मिट्टियाँ, वर्गीकरण और उनका विश्व वितरण Soils, Classification And World Distribution

मिट्टी प्राकृतिक पर्यावरण का एक प्रमुख तत्व है। जल के साथ मिलकर मिट्टी मानव की भोजन, पानी, निवास एवं वस्त्र जैसी अनिवार्य आवश्यकताएँ पूरी करती है। मिट्टी कृषि, पशुपालन और वन व्यवसाय का आधार है। अपक्षय और अपरदन की क्रियाओं के द्वारा भू-पृष्ठ पर पायी जाने वाली शैलों में परिवर्तन होता रहता है। अपक्षय की रासायनिक, भौतिक और अन्तक्रियाओं द्वारा आवरण प्रस्तर में जो परिवर्तन और अपक्षय होता है उससे निर्मित शैल चूर्ण जो धरातल पर पाया जाता है, उसे मिट्टियाँ कहते हैं।

एम. एम. बैनट के अनुसार, शैलों तया वानस्पतिक पदार्थों के अपक्षय से प्राप्त कणों को, जो पृथ्वी के घरातल पर एकत्रित पाए जाते हैं, मिट्टी कहा जाता है। जे. एस. जोफे के अनुसार, मिट्टियां जन्तु, खनिज एवं जैविक (कार्बनिक) पदार्थों से निर्मित प्राकृतिक वस्तु होती हैं जिनमें विभिन्न मोटाई के विभिन्न संस्तर होते हैं।”

मिट्टी के निर्माण में सहायक तत्व

मिट्टी के निर्माण में निम्न कारक महत्वपूर्ण हैं-

मौलिक चट्टानें- शैलों के कणों को अपक्षय की रासायनिक व भौतिक क्रियाओं द्वारा चूर्ण पदार्थ में परिणत कर दिया जाता है और यह पदार्थ मिट्टियों के निर्माण का अंग होता है। नवीन मिट्टियों में उन मौलिक पदार्थों का प्रभाव अधिक दिखायी देता है, परन्तु प्राचीन मिट्टियों में अन्य प्रकार के मिश्रणों के कारण मौलिक चट्टानों का प्रभाव कम हो जाता है।

धरातलीय संरचना- मिट्टी के निर्माण में मौलिक चट्टानों के पश्चात् सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक, घरातलीय संरचना है। अधिक ढाल वाली भूमि में अपरदन अधिक तीव्रता से होता है, इसी कारण इस तीव्र ढाल वाले धरातल पर मिट्टी की पतली परत पायी जाती है, परन्तु कम ढाल वाले भागों में अपरदन कम तीव्र गति से होने के कारण ऐसे ढालों पर मिट्टी की मोटी परत जमा हो जाती है। मैदानी भागों में जमाव अधिक होता है। अत: इन भागों में निरन्तर जमाव से मिट्टी एकत्रित होती रहती है।

समय- मिट्टी के निर्माण में समय का अत्यधिक महत्व है। जिन मिट्टियों का विकास शीघ्र ही हुआ हो, उन्हें युवा मिट्टियाँ कहते हैं। हिमनदियों द्वारा इस प्रकार की युवा मिट्टियों का निर्माण होता है। नदी जलोढ़ के जमाव से जो मिट्टियाँ बनती हैं, उन्हें अविकसित मिट्टियाँ अथवा नवजात मिट्टियाँ कहते हैं। नयी अथवा युवा मिट्टी को परिपक्व होने में जो समय लगता है वह बहुत ही महत्वपूर्ण होता है तथा इसकी उम्र वर्षों के रूप में नहीं दी जा सकती है। परिपक्वता की दर अनेक तथ्यों पर निर्भर करती है। आर्द्र प्रदेशों की मिट्टियों को परिपक्व होने में हजारों वर्ष लग जाते हैं जबकि उष्ण कटिबन्धीय प्रदेश की मिट्टियाँ कई लाख वर्ष पुरानी हैं।


