आजाद हिन्द फौज Azad Hind Fauj

आजाद हिन्द फौज या Indian National Army (INA) की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में मलाया में आया। मोहन सिंह, ब्रिटिश सेना में एक भारतीय सैन्य अधिकारी थे किंतु कालांतर में उन्होंने साम्राज्यवादी ब्रिटिश सेना में सेवा करने के स्थान पर जापानी सेना की सहायता से अंग्रेजों को भारत से निष्कासित करने का निश्चय किया।

प्रथम चरण

जापानी सेना ने जब भारतीय युद्ध बंदियों को मोहन सिंह को सौंपना प्रारंभ कर दिया तो वे उन्हें आजाद हिन्द फौज में भर्ती करने लगे। सिंगापुर के जापानियों के हाथ में आने के पश्चात मोहन सिंह को 45 हजार युद्धबंदी प्राप्त हुये। यह घटना अत्यंत महत्वपूर्ण थी। 1942 के अंत तक इनमें से 40 हजार लोग आजाद हिंद फौज में सम्मिलित होने को राजी हो गये। आजाद हिंद फौज के अधिकारियों ने निश्चय किया कि वे कांग्रेस एवं भारतीयों द्वारा आमंत्रित किये जाने के पश्चात ही कार्रवाई करेंगे। बहुत से लोगों का यह भी मानना था कि आजाद हिंद फौज के कारण जापान, दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीयों से दुर्व्यवहार नहीं करेगा या भारत पर अधिकार करने के बारे में नहीं सोचेगा।

भारत छोड़ो आंदोलन ने आजाद हिंद फौज को एक नयी ताकत प्रदान की। मलाया में ब्रिटेन के विरुद्ध तीव्र प्रदर्शन किये गये। 1 सितम्बर 1942 को 16,300 सैनिकों को लेकर आजाद हिन्द फ़ौज की पहली डिवीजन का गठन किया गया। इस समय तक जापान यह योजना बनाने लगा था कि भारत पर आक्रमण किया जाये। भारतीय सैनिकों के संगठित होने से जापान अपनी योजना को मूर्तरूप देने हेतु उत्साहित हो गया। किंतु दिसम्बर 1942 तक आते-आते आजाद हिन्द फौज की भूमिका के प्रश्न पर मोहन सिंह एवं अन्य भारतीय सैन्य अधिकारियों तथा जापानी अधिकारियों के बीच तीव्र मतभेद पैदा हो गये। दरअसल जापानी अधिकारियों की मंशा थी कि भारतीय सेना प्रतीकात्मक हो तथा उसकी संख्या 2  हजार तक सिमित रखी जाए किन्तु मोहन सिंह का उद्देश्य 2 लाख सैनिकों की फ़ौज तैयार करने का था।

द्वितीय चरण

आजाद हिंद फौज का द्वितीय चरण 2 जुलाई 1943 को सुभाषचंद्र बोस के सिंगापुर पहुंचने पर प्रारंभ हुआ। इससे पहले गांधीजी से मतभेद होने के कारण सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था तथा 1940 में फारवर्ड ब्लाक के नाम से एक नये दल का गठन कर लिया था। मार्च 1941 में वे भारत से भाग निकले, जहां उन्हें नजरबंद बनाकर रखा गया था। भारत से पलायन के पश्चात उन्होंने रूसी नेताओं से मुलाकात कर ब्रिटेन के विरुद्ध सहायता देने की मांग की। जब जून 1941 में सोवियत संघ भी मित्र राष्ट्रों की ओर युद्ध में सम्मिलित हो गया तो सुभाषचंद्र बोस जर्मनी चले गये। तत्पश्चात वहां से फरवरी 1943 में वे जापान पहुंचे। उन्होंने जापान से ब्रिटेन के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष प्रारंभ की मांग की। जुलाई 1943 में सुभाषचंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे, जहां रासबिहारी बोस एवं अन्य लोगों ने उनकी मदद की। यहां दक्षिण-पूर्व एशिया में निवास करने वाले भारतीयों तथा बर्मा, मलाया एवं सिंगापुर के भारतीय युद्धबंदियों ने उन्हें महत्वपूर्ण सहायता पहुंचायी। अक्टूबर 1943 में उन्होंने सिंगापुर में अस्थायी भारतीय सरकार का गठन किया। सिंगापुर के अतिरिक्त रंगून में भी इसका मुख्यालय बनाया गया। धुरी राष्ट्रों ने इस सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। सैनिकों को गहन प्रशिक्षण दिया गया तथा फौज के लिये धन एकत्रित किया गया। नागरिकों को भी सेना में भारतीय किया गया। स्त्री सैनिकों का भी एक दल बनाया गया तथा उसे रानी झांसी रेजीमेंट नाम दिया गया। जुलाई 1944 में सुभाषचंद्र बोस ने गांधी जी से भारत की स्वाधीनता के अंतिम युद्ध के लिये आशीर्वाद मांगा।

