कुछ वगों के संबंध में विशेष उपबंध Special Provisions Relating To Certain Classes

भारतीय संविधान में सभी वगों को सामाजिक और राजनीतिक न्याय दिलाने तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए समाज के उपेक्षित और शोषित लोगों के लिए कुछ विशेष उपबंध अधिकथित किए गए हैं। साथ-साथ अल्पसंख्यकों के लिए भी कुछ विशेष प्रावधान किये गये हैं। संविधान के भाग-16 में अनुच्छेद-330 से लेकर अनुच्छेद-342 तक कुछ वर्गों के संबंध में विशेष उपबंध किए गए हैं।

इन अनुच्छेदों के अंतर्गत जिन लोगों के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था की गयी है, वे हैं- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, आंग्ल-भारतीय समुदाय, अल्पसंख्यक तथा पिछड़ा वर्ग।

अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए उपबंध

संविधान में अनुसूचित जातियों इ कोई परिभाषा नहीं है किन्तु राष्ट्रपति को यह शक्ति प्राप्त है कि वह प्रत्येक राज्य के राज्यपाल से परामर्श करके सूची बनवाएं। संसद इस सूची का पुनरीक्षण कर सकती है। अनुच्छेद 341-342 के अधीन दी गई शक्तियों के अनुसार संसद ने अधिनियमों द्वारा इन आदेशों में संशोधन भी किए हैं। दिए गए उपबंध इस प्रकार हैं-

  1. अनुसूचित जातियों और जनजातियों की उन्नति के लिए संविधान द्वारा दिए गए विशेष उपबंधों के लिए अन्य नागरिक न्यायालय में इस आधार पर आक्षेप नहीं कर सकते कि वे उनके विरुद्ध विभेदकारी हैं।
  2. भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र में अबाध संचरण और निवास करने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को प्रत्याभूत है किन्तु अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सदस्यों की दशा में राज्य उनके हितों की सुरक्षा के लिए विशेष निबंधन अधिरोपित कर सकता है। उदाहरणार्थ, अनुच्छेद-19(5) के अनुसार उनकी संपत्ति के विभाजन को रोकने के लिए राज्य यह उपबंध कर सकता है कि वे अपनी संपत्ति का विभाजन विनिर्दिष्ट प्रशासनिक प्राधिकारी की सहमति से विशेष दशा में कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।
  3. अनुच्छेद-335 के अनुसार, संघ या राज्य के क्रियाकलापों से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सदस्यों के दावों को ध्यान में रखा जाएगा। गौरतलब है कि संविधान संशोधन 2002 में अनुच्छेद 16(4A)के अंतर्गत सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति/जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
  4. अनुच्छेद-338 में यह उल्लेख किया गया है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग होगा जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
  5. अनुच्छेद-339(1)के अनुसार,राज्यों में स्थित अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन एवं अनुसूचित जनजातियों के कल्याणार्थ प्रतिवेदन देने हेतु राष्ट्रपति द्वारा संविधान के प्रवृत्त होने के दस वर्ष पश्चात् आदेश द्वारा एक आयोग का गठन किया जाएगा।
  6. संसद के सदस्यों को और जनता के अन्य सदस्यों की सरकार के उपर्युक्त दायित्वों के निर्वहन में सहभागी बनाने के लिए तीन संसदीय समितियां बनायीं गयी हैं। उनका कार्य अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण के लिए योजनाएं बनाना और उनके कार्यकरण की समीक्षा करना तथा इन जातियों और जनजातियों से संबंधित विषयों पर भारत सरकार को परामर्श देना है।
  7. अनुच्छेद-275(1) में कल्याण योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए वित्तीय सहायता का उपबंध किया गया है।
  8. संविधान के अनुच्छेद-164(1) में चौरानबेवां संशोधन, 2006 द्वारा मध्य प्रदेश एवं ओडीशा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ एवंझारखंड को सम्मिलित किया है। इन राज्यों में जनजातियों के कल्याण का प्रभारी एक मंत्री होगा जो अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण का प्रभारी भी हो सकता है। बिहार को इस सूची से हटा दिया गया है।
  9. संविधान की पांचवीं एवं छठी अनुसूची के अंतर्गत अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन संबंधी विशेष संवैधानिक उपबंध किए गए हैं।
  10. अनुच्छेद-46 में यह कहा गया है कि राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के, शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।

