ध्वनि Sound

ध्वनि एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसकी उत्पत्ति किसी न किसी वस्तु के कम्पन करने से उत्पन्न होती है, जब हम किसी घण्टे पर चोट मारते हैं तो हमें ध्वनि सुनाई पड़ती है तथा घण्टे को हल्का सा छूने पर उसमें झनझनाहट का अनुभव होता है। जैसे ही घण्टे का कम्पन बंद हो जाता है, ध्वनि भी बंद हो जाती है। इसी प्रकार, जब सितार के तार अंगुली से दबाकर छोड़ते हैं तो वह कम्पन करने लगता है तथा उससे ध्वनि निकलती है परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि हर कम्पन से ध्वनि उत्पन्न हो। ध्वनि तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20 हटर्ज से 20,000 हटर्ज के बीच होती है एवं उनकी अनुभूति हमें अपने कानों द्वारा होती है, ध्वनि तरंगे कहलाती है। ध्वनि तरंगे अनुदैर्ध्य यांत्रिक तरंगे होती हैं। जब किसी माध्यम से कपन होता है तो ध्वनि उत्पन्न होती है।

ध्वनि का संचरण

ध्वनि के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में किसी न किसी पदाशिक माध्यम गैस, द्रव अथवा ठोस का होना आवश्यक है, ध्वनि निर्वात में होकर नहीं चल सकती निर्वात में घंटी तो बजती है कितु आवाज सुनाई नहीं पड़ती है। ध्वनि माध्यम की प्रत्यास्थता एवं घनत्व पर निर्भर करती है, जो पदार्शिक माध्यम प्रत्यास्थ नहीं होते, उसमें अधिक दूरी तक संचरण नहीं हो पाता। दैनिक जीवन में किसी ध्वनि स्रोत से उत्पन्न ध्वनि प्राय: वायु से होकर हमारे कान तक पहुंचती है परन्तु ध्वनि द्रव व ठोस से होकर भी चल सकती है। यही कारण है कि गोताखोर जल के भीतर होने पर भी ध्वनि को सुन लेता है। ध्वनि के वेग पर ताप का भी प्रभाव पड़ता है। तापक्रम में 1 डिग्री सैल्सियस की वृद्धि से ध्वनि वेग में 60 से.मी./सेकेण्ड की वृद्धि होती है। इसी प्रकार रेल की पटरी से कान लगाकर बहुत दूर से आती हुई रेलगाड़ी की ध्वनि सुनी जा सकती है। ध्वनि किसी भी माध्यम में अनुदैर्ध्य तरंगों के रूप में चलती है।

ध्वनि का अभिग्रहण

सामान्यतः हमें ध्वनि की अनुभूति अपने कानों के द्वारा होती है। जब किसी कम्पित वस्तु से चलने वाली ध्वनि-तरंगें हमारे कान के पर्दे से टकराती है तो पर्दे में उसी प्रकार के कम्पन होने लगते हैं। तो इससे हमें ध्वनि का अनुभव होता है।

ध्वनि की चाल

प्रयोगों से पता चलता है कि ध्वनि के संचरण के लिए वही वस्तु माध्यम का काम दे सकती है, जिसमें प्रत्यास्थता हो तथा जो अविच्छित रूप से ध्वनि स्रोत से कान तक फैली हो। जिन वस्तुओं में ये गुण नहीं होते, जैसे- लकड़ी का बुरादा, नमक इत्यादि, इनमें होकर ध्वनि नहीं चल सकती। विभिन्न माध्यमों में ध्वनि की चाल भिन्न-भिन्न होती है। द्रवों में ध्वनि की चाल गैसों की अपेक्षा अधिक तथा ठोसों में सबसे अधिक होती है।


जब ध्वनि एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती है तो ध्वनि की चाल तथा तरंगदैर्ध्य बदल जाती है, जबकि आवृत्ति नहीं बदलती है। अत: किसी माध्यम से ध्वनि की चाल ध्वनि की आवृत्ति पर निर्भर नहीं करती।

ध्वनि की चाल पर विभिन्न कारकों का प्रभाव

  1. [latex]v=\sqrt { \frac { E }{ d } }[/latex] E → प्रत्यास्थता, d → घनत्व
  2. [latex]ν\quad ∝\quad \sqrt { T }[/latex] T → तापमान
  3. α ∝ आर्द्रता
  4. v पर दाब का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

शोर या कोलाहल

जिस ध्वनि का कानों पर मधुर प्रभाव होता है, उसे संगीत कहते हैं और कर्कश और कष्टदायक ध्वनि को शोर या कोलाहल कहते हैं।

कोलाहल का सबसे अधिक महत्वपूर्ण लक्षण है- ध्वनि की प्रबलता। प्रबलता एक अनुभूति है, जो कान विशेष पर निर्भर करती है। एक ही तीव्रता की ध्वनि को सुनकर दो अलग-अलग कान विभिन्न प्रबलता का अनुभव कर सकते हैं या दो अलग-अलग आवृत्ति की ध्वनियों की तीव्रता एक होने पर एक ही कान को उनकी प्रबलता अलग-अलग प्रतीत हो सकती है। प्रबलता वास्तव में श्रोता के कान की संवेदनशीलता पर निर्भर करती है। इसी के आधार पर हमें ध्वनि धीमी या तीव्र प्रतीत होती है। प्रबलता नापने की अनेक विधियां हैं। कोलाहल पैदा करने वाले अनेक स्रोत हैं, जैसे- स्कूटर, कार, बस, रेल, हवाईजहाज, कारखाने, रेडियो, टेलीविजन, लाउडस्पीकर, विस्फोटक आतिशबाजी आदि।

