द्वितीय विश्व युद्ध और राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया Second World War And The Nationalist Response

  • 1 सितम्बर, 1939 : जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण किया, द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ।
  • 3 सितम्बर 1939 : ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषणा की तथा ब्रिटेन ने भारतीय जनमत की सलाह के बिना युद्ध में भारत के समर्थन की घोषणा कर दी।
  • जून 1941: जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला किया तथा उसे भी युद्ध में घसीट लिया।
  • दिसम्बर 1941: जापान में पर्ल हार्बर स्थित अमेरिकी बेड़े पर अचानक हमला कर दिया।
  • मार्च 1942: जापान ने लगभग पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया पर आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात् रंगून को भी अधिग्रहित कर लिया।

युद्ध के पूर्व कांग्रेस की स्थिति

कांग्रेस, ब्रिटेन की उम्मीद से कहीं अधिक फासीवाद, नाजीवाद, सैन्यवाद तथा साम्राज्यवाद की विरोधी हो गयी। किन्तु युद्ध में कांग्रेस के समर्थन का प्रस्ताव दो आधारभूत मांगों पर आधारित थाः

  1. युद्धोपरांत संविधान सभा की बैठक आहूत की जानी चाहिये, जो स्वतंत्र भारत् की राजनीतिक संरचना पर विचार करेगी।
  2. अतिशीघ्र, केंद्र में किसी प्रकार की वास्तविक एवं उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाये।

वायसराय लिनलिथगो ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। किंतु कांग्रेस ने स्पष्ट किया कि युद्ध में भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने के लिये सरकार को उक्त मांगे मानना अत्यन्त आवश्यक है।

कांग्रेस कार्य समिति की वर्धा में आयोजित बैठक 10-14 सितम्बर, 1939

इस बैठक में भारत द्वारा ब्रिटेन को युद्ध में समर्थन देने के मुद्दे पर विभिन्न विचार प्रतिध्वनित हुये-

गांधीजी इन्होंने मित्र राष्ट्रों के प्रति सहानुभूति प्रकट की। गांधीजी का मत था कि पश्चिम यूरोप के लोकतांत्रिक राज्यों और हिटलर का नेतृत्व स्वीकार करने वाले निरंकुशतावादी राज्यों में स्पष्ट अंतर है।

सुभाषचन्द्र बोस और समाजवादी इनका तर्क था कि चूंकि यह युद्ध साम्राज्यवादी है तथा अपने-अपने हितों के लिए युद्धरत हैं, फलतः किसी एक पक्ष का समर्थन नहीं किया जा सकता। कांग्रेस को इस स्थिति का लाभ उठाकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये तुरंत सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारम्भ कर देना चाहिये।


नेहरू ने फासीवाद और लोकतंत्र के बीच स्पष्ट भेद प्रकट किया। उनका दृष्टिकोण यह था कि फ्रांस, ब्रिटेन और पोलैंड का पक्ष न्यायोचित है किन्तु फ्रांस और ब्रिटेन साम्राज्यवादी नीतियों वाले देश हैं और द्वितीय विश्वयुद्ध, प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् पूंजीवाद के गहराते हुये अंतर्विरोधों का परिणाम है। अतः भारत को स्वतंत्र होने से पूर्व न ही युद्ध में सम्मिलित होना चाहिये और न ही ब्रिटेन की परेशानियों का लाभ उठाकर आंदोलन प्रारम्भ करना चाहिये।

कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रस्ताव पारित कर फासीवाद तथा नाजीवाद की भर्त्सना की। प्रस्ताव में कहा गया कि-

  1. भारत किसी ऐसे युद्ध में सम्मिलित नहीं हो सकता, जो प्रत्यक्षतः लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के लिये लड़ा जा रहा हो, जबकि खुद उसे ही स्वतंत्रता से वंचित रखा जा रहा हो।
  2. यदि ब्रिटेन प्रजातांत्रिक मूल्यों तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिये युद्ध कर रहा है तो उसे भारत की स्वाधीनता प्रदान कर यह सिद्ध करना चाहिये।
  3. सरकार को अतिशीघ्र ही अपने युद्ध के उद्देश्यों को सार्वजनिक बनाना चाहिये तथा यह भी स्पष्ट करना चाहिये कि भारत पर किस तरह के लोकतांत्रिक सिद्धांतों को लागू किया गया था।

कांग्रेस का नेतृत्व ब्रिटिश सरकार और वायसराय को पूरा मौका देना चाहता था।

सरकार की प्रतिक्रिया

ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया आंतरिक तौर पर नकारात्मक थी। लिनलिथगो ने अपने वक्तव्य में (17 अक्टूबर, 1939) मुस्लिम लीग तथा देशी रियासतों को कांग्रेस के विरुद्ध उकसाने की कोशिश की। इस अवसर पर सरकार ने-