विधानमंडलों में आरक्षण

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विधान मंडलों में प्रतिनिधित्व संबंधी आरक्षण की व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद-330ए 332 और 334 में की गई है।

अनुच्छेद-330, 332 के अंतर्गत लोकसभा एवं राज्य के विधान सभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजाति के लिए कुछ स्थान आरक्षित किए गए हैं। आरक्षण का आधार, जनसंख्या पर निर्भर है। वर्तमान समय में लोकसभा में अनुसूचित जाति के लिए 79 तथा अनुसूचित जनजाति के लिए41 स्थान आरक्षित हैं। उल्लेखनीय है कि नए परिसीमन के पश्चात 543 में सामान्य सीटें 412 (11 कम हो गयीं) तथा 84 सीटें अनुसूचित जाति (पिछली से 5 अधिक) और 47 सीटें अनुसूचित जाति (पिछली से 6 अधिक) हो गयी हैं।


राज्य विधान सभाओं के कुल 3991 स्थानों में से 548 अनुसूचित जातियों के लिए और 527 अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं।

संविधान के 109वें संशोधन विधेयक द्वारा लोक सभा एवं राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण एवं आंग्ल भारतीय सदस्यों के मनोनयन की व्यवस्था को 26 जनवरी, 2010 से आगामी 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया है।

उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में मूल रूप से आरक्षण की अवधि 10 वर्षों के लिए निर्धारित की गई थी। परंतु प्रत्येक दस वर्ष पर इसकी अवधि बढ़ायी जाती रही है।

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग

89वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति राष्ट्रीय आयोग को दो भागों-राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग; में विभाजित कर दिया गया है।

इस अधिनियम द्वारा संविधान में अनुच्छेद-338(क) जोड़ा गया है। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा तीन अन्य सदस्य होंगे। इन अधिकारियों की सेवा-शर्तों एवं पदावधि इत्यादि का निर्धारण समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा निश्चित किया जाएगा। इसी प्रकार राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में भी एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा तीन अन्य सदस्य होंगे। इनकी सेवा-शर्तों, पदावधि इत्यादि का निर्धारण भी राष्ट्रपति द्वारा ही किया जाएगा।

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के कार्य

इस आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. उन समस्त विषयों की निगरानी व अन्वेषण करे जो अनुसूचित जातियों के लिए इस संविधान या अन्य किसी विधि या सरकार के किसी आदेश के अधीन उपबंधित रक्षापायों से संबद्ध हों।
  2. अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति को उसके अधिकारों व सुरक्षा वंचित रखने संबंधी मामलों की जांच करना।
  3. अनुसूचित जातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना-प्रक्रिया में भाग लेना और उन पर सलाह देना तथा संघ व किसी राज्य के अधीन उनके विकास की गति का मूल्यांकन करना।
  4. अनुसूचित जातियों के कल्याणार्थ किए गए विभिन्न रक्षोपायों के कार्यकरण के सम्बन्ध में प्रतिवर्ष अथवा जब भी राष्ट्रपति इसकी अपेक्षा करे राष्ट्रपति के समक्ष अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करे।
  5. इन प्रतिवेदनों में उन उपायों के संबद्ध में जो संवैधानिक रक्षोपायों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए संघ या किसी राज्य सरकार सामाजिक आर्थिक विकास हेतु अन्य उपायों के संबंध में अनुशंसा करना।
  6. अनुसूचित जातियों के संरक्षण, कल्याण, विकास एवं उन्नयन के बारे में ऐसे कृत्यों का निर्वहन करना जो राष्ट्रपति, संसद द्वारा निर्मित किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, नियन द्वारा विनिर्दिष्ट करे।