शाह नवाज के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज की एक बटालियन जापानी फौज के साथ भारत-बर्मा सीमा पर हमले में भाग लेने के लिये इम्फाल भेजी गयी। किंतु यहां भारतीय सैनिकों से दुर्व्यवहार किया गया। उन्हें न केवल रसद एवं हथियारों से वंचित रखा गया अपितु जापानी सैनिकों के निम्न स्तरीय काम करने के लिये भी बाध्य किया गया। इससे भारतीय सैनिकों का मनोबल टूट गया। इम्फाल अभियान की विफलता तथा जापानी सैनिकों के पीछे लौटने से इस बात की उम्मीद समाप्त हो गयी कि आजाद हिंद फौज भारत को स्वाधीनता दिला सकती है। जापान के द्वितीय विश्व युद्ध में आत्मसर्पण करने के पश्चात जब आजाद हिंद फौज के सैनिकों को युद्ध बंदी के रूप में भारत लाया गया तथा उन्हें कठोर दंड देने का प्रयास किया गया तो भारत में उनके बचाव में एक सशक्त जनआंदोलन प्रारंभ हो गया।


विश्व युद्ध के पश्चात राष्ट्रीय विप्लव- जून 1945 से फरवरी 1946 ब्रिटिश शासन के अंतिम दो वर्षों में राष्ट्रीय विप्लव के संबंध में दो आधारभूत कारकों का विश्लेषण किया जा सकता है-

  1. इस दौरान सरकार, कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग तीनों ही कुटिल समझौते करने में संलग्न रहे। इससे साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा मिला, जिसकी चरम परिणति स्वतंत्रता एवं देश के विभाजन के रूप में सामने आयी।
  2. श्रमिकों, किसानों एवं राज्य के लोगों द्वारा असंगठित, स्थानीय एवं उग्रवादी जन प्रदर्शन। इसने राष्ट्रव्यापी स्वरूप धारण कर लिया। इस तरह की गतिविधियों में- आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों को रिहा करने से संबंधित आन्दोलन, शशि नौसेना के नाविकों का विद्रोह, पंजाब किसान मोर्चा का आन्दोलन, ट्रावनकोर के लोगों का संघर्ष तथा तथा तेलंगाना आंदोलन प्रमुख है।

जब सरकार ने जून 1945 में कांग्रेस से प्रतिबंध हटाकर उसके नेताओं की रिहा किया तो उसे उम्मीद थी कि इसे जनता हतोत्साहित होगी। लेकिन इसके स्थान पर भारतियों का उत्साह दोगुना हो गया। तीन वर्षों के दमन से जनता में सरकार के विरुद्ध तीव्र रोष का संचार हो चुका था। राष्ट्रवादी नेताओं की रिहार्यी से जनता की उम्मीदें और बढ़ गयीं। रूढ़िवादी सरकार के समय की वैवेल योजना, मौजूदा संवैधानिक संकट को हल करने में विफल रही।

  • जुलाई 1945 में, ब्रिटेन में श्रमिक दल सत्ता में आया। क्लीमेंट एटली ने ब्रिटेन के नये प्रधानमंत्री का पदभार संभाला तथा पैथिक लारेंस नये भारत सचिव बने।
  • अगस्त 1945 में, केंद्रीय एवं प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं के लिये चुनावों की घोषणा की गयी।
  • सितम्बर 1945 में, सरकार ने घोषणा की कि युद्ध के उपरांत एक संविधान सभा गठित की जायेगी।