  • ब्रिटेन के युद्ध पर, इससे अधिक कुछ भी कहने से इन्कार कर दिया कि ब्रिटेन भेदभावपूर्ण आक्रमण का प्रतिरोध कर रहा है।
  • भविष्य के लिये यह वायदा किया कि युद्धोपरांत सरकार, भारत के कई दलों, समुदायों और हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तियों तथा भारतीय राजाओं से इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करेगी कि 1935 के भारत सरकार अधिनियम में किस प्रकार के संशोधन किये जायें।
  • आवश्यकता पड़ने पर परामर्श लेने के लिये सरकार, एक परामर्श समिति का गठन करेगी।

सरकार की गुप्त कार्यनीति

लिनलिथगो का वक्तव्य वास्तविकता से विचलन नहीं अपितु सामान्य ब्रिटिश योजना का हिस्सा था। जिसके अनुसार– “युद्ध से फायदा उठाकर खोये हुये उस आधार को पुनः प्राप्त करना, जो कि कांग्रेस के  प्रयासों के कारण सरकार के हाथ से निकल गया था”। सरकार की नीति थी कि कांग्रेस को सरकार के साथ विवादों में उलझा दिया जाये तत्पश्चात् उत्पन्न परिस्थितियों का उपयोग सत्ता को और स्थायी बनाने में किया जाये। इसी नीति के तहत युद्ध की घोषणा के उपरांत 1935 के अधिनियम में संशोधन कर केंद्र ने राज्य के विषयों में हस्तक्षेप करने के असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिये। जिस दिन युद्ध की घोषणा की गयी, उसी दिन नागरिक अधिकारों की स्वतंत्रता के दमन हेतु सरकार ने भारतीय सुरक्षा अध्यादेश देश पर थोप दिया। मई 1940 में क्रांतिकारी आंदोलन से संबंधित एक अति गुप्त अध्यादेश तैयार किया गया, इसका उद्देश्य कांग्रेस द्वारा प्रारम्भ किये जाने वाले आंदोलन को कुचलना था। इसके पीछे सरकार की मंशा थी कि वह कांग्रेस द्वारा प्रारम्भ किये गये किसी भी आंदोलन को आसानी से दबा सके तथा भारतीयों की सहानुभूति भी प्राप्त कर सके। सरकार का मानना था कि यह अध्यादेश उदारवादियों एवं वामपंथियों की सहानुभूति प्राप्त करने में रूप में प्रस्तुत करने में सफल हो जायेगी।

ब्रिटिश भारतीय सरकार की दमनकारी एवं भेदभावमूलक नीतियों का इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल एवं भारत सचिव जेटलैंड ने पूर्णरूपेण समर्थन किया। जेटलैंड ने तो कांग्रेस को विशुद्ध हिंदूवादी संगठन तक घोषित कर दिया।

धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा कि ब्रिटिश सरकार, युद्ध के पूर्व या पश्चात् अपनी उपनिवेशवादी पकड़ में किसी भी प्रकार की ढील नहीं देना चाहती तथा कांग्रेस से शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने की मंशा रखती है। अंग्रेजी सरकार द्वारा भारतीय जनमानस की उपेक्षा तथा कांग्रेस के प्रति उसके शत्रुतापूर्ण रवैये की गांधीजी ने कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि- “सरकार की भारत संबंधी घोषणा यह दर्शाती है। कि ब्रिटेन का वश चले तो वह भारत में लोकतंत्र कभी न आने दे”। अल्पसंख्यक तथा विशिष्ट वर्ग के हितों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि “कांग्रेस प्रत्येक अल्पसंख्यक तथा विशिष्ट वर्ग के हितों की रक्षा करेगी बशर्ते उनके दावों का देश की स्वाधीनता के मुद्दे से कोई टकराव नहीं होना चाहिये”।

23 अक्टूबर 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक आयोजित की गयी, जिसमें-

  • वायसराय के वक्तव्य की पुरानी साम्राज्यवादी नीति का ही हिस्सा बताकर अस्वीकार कर दिया गया।
  • युद्ध का समर्थन न करने का निर्णय किया गया।
  • कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों को त्यागपत्र देने का आदेश दिया गया।

जनवरी 1940 में लिनलिथगो ने घोषणा की कि “युद्ध के पश्चात्  डोमीनियन स्टेट्स की स्थापना, भारत में ब्रिटिश सरकार की नीति का मुख्य लक्ष्य है”।

