मध्यकालीन भारतीय इतिहास के स्रोत Sources Of Medieval Indian History

हमारे पास मध्यकालीन भारतीय इतिहास के पर्याप्त स्रोत हैं। मध्यकालीन शासक अपने यहाँ इतिहासकारों को आश्रय दिया करते थे, जिन्होंने शासकों व उनके विजय अभियानों का वर्णन किया है। सल्तनत काल की अपेक्षा मुगलकालीन साहित्य ज्यादा उपलब्ध हैं। ये स्रोत ज्यादातर अरबी व फारसी भाषा में लिखें गए हैं। मुगलकाल के ज्यादातर स्रोत फारसी भाषा में लिखे गए हैं। ये इतिहासकार ज्यदातर सुल्तानों और बादशाहों की राजनैतिक और सैनिक गतिविधियों की ही जानकारी देते हैं और इनसे हमें जनता की सामाजिक और आर्थिक स्थिति की जानकारी कम मिलती है, जिसके लिए हमें समकालीन साहित्य स्रोतों और भारत आये यात्रियों के विवरण का सहारा लेना पड़ता है। मध्यकालीन भारतीय इतिहास की कुछ प्रमुख साहित्यिक रचनाएँ इस प्रकार हैं-

राजतरंगिणी Rajatarangini

राजतरंगिणी 1148 से 1150 के बीच कल्हण द्वारा संस्कृत भाषा में रचा गया ग्रन्थ है। राजतरंगिणी में महाभारत काल से लेकर 1151 ई. के आरम्भ तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं क्रमानुसार विवरण दिया गया हैं। लेकिन राजतरंगिणी के 120 छंद में राजा कलश, जो कश्मीर के राजा अनंत देव के पुत्र थे, के शासनकाल के दौरान कश्मीर में व्याप्त कुशासन का वर्णन मिलता है। राजतरंगिणी में आठ तरंग यानि अध्याय और संस्कृत में कुल 7826 श्लोक हैं। कल्हण लिखते है की, कश्मीर की घाटी पहले बड़ी झील थी, जिसे कश्यप ऋषि, जो जो ब्रह्मा के पुत्र, ऋषि मरीचि के पुत्र थे, ने इस घाटी को सुखा दिया। यहाँ का बारामुला शब्द संभवतः वराहमूल से निकला है। कल्हण कश्मीर के पहले इतिहासकार माने जाते हैं, और तत्कालीन भारत के इतिहास के सम्बन्ध में राजतरंगिणी सबसे महत्वपूर्ण और प्रमाणिक स्रोत है। कल्हण के बारे में हमें राजतरंगिणी से ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है। राजतरंगिणी के शुरुआती छंदों से हमें उनके पिता चंपक के बारे में पता चलता है, जो कश्मीर में हर्ष के दरबार के मंत्री थे। राजतरंगिणी में कल्हण ने गोनर्दा के शासन से शुरुआत की है जो महाभारत के युधिष्ठिर के समकालीन थे। परन्तु इसमें प्रमुख रूप से मौर्य शासन से इतिहास शुरू होता है। वह लिखते हैं की श्रीनगर की स्थापना मौर्य सम्राट अशोक, द्वारा की गयी थी और बुद्ध धर्म उनके समय में ही यहाँ पहुंचा और फिर यहाँ से बौद्ध धर्म मध्य एशिया, तिब्बत और चीन सहित कई अन्य आसपास के क्षेत्रों में फैल गया।

राजतरंगिणी में गोनर्दा प्रथम को कश्मीर का पहला राजा और उसे मगध के जराससम्धा का रिश्तेदार बताया गया है।

मौर्य साम्राज्य 322 ईसा पूर्व में मगध में चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित प्राचीन भारत में, भौगोलिक दृष्टि से व्यापक, शक्तिशाली राजनीतिक और सैन्य साम्राज्य था। उनके पौत्र अशोक महान (273-232 ईसा पूर्व) ने कश्मीर में कई स्तूपों का निर्माण कराया, और अशोक के बाद उसका बेटा जलूका उसका उत्तराधिकारी बना।

अशोक के किसी वंशज दामोदर के बह हमें बक्ट्रियन कुषाण साम्राज्य के हुष्का, जुष्का और कनिष्क का उल्लेख मिलता है।

किसी अभिमन्यु नाम के शासक के बाद, हमें गोनर्दा तृतीय द्वारा स्थापित मुख्य गोनंदिया  राजवंश का उल्लेख मिलता है, परन्तु उसकी  उत्पत्ति के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उसके परिवार ने कई पीढ़ियों तक शासन किया था।


आर्यों के बारे प्रतापदित्य, जिसे किसी विक्रमादित्य का रिश्तेदार बताया गया है, के शासन का उल्लेख है। इसके बाद किसी अन्य परिवार के विजय ने सिंहासन ले लिया।

इसके बाद आर्य राजा जयेंद्र और सम्धिमति का उल्लेख आता है। कल्हण ने सम्धिमति का गर्मियों के दौरान लिंग की पूजा का भी उल्लेख किया है, यह संभवतः अमरनाथ में बर्फ के शिवलिंग के लिए एक संदर्भ प्रतीत होता है।

कल्हण ने हूण शासकों तोरमण और मिहिरकुल के शासन का भी जिक्र किया है, परन्तु वह यह नहीं बताते की वे हूण थे, जिसकी जानकारी हमें अन्य स्रोतों से मिलती है।

हूणों के बाद गोनंदिया वंश के मेघवाहन, का परिवार जो गांधार से वापस आया था, की कुछ पीढ़ियों ने शासन किया। मेघवाहन एक भक्त बौद्ध था और उसके शासन में पशु-वध का निषेध कर दिया गया।

