वनस्पति विज्ञान के महत्वपूर्ण तथ्य Important Facts Of Botany

फल Fruits

फल परिपक्व अण्डाशय (ovary) से फल बनता है। निषेचन का अण्डाशय पर दोहरा प्रभाव पड़ता है। युग्मन (Syngamy) के फलस्वरूप बीजाण्ड (ovule) बिज में परिवर्तित हो जाता है। अण्डाशय भित्ति पककर फलभित्ति (pericarp) के रूप में बदल जाती है। फलभित्ति पतली या मोटी हो सकती है। मोटी फलभित्ति में प्रायः तीन स्तर हो जाते हैं। बहरी स्तर को प्रायः वही फलभित्ति (epicarp), मध्य स्तर को मध्य फलभित्ति (mesocarp) और सबसे अन्दर के स्तर को अन्तः फलभित्ति (endocarp) कहते हैं।

यदि फल बन्ने में केवल पुष्प का केवल अण्डाशय ही भाग लेता है, तो उस फल को सत्य फल (true fruit) कहते हैं, परन्तु कभी-कभी अण्डाशय के अतिरिक्त पुष्प के अन्य भाग जैसे पुष्पासन (thalamus), वाह्यदल (calyx) इत्यादि भी फल बनाने में भाग लेते हैं। ऐसे फलों को कूट फल (false fruit) कहते हैं। जैसे सेब (Apple) में पुष्पासन फल बनाने में भाग लेता है। फल पौधों के लिए लाभदायक है, क्योंकि यह तरुण बीजों की रक्षा करता है और बीजों के प्रकीर्णन (dispersal) में सहायता करता है।

फल मुख्यतः 3 प्रकार के होते हैं-

1. एकल फल Simple Fruits- ये फल एकाण्डपी अण्डाशय (Monocarpellary Ovary) अथवा बहुअण्डपी संयुक्त अण्डाशय (Multicarpellary syncarpus ovary) में विकसित होते हैं।

2. पुंजफल या समूह फल Aggregate Fruit- ये फल बहुअण्डपी स्वतंत्र अण्डाशय (Multicarpellary apocarpous ovary) से विकसित होते हैं।

3. संग्रहित फल Composite Fruits- ये फल सम्पूर्ण पुष्पक्रम से विकसित होकर बनते हैं।


[table id=118 /]


शैवाल Algae

शैवाल पर्णहरिम युक्त (chlorophyllous), संकेन्द्रीय (Nucleated), संवहन ऊतक रहित (Non-Vascular) थैलोफइट्स है, जिनके थैलस में वास्तविक जड़ें तथा पत्तियां आदि नहीं होते हैं\ इनमे सूक्षम एककोशकीय पौधों से लेकर विशालकाय बहुकोशकीय पौधे पाए जाते हैं। इनमे जननांग प्रायः एककोशकीय होते हैं। यद्यपि कुछ भूरे रंग के शैवालों में ये बहुकोशकीय भी होता हैं। इनमे लैंगिक जनन के बाद भ्रूण (Embryo) नहीं बनता है। वनस्पति विज्ञानं की वह शाखा जिसमे सभी शैवालों का अध्ययन करते हैं, फाइकोलाजी (Phycology) कहलाती है। शैवाल ताजे (मीठे) जल, गर्म जल के झरने, समुद्र, गीली मिट्टी, पेड़ों के तनों या चट्टानों पर पाए जाते हैं। उदाहरण – युलोथ्रिक्स, स्पाइरोगायरा।


शाइजोमाइसीट्स Schizomycetes

इस वर्ग में जीवाणु प्रमुख रूप से आते हैं। जीवाणुओं (Bacteria) को सबसे पहले सन 1683 में हालैंड के निवासी एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक ने अपने बनाये हुए सुक्षम्दर्शी के द्वारा जल, लार एवं दांत से खुरची मैल को देखा था, जिसमे अनेक सूक्षम जीव दिखायी दिए, ये जीवाणु थे। एरनबर्ग (1829) ने इन्हें सर्वप्रथम बैक्टीरिया नाम दिया। लुई पाश्चर ने किण्वन (Fermentation) पर कार्य किया और बतलाया की यह जीवाणुओं द्वारा होता है। लिस्टर (1827-1912) ने जीवाणुओं के सम्बन्ध में प्रतिरोधी मत (Antiseptic Theory) प्रस्तुत किया। अब जीवाणुओं का अध्ययन इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि जीवाणु अध्ययन की एक अलग शाखा बन गयी है, जिसे जीवाणु विज्ञान कहते हैं। एंटोनी वॉन ल्यूवेनहॉक को जीवाणु विज्ञान का पिता (Father) कहते हैं। जीवाणु सर्वव्यापी हैं, तथा जल, मिट्टी वायु जंतुओं एवं पौधों पर पाए जाते हैं। ये बर्फ व् गर्म जल के झरनों में 78°C तापक्रम पर भी पाए जाते हैं।

