सूफी मत Sufism

जिस प्रकार मध्यकालीन भारत में हिन्दुओं में भक्ति-आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, उसी प्रकार मुसलमानों में प्रेम-भक्ति के आधार पर सूफीवाद का उदय हुआ। सूफी शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई, इस विषय पर विद्वानों में विभिन्न मत है। कुछ विद्वानों का विचार है कि इस शब्द की उत्पत्ति सफा शब्द से हुई। सफा का अर्थ पवित्र है। मुसलमानों में जो सन्त पवित्रता और त्याग का जीवन बिताते थे, वे सूफी कहलाये। एक विचार यह भी है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति सूफा से हुई, जिसका अर्थ है ऊन। मुहम्मद साहब के पश्चात् जो सन्त ऊनी कपड़े पहनकर अपने मत का प्रचार करते थे, वे सूफी कहलाये। कुछ विद्वानों का विचार है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द सोफिया से हुई, जिसका अर्थ ज्ञान है।

इस काल के प्रसिद्ध सूफी सन्तों में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा कुतुबुद्दीन, सन्त फरीद और निजामुद्दीन औलिया प्रमुख थे। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती मुहम्मद गोरी के साथ भारत आये और अजमेर को उन्होंने अपना निवास-स्थान बनाया। हिन्दू और मुसलमान, दोनों पर इनके सिद्धान्तों का गहरा प्रभाव पड़ा। आज भी अजमेर में इनकी समाधि पर हजारों श्रद्धालु भक्त देश के विभिन्न भागों से आते हैं।

ख्वाजा कुतुबुद्दीन इल्तुतमिश के शासन-काल में दिल्ली आए। सुल्तान इल्तुतमिश इनसे बड़ा प्रभावित था। यह बड़ी सादगी और पवित्रता का जीवन बिताते थे। इनके प्रसिद्ध शिष्य सन्त फरीद हुए। सन्त फरीद का वास्तविक नाम ख्वाजा मसूदा बिन कमालुद्दीन था। इन्होंने प्रेम एवं पवित्रता का उपदेश दिया।

शेख निजामुद्दीन औलिया प्रसिद्ध सूफी सन्त हुए हैं। यह ग्यासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद तुगलक के समकालीन थे। दिल्ली इनके कार्यकलापों का प्रमुख केन्द्र थी। मुहम्मद तुगलक इनका प्रिय शिष्य था। सुल्तान ग्यासुद्दीन इनसे अप्रसन्न रहता था। उसकी अप्रसन्नता का कारण यह था कि खुसरो ने जो धन औलिया को दान दिया था, वह ग्यासुद्दीन तुगलक ने सुल्तान बनते ही उनसे वापस माँगा, परन्तु औलिया ने वह धन दीन-दुखियों में बाँट दिया था। निजामुद्दीन औलिया का जनसाधारण पर बड़ा प्रभाव था और इस कारण सुल्तान भी उनका कुछ न बिगाड़ सका। जब सुल्तान बंगाल-विजय से लौट रहा था, उसने शेख को धमकी भरा सन्देश भेजा कि वह दिल्ली पहुँचने पर उसे समझ लेगा। औलिया ने इसके उत्तर में कहा- हनोज दिल्ली दूर अस्तअर्थात् दिल्ली अभी दूर है। ग्यासुद्दीन तुगलक दिल्ली न पहुँच सका और लकड़ी का महल गिरने से रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई। औलिया की समाधि निजामुद्दीन (दिल्ली) में है, जहाँ हजारों श्रद्धालु अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं।

सूफी मत के विभिन्न सम्प्रदाय

सूफी मत आगे चलकर विभिन्न सिलसिलों (सम्प्रदायों) में विभाजित हो गया। इन सम्प्रदायों की निश्चित संख्या के बारे में मतभेद है। इनकी संख्या 175 तक मानी जाती है। अबुल फजल ने आइन में 14 सिलसिलों का उल्लेख किया है। इन सम्प्रदायों में से भारत में प्रमुख रूप से चार सम्प्रदाय- चिश्ती, सुहारावर्दी, कादरी और नक्शबन्दी अधिक प्रसिद्ध हुए।

