इलेक्ट्रॉनिकी Electronics

इलेक्ट्रॉन जब क्वार्ट्ज क्रिस्टलों के भीतर एक नियत पथ पर गति करता है, तो उससे उत्पन्न प्रभावों को इलेक्ट्रॉनिकी के अन्तर्गत रखा जाता है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में इलेक्ट्रॉनिकी के क्षेत्र में काफी विकास हो चुका है। आज इलेक्ट्रॉनिकी यंत्रों का कृषि, संचार, चिकित्सा, रक्षा, उद्योग, अंतरिक्ष अनुसंधान, इंजीनियरिंग, शिक्षा, घरेलू उपयोग के यंत्रों आदि विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग हो रहा है। इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों में पहले निर्वात् ट्यूबों का प्रयोग किया जाता था, जो काफी स्थान घेरता था, जिसके कारण 19वीं शताब्दी के आरंभ में बड़े-बड़े रेडियोग्राम देखने को मिलते थे। धीरे-धीरे निर्वात ट्यूबों (Vaccum Tubes) का स्थान अर्धचालकों (Semiconductors) व ट्रांजिस्टरों (Transistors) ने ले लिया, जो अपेक्षाकृत काफी कम स्थान घेरते हैं और अपेक्षाकृत सस्ते भी होते हैं। आधुनिक समय में धीरे-धीरे इनके स्थान पर इंटीग्रेटेड सर्किट्स (Integrated Circuits) का प्रयोग किया जा रहा है। इनमें सर्वाधिक विकसित तकनीक माइक्रोप्रोसेसर या माइक्रोचिप्स की है।

गैसों में विद्युत् विसर्जन (Electric discharge through gases): साधारण दाब पर गैसें विद्युत् का कुचालक होती हैं, लेकिन साधारण दाब रहने पर भी अगर इलेक्ट्रोडों के बीच उच्च विभवान्तर स्थापित किया जाता है, तो गैस से होकर विद्युत् प्रवाह होने लगता है। गैसों के दाब कम करने पर उसके बीच कम ही विभवान्तर आरोपित करने से उनसे होकर विद्युत्-प्रवाह होने लगता है, इसी को विद्युत्-विसर्जन कहते हैं।

विद्युत् विसर्जन की क्रिया में गैसों का आयनीकरण (ionisation) हो जाता है, जिससे गैसों के परमाणु धनायन (Cation) और ऋणायन (Anion) में विभाजित हो जाते हैं। ये आयन विपरीत दिशा में चलने लगते हैं। इन आयनों की गति से ही विद्युत्-प्रवाह होता है।

कैथोड किरणें (Cathode Rays): जब कभी विसर्जन नली के इलेक्ट्रोडों के बीच प्रेरण कुंडली द्वारा उच्च विभवान्तर स्थापित किया जाता है तथा नली में भरी गैस का दाब 10-2 से 10-3 मिमी पारे के स्तम्भ के बराबर होता है, तो कैथोड से नीली वर्ण रेखाएँ निकलती हुई दिखाई देती हैं। इन्हें कैथोड किरणे कहते हैं। जब ये किरणे कैथोड के सामने की नली के दीवार से टकराती हैं, तो प्रतिदीप्ति (Fluoescence) उत्पन्न करती हैं जिसका रंग काँच की प्रकृति पर निर्भर करता है।

कैथोड किरणे के गुण:

(i) कैथोड किरणे सरल रेखा में चलती हैं।

(ii) ये किरणे कैथोड के तल के लम्बवत् उत्सर्जित होती हैं तथा इनकी दिशाएँ एनोड की स्थिति पर निर्भर नहीं करती हैं।


(iii) ये किरणे प्रतिदीप्ति उत्पन्न करती हैं।

(iv) ये किरणे ऊष्मा उत्पन्न करती हैं तथा इनमें यांत्रिक ऊर्जा होती हैं।

(v) ये किरणे विद्युत् क्षेत्र एवं चुम्बकीय क्षेत्र में विक्षेपित होते हैं।

(vi) कैथोड किरणे ऋणावेशित होती हैं।

(vii) ये किरणे गैसों को आयनीकृत कर देती हैं।

(viii) कैथोड किरणे फोटोग्राफिक प्लेट को प्रभावित कर देती हैं।

(ix) कैथोड किरणे धातु की प्लेट को भेद कर पार कर जाती हैं।

(x) जब ये किरणें उच्च परमाणु क्रमांक वाले धातुओं पर गिरती हैं, तो x-किरणें उत्पन्न करती हैं।

धन किरणें या कैनाल किरणे (Positive or Canal Rays): सन् 1886 ई० में गोल्डस्टीन (Goldstein) ने ज्ञात किया कि यदि विसर्जन नली में कैथोड छिद्रयुक्त हो तथा नली में भरी हुई गैस का दाब 0.0001 मिमी० से 5.05 मिमी० पारे के स्तम्भ के तुल्य हो, तो कैथोड के पीछे एनोड से दूर गैस में प्रकाश चलती हुई दिखाई देती है। कैथोड के छिद्रों से निकलने के कारण गोल्डस्टीन ने इन किरणों का नाम कैनाल किरणे रखा।

