागों के लिए अधिक उपयोगी है।

छिड़काव सिंचाई: सिंचाई की इस विधि में पाइप लाइन द्वारा पौधों पर फब्बारों के रूप में पानी का छिड़काव किया जाता है। कपास, मूंगफली, तंबाकू, आदि के लिए यह विधि काफी उपयोगी है। रेगिस्तानी क्षेत्रों के लिए यह विधि उपयुक्त है। इससे 70 प्रतिशत तक जल की बचत की जा सकती है।

रेन वाटर हारवेस्टिंग: वर्षा के जल (जो अपवाह क्षेत्र में जाकर नष्ट हो जाते हैं) को एकत्रित करके सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी प्रकार ऐसे जल को बोरिंग द्वारा भूमि के अंदर जाने दिया जाता है ताकि भूमिगत जल का स्तर ऊपर की ओर बना रहे। वर्तमान में घरों की छतों पर विशाल पात्रों में जल को एकत्रित कर एवं विविध प्रकार के पक्के लघु जलाशय बनाकर भी वर्षा जल की कुछ मात्रा को एकत्रित किया जा रहा है। रेनवाटर हारवेस्टिंग की तकनीक भू-क्षरण और बाढ़-नियंत्रण में भी सहायक होती है।

वाटरशेड प्रबंधन: वाटरशेड प्रबंध की नीति पारिस्थितिकी के अनुरूप लघु स्तरीय प्रादेशिक विकास की नीति है, जिसके केंद्र में स्थानीय जल व भूमि संसाधन हैं। इस नीति के अंतर्गत लघु स्तर पर जल विभाजक रेखा की मदद से वाटरशेड प्रदेशों का सीमांकन कर लिया जाता है। प्रत्येक वाटरशेड प्रदेश की मृदा और जलीय उपलब्धता, आदि विशेषताओं का आकलन किया जाता है। इस प्रकार वाटरशेड प्रबंध पद्धति के अंतर्गत कृषि विकास, मृदा संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण के भी लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है।

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