सरकार के दृष्टिकोण में परिवर्तन के कारण

  1. युद्ध की समाप्ति के पश्चात विश्व-शक्ति-संतुलन परिवर्तित हो गया- ब्रिटेन अब महाशक्ति नहीं रहा तथा अमेरिका एवं सोवियत संघ विश्व की दो महान शक्तियों के रूप में उभरे। इन दोनों ने भारत की स्वतंत्रता का समर्थन किया।
  2. ब्रिटेन की नयी लेबर सरकार, भारतीय मांगों के प्रति ज्यादा सहानुभूति रखती थी।
  3. संपूर्ण यूरोप में इस समय समाजवादी-लोकतांत्रिक सरकारों के गठन की लहर चल रही थी।
  4. ब्रिटिश सैनिक हतोत्साहित एवं थक चुके थे तथा ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गयी थी।
  5. दक्षिण-पूर्व एशिया- विशेषकर वियतनाम एवं इंडोनेशिया में इस समय साम्राज्यवाद-विरोधी वातावरण था। यहां उपनिवेशी शासन का तीव्र विरोध किया जा रहा था।
  6. अंग्रेज अधिकारियों को भय था कि कांग्रेस पुनः नया आंदोलन प्रारंभ करके 1942 के आंदोलन की पुनरावृति कर सकती है। सरकार का मानना था कि यह आंदोलन 1942 के आंदोलन से ज्यादा भयंकर हो सकता है क्योंकि इसमें कृषक असंतोष, संचार-व्यवस्था पर प्रहार, मजदूरों की दुर्दशा, सरकारी सेवाओं से असंतुष्ट तथा आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों इत्यादि जैसे कारकों का गठजोड़ बन सकता है। सरकार इस बात से भी चिंतित थी कि आजाद हिंद फौज के सैनिकों का अनुभव, सरकार के विरुद्ध हमले में प्रयुक्त किया जा सकता है।
  7. युद्ध के समाप्त होते ही भारत में चुनावों का आयोजन तय था क्योंकि 1934 में केंद्र के लिये एवं 1937 में प्रांतों के लिये जो चुनाव हुये थे उसके पश्चात दुबारा चुनावों का आयोजन नहीं किया गया था।

यद्यपि ब्रिटेन भारतीय उपनिवेश की खोना नहीं चाहता था लेकिन उसकी सत्तारूढ़ लेबर सरकार समस्या के शीघ्र समाधान के पक्ष में थी।

कांग्रेस का चुनाव अभियान एवं आजाद हिंद फौज पर मुकदमा

1946 में सर्दियों में चुनावों के आयोजन की घोषणा की गयी। इन चुनावों में अभियान के समय राष्ट्रवादी नेताओं के समक्ष यह उद्देश्य था कि वे न केवल वोट पाने का प्रयास करें अपितु लोगों में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को और सशक्त बनायें।

चुनाव अभियान में राष्ट्रवादियों ने 1942 के भारत छोड़े आंदोलन के दौरान सरकार की दमनकारी नीतियों की खुलकर आलोचना की। कांग्रेसी नेताओं ने शहीदों की देशभक्ति एवं त्याग की प्रशंसा तथा सरकार की आलोचना करके भारतीयों में देश प्रेम की भावना को संचारित करने का प्रयत्न किया। कांग्रेस के नेताओं ने 1942 के आंदोलन में नेतृत्वविहीन जनता के साहसी प्रतिरोध की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। अनेक स्थानों पर शहीद स्मारक बनाये गये तथा पीड़ितों को सहायता पहुंचाने के लिये धन एकत्रित किया गया। सरकारी दमन की कहानियों को विस्तार से जनता के मध्य सुनाया जाता था, दमनकारी नीतियां अपनाने वाले की धमकी दी जाती थी।

किंतु सरकार इन गतिविधियों में रोक लगाने में असफल रही। राष्ट्रवादियों के इन कार्यों से जनता सरकार से और भयमुक्त हो गयी। उन सभी प्रांतों में कांग्रेस की सरकार की स्थापना लगभग सुनिश्चित हो गयी, जहां सरकारी, दमन ज्यादा बर्बर था। इन कारणों से सरकार परेशान हो गयी। अब सरकार कांग्रेस के साथ कोई ‘सम्मानजनक समझौता’ करने हेतु मजबूर सी दिखने लगी।