(i) धन किरणे सीधी रेखा में संचरित होती हैं।

(ii) ये किरणें काँच पर प्रतिदीप्ति उत्पन्न करती हैं।

(iii) ये किरणें फोटोग्राफिक प्लेट को प्रभावित करती हैं।

(iv) ये किरणें एल्युमिनियम की बारीक प्लेट को पार कर जाती हैं।

(v) ये किरणें गैसों का आयनीकरण करती हैं।

(vi) धन किरणों की संचरण की गति कैथोड किरणों की संचरण की गति से बहुत कम होती है।

(vii) धन किरणों के प्रत्येक कण का द्रव्यमान उन गैसों के परमाणु के द्रव्यमान के निकट होता है, जिसमें विद्युत् विसर्जित की जाती है।

प्रकाश विद्युत् प्रभाव (Photo-electric Effect): जब धातुओं की सतह पर उच्च आवृत्ति की प्रकाश किरणे (γ-किरणे, x-किरणे, पराबैंगनी किरणे एवं दृश्य प्रकाश) आपतित होती हैं, तो उन धातुओं की सतह से इलेक्ट्रॉन का उत्सर्जन होता है। इलेक्ट्रॉनों को फोटो इलेक्ट्रॉन (Photo Electron) तथा इस क्रिया को प्रकाश-विद्युत् प्रभाव कहा जाता है। सबसे पहले इसका आविष्कार डब्ल्यू. स्मिथ (W. Smith) ने सन् 1873 ई० किया। कुछ वर्षों के बाद हर्ट्ज (Hertz) ने भी इसके बारे में बताया। उन्होंने ने देखा कि जब पराबैंगनी किरण घुण्डियों के चिनगारी पर (on a spark gap) पड़ती है, तो चिनगारी अधिक आसानी से निकलती है। हर्ट्ज के एक वर्ष बाद हौलवाख (Hallwachs), इलस्टर (Elster) और गैटेल (Geitel) ने एक साधारण प्रयोग करके प्रकाश विद्युत् के सर्वसाधारण अभिलक्षण को स्थापित किया। परन्तु प्रकाश-विद्युत प्रभाव की विस्तृत व्याख्या आइन्स्टीन (Einstein) एवं मिलिकन (Millikan) ने की जिसके लिए उन्हें क्रमशः 1921 ई० एवं 1923 ई० में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ । सभी धातुएँ x-किरणों एवं γ-किरणों के साथ प्रकाश विद्युत् प्रभाव दिखलाती हैं। सभी क्षारीय धातु एवं जिंक प्रकाश के साथ भी प्रकाश-विद्युत् प्रभाव दिखलाती है।

विद्युत् चुम्बकीय तरंगें छोटे-छोटे कणों से बनी होती हैं, जिन्हें फोटॉन (Photon) कहते हैं। फोटॉन ऊर्जा का बंडल (Packets of Energy) होता है। इसमें निहित ऊर्जा E = hv होता है, जहाँ h = 6.62 × 10-34 Js होती है, जिसे प्लांक नियतांक (Planck’s Constant) कहते हैं तथा v फोटॉन की आवृत्ति होती है। जब ये फोटॉन धातु की सतह से टकराते हैं तब एक फोटॉन की कुल ऊर्जा धातु के एक-एक इलेक्ट्रॉन में स्थानांतरित हो जाती है। यदि यह ऊर्जा धातु की सतह से इलेक्ट्रॉन को निकालने के लिए आवश्यक ऊर्जा के मान के बराबर या उससे अधिक होती है, तो इलेक्ट्रॉन धातु की सतह से बाहर निकल आता है। प्रकाश-विद्युत प्रभाव प्रकाश के कण प्रकृति (particle nature) की पुष्टि होती है।

प्रकाश-विद्युत् प्रभाव के नियम

(i) जब प्रकाश के विशेष रंग की कोई किरण धातु की सतह पर पड़ती है, तब प्रति सेकण्ड धातु की सतह से निकलने वाले इलेक्ट्रॉनों की संख्या प्रकाश की तीव्रता के समानुपाती होती है।

(ii) उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनों की गतिज ऊर्जा का मान शून्य से महत्तम के बीच बदलता रहता है। इलेक्ट्रॉन की इस गतिज ऊर्जा का मान प्रकाश की आवृति पर निर्भर करता है, उसकी तीव्रता पर नहीं।

(iii) धातु की सतह पर पड़ने वाले प्रकाश की आवृत्ति एक निश्चित मान से कम होता है, तो इलेक्ट्रॉन का उत्सर्जन नहीं हो पाता है। आवृत्ति के इस निश्चित मान को दहलीज आवृति (Threshold Frequency) कहते हैं। अर्थात् दहलीज आवृत्ति आपतित प्रकाश की वह न्यूनतम आवृत्ति होती है, जिससे कम आवृत्ति का प्रकाश धातु सतह से इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन न कर सके।

दहलीज तरंगदैर्ध्य (Threshold Wavelength): दहलीज आवृत्ति के संगत तरंगदैध्य को दहलीज तरंगदैर्घ्य कहते हैं। यह वह अधिकतम तरंगदैर्घ्य है, जिससे अधिक तरंगदैर्घ्य का प्रकाश धातु पृष्ठ से इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित नहीं कर सकता है।

[latex]{ \lambda  }_{ 0 }\quad =\quad \frac { c }{ { v }_{ 0 } }[/latex]

