राजपूत काल The Rajput Age

हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् भारतीय इतिहास के रंगमंच पर कई छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ। यां प्राचीन भारतीय इतिहास के गौरव के अवसान का युग था। भारतीय इतिहास के प्राचीन युग के अवसान और पूर्व मध्ययुग के आगमन का सन्धि काल राजपूत युग के नाम से प्रसिद्ध है। राजपूत उन राजकुलों, राजवंशों एवं पराक्रमी सेनानियों का सामूहिक नाम है जो अपने शस्त्र-बल पौरुष और पराक्रम के लिए इतिहास में सुविख्यात हैं। सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद भारतवर्ष में जिन छोटे-बड़े अनेक राज्यों का उदय हुआ था। उन राज्यों की स्थापना और आधिपत्य के मुख्य सूत्रधार राजपूत थे। किन्तु यह इतिहास की विडम्बना हा की जिन राजपूतों के राजकुलों ने भारतीय इतिहास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, उनका उत्पत्ति का प्रश्न आज भी विवादित ही कहा जायेगा। राजपूत शब्द संस्कृत भाषा के राजपुत्र शब्द से निकला है। राजपुत्र शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है राजा का पुत्र हर्ष चरित्र और पुराणों में इसी अर्थ में राजपूत शब्द का प्रयोग हुआ है।

राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इतिहासकारों ने अपने-अपने विचार प्रतिपादित किए हैं। राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में मुख्यतया तीन परस्पर विरोधी मान्यताएँ प्रचलित हैं। ये मान्यताएँ संक्षेप में इस प्रकार हैं-

  • प्राचीन क्षत्रिय सिद्धान्त
  • अग्निकुंड की उत्पत्ति का सिद्धान्त
  • विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त

जहां तक कि प्राचीन क्षत्रिय सिद्धान्त का प्रश्न है, इस सिद्धान्त के अनुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक गौरीशंकर, हीराचन्द ओझा, सी.वी. वैद्य तथा उनकी परम्परा के कई अन्य विद्वान हैं। इन विद्वानों ने प्राचीन अनुश्रुतियों, अभिलेखों तथा साहित्यिक स्रोतों के आधार पर यह स्थापित किया है कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा मेवाड़ के सिसोदिया और चालुक्य को श्रीराम का वंशज बताया है। भोज ग्वालियर अभिलेख तथा बाउक जोधपुर अभिलेख में प्रतिहारों ने अपने को प्रभु श्री राम के भाई लक्ष्मण की संतान बताया है। एक अनुश्रुति के अनुसार हारीत के कमण्डल से चालुक्य की उत्पत्ति हुई थी। प्रतिहार सम्राटों ने अपने को इक्ष्वाकु अथवा सूर्यवंशीय क्षत्रिय कहा है। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार,  चाहमान अथवा राजपूत सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। पृथ्वी राज रासो में जिन छत्तीस राज्बंशों का उल्लेख किया गया है, उनमें से सभी सूर्य, चन्द्र अथवा यदुवंशी बतलाए गए हैं। इस प्रकार उपर्युक्त आधारों पर राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों का वंशज बताया गया है, जिनका मुख्य कार्य-व्यवसाय शासन और सुरक्षा थी।

राजपूतों की उत्पत्ति का दूसरा सिद्धान्त, उनकी उत्पत्ति में अग्निकुण्ड से उत्पत्ति के विचार का प्रतिपादन करता है। अग्निकुण्ड सिद्धान्त का प्रतिपादन पृथ्वीराज रासों में मिलता है। पृथ्वी राजरासो में कहा गया है कि जब पृथ्वी पर म्लेच्छों के अत्याचारों में ऐसी वृद्धि हो गई कि वे असह्य हो गए तब इन अत्याचारियों का दमन करने के लिए महर्षि वशिष्ठ ने आबू पर्वत पर एक अग्निकुण्ड का निर्माण करके यज्ञ किया। इस अग्निकुण्ड में चार योद्धा अर्थात् परमार, चाहमान, चालुक्य और प्रतिहार निकले। भारत के राजपूत इन्हीं चारों की की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई। अतएव इन्हें अग्निवंशीय कहा गया है। किन्तु अधिकांश इतिहासकार इस सिद्धांत को कल्पना पर आधारित मानते हैं।

अनेक विद्वानों के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति विदेशियों तथा अनार्यों से हुयी। इस वर्ग में आने वाले विद्वानों में कर्नल टाड, विलियम्स क्रुक, स्मिथ तथा  भारतीय इतिहासकार भंडारकर हैं। राजस्थान के इतिहास एनल्स एंड एंरीक्रिरीज ऑफ़ राजस्थान के प्रसिद्द प्रणेता कर्नल टाड के अनुसार, राजपूत मध्य एशिया की शक अथवा सीथियन जाति की संतान है। उनकी इस मान्यता का आधार शकों तथा राजपूतों के रीति-रिवाज में समानाएं हैं। कर्नल टाड के मत का करते हुए स्मिथ महोदय ने लिखा है कि मुझे इस बात में कोई सन्देह कि शकों तथा कुषाणों के राजवंश, हिन्दू धर्म स्वीकार करने के बाद जाती व्यवस्था में क्षत्रियों के रूप में सम्मिलित कर लिए गए।’ स्मिथ महोदय ने कतिपय राजपूत वंशों को अनायों की भी सन्तान माना है। उनका कहना है कि विदेशियों की भांति दक्षिण की अनेक अनार्य जातियां राठौर, चन्देल तथा गहड़वाल आदि राजपूत वंश इन्हीं भारतीयकृत अनार्य जातियों की सन्तान हैं। विलियम क्रुक भी राजपूतों को विदेशियों की सन्तान मानते हैं। डॉ. भण्डारकर के अनुसार भी राजपूत विदेशियों की सन्तान हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ईश्वरी प्रसाद राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति में विश्वास करते हैं किन्तु डॉ. ईश्वरी प्रसाद क्षत्रियों को निम्न वंश में उत्पन्न नहीं मानते। किन्तु सी.वी. वैद्य तथा गौरीशंकर हीराचन्द ओझा तथा कतिपय अन्य विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार, डॉ. हरीराम तथा डॉ. दशरथ शर्मा ने राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति के सिद्धान्त को अस्वीकार करते हुए यह स्थापित किया है कि अधिकांश राजपूत परिवार प्राचीन क्षत्रियों या ब्राह्मणों की सन्तान हैं। इस प्रसंग में डॉ. मजूमदार के अनुसार मेवाड़ के गहलौत राजपूत वंश का संस्थापक रावल ब्राह्मण था। इसी प्रकार गुर्जर-प्रतिहार राजकुल संस्थापक हरीसेन ब्राह्मण था जिसकी एक पत्नी ब्राह्मण थी और दूसरी क्षत्रिय। डॉ. दशरथ शर्मा ने अपनी पुस्तक अर्ली चौहान डायनेस्टीज़ में डॉ. मजूमदार के विचारों का समर्थन किया तथा प्राचीन मुद्राओं और अभिलेखों के आधार पर टाड और स्मिथ जैसे विद्वानों की मान्यताओं को असंगत बताया है। इस प्रकार राजपूतों के विदेशी मूल का सिद्धांत प्रमाणित नहीं मन गया है। अधिकंध विद्वानों की यह धरना है की राजपूत मूलतया भारतीय हैं, हां उनमे कुछ वे ऐसे लोग भी आत्मसात हो गए जो मूलतया विदेशी थे किन्तु जिन्होंने भारत और भारतीयता को अंगीकार कर लिया था।

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