इसके बाद कार्कोट वंश के शासन का उल्लेख है। जिसके दुर्लभवर्धन, ललितादित्य मुक्तपिदा शासकों ने अपने साम्राज्य को पश्चिमी भारत और मध्य एशिया तक फैलाया। कल्हण ने इन शासकों द्वारा कम्बोजों को हराने का भी जिक्र किया है।

कार्कोट वंश के बाद उत्पल वंश एवं अंत में लोहार वंश का उल्लेख मिलता है।

712 ई. के आस-पास मुसलिम आक्रमणों और 1000 ई. के आस-पास महमूद गजनी के आक्रमण का राजनैतिक और ऐतिहासिक प्रभावों का भी वर्णन भी मिलता है। कल्हण ने राजा हर्ष के उत्थान और पतन का भी महत्वपूर्ण वर्णन दिया है।

रामचरित Ramacharitam

संस्कृत भाषा में लिखित इस महाकाव्य कविता की रचना संध्याकर नंदी ने की थी। इसमें 1050 ई. से 1150ई. तक बंगाल के पाल वंश का वर्णन मिलता है। इस किताब में रामायण और राजा रामपाल की कहानी एक साथ लिखी गयी है। इस पुस्तक में रामपाल की प्रशंसा की गयी है, लेकिन यह पाल वंश के इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।  किताब में बंगाल के पाल वंश के राजा महिपाल द्वितीय की उनके एक अधिकारी दिव्य द्वारा हत्या से लेकर मदनपाल के शासन तक का उल्लेख है।

बल्लालचरित Ballal Charit

इस पुस्तक की रचना आनंद भट्ट ने की थी। इसमें बंगाल के सेन वंश और 1160 ई. से 1179ई. तक सेन वंश के दुसरे शासक बल्लाल सेन का वर्णन मिलता है। सेन वंश के शिलाकेखों के अनुसार बल्लाल सेन भी एक लेखक था और उसके दानसागर और अदभुतसागर जैसी किताबे भी लिखीं।

पृथ्वीराज रासो Prithviraj Raso

पृथ्वीराज रासो या राजस्थानी में पिरथबीराज रासो चंद बरदाई द्वारा रचित एक महाकाव्य है, जिसमे उन्होंने चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय के जीवन का वर्णन किया है, जो अजमेर और दिल्ली पर 1165 से 1192 ई. तक शासन करते थे। कवि चंदबरदाई पृथ्वीराज के समकालीन कवि और उनके मित्र भी थे। पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का वृहद् ग्रन्थ है, जिसके अंतिम भाग को चंदबरदाई के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया गया। इस पुस्तक में पृथ्वीराज और संयोगिता के प्रेम और शहाबुद्दीन द्वारा उसे बन्दी बनाकर गज़नी ले जाने और पुस्तक के अंत में शब्दभेदी बाण द्वारा शहाबुद्दीन गौरी को मारने का उल्लेख है।

पृथ्वीराज रासो को  वीर रस का हिंदी का सर्वश्रेष्ठ काव्य तथा हिन्दी का प्रथम महाकाव्य भी माना जाता है। यह काव्य पिंगल भाषा में लिखा गया जो कालान्तर में बृज भाषा के रूप में विकसित हुई। इसमें पृथ्वीराज के विलासप्रियता और और राजकुमारियों के अपहरण और विवाह के लिए लडे गए युद्धों का वर्णन है।

इसी प्रकार कुछ अन्य रचनाएँ इस प्रकार हैं –

कुमारपालचरित् की रचना 12वीं सदी में जय सिंह ने की थी, जिसमे अन्हिलवाडा के शासक कुमारपाल का वर्णन है।

गौडवहो की रचना वाक्यपतिराज ने की थी, जिसमे कन्नौज के राजा यशोवर्मन के युद्ध विजयों और चालुक्य वंश के शासन के अंतिम समय की जानकारी मिलती है।

नवसाहसांकचरित को पद्म्गुप्त परिमल ने लिखा था, जिसे वाक्पति मुंज ने आश्रय दिया था। इसमें परमार वंश के इतिहास का वर्णन मिलता है।

विक्रमांकदेवचरित् की रचना 1079 ई. से 1126 ई. के बीच विल्हण नाम के कवि ने की थी, जिससे कल्याणी के चालुक्य वंश के इतहास की जानकारी मिलती है।

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अरबी और फारसी साहित्य Arabic And Persian Literature 

चाचनामा Chach-Nama

चाचनामा मध्यकालीन इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जिससे अरबों की 712 ई. में सिंध विजय की जानकारी मिलती है। मूलतः अरबी भाषा में लिखी इस पुस्तक के लेखक का नाम ज्ञात नहीं है। इस पुस्तक का लेखक संभवतः मुहम्मद-बिन कासिम (Muhammad bin Qasim) के साथ सिंध आया था, चाच का पुत्र दाहिर उस समय सिंध का शासक था, जिसके नाम पर लेखक ने इस किताब का नाम चाचनामा रखा। नासिर-उद-दीन क़ुबाचा (Nasir-ud-din Qubacha) के समय में इस पुस्तक का फारसी में अनुवाद मुहम्मद अली बिन अबू बकर कूफ़ी (Muhammad Ali bin Abu Bakar Kufi) ने किया था।

किताब-उल-यामिनी Kitab-Ul-Yamini

इस किताब की रचना अबू नासिर-बिन-मुहम्मद अल जब्बार अल उतबी (Abu Nashr-bin-Muhammad al Jabbar Al Utbi) ने की थी। उतबी का सम्बन्ध फारस के उत्ब  परिवार से था, जो महमूद गजनवी की सेवा में था। इस कारण उतबी को महमूद गजनवी और उसके कार्यकलापों की व्यक्तिगत जानकारी थी। इस पुस्तक से सुबुक्तगीन (Subuktigin) और महमूद गजनवी (Mahmud of Ghazn) के 1020 ई. तक का इतिहास पता चलता है। इस पुस्तक से हमें तिथियों का सही विवरण नहीं मिलता परन्तु महमूद गजनवी पर यह एक महान पुस्तक है।