जहाँ c = प्रकाश का वेग है।

कार्य-फलन (work function): यह ऊर्जा का वह न्यूनतम मान है, जो इलेक्ट्रॉनों को धातु के अन्दर से धातु की पृष्ठ तक लाने में व्यय होता है। अर्थात् किसी धातु का कार्य-फलन (work function) उतने कार्य को कहते हैं, जितना कार्य करने से उस धातु की सतह से इलेक्ट्रॉन का उत्सर्जन प्रारंभ हो जाए। इसे Φ0  से प्रदर्शित करते हैं।

{ \phi  }_{ 0 }\quad =\quad h{ v }_{ 0 }\quad =\quad h\frac { c }{ { \lambda  }_{ 0 } }

जहाँ h = प्लांक नियंताक = 6.6 × 10-34 J/s

c = प्रकाश का वेग

प्रकाश-विद्युत् प्रभाव के आइन्स्टीन की व्याख्या:  सन् 1905 ई० में आइन्स्टीन ने जर्मन वैज्ञानिक मैक्स प्लांक (Max Planck) द्वारा प्रतिपादित क्वाण्टम सिद्धान्त (Ouantum Theory) को आधार मानकर प्रकाश-विद्युत् प्रभाव की व्याख्या की। उसने प्रकाश ऊर्जा को छोटे-छोटे बंडलों के रूप में कल्पना की जो प्रकाश के वेग से चलते हैं। इन बंडलों को क्वाण्टा या फोटॉन कहते हैं। प्रत्येक फोटॉन की ऊर्जा hv के बराबर होती है, जहाँ h प्लांक नियतांक और v विकिरण की आवृत्ति है। आइन्स्टीन ने बताया कि प्रकाश की तीव्रता इन्हीं फोटॉन की संख्या पर निर्भर करती है। इसके अनुसार, जब hv ऊर्जा का एक फोटॉन किसी धातु के तल पर आपतित होता है, तो ऊर्जा का एक भाग धातु के तल से इलेक्ट्रॉन निकालने या धातु के परमाणु से इलेक्ट्रॉन मुक्त करने में व्यय होता है, इस ऊर्जा को कार्य-फलन की ऊर्जा (Φ0) कहते हैं। फोटॉन की शेष ऊर्जा उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन को गतिज ऊर्जा प्रदान करती है। यदि उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान m और वेग v हो तो, फोटॉन की ऊर्जा = उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन की गतिज ऊर्जा + कार्य-फलन की ऊर्जा, अर्थात

[latex]hv\quad =\quad \frac { 1 }{ 2 } \quad m{ v }^{ 2 }\quad +\quad { \Phi  }_{ 0 }[/latex]

यदि आवृति फोटॉन की ऊर्जा कार्य-फलन के ऊर्जा के बराबर हो, तो धातु तल से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन का वेग शून्य होता है। इस स्थिति में फोटॉन की ऊर्जा hv0 होता है, जहाँ v0 दहलीज आवृत्ति (Threshold frequency) है।

प्रकाश-विद्युत् सेल (Photo-Electric Cell): प्रकाश-विद्युत् सेल के द्वारा प्रकाश ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में बदला जाता है। प्रकाश-विद्युत् सेल का सिद्धान्त प्रकाश-विद्युत् प्रभाव के सिद्धान्त पर आधारित है। प्रकाश-विद्युत् सेल कई प्रकार के होते हैं, जैसे-प्रकाश चालकीय सेल (Photo Conductive Cell), प्रकाश वोल्टीय सेल (Photo Voltaic Cell), प्रकाश उत्सर्जक सेल (Photo Emissive Cell) आदि।

प्रकाश-विद्युत् सेल के उपयोग:

(i) इसका सर्वाधिक उपयोग सिनेमाघरों में ध्वनि के पुनरुत्पादन (reproduction of sound) व टेलीविजन में किया जाता है।

(ii) सड़कों पर लगी लाइटें प्रकाश-विद्युत् सेलों के द्वारा स्वचालित रूप से रात के समय जल जाती हैं व दिन के समय बुझ जाती हैं।

(iii) दरवाजों को स्वचालित रूप से खोलने व बन्द करने के लिए भी प्रकाश-विद्युत् सेलों का प्रयोग किया जाता है।

(iv) बैंकों की तिजोरियों में प्रकाश-विद्युत् सेल लगे होते हैं, जो चोरी आदि होने की सूचना देते हैं।

(v) प्रकाश-विद्युत् सेलों का उपयोग अंतरिक्ष यान की बैटरियों के आवेशन में किया जाता है। दिन के समय इन बैटरियों को आवेशित किया जाता है तथा रात के समय इनसे बिजली प्राप्त की जाती है।