जीवाणु कोष एक भित्ति से घिरी रहती है। यह कोशा-भित्ति पॉलीसेकेराइड, लिपिड और प्रोटीन की बनी होती है। कुछ जीवाणुओं की कोशाभित्ति (Cell Wall) में सेलूलोज पाया जाता है। इस भित्ति के चारो ओर अवपंक (slime) की बनी एक परत होती है। जीवाणु वृद्धि के समय अपवंक की बनी परत फूल सी जाती है और सख्त होकर एक कैप्सूल बनती है और ऐसे जीवाणु को कैप्सूलेटेड कहते हैं। कैप्सूल की उपस्थिति जीवाणुओं और मनुष्यों दोनों के लिए महत्वपूर्ण होती है। यह जीवाणुओं की प्रतिकूल वातावरण (unfavourable condition) से रक्षा करता है और संचित खाद्य पदार्थों के संग्रहालय के रूप में काम करता है। दूसरी ओर कैप्सूल की उपस्थिति जंतुओं के रोग संक्रमण में सहायता देती है। क्योंकि कैप्सूल के कारण जंतुओं के रक्त की श्वेत रक्त कणिकाएं (WBC) जीवाणुओं को नष्ट नहीं कर पाती हैं, जिसके कारण रोग फैलता है। जीवाणुओं के कोशा-भित्ति के अन्दर जीवद्रव्य भरा रहता है, जो बहार की ओर जीवद्रव्य कला (Protoplasmic membrama) से घिरा रहता है।  यह कला लिपिड, लिपोप्रोटीन इत्यादि की बनी होती है। जीवद्रव्य कला और जीवद्रव्य की रासायनिक और भौतिक प्रकृति पर जीवाणुओं का अभिरंजन (stainning) निर्भर करता है।

ग्राम नमक वैज्ञानिक ने क्रिस्टल वायलेट एवं आयोडीन के घोल से जीवाणुओं का अभिरंजन (Staining), सभी जीवाणु बैंगनी हो गए, फिर एसीटोन अथवा अल्कोहल से धोकर साफ किया। ग्राम-पॉजिटिव जीवाणुओं में बैंगनी रंग रह गया तथा ग्राम-नेगेटिव जीवाणु रंगहीन हो गए। यदि इसके पश्चात् अथवा कार्बोल-फुक्सीन अभिरंजक (stain) देते हैं, तो ग्राम-पॉजिटिव बैंगनी रहते हैं तथा ग्राम नेगेटिव गुलाबी रंग ले लेते हैं।

ग्राम-पॉजिटिव जीवाणुओं में कोशाभित्ति मोटी है और इसका शुष्क भार कोशा के पूर्ण भार 20-40% होता है। ये जीवाणु पेनिसिलिन से नष्ट हो जाते हैं।

ग्राम-नेगेटिव जीवाणुओं में कोशाभित्ति पतली तथा सख्त होती है और इसका शुष्क भर कोशा के पूर्ण भार का 10-20% होता है। ये जीवाणु पेनिसिलिन से नष्ट नहीं होता हैं।

जीवाणुओं में संगठित केन्द्रक नहीं होता है अर्थात इनमे कला, केंद्रिका तथा सामान्य प्रकार के गुणसूत्र (chromosomes) नहीं पाए जाते हैं।

जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व Economic Importance of Bacteria

1. कृषि में- कुछ जीवाणु भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। सभी पौधों के लिए नाइट्रोजन आवश्यक है। नाइट्रोजन वायुमंडल में लगभग 80% होती है। सभी पौधे नाइट्रेट्स के रूप में नाइट्रोजन लेते हैं। कुछ जीवाणु जैसे लेग्युमिनेसी कुल का पौधों की जड़ों की गांठों (Root nodules) में राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम नमक जीवाणु पाए जाते हैं, जो वायुमंडल की सवंतंत्र नाइट्रोजन को नाइट्रोजन यौगिकों में बदलने की क्षमता रखता हैं।