ऐसा बहुत कम होता है कि कोलाहल से कोई शारीरिक क्षति हो जाए। यह तभी होता है जब किसी व्यक्ति को लम्बे समय तक ऐसे अत्यन्त प्रबल स्तर के कोलाहल में रहना पड़े जो सामान्य जीवन को कोलाहल से बहुत की अधिक स्तर का हो। सामान्य मनुष्य को शायद ही कभी लम्बे समय तक इतने कोलाहल में रहना पड़े कि उसकी सुनने की शक्ति को कोई स्थायी नुकसान हो सके। लेकिन लगभग 1000 हर्ट्ज़ की आवृत्ति को स्वरक का शरीर पर अस्थाई प्रभाव को सकता है, यदि उसकी तीव्रता का स्तर 100 डेसीबेल हो। हवाई सैनिकों का अस्थायी बहरापन इसका उदाहरण है।

तंत्रिका तंत्र पर शोर का जो प्रभाव पड़ता है, उसका अनुमान लगाना अत्यंत कठिन है। लार्ड हॉर्डर ने चिकित्सकों के मत को इस प्रकार व्यक्त किया है- डाक्टरों का निश्चित विश्वास है कि कोलाहल से मनुष्य का तंत्रिक-तंत्र कमजोर हो जाता है, जिससे रोग के लिए शरीर के स्वाभाविक प्रतिरोध में तथा आरोग्य लाभ करने की स्वाभाविक शक्ति में कमी हो जाती है’। इस प्रकार कोलाहल के कारण स्वास्थ्य संकट में पड़ जाता है। कोलाहल के वातावरण में रहने पर व्यक्ति को ऊँचा सुनाई देने लगता है। स्वभाव में चिड़चिड़ापन, मानसिक तनाव और रक्तचाप बढ़ जाता है। तेज ध्वनि से दिल की धड़कन और पेट के विकार हो जाते है। कोलाहल स्वास्थ्य के लिए काफी घातक है। कोलाहल की प्रबलता को आमतौर पर डेसीबल में मापा जाता है। भीड़-भाड़ वाली सड़क पर लगभग 80 डेसीबेल का शोर होता है। 140 डेसीबेल की ध्वनि से हमारे कानों का पर्दा फट सकता है।

कुछ ध्वनि स्रोतों की प्रबलता डेसीबेल (डी.बी.) में
रॉकेट का छोड़ा जाना 150 डीबी
जेट विमान 130 डीबी
बिजली की गड़गड़ाहट 110 डीबी
भारी यातायात 90 डीबी
ऑर्केस्ट्रा 70 डीबी
हिलती हुई पत्तियां 20 डीबी
श्रवण देहली 10 डीबी

ध्वनि की अन्य विशेषताएं

  • प्रतिध्वनि- परावर्तित ध्वनि को प्रतिध्वनि कहते है। स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनने के लिए परावर्तक सतह श्रोता से कम-से-कम 17 मीटर दूर होनी चाहिए, व समय 1 सेकेण्ड होना चाहिए।
  • अपवर्त्य प्रतिध्वनि: जब दो बड़ी चट्टानें या बड़ी इमारतें समान्तर व उचित दूरी पर स्थित होती हैं और उनके बीच में कोई ध्वनि पैदा की जाती है तो वह ध्वनि क्रमश: दोनों चट्टानों से बार-बार परावर्तित होगी। इस प्रकार की परावर्तित ध्वनि को अपवर्त्य प्रतिध्वनि कहते है। परावर्तकों से बार-बार परावर्तन होने से यह सब प्रतिध्वनियां मिलकर गड़गड़ाहट की आवाज पैदा करती है। बिजली की गड़गड़ाहट का कारण भी यही है, क्योंकि बादलों के तल, पहाड़ आदि परावर्तक तलों का काम करते हैं।

समुद्र की गहराई ज्ञात करने, रडार और सागर में पनडुब्बी आदि की स्थिति ज्ञात करने के लिए प्रतिध्वनि का सिद्धान्त प्रयोग किया जाता है।

  • ध्वनि का अपवर्तन- गर्म वायु में ध्वनि का वेग अधिक होता है। अत: वायु की विभिन्न सतहों से गुजरते समय ध्वनि की दिशा बदल जाती है (क्योंकि प्रत्येक सतह का ताप अलग होता है), इसे ध्वनि का अपवर्तन कहते हैं। इसी के कारण रात्रि में तथा ठण्डे दिनों में ध्वनि अधिक दूर तक सुनी जा सकती है।
  • विस्पन्द- जब बहुत ही कम अंतर वाली आवृत्ति के दो ध्वनि स्रोत एक साथ किसी माध्यम में बजाए जाते है, तो उनसे निकली हुई तरंगों का कलान्तर समय के साथ-साथ बदलता रहता है, जिसके कारण कभी तो वे अनुकूल कला में होकर ध्वनि तीव्रता को बहुत बढ़ा देते हैं और कभी विपरीत कला में मिलकर ध्वनि को मंदा कर देते हैं। इस प्रकार ध्वनि की तीव्रता में चढ़ाव-उतार एक नियमित समयान्तर से होता रहता है। ध्वनि की तीव्रता के इस उतार-चढ़ाव को विस्पन्द बनना कहते हैं। एक चढ़ाव और उतार मिलकर एक विस्पन्द बनाते हैं। विस्पन्दों की संख्या आवृत्ति अन्तर के बराबर होती है। विस्पन्द की सहायता से बाजों का स्मस्वरण किया जाता है। दो बाजों को समस्वरित करने के लिए उन्हें एक साथ बजाया जाता है। यदि समस्वरण में थोड़ा-सा भी अंतर होता है, तो विस्पन्द सुनाई देते हैं। इस हालत में एक बाजे की आवृत्ति को धीरे-धीरे इस प्रकार समायोजित करते हैं कि दोनों बाजे एक साथ बजाने पर कोई विस्पन्द सुनाई न दें। इस प्रकार दोनों बाजे एक धुन में कहे जाते हैं।