सरकार द्वारा आजाद हिंद फौज के सैनिकों पर मुकदमा चलाये जाने के निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में जितनी तीव्र प्रतिक्रिया हुयी उसकी कल्पना न तो कांग्रेसी नेताओं को और न ही सरकार की थी। पूरा देश इन सैनिकों के बचाव में आगे आ गया। इससे पहले सरकार ने यह यह निर्णय लिया था कि इन सैनिकों पर मुकदमा चलाया जायेगा। कांग्रेस ने सैनिकों के बचाव हेतु आजाद हिंद फौज बचाव समिति का गठन किया। सैनिकों को आर्थिक सहायता देने तथा उनके लिये रोजगार की व्यवस्था करने हेतु आजाद हिंदू फौज राहत तथा जांच समिति भी बनायी गयी।

आजाद हिंद फौज का मानसिक प्रभाव अत्यंत प्रबल था और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण था, आजाद हिंद फौज के बंदी बनाये गये सैनिकों की रिहाई के पक्ष में जन और नेतृत्व-स्तर पर राष्ट्रीय आंदोलन। इस संदर्भ में दो साम्राज्यवादी नीतियों का सशक्त प्रभाव पड़ा। एक, तो पहले ही सरकार ने आजाद हिन्द फौज के कैदियों पर सार्वजनिक मुकदमा चलाने का निर्णय लिया, तथा दूसरा, मुकदमा नवंबर में लाल किले में एक हिन्दू (प्रेम कुमार सहगल), एक मुसलमान (शाहनवाज खान) तथा एक सिख (गुरुबख्श सिंह ढिल्लो) को एक ही कटघरे में खड़ा करके चलाया गया। बचाव पक्ष में भूलाभाई देसाई और तेजबहादुर सप्रू के साथ नेहरू भी थे। काटजू एवं आसफ अली उनके सहायक थे।

इसके अतिरिक्त वियतनाम एवं इंडोनेशिया में भी उपनिवेशी शासन की स्थापना हेतु भारतीय सेना की टुकड़ियों का प्रयोग किये जाने से ब्रिटिश विरोधी भावनायें पुख्ता हुयीं। इससे शहरी वर्ग एवं सैनिकों दोनों में असंतोष जागा।

आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों को कांग्रेस का समर्थन

  • द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत 1945 में बंबई में पहली बार आयोजित हो रहे कांग्रेस के अधिवेशन में आजाद हिंद फौज के कैदियों के समर्थन में एक सशक्त प्रस्ताव पारित किया गया तथा उन्हें पूर्ण सहयोग देने की घोषणा की गयी।
  • आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों पर चलाये जा रहे मुकदमें में भूलाभाई बचाव पक्ष की ओर से प्रस्तुत हुये तथा इनके समर्थन में वकालत की।
  • आजाद हिंद फौज जांच एवं राहत समिति ने युद्धबंदियों एवं उनके आश्रितों के लिये धन एवं खाद्यान्न की व्यवस्था की तथा उनके लिये रोजगार के अवसर जुटाये।
  • जनता को समर्थन देने के लिये प्रेरित किया।

आजाद हिन्द फौज के युद्धबंदियों के समर्थन में चलाया गया आंदोलन कई दृष्टि से महत्वपूर्ण था

आजाद हिन्द फौज के युद्धबंदियों को रिहा करने के लिये भारतीयों ने जिस अभूतपूर्व एकता का परिचय दिया तथा इसके समर्थन में जो राष्ट्रव्यापी आंदोलन एवं प्रदर्शन किये गये, वह अप्रत्याशित था। इस संबंध में चलाये जा रहे विरोध प्रदर्शन को समाचार-पत्रों ने प्रमुखता से स्थान दिया। इससे आंदोलन को काफी लोकप्रियता मिली। आदोलन के समर्थन में समाचार-पत्रों में सम्पादकीय लेख लिखे गये तथा पैम्फलेट्स बांटे गये। इनमें सरकार की धमकी दी जाती थी तथा जनता से आंदोलन के समर्थन में आगे आने का आह्वान किया जाता था। इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों पर सभाओं का आयोजन किया जाता था तथा सरकार के विरुद्ध तीव्र प्रदर्शन किया जाता था।

