समाज- वैदिक काल Society- Vedic period

वर्णव्यवस्था ऋग्वेदकालीन समाज की व्यवस्था का प्रमुख आधार थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वाभाविक गुणों के अनुरूप कार्य के चयन की स्वतंत्रता थी। अत: व्यक्ति के कर्म का विशिष्ट महत्त्व था, क्योंकि व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण उसके कर्म से होता था। अपने गुण एवं कर्म के अनुरूप किये गये कर्त्तव्य, समाज में वर्ण-धर्म के नाम से अभिहित किये जाने लगे। वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के वृज वरणे धातु से हुई है जिसका अभिप्राय है वरण करना। इस प्रकार वर्ण से तात्पर्य किसी विशेष व्यवसाय (या वृत्ति) के चयन से लिया जाता है। ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग रंग अथवा प्रकाश के अर्थ में हुआ है। कहीं-कहीं वर्ण का सम्बन्ध ऐसे जन वर्गों से दिखाया गया है जिनका चर्म काला या गोरा है।

आर्य प्रारंभ में एक ही वर्ण के थे और आर्यों का समूह विश कहलाता था। इस समय वर्ण रंग का बोधक था। आगे चलकर दास भी उनसे जुड़ गए। इस प्रकार ऋग्वेद की प्रारंम्भिक स्थिति में समाज में दो वर्ण थे, अर्थात् आर्य और दास। इस ग्रंथ में उल्लिखित है कि उग्र प्रकृति के ऋषि अगत्स्य ने दोनों वर्णो का पोषण किया। जब उत्पादन अधिशेष की स्थिति उत्पन्न हुई तो विश का विभाजन योद्धा, पुरोहित एवं सामान्य लोगों में हो गया। इस तरह वर्ण व्यवस्था का आधार अब कर्म हो गया। ऋग्वेद में एक छात्र लिखता है- मैं कवि हूँ, मेरे पिता चिकित्सक हैं; और मेरी माता आटा पीसती है….।

ऋग्वैदिक काल में ही ब्रह्मक्षत्र की अवधारणा सामने आई, जिसका अर्थ वैसे व्यक्ति से था जो जन्म से क्षत्रिय, किन्तु कर्म से ब्राह्मण हो। इससे संकेत मिलता है कि ब्राह्मण-क्षत्रिय द्वंद्व प्रारंभ हो चुका था और क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को चुनौती दी जा रही थी। एक राजन कर्म से पुरोहित हो सकता था एवं पुरोहित राजन एवं महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय होते हुए भी वे कर्म से ब्राह्मण थे। उसी तरह ऋषि भृगु के बारे में कहा जाता कि भृगु के वंशज ने अनेकों राज्यों की स्थापना की। ऋग्वेद में ब्राह्मण की चर्चा चौदह बार हई है जबकि क्षत्रिय शब्द की चर्चा नौ बार हुई है।

शूद्र की चर्चा प्रथम बार ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में वैश्य शब्द का भी प्रथम बार प्रयोग यहीं मिलता है। इसमें चारों वर्णों ब्रह्मा के शरीर के अंगों से की गई है। ब्राह्मण की तुलना ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की भुजा से, वैश्य की जंघा से एवं शूद्र की पैर से की गई है।

रक्त संबंध सामाजिक व्यवस्था का आधार था। समाज पितृसत्तात्मक था। परिवार का मुखिया स्वाभाविक रूप में मानवीय एवं करूणाशील होता था। सिर्फ एक दो उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि घर का मुखिया कभी-कभी संतान को क्रूर रूप में भी दण्डित करता था। ऋजास्व एवं भुज्यु की कथा इस ओर इंगित करती है। ऋजास्व का आख्यान, जिसमें उसे सौ भेड़ों को गवा देने के अपराध में अपने पिता द्वारा अंधा कर दिये जाने की चर्चा मिलती है। इसके द्वारा पुत्र के ऊपर पिता का पूर्ण नियंत्रण प्रदर्शित होता है। किन्तु, इस तरह के आख्यान को अपवाद स्वरूप ही लिया जाना चाहिए क्योंकि ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर पुत्र के कल्याण की कामना में निवेदन किया गया है। वैदिक समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था थी। अत: समाज में पुत्र का विशेष महत्त्व था। पुत्र न होना दरिद्रता के समान कहा गया है। पिता की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र को संपत्ति में अधिक हिस्सा मिलता था।

विवाह वैदिक काल में पवित्र संस्कार माना जाता था जो व्यक्ति एवं सामाजिक विकास के लिए आवश्यक था। याजक कार्यों हेतु पति एवं पत्नी दोनों की उपस्थिति वांछनीय थी। अग्नि से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि- हे अग्ने, तुम कन्याओं के अर्यमा अर्थात् विधान कर्ता के तुल्य हो, तुम जब पति-पत्नी को समान मन वाला बनाते हो, तब वे तुम्हें धृत-दुग्ध द्वारा बन्धु के समान सींचते हैं। लड़कियों को अपने पति के चयन करने की स्वतंत्रता थी।