विस्पन्द का रेडियो तरंगों के संकरण अभिग्रहण में प्रयोग किया जाता है। प्रवेशी उच्च आवृत्ति सिग्नलों को अभिग्राही स्टेशन पर उत्पन्न कुछ भिन्न आवृत्ति की तरंगों से मिश्रित कर दिया जाता है। इन दोनों के संयोजन से एक स्पन्द मान आवृत्ति प्राप्त होती है, जो श्रव्य परिसर में होती है।

  • अनुनाद- जब किसी वस्तु के कम्पनों की स्वाभाविक आवृत्ति किसी चालक बल के कम्पनों की आवृत्ति के बराबर होती है तो वस्तु बहुत अधिक आयाम से कम्पन करने लगती है। इस घटना को अनुनाद कहते हैं।
  • तार-वाद्य यंत्र- तार वाद्य यंत्रों जैसे सितार, वायलिन आदि। में मुख्य तारों के साथ-साथ कई तार बगल में भी लगाए जाते हैं, यह तार विभिन्न आवृत्तियों के लिए समस्वरित रहते हैं। जब मुख्य तार को बजाते हैं तो बगल वाले तार अनुनादित हो जाते हैं, जिससे स्वर की तीव्रता बढ़ जाती है।
  • स्वरमापी- एक स्वरित्र को बजाकर स्वरमापी के बक्से के ऊपर रखने पर स्वरमापी का तार कम्पन करने लगता है। अब तार की लम्बाई को ब्रिजों के बीच कम या ज्यादा करके समन्वित करते हैं तो तार की एक विशेष लम्बाई पर तार के दोलन का आयाम बहुत अधिक हो जाता है। ऐसी अवस्था में तार की स्वाभाविक आवृत्ति स्वरित्र की आवृत्ति के बराबर होती है यानी अनुवाद उत्पन्न हो जाता है।
  • माध्यम में कम्पन: दैनिक जीवन में हमारे चारों ओर माध्यम में हमेशा कम्पन होते रहते हैं लेकिन इनमें से कुछ ही हमें सुने देते हैं, क्योंकि बाकी कम्पनों की तीव्रता बहुत कम होती है। यदि हम अपने काम के ऊपर कोई गिलास या इसी प्रकार की कोई दूसरी वस्तु रख लें और उपरोक्त कम्पनों की आवृत्ति, कान पर रखे बर्तन या अनुनादक में विद्यमान वायु स्तम्भ की आवृत्ति के बराबर हो जाए तो अनुवाद उत्पन्न होने से इन कम तीव्रता के कम्पनों का आयाम इतना अधिक बढ़ जाता है कि हम उन्हें सुन सकते हैं। यही कारण है कि कान पर कोई खोखली वस्तु रखने पर गुन–गुन की ध्वनि सुनाई देने लगती है। इसलिए कम सुनने वाले व्यक्ति साफ सुनने के लिए कान के पीछे हथेली लगा लेते हैं।
  • कार, स्कूटर आदि के कम्पन: कभी-कभी रेडियो, टेलीविजन या टेपरिकार्डर से विशेष आवृत्ति की संगीत ध्वनियां उत्पन्न होने पर मेज पर रखे गिलास, प्लेट, कप आदि बजने लगते हैं। यह अनुवाद के कारण ही होता है यानी इन बर्तनों की आवृत्ति व संगीत ध्वनि की आवृत्ति बराबर होने पर दोलन आयाम बढ़ जाता है, जिससे ये खड़खड़ाने लगते हैं। ऐसा ही अनुभव हमें बस या कार से यात्रा करते समय होता है। जब कार एक निश्चित चाल से चलती है तो वह खड़खड़ाने लगती है। इसका कारण यह है कि इन गड़ियों के पहिए संतुलित नहीं होते। जिससे गाड़ी पर एक निश्चित आवृत्ति का बल कार्य करता है। जब यह बाह्य आवृत्ति, गाड़ी की स्वाभाविक आवृत्ति के तुल्य हो जाती है, खड़खड़ाहट उत्पन्न हो जाती है।

विद्युत-चुम्बकीय तरंगें

यांत्रिक तरंगों से भिन्न प्रकार विद्युत-चुम्बकीय तरंगे होती हैं, जो निर्वात में भी चल सकती हैं, उनक संचरण के लिये कोई भौतिक माध्यम आवश्यक नहीं होता है। ये प्रकाश की चाल से चलती हैं, ये तरंगे अनुप्रस्थ प्रकाश की तरंगे है। विद्युत चुम्बकीय तरंगे, आवेशित मूल-कणों जैसे- इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन आदि के मुक्त अवस्था में दोलन करने से उत्पन्न होती हैं। प्रकाश, ऊष्मीय विकिरण, एक्स किरणे, रेडियो-तरंगे आदि इनके सुपरिचित रूप हैं। विद्युत चुम्बकीय तरंगों का सामान्य परिचय निम्नवत है-