त्वरित जन सत्याग्रह के मुद्दे पर बहसः अक्टूबर 1939 में लिनलिथगो की घोषणा के पश्चात् तुरंत जन सत्याग्रह छेड़ने के मुद्दे पर एक बार पुनः बहस प्रारम्भ हो गयी। गांधीजी एवं उनके समर्थक तुरंत आंदोलन प्रारम्भ करने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि उनका मानना था कि-

  • मित्र राष्ट्रों का पक्ष न्यायसंगत है;
  • साम्प्रदायिक संवेदनशीलता एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के अभाव में साम्प्रदायिक दंगे प्रारम्भ हो सकते हैं।
  • संगठनात्मक तौर पर कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं है तथा तत्कालीन परिस्थितियां जन सत्याग्रह के प्रतिकूल हैं; एवं
  • जनता अभी किसी भी प्रकार के संघर्ष के लिये तैयार नहीं है।

अतः इसके स्थान पर आवश्यक यह है कि सांगठनिक रूप से कांग्रेस को तैयार किया जाये तथा सरकार से तब तक विचार-विमर्श किया जाये जब तक यह सार्वजनिक न हो जाये कि विचार-विमर्श से समस्या का समाधान नहीं हो सकता तथा इसके लिये उपनिवेशिक शासन जिम्मेदार है। इसके पश्चात् ही आंदोलन प्रारम्भ किया जाना चाहिये।

कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन (मार्च 1940) में पारित किये गये प्रस्ताव में गांधीजी तथा उनके समर्थकों के इन विचारों को पूर्ण महत्ता प्रदान की गयी। इस प्रस्ताव में कहा गया कि “जैसे ही कांग्रेस संगठन संघर्ष के योग्य हो जाता है या फिर परिस्थितियां इस प्रकार बदल जाती हैं कि संघर्ष निकट दिखाई दे, वैसे ही कांग्रेस, सविनय अवज्ञा आदोलन प्रारम्भ कर देगी”।

सुभाषचन्द्र बोस और उनके फारवर्ड ब्लाक, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी तथा रायवादियों इत्यादि वामपंथी समूहों का तर्क था कि यह युद्ध एक साम्राज्यवादी युद्ध है तथा यही उचित समय है जबकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध चारों ओर से युद्ध छेड़कर स्वतंत्रता हासिल कर ली जाये। इनका मानना था कि जनता संघर्ष के लिए पूरी तरह तैयार है तथा आन्दोलन प्रारंभ किए जाने की प्रतीक्षा कर रही है। इन्होंने स्वीकार किया कि कांग्रेस में संगठन की कमजोरी तथा साम्प्रदायिक कटुता जैसी समस्यायें अवश्य विद्यमान हैं, किन्तु जनसंघर्ष के प्रवाह में ये सारी समस्यायें बह जायेंगी। इन्होंने तर्क दिया कि संगठन संघर्ष के पहले तैयार नहीं किया जाता अपितु इसका निर्माण संघर्ष प्रारम्भ होने के पश्चात् होता है। फलतः कांग्रेस की अतिशीघ्र आंदोलन प्रारम्भ कर देना चाहिये।

यहाँ तक की सुभास चन्द्र बोस ने इस बात का प्रस्ताव रखा की यदि कांग्रेस शीघ्र ही सत्याग्रह प्रारम्भ करने के मुद्दे पर उनका साथ नहीं देती तो वामपंथी उससे नाता तोड़ लें तथा समानांतर कांग्रेस का गठन कर अपनी ओर से आंदोलन प्रारम्भ करें। किन्तु कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ने सुभाष चन्द्र बोस के इस प्रस्ताव से असहमति प्रकट की।

जवाहरलाल नेहरू का झुकाव दोनों पक्षों की ओर था। एक ओर उन्हें मित्र राष्ट्रों के साम्राज्यवादी चरित्र का एहसास था तो दूसरी ओर वे ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे, जिससे यूरोप में नाजीवाद के समर्थक हिटलर की विजय आसान हो जाए। एक ओर उनकी सम्पूर्ण मंशा और राजनितिक चिंतन त्वरित आन्दोलन प्रारम्भ किये जाने को उद्यत परिलक्षित हो रहा था तो दूसरी ओर वे नाजी विरोधी संघर्ष और जापान विरोधी संघर्ष की दुर्बल बनाये जाने के पक्षधर भी नहीं थे। बहरहाल नेहरू ने अंत में कांग्रेस नेतृत्व और गांधीजी के बहुमत का समर्थन करने का ही निर्णय किया।

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