तारीख-ए-मसूदी Tarikh-i-Masudi

इस किताब को अरबी भाषा में अबुल फजल मुहम्मद-बिन-हुसैन-अल-बैहाकी (Abul Fazal Muhammad-bin-Husain-al-Baihaqi) ने लिखा था। बैहाकी, महमूद गजनवी के उत्तराधिकारी मसूद का एक कर्मचारी था। इससे 1059 ई. तक गजनी वंश के इतिहास, उसके शासन काल और उसके चरित्र की जानकारी मिलती है।

तारीख-ए-हिंद Tarikh-i-hind

अबु रेहान मुहम्मद बिन अहमद अल-बयरुनी या अल बेरुनी (973-1048) फ़ारसी  और अरबी भाषा का एक विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक था, जिसे चिकित्सा, तर्कशास्त्र, गणित, दर्शन, धर्मशास्त्र की भी अच्छी जानकारी थी। ग़ज़नी के महमूद, जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किये, के कई अभियानों में वो सुल्तान के साथ था। अपने भारत प्रवास के दौरान उसने संस्कृत सीखी और हिन्दू धर्म और दर्शन का अध्ययन भी किया। उसने अपनी इस अरबी भाषा की किताब में तिथियों का सटीक वर्णन किया है। इस किताब से हमें ११विन शताब्दी के भारत के हिन्दू धर्म, साहित्य और विज्ञान की जानकारी मिलती है। उसने महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत की स्थिति का विस्तार से वर्णन किया है।

ताज-उल-मासिर Taj-Ul-Maasir 

इस पुस्तक को हसन निजामी (Hasan Nizami) द्वारा लिखा गया था, जो मुहम्मद गोरी (Muhammad of Ghor) के साथ भारत आया था। यह पुस्तक दिल्ली में सल्तनत काल के प्रारंभिक वर्षों की जानकारी का मुख्य स्रोत है। इस पुस्तक में 1192 ई. के ताराइन के युद्ध से 1228 ई. तक क़ुतुब-उद-दीन ऐबक (Qutub-ud-din Aibak) और इल्तुतमिश (Iltutmish) के इतिहास की जानकारी मिलती है। यह समकालीन रचना अरबी और फारसी दोनों में लिखी गयी है।

तबकात-ए-नसीरी Tabqat-i-Nasiri

तबकात-ए-नसीरी 1260 ई. में मिनहाज अल-सिराज जुज़ानी (Minhaj al-Siraj Juzjani) द्वारा फारसी भाषा में लिखी गयी पुस्तक है। यह पुस्तक भारत पर मुहम्मद गोरी के आक्रमण का वर्णन करती है। मिनहाज़ नासिर-उद-दीन महमूद (Nasir-ud-din Mahmud) के शासन में मुख्य काज़ी और इतिहासकार भी था। इसने ग़ोरी राजवंश या ग़ोरी सिलसिला (Ghurid dynasty) भी लिखी है। तबकात-ए-नसीरी में 23 अध्याय हैं। यह पुस्तक दिल्ली में सल्तनत काल के इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है। तबकात-ए-नसीरी 1229-1230 में दिल्ली के सुल्तान के खिलाफ बंगाल में खलजी विद्रोह की जानकारी का एकमात्र स्रोत है।

इस पुस्तक के कुछ अध्यायों में इस प्रकार जानकारी दी गयी है –

खंड 11 – सुबुक्तिगीन से खुसरो मलिक तक के ग़ज़नवी साम्राज्य का इतिहास

खंड 17 – ग़ोरी राजवंश का 1215 ई. में उदय और सुल्तान अलाउद्दीन के साथ उनका अंत

खंड 19 – गोरी सुल्तान सैफुद्दीन सूरी (Saifuddin Suri) से क़ुतबुद्दीन ऐबक (Qutbuddin Aibek) तक का इतिहास

खंड 20 – ऐबक का इतिहास और 1226 में इल्तुतमिश का इतिहास

खंड 22 –  1227 से सल्तनत के भीतर दरबारियों, जनरलों और प्रांतीय गवर्नरों की जीवनी आदि, वजीर बलबन के प्रारंभिक इतिहास तक

खंड 23 – चंगेज खान के विषय में विस्तृत जानकारी और 1259 तक और उसके उत्तराधिकारी मंगोलों द्वारा मुस्लिमों पर किये गए अत्याचार।

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खजाइन-उल-फुतूह Khazain-ul-Futooh

खजाइन-उल-फुतूह का अर्थ होता है ‘जीत के खजाने’। यह किताब आमिर ख़ुसरो (Amir Khusrow) द्वारा लिखी गयी है। ख़ुसरो एक जाने-माने लेखक थे जो 1290 से लेकर 1325 ई. तक दिल्ली के सुल्तान जला-उद-दीन खलजी (Jala-ud-din Khalji) से लेकर मुहम्मद बिन तुगलक (Muhammad-bin-Tughluq) के समकालीन थे। वे अपने समकालीन लगभग सभी सुल्तानों के दरबार में प्रमुख कवि थे। उन्होंने सभी घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था इसलिए किये गए कार्य बहुत महत्वपूर्ण हैं।

मिफ्ताह-उल-फुतूह Miftah-ul-Futooh (1291 ई.)