  1. गामा-किरणे: गामा-किरणों को इनके अन्वेषक के नाम पर बैकुरल किरणे भी कहते हैं। इनका तरंगदैर्ध्य 10-14 मीटर से 10-10 मीटर तक होता है। इनकी आवृत्ति बहुत अधिक होने के कारण ये अपने साथ बहुत अधिक ऊर्जा ले जाती हैं। इनकी वेधन क्षमता इतनी अधिक है कि ये 30 सेमी. मोटी लोहे की चादर को भेद कर निकल जाती हैं।
  2. एक्स-किरणे: इन किरणों को उनके अन्वेषक के नाम पर रौंटज किरणें भी कहते हैं। ये तीव्रग्रामी इलेक्ट्रॉनों के किसी भारी लक्ष्य वस्तु पर टकराने से उत्पन्न होती हैं। चिकित्सा में इनका उपयोग टूटी हड्डी तथा फेफड़ों के रोगों का पता लगाने में किया जाता है।
  3. पराबैंगनी विकिरण: इस विकिरण का पता रिटर ने लगाया था। इनका तरंगदैर्ध्य 10-8 मीटर से 4 × 10-7 मीटर तक होता है। इनका संसूचन प्रकाश-विद्युत प्रभाव, प्रतिदीप्त पर्दा अथवा फोटोग्राफिक प्लेट द्वारा किया जाता है। इनका उपयोग सिंकाई करने, प्रकाश-विद्युत प्रभाव को उत्पन्न करने, हानिकारक बैक्टीरिया को नष्ट करने आदि में किया जाता है।
  4. दृश्य प्रकाश: दृश्य प्रकाश का तरंगदैर्ध्य 4.0 x 10-7 मीटर से 7.8 × 10-7 मी. तक होता है। इनके स्रोत सूर्य तथा तारों के अतिरिक्त ज्वाला, विद्युत-बल्ब, आर्क लैम्प आदि ताप दीप्त वस्तुएं हैं। प्रकाश से ही हमें वस्तुएं दिखायी देती हैं।
  5. अवरक्त विकिरण: इन विकिरणों का पता हरशैल ने लगाया था। इनका तरंगदैर्ध्य 7.8 × 10-7 मीटर से 103 मीटर तक होता है। इनकी प्राप्ति तप्त वस्तुओं तथा सूर्य से होती है। ये जिस वस्तु पर पड़ती हैं, उसका ताप बढ़ जाता है।
  6. हर्त्सियन तरंग: इनका अन्वेषण वैज्ञानिक हेनरिक हर्त्स ने किया था। सामान्य भाषा में इन्हें बेतार-तरंग या रेडियो-तरंग भी कहते हैं। इनका तरंगदैर्ध्य 10-3 मीटर से 104 मीटर तक हो सकता है। इनकी उत्पत्ति किसी विद्युत चालक में उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धारा के प्रवाह से होती है।

इन तरंगों को लघु रेडियो-तरंगें भी कहते हैं। इनमें 10 -3 मीटर से 10-2 मीटर तरंगदैर्ध्य की तरंगों को सूक्ष्म तरंगें कहते हैं। इनका उपयोग टेलीविजन, टेलीफोन आदि के प्रसारण में किया जाता है।

तरंगदैर्ध्य 1 मीटर 104 मीटर तक की विद्युत-चुम्बकीय तरंगों को वायरलेस या दीर्घ रेडियो तरंगें कहते हैं।

रेडियो तथा टेलीविजन प्रसारण

रेडियो स्टेशन द्वारा भेजी गयी रेडियो-तरंगें आयनमण्डल द्वारा परावर्तित कर दी जाती हैं, अत: उन्हें पृथ्वी पर किसी भी स्थान पर ग्रहण किया जा सकता है। रात्रि के समय आयनमण्डल की पर्तों में स्थिरता आ जाती है, अतः रेडियो प्रसारण रात्रि में अधिक अच्छा होता है। उच्च आवृत्ति की टेलीविजन सिग्नल युक्त तरंगें, आयनमण्डल को पार करके बाहर चली जाती हैं। अत: इन्हें सीधे ही एक प्रेषित्र एण्टेना से दूसरे अभिग्राही एण्टेना पर भेजा जाता है। इसलिए प्रेषित्र एण्टेना की ऊंचाई अधिक-से-अधिक रखी जाती है। 500 मीटर ऊंचे एण्टेना से 80 किमी दूरी तक प्रसारण सम्भव है। आजकल भू-स्थिर उपग्रह का उपयोग करके टेलीविजन सिग्नल को भी पृथ्वी तल पर कई जगह पहुंचाया जा सकता है।

रडार

Radar, radio detection and ranging का संक्षिप्त रूप है। रडार में सूक्ष्म तरंगों का उपयोग करके दुश्मन के जलयानों व वायुयानों का पता लगाया जाता है। एक घूमते हुए एरियल द्वारा तरंगें प्रेषित की जाती हैं और वे वायुयान, जलयान आदि लक्ष्य से परावर्तित होकर रडार पर लौट आती हैं। प्रेषित और अभिग्रहीत तरंगों के समयान्तर को ज्ञात करके जलयान की दूरी ज्ञात की जा सकती है। तरंगें जितने क्षेत्र की स्कैनिंग करती हैं, उसका चित्र भी रडार के पर्दे पर आ जाता है।

ध्वनि के लक्षण

ध्वनि में मुख्यत: तीन लक्षण होते हैं – तीव्रता, तारत्व एवं गुणता।

  1. तीव्रता: ध्वनि की तीव्रता, ध्वनि उत्पन्न करने वाली कम्पनशील वस्तु के कम्पन के आयाम पर निर्भर करती है। कम्पन का आयाम जितना अधिक होगा, ध्वनि की तीव्रता उतनी ही अधिक होगी। ध्वनि की तीव्रता डेसीबल में मापी जाती है। सोते हुए व्यक्ति को जगाने के लिए 50 डेसीबल की ध्वनि पर्याप्त होती है। 90 डेसीबल किसी शोर को बर्दाश्त करने की अधिकतम सीमा है। कम्पनशील वस्तु का आकार जितना अधिक बड़ा होगा, उतने ही बड़े आयाम के कम्पन्न उत्पन्न होंगे, जिसक कारण उत्पन्न ध्वनि की तीव्रता उतनी ही अधिक होगी व ध्वनि उतनी ही तेज सुनाई देगी।
  2. तारत्व: ध्वनि का वह लक्षण, जिसके कारण हम ध्वनि को मोटी या पतली कहते हैं, तारत्व कहलाता है। ध्वनि का तारत्व उसकी आवृत्ति पर निर्भर करता है। पुरुषों की ध्वनि का तारत्व, स्त्रियों की अपेक्षा कम होता है। शेर की दहाड़ तथा मच्छरों की भिनभिनाहट में, मच्छर की भिनभिनाहट का तारत्व अधिक होता है तथा शेर की दहाड़ का तारत्व कम होता है।
  3. गुणता: यह ध्वनि का वह लक्षण है, जिससे समान आवृत्ति या समान तीव्रता की ध्वनियों की संख्या, उनके सम तथा उनकी आपेक्षिक तीव्रता पर निर्भर करती है। ध्वनि की गुणता उसमें उपस्थित अधिस्वरकों की संख्या, उनके सम तथा उनकी आपेक्षिक तीव्रता पर निर्भर करती है। ध्वनि की गुणता के कारण ही हम अपने विभिन्न परिचितों को बगैर देखें उनकी आवाज सुनकर पहचान लेते हैं।