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के सम्मुख बाधाएं एवं चुनौतियां

अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कल्याण पर संसदीय स्थायी समिति ने लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 36वीं रिपोर्ट राष्ट्रीय अनुसूचित जाति- आयोग-कृत्य एवं उपलब्धियां ने एनसीएससी की कई कमियों पर गौर किया।

समिति के अनुसार, एनसीएससी के संविधान या अन्य कानून या सरकार के किसी आदेश के तहत् सभी मामलों की जांच एवं निगरानी करने की व्यापक जिम्मेदारी है। हालांकि, पूरे भारत में फैली अनुसूचित जाति की समस्याओं एवं जरूरतों का समाधान करने की आयोग के पास पर्याप्त शक्ति नहीं है। अधिकारों के वंचन पर विशिष्ट शिकायत में जांच करना अपने आप में एक बड़ी जिम्मेदारी है।

समिति ने कहा कि वित्तीय स्वायत्तता एनसीएससी के अबाधित कार्यकरण के लिए अपरिहार्य है। समिति ने अफसोस जताया कि- आयोग के पास वित्तीय एवं प्रशासनिक मामलों के संदर्भ में पूर्ण स्वायत्तता नहीं है और पद सृजित करने, कोषों का विशिष्ट उद्देश्यों हेतु आरक्षित रखने, वाहनों की खरीद और आयोग के अधिकारियों को सेमिनार, सम्मेलन या विदेश में प्रशिक्षण प्राप्त करने की अनुमति देने से सम्बद्ध मामलों में कोई शक्ति नहीं है।

समिति ने आगे इस तथ्य पर निराशा व्यक्त की कि आयोग, जिसे सांविधिक दर्जा एवं विशिष्ट मामलों में केंद्र सरकार के मंत्रालय की शक्तियां दी गई हैं, को सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के सम्मुख अपनी जरूरतों को रखना पड़ता है। एनसीएससी तब तक बेरोकटोक एवं स्वतंत्र रूप से कार्य करने में सक्षम नहीं होगा जब तक कि इसे दैनंदिन कार्यों में स्वयं के प्रशासनिक, वित्तीय एवं विधिक मामलों में निर्णय लेने कि अनुमति नहीं दी जाएगी।

समिति ने कहा कि, संविधान द्वारा अनुच्छेद 338(5), 338(6) और न338(7) के माध्यम से एनसीएससी को सौंपी गई जिम्मेदारी सरकार से आयोग के कार्यकरण की स्वायत्तता की मांग करती है। क्योंकि आयोग की विभिन्न कार्यकारी कार्य तथा विभिन्न कल्याणकारी उपायों के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करना पड़ता है तथा इसकी रिपोर्ट तैयार करनी पड़ती है, इससे पूर्ण स्वायत्त की आवश्यकता की जरुरत उत्पन्न होती है जिसमें वित्तीय स्वायत्तता और एक पृथक् अनुदानों की मांग भी शामिल हैं।

संसद में एनसीएससी की रिपोर्ट को प्रस्तुत करने में विलम्ब करने वाले अधिकारियों पर किसी प्रकार की जिम्मेदारी निश्चित नहीं की गई है।

समिति ने पाया कि- एनसीएससी की दंतविहीन एवं अप्रभावी बनाया गया है। इसके आदेश एवं अधिनिर्णय बाध्यकारी नहीं हैं। यह एक सोची समझी रणनीति है कि आयोगको अपनेजारी किए गए आदेशों की जांच करने की शक्ति नहीं दी गई है। इसलिए, समिति ने एनसीएससी को उसकी सिफारिशों के अनुरूप सशक्त करने के कदम उठाने की अनुशंसाओं को दोहराया है।


राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के कार्य

इस आयोग के कार्य भी राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के समान होगे।

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के सम्मुख बाधाएं ?

अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कल्याण पर संसदीय समिति ने अपनी 33वीं रिपोर्ट-राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग-कृत्य एवं उपलब्धियां कार्यकरण में कई कमियों की ओर इशारा किया गया।

समिति ने गौर किया कि राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को सौंपे गए कार्य बेहद व्यापक हैं और जनजाति लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं एवं समस्याओं को देखते हैं। एनसीएसटी अपने उद्देश्यों को पूरी तरह एवं प्रभावी रूप से पूरा करने में समर्थ नहीं हो पाएगा जब तक कि आयोग की वर्तमान शक्ति में वृद्धि नहीं की जाएगी।

समिति ने जनजातीय मामले मंत्रालय की एनसीएसटी के चार क्षेत्रीय कार्यालयों के उन्नयन, छह क्षेत्रीय कार्यालयों में मौजूदा सहायक स्टाफ में वृद्धि करने और चार और क्षेत्रीय कार्यालय खोलने में असफलता पर चिंता व्यक्त की।

समिति ने टिप्पणी की कि आयोग, जिसे सांविधिक दर्जा दिया गया है, अपने दैनंदिन कार्यों के लिए जनजातीय मामले मंत्रालय पर निर्भर रहता है और अपने वित्तीय, प्रशासनिक एवं विधिक मामले संबंधी प्रस्ताव मंत्रालय के माध्यम से रखता है। समिति ने जोरदार तरीके से अनुशंसित किया कि एनसीएसटी को पूर्ण प्रशासनिक एवं वित्तीय शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए ताकि वह वित्तीय निहितार्थ वाले प्रत्येक प्रस्ताव के लिए जनजातीय मामले मंत्रालय पर निर्भर न रहे।

समिति ने चिंता व्यक्त की कि एनसीएसटी की रिपोर्ट को राष्ट्रपति के समक्ष रखने के बाद सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है और विचार रखा कि रिपोर्ट में उल्लिखित अनुशंसाओं पर जब तक सामयिक कार्रवाईनहीं की जाती,तो अनुशंसाओं की विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति की प्रासंगिकता समाप्त हो सकती है।

समिति ने चिंता जाहिर की कि एनसीएसटी के सचिवालय के स्टाफ का विनियमन एवं नियुक्ति की प्रक्रिया जटिल है और एनसीएसटी के मुख्यालय में सचिवालयीय स्टाफ विभिन्न कैडर से संबंधित होता है और विभिन्न एजेंसियों द्वारा नियंत्रित होता है।

  • भारतीय संविधान के भाग-16 के अंतर्गत अनुच्छेद-330 से लेकर अनुच्छेद-342 तक कुछ विशिष्ट वर्गो- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, आंग्ल-भारतीय समुदाय तथा पिछड़ा वर्ग-के सम्बन्ध में विशेष उपबंध किए गए हैं।
  • लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर स्थान आरक्षित किए गए हैं।
  • राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष एवं तीन अन्य सदस्य सम्मिलित होते हैं।

एनसीएसटी की अनुशंसाएं सलाहकारी प्रवृत्ति की हैं, जिन्हें उचित कार्रवाई के लिए सरकार के पास भेजा जाता है और इनकी स्वीकार्यता सम्बद्ध संगठन/केंद्र सरकार या राज्य सरकारों के नितांत विवेक पर निर्भर करती है जो विशेष उद्देश्य हेतु गठित इस संवैधानिक संस्था के अस्तित्व को अर्थहीन बना देती है। इस संदर्भ में, समिति ने अनुशंसा की कि संविधान का संशोधन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि एनसीएसटी की अनुशंसाएं सम्बद्ध प्राधिकरणों द्वारा बाध्यकारी तौर पर ली जाएं और इसके कृत्यों को दीवानी न्यायालय के समान न्यायिक शक्तियां दी जानी चाहिए ताकि इसे प्रभावी एवं स्वतंत्र संगठन के तौर पर सशक्त किया जा सके।