मिफ्ताह-उल-फुतूह (जीत के लिए कुंजी) भी आमिर ख़ुसरो द्वारा लिखी गयी है, इसमें जलालुद्दीन खिलजी की जीत की प्रशंसा की गयी है। इसमें मालिक छज्जू द्वारा किये गए विद्रिः का भी वर्णन है।

किरान-उस-सादैन Qiran-us-Sa’dain (1289 ई.)

किरान-उस-सादैन (दो शुभ सितारों की बैठक), आमिर ख़ुसरो द्वारा लिखी गयी इस किताब में बुगरा खां (Bughra Khan) और उसके बेटे कैकुबाद (Kikabad) की भेंट और समझौते का वर्णन है।

इश्किया / मसनवी दुवल रानी-ख़िज़्र खाँ Ishqia/Mathnavi Duval Rani-Khizr Khan (1316 ई.)

आमिर ख़ुसरो द्वारा लिखी इस मसनवी (कविता) में अलाउद्दीन के पुत्र खिज्र खां और गुजरात के राजा करन सिंह की पुत्री दुवल रानी के प्रेम का वर्णन है। इसमें अलाउद्दीन की गुजरात विजय का भी वर्णन है।

नुह सिपहर Noh Sepehr (1318 ई.)

इस मसनवी में भारत और उसकी संस्कृति की खुसरो ने अपनी धारणाओं के बारे में लिखा है।

तुगलकनामा Tughluq Nama (1320 ई.)

ख़ुसरो ने इसमें तुगलक वंश के शासन का इतिहास लिखा है। इस किताब में गयासुद्दीन तुग़लक़ (Ghiyath al-Din Tughluq ) की ख़ुसरो खां पर जीत का उल्लेख है, जिसके परिणामस्वरूप तुगलक वंश की स्थापना हुई। इस आमिर ख़ुसरो की अंतिम ऐतिहासिक कृति माना जाता है।

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तारीख-ए-फिरोजशाही Tarikh-i-Firozshahi (1357 ई.)

जिया-उद-दीन बरनी (Zia-ud-din Barani) ने तारीख तारीख-ए-फिरोजशाही को लिखा था। बरनी, गयासुद्दीन तुग़लक़, मुहम्मद-बिन-तुगलक और फिरोज शाह तुगलक का समकालीन था। इस किताब में बरनी ने बलबन के शासन काल से लेकर फिरोज शाह तुगलक के शासन के छठें वर्ष तक के इतिहास का वर्णन किया है। बरनी ने सुल्तानों और उनके सैन्य अभियानों के अलावा, उस समय की सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक दशा एवं न्याय व्यवस्था का भी विस्तृत वर्णन किया है। उसने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों, अमीरों और सूफी संतो का भी वर्णन किया है। बरनी ने अल्लाउद्दीन की बाजार नियंत्रण व्यवस्था और आर्थिक सुधारों का भी विस्तार से वर्णन किया है। राजस्व प्रशासन का पूरी तरह से वर्णन इस पुस्तक की प्रमुख विशेषता है।

तारीख-ए-फिरोजशाही Tarikh-i-Firozshahi (1398 ई.)

इस पुस्तक की रचना, शम्स-ए-सिराज अफीफ (Shams-i-Siraj Afif) ने की थी। अफीफ की यह पुस्तक फिरोजशाह तुगलक़ के शासन काल का विस्तृत वर्णन देती है। अफीफ ने इसे तैमुर के आक्रमण के कुछ समय बाद लिखा था। फारसी भाषा में लिखी इस पुस्तक में फिरोजशाह के शासन काल की सैन्य, राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन है। फिरोजशाह द्वारा प्रचलित जागीर प्रथा का भी इसमें वर्णन है। फिरोजशाह के शासन काल की जानकारी के लिए यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।

तारीख-ए-मुबारक शाही Tarikh-i-Mubarak Shahi

इस किताब को याहिया बिन अहमद सरहिन्दी (Yahya bin Ahmad of Sirhind) ने लिखा है, जिसे सय्यद वंश (Sayyid ruler) के शासक मुबारक शाह (Mubarak Shah) का आश्रय प्राप्त था। याहिया बिन अहमद ने इस किताब का प्रारम्भ मुहम्मद गोरी (Muhammad of Ghur) के आक्रमण से शुरू करके, सय्यद वंश के तीसरे शासक मुहम्मद शाह तक का इतिहास लिखा है। सय्यद वंश का इतिहः जानने के लिए यह एकमात्र स्रोत है।

फुतुहात-ए-फिरोजशाही Futuhat-e-firozshahi

यह फिरोजशाह तुगलक की आत्मकथा है। इस पुस्तक को लिखने का फिरोजशाह का मुख्य उद्देश्य स्वयं को एक आदर्श मुसलिम शासक सिद्ध करना था। इस किताब से उसके प्रशासन सम्बंधित कुछ जानकारियां मिलती हैं।

फुतूह-उस-सलातीन Futuh-us-Salatin (1349 ई.)