जलवायु- मिट्टी के विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक जलवायु है। आर्द्रता, ताप, पवन तीनों ही तत्व मिट्टी के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जल मिट्टी की रासायनिक और जैविक क्रियाओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण तत्व है। इन पर मुख्य रूप से वर्षा, ताप और पवनों का प्रभाव पड़ता है।

वर्षा का प्रभाव- अधिक वर्षा से मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है, उसमें लीचिंग (Leaching) क्रिया द्वारा खनिज तथा पोषक तत्व धरातल के नीचे चले जाते हैं, इस प्रकार की मिट्टियाँ विषुवत रेखीय प्रदेशों में पाई जाती हैं। कम वर्षा वाले भागों में अथवा शुष्क भागों में मिट्टी में क्षार की परत एकत्रित हो जाती है। इस प्रकार की मिट्टियाँ कृषि के लिए उपयोगी होती हैं। वर्षा की अधिकता से पेडलफर तथा कम वर्षा से पेडोकल प्रकार की मिट्टियों का विकास होता है।

ताप का प्रभाव- ताप की अधिकता से रासायनिक व जैविक क्रियाएँ तीव्र हो जाने से मिट्टी के मूल पदार्थों में परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार ताप मिट्टी के गुण को प्रभावित करता है।

पवनों का प्रभाव- पवन मिट्टी को उड़ाकर दूसरे स्थान पर ले जाकर जमा करने में सहायता करती है। चीन के उत्तरी भाग में लोयस मिट्टी के जमाव पवन द्वारा जमा किए गए क्षेत्र हैं जिनका विस्तार सैकड़ों किलोमीटर में पाया जाता है।

जैविक क्रियाएँ- मिट्टी के निर्माण में जैविक क्रियाएँ भी सहायता करती हैं। पशु एवं वनस्पति के द्वारा मिट्टियों के रूप में परिवर्तन होता है। वनस्पति से जीवांश (ह्यूमस) मिलता है। जिन मिट्टियों में वनस्पति अंश अधिक मात्रा में पाया जाता है उनका रंग तथा स्वरूप परिवर्तित हो जाता है, वे उर्वरा मिट्टियाँ होती हैं। पशु और जीव भी मिट्टियों का रूप बदलने में सहायता करते हैं।

मिट्टियों का वर्गीकरण

मिट्टी का वर्गीकरण विवादास्पद विषय है, परन्तु यह सत्य है कि मिट्टियों का वर्गीकरण कई आधार पर किया जाता रहा है। अनेक मृदा वैज्ञानिकों ने मिट्टियों का वर्गीकरण उनके रंग के आधार पर जैसे काली मिट्टी, लाल मिट्टियाँ, पीली मिट्टियाँ, किया है तो कुछ ने उसके कणों की बनावट के आधार पर बलुई मिट्टी Sandy , चिकनी मिट्टी, आदि किया है। प्रमुखत: मिट्टियों का वर्गीकरण इन आधारों पर किया जाता है-

मिट्टी के कणों की बनावट (Texture) के आधार पर- मिट्टी के कणों के मिश्रण को बनावट (Texture) कहा जाता है। यह मिट्टी के कण बारीक और मोटे होते हैं। इसी आधार पर मिट्टियों को चार प्रकारों में विभाजित किया जाता है।