समिति ने अनुशंसा की कि एनसीएसटी की टीम को सुदूर जनजाति क्षेत्रों तक भेजा जाना चाहिए जिससे न केवल भौतिक रूप से जनजाति लोगों के लिए किए गए सुरक्षापायों के कार्यकरण का मूल्यांकन एवं निगरानी हो सके अपितु इस समुदाय के सदस्यों के बीच जागरूकता स्तर में भी वृद्धि हो सके और एनसीएसटी के इस कम को दूरदर्शन एवं आल इण्डिया रेडियो द्वारा प्रसारित भी किया जाना चाहिए।

आंग्ल-भारतीय समुदाय

संविधान के अनुच्छेद-331 और अनुच्छेद-333 में क्रमशः लोक सभा और राज्यों की विधान सभाओं में आंग्ल-भारतीय समुदाय के प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया है।

अनुच्छेद-331 के अनुसार, संसद में आंग्ल-भारतीय समुदाय का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं होने पर राष्ट्रपति इस समुदाय के दो सदस्यों की लोकसभा के लिए मनोनीत कर सकता है।

अनुच्छेद-333 के अनुसार, राज्य की विधान सभाओं के संबंध में राज्यपाल को इसी प्रकार की शक्ति प्राप्त है। इसके अनुसार विधान सभा में राज्यपाल अधिक से अधिक एक ही व्यक्ति की नामनिर्दिष्ट कर सकता है।

राष्ट्रपति संसद में आंग्ल-भारतीय समुदाय के अधिकतम दो सदस्यों को (अनुच्छेद-331) तथा राज्य विधान सभा में राज्यपाल इस समुदाय के अधिकतम एक सदस्य (अनुच्छेद-333) को मनोनीत कर सकता है।

 अल्पसंख्यकों के लिए उपबंध

भारतीय संविधान के भाग-III के अनुच्छेद-29 और अनुच्छेद-30 में अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।

संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए जो उपबंध किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं-

धार्मिक स्वतंत्रता

भारतीय संविधान, अल्पसंख्यकों को भी धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। संविधान में किसी भी धर्म को अग्रसर करने के लिए कोई उपबंध नहीं है।

भाषा और संस्कृति का अधिकार

राज्य के प्रत्येक नागरिक या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा। इसका अभिप्राय यह है कि यदि कोई सांस्कृतिक अल्पसंख्यक हैं, जो अपनी भाषा या संस्कृति बनाए रखना चाहते हैं तो राज्य विधि द्वारा बहुसंख्यकों की या किसी स्थान की अन्य संस्कृति को उन पर अधिरोपित नहीं कर सकता। यह उपबंध धार्मिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण भी देता है और भाषाई अल्पसंख्यकों की भी।

मातृभाषा में शिक्षा की सुविधा

संविधान में यह उल्लिखित है कि प्रत्येक राज्य भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा। राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह इस निमित्त सरकार को उचित निर्देश दे।

भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी

अनुच्छेद-350 के अनुसार, राष्ट्रपति भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त करेगा। यह अधिकारी संविधान के अधीन, भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए अधिकथित रक्षोपायों से सम्बंधित सभी विषयों का अन्वेषण करेगा और राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट देगा।

इच्छानुसार शिक्षा संस्थाओं की स्थापना

अनुच्छेद-30 के अनुसार, सभी अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार है, संस्था चाहे भाषा पर आधारित हो अथवा धर्म पर। प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय को न केवल अपनी शिक्षा संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार है बल्कि अपने समुदाय के बालकों को अपनी भाषा में शिक्षा देने का अधिकार भी है।

शिक्षण संस्थाओं के संबंध में राज्य द्वारा विभेद नहीं

शिक्षण संस्थाओं को किसी प्रकार की सहायता देने में राज्य इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है।