चिश्ती सम्प्रदाय- भारत में चिश्ती सम्प्रदाय सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध हुआ। भारत में चिश्ती सम्प्रदाय की स्थापना मुईनुउद्दीन चिश्ती ने की। मुईनुद्दीन चिश्ती 1192 ई. में मुहम्मद गौरी के साथ भारत आये थे। इन्होंने अजमेर को चिश्ती सम्प्रदाय का केन्द्र बनाया। अजमेर से इन्होंने दिल्ली का भी भ्रमण किया। मुईनुउद्दीन चिश्ती हिन्दू और मुसलमान दोनों में लोकप्रिय थे और दोनों धर्मों में इनके शिष्य थे। इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्यों ने चिश्ती सम्प्रदाय के कार्य को आगे बढ़ाया। चिश्ती सम्प्रदाय में मुईनउद्दीन चिश्ती के अतिरिक्त जो प्रमुख सन्त हुए, वे थे- ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, ख्वाजा फरीदउद्दीन मसूद गंज-ए-शिकार, शेख निजामुद्दीन औलिया, शेख नसीर-उद्दीन चिराग-ए-दिल्ली, शेख अब्दुल हक, हजरत अशरफ जहाँगीर, शेख हुसम उद्दीन मानिक पुरी और हजरत गेसू दराज।


शेख मुईनुउद्दीन चिश्ती की अजमेर में समाधि आज भी तीर्थस्थल बना हुआ है, जहाँ प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में मुसलमान और हिन्दू एकत्र होते हैं। मुईनउद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने चिश्ती सम्प्रदाय को और अधिक विस्तृत बनाया। काकी सुल्तान इल्तुतमिश के समकालीन थे। इल्तुतमिश उनका बड़ा सम्मान करता था। उसने इन्हें शेख उल इस्लाम का उच्च पद देने का प्रस्ताव किया, परन्तु इन्होंने सुल्तान से किसी भी प्रकार का पद और सम्मान लेना स्वीकार नहीं किया। काकी के उत्तराधिकारी ख्वाजा फरीद उद्दीन मसूद गंजे शिकार माया-मोह से कोसो दूर रहते थे। वह अत्यन्त सादगी और संयम का जीवन व्यतीत करते थे। 93 वर्ष की आयु में 1265 ई. में उनका देहान्त हो गया। उनके कार्य को उनके प्रसिद्ध होनहार शिष्य निजामुद्दीन औलिया ने आगे बढ़ाया।

शेख निजामुद्दीन औलिया ने अपने मत का केन्द्र दिल्ली को बनाया और बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की। शेख निजामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का शासन काल देखा था। वे किसी भी सुल्तान के दरबार में उपस्थित नहीं हुए। सुल्तान ग्यासुउद्दीन तुगलक उनकी लेाकप्रियता और उनके बढ़ते प्रभाव से ईर्ष्या करता था। सुल्तान का पुत्र जूना खाँ (मुहम्मद तुगलक) भी उनका शिष्य बन गया था। महान् कवि और लेखक अमीर खुसरो औलिया के शिष्य थे। शेख निजामुउद्दीन औलिया के शिष्यों ने उनके कार्यों को आगे बढ़ाया और चिश्ती सम्प्रदाय ने भारत में बड़ी लोकप्रियता अर्जित की।

चिश्ती सम्प्रदाय की लोकप्रियता के कारण- अन्य सूफी सम्प्रदायों की अपेक्षा चिश्ती सम्प्रदाय भारत में सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ। इसकी लोकप्रियता के निम्नलिखित कारण थे-