  1. बालू Sand- बालू के कण 1 मिमी से 0.05 मिलीमीटर के व्यास के होते हैं, जिस मिट्टी में इस प्रकार के कणों की मात्रा 80 प्रतिशत अथवा इससे अधिक हो और मृतिका अथवा चिकनी मिट्टी का प्रतिशत 20 प्रतिशत अथवा इससे कम हो, उसे बालू कहते हैं।
  2. बलुई दोमट Sandy Loam इसमें चिकनी मिट्टी का प्रतिशत अधिक पाया जाता है। यह बलुई दोमट मिट्टी कहलाती है। इसमें 20 से 50 प्रतिशत तक बालू के कण होते हैं और 50 से 80 प्रतिशत तक चिकनी मिट्टी के कण पाए जाते हैं।
  3. दोमट Loam- इस प्रकार की मिट्टियों में चिकनी मिट्टी, गाद (silt) और बालू के कणों का मिश्रण पाया जाता है। दोमट में चिकनी मिट्टी का प्रतिशत 20 अथवा इससे कम गाद का प्रतिशत (गाद कण का व्यास .05 से .005 मिलीमीटर होता है) तथा बालू का प्रतिशत 20 से 40 होता है। जिन मिट्टियों में गाद की मात्रा अधिक होती है उसे गाद (Silt Loam) और जिसमें चिकनी मिट्टी के कणों की मात्रा अधिक होती है, उसे मृतिका दोमट (Clay Loam) कहते हैं।
  4. चिकनी मिट्टी अथवा मृतिका Clay- जिन मिट्टियों में चिकनी मिट्टी अथवा मृतिका के कणों की अधिकता होती है उसे मृतिका अथवा चिकनी मिट्टी (Clay) कहते हैं। मृतिका कणों की बनावट 0.005 मिलीमीटर के व्यास में भी कम होती है। यह सबसे बारीक कण होते हैं। ऐसी मिट्टियों में मृतिका तथा चिकनी मिट्टी की अधिकता पायी जाती है एवं थोड़ी मात्रा में ही अन्य कण (गाद और बालू के कण) होते हैं। चिकनी मिट्टी अथवा मृतिका में पानी अधिक दिनों तक सुरक्षित रहता है।

मिट्टियों का रंग के आधार पर वर्गीकरण Based on Colours

मृदा वैज्ञानिकों ने मिट्टियों को उनके रंगों के आधार पर भी वर्गीकृत किया है। मिट्टियों में यह रंग उसके मौलिक चट्टानों में मिश्रित खनिजों अथवा जीवांश की मात्रा की अधिकता और न्यूनता के आधार पर गहरा काला अथवा भूरा होता है। रंग के आधार पर मिट्टियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया गया है-

काली मिट्टी Chernozems- इस प्रकार की मिट्टियों में जीवांश तत्वों की अधिकता पायी जाती है। जीवांश तत्वों की अधिकता अथवा न्यूनता के आधार पर इन मिट्टियों का रंग हल्का अथवा भूरा काला होता है। आद्र प्रदेशों में अपर्याप्त जल निकास के कारण भी इन मिट्टियों का रंग काला पाया जाता है। लावा प्रवाह से निर्मित मिट्टियां भी काली होती हैं, जैसे भारत की रेगड़ मिट्टियाँ। ये मिट्टियाँ सर्वाधिक उपजाऊ होती हैं।

लाल मिट्टियाँ Red Soils-  जिन चट्टानों में लोहांश पाया जाता है और अपक्षय के कारण इन चट्टानों से मिट्टी का निर्माण होता है तो जल के प्रभाव से मिट्टी का रंग लाल हो जाता है। यद्यपि ये मिट्टियाँ काली मिट्टी की तुलना में कम उपजाऊ होती हैं, परन्तु अन्य मिट्टियों की तुलना में काफी अधिक उपजाऊ होती हैं।

पीली मिट्टियाँ Yellow Soils- इस प्रकार की मिट्टियों में जलयोजित लोहांश (Hydrated Iron) के मिश्रण होने से इनका रंग पीला हो जाता है ये मिट्टियां कम उपजाऊ होती हैं।

सफेद रंग की मिट्टियाँ White Soils- जिन मिट्टियों में कैल्सियम कार्बोनेट अथवा लवणों की मात्रा अधिकपायी जाती है, वे मिट्टियाँ सफेद होती हैं। ये मिट्टियाँ कम उपजाऊ होती हैं।

भूरी मिट्टियाँ Brown Soils जिन मिट्टियों में आक्सीजन, जैविक पदार्थों और लोहांश की कमी पायी जाती है, उन्हें भूरी मिट्टियाँ कहते हैं। ये मिट्टियाँ कम उपजाऊ होती हैं।