2. डेयरी में- बैक्टीरियम लैक्टिसाई एसिडाई और बैक्टीरियम एसिडाई लैक्टिसाई जीवाणु दूध में पाए जाते हैं। ये जीवाणु दूध में पाई जाने वाली लैक्टोस शर्करा का किण्वन करके लैक्टिक अम्ल बनाते हैं, जिसके कारन दूध खट्टा हो जाता है। लैक्टिक अम्ल जीवाणु दूध में पाए जाने केसीन (Casein) नामक प्रोटीन की छोटी-छोटी बूंदों को एकत्रित कर के दही ज़माने में सहायता करते हैं।

3. औद्योगिक महत्त्व- सिरका (vinegar) का निर्माण शर्करा घोल (sugar solution) से एसीटोबैक्टर एसेटि नमक जीवाणु द्वारा होता है। शर्करा के घोल से ब्यूटाइल अल्कोहल एवं एसीटोन का निर्माण क्लॉसट्रीडियम एसीटोबूटीलाइकम जीवाणु द्वारा किया जाता है।

4. औषधियां- कुछ प्रतिजैवकी औषधियां (antibiotics) जीवाणुओं की क्रिया द्वारा बनायीं जाती हैं।। विटामिन बी-2, क्लॉसट्रीडियम एसीटोबूटीलाइकम जीवाणु की किण्वन क्रिया द्वारा बनायीं जाती है।

प्रतिजैविक औषधियां जो जीवाणुओं की क्रिया द्वारा बनायीं जाती है-

[table id=119 /]


कवक Fungi

कवक पर्णहरिम (Cholorophyll) रहित सकेंद्रीय (Nucleated) संवहन उतक रहित (non-vascular), थैलोफाइटा (Thalophyta) हैं। ये परजीवी (Parasitic) अथवा मृतोपजीवी (Saprophytic) होते हैं और बीजाणुओं के द्वारा जनन करते हैं। वनस्पति विज्ञानं की वह शाखा जिसके अंतर्गत कवकों का अध्ययन करते हैं, कवक विज्ञान (Mycology) कहलाती है। नई विचारधरा के अनुसार कवक विज्ञान को माइसेटोलॉजी (Mycetology) कहा जाना चाहिए। कवक सर्वव्यापी है। इनमे पर्णहरिम न होने के कारण ये अपना भिजन स्वयं नहीं बना पते, इसलिए दुसरे पौधों पर परजीवी अथवा सहजीवी (symbiotic) रूप में तथा सड़े-गले पदार्थों पर मृतोपजीवी रूप में मिलते हैं।

बहुत से कवकों का उपयोग कुछ प्रतिजैविकी औषधियों के निर्माण में किया जाता है। ये कई बीमारी फ़ैलाने वाले सूक्षम जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं। कुछ मुख्य औषधियां निम्नलिखित हैं-

[table id=120 /]

मनुष्य में कवक द्वारा उत्पन्न रोग

1. दाद Ringworm- यह रोग ट्राइकोफाइटन (Trichophyton) नामक कवक दरार होता है। इस कवक के जीवाणु रोगी द्वारा प्रयुक्त तौलिया, तकिया, चादर, वस्त्र आदि कोप्रयोग करने से स्वस्थ्य मनुष्य तक पहुँच जाते हैं।

2. दमा Asthma- एस्पर्जिलस फ्युमीगेट्स (Aspergillus fumigates) नामक कवक के बीजाणु वायु द्वारा मनुष्य के फेफड़े में प्रवेश कर अंकुरित होकर कवक जाल बनाते हैं। इससे खांसी तथा दमा हो जाता है।


ब्रायोफाइटा Brayophyta

ब्रायोफाइटा भ्रूण (Embryo) बनाने वाले एम्ब्रियोफाइटा का सबसे साधारण व् आद्य (Primitive) समूह है\ ये पौधे प्रायः छोटे-छोटे होते हैं और सर्वव्यापी हैं। ब्रायोफाइटा के अधिकतर पौधे स्थलीय हैं, परंती कुछ जातियां जल में भी पाई जाती हैं। अतः इन्हें उभयचारी (Amphibious) भी कहते हैं। इनमे संवहनीय उतक (Vascular tissue) नहीं होता है। ये पौधे स्थलीय (Terrestrial) होने के साथ ही छायादार स्थानों पर उगते हैं। और इन्हें अपने जीवन में पर्याप्त आर्द्रता की आवश्यकता होती है। अतः कुछ वैज्ञानिक ब्रायोफाइटा समुदाय को वनस्पति जगत का एम्फीबिया वर्ग भी कहते हैं। ये पौधे थैलोफाइटा से अधिक विकसित होता हैं\ इनका मुख्य पौधा युग्मकोदभिद (Gametophyte) होता है। युग्मकोदभिद के मुलाभासों को छोड़कर शेष भाग में क्लोरोप्लास्ट होते हैं, जिसके कारन ये आत्मपोषी होते हैं। उदाहरण- रिक्सिया, मार्केशिया।