अल्पसंख्यक कल्याण का प्रधानमंत्री फार्मूला

सरकार ने भारत में अल्पसंख्यकों के कल्याण कार्यक्रम की गति एवं समग्रता देने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय फार्मूला की उद्घोषणा की। इस कार्यक्रम को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय द्वारा क्रियान्वित किया जाएगा। कार्यक्रम के अंतर्गत देश के अल्पसंख्यक समुदाय-मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध एवं पारसी लाभान्वित हो सकेंगे।

चिन्हित कार्यक्रम
  • समन्वित बाल विकास योजना सेवाओं (आई.सी.डी.एस.एस.) की समान उपलब्धता
  • स्कूली शिक्षा तक पहुंच में सुधार
  • उर्दू के शिक्षण हेतु संसाधनों में वृद्धि
  • मदरसा शिक्षा का आधुनिकीकरण
  • मौलाना आजाद शिक्षा फाउंडेशन के माध्यम से शिक्षा के आधारभूत ढांचे में सुधार लाना
  • अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिभाशाली छात्रों के लिए छात्रवृत्ति व्यवस्था करना
  • तकनीकी प्रशिक्षण द्वारा कौशल विकास करना
  • आर्थिक गतिविधियों के लिए वित्त की उपलब्धता सुनिश्चित करना
  • केन्द्रीय एवं राज्य सेवाओं में अल्पसंख्यकों की भर्ती अनुपात देखना
  • अल्पसंख्यकों का ग्रामीण आवास योजना में समान हिस्सा
  • अल्पसंख्यकों के स्लम क्षेत्रों का सुधार करना
  • सांप्रदायिक दुर्घटना को रोकना
  • सांप्रदायिक अपराधों का जल्द निपटान
  • सांप्रदायिक दंगा पीड़ितों का यथोचित पुनर्वास

कार्यक्रम का महत्व

इस नए कार्यक्रम द्वारा निश्चित रूप से अल्पसंख्यकों की स्थिति में सुधार आएगा। इनके कौशल विकास एवं शैक्षिक प्रसार से यह समुदाय देश एवं विदेश में मौजूद आधुनिक रोजगार एवं कैरियर को प्राप्त कर सकेंगे। परिणामस्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। इनके सांप्रदायिक पुनर्वास से विकास की लहर तेज होगी।

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग

संसद ने संविधान और संघ और राज्य विधियों में उपबंधित रक्षोपायों के कार्यकरण का पर्यवेक्षण करने के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 अधिनियमित किया है। इस अधिनियम के अंतर्गत अल्पसंख्यक वर्ग उस समुदाय को मन गया है जिसे केंद्र सरकार अधिसूचित करे। केंद्र सरकार ने अभी तक पांच समुदायों; मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, बौद्ध एवं जोरास्ट्रियन (पारसी) को अल्पसंख्यक अधिसूचित किया है। अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम (1992) के सफल कार्यान्वयन हेतु सरकार ने मई 1993 में एक अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया।