राख के रंग की मिट्टियाँ Podsols or Ashy Soils- मृदा वैज्ञानिकों के अनुसार कुछ मिट्टियों का रंग राख के समान होता है जो अधिक उपजाऊ और गहरे रंग की मिट्टियों के ऊपर विकसित होती हैं। इन्हें पोडसोल मिट्टियां कहा जाता है।

मिट्टी के परतों के गठन के आधार पर वर्गीकरण Based on Stratas

विश्व में जो मिट्टियाँ पायी जाती हैं। वे परतों के गठन के आधार पर तीन भागों में विभाजित की जाती हैं-

परतदार मिट्टियाँ- संसार में इस प्रकार की मिट्टियाँ सबसे अधिक भाग पर पायी जाती हैं जो जल निकास, जलवायु तथा वनस्पति, आदि के प्रभाव से निर्मित होती हैं। परतदार मिट्टियों में पीडसोल (Podsol) (मटमैली भूरी तथा लाल पीली पोडसोल), लैटेराइट अतिशीत प्रदेशों (टुण्ड्रा) की मिट्टियाँ, भूरी मिट्टियाँ, मरुस्थल की मटमैली मिट्टियाँ सम्मिलित की जाती हैं।

अर्द्धपरतदार मिट्टियाँ- जिन भूमि प्रदेशों में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था नहीं है उनमें इस प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं, परन्तु अन्य क्षेत्रों में भी इस प्रकार की मिट्टियाँ पाई जा सकती हैं इस प्रकार की मिट्टियाँ एक विशेष प्रकार के प्रतिरूप का अनुसरण करती हैं।

अपरतदार मिट्टियाँ- इस प्रकार की मिट्टियों में किसी प्रकार की परतें नहीं पाई जाती हैं।

वनस्पति पोषक तत्वों के आधार पर Based on floral nutrients

मिट्टी के निर्माण में वनस्पति तत्वों का प्रभाव अत्यधिक रहता है, उनके द्वारा मिट्टियों में जीवांशों के प्रभाव से उनका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है।

मिट्टियों का विश्व वितरण Distribution of soils

विश्व में मिट्टियों वनस्पति पोषक के आधार पर विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं-

ध्रुवीय क्षेत्रों की मिट्टियाँ- ध्रुवीय प्रदेशों में वनस्पति का प्रभाव पाया जाता है। वहां केवल छोटी झाड़ियाँ तथा घास पाती हैं जो अम्लीय जीवांश उत्पन्न नहीं कर पाती हैं। इन प्रदेशों में वर्षा कम होती है, यहाँ स्थायी तुषार भूमि (Permo frost) के कारण जल निकास की अवस्था उपयुक्त नहीं है, अतः यहां मिट्टियाँ प्रायः पतली पायी जाती हैं। टुण्ड्रा के शुष्क भागों में नीचे की परत कैल्सियम युक्त होती है। टुण्ड्रा प्रदेश में जल के रुके रहने के कारण जैव पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं और इस प्रकार अर्द्धदलदली मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

टैगा प्रदेश की मिट्टियाँ- कोणधारी वन प्रदेशों में यहाँ ग्रीष्म ऋतु छोटी और शीत ऋतु कठोर होती है और इस प्रदेश की प्राकृतिक वनस्पति में सदाबहार कोणधारी वन हैं। इन वनों द्वारा यहाँ उच्च अम्लीय जीवांश की उत्पत्ति होती है जिससे पोडवाल की क्रिया होने से और यहां जल निकास की उपयुक्त अवस्थाएँ हैं वहाँ लौहयुक्त पोडसोल मिट्टियाँ पायी जाती हैं। अटलाण्टिक क्षेत्र (पश्चिमी यूरोप) जहाँ वर्षा अधिक होती है, जीवांश पोडसोल मिट्टियाँ पायी जाती हैं। मध्य एशिया में जहाँ तुषार भूमि के कारण जल निकास ठीक नहीं है और भूमि के भ्रंश का लीविंग नहीं हो पाने के कारण इन भागों में पीली मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