  1. सूफी चिश्ती सन्तों ने अपने को जनसाधारण से जोड़ा। वे गरीबों, असहायों के सहायक थे। उन्होंने सांसारिक प्रलोभनों से अपने को बहुत दूर रखा। दिल्ली के सुल्तानों द्वारा प्रदान किये जाने वाले किसी भी पद, प्रलोभन को ठुकरा दिया। इस प्रकार वे दरिद्र के सबसे सच्चे हितैषी सिद्ध हुए।
  2. सूफी चिश्ती सन्त आडम्बर से कोसों दूर थे। उन्होंने स्वेच्छा से निर्धनता को अपनाया। वे घास-फूस की झोपडियों अथवा मिट्टी के मकानों में रहते थे। उनकी आवश्यकता बहुत सीमित थी। सादा जीवन उच्च विचार उनका आदर्श था। उनके इस आदर्श त्यागमय जीवन का जनता पर सीधा प्रभाव पड़ा।
  3. सूफी सन्तों का जीवन, सीधा, सादा और नियमित था। जिन बातों का वे उपदेश करते थे, उन पर स्वयं भी अमल करते थे। ऐसे सन्तों के जीवन से जनता प्रेरणा लेती थी।
  4. सूफी सन्तों ने धार्मिक आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया। उन्होंने भाईचारे की भावना पर जोर दिया। इनकी धार्मिक उदारता से हिन्दू भी प्रभावित हुए। डॉ. निजामी के शब्दों में- चिश्तियों ने भारत में अपने सिलसिलों के विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में हिन्दू प्रथाओं और रिवाजों को अपना लिया था। इस कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ने चिश्ती सन्तों से प्रेरणा और दिशा निर्देशन प्राप्त किया। ख्वाजा मुईनुउद्दीन चिश्ती के एक हिन्दू शिष्य रामदेव भी थे।
  5. चिश्ती सन्तों ने अपने मत का प्रचार करने के लिए जन साधारण की भाषा का प्रयोग किया। इस कारण इनके उपदेशों का आम जनता पर सीधा प्रभाव पड़ा।
  6. चिश्ती सन्तों ने अपने को इस्लाम की कट्टरता से दूर रखा। इस्लाम में संगीत का निषेध है, परन्तु सूफी सन्तों ने अपनी पूजा-अर्चना एवं प्रचार में संगीत का खुलकर प्रयोग किया।
  7. चिश्ती सन्त व्यवहारिक थे। गृहस्थ जीवन में भी इन्होंने जनसाधारण को साधना का मार्ग दिखाने का प्रयास किया। ईश्वर प्राप्ति के लिए घर का त्याग आवश्यक नहीं है, इस बात का प्रचार करते हुए, इन सन्तों ने पलायनवादी दृष्टिकोण छोड़ने को कहा। जनता के बीच में रहते हुए, उसकी तकलीफों का अनुभव करते हुए इन्होंने उसके कल्याण के लिए अपने प्रयास जारी रखे।
  8. चिश्ती सन्त भक्ति में लीन रहते थे। शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुसार ईश्वर भक्ति दो प्रकार की है- (1) लाजमी (2) मुताद्दी (प्रचारित)। प्रथम के अन्तर्गत खुदा की इबादत, उपवास, हज इत्यादि आते हैं और दूसरी के अन्तर्गत गरीब दीन दुखियों और असहाय लोगों की सहायता। दरिद्र नारायण की सेवा ही ईश्वर भक्ति का दूसरा रूप है। अपने इस दृष्टिकोण के कारण ही चिश्ती सन्त जनता में लोकप्रिय हुए।

सुहरावर्दिया सम्प्रदाय- शेख शहाबुद्दीन सुहरावर्दी इसके प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने शिष्यों को भारत जाकर उनके उपदेशों, सिद्धान्तों का प्रचार करने की प्रेरणा दी। उनके शिष्यों ने भारत में अपना प्रचार केन्द्र सिन्ध को बनाया। शेख हमीदुद्दीन नागौरी तथा शेख बहाउद्दीन जकारिया ने इस सम्प्रदाय के विचारों का बड़ा प्रचार किया। उन्होंने मुल्तान में अपनी खानकाह स्थापित की। जकारिया के पुत्र शर्दुद्दीन आरिफ उनके उत्तराधिकारी बने तथा उनके एक अन्य शिष्य सैयद जलालुद्दीन सुर्ख ने उच्छ में एक केन्द्र की स्थापना की। सैयद जलालुउद्दीन के तीन पुत्र हुए- सैयद अहमद कबीर, सैयद वहाउद्दीन, सैयद मोहम्मद शेख शर्दउद्दीन के पुत्र शेख रुकुनुद्दीन ने सुहरावर्दी सिलसिले को काफी प्रसिद्धि अर्जित कराई। उनकी तुलना चिश्ती सन्त निजामुद्दीन औलिया से की जा सकती है।