प्रतिदीप्ति (Fluorescence): प्रकृति में कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जब उन पर उच्च आवृति या छोटी तरंगदैर्घ्य का प्रकाश (जैसे-पराबैंगनी प्रकाश) डाला जाता है, तो वे उसे अवशोषित कर लेते हैं और अपेक्षाकृत निचली आवृत्ति या ऊँची तरंगदैर्घ्य का प्रकाश उत्सर्जित करते हैं। इन पदार्थों के द्वारा प्रकाश का उत्सर्जन तभी तक होता है, जब तक कि उन पर प्रकाश डाला जाता है। इस घटना को प्रतिदीप्ति और ऐसे पदार्थ को प्रतिदीप्त पदार्थ कहते हैं। प्रतिदीप्त पदार्थ के उदाहरण (Fluorspar), पेट्रोल (Petrol), कुनीन सल्फेट (Quinine sulphate) यूरेनियम ऑक्साइड, बेरियम प्लेटिनो सायनाइड आदि। प्रतिदीप्त पदार्थ का दैनिक जीवन में कई उपयोग देखने को मिलते हैं, जैसे-इनकी सहायता से ऑखों से न दिखायी देने वाले विकिरणों (जैसे-पराबैंगनी किरणें, x-किरणें) का पता लगाया जाता है। x-किरणों का पता लगाने के लिए हम बेरियम प्लेटिनो सायनाइड का प्रयोग करते हैं। यह पदार्थ x-किरणों को अवशोषित कर हरे रंग के प्रकाश का उत्सर्जन करते हैं। आजकल घरों में प्रयोग की जाने वाली टयूब लाइट (fluorescent tube) में विभिन्न प्रकार के प्रतिदीप्त पदार्थों का लेप चढ़ाते हैं, जिनसे उनसे विभिन्न रंग के प्रकाश उत्सर्जित होते हैं। टयूब लाइट में लेप के रूप में चढ़ाए जाने वाले प्रतिदीप्त पदार्थ तथा उनसे उत्सर्जित प्रकाश के रंगों का विवरण आगे सारणी में दिया गया है-

प्रतिदीप्त पदार्थ उत्पन्न प्रकाश का रंग
कैडमियम बोरेट गुलाबी प्रकाश
जिंक सिलिकेट हरे रंग का प्रकाश
मैग्नीशियम टंगस्टेट हल्का नीला रंग का प्रकाश
जिंक बेरीलियम सिलिकेट पीला प्रकाश
मैग्नीशियम टंगस्टेट + जिंक बेरीलियम सिलिकेट श्वेत प्रकाश

स्फुरदीप्ति (Phosphorescence): प्रतिदीप्त पदार्थों पर जब तक प्रकाश डाला जाता है, तभी तक उनसे प्रकाश का उत्सर्जन होता है अर्थात् प्रकाश डालना बन्द करते ही उनसे प्रकाश का उत्सर्जन बन्द हो जाता है। लेकिन कुछ पदार्थ ऐसे भी होते हैं, कि जब उन पर प्रकाश डालना बन्द कर दिया जाता है, तो उसके बाद भी कुछ देर तक प्रकाश का उत्सर्जन करते रहते हैं। इस घटना को स्फुरदीप्ति कहते हैं तथा ऐसे पदार्थों को स्फुरदीप्त पदार्थ कहते हैं। जिंक सल्फाइड, कैल्शियम सल्फाइड, बेरियम सल्फाइड आदि स्फुरदीप्त पदार्थों के उदाहरण हैं। जिंक सल्फाइड पर जब नीले रंग का प्रकाश डाला जाता है, तो वह हरे रंग का प्रकाश उत्सर्जन करता है। प्रकाश डालना बन्द करने पर स्फुरदीप्त पदार्थ जितने समय तक प्रकाश का उत्सर्जन करते हैं वह स्फुरदीप्ति काल कहलाता है। स्फुरदीप्ति काल भिन्न-भिन्न पदार्थों के लिए भिन्न-भिन्न होते हैं तथा यह पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर करता है। गर्म करने पर स्फुरदीप्त पदार्थों की क्षमता नष्ट हो जाती है। आजकल घड़ी की सूईयों पर, साईन बोडों पर, बिजली बोडों आदि पर स्फुरदीप्त पदार्थों का लेप चढ़ाया जाता है। ये पदार्थ दिन में सूर्य का प्रकाश अवशोषित करके रात में चमकते हैं।

ऊष्मायनिक/तापायनिक उत्सर्जन (Thermionic emission): सन 1884 ई. में थॉमस एल्वा एडिसन (Thomas Alva Edision) ने इसके बारे में बताया। जब किसी धातु के तार अथवा फिलामेंट को निर्वात् (vacuum) में गर्म किया जाता है, तो उसमें से इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होने लगते हैं। ये इलेक्ट्रॉन ऊष्मायन/तापायन कहलाते हैं। किसी धातु के फिलामेंट को गर्म करने पर इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन की इस क्रिया को ही ऊष्मायनिक/तापायनिक उत्सर्जन कहते हैं।

तापायनिक सिद्धान्त का प्रयोग कर तापायनिक वाल्व बनाये जाते हैं। डायोड (Diode), ट्रायोड (Triode) आदि वाल्व इसके उदाहरण हैं। एक्स किरण तथा कैथोड किरण नलिका में भी इलेक्ट्रॉन तापायनिक उत्सर्जन से ही प्राप्त किये जाते हैं।

डायोड वाल्व (Diode Valve): यह वाल्व ऊष्मायनिक उत्सर्जन की क्रिया पर आधारित है। इसका निर्माण सन् 1904 ई० में इंगलैंड के वैज्ञानिक जॉन एम्ब्रोस फ्लेमिंग (John Ambrose Fleming) ने किया। इसमें केवल दो ही इलेक्ट्रोड फिलामेण्ट (तन्तु) और प्लेट होते हैं, जिससे इसे दो इलेक्ट्रोड वाला वाल्व यानी डायोड वाल्व कहते हैं। इसमें काँच का एक वाल्व होता है, जिसमें पूर्ण निर्वात् उत्पन्न करके एक तन्तु तथा प्लेट इस तरह लगाए जाते हैं कि वे एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते। तन्तु तथा प्लेट का संबंध डायोड वाल्व के आधार पर लगे पिनों से होता है। इस वाल्व का तन्तु धातु का बना एक तार होता है, जिसे गर्म करने पर इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होते हैं। तन्तु को कैथोड भी कहते हैं। डायोड वाल्व का प्लेट निकिल धातु से बने बेलन के रूप में होती है तथा कैथोड को ढंके रहती है। इसे धन-विभव देकर कैथोड से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनों को आकर्षित किया जाता है, अतः इसे एनोड भी कहते हैं।

