संविधान की संकल्पना Concept of Constitution

संविधान की संकल्पना पर विचार करने से पूर्व इस तथ्य पर विचार करना एवं उसे समझना अधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है कि संविधान आखिरकार है क्या और किसी भी देश के लिए इसका क्या महत्व है? तो इसके प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि संविधान किसी भी देश की सर्वोच्च मौलिक विधि होती है। संविधान एक पुस्तक मात्र न हो कर नीति नियमों, कानूनों शक्तियां एवं उत्तरदायित्वों का एकमात्र स्रोत होता है, जो कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका के मध्य शक्तियों एवं अधिकारों का स्पष्ट विभाजन करता है ताकि उनमें किसी भी प्रकार का टकराव उत्पन्न नहो। वस्तुतः राजनीतिक शब्दावली के अनुसार, संविधान किसी राजनीतिक व्यवस्था के उस आधारभूत ढांचे का निर्धारण करता है, जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य के लिए अस्श्यक कार्यपालिका एवं न्यायपालिका जैसे महत्वपूर्ण अंगों की स्थापना करता है तथा उनकी शक्तियों एवं उत्तरदायित्वों की व्याख्या एवं उनका सीमांकन भी करता है। साथ उनके पारस्परिक एवं जन-साधारण के साथ सम्बन्धों का विनियमन भी करता है। अधिक सरल शब्दों में यदि कहा जाए तो संविधान उन समस्त अधिकारों एवं शक्तियों का एक ऐसा समुच्य है जो कि एक ओर जहां किसी भी राज्य में पाए जाने वाले जन संगठनों के मध्य संबंधों का विनियमन करता है वहीँ दूसरी ओर जन-संगठनों एवं प्रत्येक नागरिक के मध्य भी सम्बन्ध विनियमित करता है। विश्व के अधिकांश देशों का संविधान लिखित है, जो कि सम्बन्धों, शक्तियों एवं उत्तरदायित्वों का स्पष्ट रूप से विभाजन करता है किंतु ब्रिटेन एवं इजरायल के संविधान इसका अपवाद हैं। इन देशों के संविधान का अधिकांश हिस्सा अलिखित है और परम्पराओं, रीति-रिवाजों आदि से स्वयंमेव विकसित हुआ है। लिखित संविधान हेतु अन्य स्रोतों से भी जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है।

किसी भी दस्तावेज में शब्दों की व्याख्यायित करने की आवश्यकता पड़ती है अतः संविधान में उल्लिखित प्रावधानों को भी समय-समय पर संशोधित करने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार न्यायपालिका द्वारा समय-समय पर प्रेषित न्यायिक निर्णय रीति-रिवाज, रूढ़ियाँ, अभिसमय तथा अधिकार-पत्र भी मार्ग-दर्शन एवं विनियमन का कार्य करते हैं अतः इन्हें भी देश के संविधान का एक अंग माना जा सकता है।

संविधानों को विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे – संघीय (आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका) अथवा एकात्मक (फ्रांस एवं ग्रेट ब्रिटेन); शक्तियों का स्पष्ट विभाजन (जैसे-संयुक्त राज्य अमेरिका में) या शक्तियों के मिश्रण वाला (जैसे-ग्रेट ब्रिटेन का संविधान) अथवा न्यायिक पुनरीक्षण की प्रमुखता वाला संविधान (जैसे-संघीय गणतंत्र जर्मनी) या संवैधानिक कानूनों के विशेष प्रावधानों वाला संविधान (स्विट्जरलैण्ड)।

देश में संवैधानिक नियंत्रण स्थापित करने के विभिन्न तरीके हो सकते हैं, कि इसका सर्वाधिक प्रचलित तरीका लिखित संविधान के माध्यम से एक ऐसे संवैधानिक न्यायालय अथवा परिषद की स्थापना है, जो कि सभी विद्यमान राजनीतिक संस्थाओं द्वारा संवैधानिक मान्यताओं की स्वीकृति को सुनश्चित करे।

भारत में संवैधानिक विकास

भारत के नये गणराज्य के संविधान का शुभारंभ 26 जनवरी, 1950 की हुआ और भारत अपने लंबे इतिहास में प्रथम बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पुएन संसदीय लोकतंत्र बना। लोकतंत्र एवं प्रतिनिधि संस्थाएं भारत के लिए पूर्णतया नयी नहीं हैं। कुछ प्रतिनिधि निकाय तथा लोकतंत्रात्मक स्वशासी संस्थाएं वैदिक काल में भी विद्यमान थीं। ऋग्वेद में सभा तथा समिति नामक दो संस्थाओं का उल्लेख है। उल्लेखनीय है कि ऋग्वैदिक काल में आयों का प्रशासन तंत्र कबीले के प्रधान के हाथों चलता था, क्योंकि वही युद्ध का सफल नेतृत्व करता था। वह राजा कहलाता था। प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक काल में राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था। फिर भी प्रधान या राजा के हाथ में असीमित अधिकार नहीं रहते थे, क्योंकि उसे कबायली संगठनों से परामर्श लेना पड़ता था। कबीले की आम सभा को समिति कहते थे और सभा अपेक्षतया छोटा और चयनित वरिष्ठ लोगों का निकाय था, जो मोटे तौर पर आधुनिक विधानमंडलों में उच्च सदन के समान था। वहीं से आधुनिक संसद की शुरूआत मानी जा सकती है। आधुनिक अर्थों में,संसदीय शासन प्रणाली एवं विधायी संस्थाओं का उद्भव एवं विकास लगभग दो शताब्दियों तक ब्रिटेन के साथ भारत के संबंधों से जुड़ा हुआ है। परंतु यह man लेना गलत होगा की बिलकुल ब्रिटेन जैसी संस्थाएं किसी समय भारत में प्रतिस्थापित हो गई थीं। जिस रूप में भारत की संसद और संसदीय संस्थाओं को आज हम जानते हैं उनका विकास भारत में ही हुआ। इनका विकास विदेशी शासन से मुक्ति के लिए और स्वतंत्र लोकतंत्रात्मक संस्थाओं की स्थापना के लिए किए गए अनेक संघर्षों और ब्रिटिश शासकों द्वारा रुक-रुक कर, धीरे-धीरे और छोटे-छोटे टुकड़ों में दिए गए संवैधानिक सुधारों के द्वारा हुआ।

1778 का रेग्युलेटिंग एक्ट


ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों में व्याप्त अनुशासनहीनता तथा स्वार्थपरक प्रवृत्ति के कारण कम्पनी को हुई क्षति पर रिपोर्ट देने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड नॉर्थ द्वारा 1772 में गठित गुप्त समिति के प्रतिवेदन पर 1778 में ब्रिटिश संसद द्वारा रेग्युलेटिंग एक्ट पारित किया गया, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान किये गये थे-

  1. कपनी के डायरेक्टरों की कहा गया कि वे अब राजस्व से संबंधित सभी मामलों तथा दीवानी एवं सैन्य प्रशासन के संबंध में किये गये सभी प्रकार के कार्यों से सरकार को अवगत करायेंगे।
  2. अब 500 पौंड के अंशधारियों के स्थान पर 1000 पौंड के अंशधारियों को संचालन चुनने का अधिकार दिया गया।
  3. संचालन मंडल का कार्यकाल चार वर्ष कर दिया गया। प्रति वर्ष उनमें से एक-चौथाई नये सदस्यों के निर्वाचन की पद्धति अपनायी गयी।
  4. इस अधिनियम द्वारा बंगाल में 1774 में एक उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) की स्थापना की गयी। इस न्यायालय को प्राथमिक तथा अपील के अधिकार की अनुमति थी। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे। सर एलिजा इम्पे को सुप्रीम कोर्ट का प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। न्यायालय को यह भी अधिकार था कि वह कपनी तथा सम्राट की सेवा में लगे व्यक्तियों के विरुद्ध मामले, कार्यवाही अथवा शिकायत की सुनवायी कर सकता था।
  5. बंगाल में एक प्रशासक मंडल गठित किया गया, जिसमें गवर्नर-जनरल तथा चार पार्षद नियुक्त किये गये। ये पार्षद, नागरिक तथा सैन्य प्रशासन से सम्बद्ध थे। इस मंडल में निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाते थे। इस अधिनियम द्वारा प्रशासक मंडल में वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर-जनरल के रूप में तथा क्लैवरिंग, मॉनसन, बरवैल एवं फिलिप फ्रांसिस को पार्षदों के रूप में नियुक्त किया गया। इन सभी का कार्यकाल पांच वर्ष था तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही इन्हें हटाया जा सकता था।
  6. कानून बनाने का अधिकार गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद को दे दिया गया किंतु इन कानूनों को लागू करने से पूर्व भारत के सचिव से अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था।
  7. बंगाल के गवर्नर को अब समस्त अंग्रेजी क्षेत्रों का गवर्नर कहा गया। सपरिषद गवर्नर-जनरल की बंगाल में फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी के असैनिक तथा सैनिक शासन का अधिकार दिया गया। कुछ विशेष मामलों में उसे बंबई तथा मद्रास की प्रेसीडेंसियों का अधीक्षण भी करना था ।