सुहरावर्दी सम्प्रदाय के सन्तों का जीवन- चिश्ती सन्तों के विपरीत सुहारावर्दी सन्त सम्पन्नता का जीवन बिताते थे। वे दिल्ली के सुल्तानों और अमीरों से दान प्राप्त करने में संकोच नहीं करते थे। शेख वहाउद्दीन जकारिया ने बहुत दौलत एकत्र की। ये सन्त सरकारी पद भी प्राप्त करने में कोई शर्म महसूस नहीं करते थे। वे अपने शिष्यों से भी उपहार स्वीकार करते थे। सुहरावर्दी सन्त लम्बे उपवासों और भूखे रहकर शरीर शुद्धि में यकीन नहीं करते थे। ये सन्त अपने समय की राजनीति में भी भाग लेते थे। इनकी खानकाह बड़ी होती थी और धन सम्पत्ति से परिपूर्ण होती थी। इन खानकाहों को सुल्तान से धन और जागीरें प्राप्त होती थी। इससे इन सन्तों को नियमित आय प्राप्त होती थी। इन खानकाहों में कई हॉल होते थे। इन खानकहों में कुछ भक्तजन स्थायी रूप से रहते थे और कुछ अस्थायी तौर पर आते जाते रहते थे। यात्री भी इन खानकाहों में आकर रात के समय रह सकते थे। खानकाह धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु होती थी। यहाँ के रहने वालों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे भाईचारे से रहते हुए ईश्वर प्रार्थना में लीन रहे और पवित्र जीवन बितायें।

कादरी सम्प्रदाय- कादरी सम्प्रदाय के प्रवर्तक बगदाद के शेख अब्दुल कादिर जिलानी (1077-1166 ई.) थे। भारत में इस सम्प्रदाय का प्रचार मख्दूम मुहम्मद जिलानी और शाह नियामतुल्ला ने किया। सैयद बन्दगी मुहम्मद ने 1482 ई. में सिन्ध को इस सम्प्रदाय का प्रचार केन्द्र बनाया। वहाँ से कालान्तर में यह सम्प्रदाय कश्मीर, पंजाब, बंगाल और बिहार तक फैला। इस सम्प्रदाय के अनुयायी संगीत के विरोधी थे।

नक्शबन्दिया सम्प्रदाय- तुर्किस्तान के ख्वाजा वहाअलदीन नक्शबन्द इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। यह सम्प्रदाय भारत में 16वीं शताब्दी में ख्वाजा मुहम्मद शाकी गिल्लाह वैरंग द्वारा आया। इस सम्प्रदाय के सन्तों ने इस्लाम की कट्टरता का विरोध किया। सन्तों ने धार्मिक आडम्बरों का विरोध किया और सादा सच्चा जीवन जीने का उपदेश दिया। इस सम्प्रदाय का दृष्टिकोण बुद्धिवादी होने के कारण यह सम्प्रदाय जन साधारण को अपनी ओर बड़ी संख्या में आकर्षित न कर सका।

सूफी सन्तों का जीवन और सिद्धान्त- सूफी सन्त सादगी और पवित्रता का जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने स्वेच्छा से निर्धनता को स्वीकार किया। वे व्यक्तिगत सम्पत्ति को आत्मिक विकास के लिए बाधक समझते थे। उनके निवास-स्थान आमतौर पर मिट्टी के बने होते थे। यद्यपि इन सन्तों में से अनेकों ने विवाह किया था, परन्तु उन्होंने सादगी का जीवन नहीं त्यागा था। सुल्तान की ओर से, इन संतों को पद और धन, दोनों देने का प्रस्ताव किया जाता था। ये सुल्तानों से अपने लिए कोई पदवी स्वीकार नहीं करते थे, न ही कोई वजीफा ही लेते थे। जनता जो स्वेच्छा से इन्हें दान करती थी, उसी में ये गुजारा करते थे। कभी-कभी ये संत भूखो मरने लगते थे, परन्तु ऐसी स्थिति में भी राजा या अमीरों से धन की याचना नहीं करते थे। शेख निजामुद्दीन औलिया के जीवन में कई मौके ऐसे आए जबकि उन्हें रात भर भूखा रहना पड़ा। ऐसे समय में वे कहा करते थे- अब हम खुदा के मेहमान है।