जब कैथोड को गरम किया जाता है, तो उससे इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होते हैं और ये इलेक्ट्रॉन कैथोड के चारों ओर जमा हो जाते हैं, जिसे अन्तराकाशी आवेश (space charge) कहते हैं। जब प्लेट को धन विभव दिया जाता है, तो इलेक्ट्रॉन प्लेट की ओर आकर्षित होते हैं, जिससे प्लेट और तन्तु का परिपथ पूरा हो जाता है और धारा प्लेट से तन्तु की ओर बहने लगती है। इसे प्लेट धारा कहते हैं।

डायोड वाल्व का उपयोग दिष्टकारी (Rectifier) के रूप में किया जाता है। अर्थात् इसके द्वारा प्रत्यावर्ती धारा (a.c) को दिष्ट धारा (d.c) में बदल जाता है।

ट्रायोड वाल्व (Triode Valve): सन् 1907 ई० में अमेरिका के वैज्ञानिक डा० ली डी फोरेस्ट (Dr. Lee De Forest) ने ट्रायोड वाल्व का निर्माण किया था। उन्होंने डायोड वाल्व के तन्तु एवं प्लेट के बीच एक तीसरा तत्व ग्रिड (Grid) लगाया, इस प्रकार इस वाल्व में तीन इलेक्ट्रोड (प्लेट, तन्तु एवं ग्रिड) होते हैं और इसीलिए इसे ट्रायोड वाल्व कहते हैं। ट्रायोड वाल्व को हम प्रवर्धक (Amplifier), दोलित्र (Oscillator), प्रेषी (Transmitter) एवं संसूचक (Detector) की तरह प्रयोग करते हैं।

अर्द्धचालक (semiconductor): ऐसे पदार्थ जिनमें इलेक्ट्रॉनिक संरचना इस प्रकार की होती है कि कहीं इलेक्ट्रॉन मुक्त हो जाता है और कहीं रिक्त/कोटर (Hole) बन जाता है, अर्द्धचालक कहलाते हैं। इनकी विद्युत् चालकता सामान्य ताप पर चालक (Conductors) व विद्युतरोधी (Insulators) पदार्थों की चालकताओं के मध्य होती है। जर्मेनियम और सिलिकन ऐसे मुख्य पदार्थ हैं। इनका उपयोग इलेक्ट्रॉनिक्स व ट्रांजिस्टर उपकरणों में होता है।

वैसे अर्द्धचालकों जिसमें मुक्त इलेक्ट्रॉन तथा कोटर ऊष्मीय प्रभाव द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं, उन्हें अंतः अर्द्धचालक (Intrinsic semiconductor) कहा जाता है। अर्द्धचालकों में अपद्रव्य मिलाने से प्राप्त ठोस को बाह्य अर्द्धचालक (Extrinsic Semiconductor) कहते हैं। अपद्रव्य के रूप में आर्सेनिक अथवा एल्युमीनियम मिलाते हैं, जिससे अर्द्धचालक की चालकता काफी बढ़ जाती है। बाह्य अर्द्धचालक दो प्रकार के होते हैं-

(i) n-प्रकार के अर्द्धचालक (n-Туре Semiconductor): ऐसे वही अर्द्धचालक जिनमें विद्युत् का प्रवाह मुक्त इलेक्ट्रॉनों की संख्या बढ़ जाने के कारण होता है, n-प्रकार के अर्द्धचालक कहलाते हैं। जब शुद्ध अर्द्धचालक में पंचसंयोजी अपद्रव्य (जैसे-आर्सेनिक) मिला दिया जाता है, तो इस प्रकार के अर्द्धचालक प्राप्त होते हैं।

(ii) p-प्रकार के अर्द्धचालक (p-Type semiconductor): जिन अर्द्धचालकों में विद्युत् का प्रवाह कोटरों (Hole) की गति के कारण होता हैं, उन्हें p-प्रकार के अर्द्धचालक कहते हैं। शुद्ध अर्द्धचालक (जर्मेनियम) में त्रिसंयोजी अपद्रव्य (जैसे-एल्युमीनियम) मिलाने से ऐसे अर्द्धचालक प्राप्त होते हैं।

नोट: (i) पंचसंयोजी अपद्रव्य को परमाणु दाता (Donor) एवं त्रिसंयोजी अपद्रव्य को परमाणु ग्राही (Acceptor) कहा जाता है। अपद्रव्य मिलाए जाने की प्रक्रिया डोपिंग (Doping) कहलाती है।