1781 का संशोधित अधिनियम

सर्वोच्च न्यायालय कंपनी के कर्मचारियों के विरुद्ध उन कार्यों के लिए कार्यवाही नहीं कर सकता, जो उन्होंने एक सरकारी अधिकारी की हैसियत से किये हों।

  1. कंपनी के राजस्व कलेक्टरों एवं कानूनी अधिकारियों को भी सरकारी अधिकारी के रूप में किये गए कार्यों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र से मुक्त कर दिया गया।
  2. गवर्नर-जनरल एवं उसकी परिषद के सदस्यों को भी यह उन्मुक्तता प्रदान की गई।
  3. कानून बनाते तथा उनका क्रियान्वयन करते समय भारतीयों के सामाजिक तथा धार्मिक रीति-रिवाजों का सम्मान किये जाने के निर्देश दिये गये।

1784 ई. का पिट्स इंडिया एक्ट

गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स की साम्राज्यवादी नीतियों को लेकर कंपनी एवं संसद के बीच मतभेद पैदा हो गये थे। इसी कारण 1782 में हाउस ऑफ कॉमंस में हेस्टिंग्स को वापस बुला लेने का प्रस्ताव भी पारित हुआ। परंतु कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने संसद की इच्छा की अवहेलना कर दी। इन स्थितियों से निबटने के लिए कपनी पर नियंत्रण के लिए 1783 ई. में इंग्लैंड के तत्कालीन नॉर्थ फॉक्स मंत्रिमंडल ने फॉक्स इंडिया बिल संसद में पेश किया। हाउस ऑफ कॉमंस में विधेयक पारित हो जाने के बावजूद सम्राट जॉर्ज तृतीय के विरोध के कारण हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया गे और फॉक्स मंत्रिमंडल को त्यागपत्र देना पड़ा। अगली सरकार पिट द यंगर ने बनायी, जिसने 1784 में संसद में फिर से इंडिया बिल पेश किया, पर फॉक्स के विरोध के कारण विधेयक गिर गया। संसद भंग कर नए चुनाव कराए गये, जिसमें पिट भारी बहुमत से विजयी हुआ। उसने कुछ संशोधनों के साथ अपना इंडिया बिल फिर से संसद में रखा, जो पारित हो गया और 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किये गये थे-

  1. 6 कमिश्नरों के एक नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की गयी, जिसे भारत में अंग्रेजी अधिकृत क्षेत्र पर पूरा अधिकार दिया गया। इसे बोर्ड ऑफ कंट्रोल के नाम से जाना जाता था। इसके सदस्यों की नियुक्ति ब्रिटेन के सम्राट द्वारा की जाती थी। इसके 6 सदस्यों में- एक ब्रिटेन का अर्द्धमंत्री, दूसरा विदेश सचिव तथा 4 अन्य सम्राट द्वारा प्रिवी काउंसिल के सदस्यों में से चुने जाते थे।
  2. बंबई तथा मद्रास के गवर्नर पूर्णरूपेण गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिये गये।
  3. भारत में गवर्नर-जनरल के परिषद की सदस्य संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गयी। इन तीन में से एक स्थान मुख्य सेनापति को दे दिया गया।
  4. भारत में कंपनी के अधिकृत प्रदेशों को पहली बार नया नाम ब्रिटिश अधिकृत भारतीय प्रदेश दिया गया।
  5. संचालक मंडल द्वारा तैयार किये जाने वाले पत्र व आज्ञाएं नियंत्रण बोर्ड के सम्मुख रखे जाते थे। संचालन मंडल को भारत से प्राप्त होने वाले पत्रों को भी नियंत्रण बोर्ड के सम्मुख रखना आवश्यक था। नियंत्रण बोर्ड पत्रों में परिवर्तन कर सकता था।
  6. कंपनी के डायरेक्टरों की एक गुप्त सभा बनायी गयी, जो अधिकार सभा या संचालक मंडल के सभी आदेशों को भारत भेजती थी।
  7. मद्रास तथा बंबई के गवर्नरों की सहायता के लिए तीन-तीन सदस्यीय परिषदों का गठन किया गया।
  8. देशी राजाओं से युद्ध तथा संधि से पहले गवर्नर-जनरल को कंपनी के डायरेक्टरों से स्वीकृति लेना अनिवार्य था।
  9. भारत में अंग्रेज अधिकारियों के ऊपर मुकदमा चलाने के लिए इंग्लैण्ड में एक कोर्ट की स्थापना की गयी।

1786 का अधिनियम

इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान थे-

  1. गवर्नर-जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियां भी मिल गयीं।
  2. गवर्नर-जनरल को विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दे दिया गया।

1798 का चार्टर एक्ट

इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान थे-

  1. कपनी के व्यापारिक अधिकारों की अगले 20 वर्षों के लिये और आगे बढ़ा दिया गया।
  2. नियंत्रण अधिकरण के सदस्यों का वेतन भारतीय कोष से दिया जाने लगा।
  3. गवर्नर जनरल एवंगवर्नरों की परिषदों के सदस्यों की योग्यता के लिए एक शर्त बना दी गई कि सदस्य को कम से कम 12 वर्षों तक भारत में रहने का अनुभव हो।
  4. विगत शासकों के व्यक्तिगत नियमों के स्थान पर ब्रिटिश भारत में लिखित विधि-विधानों द्वारा प्रशासन की आधारशिला रखी गयी। नियमों तथा लिखित विधियों की व्याख्या न्यायालय द्वारा की जानी थी।

1813 का चार्टर अधिनियम

कंपनी के एकाधिकार को समाप्त करने, ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में धार्मिक सुविधाओं की मांग, लार्ड वेलेजली की भारत में आक्रामक नीति तथा कंपनी की सोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण 1813 का चार्टर अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान किये गये थे-

  1. कंपनी का भारतीय व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया यद्यपि उसका चीन से व्यापार एवं चाय के व्यापार पर अधिकार बना रहा।
  2. कपनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व से 10.5 प्रतिशत लाभांश दिये जाने की व्यवस्था की गयी।
  3. कंपनी को अगले 20 वर्षों के लिये भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया गया। किंतु स्पष्ट कर दिया गया कि इससे इन प्रदेशों का क्राउन के प्रभुत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
  4. नियंत्रण बोर्ड की शक्तिको परिभाषित किया गया तथा उसका विस्तार भी कर दिया गया।
  5. ईसाई धर्मप्रचारकों को आज्ञा प्राप्त करके भारत में धर्म-प्रचार के लिये आने की सुविधा प्राप्त हो गयी।

ब्रिटिश व्यापारियों तथा इंजीनियरों की भारत आने तथा यहां बसने की अनुमति प्रदान कर दी गयी लेकिन इसके लिए उन्हें संचालन मंडल या नियंत्रण बोर्ड से लाइसेंस लेना आवश्यक था।

1883 का चार्टर अधिनियम

इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान थे-

  1. चाय का व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार करने संबंधी कपनी के अधिकार को समाप्त कर दिया गया।
  2. अंग्रेजों को बिना अनुमति-पत्र के ही भारत आने तथा रहने की आज्ञा दे दी गयी। वे भारत में भूमि भी खरीद सकते थे।
  3. भारत में सरकार का वित्तीय, विधायी तथा प्रशासनिक रूप से केंद्रीयकरण करने का प्रयास किया गया।
  4. बंगाल के साथ मद्रास, बंबई तथा अन्य अधिकृत प्रदेशों को भी गवर्नर-जनरल के नियंत्रण में रख दिया गया।
  5. बंगाल का गवर्नर-जनरल, भारत का गवर्नर-जनरल हो गया।
  6. सपरिषद गवर्नर-जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने शक्ति समाप्त कर दी गयी।
  7. इस अधिनियम द्वारा स्पष्ट कर दिया गया कि कंपनी के प्रदेशों में रहने वाले किसी भारतीय को केवल धर्म, वंश, रंग या जन्म स्थान इत्यादि के आधार पर कपनी के किसी पद से जिसके वह योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा।
  8. भारत में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया तथा गवर्नर-जनरल को निर्देश दिया कि वह भारत से दास प्रथा को समाप्त करने के लिये आवश्यक कदम उठाये (1843 में दासप्रथा उन्मूलन किया गया)।

1853 का चार्टर अधिनियम

इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान थे-

  1. कार्यकारिणी परिषद के कानून सदस्य को परिषद का पूर्ण सदस्य बना दिया गया।
  2. निदेशक मण्डल में सदस्यों की संख्या 24 से कम कर 18 कर दी गयी तथा इनमें से 6 सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार ब्रिटिश राजा को प्रदान किया गया। निदेशक मण्डल के सदस्यों के लिए योग्यता विहित की गयी।
  3. बंगाल के लिये पृथक लेफ्टिनेंट-गवर्नर की नियुक्ति की गयी।
  4. कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गयी।
  5. कंपनी को भारतीय प्रदेशों को जब तक संसद चाहे तब तक के लिए अपने अधीन रखने की अनुमति दे दी गयी।
  6. गवर्नर जनरल को अपनी परिषद के उपाध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार प्रदान किया गया ।