ध्वनि का आवृत्ति परिसर

ध्वनि तरंगों को उनके आवृत्ति परिसर के आधार पर निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जाता है:

  1. श्रव्य तरंगें: वे तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20 हर्ट्ज़ व अधिकतम आवृत्ति 20,000 हर्ट्ज़ हो एवं जिनको हम सुन सकते हैं, श्रव्य तरंगे कहलाती हैं। मनुष्य 20 हर्ट्ज़ से कम आवृत्ति की तरंगे नहीं सुन सकता है क्योंकि ये तरंगें कान के पर्दे को संवेदित नहीं कर पाती एवं 20,000 हर्ट्ज़ से अधिक आवृत्ति की तरंगों की आवृत्ति इतनी अधिक होती है कि कान के पर्दे का दोलन इतना अधिक नहीं हो पाता कि वह इन तरंगों को ग्रहण कर सके। चमगादड़ों की श्रवण सीमा बहुत ऊंची होती है। ये 100,000 हर्ट्ज़ की तरंगें उत्पन्न कर सकते हैं और सुन भी सकते हैं। कुत्ते 20,000 हर्ट्ज़ तक की तरंगों को आसानी से सुन सकते हैं।
  2. अवश्रव्य तरंगें: वे यांत्रिक तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20 हर्ट्ज़ से कम होती है, अवश्रव्य तरंगें कहलाती हैं। ये तरंगें भूकंप के समय पृथ्वी के अंदर उत्पन्न होती हैं। हमारे हृदय के धड़कन की आवृत्ति अवश्रव्य तरंगों के समान होती है। ये तरंगें हमें सुनाई नहीं देती हैं।
  3. पराश्रव्य तरंगें: वे यांत्रिक तरंगें, जिनकी आवृत्ति 20000 हर्ट्ज़ या 20 किलोहर्ट्ज़ से अधिक होती है, पराश्रव्य तरंगें कहलाती हैं। इन तरंगों को सबसे पहले गाल्टन ने एक सीटी द्वारा उत्पन्न किया था। मनुष्य के कान इन तरंगों को नहीं सुन सकते, लेकिन कुछ जन्तु, जैसे-कुत्ता, बिल्ली, डालफिन, चिड़ियां आदि इनको सुन सकते हैं।

अनुरणन

ध्वनि का हॉल की दीवारों, छतें व फशों से बहुल परावर्तन होता है, बहुल परावर्तन के कारण ही ध्वनि स्रोत को एकदम बंद कर देने से हाल में ध्वनि एकदम बंद नहीं होती बल्कि कुछ समय तक सुनाई देती रहती है। अत: किसी हॉल में ध्वनि स्रोत को बंद करने के बाद भी ध्वनि का कुछ देर तक सुनाई देना अनुरणन कहलाता है। तथा वह समय जिसके दौरान यह ध्वनि देती है, अनुरणन काल कहलाता है। गणना द्वारा यह पाया गया है कि यदि किसी हॉल में अनुरणन काल 0.8 सेकण्ड से अधिक है, तो वक्ता द्वारा दिये जाने वाले भाषण के शब्द व्यक्तियों को स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं देते यदि अनुरणन काल शून्य हो तो हॉल गूंजहीन हॉल कहलाता है।

ध्वनि का व्यतिकरण

जब दो समान आवृत्ति व आयाम की दो ध्वनि तरंगें, एक साथ किसी बिन्दु पर पहुंची हैं, तो उस बिन्दु पर ध्वनि ऊर्जा का पुनर्वितरण हो जाता है। इसे ध्वनि का व्यतिकरण कहते हैं। यह व्यतिकरण संपोषी कहलाता है, जब दोनों तरंगें किसी बिन्दु पर एक ही कला में पहुंचती हैं। इस दशा में परिणामी आयाम दोनों तरंगों के अलग-अलग आयामों के योग के बराबर होता है तथा ध्वनि की तीव्रता अधिकतम होती है और यदि दोनों तरंगे विपरीत कला में मिलती हैं तो व्यतिकरण विनाशी कहलाती हैं। इस दिशा में ध्वनि की तीव्रता न्यूनतम होती है।

ध्वनि का विवर्तन

जब हम अपने कमरे के भीतर होते हैं, तो बाहर से आ रहे शोरगुल या बातचीत को आसानी से सुन लेते हैं। अर्थात् हम बिना स्रोत को देखे हुए उससे उत्पन्न ध्वनि को सुन लेते हैं। इसका कारण है कि जब ध्वनि के मार्ग में कोई अवरोध आ जाता है, तो ये तरंगें उसे मुड़कर हमारे कान तक पहुंचती हैं। इसी को ध्वनि का विवर्तन कहते हैं। विवर्तन के लिये जरूरी है कि अवरोधों का आकार, ध्वनि की तरंगदैर्ध्य के तुलनीय होना चाहिये। चूंकि ध्वनि की तरंगदैर्ध्य लगभग एक मीटर होती है तथा इसी कोटि के हमारे घर के दरवाजे व खिड़कियाँ आदि होती हैं, जिससे ध्वनि का विवर्तन आसानी से हो जाता है व हमें बगैर देखे ही स्रोत से आने वाली ध्वनि का अहसास हो जाता है।

