सविनय अवज्ञा आन्दोलन एवं दांडी मार्च Civil Disobedience Movement And Dandi March

गांधी जी की ग्यारह सूत्रीय मांगें

ये मांगें कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के परिप्रेक्ष्य में अगले कदम के रूप में थीं। गांधी जी ने ‘यंग इंडिया’ में एक लेख प्रकाशित कर सरकार के समक्ष ग्यारह सूत्रीय मांगे रखीं तथा इन मांगों को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिये उसे 31 जनवरी 1930 तक का समय दिया। ये मांगे थीं-

सामान्य हित से सम्बद्ध मुद्दे

  1. सिविल सेवाओं तथा सेना के व्यय में 50 प्रतिशत तक की कमी की जाये।
  2. नशीली वस्तुओं के विक्रय पर पूर्ण रोक लगायी जाये।
  3. सी.आई.दी. विभाग पर सार्वजनिक नियंत्रण हो या उसे खत्म कर दिया जाये।
  4. शस्त्र कानून में परिवर्तन किया जाये तथा भारतीयों को आत्मरक्षा हेतु हथियार रखने का लाइसेंस दिया जाये।
  5. सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाये।
  6. डाक आरक्षण बिल पास किया जाये।

विशिष्ट बुजुआ वर्ग की मांगे

  1. रुपये की विनिमय दर घटाकर 1 शीलिंग 4 पेन्स की जाये।
  2. रक्षात्मक शुल्क लगाये जायें तथा विदेशी कपड़ों का आयात नियंत्रित किया जाये।
  3. तटीय यातायात रक्षा विधेयक पास किया जाये।

किसानों की विशिष्ट मांगे

  1. लगान में पचास प्रतिशत की कमी की जाये।
  2. नमक कर समाप्त किया जाये एवं नमक पर सरकारी एकाधिकार खत्म कर दिया जाये।

फरवरी 1930 तक, सरकार द्वारा इन मांगों के संबंध में कोई सकारात्मक उत्तर न मिलने के कारण साबरमती में कांग्रेस कार्यसमिति की हुई बैठक में यह निर्णय गांधीजी पर छोड़ दिया गया कि सविनय अवज्ञा आंदोलन किस मुद्दे को लेकर, कब और कहां से शुरू किया जाये। फरवरी के अंत में गांधीजी ने नमक के मुद्दे को सविनय अवज्ञा आंदोलन का केंद्रीय मुद्दा बनाने का निश्चय किया।

गांधी जी ने नमक को सविनय अवज्ञा आंदोलन में ‘केंद्रीय मुद्दे’ के रूप में क्यों चुना?


  1. जैसा कि गांधी जी ने कहा “पानी से पृथक नमक नाम की कोई चीज नहीं है, जिस पर कर लगाकर सरकार करोड़ों लोगों को भूखा मार सकती है तथा असहाय, बीमार और विकलांगों को पीड़ित कर सकती है। इसलिए यह कर अत्यंत अविवेकपूर्ण एवं अमानवीय हैं…जिसका उपयोग मानवता के विरुद्ध किया जाता है”।
  2. पूर्ण स्वराज्य की विचारधारा में नमक उनसे प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध था क्योंकि यह ग्रामीण जनता के दुखों को व्यक्त करने का सबसे सशक्त औत सर्वमान्य मुद्दा था।
  3. नमक, गरीब व्यक्ति को प्रभावित करता था साथ ही पूर्ण स्वराज्य के लिये सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करना किसानों को समझ में भी नहीं आता। किंतु नमक जैसी रोजमर्रा की वस्तु पर कर लगाये जाने के विरोध में किये गये आंदोलन से किसानों का समर्थन सहजता से प्राप्त किया जा सकता था।
  4. यद्यपि नमक का व्यय निर्धन व्यक्ति द्वारा वहन किया जा सकता था किंतु भावनात्मक रूप से यह खादी के समान गरीबों की आत्म-सहायता का एक प्रमुख माध्यम बन सकता था।
  5. नमक का मुद्दा गरीबों के साथ ही हर भारतीय को प्रभावित करने वाला तथा उससे प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा था।

दांडी मार्च- 12 मार्च से 6 अप्रैल, 1930

2 मार्च 1930 को गांधी जी ने वायसराय को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश शासन के दुष्प्रभावों तथा अपनी 11 सूत्रीय मांगों का उल्लेख किया, जो सरकार के सम्मुख पेश की गयीं थीं। उन्होंने कहा कि यदि सरकार उनकी मांगों को पूरा करने का कोई प्रयत्न नहीं करेगी तो 12 मार्च को वे नमक कानून का उल्लंघन करेंगे। सरकार द्वारा पत्र का कोई सार्थक जवाब न मिलने के विरोध में गांधीजी ने 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से अपने 78 समर्थकों के साथ दांडी के लिये पद यात्रा प्रारंभ की तथा 24 दिनों में 240 कि.मी. की पदयात्रा के पश्चात 5 अप्रैल को दांडी पहुंचे। 6 अप्रैल को गांधीजी ने समुद्रतट में नमक बनाकर कानून तोड़ा।

इससे पहले गांधीजी की दांडी पदयात्रा के दौरान रास्ते में हजारों किसानों ने उनका संदेश सुना तथा कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। कई ग्रामीणों ने सरकारी नौकरियों का परित्याग कर दिया।

9 अप्रैल को गांधी जी ने एक निर्देश जारी करके आदोलन के लिये निम्न लिखित कार्यक्रम प्रस्तुत किये-

  1. जहां कहीं भी संभव हो लोग नमक कानून तोड़कर नमक तैयार करें।
  2. शराब की दुकानों, विदेशी कपड़े की दुकानों तथा अफीम के ठेकों के समक्ष धरने आयोजित किये जायें।
  3. यदि हमारे पास पर्याप्त शक्ति हो तो हम करों की अदायगी का विरोध कर सकते हैं।
  4. वकील अपनी वकालत छोड़ सकते हैं।
  5. जनता, याचिकाओं पर रोक लगाकर न्यायालयों का बहिष्कार कर सकती है। सरकारी कर्मचारी अपने पदों से त्यागपत्र दे सकते हैं। हर घर में लोग चरखा कातें और सूत बनायें।
  6. छात्र सरकारी स्कुल एवं कालेजों का बहिष्कार करें।
  7. स्थानीय नेता, गांधीजी की गिरफ़्तारी के बाद अहिंसा बनाये रखने सहयोग दें।
  8. इन सभी कार्यक्रमों में सत्य एवं अहिंसा को सर्वोपरि रखा जाये तभी हमें पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति हो सकती है।

सविनय अवज्ञा आदोलन के प्रारंभिक चरण के रूप में, 12 मार्च 1930 को प्रारंभ हुई इस ऐतिहासिक यात्रा में गांधीजी ने 6 अप्रैल को दांडी में मुट्ठीभर नमक बनाकर नमक कानून को तोड़ा। नमक कानून के उल्लंघन को भारतीयों द्वारा, ब्रिटिश कानूनों के विरोध एवं साम्राज्यवाद की समाप्ति के प्रयासों के प्रतीक के रूप में देखा गया। इस यात्रा, इसके विकास तथा लोगों पर इसके प्रभाव की समाचार-पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। गुजरात में गांधीजी की अपील पर 300 ग्रामीण सरकारी कर्मचारियों ने सरकारी सेवाओं से त्यागपत्र दे दिया। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भी स्थानीय स्तर पर कांग्रेस को लोकप्रिय बनाने एवं उसे संगठित करने के सराहनीय प्रयास किये।

नमक सत्याग्रह का प्रसार

एक बार जब गांधी जी ने दांडी में नमक कानून तोड़कर इसकी रस्म पूरी कर दी तो नमक कानून तोड़ने का सत्याग्रह पूरे देश में प्रारंभ हो गया। तमिलनाडु में तंजौर के समुद्री तट पर सी. राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम तक की नमक यात्रा प्रारंभ की। मालाबार में के. कलप्पन ने कालीकट से पोयान्नूर तक की नमक यात्रा की। असम में सत्याग्रहियों का एक दल सिलहट से बंगाल के नोवाखाली समुद्र तट पर नमक बनाने पहुंचा। आंध्रप्रदेश के विभिन्न जिलों में नमक सत्याग्रह के मुख्यालय के रूप में कार्य करने के उद्देश्य से शिविरम (शिविरों) की स्थापना की गयी।

नमक कानून तोड़ने के अपराध में जवाहरलाल नेहरू को 14 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके कारण उत्तेजना फैल गयी तथा कलकत्ता, मद्रास एवं कराची आदि नगरों में उग्र प्रदर्शन हुये। 4 मई 1930 को गांधीजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया, जब उन्होंने ऐलान किया कि धारासणा नमक कारखाने पर अभियान जारी रखेंगे। बंबई, कलकत्ता, दिल्ली तथा शोलापुर इत्यादि शहरों में गांधीजी की गिरफ्तारी का जबरदस्त विरोध किया गया। गांधी जी की गिरफ्तारी के पश्चात कांग्रेस कार्यकारिणी ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया-

  • रेयतवाड़ी क्षेत्रों में लगान न अदा किया जाये।
  • जमींदारी क्षेत्रों में चौकीदारी कर न अदा किया जाये।
  • मध्य प्रांत में वन कानून का उल्लंघन किया जाये।

विद्रोह के अन्य क्षेत्र एवं तरीके

देश के अन्य भागों में भी विद्रोह एवं तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी-

चटगांव में सूर्यसेन के नेतृत्व में आंदोलनकारियों ने दो सरकारी शस्त्रागारों पर धावा बोल दिया तथा प्रांतीय सरकार की स्थापना की घोषणा कर दी।

पेशावर में खान अब्दुल गफ्फार खान के सामाजिक एवं राजनीतिक सुधारों ने पठानों में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। खान अब्दुल गफ्फार खान ने, जिन्हें ‘बादशाह खान’ या ‘सीमांत गांधी’ के नाम से भी जाना जाता था, खुदाई खिदमतगार नामक स्वयंसेवी संगठन की स्थापना की। इसे लाल कुर्ती‘ (Redshirt) के नाम से भी जाना जाता था। खुदाई खिदमतगार ने पठानों की राष्ट्रीय एकता का नारा बुलंद किया तथा साम्राज्यवादी शासन के खिलाफ आदोलन संगठित किया। इसने मजदूरों की दशा में सुधार की भी मांग की। संगठन ने अहिंसा के सिद्धांत को सर्वोपरि मानते हुये राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

उल्लेखनीय यह है कि अन्य प्रांतों में मुसलमान जहां सत्याग्रह आंदोलन में तटस्थ बने हुये थे, वहीं उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में बादशाह खान के नेतृत्व में मुसलमानों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यहां आंदोलन की शुरुआत तब हुई, जब 23 अप्रैल 1930 को पुलिस ने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के कारण उत्तेजना फैल गयी तथा जनता ने हिंसक प्रदर्शन किया। पेशावर में तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गयी तथा आंदोलनकारियों के दमन के लिये भेजी गयी हिन्दू सेना ने मुसलमानों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। बाद में 4 मई तक ही स्थिति नियंत्रण में आ सकी, जब सरकार ने हवाई टुकड़ियों की मदद से शहर पर कब्जा कर लिया। इस दौरान सरकार ने आतंक एवं दमन का साम्राज्य कायम कर दिया। इस आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों में लगभग 92 प्रतिशत मुसलमान थे, इससे अंग्रेजों को अत्यंत निराशा हुई तथा उनका यह भ्रम टूट गया कि मुसलमान, स्वतंत्रता आंदोलन से खुद को पूर्णतया अलग रखे हुये हैं।

शोलापुर बंबई प्रेसीडेंसी के इस औद्योगिक नगर में गांधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में प्रारंभ हुये आंदोलन ने भयंकर विद्रोह का रूप धारण कर लिया। यहां 7 मई से प्रारंभ हुई हड़ताल में हजारों मिल मजदूर काम छोड़कर प्रदर्शनकारियों से मिल गये। प्रदर्शनकारियों ने शराब की दुकानों तथा सरकारी प्रतिष्ठानों जैसे- रेलवे स्टेशन, पुलिस स्टेशन, नगरपालिका भवनों एवं न्यायालयों इत्यादि को आग लगा दी। 8 मई को पुलिस तथा प्रदर्शनकारियों के मध्य भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें अनेक लोग मारे गये तथा सैकड़ों घायल हो गये। मजदूरों ने पुलिस को खदेड़ कर समानांतर शासन कायम कर लिया तथा एक सप्ताह तक शहर पर उनका कब्जा बना रहा। मार्शल लॉ लागू करके 16 मई तक ही सरकार शहर पर पुनः नियंत्रण कायम कर सकी।

धारासणा नमक सत्याग्रह में सबसे तीव्र प्रतिक्रिया धारासणा में हुई। यहां 21 मई 1930 को सरोजनी नायडू, इमाम साहब एवं गांधीजी के पुत्र मणिलाल ने दो हजार आंदोलनकारियों के साथ धारासणा नमक कारखाने पर धावा बोल दिया। यद्यपि आदोलनकारियों ने पूर्ण शांति के साथ विरोध प्रदर्शन किया किंतु पुलिस ने दमन का सहारा लिया तथा प्रदर्शनकारियों पर बर्बतापूर्वक लाठी चार्ज किया गया। इसके कारण 2 व्यक्ति मारे गये 320 गंभीर रूप से जख्मी हो गये। एक अमरीकी पत्रकार मिलर ने पुलिस द्वारा किये गये बर्बरतापूर्ण कृत्य को अत्यंत भयानक बताया।

नमक सत्याग्रह के इस नये रूप को जनता ने बड़ी उत्सुकता से अपना लिया तथा देखते ही देखते यह जन-आंदोलन में बदल गया। बाद में वडाला (बंबई), सैनीकट्टा (कर्नाटक), आंध्र प्रदेश, मिदनापुर, बालासोर, पुरी तथा कटक के नमक कारखानों में भी इसी तरह के प्रदर्शन आयोजित किये गये।

बिहार यहां चलाये गये नमक सत्याग्रह में चौकीदार कर के विरोध में तथा चौकीदारों और चौकीदारी पंचायत के प्रभावशाली सदस्यों के इस्तीफे के मांग को लेकर जबरदस्त आंदोलन चलाया गया। चूंकि ये चौकीदार सरकार के लिये जासूसी का काम करते थे, अतः इनके विरुद्ध जनता के मन में तीव्र घृणा की भावना थी। यह आंदोलन भागलपुर, सारन एवं मुंगेर जिलों में विशेष रूप से सफल रहा। भागलपुर में राजेंद्र प्रसाद एवं अब्दुल बारी ने आंदोलनकारियों को संबोधित किया। पुलिस ने आंदोलनकारियों के दमन के लिये उन्हें बुरी तरह पीटा, उन्हें यातनायें दी गयीं तथा उनकी सम्पति को जब्त कर लिया।

बंगाल में चौकीदारी एवं यूनियन बोर्ड विरोधी आंदोलन चलाया गया। यहां भी गांव के लोगों को सरकारी दमन का शिकार होना पड़ा। आंदोलनकारियों को बुरी तरह पीटा गया तथा उनकी सम्पति को जब्त कर लिया गया।

गुजरात यहाँ खेडा जिले के आनंद, बोरसद एवं नदियाद क्षेत्रों, सूरत जिले के बारदोली क्षेत्र एवं भड़ौच जिले के जंबूसर क्षेत्र में शक्तिशाली आंदोलन चलाया गया। यहां कर न अदा करने के मुद्दे को लेकर जबरदस्त आंदोलन प्रारंभ हुआ तथा लोगों ने भू-राजस्व अदा करने से इंकार कर दिया। हजारों की तादाद में लोग अपने परिवार के सदस्यों, मवेशियों तथा घर का सामान लेकर ब्रिटिश नियंत्रण वाले भारत से निकलकर बड़ौदा जैसे पड़ोसी रजवाड़े वाले इलाके में चले गये तथा महीनों कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुये वहीं पड़े रहे।

सरकार ने प्रदर्शनकारियों को बुरी तरह प्रताड़ित किया। उनके घरों एवं सामान को नष्ट कर दिया गया तथा उन्हें बुरी तरह पीटा गया। पुलिस ने वल्लभभाई पटेल की 80 वर्षीय मां को भी नहीं बख्शा। सरदार पटेल कई महीनों तक पुलिस से लोहा लेते रहे।

महाराष्ट्र,कर्नाटक एव मध्य प्रांत

इन क्षेत्रों में आंदोलनकारियों ने वन नियमों का उल्लंघन किया। आंदोलन जनजातीय क्षेत्रों में विशेष रूप से प्रभावी रहा।  यहां सरकार ने वनों को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर वहां पशुओं को चराने, लकड़ी काटने एवं वनोत्पादों को एकत्रित करने पर प्रतिबंध लगा रखा था। आदोलन के दौरान इन सभी नियमों की अवहेलना की गयी।

असम यहां कुख्यात ‘कनिंघम सरकुलर’ के विरोध में छात्रों के नेतृत्व में एक शक्तिशाली आंदोलन चलाया गया। इस सरकुलर द्वारा छात्रों और उनके अविभावकों को अच्छे व्यवहार का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के लिये कहा गया था। आंदोलन के दौरान इस सरकुलर का उल्लंघन किया गया तथा इसके विरुद्ध प्रदर्शन आयोजित किये गये।

संयुक्त प्रांत में लगान अदा न करने का सशक्त अभियान चलाया गया तथा जमींदारों से सरकार की राजस्व न देने का आह्वान किया गया। किसानों से भी जमींदारों को लगान अदा न करने का आग्रह किया गया। चूंकि अधिकांश जमींदार ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार थे, फलतः किसानों का लगान विरोधी आंदोलन ही विरोध-प्रदर्शन का प्रमुख मुद्दा रहा। यद्यपि प्रारंभिक महीनों में आंदोलन काफी शक्तिशाली था लेकिन सरकारी दमन के कारण यह धीरे-धीरे कमजोर पड़ गया। अक्टूबर 1930 से इसमें पुनः तेजी आ गयी तथा आगरा एवं रायबरेली में इसने उल्लेखनीय सफलता हासिल की।

मणिपुर एव नागालैंड इन क्षेत्रों ने भी आंदोलन में साहसिक भूमिका निभायी। नागालैंड की रानी गैडिनल्यू ने सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध झंडा उठा लिया तथा विद्रोह को प्रशंसनीय नेतृत्व प्रदान किया। 1932 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया आजीवन कारावास की सजा दी गयी।

आंदोलन को लोकप्रिय बनाने हेतु आंदोलनकारियों ने विभिन्न माध्यमों को अपनाया। गांवों और कस्बों में प्रभात केरियां निकाली जाने लगीं। गांवों तक राष्ट्रीय संदेश पहुंचाने के लिये ‘जादुई लालटेनों’ का प्रयोग किया जाता था। बच्चों ने ‘वानर सेना’ तथा लड़कियों ने मंजरी सेना का गठन किया। गैर-कानूनी सूचना-पत्र तथा पत्रिकाओं में भी आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रदर्शन का प्रभाव

  1. विदेशी कपड़ों तथा अन्य वस्तुओं के आयात में कमी आ गई।
  2. सरकार को शराब, उत्पाद शुल्क तथा भू-राजस्व के रूप में प्राप्त होने वाली आय में अत्यधिक कमी आ गई।
  3. व्यवस्थापिका सभा के चुनाव का व्यापक ढंग से बहिष्कार किया गया।

जन-आदोलन की व्यापकता

इस आंदोलन में समाज के विभिन्न वगों ने हिस्सा लिया-

महिलायें गांधीजी ने महिलाओं से आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने हेतु आगे आने का विशेष आग्रह किया। गांधीजी के इस आग्रह का महिलाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वे शीघ्र ही आंदोलन का अभिन्न अंग बन गयीं। महिलाओं ने विदेशी कपड़ों की दुकानों, शराब की दुकानों तथा अफीम के ठेकों पर धरने दिये तथा तीव्र प्रदर्शन किये। भारतीय महिलाओं के लिये यह आंदोलन एक मील का पत्थर था क्योंकि इस आंदोलन में उन्होंने बड़े पैमाने पर भाग लिया तथा अपनी राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति की दिशा में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की।

छात्र महिलाओं के समान छात्रों ने भी शराब की दुकानों तथा विदेशी कपड़ों की दुकानों के समक्ष प्रदर्शन आयोजित करने तथा धरने देने के कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभाई।

मुसलमान इस आंदोलन में मुसलमानों की भागेदारी नगण्य ही रही तथा कहीं भी वे 1920-22 के समय के आंदोलन की तरह सक्रिय नहीं हुये। इसके दो प्रमुख कारण थे- पहला मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों को आंदोलन से पृथक रहने की सलाह दी तथा दूसरा ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिकता के मुद्दे का सहारा लेकर भावनात्मक रूप से मुसलमानों को आंदोलन से पृथक रखने का दुष्प्रयास किया।

किंतु पूरे देश में मुसलमानों के लगभग तटस्थ बने रहने के प्रश्चात भी उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में मुसलमानों ने आंदोलन को भरपूर समर्थन प्रदान किया। यहां खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में मुसलमानों ने उपनिवेशी सरकार के विरुद्ध आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। सेनहट्टा, त्रिपुरा, गैबन्धा, बगूरा एवं नोआखाली में मध्यवर्गीय मुसलमानों ने आंदोलन में सक्रिय भागेदारी निभायी। ढाका में मुस्लिम नेताओं, दुकानदारों, निम्न वर्ग के लोगों तथा उच्च वर्ग की महिलाओं ने आंदोलन को पूर्ण समर्थन प्रदान किया। बिहार, बंगाल एवं दिल्ली के बुनकरों ने भी आंदोलन में प्रमुखता से भाग लिया।

व्यापारी एव छोटे व्यवसायी इस वर्ग ने आंदोलन में उत्साहपूर्वक भाग लिया। विभिन्न व्यावसायिक संगठनों एवं वाणिज्यिक मंडलों ने प्रदर्शनों एवं धरनों इत्यादि में चढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। विशेषकर तमिलनाडु एवं पंजाब में इनकी भूमिका प्रशंसनीय रही।

जनजातियाँ मध्य प्रांत, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में जनजातियों एवं दलित वर्ग ने आंदोलन में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया।

मजदूर बम्बई, कलकत्ता, मद्रास एवं शोलापुर इत्यादि में मजदूरों ने आंदोलन को पूर्ण समर्थन प्रदान किया।

किसान ये मुख्यतया उत्तर प्रदेश, बिहार एवं गुजरात में सक्रिय रहे।

सरकारी प्रतिक्रिया- अस्थाई संधि के प्रयास

पूरे 1930 के दशक में सरकार की मनःस्थिति व्याकुलता एवं भ्रांति से ग्रस्त रही। आंदोलन की अप्रत्याशित सफलता से साम्राज्यवादी खेमे में घबराहट फैल गयी। वह इस असमंजस के बीच संघर्ष करती रही कि आंदोलनकारियों के दमन हेतु कौन सा रुख अख्तियार किया जाये। यदि सरकार आंदोलनकारियों के प्रति हिंसा और दमन का सहारा लेती तो कांग्रेस इसकी भर्त्सना करती और यदि वह हल्के तौर-तरीके अपनाती तो कांग्रेस इसे सरकार पर अपनी विजय करार देती। सरकार की स्थिति, दमन का सहारा लेने के मुद्दे पर काफी समय तक डांवाडोल रही। वह गांधीजी को गिरफ्तार करने पर भी काफी हिचकिचाती रही। लेकिन एक बार जब उसने दमन की कार्यवाई प्रारंभ कर दी तो उसके दमनचक्र का जैसे सिलसिला ही प्रारंभ हो गया। उसने नागरिक स्वतंत्रता के हनन के सभी तरीकों का भरभूर उपयोग किया, जिसमें प्रेस पर प्रतिबंध भी शामिल था। प्रांतीय सरकारों को नागरिक अवज्ञा संगठनों की स्वतंत्रता को कुचलने की पूरी छूट प्रदान कर दी गयी। यद्यपि जून माह तक कांग्रेस कार्यकारिणी को अवैध घोषित नहीं किया गया था किंतु निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर यथासंभव लाठी चार्ज एवं घातक प्रहार किये गये, जिसमें कई लोग मारे गये तथा हजारों लोग घायल हो गये। गांधीजी सहित लगभग 90 हजार लोग जेल में ठूस दिये गये।

सरकारी दमन एवं साइमन कमीशन की रिपोर्ट के प्रकाशन ने आंदोलन के प्रति सरकार की घृणा को और उजागर कर दिया। साइमन कमीशन की रिपोर्ट में डोमीनियन स्टेट्स का कोई उल्लेख न किये जाने पर राष्ट्रवादी और असंतुष्ट हो गये। यहां तक कि उदारवादियों ने भी सरकार की तीव्र आलोचना प्रारंभ कर दी तथा सरकार से उसका पूर्णतया मोहभंग हो गया।

जुलाई 1930 में भारत के तत्कालीन वायसराय ने गोलमेज सम्मेलन का प्रस्ताव रखा तथा डोमिनियन स्टेट्स की मांग पर चर्चा करने के मुद्दे को इसका लक्ष्य घोषित किया। उसने तेजबहादुर सप्रू तथा एम.आर. जयकर के सरकार तथा कांग्रेस के मध्य शांति तथा सुलह की स्थापना हेतु संभावनाओं का पता लगाने के प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लिया।

अगस्त 1930 में मोतीलाल नेहरू तथा जवाहरलाल नेहरू, गांधीजी से विचार-विमर्श करने यरवदा जेल गये। चर्चा के उपरांत इन तीनों ने मांग की कि-

  1. ब्रिटेन, भारतीयों की स्वतंत्रता बहाल करे।
  2. पूर्ण स्वतंत्र सरकार का गठन-जिसका वित्त एवं रक्षा संबंधी मामलों पर पूरा नियंत्रण हो।
  3. ब्रिटेन से आर्थिक हर्जाने की मांग के लिये एक स्वतंत्र आयोग का गठन।

लेकिन इस बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला।

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