1858 का भारत शासन अधिनियम

1784 के पिट्स इंडिया एक्ट  से नियंत्रण-मण्डल की स्थापना द्वारा क्रमिक कम्पनी पर नियंत्रण की जो प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी, वह 1853 में पूरी हो गई। 1853 के चार्टर में कम्पनी को शासन के लिए चूंकि किसी निश्चित अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं किया गया था, इसलिए किसी भी समय सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश क्राउन को ही जाने की सम्भावना बनती थी। 1857 की क्रांति ने शासनकी असंतोषजनक नीतियां उजागर कर दी थी, जिससे संसद को कम्पनी को पदच्युत करने का बहाना मिल गया। इस अधिनियम द्वारा-

  1. भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया।
  2. अब भारत का शासन, ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत राज्य सचिव को चलाना था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद का गठन किया गया। अब भारत के शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गयी।
  3. भारत परिषद के 15 सदस्यों में से 7 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार सम्राट तथा शेष सदस्यों के चयन का अधिकार कपनी के डायरेक्टरों को दे दिया गया।
  4. अखिल भारतीय सेवाओं तथा अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध मसलों पर भारत सचिव, भारत परिषद की राय मानने की बाध्य था।
  5. भारत के गवर्नर-जनरल को भारत सचिवकी आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य कर दिया गया।
  6. अब गवर्नर-जनरल भारत में क्राउन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने लगा तथा उसे वायसराय की उपाधि दी गयी।
  7. संरक्षण-ताज, सपरिषद राज्य सचिव तथा भारतीय अधिकारियों में बंट गया।
  8. अनुबद्ध सिविल सेवा में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगीं।
  9. भारत राज्य सचिव एक निगम निकाय घोषित किया गया, जिस पर इंग्लैंड एवं भारत में दावा किया जा सकता था अथवा जो दावा दायर कर सकता था।

भारतीय परिषद अधिनियम, 1861

इस अधिनियम में यह उपबंध किया गया कि गवर्नर-जनरल की कार्यकारी परिषद, जो अभी तक अनन्य रूप से सरकारी अधिकारियों का एक समूह थी, उस समय जब परिषद् विधान परिषद के रूप में विधायी कार्य करेगी, इसमें कुछ गैर-सरकारी सदस्य भी सम्मिलित किए जाएंगे। किंतुयहपरिषद किसी लोक-प्रतिनिधि संस्था से किसी भी रूप में समान न थी। इसमें सदस्य मनोनीत किए जाते थे, जिनका कार्य गवर्नर-जनरल द्वारा उनके समक्ष रखे गए प्रस्तावों पर केवल विचार-विमर्श करने तक सीमित था। साथ ही ये किसी भी रीति से प्रशासनिक कार्यों की आलोचना का अधिकार नहीं रखते थे।

भारतीय परिषद अधिनियम 1892

इस अधिनियम के निम्नलिखित प्रावधान थे-

  1. भारत सरकार की विधि निर्मात्री संस्था में अतिरिक्त सदस्य 10 से 16 तक। कम-से-कम 40 प्रतिशत सदस्यों का गैर-सरकारी होना जरूरी।
  2. बम्बई, मद्रास, बंगाल की परिषदों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 8 से लेकर 20 तक। उत्तरी-पश्चिमी प्रांत में 15 सदस्य।
  3. गैर-सरकारी सदस्यों को नियुक्त करने के लिए विशुद्ध नामांकन के स्थान पर सिफारिश के आधार पर नामांकन की पद्धति लागू।
  4. विधि निर्मात्री संस्थाओं को प्रश्न पूछने तथा बजट पर बहस करने का अधिकार सीमित रूप में प्राप्त।

समीक्षा: इस अधिनियम में बहुत-सी त्रुटियां थीं, जिनके कारण भारतीय राष्ट्रवादी इससे असंतुष्ट रहे व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक्ट की बार-बार आलोचना की। यह माना गया कि स्थानीय निकायों को चुनाव मण्डल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है। विधानमण्डलों की शक्तियां भी बहुत ही सीमित थीं। सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। किसी प्रश्न का उत्तर देने से इनकार किया जा सकता था। कुछ वर्गों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला था तथा कुछ को अत्यधिक। बम्बई में दो स्थान यूरोपीय व्यापारियों को दिए गए, भारतीय व्यापारियों को एक भी नहीं। दो स्थान सिंध को दे दिए गए, पूना और सतारा की एक भी नहीं।

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 (मॉरले-मिंटो सुधार)

भारत क तत्कालीन सचिव लार्ड मारले और वाइसराय लार्ड मिंटो के नाम पर प्रतिनिधिक और लोकप्रियता के क्षेत्र में किए गए सुधारों का समावेश 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम में किया गया।

इन सुधारों को प्रस्तुत करने के पीछे दो घटनायें मुख्य थी। अक्टूबर 1906 में आगा खां के नेतृत्व में एक मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल वायसराय लार्ड मिंटो से मिला और मांग की कि मुसलमानों के लिये पृथक् निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की जाये तथा मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये। मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को साम्राज्य के प्रति निष्ठा प्रकट करने की शिक्षा दी।

इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे-

  1. इस अधिनियम के अनुसार, केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गयी। प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत स्थापित किया गया। किंतु गैर-सरकारी सदस्यों में नामांकित एवं बिना चुने सदस्यों की संख्या अधिक थी, जिसके कारण निर्वाचित सदस्यों की तुलना में अभी भी उनकी संख्या अधिक बनी रही।
  2. केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा में 60 सदस्य और 9 पदेन सदस्य होते थे। इन 69 सदस्यों में से 37 सरकारी अधिकारी और 82गैर-सरकारी सदस्यों में से 5 नामांकित एवं 27 चुने हुये सदस्य थे। निर्वाचित 27 सदस्यों में से 6 हिंदू जमींदारों द्वारा, 5 मुसलमानों द्वारा, एक मुस्लिम जमींदारों द्वारा एक बम्बई के चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स, एक बंगाल के चैम्बर ऑफ कामर्स तथा 13 अन्य प्रांतीय विधान परिषदों द्वारा चुने जाते थे।
  3. सभी निर्वाचित सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते थे। स्थानीय निकायों से निर्वाचन परिषद का गठन होता था। ये प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों का निर्वाचन करती थीं। प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्य केंद्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों का निर्वाचन करते थे।
  4. सर्वप्रथम पहली बार पृथक् निर्वाचन व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया। साथ ही मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के मामले में विशेष रियायत दी गयी। उन्हें केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषद में जनसंख्या के अनुपात में अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया।
  5. गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को नियुक्त करने की व्यवस्था की गयी। पहले भारतीय सदस्य के रूप में सत्येंद्र सिन्हा को नियुक्त किया गया।
  6. इस अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के विचार-विमर्श के कृत्यों में भी वृद्धि हुई। इससे उन्हें यह अवसर दिया गया कि वे बजट या लोकहित के किसी विषय पर संकल्प प्रस्तावित करके प्रशासन की नीति पर प्रभाव डाल सकें। कुछ विनिर्दिष्ट विषय इसके बाहर थे, जैसे- सशस्त्र बल, विदेश संबंध और देशी रियासतें।

समीक्षा: इस अधिनियम के अंतर्गत जो चुनाव पद्धति अपनायी गयी, वह इतनी अस्पष्ट थी कि जन-प्रतिनिधित्व प्रणाली एक प्रकार की बहुत-सी छननियों में से छानने की क्रिया बन गयी। कुछ लोग स्थानीय निकायों का चुनाव करते थे, ये सदस्य चुनाव मंडलों का चुनाव करते थे और ये चुनाव मंडल प्रांतीय परिषदों के सदस्यों का चुनाव करते थे। सुधारों को कार्यान्वित करते हुए बहत सी गड़बड़ियाँ उत्पन्न हो गयीं। संसदीय प्रणाली तो दे दी गयी परंतु उत्तरदायित्व नहीं दिया गया, जिससे सरकार की विवेकहीन तथा उत्तरदायी प्रक्रिया की आलोचना की जाने लगी।

1909 के सुधारों से जनता को केवल नाममात्र के सुधार ही प्राप्त हुये, वास्तविक रूप से कुछ नहीं। इससे प्रभाव तो मिला पर शक्ति नहीं।

मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन और भारत शासन अधिनियम, 1919

भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट इ.एस. मोंटेग्यू और गवर्नर-जनरल लार्ड चेम्सफोर्ड को ब्रिटिश भारत में उत्तरदायी सरकार स्थापित करने की 20 अगस्त, 1917 की ब्रिटिश सरकार की घोषणा को कार्यरूप देने का कार्य सौंपा गया। भारत शासन अधिनियम 1919 में इनकी सिफारिशों को एक विधिक रूप प्रदान किया गया। उक्त अधिनियम में निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गई-