स्त्रियो की स्थिति


समाज पितृसत्तात्मक था किन्तु स्त्रियो की स्थिति अच्छी थी। बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। लड़कियों का विवाह 16 या 17 वर्ष में होता था। विधवा एवं अंतर्जातीय विवाह होता था। बहुपतित्व विवाह एवं रक्त संबंध में विवाह के कुछ चिह्न मिलते हैं, उदाहरण के लिए यमी ने अपने भाई यम से विवाह का अनुरोध किया परन्तु यम ने उसे अस्वीकार कर दिया। मरूतों ने रोदसी को मिलकर भोगा। उसी तरह अश्विन के दो भाई सूर्य की पुत्री सूर्या के साथ रहते थे। किन्तु इस विषय में हम कह सकते हैं कि यह आदिम अवस्था के अवशेष थे। वास्तव में ऋग्वैदिक काल में बहुपतित्व की प्रथा नहीं थी। संभवत: उच्च कुल के संपन्न लोग एक से अधिक पत्नियाँ रखते थे। इसलिए हम कह सकते हैं कि पुरुषों में बहुविवाह की प्रथा थी।

स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी और उन्हें भी उपनयन संस्कार का अधिकार था। बहुत-सी महिलाएँ विदुषी थीं। उदाहरण के लिए लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, विश्वारा, सिक्ता आदि। लोपामुद्रा क्षत्रिय वर्ण की थी, किन्तु उसकी शादी ऋषि अगत्स्य से हुई। तलाक, सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नीत्व का प्रचलन नहीं था। दूसरी तरफ विधवा विवाह एवं नियोग प्रथा का प्रचलन था। विदुषी महिलाओं को ऋषिका या ब्रह्मवादिनी कहा जाता था। जीवन भर अविवाहित रहने वाली लड़कियों को अमाजू कहा जाता था और इस स्थिति में यदि पुत्री पिता के घर में ही रहती है तो वह पिता की संपत्ति की हिस्सेदार होती थी। ऋग्वेद के आठवें मण्डल में अपाला के अपनी पैतृक संपत्ति में हिस्सा प्राप्ति का उल्लेख है। स्त्रियाँ सभा एवं समिति में भाग लेती थीं। साथ ही वे पति के साथ यज्ञ में भी भाग लेती थीं।

ऋग्वेद में समनो (उत्सवों) का उल्लेख है जिनमें कन्याएँ स्वयं अपनी पति को वरण कर लेती थीं। कभी-कभी शारीरिक बीमारी के कारण विवाह में विलंब भी हो सकता था। उदाहरण के लिए चर्म रोग के कारण घोषा का विवाह बहुत समय तक नहीं हुआ था।

दास व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल में दास व्यवस्था प्रचलित थी। इनके दान देने का भी उल्लेख मिलता है। दासों की तुलना में दासियों के दान के अधिक उल्लेख मिलते हैं। दासों का उपयोग घरेलू दासों के रूप में होता था। कृषि में अभी इन्हें नहीं लगाया गया था|

शिक्षा

सातवें मंडल में शिक्षा की चर्चा है। ऋग्वेदकालीन शिक्षण संस्थाओं का स्पष्ट विवेचन नहीं मिलता है, तथापि एक सूक्त से तत्कालीन शिक्षा प्रणाली के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। इस सूक्त में मेंढकों के टर्राने की तुलना गुरु द्वारा उच्चारित शब्दों के  विद्यार्थियों द्वारा सामूहिक स्वर में दोहराने से की गई है। इससे वैदिक शिक्षा प्रणाली एवं शिक्षण संस्थाओं के अस्तित्व  का बोध होता है। निश्चित रूप में इनमे वैदिक मन्त्रों की शिक्षा डी जाती होगी। इसके अतिरिक्त छंदशास्त्र, ज्यामिति, इतिहास के शिक्षण की व्यवस्था रही होगी। शिक्षा में वाद-विवाद का भी प्रचलन रहा होगा, ऐसे संकेत मिलते है। ऋग्वेद से बारह बारह महीनों की चर्चा के साथ-साथ, वर्ष विशेष में पड़ने वाले अधिक मास का उल्लेख आया है।

भोजन

ऋग्वैदिक लोगों का मुख्य भोजन पदार्थ था- अन्न, फल, दूध, दही, घी एवं मांस। नशीले पेय पदार्थों में सोम और सुरा प्रचलित थे। सोम यज्ञों के अवसर वाला नशीला पदार्थ था। ऋग्वेद के नवें मण्डल में इसकी विस्तार है। सोम का पौधा पहाड़ों पर, विशेष रूप में मुजवंत पर्वत पर उत्पन्न होता था। सुरा साधारण अवसर पर पिए जाने वाला पेय पदार्थ था। गौ को अघन्या कहा गया है। इसलिए उसका माँस निषिद्ध था किन्तु बैल, भेड़ और बकरी का माँस निषिद्ध नहीं था और जब यज्ञ के अवसर पर उनको बलि दी जाती थी तो पुरोहितों को भी उसका माँस खाना पड़ता था। घोड़े का माँस यज्ञ के अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर खाया जाता था। दूध आयों का प्रिय पेय पदार्थ था उससे दही, अमिक्षा, छाछ, नवनीत, घृत आदि तैयार किए जाते थे। नमक और मछली का प्रयोग संभवत: ऋग्वैदिक काल में नहीं होता था। ऋग्वैदिक भुने हुए दाने, हरी सब्जियाँ एवं मांस खाते थे।