टेरीडोफाइटा Pteriodophyta

टेरीडोफाइटा वर्ग के अंतर्गत संवहन (vascular), अपुष्पोदभिद (Cryptogams) पौधे आते हैं। इस वर्ग के सदस्यों में जल एवं खनिज लवणों के संवहन हेतु ऊतक (conducting tissue), जाइलम और फ्लोएम होते हैं। इस वर्ग के पौधे प्रायः नाम व् छायादार स्थानों में पाए जाते हैं। मुख्य पौधा जीवाणु उदभिद (Sporophyte) होता है। जिसमे प्रायः जड़, पत्ती, तथा तना होते हैं। ये पुश्फिं पौधे हैं तथा इनमे बीज निर्माण नहीं होता है। उदाहरण- लाइकोपोडियम, मर्सिलिया, फर्न।


अनावृत्तबीजी पौधे Gymnosperms

अनावृत्तबीजी (Gymnosprems), बीजीय पौधों (Spermmatophytes) का वह सब फाइलम है, जिसके अंतर्गत बह पौधे आते हैं, जिनमे बीज टो बनते हैं, परन्तु वे बीज नग्न रूप से पौधे पर लगे रहते हैं। अर्थात बीजाण्ड (ovule) अथवा उनसे विकसित बीज (seeds) किसी खोल, भित्ति या फल में बंद नहीं होते हैं। अण्डाशय (ovary) का पूर्ण आभाव होता है। जीवाश्मों (fossils) के अध्ययन से पता चलता है की यह पुराने पौधों का वर्ग है, जिसमें काफी पौधे तो जीवाश्म भी बन चुके हैं। इस वर्ग के पौधे बहुवर्षीय (Perennial) तथा कोष्ठीय होते हैं। ये मरूदभिद स्वभाव (Xerophytic nature) के होते हैं, जिनमे रन्ध्र (stomata) पत्ती में धंसे होते हैं, तथा त्वचा (Epidermis) पर क्यूटिकल (Cuticle) की पार्ट चढ़ी रहती है। इन पौधों में साधारणतया बहुभ्रूणता (Polyembryony) पायी जाती है, परन्तु एक परिपक्व बीज में केवल एक भ्रूण विकसित होता है और शेष भ्रूण नष्ट हो जाते हैं। उदाहरण- साइकस, पाइनस (चीड़)


एंजियोस्पर्म Angiosperm

इस वर्ग के पौधों में जड़, तना तथा पत्तियां होती हैं। संवहन ऊतक काफी व्क्सित होते हैं। इनमें बीज एक विशेष संरचना से ढके होते हैं। इस संरचना को अण्डाशय कहते हैं। ये शाक, झाडियां तथा वृक्ष तीनों प्रकार के होते हैं। मानव के आहार में प्रयुक्त अधिकतर वनस्पतियां इसी वर्ग में आती हैं। यह मुख्यतः संवहनीय क्रिप्टोगैम्स (vascular cryptogams) के नाम से जाना जाता है।


अनुवर्तन Tropism

भूमि में स्थिर रहने पर भी पौधों में गति उत्पन्न होती है। यह गति यांत्रिक और प्राकृतिक उद्दीपनों (stimulus) के कारण होती है। यह गति पौधों में उपस्थित जीवद्रव्य (Protoplasm) की वातावरण के प्रति संवेदनशीलता के कर्ण होती है। छुई-मुई के पौधे को छूने पर पत्तियों का बंद हो जाना इसका उदाहरण है। पौधों में यह गति दो प्रकार की होती है- स्वतंत्र गति (Automatic Movements) और प्रभावित गति (Induced Movement)। स्वतंत्र गति में वाह्य उद्दीपन का प्रभाव नहीं पड़ता है। यह स्वतः होती है। प्रभावित गति गुरुत्वाकर्षण शक्ति, प्रकाश, स्पर्श, जल और रासायनिक पदार्थों के कारण होती है। प्रभावित गति (Induced Movement) भी दो प्रकार की होती है- चलन गतियां (Movements of Locomotion) और वक्रण गतियां (Movements of curvature). पौधों की गति में गुरुत्वाकर्षण शक्ति प्रकाश और रासायनिक पदार्थ जैस वाह्य उद्दीपनों के कारण जो वक्रण गतिया आती हैं उसे अनुवर्तन (Tropism or Induced Movement of curvature) कहा जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *