बहलोल लोदी: 1451-1489 ई. Bahlol Lodi: 1451-1489 AD.

लोदी सुल्तान Lodi dynasty

बहलोल लोदी 1451-1489 ई. Bahlul Lodi 1451-1489 AD.

बहलोल खाँ अफगानों की लोदी जाति का था। वह सुल्तान शाह लोदी का भतीजा था, जिसे मल्लू इकबाल की मृत्यु के पश्चात् इस्लाम खाँ की उपाधि देकर सरहिन्द का शासक नियुक्त किया गया था। अपने चाचा की मृत्यु के बाद बहलोल लाहौर एवं सरहिन्द का शासक बना। जब अलाउद्दीन आलमशाह ने स्वेच्छापूर्वक दिल्ली का राजसिंहासन त्याग दिया, तब उसने मंत्री हमीद खाँ की सहायता से 19 अप्रैल, 1451 को इस पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के इतिहास में पहली बार एक अफगान शासक दिल्ली की गद्दी पर बैठा।

बहलोल को दिल्ली राज्य के एक छोटे-से टुकडे पर शासन करना था और वह टुकड़ा भी उस समय बहुत खराब हालत में था। पर वह अपने निकटतम पूर्वगामियों से भिन्न पदार्थ का बना था। वह एक लड़ाकू वंश से उत्पन्न था तथा क्रियाशील, रणप्रिय एवं महत्त्वाकांक्षी था। उसने अपने अफगान अनुगामियों की सहायता से अपने पुराने मंत्री हमीद खाँ को चतुराई से कैदखाने में बन्द कर उसके प्रभाव से छुटकारा पा लिया। उसने जौनपुर के महमूद शाह शर्की के दिल्ली पर अधिकार करने के प्रयास को भी निष्फल कर दिया। उसने कुछ प्रांतीय जागीरदारों एवं नायकों को अधीन कर लिया, जो बहुत वर्षों से स्वतंत्रता का उपयोग करते आ रहे थे। इस प्रकार मेवात के अहमद खाँ, संभल के दरिया खाँ, कोईल के ईसा खाँ, सुकेत के मुबारक खाँ, मैनपुरी एवं मोन गाँव के राजा प्रताप सिंह, रेवाड़ी के कुत्बखाँ तथा इटावा, चंदवार एवं दोआब के अन्य जिलों के नायकों को सुल्तान की अधीनता स्वीकार करने को विवश किया गया, पर उसने इन लोगों के साथ दया के साथ व्यवहार किया जिससे वे उसके शासन से राजी हो सके। उसका अधिक महत्वपूर्ण कार्य था जौनपुर के पड़ोसी राज्य के विरुद्ध सफल युद्ध, जिसकी स्वतंत्रता का अन्त हो गया। उसने 1486 ई. में अपने सबसे बड़े जीवित पुत्र बारबक शाह को जौनपुर का राजप्रतिनिधि नियुक्त किया। ग्वालियर से वहाँ के राजा कीरत सिंह को दण्ड देकर लौटते समय सुल्तान बीमार पड़ गया। अपने पुत्र बारबक शाह एवं निजाम शाह तथा पौत्र आजमे-हुमायूँ के पक्षावलबियों द्वारा गद्दी के उत्तराधिकार के लिए रचे षड्यंत्रों के बीच, जलाली शहर के निकट जुलाई, 1489 ई. के मध्य तक, उसने अंतिम साँस ली।

शासक के रूप में बहलोल उन सभी राजाओं से बहुत बढ़कर था, जो तुगलक-वंश के फिरोज के बाद दिल्ली के सिंहासन पर बैठे थे। वह साहस, स्फूर्ति एवं चतुराई से सम्पन्न था। उसने हिन्दुस्तान में मुस्लिम शक्ति की प्रतिष्ठा को पुन: स्थापित किया और अपने राज्य की सरकार को सशक्त बनाया। वह राजकीय वैभव के प्रदर्शन के प्रतिकूल तथा निर्धनों के प्रति दयालु था। स्वयं विद्वान् न होने पर भी वह विद्वानों का आश्रयदाता था। उसे अपने निकट सम्बन्धियों एवं अपनी जाति के लोगों का प्रेम और विश्वास प्राप्त था तथा वह अपनी शक्ति एवं समृद्धि में उन्हें हिस्सा दिया करता था।

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