चौड़ी पती बाले वनों की मिट्टियाँ- जहाँ ग्रीष्म ऋतु लम्बी होती है, वहाँ चौड़ी पती वाले वन पाए जाते हैं। इन वनों के द्वारा न्यून अम्लीय जीवांश की उत्पत्ति मिट्टी में होती है। इस प्रकार की मिट्टियों की मिनालन (Leaching) क्रिया कम होती है। जहाँ मूल चट्टानें चूने युक्त होती हैं अथवा वेसल्टिक होती हैं वहाँ उदासीन मिट्टियां (Neutral soils) पायी जाती हैं। चौड़ी पतियों वाले क्षेत्रों को विशेष नाम ब्रूनीसोलिक (Brunisolic) प्रदेश कहा जाता है। यह प्रदेश पश्चिमी यूरोप, पूर्वी संयुक्त राज्य अमरीका, वाशिंगटन राज्य तथा निकटवर्ती कनाडा के तटीय क्षेत्र में इस प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं। पश्चिमी यूरोप में अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रों में चूना युक्त मिट्टियाँ पायी जाती हैं, जहाँ लोयस मिट्टी के जमाव भी पाए जाते हैं। कई भागों में काली मिट्टी के क्षेत्र भी पाए जाते हैं। उत्तरी अमरीका के काली मिट्टी के संक्रामक क्षेत्र में प्रेयरी मिट्टियाँ पायी जाती हैं। अप्लेशियन क्षेत्र में अम्लीय मिट्टियाँ पायी जाती हैं। ये सारी मिट्टियाँ विशेष उपजाऊ होती हैं।

काली मिट्टी क्षेत्र- काली मिट्टी का निर्माण उन प्रदेशों में होता है, जहाँ वसन्त ऋतु शुष्क नहीं होती है तथा शीत ऋतु अधिक ठण्डी होती है और जहाँ घास मुख्य वनस्पति पायी जाती है। इस प्रकार की मिट्टियों में कहीं-कहीं चूना युक्त मिट्टियाँ भी पायी जाती हैं।

विश्व में काली मिट्टी (चरनोजम मिट्टी) के चार मुख्य क्षेत्र हैं-

  1. डेन्यूब बेसिन तथा दक्षिणी यूरोपियन रूस, यूरोप में विस्तृत क्षेत्र हैं, जहाँ काली मिट्टी का क्षेत्र पाया जाता है।
  2. उत्तरी अमरीका के विस्तृत मैदानी भाग में और कनाडा के मैदानी भाग में इस प्रकार की प्रेयरी मिट्टियाँ पायी जाती हैं।
  3. दक्षिणी अमरीका के पेम्पास प्रदेश में भी चरनोजम मिट्टियाँ पायी जाती हैं।
  4. प्रायद्वीपीय भारत के मालवा तथा दकन पठार में ये मिट्टियाँ विस्तृत क्षेत्रों में पायी जाती हैं।

सभी प्रदेशों में चरनोजम मिट्टियाँ एक प्रकार से ही निर्मित नहीं हैं। पूर्व सोवियत संघ में चरनोजम मिट्टी. चूना युक्त मिटिट्टयाँ हैं, परन्तु संयुक्त राज्य अमरीका की मिट्टियों में चूना कम पाया जाता है, जबकि अर्जेण्टाइना और प्रायद्वीपीय भारत की उपजाऊ मिट्टियाँ ज्वालामुखी उदगार से निर्मित हैं।

भूमध्यसागरीय क्षेत्र की मिट्टियाँ- जिन प्रदेशों में शुष्कता अधिक होती वहां की मिट्टियाँ अधिक गहराई तक सूख जाती हैं, जिससे निर्जलित लौह सैस्क्वी ऑक्साइड (Dehydrated iron sesqui oxides) का निर्माण होता है, जिससे यहाँ की मिट्टियों का रंग लाल हो जाता है। वृक्षों की जड़ों द्वारा इस मिट्टी में जीवांश की मात्रा उपलब्ध होती है। भूमध्यसागरीय प्रदेश अधिकांश पर्वतीय प्रदेश हैं जिससे इन मिट्टियों में चूने के पत्थर और ज्वालामुखी पदार्थ से ये मिट्टियां बनती हैं।