पराध्वनिक व प्रघाती तरंगें

जब किसी पिण्ड की किसी गैस में चाल, उसी गैस में ध्वनि की चाल से अधिक हो जाती है, तो पिण्ड की चाल को पराध्वनिक कहते हैं। जब पिण्ड की वायु में चाल ध्वनि की चाल से अधिक हो जाती है, तो वह अपने पीछे वायु में एक शंक्वाकार हलचल छोड़ता जाता है। जैसे-जैसे पिण्ड दूर जाता है, ये हलचल आकार में फैलती जाती हैं। इस प्रकार की हलचल को प्रघाती तरंग कहते हैं। प्रघाती तरंगों में अत्यधिक ऊर्जा की मात्रा संचित होती है। यदि वे तरंगें किसी भवन आदि से टकरा जायें, तो उसे गिरा सकती हैं। यही कारण है कि जब पराध्वनि विमान गुजरते हैं, तो प्रघाती तरंगों के बनने के कारण तीव्र विस्फोट होता है, जिससे मकान हिल जाते हैं व खिड़कियाँ आदि टूट जाती हैं। जब कोई वायुयान वायु में ध्वनि की चाल से अधिक तीव्र चाल से चलता है तो वायुयान की चाल व ध्वनि की चाल के अनुपात को मैक संख्या कहते हैं।

अनुनाद: अनुनाद प्रणोदित कम्पनों की एक विशेष अवस्था है, जिसमें प्रणोदित कम्पनों की आवृत्ति वस्तु की स्वाभाविक आवृत्ति के बराबर होती है। वस्तु के इस कम्पन को अनुनाद कम्पन कहते हैं।

स्वरक: सरल आवर्त गति से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह स्वरक कहलाती है।

स्वर: आवर्त गति से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह उस ध्वनि उत्पादक का स्वर कहलाती है।

संनादी तथा अधिक स्वरक: किसी स्वर में उपस्थित अधिक आवृत्ति वाले स्वरक को ही अधिस्वरक कहते हैं। जब अधिस्वरकों की आवृत्तियाँ मूल स्वरक की यथार्थ अपवर्त्य होती हैं, तो ये संनादी के नाम से पुकारी जाती हैं।

ध्वनि का परावर्तन

प्रकाश की भाँति ध्वनि भी एक माध्यम से चलकर दूसरे माध्यम के पृष्ठ से टकराने पर पहले माध्यम में वापस लौट आती हैं। इस प्रक्रिया को ध्वनि का परावर्तन कहते हैं। ध्वनि का परावर्तन भी प्रकाश के परावर्तन के नियम के अनुसार होता है किन्तु ध्वनि का तरंगदैर्ध्य अधिक होने के कारण परावर्तन बड़े आकार के पृष्ठों से होता है। इसीलिए ध्वनि का परावर्तन दीवारों, पहाड़ों तथा पृथ्वी तल सभी से हो जाता है।

ध्वनि का अपवर्तन

ध्वनि तरंगें जब एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती हैं, तो उनका अपवर्तन हो जाता है अर्थात् वे अपने पथ से विचलित हो जाती हैं। ध्वनि तरंगों का अपवर्तन वायु की भिन्न-भिन्न पर्तों का ताप भिन्न-भिन्न होने के कारण होता है। चूंकि गर्म वायु में ध्वनि की चाल ठण्डी वायु की अपेक्षा अधिक होती है। इसीलिये ध्वनि तरंगें जब गर्म वायु से ठण्डी वायु में या ठण्डी वायु से गर्म वायु में संचरित होती हैं, तो अपने मार्ग से विचलित हो जाती हैं।

ध्वनि की चाल पर विभिन्न भौतिक राशियों का प्रभाव

  1. दाब का प्रभाव: ताप समान होने पर गैस में ध्वनि की चाल पर दाब का कोई प्रभाव नहीं पड़ता
  2. ताप का प्रभाव: ध्वनि की चाल माध्यम का ताप बढ़ने से बढ़ती है। 1 डिग्री सैल्सियस ताप बढ़ने पर वायु में ध्वनि की चाल लगभग 0.61 मी./से. बढ़ जाती है। शुष्क वायु में ध्वनि की चाल 322 मी./से. होती है।
  3. आर्द्रता का प्रभाव: आर्द्रवायु में शुष्क वायु की अपेक्षा ध्वनि की चाल अधिक होती है।
  4. माध्यम के वेग का प्रभाव: माध्यम के वेग की दिशा मे चाल बढ़ जाती है तथा इसके विपरीत घट जाती है।

डॉल्पर प्रभाव

ध्वनि में आवृत्ति परिवर्तन के प्रभाव को सर्वप्रथम जॉन डॉप्लर ने 1842 में प्रतिपादित किया, जिसके कारण उन्हीं के नाम पर उसे डॉप्लर प्रभाव कहते हैं। डॉप्लर के अनुसार जब किसी ध्वनि स्रोत व श्रोता के बीच आपेक्षिक गति होती है, तो श्रोता को ध्वनि की आवृत्ति उसकी वास्तविक आवृत्ति से अलग सुनाई देती है। डॉप्लर का प्रभाव प्रकाश तरंगों के लिए भी लागू होता है। लेकिन ध्वनि तरंगों के डॉप्लर प्रभाव व प्रकाश तरंगों के डाप्लर प्रभाव में मुख्य अन्तर यह है कि श्रोता या स्रोत में कौन गतिमान है, अर्थात उनकी आपेक्षिक गति पर निर्भर करता है, जबकि प्रकाश तरंगों में यह प्रभाव स्रोत एवं स्रोत के बीच आपेक्षिक गति पर निर्भर करता। प्रकाश में डॉलर के प्रभाव का खगोलीय विज्ञान में अत्यन्त महत्व है। डाप्लर प्रभाव का उपयोग निम्नलिखित कार्यों में किया जाता है:

  1. किसी स्टेशन की ओर आते हुये वायुयान की दिशा के वेग को ज्ञात करने में किया जाता है। स्टेशन से रडार के द्वारा रडार-तरंगें वायुयान की ओर भेजी जाती हैं, जो इससे परावर्तित होकर वापस लौट आती हैं। यदि इन परावर्तित तरंगों की आवृति भेजी गयी तरंगों की आवृत्ति से अधिक होती है तो यान स्टेशन से दूर जा रहा है। इन आयतित व परावर्तित तरंगों के बीच आवृत्ति का अन्तर ज्ञात करके वायुयान के वेग का पता करते हैं। इसी प्रकार समुद्र के अन्दर पनडुब्बी का पता करते हैं। इन सबका युद्ध के समय उपयोग होता है।
  2. प्रकाश में डाप्लर प्रभाव से यह पता लगाया जाता है कि कोई, आकाशीय पिण्ड पृथ्वी की ओर आ रहा है या पृथ्वी से दूर जा रहा है। यदि वह पृथ्वी की ओर आ रहा है, तो उससे प्राप्त आवृत्ति रेखायें प्रयोगशाला के बैंगनी रंग की और विस्थापित होती हैं और यदि पिण्ड पृथ्वी से दूर जा रहा है, तो ये रेखायें लाल रंग की ओर विस्थापित होती हैं।
ध्वनि के प्रतिदर्श
क्षेत्र की श्रेणी दिन में तीव्रता  (डेसीबल) रात में तीव्रता (डेसीबल)
औद्योगिक क्षेत्र 75 70
वाणिज्यिक क्षेत्र 65 55
आवासीय क्षेत्र 55 45
शान्तिपूर्ण क्षेत्र 50 40

स्रोत तीव्रता (डेसीबल में)
फुसफुसाहट 15–20
लाउडस्पीकर 70–80
साधारण बातचीत 40–60
गुस्से में बातचीत 70–80
ट्रक-मोटरसाइकिल 90–95
प्रेस 100–105
आर्केस्ट्रा 100–110
साइरन 190–200
राकेट 160–170

हर्ट्ज़

हैनरिच रुडोल्फ हर्ट्ज का जन्म 22 फरवरी, 1857 को हैमबर्ग, जर्मनी में हुआ और उनकी शिक्षा बर्लिन विश्वविद्यालय में हुई। उन्होंने जे.सी. मैक्सवेल के विद्युतचुंबकीय सिद्धांत की प्रयोगों द्वारा पुष्टि की। उन्होंने रेडियो, टेलिफोन, टेलिग्राफ तथा टेलिविजन के भी भविष्य में विकास की नींव रखी। उन्होंने प्रकाश-विद्युत प्रभाव की भी खोज की जिसकी बाद में अल्बर्ट आइन्सटाइन ने व्याख्या की। आवृत्ति के SI मात्रक का नाम उनके सम्मान में रखा गया

इको साउंडिंग

महासागर या समुद्र की गहराई मापने के लिए ध्वनि तरंग छोड़ी जाती है, जो महासागर के तल से टकराकर लौट आती है। प्रतिध्वनि के लौटने में जो समय लगता है, उसके आधार पर गहराई निर्धारित कर ली जाती है।

ध्वनि के बहुल परिवर्तन के उपयोग

  1. मेगाफोन या लाउडस्पीकर, हॉर्न, सूर्य तथा शहनाई जैसे वाद्य यंत्र सभी इस प्रकार बनाए जाते हैं कि ध्वनि सभी दिशाओं में फैले बिना केवल एक विशेष दिशा में ही जाती है।

इन यंत्रों में एक नली का आगे का खुला भाग शंक्वाकार होता है। यह स्रोत से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंगों को बार-बार परावर्तित करके श्रोताओं की ओर आगे की दिशा में भेज देता है।

  1. स्टेथोस्कोप एक चिकित्सा यंत्र है, जो शरीर के अंदर, मुख्यत: हृदय तथा फेफड़ों में, उत्पन्न होने वाली ध्वनि को सुनने में काम आता है। स्टेथोस्कोप में रोगी के हृदय की धड़कन की ध्वनि, बार-बार परावर्तन के कारण डॉक्टर के कानों तक पहुँचती है।
  2. कसर्ट हॉल, सम्मेलन कक्षों तथा सिनेमा हॉल की छतें वक्राकार बनाई जाती हैं, जिससे कि परावर्तन के पश्चात् ध्वनि हॉल के सभी भागों में पहुँच जाए। कभी-कभी वक्राकार ध्वनि-पट्टों को मंच के पीछे रख दिया जाता है जिससे कि ध्वनि, ध्वनि-पट्ट से परावर्तन के पश्चात् समान रूप से पूरे हॉल में फैल जाए।

श्रवण सहायक युक्ति

जिन लोगों को कम सुनाई देता है, उन्हें इस यंत्र की आवश्यकता होती है। यह बैटरी से चलने वाली एक इलेक्ट्रॉनिक युक्ति है। इसमें एक छोटा-सा माइक्रोफोन, एक एंप्लीफायर व स्पीकर होता है। जब ध्वनि माइक्रोफोन पर पड़ती है तो वह ध्वनि तरंगों को विद्युत संकेतों में परिवर्तित कर देता है। एंप्लीफायर इन विद्युत संकेतों को प्रवर्धित कर देता है। ये संकेत स्पीकर द्वारा ध्वनि की तरंगों में परिवर्तित कर दिए जाते हैं। ये ध्वनि तरंगें कान के डायफ्राम पर आपतित होती हैं तथा व्यक्ति को ध्वनि साफ सुनाई देती है।

पराध्वनि के अनुप्रयोग

पराध्वनियाँ उच्च आवृत्ति की तरंगें हैं। पराध्वनियाँ अवरोधों की उपस्थिति में भी एक निश्चित पथ पर गमन कर सकती हैं। उद्योगों तथा चिकित्सा के क्षेत्र में पराध्वनियों का विस्तृत रूप से उपयोग किया जाता है।