प्रांतीय सरकार: द्वैध-शासन प्रणाली का आरंभ:

कार्यपालिका:

  1. वर्ष 1919 के अधिनियम की सबसे मुख्य विशेषता थी- प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिये द्वैध शासन व्यवस्था की शुरुआत। इस प्रणाली के जन्मदाता सर लियोनिल कॉर्टिश थे, इस व्यवस्था को लार्ड मोंटेग्यू तथा चेम्सफोर्ड ने अपना कर प्रांतीय सरकारों में पूर्ण स्थान दिया। इस प्रणाली के आधार पर प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद को दो भागों में विभक्त किया गया। पहले भाग में गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी के सदस्य तथा दूसरे भाग में गवर्नर तथा उसके मंत्रीगण थे।
  2. प्रांतीय विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया-(क) आरक्षित विषय, तथा; (ख) हस्तांतरित विषय। आरक्षित विषयों में सभी मनात्व्पूर्ण विषय, जैसे- कानून एवं व्यवस्था, वित्त, भू राजस्व, सिंचाई खनिज संसाधन, प्रशासन, उद्योग, कृषि तथा आबकारी इत्यादि सम्मिलित थे। आरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी कार्यकारी परिषद के परामर्श से तथा हस्तांतरित विषयों का भारतीय मंत्रियों की परामर्श से करता था।
  3. मंत्री, व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी थे तथा यदि व्यवस्थापिका उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दे, तो उन्हें त्याग-पत्र देना पड़ता था, जबकि गवर्नर की कार्यकारी-परिषद के सदस्य व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे।
  4. प्रांतों में संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर गवर्नर राज्य के प्रशासन एवं हस्तांतरित विषयों का दायित्व अपने ऊपर ले सकता था।
  5. भारत सचिव तथा गवर्नर-जनरल आवश्यकता पड़ने पर आरक्षित विषयों में हस्तक्षेप कर सकते थे, किंतु हस्तांतरित विषयों में उन्हें हस्तक्षेप करने की शक्ति नहीं थी। 

व्यवस्थापिका:

  1. प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं की सदस्य संख्या में बहुत वृद्धि कर दी गयी। इन सदस्यों में 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होते थे।
  2. मताधिकार में वृद्धि कर दी गयी तथा साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति का और ज्यादा विस्तार कर दिया गया।
  3. महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार प्रदान किया गया।
  4. प्रांतीय व्यवस्थापिका सभायें किसी भी प्रस्ताव को प्रस्तुत कर सकती थीं, किंतु उसे पारित होने के लिये गवर्नर की सहमति अनिवार्य थी। गवर्नर को प्रस्तावों को अस्वीकार करने तथा अध्यादेश जारी करने का अधिकार था।
  5. व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्य बजट को अस्वीकार कर सकते था, किन्तुगवर्नर आवश्यक समझे तो सदस्यों की अनुमति के बिना भी उसे पास कर सकता था।
  6. प्रांतीय परिषदों को अब विधान परिषदों की संज्ञा दी गई।

केंद्रीय सरकार: अनुत्तरदायी शासन की व्यवस्था यथावत:

कार्यपालिका:

  1. गवर्नर-जनरल मुख्य कार्यपालिका अधिकारी था।
  2. सभी विषयों को दो भागों में बांटा गया- केंद्रीय एवं प्रांतीय।
  3. गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी के 8 सदस्यों में 3 भारतीय नियुक्त किये गये और उन्हें विधि, शिक्षा, श्रम, स्वास्थ्य तथा उद्योग विभाग सौंप दिए गए।
  4. प्रांतों के आरक्षित विषयों में गवर्नर-जनरल को पूर्ण अधिकार प्राप्त था। (
  5. गवर्नर-जनरल को मांगों पर कटौती का अधिकार था। साथ ही वह केंद्रीय व्यवस्थापिका द्वारा अस्वीकार किये गये प्रस्तावों को पारित कर अध्यादेश जारी कर सकता था।

व्यवस्थापिका:

  1. केंद्रीय व्यवस्थापिका को द्विसदनीय संस्था बना दिया गया- केंद्रीय विधान सभा तथा राज्य परिषद। केंद्रीय विधान सभा निम्न सदन थी तथा राज्य परिषद उच्च सदन।
  2. केंद्रीय विधान सभा की सदस्य संख्या 145 थी जिसमें 104 निर्वाचित तथा 41 मनोनीत किये जाने की व्यवस्था थी। 104 निर्वाचित सदस्यों में से- 52 सामान्य, 80 मुसलमान, 2 सिख तथा 20 विशेष सदस्य थे; जबकि उच्च सदन या राज्य परिषद की सदस्य संख्या 60 थी, जिसमें 26 मनोनीत एवं 34 निर्वाचित थे। 34 निर्वाचित सदस्यों में 20 सामान्य, 10 मुसलमान, 3 यूरोपीय और 1 सिख था।
  3. सदस्य प्रश्न पूछ सकते थे, अनुपूरक मांगें प्रस्तुत कर सकते थे, स्थगन प्रस्ताव ला सकते थे तथा बजट को अस्वीकार कर सकते थे। किंतु अभी भी बजट का 75 प्रतिशत हिस्सा सदस्यों की सहमति के बिना भी पारित किया जा सकता था।
  4. राज्य परिषद का कार्यकाल 5 वर्ष था तथा केवल पुरुष ही इसके सदस्य बन सकते थे, जबकि केंद्रीय विधान सभा का कार्यकाल 3 वर्ष था परंतु गवर्नर-जनरल की इच्छा पर बढ़ाया भी जा सकता था।
  5. कुछ भारतीय सदस्यों की सरकार की स्थायी समितियों, जैसे- वित्त समिति अथवा सार्वजनिक लेखा समिति में नियुक्त किया गया।

साइमन आयोग

भारत में व्याप्त परिस्थितियों की जांच करने और उन पर अपना प्रतिवेदन देने हेतु तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बाल्डविन ने 8 नवम्बर, 1927 को सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय संवैधानिक आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग में एक भी भारतीय को सदस्य नहीं बनाया गया था, जिससे भारतीयों ने स्वयं को काफी अपमानित और आहत महसूस किया और सम्पूर्ण देश ने आयोग का एक स्वर में विरोध किया। इसके विरोध में किए गए प्रदर्शन के दौरान पुलिस द्वारा किए गए लाठी चार्ज के फलस्वरूप लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई।

साइमन आयोग ने 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमें आयोग द्वारा प्रांतों में प्रतिनिधि सरकार की सिफारिश तो की गई थी। लेकिन केंद्र में प्रतिनिधि सरकार की स्थापना को अनिश्चित काल हेतु स्थगित रखा गया था। रिपोर्ट में 1919 के अधिनियम द्वारा लागू द्वैध शासन प्रणाली समाप्त करने की संस्तुति की गई थी।

1935 का भारत सरकार अधिनियम

भारत में सांविधानिक विकास की जो प्रक्रिया 1861 से आरम्भ हुई थी, उसका अंतिम चरण 1985 का भारत सरकार अधिनियम था।

ब्रिटिश संसद ने अगस्त 1935 में भारत सरकार अधिनियम, 1935 पारित किया। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नानुसार थे-