(ii) ताप बढ़ाने पर अर्द्धचालक की चालकता बढ़ती है, परन्तु चालक की चालकता घटती है।

अतिचालकता (Superconductivity): इसकी खोज सन् 1911 ई० में नीदरलैंड की भौतिकशास्त्री केमरलिंघ ओन्स (Kamerlingh Onnes) ने की थी। अत्यन्त निम्न ताप पर कुछ पदार्थों का विद्युत् प्रतिरोध शून्य हो। जाता है, इन्हें ही अतिचालक (super conductor) कहते हैं और इस गुण को अतिचालकता कहते हैं। अतिचालक न केवल धारा का सबसे अच्छा बहाव का माध्यम है, बल्कि यह एक पूर्ण चुम्बकीय कवच भी है। अर्थात् एक अतिचालक पूर्णतः प्रति चुम्बकीय होता है, जिसे कोई भी चुम्बकीय रेखा भेद नहीं सकती है। अनुसंधान के दौरान यह भी देखा गया कि कुछ धातुएँ काफी ऊँचे तापक्रम पर अतिचालक हो जाती है। उदाहरण के लिए नियोबिस्टन 180 K ताप पर अतिचालकता प्राप्त कर लेती है। कुछ अतिचालक मृत्तिकाय (ceramics), थैलियम (TI), बेरियम और कॉपर ऑक्साइड से युक्त होती हैं, जिनमें 120 K ताप पर अतिचालकता आ जाती है। कोई पदार्थ जिस ताप पर अतिचालक बनता है, उसे उसका क्रांतिक ताप कहते हैं। वर्तमान में आधुनिक अनुसंधानों से अतिचालक के लिए क्रांतिक ताप को लगभग 240 K तक पहुँचा दिया गया है। अतिचालकता के महत्त्व को देखते हुए भारत सरकार ने फरवरी 1991 ई० में राष्ट्रीय अतिचालकता विज्ञान तकनीकी बोर्ड की स्थापना की, जो अतिचालकता से संबंधित खोज-कार्य का प्रबन्धन करती है।

सन्धि डायोड (Junction Diode): जब p-प्रकार के अर्द्धचालक को किसी विशेष विधि द्वारा n-प्रकार के चालक से जोड़ दिया जाता है, तो यह निकाय संधि डायोड कहलाता है।

ट्रांजिस्टर (Transister): n-p-n 3roat p-n-p अर्द्धचालकों के श्रेणीक्रम संधि से अर्द्ध-चालकों की दूसरी युक्ति प्राप्त होती है, जिसमें ऊष्मायनिक ट्रायोड के गुण होते हैं। यह युक्ति ट्रांजिस्टर कहलाती है। जब एक n-टाइप अर्द्धचालक की पतली परत को दो p-टाइप अर्द्धचालकों के मध्य दबा कर रखा जाता है, तो इससे p-n-p प्रकार का ट्रांजिस्टर बन जाता है। जिसमें प्रथम p टाइप क्रिस्टल को उत्सर्जक (Emitter), दूसरे n-टाइप क्रिस्टल को आधार (Base) तथा तीसरे p-टाइप क्रिस्टल को संग्राहक (Collector) कहते हैं। इस प्रकार ट्रांजिस्टर में धारा का प्रवाह कोटर (Hole) के द्वारा होता है। इसी प्रकार n-p-n ट्रांजिस्टर बनाया जाता है। इसमें से प्रथम क्रिस्टल (n-टाइप) को उत्सर्जक (Emitter), द्धितीय क्रिस्टल (p-टाइप) को आधार (Base) और तृतीय क्रिस्टल (n-टाइप) को संग्राहक (Collector) कहते हैं। ट्रांजिस्टर का उपयोग प्रवर्द्धक (Amplifier), दोलित्र (oscillator) माडुलक (Modulator) आदि के रूप में होता है। ऊष्मायनिक ट्रायोड की तुलना में इसका आकार काफी छोटा होता है और इनके परिचालन के किसी ऊष्मा की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिए ट्रांजिस्टर युक्त उपकरण छोटे, हल्के और परिचालन में मितव्ययी होते हैंI

नोट: ट्रांजिस्टर का आविष्कार अमेरिका के वैज्ञानिक जॉन बरडीन, विलियम शाकले एवं वाल्टर बर्टन ने 1948 ई० में किया था।

कुछ आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक युक्तियाँ (Some Modern Electronic Devices)

  1. टेलीविजन (Television): टेलीविजन का अर्थ है-दूर की वस्तुओं को देखना। इसकी सहायता से किन्हीं चित्रों, विभिन्न दृश्यों, चलती-फिरती वस्तुओं आदि को विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के रूप में दूरस्थ स्थानों तक भेजा जाता है। इसका आविष्कार 1923 ई० में जॉन एल० बेयर्ड (John L. Baird) ने किया। टेलीविजन द्वारा ध्वनि तथा दृश्य दोनों को एक साथ रेडियो तरंगों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान को संप्रेषित किया जाता है। टेलीविजन के दो भाग होते हैं-

(i) आइकनोस्कोप (Iconoscope): यह चित्र द्वारा प्रकीर्णित (scatered) प्रकाश तरंगों को विद्युत् तरंगों में परिवर्तित करता है, जिन्हें प्रवर्धित व मॉडुलित (amplified and modulated) करके दूरस्थ स्थानों को प्रेषित कर दिया जाता है। (ii) काइनोस्कोप (Kineoscope): यह एक प्रकार का कैथोड किरण ऑसिलीग्राफ (CRO) है। इसकी कैथोड किरण गति को आइकोनोस्कोप से आने वाली विद्युत् तरंगों से तुल्यकालित कर पर्दे पर चित्र व दृश्य के अनुसार प्रतिदीप्ति उत्पन्न करती है। दृष्टि निर्बंध (Persistence of vision) के कारण एक सतत् चित्र पर्दे पर दिखाई पड़ता है।