यह किताब ख्वाजा अब्दुल्ला मालिक इसामी (Kwaja Abdulla Malik Isami) ने लिखी थी, जो मुहम्मद तुगलक का समकालीन था।  जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दक्कन स्थित दौलताबाद स्थानांतरित की थी, तो इसामी का परिवार भी यहाँ आ गया था।  बहमनी साम्राज्य (Bahamani Kingdom) के संस्थापक अलाउद्दीन हसन बहमन शाह (Alauddin Hasan Bahman Shah) ने उसे अपने यहाँ आश्रय दिया था। फुतूह-उस-सलातीन एक कवित के रूप में लिखी गयी है।

यह किताब मुहम्मद गजनी के एअज्वंश से लेकर तुगलक वंश तक के इतिहास का वर्णन करती है। यह किताब दक्कन के इतिहास का महत्वौर्ण स्रोत है। इसामी मुहम्मद तुगलक की किसी बात पर नाराज हो गया था, और उसने तुगलक के कई कामो को इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ बताया है। बाद के कई इतिहासकारों, जैसे बदायूनी और फिरिस्ता आदि ने अपने लेखन के लिए फुतूह-उस-सलातीन की मदद ली है।

रिहला Rihla

रिहला का अर्थ होता है यात्रा। इब्न बतूता मोरक्को, अफ्रीका का एक यात्री था। इब्न बतूता (Ibn Battuta) भारत में 14 वर्षों तक रहा। उसने मुहम्मद शाह तुगलक के शासन में 10 वर्षों तक काज़ी का काम किया। सुल्तान ने उससे किसी बात पर नाराज़ होकर उसे निकाल दिया, परन्तु जल्दी ही सम्राट को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने बतूता को चीन की यात्रा पर भेजने का निश्चय किया। इब्न बतूता चीन पहुँच नहीं सका, क्योंकि उसका जहाज रस्ते में ही टूट गया और वह भारत वापस आ गया। यहाँ से वह वापस अपने घर चला गया।

यहाँ उसने अपनी यात्राओं का रिहला शीर्षक के अंतर्गत वर्णन लिखा। इब्न बतूता ने सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक और सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासन के दौरान की घटनाओं, प्रशासन, मेलों और त्यौहारों, बाजारों, भोजन और भारतीय कपड़े, शहर के जीवन, अदालत, अर्थव्यवस्था, समाज, जलवायु आदि का वर्णन किया है।

उसने अपना यह कम अफ्रीका में रहते हुए पूरा किया था और उसे भारत के किसी भी शासक का कोई प्रलोभन और भय नहीं था, इसलिए उसके लेखन को भारतीय इतिहास के एक प्रामाणिक स्रोत-सामग्री के रूप में माना गया है।

तुजुक-ए-बाबरी Tuzuk-i-Baburi

तुजुक-ए-बाबरी या बाबरनामा बाबर की आत्मकथा है जिसे बाबर ने तुर्की भाषा में लिखा है। मुग़ल काल के दौरान कई लेखकों ने इस किताब का फारसी में अनुवाद किया। इसके बाद इसका कई यूरोपीय भाषाओँ में भी अनुवाद हुआ। तुजुक-ए-बाबरी की प्रशंसा कई इतिहासकारों ने की है, और कुछ ने इसे भारत के वास्तविक इतिहास का एक मात्र स्रोत माना है। इस किताब में न सिर्फ बाबर के जीवन की घटनाओं के विषय में जानकारी मिलती है, बल्कि इससे उसके चरित्र, व्यक्तित्व, ज्ञान, क्षमता, कमजोरी के बारे में भी जानकारी मिलती है। यह कहा जा सकता है की इस किताब में बाबर ने सच्चाई लिखने की पूरी कोशिश की है। बाबर ने अपने दोस्तों के साथ शराब और अफीम के अपने प्रयोग के बारे में भी लिखा है। बाबर ने निष्पक्ष होकर अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में लिखा। उसने दौलत खान लोदी, इब्राहिम लोदी, आलम खान लोदी, राणा संग्राम सिंह आदि के चरित्र, व्यक्तित्व और उनके कार्यों के बारे में भी लिखा है। उसने अपने जीवन के दौरान किये गए दौरों के दौरान खूबसरत जलवायु, हाड़ों, नदियों, जंगलों, वनस्पतियों और जीव, पेड़ और फूल, प्रकृति की सुंदरता का भी वर्णन किया।

तुजुक-ए-बाबरी ने बाबर ने भारत के बारे भी वर्णन किया है। उसने यहाँ की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, नदियों, राजनीतिक स्थिति, विभिन्न राज्यों और उनके शासकों के साथ-साथ लोगों के पहनावे, भोजन और रहने की हालत का वर्णन किया है। जब बाबर यहाँ के लोगों के साथ पहली बार संपर्क में आया तो वह भारतीयों और उनके रहने की स्थिति से प्रभावित नहीं था। उसने यहाँ के बारे में लिखा है, “यहां के लोग न तो सुंदर हैं और न ही सुसंस्कृत।“ उसने लिखा है की यहाँ अच्छे घोड़े, कुत्ते, अंगूर, तरबूज या अन्य फल नहीं मिलते हैं, और बाज़ारों में अच्छी रोटी और पका हुआ भोजन भी नहीं मिलता है। यहाँ कोई गर्म स्नान और कोई अच्छा कॉलेज नहीं हैं। लोग यहाँ मोमबत्ती या मशालों का उपयोग नहीं करते, इसके बजे वे तेल के लैम्प का उपयोग करते हैं, जो उनके नौकर ले कर चलते हैं। बड़ी नदियों के बावजूद यहाँ पानी की कमी है। यहाँ के बागानों कोई चारदीवारी नहीं है। घर अच्छी तरह से भी नहीं बने हुए हैं, और उनमे ताजा हवा के लिए कोई व्यवस्था भी नहीं है। किसानों और गरीब लोग लगभग  नग्न रहते हैं। यहाँ के पुरुष लंगोट पहनते हैं और महिलाएं सिर्फ एक कपडे से अपने शरीर को ढकी रहती हैं। हालाँकि उसने भारत की विशालता और यहाँ की समृद्धि की प्रशंसा भी की है। उसने भारत की बरसात के मौसम की सराहना की है, लेकिन यह भी लिखा कि, इस मौसम में यहाँ नमी से सब कुछ ख़राब हो जाता है। बाबर ने यहाँ हर तरह के कामगार बड़ी संख्या में उपलब्ध होने और बड़ी संख्या में उनके आगरा, सीकरी, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर और कोल पर उसके भवनों पर कम करने के बारे में भी लिखता है। उन्होंने वर्णन किया है कि कामगार के हर समूह, एक खास जाति के थे और हर जाति पीढ़ियों से अपने पेशे का अनुसरण करती थी। बाबर ने यहां अपने दुश्मनों के खिलाफ उसकी लड़ाई और भारत की राजनीतिक स्थिति का वर्णन किया है। उसने दिल्ली, गुजरात, बहमनी, मालवा और बंगाल के मुसलिम शासकों और मेवाड़ और विजयनगर के हिन्दू शासकों का विवरण दिया है। उसने दौलत खान लोदी, इब्राहिम लोदी और राणा संग्राम सिंह के खिलाफ अपनी लड़ाईयों, सैनिकों की संख्या और उनकी सफल रणनीति का विवरण भी दिया है।