  1. इस अधिनियम के अनुसार, प्रस्तावित संघ में सभी ब्रिटिश सम्मिलित होना अनिवार्य था किंतु देशी रियासतों का सम्मिलित होना वैकल्पिक था। इसके लिये दो शर्तें थीं-
  • रियासत के प्रतिनिधियों में न्यूनतम आधे प्रतिनिधि चुनने वाली रियासतें संघ में सम्मिलित न हों
  • रियासतों की कुल जनसंख्या में से आधी जनसंख्या वाली रियासतें संघ में सम्मिलित न हों। जिन शर्तों पर इन सभी रियासतों को संघ में सम्मिलित होना था, उनका उल्लेख एक पत्र में किया जाना था। चूंकि ऐसा नहीं हो सका इसलिये यह संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया तथा 1946 तक केंद्र सरकार, भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रावधानों के अनुसार ही चलती रही।
  1. गवर्नर-जनरल केंद्र में समस्त संविधान का केंद्र बिंदु था।
  2. प्रशासन के विषयों को दो भागों में विभक्त किया गया- सुरक्षित एवं हस्तांतरित। सुरक्षित विषयों में विदेशी मामले, रक्षा, जनजातीय क्षेत्र तथा धार्मिक मामले थे, जिनका प्रशासन गवर्नर-जनरल को कार्यकारी पार्षदों की सलाह पर करना था। कार्यकारी पार्षद, केंद्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। हस्तांतरित विषयों में वे सभी अन्य विषय सम्मिलित थे, जो सुरक्षित विषयों में सम्मिलित नहीं थे। इन विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल की उन मंत्रियों की सलाह से करना था, जिनका निर्वाचन व्यवस्थापिका द्वारा किया गया था। ये मंत्री केंद्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी थे तथा अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर उन्हें त्याग-पत्र देना अनिवार्य था।
  3. देश की वित्तीय स्थिरता, भारतीय साख की रक्षा, भारत या उसके किसी भाग में शांति की रक्षा, अल्पसंख्यकों, सरकारी सेवकों तथा उनके आश्रितों की रक्षा, अंग्रेजी तथा बर्मी माल के विरुद्ध किसी भेदभाव से उसकी रक्षा, भारतीय राजाओं के हितों एवं सम्मान की रक्षा तथा अपनी निजी विवेकाधीन शक्तियों की रक्षा इत्यादि के संबंध में गवर्नर-जनरल की व्यक्तिगत निर्णय लेने का अधिकार था।
  4. संघीय विधान मंडल (व्यवस्थापिका) द्विसदनीय होना था, जिसमें राज्य परिषद (उच्च सदन) तथा संघीय सभा (निम्न सदन) थी। राज्य परिषद एक स्थायी सदन था, जिसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक 3 वर्ष के पश्चात् चुने जाने थे। इसकी अधिकतम सदस्य संख्या 260 होनी थी, जिसमें से 156 प्रांतों के चुने हुये प्रतिनिधि और अधिकतम 104 रियासतों के प्रतिनिधि होने थे, जिन्हें सम्बद्ध राजाओं को मनोनीत करना था। संघीय सभा का कार्यकाल पांच वर्ष होना था। इसके सदस्यों में से 250 प्रांतों के और अधिकाधिक 125 सदस्य रियासतों के होने थे। रियासतों के सदस्य सम्बद्ध राजाओं द्वारा मनोनीत किए जाने थे, जबकि ब्रिटिश प्रांतों के सदस्य प्रांतीय विधान परिषदों द्वारा चुने जाने थे।
  5. यह एक अत्यंत विचित्र व्यवस्था थी तथा साधारण प्रचलन के विपरीत थी की उच्च सदन के सदस्यों का चुनाव सीधे मतदाताओं द्वारा किया जाये तथा निम्न सदन, जो ज्यादा महत्वपूर्ण था, सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से हो।
  6. इसी प्रकार राजाओं को उच्च सदन के 40 प्रतिशत तथा निम्न सदन के 33 प्रतिशत सदस्य मनोनीत करने थे।
  7. समस्त विषयों का बंटवारा तीन सूचियों में किया गया- केंद्रीय सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची।
  8. संघीय सभा के सदस्य मंत्रियों के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता था।
  9. धर्म एवं जाति-आधारित निर्वाचन व्यवस्था को आगे भी जारी रहने देने की व्यवस्था की गयी।
  10. संघीय बजट का 75 प्रतिशत भाग ऐसा था, जिस पर विधानमंडल मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता था।
  11. प्रांतों को स्वायत्तता प्रदान कर दी गयी।
  12. प्रांतों को स्वायत्तता एवं पृथक् विधिक पहचान बनाने का अधिकार दिया गया।
  13. प्रांतों को भारत सचिव एव गवर्नर-जनरल के आलाकमान वाले आदेशों से मुक्त कर दिया गया। इस प्रकार अब वे प्रत्यक्ष और सीधे तौर पर ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गये।
  14. प्रांतों को स्वतंत्र आर्थिक शक्तियां एवं संसाधन दिये गये। प्रांतीय सरकारें अपनी स्वयं की साख पर धन उधार ले सकती थीं।
  15. गवर्नर प्रांत में ताज का मनोनीत प्रतिनिधि होता था, जो महामहिम ताज (Crown) की ओर से समस्त कार्यों का संचालन एवं नियंत्रण करता था।
  16. गवर्नर को अल्पसंख्यकों, लोक सेवकों के अधिकार, कानून एवं व्यवस्था, ब्रिटेन के व्यापारिक हितों तथा देशी रियासतों इत्यादि के संबंध में विशेष शक्तियां प्राप्त थीं।
  17. यदि गवर्नर यह अनुभव करे कि प्रांत का प्रशासन संवैधानिक उपबंधों के अनुरूप नहीं चलाया जा रहा है तो प्रशासन का भार वह अपने हाथों में ले सकता था।
  18. साम्प्रदायिक तथा अन्य वर्गो को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया। अधिनियम के मतदाता मंडलों का निर्धारण साम्प्रदायिक निर्णय तथा पूना समझौते के अनुसार किया गया।
  19. प्रांतीय विधान मंडलों का आकार तथा रचना विभिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न थी। अधिकांश प्रांतों में यह एक सदनीय तथा कुछ प्रांतों में यह द्विसदनीय थी। द्विसदनीय व्यवस्था में उच्च सदन-विधान परिषद तथा निम्न सदन-विधान सभा थी।
  20. सभी सदस्यों का निर्वाचन सीधे तौर पर होता था। मताधिकार में वृद्धि की गयी। पुरुषों के समान महिलाओं को भी मताधिकार प्रदान किया गया।
  21. सभी प्रांतीय विषयों का संचालन मंत्रियों द्वारा किया जाता था। ये सभी मंत्री एक प्रमुख (मुख्यमंत्री) के अधीन कार्य करते थे।
  22. मंत्री अपने विभाग के कार्यों के प्रति जवाबदेह थे तथा व्यवस्थापिका में उनके विरुद्ध मतदान कर उन्हें हटाया जा सकता था।

मूल्यांकन: संघ बनाने की योजना को कार्यान्वित नहीं किया जा सका और केंद्रीय सरकार, 1919 के अधिनियम के अनुसार ही चलती रही। फिर भी संघीय बैंक और संघीय न्यायालय क्रमशः 1935 तथा 1937 में स्थापित कर दिए गए और प्रांतीय स्वायत्तता 1 अप्रैल, 1937 को अस्तित्व में आई।

अगस्त प्रस्ताव

अक्टूबर-नवम्बर 1939 में प्रांतीय मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया और इसके बाद भी कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया और केंद्र में एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की मांग को अंग्रेजों के समक्ष रखा, परंतु ब्रिटिश सरकार ने इस मांग की अवहेलना कर दी। भारतीयों की मांग की जगह लॉर्ड लिनलिथगो ने 8 अगस्त, 1940 की एक प्रस्ताव रखा, जो अगस्त प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। इस प्रस्ताव में निम्न प्रावधान थे-

  1. भारत के लिये डोमिनियन स्टेट्स मुख्य लक्ष्य।
  2. भारतीयों को सम्मिलित कर युद्ध सलाहकार परिषद की स्थापना।
  3. वायसराय की कार्यकारिणी परिषद का विस्तार।
  4. युद्ध के पश्चात् संविधान सभा का गठन किया जायेगा, जिसमें मुख्यतया भारतीय आने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनितिक धारणाओं के अनुरूप संविधान के निर्माण की रूपरेखा सुनिश्चित करेंगे। संविधान ऐसा होगा कि रक्षा, अल्पसंख्यकों के हित, राज्यों से संधियां तथा अखिल भारतीय सेवायें इत्यादि मुद्दों पर भारतीयों के अधिकार का पूर्ण ध्यान रखा जायेगा।
  5. अल्पसंख्यकों को आश्वस्त किया गया कि सरकार ऐसी किसी संस्था को शासन नहीं सौंपगी, जिसके विरुद्ध सशक्त मत हो।
  6. उक्त आधारों पर भारतीय, सरकारको सहयोग प्रदान करेंगे।

वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो का यह प्रस्ताव भारतीयों में भ्रामक स्थिति पैदा करने वाला था। इस प्रस्ताव द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की जा रही थी और उसके द्वारा भारतीयों में साम्प्रदायिकता का जहर घोला जा रहा था। इसलिए, कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। मुस्लिम लीग ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया, क्योंकि इस प्रस्ताव में पृथक् पाकिस्तान को स्वीकृति नहीं दी गई थी।

क्रिप्स मिशन

जब द्वितीय महायुद्ध निर्णायक दौर से गुजर रहा था और जापान भारत के द्वार तक पहुंच गया तब मार्च 1942 में ब्रिटिश सरकार ने प्रस्तावों की घोषणा के प्रारूप के साथ कैबिनेट मंत्री सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को भारत भेजा।

सर क्रिप्स द्वारा प्रस्तुत किए गए मुख्य प्रस्ताव इस प्रकार थे-

  1. भारत के संविधान की रचना भारत के लोगों द्वारा निर्वाचित संविधान सभा करेगी।
  2. संविधान भारत को डोमिनियन प्रास्थिति और ब्रिटिश राष्ट्रकुल में बराबरी की भागीदारी देगा।
  3. सभी प्रांतों और देशी रियासतों को मिलाकर एक संघ बनेगा।
  4. कोई प्रांत या देशी रियासत जो संविधान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो तो तत्समय विद्यमान अपनी संवैधानिक स्थिति बनाए रखने के लिए स्वतंत्र होगा और इस प्रकार सम्मिलित न होने वाले प्रांतों से ब्रिटिश सरकार अलग संवैधानिक व्यवस्था कर सकेगी।