भौतिक इच्छाओं के दमन के लिए ये सन्त उपवास करते थे। उनके कपड़े साधारण होते थे। आमतौर पर उनके कपड़ों पर पैबन्द लगे होते थे, परन्तु ये फटे-पुराने कपड़े पहनकर गरीबी में रहना पसन्द करते थे।

सूफियों में चिश्ती सन्तों का ऐसा विश्वास था कि भावनाओं पर काबू रखना चाहिए। आचार-विचार शुद्ध रखने चाहिए। शेख फरीद सुबह उठकर नमाज पढ़ते थे तथा घण्टों ईश्वर के ध्यान में मौन रहते थे। निजामुद्दीन औलिया के बारे कहा जाता है कि वे प्रात:काल उठकर नमाज पढ़ते थे और बाद में समाधि चले जाते थे। दोपहर को वे विश्राम करते थे। वे लोगों से मिलते थे और रात्रि के समय नमाज पढ़ते थे तथा ध्यानमग्न हो जाते थे। सूफी सन्त मन की पवित्रता में विश्वास करते थे। उनका विश्वास था कि मुक्ति (निजाद) प्राप्त करने के लिए मनुष्य का मन बड़ा पवित्र होना चाहिए, क्योंकि ईश्वर शुद्ध मन में ही निवास करता है। वे ईश्वर-प्राप्ति के को मिटाना आवश्यक समझते थे, क्योंकि अह रहते व्यक्ति ईश्वर के दर्शन के योग्य नहीं होता।

चिश्ती सन्त उदार विचारों के थे। उनके कई रीति-रिवाज ऐसे थे जो हिन्दुओं से मिलते-जुलते थे। उनके प्रमुख सिद्धान्त थे- ईश्वर के प्रति प्रेम और मनुष्य की सेवा। वे अद्वैतवाद के सिद्धान्त में विश्वास करते थे। इस कारण बहुत से हिन्दू उनके भक्त बन गये। इन सन्तों की सादगी और सरल रहन-सहन के ढंग ने हिन्दुओं को बड़ा प्रभावित किया। ये सन्त मनुष्य की सेवा को सारी भक्ति से ऊँचा मानते थे। दु:खी, दरिद्रों की सेवा करना वे अपना परम कर्तव्य मानते थे। ये सन्त निजी सम्पत्ति में विश्वास नहीं करते थे और सम्पत्ति का रखना ईश्वर की प्राप्ति में बाधक समझते थे।

शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी से सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने महल के समीप ही रहने की प्रार्थना की थी। परन्तु शेख ने इसे स्वीकार नहीं किया। वे शहर के बाहर एक खानकाह में रहने लगे। इल्तुतमिश ने उन्हें शेख-उल-इस्लाम का उच्च पद देना चाहा, परन्तु शेख ने उसे भी अस्वीकार कर दिया। तब सुल्तान ने इस बडे पद पर माजमुद्दीन सुगरा को नियुक्त किया जो शेख से ईर्ष्या करने लगा। इस पर शेख ने दिल्ली छोड़कर अजमेर जाने का निश्चय किया, परन्तु दिल्ली की जनता के अनुरोध पर उन्होंने अपना यह विचार त्याग दिया।

इसी प्रकार निजामुद्दीन औलिया ने दिल्ली के सुल्तानों के राज्य-काल देखे थे, परन्तु वे इनमें से किसी के भी दरबार में कभी नहीं गये। उन्होंने कुतुबुद्दीन मुबारक शाह के दरबार में उपस्थिति होने के आदेश को भी नहीं माना।

इन सूफी सन्तों ने इस्लाम की कट्टरता को दूर करके उसे उदार बनाने का प्रयत्न किया। इन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने का प्रयत्न किया और दोनों धमों के बीच प्रेम और सहिष्णुता की भावना को जागृत किया। इस प्रकार इन सूफी सन्तों ने समाज की महान् सेवा की।

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