बाबर के लिखे विवरणों को सही नहीं मन जा सकता, परन्तु उसकी किताब तुजुक-ए-बाबरी आज भी समकालीन इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है।

तारीख-ए-राशिदी Tarikh-i-Rashidi

इस किताब को बाबर के चचेरे भर मिर्जा मुहम्मद हैदर दुघलात (Mirza Muhammad Haidar Dughlat) ने फारसी भाषा में लिखा था। मिर्जा हैदर ने बाबर और हुमायूँ के जीवन की घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था। उसने, हुमायूँ के साथ शेरशाह सूरी के खिलाफ कन्नौज का युद्ध भी लड़ा था। मिर्जा हैदर ने अपनी किताब को दो भागों में बनता है, पहले भाग में उसने 1347-1553 ई. तक मुग़ल सम्राटों का इतिहास किखा है, और दूसरे भाग में उसने 1541 तक की अपने जीवन की घटनाओं के बारे में लिखा है। दूसरे भाग से हमें ज्यादा महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं।

हुमायूँ-नामा Humayun-nama

फारसी भाषा में इस किताब को गुलबदन बेगम (Gulbadan Begum) जो बाबर की पुत्री और हुमायूँ की सौतेली बहन थी, ने लिखा है। इस किताब को उसने अकबर के शासनकाल में उसके निर्देशों पर लिखा। उसने बाबर के शासन के बाद की घटनाओं और सम्राटों के शासनकाल की घटनाओं का वर्णन किया है, लेकिन उसने सम्राटों के चरित्र, व्यक्तित्व और परिवार के संबंधों पर ज्यादा जोर दिया है। इस किताब से कोई बहुत महत्वपूर्ण जानकारी नहीं मिलती है।

तारीख-ए-शेर शाही या तौहफा-ए-अकबर-शाही Tarikh-i-Sher Shahi or Tauhfa-i-Akbar-Shahi

फारसी भाषा में इस किताब को अब्बास खान सरवानी (Abbas Khan Sarwani) ने अकबर के निर्देशों पर लिखा है। इस किताब का केवल कुछ भाग ही उपलब्ध है। इस किताब को उसने शेरशाह की मौत के 40 वर्ष बाद लिखा, और उसने खुद को शेरशाह के परिवार से सम्बंधित बताया है। उसने हर घटना की जानकारी के स्रोत सामग्री का वर्णन किया है, सुर इस किताब की प्रामाणिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता है। इसलिए, तारीख-ए-शेर शाही को एक प्रामाणिक स्रोत-सामग्री के रूप में माना गया है। उसने शेरशाह के द्वारा किसानो की देखभाल और जनता के कल्याण के कामों के बारे में भी लिखा है। इस पुस्तक में शेरशाह, इस्लाम शाह और अंत में सूर शासकों के बारे में जानकारी दी गयी है।

तारीख-ए-फ़रिश्ता Tarikh-i-Firishta

मुहम्मद कासिम हिंदू शाह (Muhammad Qasim Hindu Shah) या फ़रिश्ता ने बीजापुर के शासक आदिल शाह द्वितीय के सेवा में रहते हुए अपने कम को पूरा किया था। उसके द्वारा किये गए काम को तारीख-ए-फ़रिश्ता और गुलशन-ए-इब्राहीम (Tarikh-i Firishta and the Gulshan-i Ibrahim) के नाम से जाना जाता है। फ़रिश्ता ने 13 खंडो के अपने काम में भारत के इतिहास को शुरू से लिखने की कोशिश की है। उसने राजाओं और उनके राज्यों, मुसलिम सूफियों, भारत की भौगोलिक स्थिति और यहाँ की जलवायु के बारे में भी लिखा है।

अकबरनामा Akbar-nama

फारसी भाषा में इस किताब को अबुल फज़ल (Abul-Fazal) ने लिखा है। इस किताब के तीन प्रमुख भाग हैं, जिसमे पहले भाग में मुगलों का इतिहास आमिर तैमुर (Amir Timur) से लेकर हुमायूँ के शासन तक है। दुसरे और तीसरे भाग में सन 1602 तक के अकबर के शासन का उल्लेख है। अबुल फ़जल उस समय की घटनाओं और उनके कारणों की भी जानकारी दी है। उसने बाबर की तुजुक-ए-बाबरी की कमियों को भी दूर करने का प्रयास किया है। उसने विस्तार में हुमायूं के शासनकाल की घटनाओं का वर्णन किया और शेरशाह की हुमायूं के साथ प्रतिद्वंदिता का विवरण भी दिया है। उसने अकबर के शासन, उसकी नीतियों और उनके प्रभावों के बारे में विस्तार से लिखा है। अकबरनामा मुग़ल इतिहास को जानने का एक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय स्रोत है।