  1. राडार (Radar): रेडियो संसूचन एवं सर्वेक्षण (Radio Detection and Ranging) को संक्षिप्त रूप में राडार कहते हैं। इसके द्वारा रेडियो तरंगों की सहायता से आकाशगामी वायुयान की स्थिति व दूरी का पता लगाया जाता है। राडार से प्रेषित एवं वायुयान से परावर्तित तरंगों के मध्य समयान्तर ज्ञात करके वायुयान की दूरी ज्ञात की जा सकती है। राडार का उपयोग वायुयानों के संसूचन, निर्देशन एवं संरक्षण में, बादलों की स्थिति व दूरी ज्ञात करने में, धातु व तेल भंडारों का पता लगाने में एवं वायुमडंल की उच्चतम परत, आयनमंडल की ऊँचाई आदि ज्ञात करने में किया जाता है। राडार के आविष्कार का श्रेय राबर्ट वाट्सन को है जबकि राडार का प्रथम आदिप्ररूप (Prototype) बनाने का श्रेय दो अमेरिकी वैज्ञानिकों टेलर और यंग को जाता है।
  2. लेसर (Laser): लाइट ऐम्प्लिफिकेशन बाई स्टीमुलेटेड एमिशन ऑफ रेडिएशन (Light Amplification by Stimulated Emission of Radiation) का संक्षिप्त रूप ही लेसर (Laser) कहलाता है, जिसका अर्थ है विकिरण के प्रेरित उत्सर्जन से प्रकाश परिवर्धन अर्थात् प्रकाश तरंगों पर आधारित लेसर एक ऐसी युक्ति है, जिसमें विकिरण के प्रेरित उत्सर्जन द्वारा एकवर्णी प्रकाश (monochromatic) प्राप्त किया जाता है। (LASER is a process by which we get a light beam which is coherent highly monochromatic and almost perfectly parallel)

लेसर तरंगों की आवृति समान होती है तथा इसके विभिन्न तरंगों की कला (phase) भी स्थिर होती है। इसके मूलभूत सिद्धान्त की चर्चा सर्वप्रथम सन् 1917 ई० में आइंस्टीन द्वारा की गई थी, परन्तु वास्तव में लेसर की खोज सन् 1960 ई० में अमेरिका की हेजेज अनुसंधान प्रयोगशाला में थियोडोर एच. मेमैन (Theodore H. Maiman) द्वारा की गई। मूल रूप में लेसर में माणिक्य क्रिस्टल (Ruby crystal) का उपयोग होता था, लेकिन वर्तमान समय में विभिन्न प्रकार के लेसर विभिन्न प्रकार के धात्विक पदार्थों से निर्मित होने लगे हैं।

लेसर के गुण (Porperties of Laser): लेसर तरंगे एकवर्णी (monochromatic) होती हैं, यानी विभिन्न तरंगों की आवृत्ति समान होती है। लेसर विकिरण को बहुत सूक्ष्म क्षेत्रों में फोकस किया जा सकता है। लेसर विकिरण की प्रति इकाई क्षेत्रफल तीव्रता बहुत अधिक होती है। लेसर का फोकस जब उच्च होता है, तब लेसर की तीव्रता अपेक्षाकृत अधिक होती है। लेसर का प्रकाश उच्च निर्देशात्मक होता है और यह बहुत अधिक दूरी तक बिना अपसृत हुए संचरित हो सकता है। लेसर द्वारा छोटे प्रकाश स्पंदों का निर्माण करते हैं तथा इन स्पंदों की चौड़ाई को प्रारूप अवरोधन से कम किया जा सकता है। लेसर के द्वारा फेम्टी सेकण्ड (10-15 से०) के स्तर तक कार्य किया जाता है, जबकि उच्च स्तर के कम्प्यूटरों की कार्य प्रणाली नैनो सेकण्ड तक ही सीमित है।

लेसर किरणों के उपयोग

(1) सूचना तकनीक में: लेसर का उपयोग सी० डी० (Compact Disc), डी० वी० डी० (Digital Versatile Disc) एवं सी० डी० रोम्स एकक डिस्कों पर ऑकड़ों के संग्रहण या भंडारण में किया जाता है। लेसर का उपयोग स्कैनर उपकरण में भी किया जाता है। प्रकाश तंतु और अर्द्धचालक लेसर के सहसंयोजन से ऑप्टिकल सूचना प्रसंस्करण का उपयोग फिगंर प्रिंट पहचान, उपग्रहों तथा उच्च उड़ान भरते एयरक्राफ्टों से खींची गई तस्वीरों के प्रसंस्करण आदि के क्षेत्र में किया जाता है। (2) दूरी एवं समय मापने में: लेसर के सहयोग से लम्बाई तथा समय के मात्रकों का अत्यन्त शुद्ध एवं स्थायी मान का निर्धारण किया जा सकता है। इसके द्वारा बहुत लम्बी दूरियों के साथ साथ अत्यन्त छोटी दूरियों यथा अंतरापरमाण्विक दूरियों का शुद्ध निर्धारण भी किया जा सकता है। इस प्रकार लेसर की सहायता से परमाणुओं की आन्तरिक संरचनाओं का अध्ययन विश्वसनीय ढंग से किया जा सकता है।