किंतु इन प्रस्तावों को दोनों राजनीतिक दलों ने अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग ने इन प्रस्तावों को इसलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि देश का साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन करने की उसकी मांग को नामंजूर कर दिया गया था। इधर कांग्रेस ने इन प्रस्तावों को मानने से इसलिए अस्वीकार किया क्योंकिं इसमें भारत को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने की संभावनाओं के लिए द्वार खोल दिया गया था और युद्ध के दौरान भारतीय प्रतिनिधियों की वास्तव में प्रभावी सत्ता का हस्तांतरण करने का कोई प्रावधान नहीं किया गया था। इस प्रकार क्रिप्स मिशन पूर्णतः असफल हो गया।

राजगोपालाचारी फॉर्मूला, 1944

राजगोपालाचारी द्वारा कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच बढ़ता सहयोग बढाने के लिए 10 जुलाई, 1944 को एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया, जिसे राजगोपालाचारी फॉर्मूला के नाम से जाना जाता है। यह फॉर्मूला अप्रत्यक्ष रूप से पृथक् पाकिस्तान की अवधारणा पर आधारित प्रस्ताव था।

इस प्रस्ताव की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  1. मुस्लिम लीग भारतीय स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करे।
  2. प्रांतों में अस्थायी सरकारों की स्थापना के कार्य में मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ सहयोग करे।
  3. युद्ध की समाप्ति के उपरांत एक कमीशन द्वारा उत्तर-पूर्वी तथा उत्तर-पश्चिमी भारत में उन क्षेत्रों को निर्धारित किया जाए, जिसमें मुसलमान स्पष्ट बहुमत में हैं। उन क्षेत्रों में जनमत सर्वेक्षण कराया जाए तथा उसके आधार पर यह निश्चित किया जाए कि वे भारत से पृथक् होना चाहते हैं या नहीं।
  4. देश के विभाजन की स्थिति में आवश्यक विषयों – प्रतिरक्षा, वाणिज्य, संचार तथा आवागमन इत्यादि के सम्बन्ध में दोनों राष्ट्रों के मध्य कोई संयुक्त समझौता किया जाये।
  5. ये बातें उसी स्थिति में स्वीकृत होगी, जब ब्रिटेन भारत को पूरी तरह से स्वतंत्र घोषित कर देगा।

इस प्रस्ताव को भी मुस्लिम लीग ने अस्वीकार कर दिया। हिंदू नेताओं ने भी इसकी तीव्र आलोचना की। अंततः यह फॉर्मूला भी असफल साबित हुआ।

वेवल योजना

द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन तथा उसके सहयोगी देशों के विजयी घोषित किए जाने के उपरांत भारत के तात्कालिक वायसराय लॉर्ड वेवल द्वारा 25 जून, 1945 कोशिमला में भारतीय नेताओं का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। शिमला सम्मेलन में वेवल द्वारा एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि जब तक भारतीय स्वयं अपना संविधान नहीं बना लेते तब तक अंतरिम व्यवस्था के रूप में अधिशासी परिषद का भारतीयकरण कर दिया जाएगा। किंतु इसमें भारतीय राजनेताओं को, मुसलमानों तथा सवर्ण हिंदुओं के बीच समानता के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाएगा तथा उसमे दलित वर्गों एवं सिक्खों का एक-एक  प्रतिनिधि होगा। गवर्नर जनरल तथा सेनाध्यक्ष के अतिरिक्त सभी पद भारतीयों को सौंपे जाएंगे।

मुस्लिम लीग ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया क्योंकि इसमें विभाजन के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं किया गया था। कांग्रेस ने भी इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि इसमें हिन्दुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का अनुपात समान था। अंततः वार्ता विफल रही।

कैबिनेट मिशन

वेवेल योजना के विफल हो जाने के पश्चात् फरवरी 1946 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में राजनीतिक गतिरोध दूर करने हेतु एक तीन सदस्यीय उच्चस्तरीय शिष्टमंडल भेजने की घोषणा की। इस शिष्टमण्डल में ब्रिटिश कैबिनेट के तीन सदस्य थे- लॉर्ड पैथिक लॉरेंस (भारत सचिव), सर स्टेफर्ड क्रिप्स (व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष) तथा ए. वी. अलेक्जेंडर (एडमिरैलिटी के प्रथम लॉर्ड अथवा नौसेना मंत्री)। इस मिशन की विशिष्ट अधिकार दिए गए थे तथा इसका कार्य भारत की शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण हेतु उपायों एवं सम्भावनाओं की तलाश करना था। कैबिनेट मिशन मार्च 1946 से मई 1946 तक भारत में रहा।

कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव इस प्रकार थे-

  1. ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों को मिलाकर एक भारतीय संघ का गठन किया जाएगा। संघ के पास तीन विभाग होंगे-विदेश, रक्षा और संचार। इन विभागों के लिए धन जुटाने का अधिकार संघ को होगा।
  2. संघ की एक कार्यपालिका तथा विधायिका होगी जिसमें ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों के प्रतिनिधि होंगे।
  3. संघ से संबंधित विषयों के अतिरिक्त सभी विषय तथा सभी अवशिष्ट अधिकार प्रांतों में निहित होंगे।
  4. प्रांतों को कार्यपालिका तथा विधायिका के साथ समूह बनाने की छुट होगी और प्रत्येक समूह सर्वसामान्य प्रांतीय विषयों का निर्धारण कर सकता है।
  5. सभी दलों की सहायता से जल्द ही एक अंतरिम सरकार की स्थापना की जाएगी, जिसमे सभी विभाग भारतीय नेताओं के पास रहेंगे।
  6. देश का संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का गठन किया जाएगा।
  7. संघ तथा समूहों के संविधानों में एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसके द्वारा कोई भी प्रांत अपनी विधान सभा के बहुमत से 10 वर्ष की प्रारंभिक अवधि के बाद और उसके पश्चात प्रत्येक दस वर्ष के अंतराल में संविधान की शर्तों पर पुनर्विचार करने के लिए कह सके।

कैबिनेट मिशन ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि इसका उद्देश्य किसी संविधान का विवरण निर्धारित करना नहीं है बल्कि उस तंत्र को सक्रिय बनाना है, जिसके द्वारा भारतीयों के लिए संविधान तय किया जा सके।

एटली की घोषणा 20 फरवरी, 1947

20 फरवरी, 1947 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली द्वारा की गयी घोषणा के मुख्य तथ्य हैं-

  1. अंग्रेज सरकार 30 जून, 1948 तक भारतवासियों को सत्ता सोंप देगी।
  2. यदि इस तिथि तक संविधान नहीं बन सका तो उस स्थिति में ब्रिटिश सम्राट की सरकार यह विचार करेगी कि निश्चित तिथि की ब्रिटिश शासित भारत की केंद्रीय सरकार की सत्ता किसको सौंपी जाये। क्या ब्रिटिश भारत की केंद्रीय सरकार के किसी रूप को अथवा कुछ भागों में वर्तमान प्रांतीय सरकारों की अथवा किसी अन्य ढंग से जो सर्वाधिक न्यायसंगत एवं भारतीयों के सर्वाधिक हित में हो, सत्ता दी जाये?
  3. लार्ड वैवेल के स्थान पर लार्ड मांउटबेटन को भारत का नया वायसराय नियुक्त किया गया।

एटली की उपर्युक्त घोषणा में पाकिस्तान के निर्माण का भावनिहित था। साथ ही यह घोषणा राज्यों के बाल्कनीकरण एवं क्रिप्स प्रस्तावों के समर्थन का आभास दे रही थी।

भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण हेतु तिथि का निर्धारण क्यों ?