उसने बाबर, हुमायूँ और विशेष रूप से अकबर की महिमा का वर्णन किया है, साथ ही शेर शाह और इस्लाम शाह की बुरे भी की है। इस किताब के तीसरे भाग को आईन-ए-अकबरी (Ain-i-Akbari) के नाम से भी जाना जाता है।

आईन-ए-अकबरी Ain-i-Akbari

फारसी भाषा में इस किताब को भी अबुल फज़ल ने लिखा था। इस किताब में अबुल फज़ल ने अकबर के शासनकाल की घटनाओं का वर्णन नहीं किया है, बल्कि उसके प्रशासन, कानून, नियम, विनियम आदि का वर्णन है। यह किताब भी 3 खण्डों में लिखी गयी है। अबुल फज़ल ने इसमें शाही खजाने, सिक्कों, हरम, अदालत, समारोह, सैन्य और नागरिक अधिकारियों, उनके पद, न्याय और राजस्व प्रशासन की स्थिति, राज्य की आय के स्रोतों और व्यय, अकबर का दीन-ए-इलाही, विदेशी आक्रामकता, हिंदू और मुस्लिम संतों और विद्वानों, आदि के बारे में लिखा है। इसलिए, आईन-ए-अकबरी को अकबर के शासनकाल के दौरान संस्कृति और प्रशासन के बारे में जानने का एक अनमोल स्रोत माना गया है।

तबकात-ए-अकबरी Tabaqat-i-Akbari

इस किताब को ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद (Khvaja Nizam-ud-din Ahmad) ने लिखा था। इसमें भारत में मुसलिम शासन के प्रारंभ से लेकर अकबर के शासन के 29वें वर्ष तक की घटनाओं का वर्णन है। यह तीन भागों में विभाजित है, जिसके पहले भाग में निजामुद्दीन अहमद ने भारत में मुस्लिम शासन और दिल्ली के सुल्तानों के इतिहास की शुरुआत का वर्णन किया है। इसके दुसरे भाग में उसने मुग़ल साम्राज्य के बारे बाबर से लेकर अकबर के शासन के 29वें  वर्ष तक लिखा है। तीसरे भाग में वः राज्यों के बारे में लिखता है, जिसमे उसने मालवा और गुजरात के बारे में विस्तार से लिखा है। तबकात-ए-अकबरी मध्यकालीन इतिहास के एक बड़े हिस्से के विषय में व्यापक ज्ञान प्रदान करता है अतः इसे एक महत्वपूर्ण साहित्यिक स्रोत सामग्री के रूप में माना गया है।

मुंतखाब-उत-तवारीख Muntakhab-ut-Tawarikh or Tarikh-i-Badauni

इस किताब को अब्दुल कादिर बदायूनी (Abdul Qadir Badauni) ने लिखा है, जो अकबर के शासन के दौरान अरबी, फारसी और संस्कृत का एक विद्वान था। बदायूँनी, अबुल फज़ल का छात्र था, और अकबर द्वारा अबुल फज़ल को अधिक सम्मान दिए जाने के कारण वह उससे ईर्ष्या भी करता था। बदायूँनी धीरे-धीरे कट्टरपंथी सुन्नियों के समूह के समर्थक बन गया। इस कारन अकबर उससे नाराज हो गया और उसे दरबार में रहकर विभिन्न ऐतिहसिक लेखों का फारसी में अनुवाद करने को कहा। उसने अपने कई मूल लेखों के अलावा अरबी और संस्कृत के कई ग्रंथों का फारसी में अनुवाद किया है। उसके मूल ग्रंथों में तारीख-ए-बदायूँनी को सबसे अच्छा ऐतिहासिक ग्रन्थ माना गया है।

तारीख-ए-बदायूँनी भी तीन भागों में विभाजित है, जिसके पहले भाग में बदायूँनी ने सुबुक्तगीन से लेकर हुमायूँ के शासन तक का इतिहास लिखा है। दुसरे भाग में उसने सं 1594 तक के अकबर के शासन का इतिहास लिखा है।

बदायूँनी गंभीरता से अकबर की धार्मिक नीति की आलोचना करता है। इसलिए उसने जहाँगीर के शासन में इस भाग को सामने लाया। तीसरे भाग में उसने समकालीन संतों और विद्वानों की गतिविधियों और उनके जीवन के बारे में वर्णन किया है। बदायूँनी का अकबर के खिलाफ विवरणउसके पक्षपात को दर्शाता है। परन्तु यह आज भी अकबर के शासन के दूसरे पक्षों को समझने में आधुनिक इतिहासकारों की मदद करता है।

तुजुक-ए-जहाँगीरी Tuzuk-i-Jahangiri

तुजुक-ए-जहाँगीरी सम्राट जहाँगीर की आत्मकथा है। इस संस्मरण में जहाँगीर ने अपने गद्दी पर बैठने से लेकर अपने शासन के 17वें वर्ष तक का वर्णन किया है। उसके बाद उसने यह काम अपने बक्शी, मुतामिद खान (Mutamid Khan) को दे दिया। मुतामिद खां इसे जहाँगीर के शासन के 19वें वर्ष तक ही लिख पाया। अधिकांश मामलों में जहाँगीर ने सच्चाई और विस्तार से लिखा है। उसने अपनी कमजोरियों को भी नहीं छिपाया है।