1 से 11 नवंबर तक आजाद हिंद फौज सप्ताह का आयोजन किया गया तथा 12 नवंबर 1945 को अस्पताद हिंद फौज दिवस मनाया गया।

सामाजिक और भौगोलिक दृष्टि से भी आंदोलन का दायरा काफी बड़ा था। समाज के सभी वगों तथा सभी राजनीतिक दलों ने इस आंदोलन का समर्थन किया। दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बम्बई,मद्रास तथा संयुक्त प्रांत आन्दोलन के प्रमुख केंद्र थे। किंतु अजमेर, बलूचिस्तान, असम, कुर्ग, ग्वालियर तथा दूर-दराज के गांवों में भी आंदोलन का काफी प्रभाव था। सरकार के विरुद्ध जनता विभिन्न तरीकों से अपने रोष का प्रदर्शन कर रही थी। छात्र सबसे अधिक सक्रिय थे। छात्रों ने न केवल शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया अपितु सभाओं, प्रदर्शनों एवं हड़तालों का आयोजन भी किया भी किया। कई स्थानों पर पुलिस से उनकी मुठभेड़ भी हुयी। दुकानदारों ने दुकानें बंद कर दी। कोष एकत्रित किया गया। कोष में नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों, गुरुद्वारा तथा अमरावती के तांगे वालों इत्यादि ने चंदा दिया। विभिन्न स्थानों पर किसान सभायें आयोजित की गयीं तथा अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों को रिहा करने की मांग की गयी।

जिन राजनीतिक दलों ने आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों का समर्थन किया,  उनमें- कंग्रेस, मुस्लिम लीग, कम्युनिस्ट पार्टी यूनियनवादी, अकाली जस्टिस पार्टी, रावलपिंदी के अहरार, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिंदी मह्रासभा एवं सिक्ख लीग प्रमुख थीं।

आजाद हिंद फौज आंदोलन की व्यापकता इतनी अधिक थी कि अभी तक ब्रिटिश राज के परम्परागत समर्थक माने जाने वाले सरकारी कर्मचारी एवं सशस्त्र सेनाओं के लोग भी सरकार के विरुद्ध हो गये तथा उन्होंने आंदोलनकारियों का समर्थन किया। सरकारवादियों और उदारवादियों दोनों ने सरकार से आग्रह किया कि भारत एवं ब्रिटेन के संबंधों को अच्छा बनाये रखने के लिये वह युद्धबंदियों को रिहा कर दे। सरकारी कर्मचारियों तथा सशस्त्र सेनाओं के लोगों को युद्धबंदियों से पूरी सहानुभूति थी। वे सरकार विरोधी सभाओं में जाते थे, भाषण सुनते थे तथा पैसे भी भेजते थे।

इस प्रकार आजाद हिंद फौज के आंदोलन ने, न केवल यह सिद्ध किया कि भारतीयों के संबंध में किसी भी प्रकार का निर्णय लेने का अधिकार केवल भारतीयों को है, बल्कि उसने यह अधिकार प्राप्त भी किया, ब्रिटेन, आजाद हिन्द फौज के मुद्दे की महत्ता से भली-भांति परिचित हो चुका था। अब भारत बनाम इंगलैंड का मुद्दा बिल्कुल स्पष्ट हो चुका था तथा दिन-ब-दिन भारतीय आंदोलन पूर्ण आजादी के रंग से रंगने लगा।

1945-46 की सर्दियों में विद्रोह की तीन घटनायें

1946-56 की सर्दियों में भारतीयों की प्रखर राष्ट्रवादी भावना का उभार, अंग्रेज अधिकारियों के साथ टकराव के रूप में सामने आया। इस समय विद्रोह की तीन घटनायें हुयीं-