  1. सरकार को आशा थी कि सत्ता हस्तांतरण के लिये तिथि निर्धारित करने पर भारत के राजनीतिक दल मुख्य समस्या के समाधान हेतु सहमत हो जाएंगें।
  2. सरकार तत्कालीन संवैधानिक संकट को टालना चाहती थी।
  3. सरकार इस बात को स्वीकार कर चुकी थी कि भारत से उसकी वापसी तथा भारतवासियों को सत्ता हस्तांतरण अपरिहार्य हो चुका है।

कांग्रेस की प्रतिक्रिया: कांग्रेस ने स्वायत्तशासी उपनिवेशों को सत्ता हस्तांतरित करने की योजना की इसलिये स्वीकार कर लिया क्योंकि इससे भारत के अधिक विखंडित होने की संभावना समाप्त हो गयी। इस योजना में प्रांतों एवं देशी रियासतों को अलग से स्वतंत्रता देने का कोई प्रावधान नहीं था। साथ ही तत्कालीन प्रांतीय व्यवस्थापिकायें स्वयं अपने क्षेत्रों के लिये संविधान का निर्माण कर सकती थीं तथा इससे गतिरोध को समाप्त करने में मदद मिलने की उम्मीद थी।

लेकिन शीघ्र ही मुस्लिम लीग के प्रयासों से कांग्रेस की यह उम्मीद धूल-धूसरित हो गयी। लीग ने पंजाब की गठबंधन सरकार के विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ कर दिया तथा समझौते की संभावनाएं नगण्य दिखने लगीं।

कांग्रेस द्वारा संविधानसभा में शामिल होने तथा मुस्लिम लीग द्वारा अपनी स्वीकृति वापस ले लेने के कारण वायसराय ने लीग के प्रतिनिधित्व के बिना ही कार्यकारिणी समिति का गठन कर लिया। वायसराय द्वारा उठाए गए इस कदम को अनुचित बताते हुए मुस्लिम लीग ने विरोध स्वरूप 16 अगस्त, 1946 को प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस का आह्वान किया।

अंतरिम सरकार का गठन

24 अगस्त 1946 को अंतरिम राष्ट्रीय सरकार के गठन की घोषणा की गई। इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरु, सरदार बल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, आसफ अली, शरतचंद्र बोस, डॉ. जॉन मथाई, सर शराफत अहमद खां, जगजीवन राम, सरदार बलदेव सिंह, सैयद अली जहीर, सी. राजगोपालाचारी और डॉ. सी.एच. भाभा शामिल किये गये।

जवाहर लाल के नेतृत्व में उनके ग्यारह सहयोगियों के साथ 2 सितम्बर, 1946 को अंतरिम सरकार का गठन किया गया। इसमें मुस्लिम लीग के सदस्य शामिल नहीं हुए। हालांकि उनके शामिल होने के लिए विकल्प खुला रखा गया था। अंततः 26 अक्टूबर, 1946 को जब सरकार का पुनर्गठन किया गया तब मुस्लिम लीग के पांच प्रतिनिधियों को शामिल करके आरंभ में लिए गए तीन सदस्यों- सैयद अली जहीर, शरतचंद्र बोस और सर शफात अहमद खां को परिषद से बाहर कर दिया गया।

अंतरिम सरकार में शामिल होने के बावजूद भी मुस्लिम लीग ने संविधान सभा में शामिल होने से इंकार कर दिया। मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति में ही 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेंद्रप्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन कर दिया गया। मुस्लिम लीग ने इस संविधान सभा का विरोध किया और अलग पाकिस्तान की मांग को और अधिक प्रखर रूप में रखा। राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने 20 फरवरी, 1947 को एक ऐतिहासिक घोषणा करते हुए कहा कि भारतीय राजनैतिक दलों के आपसी मतभेद, संविधान सभा के कार्य में योजनाबद्ध तरीके से बाधा डालते हैं। इस राजनैतिक अनिश्चितता की देखते हुए जून 1948 तक राजसत्ता भारत के जिम्मेदार लोगों को सौंप दी जाएगी।

माउंटबेटन योजना

देश में सांप्रदायिक हिंसा और गृह युद्ध की स्थिति की तीव्रता को देखते हुए 3 जून, 1947 को भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड लुई माउंटबेटन की अध्यक्षता में भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारे के प्रश्न पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ एक योजना तैयार की गयी, जिसे माउंटबेटन योजना के नाम से जाना जाता है।

इस योजना के अंतर्गत हस्तांतरण प्रक्रिया को सुगम बनाने तथा दोनों मुख्य सम्प्रदायों का समायोजन करने के लिएदेश को दो भागों भारत और पाकिस्तान, में विभाजित करने का परामर्श दिया गया।

योजना की मुख्य बातें इस प्रकार हैं-

  1. बंगाल और पंजाब की प्रांतीय विधान सभाओं को यह कहा जाए कि वे दो भागों में अधिविष्ट हों। एक भाग में मुस्लिम बहुमत वाले जिलों के प्रतिनिधि होगे और दूसरे भाग में शेष प्रांत के।
  2. दोनों भागों के सदस्य पृथक् रूप से बैठकर इस बात के लिए मतदान देंगे कि क्या उस प्रांत का विभाजन किया जाए। यदि दोनों में सादे बहुमत से विभाजन के पक्ष में निर्णय होता है तो प्रत्येक विधान सभा का वह भाग उन क्षेत्रों के बारे में जिनका वह प्रतिनिधित्व करता है वह निर्णय करेगा कि क्या वह विद्यमान संविधान सभा में सम्मिलित होगा या पृथक् संविधान सभा में।

उपर्युक्त योजना के अनुसार दोनों प्रान्तों (पश्चिम पंजाब और पूर्वी बंगाल) के मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्रों के प्रतिनिधियों ने विभाजन और नए पाकिस्तान में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया। पश्चिमी-सीमा प्रांत और सिलहट में जनमत पाकिस्तान के पक्ष में गया। 26 जुलाई, 1947 को माउंटबेटन ने पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा की स्थापना की घोषणा की।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947

माउंटबेटन की 3 जून,1947 की योजना पर दोनों समुदायों द्वारा सहमति प्रदान करने के उपरांत ब्रिटिश संसद ने उक्त योजना के आधार पर भारतीय स्वतंत्रता विधेयक का प्रारूप तैयार किया और इस विधेयक को ब्रिटिश संसद द्वारा बहुमत से पारित करके भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के नाम से स्थापित किया गया। 18 जुलाई, 1947 को इस अधिनियम पर सम्राट द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई।

माउंटबेटन योजना के आधार पर, ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किये गये भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के मुख्य प्रस्ताव अग्रलिखित हैं-

  1. इस अधिनियम में यह उपबंध किया गया कि 15 अगस्त, 1947 से दो स्वतंत्र डोमिनियन स्थापित किए जाएंगे, जो भारत और पाकिस्तान के नाम से जाने जाएंगे।
  2. बंगाल तथा पंजाब के दो-दो प्रांत बनाए जाने का प्रस्ताव किया गया। पाकिस्तान को मिलने वाले क्षेत्रों को छोड़कर ब्रिटिश भारत में सम्मिलित सभी प्रांत भारत में सम्मिलित माने गए।
  3. पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, सिंध और असम का सिलहट जिला पाकिस्तान में सम्मिलित होना था।
  4. भारत में महामहिम की सरकार का उत्तरदायित्व तथा भारतीय रियासतो पर महामहिम का अधिराजस्व 15 अगस्त, 1947 को समाप्त हो जाएगा।
  5. प्रत्येक डोमिनियन के लिए पृथक् गवर्नर जनरल होगा और उसे महामहिम द्वारा नियुक्त किया जाएगा, जो डोमिनियन की सरकार के प्रयाजनों के लिए महामहिम का प्रतिनिधित्व करेगा।
  6. भारत तथा पाकिस्तान के विधानमंडलों को कुछ विषयों पर कानून बनाने का पूर्ण अधिकार होगा तथा इसमें ब्रिटिश संसद कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगी।
  7. भारत सरकार अधिनियम, 1935 तब तक इन दोनों डोमिनियन राज्यों का शासन चलाने में सहायता देगा, जब तक कि नये संविधान दोनों राज्यों द्वारा अपना नहीं लिये जाते। अनिवार्यता के अनुसार अधिनियम में परिवर्तन भी किया जा सकता है लेकिन इसके लिए गवर्नर-जनरल की स्वीकृति आवश्यक होगी।
  8. उन समस्त संधियों एवं अनुबंधों को रद्द कर दिया जाएगा जो महामहिम की सरकार तथा भारतीय राजाओं के मध्य हुए थे। शाही उपाधि से भारत का सम्राट शब्द समाप्त हो जाएगा।
  9. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की क्रियान्वित करने के लिए गवर्नर-जनरल को अस्थायी आदेश जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया।
  10. अंततः, इसमें सेक्रेटरी ऑफ स्टेट की सेवाओं तथा भारतीय सशस्त्र बल, ब्रिटिश स्थल सेना, नौसेना और वायु सेना पर महामहिम की सरकार का अधिकार क्षेत्र अथवा प्राधिकार जारी रहने की शर्ते निर्दिष्ट की गई थीं।

इस प्रकार, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के अनुसार, 14-15 अगस्त को पाकिस्तान तथा भारत दो डोमिनियनों का गठन कर दिया गया ।

ब्रिटिश विरासत

भारतीय जीवन पर अंग्रेजी राज्य के प्रभाव के विषय में वाद-विवाद उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आरंभ हुआ और आज भी जारी है। भारतीय जीवन में जो भी राजनीतिक, प्रशासकीय, आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक परिवर्तन पिछले दो सौ वर्षों में देखने को मिले, वे अंग्रेजों ने परोपकार की भावना से प्रेरित होकर नहीं किए, अपितु वे तो साम्राज्यवादी शासकों के भारत पर और भी अधिक सुदृढ़ नियंत्रण स्थापित करने के लिए किए गए प्रयत्नों के परिणामस्वरूप थे। भारत में परिवर्तन पाश्चात्य प्रभाव से आए, अग्रेजों की लगभग अनिच्छा से आए। वे ती इन परिवर्तनों की गति को मात्र धीमा ही कर सके।