जहाँगीर ने अपने बड़े बेटे खुसरौ (Khushrau) के विद्रोह, के बारे में लिखा है। जहाँगीर ने अपने दैनिक जीवन की दिनचर्या, न्याय, अदालत में आयोजित समारोहों, राजपूतों और हिन्दुओं के साथ उसके वयवहार, अपनी यात्राओं, अपने सैन्य अभियानों और नूरजहाँ के साथ उसकी शादी के बारे में लिखा है। उसने जिन स्थानों का दौरा किया था वहां की जलवायु, प्रकृति, पक्षी, पशु, फूल की सुंदरता आदि का वर्णन किया है। उसने चित्रकारी के अपने ज्ञान और रूचि के बारे में भी लिखा है। जहाँगीर के ये सभी वर्णन, जहाँगीर के शासनकाल के दौरान भारत के इतिहास और संस्कृति की जानकारी प्रदान करते हैं।

इकबाई-नामा Iqbai-nama

इकबाई-नामा को मुतामिद खां द्वारा लिखा गया था। इसे तीन भागों में बांटा जा सकता है। पहले भाग में मुतामिद खां ने आमिर तैमुर के इतिहास से लेकर बाबर और हुमायूँ तक का इतिहास लिखा है, दुसरे भाग में उसने अकबर के शासन और तीसरे भाग में जहाँगीर के शासन का वर्णन किया है।

मुतामिद खान को जहाँगीर ने आश्रय दिया था, तो उसने जहाँगीर के व्यक्तित्व को अतिरंजित किया है। शाहजहाँ के शासन में उसने बेगम नूरजहाँ की गतिविधियों के खिलाफ असंतोष व्यक्त किया है। उसका वर्णन पक्षपात पूर्ण लगता है, फिर भी यह पुस्तक महत्पूर्ण है।

पादशाहनामा Padshah-nama, मुहम्मद अमीन काज़िनी (Muhammad Amin Qazuini) द्वारा लिखी गयी

मुहम्मद अमीन काज़िनी को शाहजहाँ ने अपने शासन का इतिहास लिखने का निर्देश दिया था। उसने शाहजहाँ के शासन के 10 वर्षों तक इसे लिखा, फिर उसे इस काम को बंद करने के लिए कहा गया। काज़िनी ने अपने कम को तीन भागों में बनता, पहले में वः शाहजहाँ के बचपन से उसके गद्दी पर बैठने के बारे में लिखता है। दुसरे भाग में वः शाहजहाँ के शासन के दस वर्षो के बारे में वर्णन करता है। तीसरे भाग में उसने विद्वानों और संतों की सूची दी है। उसके विवरणों को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

पादशाहनामा, अब्दुल हामिद लाहौरी (Abdul Hamid Lahauri) द्वारा लिखी गयी

काज़िनी से यह काम बंद करा के, यह काम अब्दुल हामिद लाहौरी को सौंपा गया। उसने इस किताब को दो भागों में बांटा है। पहला भाग ज्यादातर काज़िनी के ही काम पर आधारित है, जो और विस्तृत रूप में लिखा गया है। दूसरे भाग में उसने शाहजहाँ के अगले 10 वर्षों के शासन के बारे में लिखा था। लाहोरी का काम ज्यादा विस्तृत है, जिससे इतिहासकारों को महत्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं।

पादशाहनामा, मुहम्मद वारिस (Muhammad Waris ) द्वारा लिखी गयी

लाहौरी ने अपने कम को 1648 तक किया और 1654 में उसकी मृत्यु हो गयी। अपनी मौत से पहले उसने अपनी जिम्मेदारी अपने शिष्य मुहम्मद वारिस को सौंप दी थी। वारिस ने शाहजहाँ के शासन काल का पूरा इतिहास लिखा है। उसके द्वारा शाहजहाँ के शासन के पहले 20 वर्षों का वर्णन, लाहौरी के काम पर ही आधारित है, परन्तु अगले 10 वर्षों का इतिहास उसने स्वतंत्र होकर लिखा है। उसके द्वारा दिया गया वर्णन शाहजहाँ के शासन काल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता है।

मुन्ताखाब-उल-लुबाब या तारीख-ए-खाफी खान Muntakhab-ul-lubab or Tarikh-i-Khafi Khan

इसे हाशिम काफी खान ने लिखा था। इसने बाबर के भारत पर आक्रमण से प्रारंभ कर, बाद के मुग़ल शासक मुहम्मद शाह के पंद्रह वर्ष के शासन का वर्णन लिखा है। खाफी खां ने औरंगजेब के शासन के बारे में विस्तार से लिखा है। उसने शिवाजी पर, अफजल खां की हत्या का आरोप लगाया है। हैदराबाद के निजाम-उल-मुल्क आसफ जाह के संरक्षण में होने के कारन उसने निजाम की सराहना भी की है।

शाहजहाँनामा Shahjahan-nama

इस किताब को मुहम्मद ताहिर ने लिखा है, जिसे इनायत खां (Inayat Khan) के नाम से भी जाना जाता है। इनायत खां शाही इतिहासकार था। उसने 1657-58 तक शाहजहाँ के शासन काल का इतिहास लिखा है।

आलमगीरनामा Alamgirnama (1688 ई.)

इसे मिर्ज़ा मुहम्मद काजिम (Mirza Muhammad Qazim) ने लिखा है। इस किताब में उसने आलमगीर औरंगजेब के शासन के 10 वर्षो के इतिहास का वर्णन किया है, इसके बाद औरंगजेब ने इतिहास लेखन पर प्रतिबन्ध लगवा दिया।

फुतुहात-ए-आलमगीरी Futuhat-i-Alamgiri

फुतुहात-ए-आलमगीरी को एक हिन्दू गुजराती ब्राह्मण ईश्वरदास नागर (Ishwardas Nagar)  द्वारा लिखा गया था। इसे गुजरात के सूबेदार शुजात खां ने जोधपुर परगने में अमीन नियुक्त किया था। इस किताब में 1657 से 1700 तक का इतिहास है।

इन विवरणों के अलावा हमें अन्य विदेशी यात्रियों के विवरणों से भी सहायता मिलती है|

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