(3) त्रिविमीय चित्र खींचने में: लेसर प्रकाश के उपयोग से एक विशेष प्रकार के त्रिविमीय चित्र खींचे जा सकते हैं, जिससे होलोग्राफी (Holography) तकनीक संभव हो सकी है। वर्ष 1962 में वाई० एन० डेनीसुक (Y.N. Denisyuk) ने होलोग्राफी का प्रथम उपयोग किया।

(4) उड़ान पथ के निर्धारण में: हवाई यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए वायुयान के उड़ान पथ का शुद्धतम निर्धारण लेसर के प्रयोग से किया जाता है। अंतरिक्ष में रॉकेट तथा उपग्रह के मार्गदर्शन के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है।

(5) औद्योगिक क्षेत्र में: औद्योगिक क्षेत्र में लेसर का उपयोग मुख्य रूप से सर्वेक्षण, डेटा, नेटवर्क उपलब्ध कराने, पदार्थों का प्रसंस्करण, गैर-विनाशकारी परीक्षण आदि में किया जाता है। अत्यंत कठोर वस्तुओं को काटने, कपड़ा काटने, पुल, भवन, सुरंग, पाइप, खनन आदि के सर्वेक्षण एवं निर्माण कार्यों, बिना किसी हानि के वेल्डिंग करने, हीरे को तराशने, रत्न प्रसंस्करण, सिरेमिक, प्लास्टिक कार्ड बोर्ड इत्यादि से संबंधित उद्योगों में लेसर का उपयोग सफलतापूर्वक किया जा रहा है।

(6) प्रतिरक्षा क्षेत्र में: लेसर का प्रयोग प्रक्षेपास्त्रों तथा सामान्य अस्त्रों में लक्ष्य की दूरी का शुद्धतम अनुमान लगाने तथा उनको निर्देशित करने के लिए किया जाता है। स्टार वार्स प्रोग्राम के अन्तर्गत लेसर की विध्वंसक क्षमता का प्रयोग प्रक्षेपास्त्रों को आकाश में ही नष्ट करने में किया जाना है।

(7) रसायन विज्ञान में: लेसर का उपयोग उपचार-उपकरण तथा रासायनिक अभिक्रियाओं में अभिप्रेरण या उत्प्रेरण के माध्यम के रूप में किया जाता है ।

(8) स्वास्थ्य एवं चिकित्सा क्षेत्र में: आधुनिक युग में भयावह बीमारियों के निदान में लेसर ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेसर के उपयोग से कैंसर के उपचार, हृदय की धमनियों में रक्त के जमने से उत्पन्न अवरोधों को दूर करने, नेत्रों के विभिन्न प्रकार के ऑपरेशनों आदि में किया जाता है। नेत्र चिकित्सा के अंतर्गत एक्साइमर लैसिक लेसर जैसी आधुनिक तकनीक द्वारा स्थायी रूप से चश्मे से छुटकारा दिलाया जा रहा है। आर्गन अथवा क्रिप्टॉन आयन लेसर का उपयोग रेटिना उपचार सहित ऑखों के अन्य रोगों के इलाज में किया जा रहा है। नेत्र में लेंस के आकार को ठीक करने के लिए लेसर रेडियल केरेटोटोमी तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। आप्टिक फाइबर इंडोस्कोप में लेसर के उपयोग से रोगी के शरीर को खोले बिना ही रक्त स्रावित अल्सर जैसी बीमारियों का पूर्ण सफल इलाज संभव हुआ है। लेसर द्वारा पित्ताशय (gall blader) तथा गुर्दा (kidney) की पथरी का उपचार पूर्ण कारगर ढंग से किया जा रहा है। लेसर का प्रयोग हृदय के बाइपास सर्जरी में भी किया जाता है।

भारत में लेसर प्रौद्योगिकी: भारत में लेसर प्रौद्योगिकी के उपयोग की शुरूआत सन् 1960 ई० के दशक में हुई। भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र द्वारा सन् 1964 ई० में गैलियम-आर्सेनिक अर्द्धचालक लेसर का निर्माण किया गया। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) द्वारा टैंक तथा तोप गनों के लिए लेसर रेंजर्स फाइंडर्स, लेसर मैटेरियल, अर्द्धचालक लेसर, लेसर उत्पादन क्रिस्टल आदि का विकास किया गया है।

  1. मेसर (Masers): मेसर Microwave Amplification by Stimulated Emission of Radiotion का संक्षिप्त रूप हैं, जिसका हिन्दी रूपान्तरण है- विकिरण के उद्दीपित उत्सर्जन द्वारा माइक्रो तरंगों का प्रवर्धन। मेसर के आविष्कार का श्रेय तीन अमेरिकी वैज्ञानिकों गोरडन, गीगर एवं टाउन्स को जाता है (1955 ई.)। मेसर भी उसी सिद्धान्त पर कार्य करता है जिस आधार पर लेसर कार्य करता है। लेसर में प्रकाश किरणे उत्पन्न होती हैं जबकि मेसर में सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न होती हैं।

मेसर तरंगों का उपयोग राडार में करके कृत्रिम उपग्रहों आदि का ठीक-ठीक पता लगाया जाता है तथा कई ग्रहों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त की जाती है। मेसर तरंगों का उपयोग समुद्र के अन्दर सन्देश भेजने में भी किया जाता है। लेसर की तरह मेसर तरंगों के द्वारा कई रोगों का इलाज किया जाता है।

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