एक दृढ़ केंद्रीय सरकार के अधीन भारत की राजनीतिक एकता स्थापित होना संभवतः अंग्रेजी राज्य की सबसे प्रमुख देन थी। साम्राज्यवाद का निष्ठुर तर्कपूर्ण रूप तब प्रकट हुआ जब हिमालय से कन्याकुमारी तक तथा चटगांव से खैबर तक समस्त प्रदेश अंग्रेजों के अधीन हो गया। ब्रिटेन ने भारत को शांति भी प्रदान की । इनके पास आंतरिक एवं बाहरी रक्षा के लिए एक मजबूत सेना थी। साथ ही शांति व्यवस्था कायम रखने के लिए एक बेहतर पुलिस दल भी था। इस मजबूत सेना एवं पुलिस का प्रयोग आंदोलनों को कुचलने में भी किया जाता था। भारतीय राष्ट्रवाद की भावना के कारण साम्राज्यवादी शासकों को समस्त देश के लिए एक सी प्रशासन प्रणाली स्थापित करने पर बाध्य होना पड़ा और उन्होंने सैनिक संरक्षण तथा आर्थिक शोषण के लिए सड़कों, रेलों तथा डाकतार की सुचारू व्यवस्था स्थापित की। इससे भारत में एकता स्थापित हुई और एकता की भावना जागृत हुई। आंग्ल शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय हुआ और समाचार पत्रों का विकास हुआ। इन सभी ने राष्ट्रवाद, जातीयता, राजनितिक अधिकार इत्यादि आधुनिक धारणाओं को बढ़ावा दिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी सम्पूर्ण भारत के लिए एक राजनितिक संस्था के लिए आधार बनाया। अंग्रेजों ने संसदीय प्रणाली आरंभ की जिसके तहत् पूर्वी निरंकुशवाद का स्थान अंग्रेजी निरंकुशवाद ने ले लिया। उपनिवेशवादी शासकों ने अंग्रेजी निरंकुशवाद को एक संवैधानिक रूप देकर इसे संवैधानिक निरंकुशवाद बना दिया।

भारत में ब्रिटिश प्रशासन की निम्नलिखित विरासत आज भी देखी जा सकती है-

  • संसदीय शासन और संघीय ढांचा एक महत्वपूर्ण ब्रिटिश विरासत है। जिस संसदीय लोकतंत्र पर भारत के नए संविधान की शासन व्यवस्था आधारित है, उसे हमने ब्रिटेन से प्राप्त किया है।
  • ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत प्रशासन की प्रत्येक इकाई में एक ऐसा अधिकारी होता था जिसके ऊपर पूरी जिम्मेदारी थी, जैसे मण्डल में मण्डलायुक्त, जिले में कलक्टर या डिप्टी कमिश्नर, सब-डिवीजन में सब-डिवीजिनल अधिकारी और तहसील में तहसीलदार होता था। आज भी स्वतंत्र भारत में जिला प्रशासन लगभग इसी ब्रिटिश विरासत का ऋणी है।
  • ब्रिटिश शासन की एक अन्य विरासत इण्डियन सिविल सर्विस थी। इस्पात की इस चौखट ने ब्रिटिश साम्राज्य को एक ऐसा प्रशासन दिया जो अपनी कार्यकुशलता एवं संगठन के लिए पूरे विश्व में विख्यात है। इसमें मात्र एक अच्छी नौकरी की ही सुनिश्चितता नहीं थी, अपितु बेहद सम्मान भी शामिल था। भारत में स्वतंत्रता पश्चात् आई.सी.एस. को जारी रखा गया है।
  • भारत में प्रचलित स्थानीय स्वशासन की रूपरेखा ब्रिटिश साम्राज्य से ही प्राप्त हुई है। हालांकि इसमें स्वतंत्रता पश्चात् मौलिक अंतर आया है और इसका स्वरूप वस्तुतः लोकतांत्रिक बना है।
  • स्वतंत्र भारत में न्याय प्रशासन और कानून के शासन की अवधारणा भी ब्रिटिश विरासत है। लार्ड कॉर्नवालिस ने न्याय व्यवस्था को संगठित किया था। बैंटिक के काल में लार्ड मेकाले की अध्यक्षता में एक विधि आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने प्राच्य और पश्चिमी देशों में प्रचलित कानूनों के आधार पर भारतीय दंड संहिता तैयार की, जो अंग्रेजों की कानून व्यवस्था की मुख्य आधार थी।
  • प्रशासन में सचिवालय और निदेशालय प्रणाली तथा लोक सेवा में सामान्यज्ञ की प्रधानता ब्रिटिश काल से अब तक निरंतर जारी है।
  • अंग्रेजी उदारवादी शिक्षा से कुछ आतंरिक विरोध उत्पन्न हुए। आधुनिक राजनीतिक जागृति, राजनीतिक संस्थानों की स्थापना एवं राजनीतिक आंदोलनों का चलना, अंग्रेजी शिक्षा का उतना ही परिणाम था जितना कि साम्राज्यवादी नीतियों के विरोध स्वरूप। यह अंग्रेजी शिक्षित वर्ग ही था जिसने अंग्रेजी राज्य के सच्चे स्वरूप का भंडा-फोड़ किया तथा आधुनिक राजनीतिक आंदोलनों के लिए नेतृत्व प्रदान किया। यदि इस प्रकाश में देखा जाए तो मैकाले की शिक्षा पद्धति का लाभ ही हुआ।
  • भारतीय सामाजिक जीवन में पश्चिमी प्रभाव अधिक व्यापक है। इसने कला, स्थापत्य कला, चित्रकला साहित्य, काव्य, नाटक तथा उपन्यास, यहां तक कि भारतीय धर्मो तथा दर्शन को भी प्रभावित किया है। इन क्षेत्रों में मार्गदर्शक तो अंग्रेजी सार्वजनिक अधिकारी तथा साहित्यकार थे और यह भावना आगे ले जाने वाला मुख्यतः अंग्रेजी शिक्षित वर्ग था जिसमें प्रायः पत्रकार, अध्यापक, वकील तथा डाक्टर थे जो भारतीय सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं के अगुआ थे। इसी प्रकार सरकार का उत्तर्सयुत्व, काम का अधिकार, रोटी तथा मकान, सामाजिक सुरक्षण, मजदूरों को संगठित करने का अधिकार, विधि के सम्मुख समानता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास इत्यादि का अधिकार अब भारतीय जीवन का अंग बन चुके हैं।

क्योंकि भारत में सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश हाथों से भारत एवं पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों की किया गया था। अतः स्वाभाविक रूप से पूर्ववर्ती विशेषताएं आज भी दृष्टव्य हैं। स्वतंत्र भारत एक ही झटके में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की दो शताब्दियों के प्रभाव को समाप्त नहीं कर सकता। नि:संदेह अंग्रेज भारत में अमिट छाप, चाहे वह अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्येक भारतीय पक्ष पर छोड़ गए हैं। जिस प्रकार मुगलकालीन फारसी भाषा का आज भी राजस्व तथा न्याय प्रशासन में प्रभाव दिखाई पड़ता है उसी प्रकार अंग्रेजों द्वारा विकसित कानून, नियम, प्रक्रियाएं तथा परम्पराएं भारतीय लोक प्रशासन में परिलक्षित होती हैं। अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने औपनिवेशिक संस्थाओं, अर्थव्यवस्था, समाज, यहां तक कि विचारधारा का एक नया ढांचा खड़ा कर दिया था। राजनीति से प्रेरित जाती प्रथा, साम्प्रदायिकता, प्रवेशवाद इत्यादि जिनको लोगों ने अपने साम्राज्य की जीवित रखने तथा दीर्घ करने के लिए बढ़ावा दिया, आज भी हमारे लिए कठिन चुनौतियां हैं। ब्रिटिश शासन द्वारा प्रारंभ अखिल भारतीय एवं अन्य लोकसेवाएं, सचिवालयी व्यवस्थाएं, नौकरशाही की कठोर प्रणाली, संघीय व्यवस्था एवं राष्ट्रीय एकता, प्रशासनिक अनामता तथा गोपनीयता, कमेटी प्रणाली, जिला प्रशासन, राजस्व प्रशासन, पुलिस प्रशासन, वित्तीय प्रशासन तथा स्थानीय स्वशासन इत्यादि व्यवस्थाएँ आज भी भारतीय प्रशासन में मौजूद हैं। आर्थिक जीवन की अनंत जटिल समस्याएँ हमें अंग्रेजी सम्राज्य की शोषक प्रकृति का सदैव स्मरण कराती रहती हैं। इसके अतिरिक्त विकृत आधुनिकता ने कई अन्य जटिलताएं, जैसे शिक्षित बेरोजगारी, उत्पन्न कर दी है।

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