  • पराध्वनि प्राय: उन भागों को साफ करने में उपयोग की जाती है जिन तक पहुँचना कठिन होता है; जैसे- सर्पिलाकार नली, विभिन्न आकार के पुर्जे, इलेक्ट्रॉनिक अवयव आदि। जिन वस्तुओं को साफ करना होता है उन्हें साफ करने वाले मर्जिन विलयन में रखते हैं और इस विलयन में पराध्वनि तरंगें भेजी जाती हैं। उच्च आवृत्ति के कारण, धूल, चिकनाई तथा गंदगी के कण अलग होकर नीचे गिर जाते हैं। इस प्रकार वस्तु पूर्णतया साफ हो जाती है।
  • पराध्वनि का उपयोग धातु के ब्लॉकों में दरारों तथा अन्य दोषों का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। धात्विक घटकों को प्राय: बड़े-बड़े भवनों, पुलों, मशीनों तथा वैज्ञानिक उपकरणों को बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। धातु के ब्लॉकों में विद्यमान दरार या छिद्र जो बाहर से दिखाई नहीं देते, भवन या पुल की संरचना की मजबूती को कम कर देते हैं। पराध्वनि तरंगें धातु के ब्लॉक से गुजारी (प्रेषित की) जाती हैं और प्रेषित तरंगों का पता लगाने के लिए संसूचकों का उपयोग किया जाता है। यदि थोड़ा-सा भी दोष होता है, तो पराध्वनि तरंगें परावर्तित हो जाती हैं जो दोष की उपस्थिति को दर्शाती हैं।

साधारण ध्वनि जिसकी तरंगदैर्घ्य अधिक होती है, दोषयुक्त स्थान के कोणों से मुड़कर संसूचक तक पहुँच जाती हैं, इसलिए इस ध्वनि का उपयोग इस कार्य के लिए किया जा सकता।

  • पराध्वनि तरंगों को हृदय के विभिन्न भागों से परावर्तित कराकर हृदय का प्रतिबिंब बनाया जाता है। इस तकनीक को इकोकार्डियोग्राफी कहा जाता है।
  • पराध्वनि संसूचक एक ऐसा यंत्र है, जो पराध्वनि तरंगों का उपयोग करके मानव शरीर के आंतरिक अंगों का प्रतिबिंब प्राप्त करने के लिए काम में लाया जाता है। इस संसूचक से रोगी के अंगों; जैसे-यकृत, पित्ताशय, गर्भाशय, गुर्दे आदि का प्रतिबिंब प्राप्त किया जा सकता है। यह संसूचक को शरीर की असमान्यताएँ, जैसे-पित्ताशय तथा गुर्दे में पथरी तथा विभिन्न अंगों में अर्बुद का पता लगाने में सहायता करता है। इस तकनीक में पराध्वनि तरंगें शरीर के ऊतकों में गमन करती हैं तथा उस स्थान से परावर्तित होती हैं। इसके पश्चात् इन तरंगों को विद्युत संकेतों में परिवर्तित किया जाता है जिससे कि उस अंग का प्रतिबिंब बना लिया जाए। इन प्रतिबिंबों को मॉनीटर पर प्रदर्शित किया जाता है या फिल्म पर मुद्रित कर लिया जाता है। इस तकनीक को अल्ट्रासोनोग्राफी कहते हैं। अल्ट्रासोनोग्राफी का उपयोग गर्भकाल में भ्रूण की जाँच तथा उसके जन्मजात दोषों तथा उसकी वृद्धि की अनियमितताओं का पता लगाने में किया जाता है।
  • पराध्वनि का उपयोग गुर्दे की छोटी पथरी को बारीक कणों में तोड़ने के लिए भी किया जा सकता है। ये कण बाद में मूत्र के साथ बाहर निकल जाते हैं।

सोनार

सोनार शब्द Sound Navigation And Ranging से बना है। सोनार एक ऐसी युक्ति है, जिसमें जल में स्थित पिंडों की दूरी, दिशा तथा चाल मापने के लिए पराध्वनि तरंगों का उपयोग किया जाता है। सोनार कैसे कार्य करता है? सोनार में एक प्रेषित्र तथा एक संसूचक होता है और इसे किसी नाव या जहाज पर लगाया जाता है।

प्रेषित्र पराध्वनि तरंगें उत्पन्न तथा प्रेषित करता है। ये तरंगें जल में चलती हैं तथा समुद्र तल में पिण्ड से टकराने के पश्चात् परावर्तित होकर संसूचक द्वारा ग्रहण कर ली जाती हैं। संसूचक पराध्वनि तरंगों को विद्युत संकेतों में बदल देता है जिनकी उचित रूप से व्याख्या कर ली जाती है। जल में ध्वनि की चाल तथा पराध्वनि के प्रेषण तथा अभिग्रहण के समय अंतराल को ज्ञात करके उस पिण्ड की दूरी की गणना की जा सकती है, जिससे ध्वनि तरंग परावर्तित हुई। मान लीजिए पराध्वनि संकेत को प्रेषण तथा अभिग्रहण का समय अंतराल t है तथा समुद्री जल में ध्वनि की चाल v है। तब सतह से पिण्ड की दूरी 2d होगी-

2d = v × t

उपरोक्त विधि को प्रतिध्वनिक-परास कहते हैं। सोनार की तकनीक का उपयोग समुद्र की गहराई ज्ञात करने तथा जल के अन्दर स्थित चट्टानों, घाटियों, पनडुब्बियों, हिम शैल, डूबे हुए जहाज आदि की जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

ध्वनि बूम

पराध्वनि (अर्थात् ध्वनि की गति से तेज गति) वायु एक ध्वनि शंकु उत्पन्न करती है, जिसे प्रघाती तरंग कहते हैं। जब यह प्रघाती तरंग श्रोता तक पहुंचती है तो वह अचानक एक प्रकार का जोरदार धमाका सुनता है, जिसे ध्वनि बूम कहते हैं।

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