  • 21 नवंबर 1945- कलकत्ता में, आजाद हिंद फौज पर मुकद्दमें को लेकर।
  • 11 फरवरी, 1946- कलकत्ता में; आजाद हिंद फौज के अधिकारी राशिद अली को 7 वर्ष का कारावास सुनाए जाने को लेकर
  • 18 फरवरी 1946- बंबई में; जब रॉयल इंडियन नेवी के नाविकों ने हड़ताल कर दी।

इन तीनों विद्रोहों का रूप लगभग एक जैसा था-

छात्रों या नाविकों के किसी समूह द्वारा अधिकारियों की बात मानने से इंकार कर देना और फिर उनका दमन करना

विद्रोह-1

21 नवंबर, 1945: इस दिन फारवर्ड ब्लाक के छात्रों का जुलूस, कलकत्ता में सरकारी सत्ता के केंद्र डलहौजी स्क्वायर की ओर बढ़ा। जुलूस में छात्र फेडरेशन एवं इस्लामिया कालेज के छात्र भी सम्मिलित थे। पुलिस ने प्रदर्शनकारी छात्रों पर लाठी चार्ज किया पर वह छात्रों को तितर-बितर करने में सफल नहीं हो सकी। उल्टे छात्रों ने पुलिस पर ईट-पत्थर फैके। इसके जवाब में पुलिस ने छात्रों पर गोलियां चला दी। इस घटना में 2छात्रों की मृत्यु हो गयी तथा 52 छात्र घायल हो गये।

विद्रोह-2

11 फरवरी, 1946: विद्रोह की यह दूसरी घटना आजाद हिंद फौज के कैप्टन अब्दुल रशीद को सात वर्ष का कारावास दिये जाने के निर्णय से संबंधित थी। इस घटना में एक प्रतिवादी जुलूस निकाला गया, जिसका नेतृत्व मुस्लिम लीग के छात्रों ने किया। कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन भी इस जुलूस में सम्मिलित हुये। पुलिस ने धर्मतल्ला स्ट्रीट पर कुछ प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया। इससे छात्र उत्तेजित हो गये तथा विरोधस्वरूप उन्होंने डलहौजी स्क्वायर क्षेत्र में धारा 144 का उल्लंघन किया। इसके परिणामस्वरूप पुलिस ने लाठी चार्ज किया तथा कई और लोगों को बंदी बना लिया।

विद्रोह-3

18 फरवरी, 1946: रायल इंडियन नेवी (भारतीय शाही सेना) के इस विद्रोह की शुरुआत बंबई में हुयी, जब एच.एम.आई.एस. तलवार के 1100 नाविकों ने निम्न कारणों से हड़ताल कर दी

  • नस्लवादी भेदभाव- भारतीय नाविक, अंग्रेज सैनिक के बराबर वेतन की मांग करने लगे
  • अखाद्य भोजन।
  • नाविक वी.सी. दत्त द्वारा एच.एम.आई. एस. तलवार की दीवारों पर भारत छोड़ो लिखने के आरोप के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। रायल इंडियन नेवी के नाविक उन्हें रिहा करने की मांग कर रहे थे।
  • आजाद हिंद फौज पर मुकदमा।
  • इंडोनेशिया में भारतीय सेना का प्रयोग तथा उसकी वापसी की मांग।

आंदोलनकारियों ने तिरंगे फहराये तथा जहाजी बेड़ों में जगह-जगह झंडे लगा। दिये। शीघ्र ही कैसेल और फोर्ट बैरक भी हड़ताल में शामिल हो गये। आन्दोलनकारी कांग्रेस के झंडों से सजी गाड़ियों में बैठकर पूरे बंबई में घूमने लगे। उन्होंने कुछ स्थानों पर यूरोपियों एवं पुलिसवालों को धमकाया तथा कुछ दुकानों के कांच तोड़ दिये। भारतीयों ने आंदोलनकारियों को भोजन पहुंचाया तथा दुकानदारों ने उन्हें आमंत्रित किया कि वे अपनी आवश्यकता की वस्तुयें दुकानों से निःशुल्क ले सकते हैं।