इस आयोग के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  1. संघ और राज्यों के अधीन अल्पसंख्यकों के उन्नति के लिए किए गए विकास कार्यों का मूल्यांकन करना।
  2. अल्पसंख्यकों के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त रक्षोपायों तथा संसद और राज्यों की विधायिका द्वारा अधिनियमित किए गये कानूनों के कार्यान्वयन का संचालन करना।
  3. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के प्रभावकारी कार्यान्वयन के लिए केंद्रीय तथा राज्य सरकारों को सुझाव देना।
  4. उन कारणों की समीक्षा करना, जिनके द्वारा अल्पसंख्यकों के साथ विभेद किया गया हो तथा उन कारणों को दूर करने के लिए प्रभावशाली उपायों की अनुशंसा करना।
  5. अल्पसंख्यकों में शिक्षा का विकास तथा सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के संबंध में शोध कार्य संचालित करना।
  6. अल्पसंख्यकों से संबंधित किसी भी समस्या के लिए समय-समय पर अथवा विशेष प्रतिवेदन तैयार करके केंद्रीय सरकार के समक्ष प्रस्तुत करना।
  7. अल्पसंख्यकों से संबंधित, कोई भी निर्देश जो केंद्रीय सरकार द्वारा दिया गया हो, उस पर अमल करना।
  • भारतीय संविधान द्वारा देश के अल्पसंख्यक वर्गों के लिए धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक, इत्यादि आधारों पर विभिन्न प्रावधान किए गए हैं।
  • भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए एक विशेषाधिकारी की नियुक्ति हेतु राष्ट्रपति संविधानतः बाध्य है (अनुच्छेद-350)।
  • अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा एवं संवैधानिक रक्षापयों के कार्यकरण का पर्यवेक्षण करने हेतु 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया।
सच्चर समिति- महत्वपूर्ण तथ्य
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 9 मार्च, 2005 को दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता में सात-सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति का गठन किया गया। इस समिति को मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक स्तर के अध्ययन का कार्य सौंपा गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 8 जून, 2006 को सरकार को सौंपी। इसकी मुख्य सिफारिशें इस प्रकार हैं-
  • वंचित अल्पसंख्यकं समुदाय के हितों के सुविचारित प्रतिनिधित्व के लिए एक समान अवसर आयोग का गठन किया जाए।
  • विभिन्न सामाजिक-धार्मिक वर्गों हेतु एक राष्ट्रीय डाटा बैंक का सृजन किया जाए।
  • अर्जल मुस्लिम को अनुसूचित जाति या अति पिछड़े वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाए।
  • सार्वजनिक निकायों में अल्पसंख्यकों की सहभागिता के लिए स्पष्ट प्रक्रिया संस्थापित की जाए।
  • मुस्लिमों में रोजगार दर बढ़ाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएं।
  • धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने हेतु पाठ्य पुस्तकों में उचित सामाजिक मूल्यों को सुनिश्चित किया जाए।
  • विभिन्न धार्मिक-सामाजिक श्रेणियों तक विकास के लाभ की पहुंच का आंकलन किया जाए।
  • विश्वविद्यालयों में अति सामाजिक-धार्मिक पिछड़े वर्गों के प्रवेश हेतु विशेष मापदण्ड तैयार किया जाए।
  • मदरसों की सीनियर सेकेण्डरी विद्यालयों से जोड़ा जाए एवं इनके द्वारा निर्गमित उपाधियों की रक्षा एवं अन्य परीक्षाओं की अर्हता हेतु मान्य किया जाए।
  • राष्ट्रीय वक्फ विकास निगम की 560 करोड़ रुपए की राशि से स्थापना की जाए।

उल्लेखनीय है कि सर्वप्रथम अल्पसंख्यक आयोग की अध्यक्षता सरदार अली खान ने की थी। अल्पसंख्यक आयोग ने अल्पसंख्यक शैक्षिक एवं विशेष रूप से हल करने हेतु एक अल्पसंख्यक शिक्षा सेल का गठन भी किया है।

पिछड़े वगों के लिए उपबंध

अतिरिक्त पिछड़े वर्ग का भी उल्लेख किया गया है। पिछड़े वर्ग के अंतर्गत उन समुदायों को शामिल किया जाता है, जो सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टिकोण से पिछड़े हो। सामाजिक तथा शैक्षणिक पिछड़ेपन का निर्धारण केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है। संविधान में साधारणतया पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए और उनकी दशा को सुधारने के लिए विशेष उपबंध किए गए हैं। अनुच्छेद-340 में पिछड़े वर्गों की दशाओं के अन्वेषण के लिए आयोग की नियुक्ति के संदर्भ में प्रावधान किया गया है। ऐसे आयोग का गठन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। 1953 में राष्ट्रपति ने अपनी इस शक्ति का प्रयोग करते हुए काका साहेब कालेलकर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। इस आयोग की सौंपे गए कार्य निम्नलिखित थे-