मरुस्थलीय मिट्टियाँ- मरुस्थल में वनस्पति का अभाव पाया जाता है। अतः मरुस्थल की मिट्ठियों में जीवांश का अभाव पाया जाता है। इस प्रकार की मिट्टियाँ अफ्रीका के संहारा और कालाहारी मरुस्थल, दक्षिण-पश्चिमी एशिया के मरुस्थल, उत्तरी अमेरिका के सोनोरान मरुस्थल, दक्षिणी अमरीका के आटाकामा मरुस्थल,पश्चिमी भारत के थार मरुस्थल, मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल में इसी प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती हैं।

केओलिनाइट मिट्टियाँ अथवा विषुवत रेखीय प्रदेशों की मिट्टियाँ- विषुवत रेखीय प्रदेशों में वर्षा की अधिकता के कारण मिट्टी में निक्षालन क्रिया द्वारा मिट्टी के अनेक खनिज नीचे भूमि में प्रवेश कर जाते हैं, ऐसे भागों में लेटेराइट मिट्टी (Laterite Soils) पायी जाती है। इन मिट्टियों में काओलिन (Kaolien) नामक खनिज पाया जाता है इसलिए इन्हें केओलिनाइट मिट्टियाँ कहते हैं।

लावा प्रदेश की मिट्टियाँ- ये एक प्रकार की अध्यारोपित मिट्टियाँ हैं। इस भू-गर्भ से ज्वालामुखी विस्फोट द्वारा दरारों के माध्यम से किसी प्रदेश विशेष के बहुत बड़े भाग में पैठिक या अल्पसिलिक लावा (Acid or Basic Lava) का जमाव हो जाता है। ये मिट्टियाँ गहरे रंग की अनेक खनिजों युक्त, प्रायः ह्यूमस रहित, किन्तु विशेष उपजाऊ होती हैं। भारत का उपजाऊ कपास की काली मिट्टी या लावा प्रदेश, वाशिंगटन का पठार, आइसलैण्ड के लावा के क्षेत्र इसके कुछ विशिष्ट उदाहरण हैं।

पर्वतीय प्रदेश की मिट्टियाँ- पर्वतीय प्रदेश में अपरदन की क्रिया महत्वपूर्ण होती है, यहाँ की मिट्टियाँ युवा होती हैं। घाटियों और पर्वतों के निकटवर्ती भागों में कछारी मिट्टियां पायी जाती हैं। जलवायु की दृष्टि से पर्वतीय भाग तीन प्रकार के होते हैं-

आर्द्र शीतोष्ण पर्वतीय क्षेत्र मिट्टी में जीवांश की मात्रा अधिक पायी जाती है तथा पोडसोल मिट्टियाँ पायी जाती हैं। कई भागों में अम्लीय जीवांश युक्त मिट्टियाँ पायी जाती हैं, कई स्थानों पर पीट मृदा (Peat ) पायी जाती हैं।

शुष्क पर्वतीय भागों की मिट्टियाँ प्रायः घास से निर्मित मिट्टियाँ होती हैं। ऐसे भागों की मिट्टियों को लिथोसोल कहा जाता है।

आर्द्र उष्णकटिबन्धीय पर्वतीय भागों में उपजकाल लम्बा होता है, मिट्टियाँ गहरी और उनमें जीवांश की मात्रा अधिक पायी जाती है। ऐसी मिट्टियां अधिक उपजाऊ होती हैं और वहां जनसंख्या भी अधिक पायी जाती है।

इस प्रकार की मिट्टियाँ राकीज, एण्डीज, काकेशस, किरयर, सुलेमान, थ्यानशान, क्युनलुन, हिमालय पर्वतीय क्षेत्रों में सर्वत्र मिलती हैं।

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