पूरे शहर के लोगों का आंदोलनकारियों की मांगों में शामिल हो जाना

विद्रोह के दूसरे चरण में शहर के लगभग सभी लोग आंदोलनकारियों के साथ हो गये। इस चरण में ब्रिटिश-विरोधी भावनायें अत्यंत उग्र हो गयीं तथा बंबई एवं कलकत्ता में सारा काम-काज ठप्प पड़ गया। शुरू में शहरवासियों ने आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन किया तथा उनकी मांगों के समर्थन में सभाओं, जुलूस एवं हड़तालों का आयोजन किया। बाद में जगह-जगह अवरोध खड़े किये गये, गलियों और मकानों की छतों से लड़ाइयां की गयीं, यूरोपियों पर हमले किये गये तथा थानों, बैंकों, डाकघरों एवं अनाज की दुकानों में आग लगा दी गयी। एक इसाई संगठन वाई.एम.सी.ए. के केंद्र में भी आगजनी की घटना हुई। ट्राम के दफ्तरों एवं रेलवे स्टेशनों पर भी आक्रमण किये गये तथा बलपूर्वक रेल एवं सड़क यातायात को अवरुद्ध कर दिया गया।

देश के दूसरे हिस्से के लोगों द्वारा आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति और एकजुटता की अभिव्यक्ति

इस चरण में देश के अन्य हिस्से के छात्रों ने आंदोलनकारी छात्रों एवं नाविकों के समर्थन एवं सहानुभूति में शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया तथा हड़तालों एवं प्रदर्शनों का आयोजन किया। छात्रों ने जुलूस भी निकाले तथा सरकार की भर्त्सना की। दूसरे जहाज के नाविकों ने भी विद्रोह कर दिया। बंबई के बाद कराची में नाविकों ने हड़ताल की। एच.एम.आई.एस. हिन्दुस्तान तथा एक अन्य जहाज के नाविकों और तीन तटवर्ती प्रतिष्ठान के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। मद्रास, विशाखापट्टनम,  कलकत्ता, दिल्ली, कोचीन, जामनगर अंडमान, बहरीन एवं अदन में भी रक्षा प्रतिष्ठानों के कर्मचारियों ने सांकेतिक हड़ताल कर दी। बंबई, पूना, कलकत्ता, जैसोर तथा अंबाला में रायल इंडियन एयर फोर्स के कर्मचारियों ने सहानुभूति हड़ताल की। जबलपुर एवं कोलाबा के सैनिकों ने भी असंतोष व्यक्त किया। वल्लभभाई पटेल एवं मुहम्मद अली जिन्ना ने नाविकों से आग्रह किया कि वे आत्मसमर्पण कर दें तथा उन्हें आश्वासन दिया कि सभी राष्ट्रीय दल, आंदोलनकारियों के विरुद्ध चलाये गये मुकदमों में उनका पूर्ण सहयोग करेंगे।

विद्रोह की तीनों घटनाओं की शक्ति तथा उनके प्रभाव का मूल्यांकन विद्रोह की ये तीनों घटनायें कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण थीं-

  • इनके द्वारा जनता के बेखौफ लड़ाकूपन की समर्थ अभिव्यक्ति हुयी।
  • सशस्त्र सेनाओं के विद्रोह का जनता के मनो-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा वह बिल्कुल निर्भीक हो गयी।
  • रायल इंडियन नेवी के विद्रोह को भारतीयों ने ब्रिटिश शासन की पूर्ण समाप्ति के रूप में देखा तथा इस तिथि को वे स्वतंत्रता दिवस की तरह मानने लगे।
  • इन विद्रोहों ने ब्रिटिश सरकार को कुछ रियायतें देने हेतु विवश किया। जैसे-

1 दिसंबर 1946 को सरकार ने घोषणा की कि, आजाद हिंद फौज के केवल उन्हीं सैनिकों पर मुकद्दमा चलाया जायेगा, जिन पर हत्या या क्रूर अपराधों में शामिल होने का आरोप है।

  • जनवरी 1947 में पहले बैच को कैद की दी गयी सजा समाप्त कर दी गयी।
  • फरवरी 1947 तक हिन्द-चीन एवं इंडोनेशिया से भारतीय सैनिकों को वापस बुला लिया गया।
  • एक उच्चस्तरीय संसदीय शिष्टमंडल भारत भेजने का निर्णय किया गया।
  • जनवरी 1946 में भारत में कैबिनेट मिशन भेजने का निर्णय भी लिया गया।