  1. उन परिस्थितियों का आकलन करना, जो जनता के किसी वर्ग या समूह को पिछड़ा वर्ग निर्धारित करती हों।
  2. सम्पूर्ण भारत के लिए पिछड़े समुदायों की सूची तैयार करना।
  3. पिछड़े वर्ग की कठिनाइयों की समीक्षा और उनकी स्थिति सुधारने के लिए सिफ़ारिश करना।

काका साहेब कालेलकर आयोग की रिपोर्ट सरकार के समक्ष 1955 में प्रस्तुत की गई। इस रिपोर्ट में दिए गए तथ्य सरकार को अस्पष्ट और अव्यावहारिक प्रतीत हुए इसलिए सरकार ने इसे अमान्य घोषित करते हुए राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया कि वे खुद के द्वारा बनाई आयोग 20 सितंबर, 1978 को वी.पी. मंडल की अध्यक्षता में गठित किया गया। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1980 में सरकार के समक्ष प्रस्तुत की।

इस रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने 1990 में सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करने की घोषणा की। लेकिन इस पर विवाद खड़ा हो गया। उल्लेखनीय है कि मंडल कमीशन पर निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार को पिचादे वर्गों की समीक्षा, नए वर्गों को सूचीबद्ध करने के लिए एक स्थायी सांविधिक निकाय के गठन का निर्देश दिया जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अस्तित्व में आया। संविधान के अनुच्छेद 164(1) द्वारा पिछड़े वर्ग के ल्कल्याँ के लिए एक मंत्री नियुक्त करने की व्यवस्था भी की गई है।

महत्वपूर्ण है कि संविधान के 93वां संशोधन अधिनियम, 2006 द्वारा सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वगों के लिए निजी एवं बिना सरकारी अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। वंचित वगों के समान विकास की दिशा में निश्चित रूप से यह एक उल्लेखनीय कदम है।

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग

उच्चतम न्यायालय के निर्णय के पश्चात् संसद ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम, 1993 बनाया और 1993 में एक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। आयोग एक अर्द्ध न्यायिक निकाय है।

गठन

आयोग एक बहुसदस्यीय निकाय है। इसमें पांच सदस्य हैं- एक अध्यक्ष, जो की सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होगा, एक समाज विज्ञानी, पिछड़े वर्गों से सम्बन्धित विशेष जानकारी रखने वाले दो सदस्य तथा एक सदस्य सचिव होगा, जो कि भारत सरकार के सचिव स्तर का अधिकारी होगा। इनका कार्यकाल तीन वर्ष का होता है।

आयोग के कृत्य

  1. नए पिछड़े वर्गों की सूचीबद्ध करना, क्रीमी लेयर वाले पिछड़े वर्गों का आकलन करना एवं पिछड़े वर्गों की आवश्यकताओं एवं विकास के सम्बन्ध में केंद्र सरकार के सुझाव को प्रस्तुत करना।
  2. आयोग का परामर्श केंद्र सरकार पर सामान्यतः आबद्धकारी होगा।
  3. केंद्र सरकार प्रत्येक 10 वर्ष के अंतराल पर पिछड़ा वर्ग से आयोग से परामर्श करेगी।
  4. आयोग केंद्र सरकारको वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा। इसमें आयोग की विगत वर्ष की गतिविधियों का पूरा विवरण होगा। इस प्रतिवेदन को केंद्र सरकार संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत करेगी। इसके साथ किसी अनुशंसा को अस्वीकार करने के कारणों को भी दिया जाएगा। 
  • अनुच्छेद-340 के अधीन राष्ट्रपति ने पिछड़े वर्गों की दशाओं के अन्वेषण हेतु 1953 में काका साहेब कालेलकर आयोग का गठन किया।
  • 1955 में आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को सही न मानते हुए अस्वीकृत कर दिया।
  • 20 सितम्बर, 1978 को वी.पी. मण्डल की अध्यक्षता में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ, जिसने 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
  • मण्डल आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पिछड़े वर्गों हेतु सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने की सिफारिश की, जिसे सरकार द्वारा मानकर 9 सितम्बर, 1993 में क्रियान्वित कर दिया गया है।

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