वस्त्र

ऋग्वेदकालीन आर्य विभिन्न प्रकार के वस्त्र धारण करते थे। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर विविध प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख हुआ है। वस्त्र के लिए वासस्, अधिवासस, वसन आदि शब्दों का प्रयोग, आयों की वस्त्र में विशेष अभिरुचि को इंगित करता है। शरीर के ऊपरी भाग में धारण किये जाने वाला वस्त्र अधिवास तथा अधोभाग में धारण किया जाने वाला वास कहलाता था। भेड़ की ऊन से उर्णा नामक वस्त्र बनाया जाता था। उस युग में गांधार की भेड़ों की ऊन का अधिक प्रचलन था। शाल की तरह ओढ़े जाने वाले वस्त्र उत्क तथा द्रापि कहलाते थे। नीवि अथवा अधोवस्त्र से कमर के नीचे का शरीर ढंका जाता था। उष्णीस (पगड़ी) पहनने का भी प्रचलन था। ब्रह्मचारी सामान्यतया मृग चर्म धारण करते थे। अधिकांशतः सूत (क्षौम) के वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वैदिक आर्यों को सिलाई तथा कपड़े पर कसीदाकारी की कला का ज्ञान था।

मनोरंजन

संगीत मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन था। ऋग्वेद के मंडूक सूत्र में सोम रस निकालने में जुटे ब्राह्मणों के संगीतपूर्ण पाठ के उल्लेख हैं। पुरुष नर्तक को नृत्य तथा स्त्री नर्तक को नृतु कहा जाता था। ऋग्वैदिक आर्य जीवन के उल्लास के गीत गाते थे एवं मृत्यु की चर्चा शत्रुओं के अतिरिक्त अन्य किसी परिप्रेक्ष्य में नहीं करते थे। नृत्य और संगीत के अतिरिक्त रथ दौड़, शिकार और जुआ खेलना आदि भी मनोरंजन के साधन थे। ऋग्वैदिक आयों के घर लकड़ी, बांस और मिट्टी के बने होते थे। घुड़दौड़ भी मनोरंजन का साधन था। विश्वला नामक त्वरित अश्व का उल्लेख मिलता है।

रीतिरिवाज

वैदिक कालीन रीति-रिवाजों के प्रसंग में तत्कालीन समन नामक उत्सव का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। ऋग्वेद में वर्णन आया है कि जब कन्या सुन्दर है और आभूषित है तो स्वयं पुरुषों के झुण्ड में से अपना मित्र ढूंढ लेती है। एक विशेष परिधान वाधूय का प्रयोग वधू द्वारा विवाह के अवसर पर किया जाता था। नर्तकियों द्वारा विशिष्ट परिधान पेशस धारण करने का विवेचन मिलता है। कभी-कभी मुनि लोग चर्म को वस्त्र के रूप में उपयोग करते थे। आर्य लोगों की आभूषण प्रियता का विवेचन भी अनेक मन्त्रों में हुआ है। ऋग्वेद में अनेक आभूषणों के नाम मिलते हैं, गले में निष्क धारण किया जाता था। कान में कर्णशोभन एवं शीश पर कुम्ब नामक आभूषण के पहनने की प्रथा थी। इनके अतिरिक्त खादि, रुक्म, भुजबंद, केयूर, नूपुर, कण एवं मुद्रिका आदि आभूषण भी धारण किये जाते थे। एक सूक्त में अश्विनों को स्वर्ण कमल की माला पहने हुए, होने का उल्लेख किया है। पैरों में सम्भवत: कड़े के रूप में कोई आभूषण पहना जाता था।

चिकित्सा

भिषज शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में वैद्य के लिए होता था। भिषज अश्विन देवता को कहा जाता था। वे अंधे को नेत्र एवं पंगु को गति प्रदान करते थे। उन्होंने परावृज का अंधापन दूर किया। उन्होंने च्यवन ऋषि को फिर जवान बना दिया और युद्ध में जब विश्वपाल का पैर कट गया तो उन्होंने उसके कृत्रिम पैर लगाया। ऋग्वेद में कभी-कभी वरूण एवं रूद्र का भी भिषज के रूप में उल्लेख किया गया है। उस युग के चिकित्सक औषधि के साथ, जादू-टोना का भी प्रयोग करते थे। यक्ष्मा (तपेदिक) का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है।

मृतक संस्कार

ऋग्वेद के 5 सूक्तों में इसकी चर्चा है। अधिकांशत: अग्नि संस्कार होता था। अग्नि पितृ एवं देवताओं के लोक में वाहक का कार्य करती थीं। मार्ग में सवितृ मृतक का निर्देशन करते थे तथा पूषण उनकी रक्षा करते थे। अग्नि संस्कार के अतिरिक्त कभी-कभी मृतक को दफनाया भी जाता था।

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