लेकिन ब्रिटिश सरकार से इस प्रत्यक्ष, उग्रवादी एवं हिंसक मुठभेड़ की कुछ सीमायें भी थीं। इसमें समाज के सापेक्षिक रूप से ज्यादा लड़ाकू हिस्से ही शामिल हो सकते थे। इन विद्रोहों में उन उदारवादियों एवं परंपराप्रिय समूहों के लिये कोई स्थान न था जिन्होंने आई.एन.ए. के युद्धबंदियों का समर्थन किया था, या जो इससे पूर्ववर्ती विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों के आधार स्तंभ थे। ये विद्रोह एवं उसमें जनता की सहभागिता अल्पकालिक थी। हड़तालों में भी मजदूर ही सबसे ज्यादा सक्रिय थे, बाकी अन्य वर्ग ज्यादा तत्पर नहीं दिखाई दिये।

विद्रोह का प्रसार भी सीमित था तथा यह कुछ शहरों तक ही सीमित रहा, जबकि आज़ाद हिन्द फ़ौज के युद्ध बंदियों के समर्थन से चलाया गया आन्दोलन दूरदराज के गांवों में भी पहुंचा था। विद्रोह के सीमित प्रसार के कारण सरकार को दमन करने एवं नियंत्रण स्थापित करने में आसानी हुयी। थलसेना ने भी रायल इंडियन नेवी के नाविकों का साथ नहीं दिया, इससे ब्रिटिश सरकार को नाविकों के विद्रोह को दबाने में उसकी सहायता मिल सकी। बंबई में तो मराठा बटालियन ने नाविकों को घेर लिया और खदेड़कर उन्हें उनकी बैरकों में पहुंचा दिया।

इस विद्रोह के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण यह तथ्य भी उभरकर सामने आया कि अभी भी ब्रिटिश सरकार की दमन करने की नीति अक्षुण्ण थी और उसके कठोर इस्तेमाल का इरादा भी बना हुआ था। नौकरशाही के मनोबल में उल्लेखनीय गिरावट आगे के बावजूद भी सरकार दमन का सहारा लेकर किसी भी आंदोलन को कुचलने की रणनीति अपनाने लग गई थीं।

इस विद्रोह के दौरान जो सांप्रदायिक एकता परिलक्षित हुयी उसकी भी सीमाएं थीं। यह जन-एकता कम संगठनात्मक एकता ज्यादा थी। केवल रशीद अली के मुकदमे का प्रतिवाद करने के मुद्दे पर ही कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठनों में एकता स्थापित हो सकी तथा यह एकता भी कुछ समय के लिये ही थी।

कलकत्ता, जहां फरवरी 1946 में लोगों ने नाविकों के समर्थन में सराहनीय एकता प्रदर्शित की थी, अगस्त 1946 में सांप्रदायिक दंगों की आग में जल उठा। यद्यपि नाविकों ने मुस्लिम लीग, कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट पार्टी तीनों के झंडे साथ-साथ जहाजों पर लगाये थे किंतु वैचारिक स्तर पर उनमें तीव्र मतभेद थे तथा सम्प्रदायवाद से वे गहरे प्रभावित थे। नीतिगत मसलों पर विचार-विमर्श के लिये अधिकांश नाविक जहां कांग्रेस के पास जाते थे, वहीं मुसलमान नाविकों का ज्यादा झुकाव मुस्लिम लीग की ओर था। राष्ट्रवादी नेताओं ने भी अपने संप्रदाय विशेष के नाविकों को अपने प्रयासों से प्रभावित करने की चेष्टा की। यह अवधारणा कि इन विद्रोहों में प्रदर्शित साम्प्रदायिक एकता को यदि राष्ट्रवादी नेता सुदृढ एवं स्थायी बना देते तो देश को विभाजन की आग से बचाया जा सकता था, एक विचारात्मक प्रतिक्रिया है। यद्यपि इस तथ्य में कोई यथार्थ नहीं है। अधिकांश इतिह्रासकारों का भी यही मत है।

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